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Shri Krishan Jugnu · नौका : कुछ रोचक संदर्भ


नौका : कुछ रोचक संदर्भ

नावों का विवरण वेदों में मिलता है : दुर्गाणि विश्‍वा नावेव सिन्‍धुम्। बौधायनधर्मसूत्र में जिक्र इस तरह आया है : समुद्र संयानम्। नावाद्वीपान्‍तरगमनम्। यों तो नाव का जिक्र गीता में भी है और पवन के जोर से नाव के शीघ्र हर लिए जाने के उदाहरण के रूप में है किंतु अच्‍छा विवरण वराह‍पुराण में है जहां समुद्रमार्ग से नावों में आने वाले बहुमूल्‍य रत्‍नों का संदर्भ मिलता है। चोलों ने जब समुद्री मार्ग से सैन्‍य अभियान किया तो नौशक्ति काे बढाया गया था। सार्थों ने भी नावों का व्‍यापार के लिए प्रयोग किया…। कई संदर्भ खोजे जा सकते है।
भोजराज विरचित ‘युक्तिकल्‍पतरु’ में इसको निष्‍पद अर्थात्‍ा् पांव रहित यान कहा गया है और पारिभाषित रूप मेंं कहा कि अश्‍व आदि सारे यान पांवों वाले होते हैं किंतु नौका पानी पर ही संचालित होती है : अश्‍वादिकन्‍तु यद्यानं स्‍थले सर्व प्रतिष्ठितम्। जले नौकेव यानं स्‍यादतस्‍तां यत्‍नतो वहेत्।। ग्रंथकार ने अनेक प्रकार की नावों का जिक्र किया है जो छोटी से लेकर बड़ी तक होती है। उनके नाम भी रखे जाते थे। मध्‍यकाल में एक दौर वह भी आया जबकि वाहन के रूप मे डोला, सुखासन, पालकी, रथ-स्‍यंदन के साथ नाव काे भी एक प्रमुख वाहन के रूप में स्‍वीकारा गया। इसी काल में नावों का कुछ ज्‍यादा ही महत्‍व बढ़ा तो मुहूर्त ग्रंथों में नौका प्रयाण, नौका घटन आदि के मुहूर्त भी तय किए गए। इनमें महाराष्‍ट्र के नांदी गांव के केशव दैवज्ञ और टापर गांव के नारायण दैवज्ञ ने मुहूर्त तत्‍वम् और मुहूर्त मार्तण्‍ड मुख्‍य हैं।
शिल्‍परत्‍नम् में भी नौका निर्माण की विधि आई है और कहा गया है कि लाकुच नामक पेड़ के काष्‍ठ के फलकों से नाव को बनाया जाए और उसको उपवल्‍कल से व‍ेष्टित करना चाहिए। यह लम्‍बाई वाली हो और बांस, आम आदि के काष्‍ठों का गोलाकारीय रचना में प्रयोग किया जाना चाहिए। इसको बांधने के लिए चमड़े की रस्सियों का प्रयोग किया जाना चाहिए और जलचर की तरह उसकाे तैराया जाना चाहिए : पिनद्धश्‍चर्मणा बाह्ये प्‍लवकोsयं जलेचर:।
यह संयोग ही है कि यह वर्णन 16वीं सदी का है जबकि इससे पूर्व तो पुर्तगालियों के आगमन से नावाें के लिए ताे लोहे की चद्दरों का प्रयोग आरंभ हो गया था और ‘युुक्ति कल्‍पतरु’ में यह लिखा भी गया है : लौह ताम्रादि पत्रेण कान्‍तलौहेन वा तथा। दीर्घा चैवोन्‍नता चैति विशेषे द्विविधा भिदा।। है न रोचक बात, जो ग्रंथ 16वीं सदी में लिखा गया, उसमें लोहे के प्रयोग का वर्णन नहीं है और भोजराज जिनका समय 11वीं सदी माना गया है, उनके लिखे या उनके नाम से लिखे ग्रंथ में लोह व तांबें की चद्दरों से नाव बनाने की विधि है। यही नहीं, यह भी कहा है कि लोहे वाली नावें चुंबकों से आ‍कर्षित की जा सकती है और इससे वे संकट में पड़ जाती है। विवरण कौन सा पुराना है, विचारणीय है मगर रोचक यह भी है कि निष्‍पद नावों ने हमें समुद्रमार्ग का आनंद भी कम नहीं दिया…। (चित्र नित्‍या का उपहार है) जय – जय।

Shri Krishan Jugnu's photo.
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बड़ा खुलासा- नेताजी के आजाद हिंद फौज के खजाने की लूट में शामिल थे नेहरू!


09-subhas-chandra-bose-2 Posted by: Ankur Singh Updated: Wednesday, April 29, 2015, 10:30 [IST] Share this on your social network:    FacebookTwitterGoogle+   CommentsMail नई दिल्ली। नेताजी सुभाष चंद्र बोस की मौत से जुड़े रहस्यों से आज भी पर्दा नहीं उठ सका है। हालांकि केंद्र सरकार ने नेताजी की मौत से जुड़े दस्तावेजों को सार्वजनिक किये जाने को लेकर हाई लेवल कमेटी का गठन किया है। वहीं नेताजी के मौत के रहस्य के पर किताब लिखने वाले अनुज धर ने सनसनीखेज खुलासा किया है। टोक्यो ने कही थी आईएनए के खजाने में गड़बड़ी की बात भारत की आजादी के वर्ष 1947 की शुरुआत में ही भारत सरकार से टोक्यो ने नेताजी की आईएनएए के वित्तीय कोष के बारे में पूछताछ की थी। टोक्यो ने भारत के विदेश मंत्रालय से आइएनए के कोष में गड़बड़ी का भी आरोप लगाया था। नेताजी को युद्ध में सहायता के लिए दुनियाभर से बड़ी मात्रा में कीमती हीरे, जवाहरात सहित स्वर्ण आभूषण दिये गये थे। आखिरी यात्रा के दौरान नेताजी के पास था खजाने का बॉक्स नेताजी अपनी आखिरी यात्रा के दौरान इस खजाने को साथ लेकर यात्रा कर रहे थे। सिंगापुर से सैगोन की यात्रा के दौरान इस खजाने को अपने साथ लेकर यात्रा कर रहे थे। वहीं माना जाता है कि इसी यात्रा के दौरान 18 अगस्त 1945 को नेताजी का विमान क्रैश हो गया था और उनकी मृत्यु हो गयी थी। हालांकि बाद में यह भी कहा गया कि नेताजी यहा से सोवित रूस चले गये थे और उनकी मौत नहीं हुई थी। कहां गया आईएनए का खजाना सितंबर 1945 में लेफ्टिनेंट कर्नल मोरियो टकाकुरा जोकि जापान सेना में अधिकारी थे उन्होंने दो भारतीयों को 3 खजाने के बॉक्स टोक्यों में दिये थे। वहीं टकाकुरा को उनके एक अधिकारी ने बताया कि इन तीन बॉक्स में से एक में नेताजी की अस्थियों की राख जबकि दो बॉक्स में सोने के बिस्कुट और हीरे थे। खजाने को लेने गये भारतीय हो गये रातों रात अमीर आपको बता दें कि उनमें से एक भारतीय मुंगा राममूर्ती जोकि भारतीय स्वतंत्रता लीग का सदस्य था वो रातोंरात अमीर बन गया था। उस समय की जापान की मीडिया की खबरों पर नजर डालें तो राममूर्ती और उसके छोटे भाई को दो बड़ी कारों में घूमते थे और ऐशो आराम की जिंदगी गुजार रहे हैं। यह सब ऐसे समय पर था जब जापान दूसरे विश्व युद्ध के बाद भारी वित्तीय संकट से गुजर रहा था। सच को नहीं बताने के लिए दी गयी धमकी यही नहीं राममूर्ती ने टकाकुरा को खजाने के बॉक्स के बारे में चुप्पी साधने की भी धमकी दी थी। टकाकुरा को विश्वयुद्ध के बाद युद्ध के अपराध में सजा का डर था जिसके चलते उन्होंने इस मामले में चुप्पी साधे रखी। देश के पहले विदेश मंत्री भी शामिल इस लूट में, नेहरू को थी जानकारी वहीं दूसरा व्यक्ति जो तीन बॉक्स को लेने गया था वो एसए अयर था। प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू को पहले दिन से ही अयर के बारे में पता था जोकि तत्कालीन विदेश मंत्री भी था। अयर को आजादी को बाद में मुंबई सरकार में नियुक्त किया गया और केंद्र सरकार में शामिल होने से पहले उसे जापान एक खुफिया मिशन पर भेजा गया था। अयर को बोस की मौत के सच की खोजबीन करने के लिए भेजा गया था लेकिन उसकी संदिग्ध गतिविधियों के चलते टोक्यो में भारत के प्रमुख केके चेत्तूर ने इस मामले की जांच शुरु कर दी। चेत्तूर ने कई पत्र लिखकर इस बारे में नेहरू को अवगत कराया था। उन्होंने एक पत्र में लिखा था कि खजाने को बड़ी मात्रा में कैश में परिवर्तित कराया गया है और इसके बाद इसे कई पार्टियों में बांट दिया गया है। खुफिया पत्र में हुआ था खुलासा 20 अक्टूबर 1951 को अयर ने जापान सरकार द्वारा प्राप्त जानकारियों के आधार पर एक बेहद ही खुफिया पत्र लिखा था उस वक्त के कॉमनवेल्थ सेक्रेटरी सुबिमल दत्त को। इस पत्र के आखिरी में उन्होंने इस नेताजी की आर्मी आईएनए के खजाने की लूट का जिक्र किया है। इस पत्र से इस बात की पुष्टि होती है कि आईएनए के खजाने की लूट हुई थी। यह जानकारी उन खुफिया फाइलों से ही बाहर आयी है जिसे सरकार सार्वजनिक करने से हमेशा से कतराती रही है। 90 किलोग्राम से अधिक खजाने की हुई लूट चेत्तूर ने अपने पत्र में लिखा है कि नेताजी के पास ‘यात्रा के दौरान बड़ी मात्रा में हीरों और सोने से भरा बॉक्स था। इन सबका कुल वजन मिलाकर नेताजी के अपने वजन से भी कहीं ज्यादा था।’ बताया जाता है कि इन बॉक्स का वजन तकरीबन 90 किलो से अधिक था। चेत्तूर ने अपने पत्र में लिखा है कि भारत में एक पार्टी है जिसने अयर के कमरे में इन बॉक्स को देखा है। यहीं नही इस पार्टी को अयर ने बॉक्स के भीतर क्या है उसकी भी जानकारी दी थी। अयर ने खुद को बचाने के लिए दिया सिर्फ 300 ग्राम सोना चेत्तूर ने पत्र में लिखा है कि इन बॉक्स का क्या हुआ यह अभी भी रहस्य है। अयर ने इस बॉक्स में 300 ग्राम सोना और 260 रुपए दिये हैं। ऐसे में आपको इस बात पर कोई शक नहीं होगा, आप स्वयं इन बातों से अपना निष्कर्ष निकाल सकते हैं। लेकिन मेरा मानना कि अयर जापान खजाने की लूट के लिए आये थे और उन्होंने थोड़ा सा सोना भारत को वापस दिखाकर खुद पर सवाल उठने से भी बचाया था।  Read more about: netaji subhash chandra bose, jawahar lal nehru, corruption, loot, केंद्र सरकार, जवाहर लाल नेहरू, भ्रष्टाचार, जासूसी, नेताजी सुभाष चंद्र बोस, लूट

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गौ माता क्यों जरूरी है देखो


Vipin Khurana's photo.

गौ माता क्यों जरूरी है देखो

Posted in भारत का गुप्त इतिहास- Bharat Ka rahasyamay Itihaas

મખવંતો ઝલ્લત…..હર શકિત કુલેશાત….જય ઝાલાવાડ .


મખવંતો ઝલ્લત…..હર શકિત કુલેશાત….જય ઝાલાવાડ .

— with Bhruguraj Sinh Zala and 48 others.

History of Zalawad's photo.

આશરે વિ.સ ૧૧૦૦ ની આસપાસ સિંધના ઈશાન ખૂણેથી ઈશાવતાર કિતીૅગઢના પાટવી કુંવર હરપાલદેવ પોતાના મોસાળ પાટણ પધાયાૅ તેમના નાનાબાપૂ પાટણપતિ શ્રી ભીમદેવ~૧ (બાણાવળી) તથા નાનીમાં ઉદયામતી (જેમને વિશ્વ પ્રસિધ્ધ રાણી ની વાવ બંધાવી ) તથા મામા શ્રી કરણદેવ~૧ સોલંકી અને મામીસા મીનળદેવી ના સમયમા બાબરોભૂત પાટણ ની રૈયતને અને કરણદેવ~૧ સોલંકી ના ઝાંઝમેર વાળા રાણી ફુલાદે ને પોતાની પ્રેત અસૂરી શકિતથી રંજાડતો આ વાત ની જાણ રાજા કરણદેવે પોતાના ભાણેજ કિતીૅગઢના કુમાર હરપાલદેવ ને કરી અને તેજ મહિના ની આસો વદ~૧૪ ( કાળી ચૈદશ ) ની કાળી રાત્રીએ કુળદેવી મમૅરાદેવી ને યાદ કરી પોતાના ભાયાૅ કુળઅંબા શકિતદેવી ( પાટણ ના સોલંકી કુળ ના ફટાયા કુવર ભકતરાજ પ્રતાપસસિંહ સોલંકી ના દિકરી હતા ) ની સહાયથી બાબરાભૂત ને વશ કરી અસૂર માંથી સૂર ( બાબરોસૂર ) બનાવ્યો અને મામા કરણદેવ સોલંકી એ આપેલ વચન મુજબ એકજ રાત્રી મા લોહીનું એકપણ ટીપુ રેડીયા વિના મોસાળ પકસે મામા કરણદેવ~૧ સોલંકી પાસેથી લીધા જેમા ૫૦૦ ભાલ પ્રદેશના રાણી ફુલાદેવી ને પાછા દઈ વિ.સ ૧૧૫૬ પાટભૂમી પાટડી ગાદી સ્થાપી ઝાલા અને ઝાલાવાડ ના કિતીૅના કોટ કંડારી ધામાની ધરતી ઉપર દેવપોઢી એકાદશી ને દિ શયન થયા .
એ ઝાલાવંશ ના આધ્યપિતા બાપા હરપાલદેવ ની પ્રતીમા ધ્રાંગધરા રાજના શ્રી શકિતચોકમાં સ્થાપીત કરવાનુ સૈભાગ્ય સોઢાણવંશજ ધ્રાગધરા નરેશ ૪૫ માં ઝલ્લેશ્વર મહારાજા મયુરધ્વજસિંહજી ( મેધરાજજીબાવા ) ને પ્રાપ્ત થયુ
અને આ મહા ઉત્સવ ની પ્રતીકૃતી ને આવનાર ઈતિહાસના પાને ચિત્રના રૂપમાં કંડારવાનુ કાયૅ તેમનાજ વચેટ કુંવર જયરાજસિંહજીદેવ ( જયબાપા ) ને થયુ ….જય ઝાલાવાડ…..સ્વસ્તી….અસ્તુ

Posted in आयुर्वेद - Ayurveda

यह शरीर आयुर्वेद के मतानुसार त्रिधातु में बंटा है


कफ
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यह शरीर आयुर्वेद के मतानुसार त्रिधातु में बंटा है जब तक
शरीर में त्रिधातु (बात, पित्त, कफ) समानता की स्थिति में रहत
है, वह स्वस्थ रहता है। किन्तु, उनकी असामानता की स्थिति में
अनेकों रोगों का जन्म होता है, इस बार हम त्रिधातु के तीसरे अंग
कफ के बारे में जारकारी दे रहें हैैं। कफ चिकना, भारी, सफेद,
पिच्छिल (लेसदार) मीठा तथा शीतल(ठंडा) होता हैं। विदग्ध
(दूषित) होने पर इसका स्वाद नमकीन हो जाता है। कफ से
सम्बन्धित तकलीफ लगभग 31 प्रतिशत लोगों को रहती है।
कफ के स्थान, नाम और कर्म
आमाशय में, सिर (मस्तिष्क) में, हृदय में और सन्धियों
(जोड़ों) में रहकर शरीर की स्थिरता और पुष्टि को करता
है।
1- जो कफ आमाशय में अन्न को पतला करता है, उसे क्लेदन कहते हैं।
2- जो कफ मूर्धि (मस्तिष्क) में रहता है, वह ज्ञानेन्द्रियों को तृप्त
और स्निग्ध करता है। इसलिए
उसको स्नेहन कफ कहते हैं।
3- जो कफ कण्ठ में रहकर कण्ठ मार्ग को कोमल और मुलायम रखता है
तथा जिव्हा की रस ग्रन्थियों को क्रियाशील बनाता है और
रस व ज्ञान की शक्ति उत्पन्न करता है,उसको रसन कफ कहते हैं।
4- हृदय में (समीपत्वेन उरःस्थित)रहने वाला कफ अपनी स्निग्धता
और शीतलता से सर्वदा हृदय की रक्षा करता है। अतः उसको
अवलम्बन कफ कहते हैं।
5- सन्धियों (जोड़ों) में जो कफ रहता है, वह उन्हें सदा चिकना
रखकर कार्यक्षम बनाता है। उसको संश्लेष्मक कफ कहते है।
कफ जनित रोग
1- तन्द्रा
2- अति निद्रा
3- निद्रा
4- मुख का माधुर्य – मुख के स्वाद का मीठा होना
5- मुख लेप – मुख का कफ से लिप्त रहना
6- प्रसेतका – मुख से जल का श्राव होना
7- श्वेत लोकन – समस्त पदार्थो का सफेद दिखना
8- श्वेत विट्कता – पुरीष का श्वेत वर्ण होना
9- श्वेत मूत्रता – मूत्र के वर्ण का श्वेत होना
10- श्वेतड़वर्णता – अंगो के वर्ण का श्वेत होना
11- शैत्यता – शीत प्रतीति
12- उष्णेच्छा – उष्ण पदार्थ और उष्णता की इच्छा
13- तिक्त कामिता – कड़वे और तीखे पदार्थांे की अभिलाषा
14- मलाधिक्य – मल की अधिकता
15- बहुमूत्रता – मूत्र का अधिक आना
16- शुक्र बहुल्यता – वीर्य की अधिकता
17- आलस्य – आलस्य अधिक आना
18- मन्द बुद्धित्व – बुद्धि की मन्दता
19- तृप्ति – भोजनेच्छा का अभाव
20- घर्घर वाक्यता – वर्णांे के स्पष्टोचारण का अभाव तथा
जड़ता।
कफ प्रकोप और शमन –
मधुर (मीठा), स्निग्ध (चिकना), शीतल (ठंडा) तथा
गुरु पाकी आहारों के सेवन से प्रातःकाल में भोजन करने के उपरान्त
में परिश्रम न करने से श्लेष्मा (कफ) प्रकुपित होता है और उपरोक्त
कारणों के विपरीत आचरण करने से शान्त होता है।
कफ प्रकृति के लक्षण-
कफ प्रकृति मनुष्य की बुद्धि गंभीर होती है। शरीर
मोटा होता है तथा केश चिकने होते हैैं। उसके शरीर में बल अधिक
होता हैंे, निद्रावस्था में जलाशयों (नदी, तालाब आदि) को
देखता है, अथवा उसमें तैरता है।
कफ रोग निवारक दवायें
1-सर्दी व जुका म
o-काली मिर्च का चूर्ण एक ग्राम सुबह खाली पेट
पानी के साथ प्रतिदिन लेते रहने से सर्दी जुकाम की शिकायत दूर
होती है।
o- दो लौंग कच्ची, दो लौंग भुनी हुई को पीसकर शहद में
मिलाकर सुबह खाली पेट एवं रात्रि में खाने के आधा घंटे के बाद लें,
कफ वाली खांसी में आराम आ जायेगा।
2- श्वासनाशक कालीहल्दी
कालीहल्दी को पानी में घिसकर एक चम्मच लेप
बनायंे। साथ ही एक चम्मच शहद के साथ सुबह खाली पेट दवा
नित्य 60 दिन खाने से दमा रोग में आराम हो जाता है।
3- कफ पतला हो तथा सूखी खांसी सही हो
शिवलिंगी, पित्त पापड़ा, जवाखार, पुराना गुड़, यह
सभी बराबर भाग लेकर पीसें और जंगली बेर के बराबर गोली
बनायें। एक गोली मुख में रखकर उसका दिन में दो तीन बार रस चूसंे।
यह कफ को पतला करती है, जिससे कफ बाहर निकल जाता है तथा
सूखी खांसी भी सही होती है।
4- दमा रोग
20 ग्राम गौमूत्र अर्क में 20 ग्राम शहद मिलाकर
प्रतिदिन सुबह खाली पेट 90 दिन तक पीने से दमा रोग में आराम
हो जाता है। इसे लगातार भी लिया जा सकता है, दमा,
टी.वी. हृदय रोग एवं समस्त उदर रोगों में भी लाभकारी है।
5- कुकुर खांसी
धीमी आंच में लोहे के तवे पर बेल की पत्तियों को
डालकर भूनते-भूनते जला डालें। फिर उन्हें पीसकर ढक्कन बन्द डिब्बे में
रख लें और दिन में तीन या चार बार सुबह, दोपहर, शाम और रात
सोते समय एक माशा मात्रा में 10 ग्राम शहद के साथ चटायें, कुछ
ही दिनों के सेवन से कुकुर खांसी ठीक हो जाती हैै। यह दवा हर
प्रकार की खांसी में लाभ करती है।
6- गले का कफ
पान का पत्ता 1 नग, हरड़ छोटी 1 नग, हल्दी आधा
ग्राम, अजवायन 1 ग्राम, काला नमक आवश्यकतानुसार, एक
गिलास पानी में डालकर पकायें आधा गिलास रहने पर गरम-गरम
दिन में दो बार पियें । इससे कफ पतला होकर निकल जायेगा।
रात्रि में सरसों के तेल की मालिश गले तथा छाती व पसलियांे
में करें।
7- खांसी की दवा-
भूरी मिर्च 5 ग्राम, मुनक्का बीज निकला 20 ग्राम,
मिश्री 20 ग्राम, छोटी पीपर 5 ग्राम तथा छोटी इलायची 5
ग्राम, इन सभी को पीसकर चने के बराबर गोली बना लें। सुबह एक
गोली मुँह में डाल कर चूसें। इसी तरह दोपहर और शाम को भी चूसें।
कफ ढ़ीला होकर निकल जाता है और खांसी सही हो जाती है।
8- गला बैठना
दिन में तीन या चार बार कच्चे सुहागे की चने बराबर
मात्रा मुंह में डालकर चूसें। गला निश्चित ही खुल जाता है और
मधुर आवाज आने लगती है। गायकों के लिए यह औषधि अति उत्तम
है।
9- श्वास
पीपल की छाल को रविपुष्य या गुरुपुष्य के दिन सुबह
न्यौता देकर तोड़ लाएं और सुखाकर रख लें। माघ पूर्णिमा को
बारह बजे रात में कपिला गाय के दूध में चावल की खीर बनाकर
उसमें एक चुटकी दवा डाल लें और चांदनी रात में तीन घंटे रखकर
मरीज को खिलाएं श्वास रोग के लिए अत्यंत
लाभकारी है।

**नोट:::::::
वैसे तो सभी नुस्खे पूर्णतः निरापद हैं, परन्तु फिर भी इन्हें किसी अच्छे वैद्य से समझकर व सही दवाओं का चयन कर उचित मात्रा में सेवन करें, तो ही अच्छा रहेगा।
गलत रूप से किसी दवा का सेवन नुकसान दायक भी हो सकता है। ऐसी स्थिति में लेखक जिम्मेदार नही होंगे।
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विष्णु अरोङा's photo.
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श्री कृष्ण ने किया था एकलव्य का वध …….. मगर क्यों ???


श्री कृष्ण ने किया था एकलव्य का वध …….. मगर क्यों ???
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महाभारत काल मेँ प्रयाग (इलाहाबाद) के तटवर्ती प्रदेश मेँ सुदूर तक फैला श्रृंगवेरपुर राज्य एकलव्य के पिता निषादराज हिरण्यधनु का था। गंगा के तट पर अवस्थित श्रृंगवेरपुर उसकी सुदृढ़ राजधानी थी।
उस समय श्रृंगवेरपुर राज्य की शक्ति मगध, हस्तिनापुर, मथुरा, चेदि और चन्देरी आदि बड़े राज्योँ के समकक्ष थी। निषाद हिरण्यधनु और उनके सेनापति गिरिबीर की वीरता विख्यात थी।
निषादराज हिरण्यधनु और रानी सुलेखा के स्नेहांचल से जनता सुखी व सम्पन्न थी। राजा राज्य का संचालन आमात्य (मंत्रि) परिषद की सहायता से करता था। निषादराज हिरण्यधनु को रानी सुलेखा द्वारा एक पुत्र प्राप्त हुआ जिसका नाम “अभिद्युम्न” रखा गया। प्राय: लोग उसे “अभय” नाम से बुलाते थे।
पाँच वर्ष की आयु मेँ एकलव्य की शिक्षा की व्यवस्था कुलीयगुरूकुल मेँ की गई।
बालपन से ही अस्त्र शस्त्र विद्या मेँ बालक की लगन और एकनिष्ठता को देखते हुए गुरू ने बालक का नाम “एकलव्य” संबोधित किया। एकलव्य के युवा होने पर उसका विवाह हिरण्यधनु ने अपने एक निषाद मित्र की कन्या सुणीता से करा दिया। एकलव्य धनुर्विद्या की उच्च शिक्षा प्राप्त करना चाहता था। उस समय
धनुर्विद्या मेँ गुरू द्रोण की ख्याति थी। पर वे केवल ब्राह्मण तथा क्षत्रिय वर्ग को ही शिक्षा देते थे और शूद्रोँ को शिक्षा देने के कट्टर विरोधी थे। महाराज हिरण्यधनु ने एकलव्य को काफी समझाया कि द्रोण तुम्हे शिक्षा नहीँ देँगे। पर एकलव्य ने पिता को मनाया कि उनकी शस्त्र विद्या से प्रभावित होकर आचार्य द्रोण स्वयं उसे अपना शिष्य बना लेँगे। पर एकलव्य का
सोचना सही न था – द्रोण ने दुत्तकार कर उसे आश्रम से भगा दिया।
एकलव्य हार मानने वालोँ मेँ से न था और बिना शस्त्र शिक्षाप्राप्त तिए वह घर वापस लौटना नहीँ चाहता था।
इसलिए एकलव्य ने वन मेँ आचार्य द्रोण की एक प्रतिमा बनायी और धनुर्विद्या का अभ्यास करने लगा। शीघ्र ही उसने धनुर्विद्या मेँ निपुणता प्राप्त कर ली। एक बार द्रोणाचार्य अपने शिष्योँ और एक कुत्ते के साथ उसी वन मेँ आए। उस समय एकलव्य धनुर्विद्या का अभ्यास कर रहे थे। कुत्ता एकलव्य को देख भौकने
लगा। कुत्ते के भौंकने से एकलव्य की साधना में बाधा पड़ रही थी
अतः उसने अपने बाणों से कुत्ते का मुँह बंद कर दिया। एकलव्य ने इस कौशल से बाण चलाये थे कि कुत्ते को किसी प्रकार की चोट नहीं लगी। कुत्ता द्रोण के पास भागा। द्रोण और शिष्य ऐसी श्रेष्ठ धनुर्विद्या देख आश्चर्य मेँ पड़ गए। वे उस महान धुनर्धर की
खोज मेँ लग गए अचानक उन्हे एकलव्य दिखाई दिया जिस धनुर्विद्या को वे केवल क्षत्रिय और ब्राह्मणोँ तक सीमित रखना चाहते थे उसे शूद्रोँ के हाथोँ मेँ जाता देख उन्हेँ चिँता होने लगी।
तभी उन्हे अर्जुन को संसार का सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर बनाने के वचन की याद आयी। द्रोण ने एकलव्य से पूछा- तुमने यह धनुर्विद्या किससे सीखी? एकलव्य- आपसे आचार्य एकलव्य ने द्रोण की मिट्टी की बनी प्रतिमा की ओर इशारा किया। द्रोण ने एकलव्य से गुरू
दक्षिणा मेँ एकलव्य के दाएँ हाथ का अगूंठा मांगा एकलव्य ने अपना अगूंठा काट कर गुरु द्रोण को अर्पित कर दिया।
कुमार एकलव्य अंगुष्ठ बलिदान के बाद पिता हिरण्यधनु के पास चला आता है। एकलव्य अपने साधनापूर्ण कौशल से बिना अंगूठे के धनुर्विद्या मेँ पुन: दक्षता प्राप्त कर लेता है। आज के युग मेँ आयोजित होने वाली सभी तीरंदाजी प्रतियोगिताओँ मेँ
अंगूठे का प्रयोग नहीँ होता है, अत: एकलव्य को आधुनिक तीरंदाजी का जनक कहना उचित होगा।
पिता की मृत्यु के बाद वह श्रृंगबेर राज्य का शासक बनता हैl
अमात्य परिषद की मंत्रणा से वह न केवल अपने राज्य का संचालन करता है, बल्कि निषाद भीलोँ की एक सशक्त सेना और नौसेना गठित करता है और अपने राज्य की सीमाओँ का विस्तार करता
है।
विष्णु पुराण और हरिवंश पुराण में उल्लिखित है कि निषाद वंश का राजा बनने के बाद एकलव्य ने जरासंध की सेना की तरफ से मथुरा पर आक्रमण कर यादव सेना का लगभग सफाया कर दिया था। यादव वंश में हाहाकर मचने के बाद जब कृष्ण ने दाहिने हाथ में महज चार अंगुलियों के सहारे धनुष बाण चलाते हुए एकलव्य को देखा तो उन्हें इस दृश्य पर विश्वास ही नहीं हुआ।
एकलव्य अकेले ही सैकड़ों यादव वंशी योद्धाओं को रोकने में सक्षम था। इसी युद्ध में कृष्ण ने छल से एकलव्य का वध किया था। उसका पुत्र केतुमान महाभारत युद्ध में भीम के हाथ से मारा गया था।
जब युद्ध के बाद सभी पांडव अपनी वीरता का बखान कर रहे थे तब कृष्ण ने अपने अर्जुन प्रेम की बात कबूली थी।
कृष्ण ने अर्जुन से स्पष्ट कहा था कि “तुम्हारे प्रेम में मैंने क्या-क्या नहीं किया है। तुम संसार के सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर कहलाओ इसके लिए मैंने द्रोणाचार्य का वध करवाया, महापराक्रमी कर्ण को कमजोर किया और न चाहते हुए भी तुम्हारी जानकारी के बिना भील पुत्र एकलव्य को भी वीरगति दी ताकि तुम्हारे रास्ते में कोई बाधा ना आए”।

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हिंदू सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य


हिंदू सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य (Hindu Emperor Chandragupta Maurya)

चंद्रगुप्त मौर्य का जन्म 340 ईसापूर्व को पाटलिपुत्र में हुआ था ,वह पहला मौर्य सम्राट था और अखंड भारत पर भी राज करने वाला करने वाला पहला सम्राट था ।
जन्म से ही वह गरीब था ,उसके पिता की मृत्यु उसके जन्म से पहले ही हो गई थी,कुछ लेखो के अनुसार वह अंतिम नंद सम्राट धनानंद का पुत्र था और उसकी माँ का नाम मुरा था ।
हर ग्रंथ में मतभेद है चंद्रगुप्त की उत्पत्ति को लेकर ।
बोद्ध ग्रंथ अनुसार चंद्रगुप्त मौर्य मोरिया नाम के काबिले से ताल्लुक रखता था जो शाक्यो के रिश्तेदार थे ।
मुरा या तो काबिले के सरदार की लड़की थी या धनानंद की दासी थी ।
10 वर्ष की उम्र में उसकी माँ मुरा की मृत्यु हो गई थी और तब चाणक्य नाम के ब्राह्मण ने अनाथ चंद्रगुप्त को पाला ।
चाणक्य को धनानंद से बदला लेना था और नंद के भ्रष्ट राज को ख़त्म करना था ।
चाणक्य ने चंद्रगुप्त सम्राट जैसी बात देखि और इसीलिए वे उसे तक्षिला ले गए ।
तक्षिला में ज्ञान प्राप्ति के बाद चाणक्य और चंद्रगुप्त ने पहले तो तक्षिला पर विजय पाई और आस पास के कई कबीलों और छोटे राज्यों को एक कर पाटलिपुत्र पर हमला किया ।
सिक्किम के कुछ काबिले मानते है की उनके पुरखे चंद्रगुप्त मौर्य की सेना में थे ।
320 ईसापूर्व में चंद्रगुप्त मौर्य मगध का सम्राट बन चूका था ।
इसके बाद उसने कई युद्ध लड़े और सम्पूर्ण भारतीय उपमहाद्वीप पर एकछत्र राज किया ।
298 ईसापूर्व में चंद्रगुप्त मौर्य की मृत्यु हो गई ।
हिंदू और बोद्ध ग्रंथ चंद्रगुप्त मौर्य के अंतिम दिनों के बारे में कुछ नहीं लिखते पर कुछ जैन लेखो के अनुसार चंद्रगुप्त मौर्य जैन भिक्षु बन गया था और कई दिनों तक उपवास रखने के कारण उसकी मृत्यु हो गई ।
पर केवल जैन ग्रंथ के आधार पर कैसे कहे की चंद्रगुप्त मौर्य ने जैन धर्म अपना लिया था ??
जैन ग्रंथो में राम को जैन कहा गया है,सम्राट भारत को भी ,सम्राट अजातशत्रु को भी और प्राचीन काल में कुछ जैन तो गौतम बुध को भी जैन मानते थे पर यह सब जैन नहीं थे ।
हो सकता हो की जैन ग्रंथो की बात सही हो या गलत भी हो सकती है ।
जैन कथाओ के अनुसार चंद्रगुप्त मौर्य ने 16 सपने देखे थे और उन सपनो का अर्थ जानने चंद्रगुप्त दिगंबर पंथ के जैन गुरु भद्रबाहु के पास गए ।
भद्रबाहु ने चंद्रगुप्त को उन सपनो का अर्थ बताया फिर चंद्रगुप्त मौर्य जैन बन गया ।
इसके बाद अपने पुत्र बिंदुसार को राजा बना कर चंद्रगुप्त मौर्य भद्रबाहु के साथ चले गए ।
पर जैन कवी हेमचन्द्र के अनुसार भद्रबाहु की मृत्यु चंद्रगुप्त मौर्य के राज के 12वे वर्ष में ही हो गई थी ,तो चंद्रगुप्त किसके साथ गए थे ??
बचपन से ही चंद्रगुप्त चाणक्य के साथ रहा था और हिंदू धर्म का उसपर काफी असर था ।
चाणक्य के अर्थशास्त्र में विष्णु की आराधना करने की बात कही गई है ।
चंद्रगुप्त के काल के सिक्को पर हमें जैन प्रभाव कही नज़र नहीं आता जबकि हमें उसके सिक्को पर राम,लक्ष्मन और सीता के चित्र मिलते है ।
चित्र नंबर 1,2 और 3 देखे
इनमे आपको 3 मानवों की आकृति दिखेगी जो राम,लक्ष्मन और सीता के है ।(नंबर 1 चित्र का नाम है GH 591)
अब सम्राट अशोक ने बोद्ध धर्म अपनाया था और उसके सिक्को पर आप बोद्ध प्रभाव देख सकते है ।
चित्र नंबर 4 देखे ,आपको बोद्ध धर्म चक्र नज़र आयेगा ।
यदि चंद्रगुप्त जैन था तो उसके सिक्को में जैन चिन्ह क्यों नहीं है ??

केवल एक मत के आधार पर चंद्रगुप्त मौर्य को जैन कहना ठीक नहीं ।

— with Ram Sarathe and 15 others.

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मध्य प्रदेश का उज्जैन शहर


मध्य प्रदेश का उज्जैन शहर न सिर्फ अपने विश्व प्रसिद्ध मंदिरों के लिए जाना जाता है बल्कि यहां कई ऐसे रहस्यमय स्थान भी हैं, जो लोगों को बरबस ही अपनी ओर खींचते हैं। उज्जैन में ऐसा ही एक स्थान है राजा भृर्तहरि की गुफा। यह गुफा मुख्य नगर से थोड़ी दूरी पर शिप्रा नदी के तट पर एक सुनसान क्षेत्र में स्थित है। यह गुफा नाथ संप्रदाय के साधुओं का साधना स्थल है। गुफा के अंदर जाने का रास्ता काफी छोटा है।
गुफा में प्रवेश करते ही सांस लेने में कठिनाई महसूस होती है। गुफा की ऊंचाई भी काफी कम है, अत: अंदर जाते समय काफी सावधानी रखना होती है। यहां प्रकाश भी काफी कम है, अंदर रोशनी के लिए बल्ब लगे हुए हैं। इसके बावजूद गुफा में अंधेरा दिखाई देता है। गुफा में भर्तृहरि की प्रतिमा के सामने एक धुनी भी है, जिसकी राख हमेशा गर्म ही रहती है। राजा भृर्तहरि के साधना स्थल के सामने ही एक अन्य गुफा भी है। मान्यता है कि इस गुफा से चारों धामों के लिए रास्ता जाता है।

जानिए कौन थे राजा भृर्तहरि
प्राचीन उज्जैन को उज्जयिनी के नाम से जाना जाता था। उज्जयिनी के परम प्रतापी राजा हुए थे विक्रमादित्य। विक्रमादित्य के पिता महाराज गंधर्वसेन थे और उनकी दो पत्नियां थीं। एक पत्नी के पुत्र विक्रमादित्य और दूसरी पत्नी के पुत्र थे भर्तृहरि। गंधर्वसेन के बाद उज्जैन का राजपाठ भर्तृहरि को प्राप्त हुआ, क्योंकि भर्तृहरि विक्रमादित्य से बड़े थे। राजा भर्तृहरि धर्म और नीतिशास्त्र के ज्ञाता थे। प्रचलित कथा के अनुसार राजा भर्तृहरि अपनी पत्नी पिंगला से बहुत प्रेम करते थे। एक दिन जब राजा भृर्तहरि को पता चला की रानी पिंगला किसी ओर पर मोहित है तो उनके मन में वैराग्य उत्पन्न हो गया और वे राजपाठ छोड़कर गुरु गोरखनाथ के शिष्य बन गए।

रानी ने दिया था राजा भृर्तहरि को धोखा
प्रचलित कथा के अनुसार एक बार राजा भृर्तहरि शिकार करने जंगल में गए। वहां उन्होंने एक हिरन का शिकार किया। तभी वहां से गुरु गोरखनाथ गुजरे। जब उन्होंने राजा भृर्तहरि को शिकार करते देखा तो उन्होंने कहा कि जब तुम किसी प्राणी को जीवित नहीं कर सकते तो उसे मारने का भी तुम्हें कोई अधिकार नहीं है। तब राजा भृर्तहरि ने कहा कि यदि आप इस मृत हिरन को पुनः जीवित कर दें तो मैं आपकी शरण में आ जाऊंगा।
भृर्तहरि के ऐसा कहने पर गुरु गोरखनाथ ने अपनी तपस्या के बल पर उस मृत हिरन को पुनर्जीवित कर दिया, लेकिन राजा भृर्तहरि का मन अब भी अपनी सबसे सुंदर रानी पिंगला के प्रेम में उलझा हुआ था। गुरु गोरखनाथ राजा के मन की बात जान गए। उन्होंने राजा को एक फल दिया और कहा कि इसे खाने से तुम सदैव जवान बने रहोगे, कभी बुढ़ापा नहीं आएगा, सदैव सुंदरता बनी रहेगी। राजा भृर्तहरि ने यह फल अपनी सबसे प्रिय रानी पिंगला को दे दिया, ताकि वह सदैव सुंदर व जवान रहे।
रानी पिंगला भर्तृहरि पर नहीं बल्कि उसके राज्य के कोतवाल पर मोहित थी। यह बात राजा नहीं जानते थे। जब राजा ने वह चमत्कारी फल रानी को दिया तो रानी ने सोचा कि यह फल यदि कोतवाल खाएगा तो वह लंबे समय तक उसकी इच्छाओं की पूर्ति कर सकेगा। रानी ने यह सोचकर चमत्कारी फल कोतवाल को दे दिया। वह कोतवाल एक वेश्या से प्रेम करता था और उसने चमत्कारी फल उसे दे दिया। ताकि वेश्या सदैव जवान और सुंदर बनी रहे।
वेश्या ने फल पाकर सोचा कि यदि वह जवान और सुंदर बनी रहेगी तो उसे यह गंदा काम हमेशा करना पड़ेगा। नर्क समान जीवन से मुक्ति नहीं मिलेगी। इस फल की सबसे ज्यादा जरूरत हमारे राजा को है। राजा हमेशा जवान रहेगा तो लंबे समय तक प्रजा को सभी सुख-सुविधाएं देता रहेगा। यह सोचकर उसने चमत्कारी फल राजा को दे दिया। राजा वह फल देखकर हतप्रभ रह गए। राजा ने वेश्या से पूछा कि यह फल उसे कहा से प्राप्त हुआ।
वेश्या ने बताया कि यह फल उसे कोतवाल ने दिया है। भर्तृहरि ने तुरंत कोतवाल को बुलवा लिया। सख्ती से पूछने पर कोतवाल ने बताया कि यह फल उसे रानी पिंगला ने दिया है। जब भर्तृहरि को पूरी सच्चाई मालूम हुई तो वह समझ गया कि पिंगला उसे धोखा दे रही है। पत्नी के धोखे से भर्तृहरि के मन में वैराग्य जाग गया और वे अपना संपूर्ण राज्य अपने छोटे भाई विक्रमादित्य को सौंपकर गुरु गोरखनाथ की शरण में आ गए। मान्यता है कि गुरु गोरखनाथ के कहने पर राजा भृर्तहरि ने इसी गुफा में वर्षों तक घोर तपस्या की थी।
भृर्तहरि की तपस्या से इंद्र भी हो गए थे भयभीत
राजा भृर्तहरि की कठोर तपस्या से देवराज इंद्र भी भयभीत हो गए थे। इंद्र ने सोचा की भृर्तहरि वरदान पाकर स्वर्ग पर आक्रमण करेंगे। यह सोचकर इंद्र ने भृर्तहरि पर एक विशाल पत्थर गिरा दिया। तपस्या में बैठे भृर्तहरि ने उस पत्थर को एक हाथ से रोक लिया और तपस्या में बैठे रहे। इसी प्रकार कई वर्षों तक तपस्या करने से उस पत्थर पर भर्तृहरि के पंजे का निशान बन गया।
यह निशान आज भी भर्तृहरि की गुफा में राजा की प्रतिमा के ऊपर वाले पत्थर पर दिखाई देता है। पंजे का यह निशान काफी बड़ा है, जिसे देखकर सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि राजा भृर्तहरि की कद-काठी कितनी विशाल रही होगी। भृर्तहरि ने वैराग्य पर वैराग्य शतक की रचना की, जो कि काफी प्रसिद्ध है। इसके साथ ही भृर्तहरि ने श्रृंगार शतक और नीति शतक की भी रचना की। यह तीनों ही शतक आज भी उपलब्ध हैं।

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  • Kailash Vaishnav अदभुत ज्ञान मिला । आगे भी ऐसी ही ज्ञान की जानकारी की आशा रखता हु आपसे
  • Madhu Saxena इस कथा पर फ़िल्म भी बन चुकी है शायद सन् 50 के आसपास ।मेरी माँ इसके बारे में बताया करती थी ।बाबा गोरखनाथ ने राजा को शिष्य बनाने से पहले शर्त रखी थी की अपनी पत्नी को मैया कह कर भिक्षा मांगें । तो राजा ने वहीँ किया और राजा को साधू के वेश में देखकर रानी पSee More
  • Geetanjali Geet हम लोग जब भर्तरि गुफा देखने जाया करते थे तब केवल इतना मालूम था इन्द्रदेव ने राजा भर्तरि की तपस्या भंग करने के लिए उन पर शिला गिराई उस शिला को थामे रखने पर राजा भर्तरि के पंजे के निशान उस पर बन गए..आज पूरी कहानी पता चली शुक्रिया
  • Harshadkumar Kadia Bharathari Cave Ujjain-

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  • Bharat Soni On 19-4-2015 I visited Ujjain and this cave.

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Posted in आओ संस्कृत सीखे.

हमारे जीवन में पानी का बहुत महत्व है


हमारे जीवन में पानी का बहुत महत्व है, क्योंकि पानी के बिना जीवन संभव ही नहीं है। धर्म ग्रंथों में भी पानी से संबंधित कई महत्वपूर्ण बातें बताई गई हैं। उसके अनुसार जिस घर में पानी का दुरुपयोग होता है वहां सदैव धन का अभाव रहता है और धन की देवी मां लक्ष्मी भी ऐसे घर में नहीं ठहरतीं। यही बात वास्तु शास्त्र में भी कही गई है। जानिए पानी का कैसा दुरुपयोग करने पर या उसे गंदा करने पर मां लक्ष्मी रुठ जाती हैं-

1. वास्तु शास्त्र के अनुसार जिस घर के नलों में व्यर्थ पानी टपकता रहता है। उस घर में सदा धन का अभाव रहता है। नल से व्यर्थ टपकते पानी की आवाज उस घर के आभा मंडल को भी प्रभावित करती है। इसलिए इस बात का विशेष ध्यान रखना चाहिए कि घर के नलों से पानी व्यर्थ नहीं टपके।

2. स्कंदपुराण के अनुसार-
मलं मूत्रं पुरीषं च श्लेश्म: निष्ठीनाश्रु च।
गण्डूषाश्चैव मुञ्चन्ति ये ते ब्रह्ममहणै: समा:।।
अर्थात जो मनुष्य नदी, तालाब या कुंओं के जल में मल-मूत्र, थूक, कुल्ला करते हैं या उसमें कचरा फेंकते हैं, उनको ब्रह्महत्या का पाप लगता है। साथ ही ऐसे लोग कभी संपन्न नहीं होते।

3. हमारे धर्म शास्त्रों में एवं पुराणों में जल को बचाने के लिए जल को अंजली (हाथों से) से पीने को निषेध बताया गया है।
न वार्यञ्जलिना पिबेत-मनुस्मृति,स्कंदपुराण
जलं पिबेन्नाञ्जलिना-याज्ञववल्क्यस्मृति
क्योंकि इससे जल पीने में कम अंजली के आस पास से ढुलता ज्यादा है। इस संबंध में एक कथा भी प्रचलित है- समुद्र मंथन के समय लक्ष्मीजी से पहले उनकी बड़ी बहन अलक्ष्मी अर्थात दरिद्रता उत्पन्न हुई थी। उनको रहने के लिए स्थान बताते समय लोमश ऋषि ने जो स्थान बताए थे उनमें एक स्थान यह भी था कि जिस घर में जल का व्यय ज्यादा किया जाता हो वहां तुम अपने पति अधर्म के साथ सदैव निवास करना। अर्थात जिस घर में पानी को व्यर्थ बहाया जाता है, वहां दरिद्रता अपने पति अधर्म के साथ निवास करती है।

4. बहुत से लोगों को रात में भी स्नान करने की आदत होती है। किंतु शास्त्रों में रात के स्नान को निषिद्ध माना गया है।
निशायां चैव न स्नाचात्सन्ध्यायां ग्रहणं विना।
अर्थात- रात के समय स्नान नहीं करना चाहिए। जिस दिन ग्रहण हो केवल उस दिन ही रात के समय स्नान करना उचित रहता है। रात के समय स्नान करना जल का दुरुपयोग करने के समान है। जो भी जल का ऐसा दुरुपयोग करता है, उसके घर में सदैव धन का अभाव रहता है।

5. श्रीमद्भागवत में एक प्रसंग आता है जब गोपियां निर्वस्त्र होकर यमुना में स्नान कर रही होती हैं तब श्रीकृष्ण कहते हैं-
यूयं विवस्त्रा यदपो धृतव्रता व्यगाहतैत्तदु देवहेलनम्।
बद्ध्वाञ्जलिं मूध्न्र्यपनुत्तयेंहस: कृत्वा नमोधो वसनं प्रगृह्यताम्।।
श्रीकृष्ण ने अपनी परमप्रिय गोपियों से कहा कि तुमने निर्वस्त्र होकर यमुना नदी में स्नान किया इससे जल के देवता वरुण और यमुनाजी दोनों का अपमान हुआ अत:दोनों हाथ जोड़कर उनसे क्षमा मांगों।
भगवान इस प्रसंग से हमें ये सीख देते हैं कि जहां पर भी संग्रहित जल हो उस स्थान के स्वामी वरुण देवता होते है। उसको गंदा करने से या दूषित करने से जल के देवता का अपमान होता है व ऐसे लोग सदैव धन के अभाव में जीते हैं।

— with Sanjay Katariya and 48 others.

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Posted in संस्कृत साहित्य

जानिए किस भगवान को चढ़ता है कौन सा फूल?


जानिए किस भगवान को चढ़ता है कौन सा फूल?

भगवान अपने भक्त को छप्पन प्रकार का भोग लगा कर पूजा करने के लिए नहीं कहते हैं. वे तो केवल आपके सच्चे भक्ति-भाव से ही प्रसन्न हो जाते हैं. महाभारत में भी भगवान श्रीकृष्ण को दुर्योधन ने भोजन के लिए आमंत्रित किया तो कृष्ण उसका तिरस्कार कर विदुर के घर शाक-पात खाने को पहुंच गए. एक पुरानी कहावत है कि भक्त अपने सामर्थ से ‘पान का पत्ता न सही, पान का डंठल ही सही’ सच्चे मन से चढ़ाता है तो प्रभु खुश हो जाते हैं. प्रभु की सच्ची भक्ति और उपासना के लिए यह जरूरी है कि भक्तगण को यह ज्ञात हो कि किस देवी-देवता को कौन सा चढ़ावा प्रिय है.??
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आज बात करेंगे कि किस देवी-देवता को कौन सा फूल अति प्रिय है. मान्यता है कि प्रभु के प्रिय फूल को चढ़ाने से वह शीघ्र प्रसन्न होते हैं और भक्तों की मनोकामना पूरी करते हैं. देवों के इस श्रेणी में सबसे पहले पूजे जाने वाले श्री गणेशजी की बात करते हैं.

भगवान गणेश

देवों में सर्वप्रथम भगवान गणेशजी को तुलसी छोड़कर हर तरह के फूल पसंद है. खास बात यह है कि गणपति को दूब अधिक प्रिय है. दूब की फुनगी में 3 या 5 पत्त‍ियां हों, तो ज्यादा अच्छा रहता है. ध्यान रहे कि गणेशजी पर तुलसी कभी न चढ़ाएं.

भगवान महादेव

भोले बाबा को सभी सुगंधित पुष्प पंसद हैं. चमेली, श्वेत कमल, शमी, मौलसिरी, पाटला, नागचंपा, शमी, खस, गूलर, पलाश, बेलपत्र, केसर उन्हें खास प्रिय हैं. धतूरा और बेलपत्र महादेव को खास प्रिय हैं.

भगवान विष्णु

यदि आप भगवान विष्णु के भक्त हैं तो उन्हें तुलसी अर्पित करें. भगवान विष्णु को तुलसी बहुत पसंद है. काली तुलसी और गौरी तुलसी, उन्हें दोनों ही पंसद हैं. तुलसी के साथ कमल, बेला, चमेली, गूमा, खैर, शमी, चंपा, मालती, कुंद आदि फूल विष्णु को प्रिय हैं.

हनुमान जी

महावीर हनुमानजी को लाल फूल चढ़ाना ज्यादा अच्छा रहता है. वैसे उन्हें कोई भी सुगंधित फूल चढ़ाया जा सकता है.

सूर्य भगवान सूर्य को आक का फूल सबसे ज्यादा प्रिय है. मान्यता है कि अगर सूर्य को एक आक का फूल अर्पण कर दिया जाए, तो सोने की 10 अशर्फियां चढ़ाने का फल मिल जाता है. उड़हुल, कनेल, शमी, नीलकमल, लाल कमल, बेला, मालती आदि चढ़ाए है. ध्यान रहे कि सूर्य पर धतूरा, अपराजिता, अमड़ा और तगर कभी न चढ़ाएं.

माता गौरी और दुर्गा

आम तौर पर भगवान शंकर को जो भी फूल पसंद हैं, देवी पार्वती को वे सभी फूल चढ़ाए जा सकते हैं. सभी लाल फूल और सुगंधित सभी सफेद फूल भगवती को विशेष प्रिय हैं. बेला, चमेली, केसर, श्वेत कमल, पलाश, चंपा, कनेर, अपराजित आदि फूलों से भी देवी की पूजा की जाती है. आक और मदार के फूल केवल दुर्गाजी को ही चढ़ाना चाहिए, अन्य किसी देवी को नहीं. दुर्गाजी पर दूब कभी न चढ़ाएं. लक्ष्मीजी को कमल का फूल चढ़ाने का विशेष महत्व है.

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