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जानें, दो बार क्‍यों जलाई गई थी शहीद भगत सिंह की चिता


जानें, दो बार क्‍यों जलाई गई थी शहीद भगत सिंह की चिता

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By: Inextlive |Publish Date: Mon 23-Mar-2015 11:49:59   |  Modified Date: Mon 23-Mar-2015 12:20:43

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शहीद-ए-आजम भगत सिं‍ह के बारे में कितने लोग इस तथ्‍य को जानते हैं कि इस शहीद की चिता तक को एक बार नहीं बल्कि दो बार जलाया गया था. ये बिल्‍कुल सच है. उनके शव को दो बार आग के हवाले किया गया था. आज शहीद दिवस पर आइये जानें क्‍या है इस राज का सच.

जानें, दो बार क्‍यों जलाई गई थी शहीद भगत सिंह की चिता

आसान नहीं था ये फ‍िरंगियों के लिए भी
ऐसा नहीं है कि आजादी की जंग में मतवाले दीवानों को मौत के घाट उतारना फ‍िरंगियों के लिए काफी आसान था. बल्कि आजादी के इन दीवानों की मौत से जुड़ा पहला सच तो यह है कि शहीद-ए-आजम भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरू को अंग्रेजों ने जनता के विद्रोह के डर से फांसी के तय समय से एक दिन पहले ही फांसी पर लटका दिया था. उसके बाद इन जालिम अंग्रेजों ने बेहद बर्बरता के साथ उनके शवों के टुकड़े-टुकड़े करके उसे सतलुज नदी के किनारे स्थित हुसैनीवाला के पास जलाया था, लेकिन स्‍वदेश के लोगों को इन वीर सपूतों का ये अपमान असहनीय गुजरा. सो इसके बाद स्‍वेदशियों ने अगाध सम्‍मान के साथ इन वीर सपूतों का अंतिम संस्‍कार लाहौर में रावी नदी के किनारे किया.

बेहद अमानवीय तरीके से किए शवों के टुकड़े
बताया जाता है कि 23 मार्च 1931 को इन तीनों सेनानियों को फांसी पर लटकाने और शवों के टुकड़े करने के बाद अंग्रेज चुपचाप उन्‍हें सतलुज नदी के किनारे हुसैनीवला के पास ले गए. यहां उनके शवों को बेहद अमानवीय तरीके से आग के हवाले कर दिया.

हजारों की भीड़ को देख भाग खड़े हुए अंग्रेज
इसी दौरान यहां लाला लाजपत राय की बेटी पार्वती देवी और भगत सिंह की बहन बीबी अमर कौर समेत हजारों की संख्‍या में लोग इकट्ठा हो गए. इतनी बड़ी भीड़ को वहां देख अंग्रेज उनके शवों को अधजला छोड़कर भाग निकले. इसके आगे की जानकारी शहीद-ए-आजम भगत सिंह पर कई पुस्तकें लिख चुके प्रोफेसर चमनलाल देते हैं. उन्‍होंने बताया कि अंग्रेजों के वहां भागने के बाद लोगों ने तीनों शहीदों के अधजले शवों को आग से बाहर निकाला. उसके बाद फिर उन्हें लाहौर ले जाया गया.

लाहौर में बेहद सम्‍मान के साथ निकाली गई शव यात्रा
यहां लाहौर में आकर तीनों शहीदों की बेहद सम्‍मान के साथ अर्थियां बनाई गईं. उसके बाद 24 मार्च की शाम हजारों की भीड़ ने पूरे सम्मान के साथ उनकी शव यात्रा निकाली और फ‍िर उनका अंतिम संस्कार रावी नदी के किनारे किया. रावी नदी के किनारे उनके अंतिम संस्‍कार की ये वो जगह थी जहां लाला लाजपत राय का अंतिम संस्कार किया गया था. प्रोफेसर चमन लाल बताते हैं कि रावी नदी के किनारे हुए इस अंतिम संस्कार का व्यापक वर्णन सुखदेव के भाई मथुरा दास थापर ने अपनी किताब ‘मेरे भाई सुखदेव’ में किया है.

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ताजमहल एक शिव मंदिर


ताजमहल एक शिव मंदिर
“ताजमहल में शिव का पाँचवा रूप अग्रेश्वर महादेव नागनाथेश्वर विराजित है”

श्री पी.एन. ओक अपनी पुस्तक “Tajmahal is a Hindu Temple Palace” में 100 से भी अधिक प्रमाण देकर सिद्ध किया कि ताजमहल वास्तव में शिव मंदिर है जिसका असली नाम तेजोमहालय है। श्री पी.एन. ओक जी ने भारत के विकृत इतिहास को पुर्नोत्‍थान और सही दिशा में ले जाने का किया है। मुगलो और अग्रेजो के समय मे जिस प्रकार भारत के इतिहास के साथ जिस प्रकार छेड़छाड की गई और आज वर्तमान तक मे की जा रही है, उसका विरोध और सही प्रस्तुतिकारण करने वाले प्रमुख इतिहासकारो में पुरूषोत्तम नागेश ओक जी का नाम लिया जाता है।

सरकार ”ताजमहल”की जाँच कराये.कब तक हम गुलामी का झूठा इतिहास पढेगे. यह राष्‍ट्रीय शर्म है ?
”Tajmahal is a Hindu Temple” श्री पी.एन. ओक ने लिखा है कि ताजमहल शिव मंदिर है जिसका असली नाम तेजो महालय है। इस सम्बंध में उनके द्वारा दिये गये प्रमाणों का हिंदी रूपांतरण इस प्रकार हैं –

”ताजमहल” के नाम पर प्रमाण >>> – (क्रम संख्‍या 1 से 8 तक)

1. शाहज़हां और यहां तक कि औरंगज़ेब के शासनकाल तक में भी कभी भी किसी शाही दस्तावेज एवं अखबार आदि में ताजमहल शब्द का उल्लेख नहीं आया है। ताजमहल को ताज-ए-महल समझना हास्यास्पद है।

2. शब्द ताजमहल के अंत में आये ‘महल’ मुस्लिम शब्द है ही नहीं, अफगानिस्तान से लेकर अल्जीरिया तक किसी भी मुस्लिम देश में एक भी ऐसी इमारत नहीं है जिसे कि महल के नाम से पुकारा जाता हो।

3. साधारणतः समझा जाता है कि ताजमहल नाम मुमताजमहल, जो कि वहां पर दफनाई गई थी, के कारण पड़ा है। यह बात कम से कम दो कारणों से तर्कसम्मत नहीं है – पहला यह कि शाहजहां के बेगम का नाम मुमताजमहल था ही नहीं, उसका नाम मुमताज़-उल-ज़मानी था और दूसरा यह कि किसी इमारत का नाम रखने के लिय मुमताज़ नामक औरत के नाम से “मुम” को हटा देने का कुछ मतलब नहीं निकलता।

4. चूँकि महिला का नाम मुमताज़ था जो कि ज़ अक्षर मे समाप्त होता है न कि ज में (अंग्रेजी का Z न कि J), भवन का नाम में भी ताज के स्थान पर ताज़ होना चाहिये था (अर्थात् यदि अंग्रेजी में लिखें तो Taj के स्थान पर Taz होना था)।

5. शाहज़हां के समय यूरोपीय देशों से आने वाले कई लोगों ने भवन का उल्लेख ‘ताज-ए-महल’ के नाम से किया है जो कि उसके शिव मंदिर वाले परंपरागत संस्कृत नाम तेजोमहालय से मेल खाता है। इसके विरुद्ध शाहज़हां और औरंगज़ेब ने बड़ी सावधानी के साथ संस्कृत से मेल खाते इस शब्द का कहीं पर भी प्रयोग न करते हुये उसके स्थान पर पवित्र मकब़रा शब्द का ही प्रयोग किया है।

6. मकब़रे को कब्रगाह ही समझना चाहिये, न कि महल। इस प्रकार से समझने से यह सत्य अपने आप समझ में आ जायेगा कि कि हुमायुँ, अकबर, मुमताज़, एतमातुद्दौला और सफ़दरजंग जैसे सारे शाही और दरबारी लोगों को हिंदू महलों या मंदिरों में दफ़नाया गया है।

7. और यदि ताज का अर्थ कब्रिस्तान है तो उसके साथ महल शब्द जोड़ने का कोई तुक ही नहीं है।

8. चूँकि ताजमहल शब्द का प्रयोग मुग़ल दरबारों में कभी किया ही नहीं जाता था, ताजमहल के विषय में किसी प्रकार की मुग़ल व्याख्या ढूंढना ही असंगत है। ‘ताज’ और ‘महल’ दोनों ही संस्कृत मूल के शब्द हैं।

फिर उन्‍होने इसको मंदिर कहे जाने की बातो को तर्कसंगत तरीके से बताया है (क्रम संख्‍या 9 से 17 तक)

9. ताजमहल शिव मंदिर को इंगित करने वाले शब्द तेजोमहालय शब्द का अपभ्रंश है। तेजोमहालय मंदिर में अग्रेश्वर महादेव प्रतिष्ठित थे।

10. संगमरमर की सीढ़ियाँ चढ़ने के पहले जूते उतारने की परंपरा शाहज़हां के समय से भी पहले की थी जब ताज शिव मंदिर था। यदि ताज का निर्माण मक़बरे के रूप में हुआ होता तो जूते उतारने की आवश्यकता ही नहीं होती क्योंकि किसी मक़बरे में जाने के लिये जूता उतारना अनिवार्य नहीं होता।

11. देखने वालों ने अवलोकन किया होगा कि तहखाने के अंदर कब्र वाले कमरे में केवल सफेद संगमरमर के पत्थर लगे हैं जबकि अटारी व कब्रों वाले कमरे में पुष्प लता आदि से चित्रित पच्चीकारी की गई है। इससे साफ जाहिर होता है कि मुमताज़ के मक़बरे वाला कमरा ही शिव मंदिर का गर्भगृह है।

12. संगमरमर की जाली में 108 कलश चित्रित उसके ऊपर 108 कलश आरूढ़ हैं, हिंदू मंदिर परंपरा में 108 की संख्या को पवित्र माना जाता है।

13. ताजमहल के रख-रखाव तथा मरम्मत करने वाले ऐसे लोग भी हैं जिन्होंने कि प्राचीन पवित्र शिव लिंग तथा अन्य मूर्तियों को चौड़ी दीवारों के बीच दबा हुआ और संगमरमर वाले तहखाने के नीचे की मंजिलों के लाल पत्थरों वाले गुप्त कक्षों, जिन्हें कि बंद (seal) कर दिया गया है, के भीतर देखा है।

14. भारतवर्ष में 12 ज्योतिर्लिंग है। ऐसा प्रतीत होता है कि तेजोमहालय उर्फ ताजमहल उनमें से एक है जिसे कि नागनाथेश्वर के नाम से जाना जाता था क्योंकि उसके जलहरी को नाग के द्वारा लपेटा हुआ जैसा बनाया गया था। जब से शाहज़हां ने उस पर कब्ज़ा किया, उसकी पवित्रता और हिंदुत्व समाप्त हो गई।

15. वास्तुकला की विश्वकर्मा वास्तुशास्त्र नामक प्रसिद्ध ग्रंथ में शिवलिंगों में ‘तेज-लिंग’ का वर्णन आता है। ताजमहल में ‘तेज-लिंग’ प्रतिष्ठित था इसीलिये उसका नाम तेजोमहालय पड़ा था।

16. आगरा नगर, जहां पर ताजमहल स्थित है, एक प्राचीन शिव पूजा केन्द्र है। यहां के धर्मावलम्बी निवासियों की सदियों से दिन में पाँच शिव मंदिरों में जाकर दर्शन व पूजन करने की परंपरा रही है विशेषकर श्रावन के महीने में। पिछले कुछ सदियों से यहां के भक्तजनों को बालकेश्वर, पृथ्वीनाथ, मनकामेश्वर और राजराजेश्वर नामक केवल चार ही शिव मंदिरों में दर्शन-पूजन उपलब्ध हो पा रही है। वे अपने पाँचवे शिव मंदिर को खो चुके हैं जहां जाकर उनके पूर्वज पूजा पाठ किया करते थे। स्पष्टतः वह पाँचवाँ शिवमंदिर आगरा के इष्टदेव नागराज अग्रेश्वर महादेव नागनाथेश्वर ही है जो कि तेजोमहालय मंदिर उर्फ ताजमहल में प्रतिष्ठित थे।

17. आगरा मुख्यतः जाटों की नगरी है। जाट लोग भगवान शिव को तेजाजी के नाम से जानते हैं। The Illustrated Weekly of India के जाट विशेषांक (28 जून, 1971) के अनुसार जाट लोगों के तेजा मंदिर हुआ करते थे। अनेक शिवलिंगों में एक तेजलिंग भी होता है जिसके जाट लोग उपासक थे। इस वर्णन से भी ऐसा प्रतीत होता है कि ताजमहल भगवान तेजाजी का निवासस्थल तेजोमहालय था।

भारतीय प्रामाणिक दस्तावेजो से यह मकबरा नहीं सिद्ध होता है ( क्रम संख्‍या18 से 24 तक)

18. बादशाहनामा, जो कि शाहज़हां के दरबार के लेखाजोखा की पुस्तक है, में स्वीकारोक्ति है (पृष्ठ 403 भाग 1) कि मुमताज को दफ़नाने के लिये जयपुर के महाराजा जयसिंह से एक चमकदार, बड़े गुम्बद वाला विशाल भवन (इमारत-ए-आलीशान व गुम्ब़ज) लिया गया जो कि राजा मानसिंह के भवन के नाम से जाना जाता था।

19. ताजमहल के बाहर पुरातत्व विभाग में रखे हुये शिलालेख में वर्णित है कि शाहज़हां ने अपनी बेग़म मुमताज़ महल को दफ़नाने के लिये एक विशाल इमारत बनवाया जिसे बनाने में सन् 1631 से लेकर 1653 तक 22 वर्ष लगे। यह शिलालेख ऐतिहासिक घपले का नमूना है। पहली बात तो यह है कि शिलालेख उचित व अधिकारिक स्थान पर नहीं है। दूसरी यह कि महिला का नाम मुमताज़-उल-ज़मानी था न कि मुमताज़ महल। तीसरी, इमारत के 22 वर्ष में बनने की बात सारे मुस्लिम वर्णनों को ताक में रख कर टॉवेर्नियर नामक एक फ्रांसीसी अभ्यागत के अविश्वसनीय रुक्के से येन केन प्रकारेण ले लिया गया है जो कि एक बेतुकी बात है।

20. शाहजादा औरंगज़ेब के द्वारा अपने पिता को लिखी गई चिट्ठी को कम से कम तीन महत्वपूर्ण ऐतिहासिक वृतान्तों में दर्ज किया गया है, जिनके नाम ‘आदाब-ए-आलमगिरी’, ‘यादगारनामा’ और ‘मुरुक्का-ए-अकब़राबादी’ (1931 में सैद अहमद, आगरा द्वारा संपादित, पृष्ठ 43, टीका 2) हैं। उस चिट्ठी में सन् 1662 में औरंगज़ेब ने खुद लिखा है कि मुमताज़ के सातमंजिला लोकप्रिय दफ़न स्थान के प्रांगण में स्थित कई इमारतें इतनी पुरानी हो चुकी हैं कि उनमें पानी चू रहा है और गुम्बद के उत्तरी सिरे में दरार पैदा हो गई है। इसी कारण से औरंगज़ेब ने खुद के खर्च से इमारतों की तुरंत मरम्मत के लिये फरमान जारी किया और बादशाह से सिफ़ारिश की कि बाद में और भी विस्तारपूर्वक मरम्मत कार्य करवाया जाये। यह इस बात का साक्ष्य है कि शाहज़हाँ के समय में ही ताज प्रांगण इतना पुराना हो चुका था कि तुरंत मरम्मत करवाने की जरूरत थी।

21. जयपुर के भूतपूर्व महाराजा ने अपनी दैनंदिनी में 18 दिसंबर, 1633 को जारी किये गये शाहज़हां के ताज भवन समूह को मांगने के बाबत दो फ़रमानों (नये क्रमांक आर. 176 और 177) के विषय में लिख रखा है। यह बात जयपुर के उस समय के शासक के लिये घोर लज्जाजनक थी और इसे कभी भी आम नहीं किया गया।

22. राजस्थान प्रदेश के बीकानेर स्थित लेखागार में शाहज़हां के द्वारा (मुमताज़ के मकबरे तथा कुरान की आयतें खुदवाने के लिये) मरकाना के खदानों से संगमरमर पत्थर और उन पत्थरों को तराशने वाले शिल्पी भिजवाने बाबत जयपुर के शासक जयसिंह को जारी किये गये तीन फ़रमान संरक्षित हैं। स्पष्टतः शाहज़हां के ताजमहल पर जबरदस्ती कब्ज़ा कर लेने के कारण जयसिंह इतने कुपित थे कि उन्होंने शाहज़हां के फरमान को नकारते हुये संगमरमर पत्थर तथा (मुमताज़ के मकब़रे के ढोंग पर कुरान की आयतें खोदने का अपवित्र काम करने के लिये) शिल्पी देने के लिये इंकार कर दिया। जयसिंह ने शाहज़हां की मांगों को अपमानजनक और अत्याचारयुक्त समझा। और इसीलिये पत्थर देने के लिये मना कर दिया साथ ही शिल्पियों को सुरक्षित स्थानों में छुपा दिया।

23. शाहज़हां ने पत्थर और शिल्पियों की मांग वाले ये तीनों फ़रमान मुमताज़ की मौत के बाद के दो वर्षों में जारी किया था। यदि सचमुच में शाहज़हां ने ताजमहल को 22 साल की अवधि में बनवाया होता तो पत्थरों और शिल्पियों की आवश्यकता मुमताज़ की मृत्यु के 15-20 वर्ष बाद ही पड़ी होती।

24. और फिर किसी भी ऐतिहासिक वृतान्त में ताजमहल, मुमताज़ तथा दफ़न का कहीं भी जिक्र नहीं है। न ही पत्थरों के परिमाण और दाम का कहीं जिक्र है। इससे सिद्ध होता है कि पहले से ही निर्मित भवन को कपट रूप देने के लिये केवल थोड़े से पत्थरों की जरूरत थी। जयसिंह के सहयोग के अभाव में शाहज़हां संगमरमर पत्थर वाले विशाल ताजमहल बनवाने की उम्मीद ही नहीं कर सकता था।

विदेशी और यूरोपीय अभ्यागतों के अभिलेख द्वारा मत स्‍पष्‍ट करना ( क्रम संख्‍या 25 से 29 तक)
25. टॉवेर्नियर, जो कि एक फ्रांसीसी जौहरी था, ने अपने यात्रा संस्मरण में उल्लेख किया है कि शाहज़हां ने जानबूझ कर मुमताज़ को ‘ताज-ए-मकान’, जहाँ पर विदेशी लोग आया करते थे जैसे कि आज भी आते हैं, के पास दफ़नाया था ताकि पूरे संसार में उसकी प्रशंसा हो। वह आगे और भी लिखता है कि केवल चबूतरा बनाने में पूरी इमारत बनाने से अधिक खर्च हुआ था। शाहज़हां ने केवल लूटे गये तेजोमहालय के केवल दो मंजिलों में स्थित शिवलिंगों तथा अन्य देवी देवता की मूर्तियों के तोड़फोड़ करने, उस स्थान को कब्र का रूप देने और वहाँ के महराबों तथा दीवारों पर कुरान की आयतें खुदवाने के लिये ही खर्च किया था। मंदिर को अपवित्र करने, मूर्तियों को तोड़फोड़ कर छुपाने और मकब़रे का कपट रूप देने में ही उसे 22 वर्ष लगे थे।

26. एक अंग्रेज अभ्यागत पीटर मुंडी ने सन् 1632 में (अर्थात् मुमताज की मौत को जब केवल एक ही साल हुआ था) आगरा तथा उसके आसपास के विशेष ध्यान देने वाले स्थानों के विषय में लिखा है जिसमें के ताज-ए-महल के गुम्बद, वाटिकाओं तथा बाजारों का जिक्र आया है। इस तरह से वे ताजमहल के स्मरणीय स्थान होने की पुष्टि करते हैं।

27. डी लॉएट नामक डच अफसर ने सूचीबद्ध किया है कि मानसिंह का भवन, जो कि आगरा से एक मील की दूरी पर स्थित है, शाहज़हां के समय से भी पहले का एक उत्कृष्ट भवन है। शाहज़हां के दरबार का लेखाजोखा रखने वाली पुस्तक, बादशाहनामा में किस मुमताज़ को उसी मानसिंह के भवन में दफ़नाना दर्ज है।

28. बेर्नियर नामक एक समकालीन फ्रांसीसी अभ्यागत ने टिप्पणी की है कि गैर मुस्लिम लोगों का (जब मानसिंह के भवन को शाहज़हां ने हथिया लिया था उस समय) चकाचौंध करने वाली प्रकाश वाले तहखानों के भीतर प्रवेश वर्जित था। उन्होंने चांदी के दरवाजों, सोने के खंभों, रत्नजटित जालियों और शिवलिंग के ऊपर लटकने वाली मोती के लड़ियों को स्पष्टतः संदर्भित किया है।

29. जॉन अल्बर्ट मान्डेल्सो ने (अपनी पुस्तक `Voyages and Travels to West-Indies’ जो कि John Starkey and John Basset, London के द्वारा प्रकाशित की गई है) में सन् 1638 में (मुमताज़ के मौत के केवल 7 साल बाद) आगरा के जन-जीवन का विस्तृत वर्णन किया है परंतु उसमें ताजमहल के निर्माण के बारे में कुछ भी नहीं लिखा है जबकि सामान्यतः दृढ़तापूर्वक यह कहा या माना जाता है कि सन् 1631 से 1653 तक ताज का निर्माण होता रहा है।

संस्कृत शिलालेख का प्रमाण >>> ( क्रम संख्‍या 30)

30. एक संस्कृत शिलालेख भी ताज के मूलतः शिव मंदिर होने का समर्थन करता है। इस शिलालेख में, जिसे कि गलती से बटेश्वर शिलालेख कहा जाता है (वर्तमान में यह शिलालेख लखनऊ अजायबघर के सबसे ऊपर मंजिल स्थित कक्ष में संरक्षित है) में संदर्भित है, “एक विशाल शुभ्र शिव मंदिर भगवान शिव को ऐसा मोहित किया कि उन्होंने वहाँ आने के बाद फिर कभी अपने मूल निवास स्थान कैलाश वापस न जाने का निश्चय कर लिया।” शाहज़हां के आदेशानुसार सन् 1155 के इस शिलालेख को ताजमहल के वाटिका से उखाड़ दिया गया। इस शिलालेख को ‘बटेश्वर शिलालेख’ नाम देकर इतिहासज्ञों और पुरातत्वविज्ञों ने बहुत बड़ी भूल की है क्योंकि क्योंकि कहीं भी कोई ऐसा अभिलेख नहीं है कि यह बटेश्वर में पाया गया था। वास्तविकता तो यह है कि इस शिलालेख का नाम ‘तेजोमहालय शिलालेख’ होना चाहिये क्योंकि यह ताज के वाटिका में जड़ा हुआ था और शाहज़हां के आदेश से इसे निकाल कर फेंक दिया गया था।

शाहज़हां के कपट का एक सूत्र Archealogiical Survey of India Reports (1874 में प्रकाशित) के पृष्ठ 216-217, खंड 4 में मिलता है जिसमें लिखा है, great square black balistic pillar which, with the base and capital of another pillar….now in the grounds of Agra,…it is well known, once stood in the garden of Tajmahal”.

थॉमस ट्विनिंग की अनुपस्थित गजप्रतिमा के सम्‍बन्‍ध में कथन (क्रम संख्‍या 31)

31. ताज के निर्माण के अनेक वर्षों बाद शाहज़हां ने इसके संस्कृत शिलालेखों व देवी-देवताओं की प्रतिमाओं तथा दो हाथियों की दो विशाल प्रस्तर प्रतिमाओं के साथ बुरी तरह तोड़फोड़ करके वहाँ कुरान की आयतों को लिखवा कर ताज को विकृत कर दिया, हाथियों की इन दो प्रतिमाओं के सूंड आपस में स्वागतद्वार के रूप में जुड़े हुये थे, जहाँ पर दर्शक आजकल प्रवेश की टिकट प्राप्त करते हैं वहीं ये प्रतिमाएँ स्थित थीं। थॉमस ट्विनिंग नामक एक अंग्रेज (अपनी पुस्तक “Travels in India A Hundred Years ago” के पृष्ठ 191 में) लिखता है, “सन् 1794 के नवम्बर माह में मैं ताज-ए-महल और उससे लगे हुये अन्य भवनों को घेरने वाली ऊँची दीवार के पास पहुँचा। वहाँ से मैंने पालकी ली और….. बीचोबीच बनी हुई एक सुंदर दरवाजे जिसे कि गजद्वार (‘COURT OF ELEPHANTS’) कहा जाता था की ओर जाने वाली छोटे कदमों वाली सीढ़ियों पर चढ़ा।”

कुरान की आयतों के पैबन्द (क्रम संख्‍या 32 व 33 द्वारा)
32. ताजमहल में कुरान की 14 आयतों को काले अक्षरों में अस्पष्ट रूप में खुदवाया गया है किंतु इस इस्लाम के इस अधिलेखन में ताज पर शाहज़हां के मालिकाना ह़क होने के बाबत दूर दूर तक लेशमात्र भी कोई संकेत नहीं है। यदि शाहज़हां ही ताज का निर्माता होता तो कुरान की आयतों के आरंभ में ही उसके निर्माण के विषय में अवश्य ही जानकारी दिया होता।

33. शाहज़हां ने शुभ्र ताज के निर्माण के कई वर्षों बाद उस पर काले अक्षर बनवाकर केवल उसे विकृत ही किया है ऐसा उन अक्षरों को खोदने वाले अमानत ख़ान शिराज़ी ने खुद ही उसी इमारत के एक शिलालेख में लिखा है। कुरान के उन आयतों के अक्षरों को ध्यान से देखने से पता चलता है कि उन्हें एक प्राचीन शिव मंदिर के पत्थरों के टुकड़ों से बनाया गया है।

वैज्ञानिक पद्धति कार्बन 14 द्वारा जाँच >>>>>>

34. ताज के नदी के तरफ के दरवाजे के लकड़ी के एक टुकड़े के एक अमेरिकन प्रयोगशाला में किये गये कार्बन 14 जाँच से पता चला है कि लकड़ी का वो टुकड़ा शाहज़हां के काल से 300 वर्ष पहले का है, क्योंकि ताज के दरवाजों को 11वी सदी से ही मुस्लिम आक्रामकों के द्वारा कई बार तोड़कर खोला गया है और फिर से बंद करने के लिये दूसरे दरवाजे भी लगाये गये हैं, ताज और भी पुराना हो सकता है। असल में ताज को सन् 1115 में अर्थात् शाहज़हां के समय से लगभग 500 वर्ष पूर्व बनवाया गया था।

बनावट तथा वास्तुशास्त्रीय तथ्य द्वारा जॉच (क्रम संख्‍या 35 से 39 तक)

35. ई.बी. हॉवेल, श्रीमती केनोयर और सर डब्लू.डब्लू. हंटर जैसे पश्चिम के जाने माने वास्तुशास्त्री, जिन्हें कि अपने विषय पर पूर्ण अधिकार प्राप्त है, ने ताजमहल के अभिलेखों का अध्ययन करके यह राय दी है कि ताजमहल हिंदू मंदिरों जैसा भवन है। हॉवेल ने तर्क दिया है कि जावा देश के चांदी सेवा मंदिर का ground plan ताज के समान है।

36. चार छोटे छोटे सजावटी गुम्बदों के मध्य एक बड़ा मुख्य गुम्बद होना हिंदू मंदिरों की सार्वभौमिक विशेषता है।

37. चार कोणों में चार स्तम्भ बनाना हिंदू विशेषता रही है। इन चार स्तम्भों से दिन में चौकसी का कार्य होता था और रात्रि में प्रकाश स्तम्भ का कार्य लिया जाता था। ये स्तम्भ भवन के पवित्र अधिसीमाओं का निर्धारण का भी करती थीं। हिंदू विवाह वेदी और भगवान सत्यनारायण के पूजा वेदी में भी चारों कोणों में इसी प्रकार के चार खम्भे बनाये जाते हैं।

38. ताजमहल की अष्टकोणीय संरचना विशेष हिंदू अभिप्राय की अभिव्यक्ति है क्योंकि केवल हिंदुओं में ही आठ दिशाओं के विशेष नाम होते हैं और उनके लिये खगोलीय रक्षकों का निर्धारण किया जाता है। स्तम्भों के नींव तथा बुर्ज क्रमशः धरती और आकाश के प्रतीक होते हैं। हिंदू दुर्ग, नगर, भवन या तो अष्टकोणीय बनाये जाते हैं या फिर उनमें किसी न किसी प्रकार के अष्टकोणीय लक्षण बनाये जाते हैं तथा उनमें धरती और आकाश के प्रतीक स्तम्भ बनाये जाते हैं, इस प्रकार से आठों दिशाओं, धरती और आकाश सभी की अभिव्यक्ति हो जाती है जहाँ पर कि हिंदू विश्वास के अनुसार ईश्वर की सत्ता है।

39. ताजमहल के गुम्बद के बुर्ज पर एक त्रिशूल लगा हुआ है। इस त्रिशूल का का प्रतिरूप ताजमहल के पूर्व दिशा में लाल पत्थरों से बने प्रांगण में नक्काशा गया है। त्रिशूल के मध्य वाली डंडी एक कलश को प्रदर्शित करता है जिस पर आम की दो पत्तियाँ और एक नारियल रखा हुआ है। यह हिंदुओं का एक पवित्र रूपांकन है। इसी प्रकार के बुर्ज हिमालय में स्थित हिंदू तथा बौद्ध मंदिरों में भी देखे गये हैं। ताजमहल के चारों दशाओं में बहुमूल्य व उत्कृष्ट संगमरमर से बने दरवाजों के शीर्ष पर भी लाल कमल की पृष्ठभूमि वाले त्रिशूल बने हुये हैं। सदियों से लोग बड़े प्यार के साथ परंतु गलती से इन त्रिशूलों को इस्लाम का प्रतीक चांद-तारा मानते आ रहे हैं और यह भी समझा जाता है कि अंग्रेज शासकों ने इसे विद्युत चालित करके इसमें चमक पैदा कर दिया था। जबकि इस लोकप्रिय मानना के विरुद्ध यह हिंदू धातुविद्या का चमत्कार है क्योंकि यह जंगरहित मिश्रधातु का बना है और प्रकाश विक्षेपक भी है। त्रिशूल के प्रतिरूप का पूर्व दिशा में होना भी अर्थसूचक है क्योकि हिंदुओं में पूर्व दिशा को, उसी दिशा से सूर्योदय होने के कारण, विशेष महत्व दिया गया है. गुम्बद के बुर्ज अर्थात् (त्रिशूल) पर ताजमहल के अधिग्रहण के बाद ‘अल्लाह’ शब्द लिख दिया गया है जबकि लाल पत्थर वाले पूर्वी प्रांगण में बने प्रतिरूप में ‘अल्लाह’ शब्द कहीं भी नहीं है।

ठोस प्रमाण >>> (क्रमांक 40 से 48 तक)

40. शुभ्र ताज के पूर्व तथा पश्चिम में बने दोनों भवनों के ढांचे, माप और आकृति में एक समान हैं और आज तक इस्लाम की परंपरानुसार पूर्वी भवन को सामुदायिक कक्ष (community hall) बताया जाता है जबकि पश्चिमी भवन पर मस्ज़िद होने का दावा किया जाता है। दो अलग-अलग उद्देश्य वाले भवन एक समान कैसे हो सकते हैं? इससे सिद्ध होता है कि ताज पर शाहज़हां के आधिपत्य हो जाने के बाद पश्चिमी भवन को मस्ज़िद के रूप में प्रयोग किया जाने लगा। आश्चर्य की बात है कि बिना मीनार के भवन को मस्ज़िद बताया जाने लगा। वास्तव में ये दोनों भवन तेजोमहालय के स्वागत भवन थे।

41. उसी किनारे में कुछ गज की दूरी पर नक्कारख़ाना है जो कि इस्लाम के लिये एक बहुत बड़ी असंगति है (क्योंकि शोरगुल वाला स्थान होने के कारण नक्कारख़ाने के पास मस्ज़िद नहीं बनाया जाता)। इससे इंगित होता है कि पश्चिमी भवन मूलतः मस्ज़िद नहीं था। इसके विरुद्ध हिंदू मंदिरों में सुबह शाम आरती में विजयघंट, घंटियों, नगाड़ों आदि का मधुर नाद अनिवार्य होने के कारण इन वस्तुओं के रखने का स्थान होना आवश्यक है।

42. ताजमहल में मुमताज़ महल के नकली कब्र वाले कमरे की दीवालों पर बनी पच्चीकारी में फूल-पत्ती, शंख, घोंघा तथा हिंदू अक्षर ॐ चित्रित है। कमरे में बनी संगमरमर की अष्टकोणीय जाली के ऊपरी कठघरे में गुलाबी रंग के कमल फूलों की खुदाई की गई है। कमल, शंख और ॐ के हिंदू देवी-देवताओं के साथ संयुक्त होने के कारण उनको हिंदू मंदिरों में मूलभाव के रूप में प्रयुक्त किया जाता है।

43. जहाँ पर आज मुमताज़ का कब्र बना हुआ है वहाँ पहले तेज लिंग हुआ करता था जो कि भगवान शिव का पवित्र प्रतीक है। इसके चारों ओर परिक्रमा करने के लिये पाँच गलियारे हैं। संगमरमर के अष्टकोणीय जाली के चारों ओर घूम कर या कमरे से लगे विभिन्न विशाल कक्षों में घूम कर और बाहरी चबूतरे में भी घूम कर परिक्रमा किया जा सकता है। हिंदू रिवाजों के अनुसार परिक्रमा गलियारों में देवता के दर्शन हेतु झरोखे बनाये जाते हैं। इसी प्रकार की व्यवस्था इन गलियारों में भी है।

44. ताज के इस पवित्र स्थान में चांदी के दरवाजे और सोने के कठघरे थे जैसा कि हिंदू मंदिरों में होता है। संगमरमर के अष्टकोणीय जाली में मोती और रत्नों की लड़ियाँ भी लटकती थीं। ये इन ही वस्तुओं की लालच थी जिसने शाहज़हां को अपने असहाय मातहत राजा जयसिंह से ताज को लूट लेने के लिये प्रेरित किया था।

45. पीटर मुंडी, जो कि एक अंग्रेज था, ने सन् में, मुमताज़ की मौत के एक वर्ष के भीतर ही चांदी के दरवाजे, सोने के कठघरे तथा मोती और रत्नों की लड़ियों को देखने का जिक्र किया है। यदि ताज का निर्माणकाल 22 वर्षों का होता तो पीटर मुंडी मुमताज़ की मौत के एक वर्ष के भीतर ही इन बहुमूल्य वस्तुओं को कदापि न देख पाया होता। ऐसी बहुमूल्य सजावट के सामान भवन के निर्माण के बाद और उसके उपयोग में आने के पूर्व ही लगाये जाते हैं। ये इस बात का इशारा है कि मुमताज़ का कब्र बहुमूल्य सजावट वाले शिव लिंग वाले स्थान पर कपट रूप से बनाया गया।

46. मुमताज़ के कब्र वाले कक्ष फर्श के संगमरमर के पत्थरों में छोटे छोटे रिक्त स्थान देखे जा सकते हैं। ये स्थान चुगली करते हैं कि बहुमूल्य सजावट के सामान के विलोप हो जाने के कारण वे रिक्त हो गये।

47. मुमताज़ की कब्र के ऊपर एक जंजीर लटकती है जिसमें अब एक कंदील लटका दिया है। ताज को शाहज़हां के द्वारा हथिया लेने के पहले वहाँ एक शिव लिंग पर बूंद बूंद पानी टपकाने वाला घड़ा लटका करता था।

48. ताज भवन में ऐसी व्यवस्था की गई थी कि हिंदू परंपरा के अनुसार शरदपूर्णिमा की रात्रि में अपने आप शिव लिंग पर जल की बूंद टपके। इस पानी के टपकने को इस्लाम धारणा का रूप दे कर शाहज़हां के प्रेमाश्रु बताया जाने लगा।

ताजमहल में खजाने वाला कुआँ

49. तथाकथित मस्ज़िद और नक्कारखाने के बीच एक अष्टकोणीय कुआँ है जिसमें पानी के तल तक सीढ़ियाँ बनी हुई हैं। यह हिंदू मंदिरों का परंपरागत खजाने वाला कुआँ है। खजाने के संदूक नीचे की मंजिलों में रखे जाते थे जबकि खजाने के कर्मचारियों के कार्यालय ऊपरी म
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अत्रिवंश


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ब्रह्मा के पुत्र अत्रि ने ब्रह्मा पुत्र कर्दम की पुत्री अनुसूया से विवाह किया था। अनुसूया की माता का नाम देवहूति था। अत्रि को अनुसूया से एक पुत्र जन्मा जिसका नाम दत्तात्रेय था। अत्रि-दंपति की तपस्या और त्रिदेवों की प्रसन्नता के फलस्वरूप विष्णु के अंश से महायोगी दत्तात्रेय, ब्रह्मा के अंश से चन्द्रमा तथा शंकर के अंश से महामुनि दुर्वासा, महर्षि अत्रि एवं देवी अनुसूया के पुत्र रूप में आविर्भूत हुए। इनके ब्रह्मावादिनी नाम की कन्या भी थी।

अत्रि पुत्र चन्द्रमा ने बृहस्पति की पत्नी तारा से विवाह किया जिससे उसे बुध नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ, जो बाद में क्षत्रियों के चंद्रवंश का प्रवर्तक हुआ। इस वंश के राजा खुद को चंद्रवंशी कहते थे। चूंकि चंद्र अत्रि ऋषि की संतान थे इसलिए आत्रेय भी चंद्रवंशी ही हुए। ब्राह्मणों में एक उपनाम होता है आत्रेय अर्थात अत्रि से संबंधित या अत्रि की संतान।

चंद्रवंश के प्रथम राजा का नाम भी सोम माना जाता है जिसका प्रयाग पर शासन था। अत्रि से चंद्रमा, चंद्रमा से बुध, बुध से पुरुरवा, पुरुरवा से आयु, आयु से नहुष, नहुष से यति, ययाति, संयाति, आयति, वियाति और कृति नामक छः महाबल-विक्रमशाली पुत्र हुए।

नहुष के बड़े पुत्र यति थे, जो संन्यासी हो गए इसलिए उनके दुसरे पुत्र ययाति राजा हुए। ययाति के पुत्रों से ही समस्त वंश चले। ययाति के 5 पुत्र थे। देवयानी से यदु और तुर्वसु तथा शर्मिष्ठा से द्रुह्मु, अनु एवं पुरु हुए। यदु से यादव, तुर्वसु से यवन, द्रहुयु से भोज, अनु से मलेच्छ और पुरु से पौरव वंश की स्थापना हुई।

* ययाति के 5 पुत्र थे- 1. पुरु, 2. यदु, 3. तुर्वस, 4. अनु और 5. द्रुह्मु।

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ऋषि अत्री कथा | Rishi Atri Story


ऋषि अत्री कथा | Rishi Atri Story

मुनि अत्रि ब्रह्मा के मानस पुत्र थे जो ब्रह्मा जी के नेत्रों से उत्पन्न हुए थे. यह सोम के पिता थे जो इनके नेत्र से आविर्भूत हुए. इन्होंने कर्दम की पुत्री अनुसूया से विवाह किया था जो एक महान पतिव्रता के रूप में विख्यात हुईं हैं. पुत्रोत्पत्ति के लिए इन्होंने ऋक्ष पर्वत पर पत्नी अनुसूया के साथ घोर तप किया था जिस कारण इन्हें त्रिमूर्तियों की प्राप्ति हुई जिनसे त्रिदेवों के अशं रूप में दत्त (विष्णु) दुर्वासा (शिव) और सोम (ब्रह्मा) उत्पन्न हुए.

इस तथ्य पर एक कथा आधारित है जो इस प्रकार है ऋषि अत्री और माता अनुसूइया अपने दाम्पत्य जीवन को बहुत सहज भाव के साथ व्यतीत कर रहे थे. देवी अनुसूइया जी की पतिव्रतता के आगे सभी के नतमस्तक हुआ करते थे. इनके जीवन को देखकर देवता भी प्रसन्न होते थे जब एक बार देवी लक्ष्मी, पार्वती और सरस्वती को ऋषि अत्रि की पत्नि अनुसूइया के दिव्य पतिव्रत के बारे में ज्ञात होता है तो वह उनकी परीक्षा लेने का विचार करती हैं और तीनों देवियां अपने पतियों भगवान विष्णु, शंकर व ब्रह्मा को अनुसूइया के पतिव्रत की परीक्षा लेने को कहती हैं.

विवश होकर त्रिदेव अपने रूप बदलकर एक साधू रूप में ऋषि अत्रि के आश्रम जाते हैं और अनुसूइया से भिक्षा की मांग करते हैं. पर वह एक शर्त रखते हैं कि भिक्षा निर्वस्त्र होकर देनी पड़ेगी इस पर देवी अनुसूइया जी धर्मसंकट में फँस जातीं हैं. यदि भिक्षा न दी तो गलत होगा और देती हैं तो पतिव्रत का अपमान होता है अत: वह उनसे कहती हैं की वह उन्हें बालक रूप में ही यह भि़क्षा दे सकती हैं तथा हाथ में जल लेकर संकल्प द्वारा वह तीनों देवों को शिशु रूप में परिवर्तित कर देती हैं और भिक्षा देती हैं.

इस प्रकार तीनों देवता ऋषी अत्रि के आश्रम में बालक रूप में रहने लगते हैं और देवी अनसूइया माता की तरह उनकी देखभाल करती हैं कुछ समय पश्चात जब त्रिदेवियों को इस बात का बोध होता है तो वह अपने पतियों को पुन: प्राप्त करने हेतु ऋषि अत्रि के आश्रम में आतीं हैं और अपनी भूल के लिए क्षमा याचना करती हैं.

इस तरह से ऋषि अत्री के कहने पर माता अनुसूइया त्रिदेवों को मुक्त करती हैं. अपने स्वरूप में आने पर तीनों देव ऋषि अत्रि व माता अनुसूइया को वरदान देते हैं कि वह कालाम्तर में उनके घर पुत्र रूप में जन्म लेंग और त्रिदेवों के अशं रूप में दत्तात्रेय , दुर्वासा और सोम रुप में उत्पन्न हुए थे.
वैदिक मन्त्रद्रष्टा | Sage Atri – Vedic Forteller

महर्षि अत्रि वैदिक मन्त्रद्रष्टा ऋषि माने गए हैं अनेक धार्मिक ग्रंथों में इनके आविर्भाव तथा चरित्र का सुन्दर वर्णन किया गया है. महर्षि अत्रि को ज्ञान, तपस्या, सदाचार, भक्ति एवं मन्त्रशक्ति के ज्ञाता रूप में व्यक्त किया जाता है.
ऋषि अत्रि और श्री राम | Rishi Atri And Lord Ram

भगवान श्री राम अपने भक्त महर्षि अत्रि एवं देवी अनुसूया की भक्ति को सफल करने के लिए स्वयं उनके आश्रम पर पधारते हैं और माता अनुसूइया देवी सीता को पतिव्रत का उपदेश भी देती हैं. उन्हें दिव्य वस्त्र एवं आभूषण प्रदान करती हैं महर्षि अत्रि तीनों गुणों सत्त्व, रजस, तमस गुणों से परे थे वह गुणातीत थे महर्षि अत्रि सदाचार का जीवन व्यतीत करते हुए चित्रकूट के तपोवन में रहा करते थे.
ऋषि अत्रि जीवन वृतांत | Rishi Atri Biography

वेदों में वर्णित है कि ऋषि अत्रि को अश्विनीकुमारों की कृपा प्राप्त थी इस पर एक कथा भी प्राप्त होती है कि एक बार जब महर्षि अत्रि समाधिस्थ थे, तब दैत्यों ने इन्हें उठाकर शतद्वार यन्त्र में डाल देते हैं और जलाने का प्रयत्न करते हैं परंतु समाधी में होने के कारण इन्हें इस बात का ज्ञान नहीं होता तभी उचित समय पर अश्विनीकुमार वहाँ पहुँचकर ऋषि अत्रि को उन दैत्यों के चंगुल से बचाते हैं यही कथा ऋग्वेद के प्रथम मण्डल में भी बताई गई है. ऋग्वेद के दशम मण्डल में महर्षि अत्रि के तपस्या अनुष्ठान का वर्णन है एवं अश्विनीकुमारों ने इन्हें यौवन प्रदान किया इस तथ्य को व्यक्त किया गया है.

ऋग्वेद के पंचम मण्डल में वसूयु, सप्तवध्रि नामक अनेक पुत्रों को ऋषि अत्रि के पुत्र कहा गया है. ऋग्वेद के पंचम ‘आत्रेय मण्डल′, ‘कल्याण सूक्त’ ऋग्वेदीय ‘स्वस्ति-सूक्त’ महर्षि अत्रि द्वारा रचित हैं यह सूक्त मांगलिक कार्यों, शुभ संस्कारों तथा पूजा, अनुष्ठानों में पठित होते हैं इन्होंने अलर्क, प्रह्लाद आदि को शिक्षा भी दी थी. महर्षि अत्रि त्याग, तपस्या और संतोष के गुणों से युक्त एक महान ऋषि हुए.

मुनि अत्रि ब्रह्मा के मानस पुत्र थे जो ब्रह्मा जी के नेत्रों से उत्पन्न हुए थे. यह सोम के पिता थे जो इनके नेत्र से आविर्भूत हुए. इन्होंने कर्दम की पुत्री अनुसूया से विवाह किया था जो एक महान पतिव्रता के रूप में विख्यात हुईं हैं. पुत्रोत्पत्ति के लिए इन्होंने ऋक्ष पर्वत पर पत्नी अनुसूया के साथ घोर तप किया था जिस कारण इन्हें त्रिमूर्तियों की प्राप्ति हुई जिनसे त्रिदेवों के अशं रूप में दत्त (विष्णु) दुर्वासा (शिव) और सोम (ब्रह्मा) उत्पन्न हुए.

How Chandramaa Was Born
Some say that he was born from the tears of joy of Rishi Atri (one of the 10 brain children of Brahmaa. Some say that Chandramaa was born from the sea when Devtaa and Daitya churned the sea to extract Amrit from it.
There is another story about his birth. Once Rishi Atri and his wife Ansooyaa did a severe Tap to get children. The Supreme got very pleased with their Tap and appeared before them in the forms of Brahmaa, Vishnu and Shiv. When Atri saw all of them, he was in a flux. Who were they, he was worshipping only the Supreme, then how come these three appeared before him? So he asked them – “Who are you?” They said – “We are the ones whom you were worshipping for.” Atri Jee said – “But I was worshipping only the Supreme, not you three, who are you?” They said – “We are the same you were worshipping for assuming the three forms. Ask what you wish for.” Atri Jee said – “I did Tap to ask for a son.” They said – “So be it.” Thus because those three bestowed him with a son, so he had three children – Dattaatreya as Vishnu’s Avataar, Durvaasaa as Shiv’s Avataar, and Chandramaa as Brahmaa’s Avataar.
There is yet another story of his birth. Atri’s wife Ansooyaa was a Pativrataa woman. Once Brahmaa, Vishnu and Shiv thought to test her Paativrat, so all assumed the form of Braahman and came to beg. When Ansooyaa came out give them food, they said – “We don’t accept alms like that. Come without clothes and then give us alms.” Hearing this Ansooyaa got in a great flux. She prayed the Supreme and with the power of her Tap, she changed them into newborn babies. She took off her clothes and started breastfeeding them. That is how she kept their words, as well as protected her Paativrat Dharm. Pleased with her intelligence and her Paativrat Dharm all asked her to ask for a boon. She said – “I wish that I should breastfeed you three as my real children.” The trio bestowed her with this boon and they were born as Durvaasaa, Dattaatreya and Chandramaa in her house.
Another story of his birth – When Brahmaa bestowed Atri with a son, he gave him like this. Atri Rishi stood raising his arms for 3,000 years without blinking. Then when his body became perfused with Som, he himself became Som. The Som juice filled his body so much so that it overfilled him filling the Heavens with luminosity. The goddesses of the ten directions gathered to receive that Som and collected it in their wombs. But they could not hold it for long time and their fetus dropped on the ground and took the form of Moon. All celestials worshipped the Moon.

 

Chandra Deva, Atri’s son and Indra’s Uncle

Chandramaa (The Moon)
After the Sun’s representative finished his talk about the Sun, everybody admired his presentation. Now the Moon’s advocate’s turn to tell about him so he rose up and started speaking about him – “The Moon is everybody’s mind, the Lord of the senses and the emotions. His worship helps people to ward off their diseases and gain health. He is the king of Lunar mansion. Shiv adorns his crescent form on his head. Some say that this makes the Moon the 1/8th incarnation of Lord Shiv.
Although he is the Lord of the night but he schedules rituals and is the haven for ancestors. When people do Yagya, they drink Som and surely they go to Chandra Lok. Ved say that the Moon and the King Som (food of the Devtaa) are the same. Whenever the sacrifice is completed, its offerings go to the Moon only. He lords all the plants, herbs and trees. He helps them to grow. He is the master of waters and controls tides in the sea.
He wears white clothes, loves white flowers, his metal is bronze or silver, and his gem is white pearl. He loves to wander and is Vaishya by caste. He rules the blood in the body and because he is of the nature of the semen, he is passion-filled. Whoever seeks sexual satisfaction should worship the Moon. He is the Dikpaal (Lord of direction) of northwest direction, Lord of Monday and his own home is Kark (Cancer) in constellations. He is the husband of 27 Nakshatras. These 27 Nakshatras are the 27 daughters of Daksh. He is the friend of the world. The Sun’s Sushumna ray develops the Moon day by day during the bright half of the month and makes it complete on the day of Poornimaa (Full Moon). In the other dark half Devtaa get nourished drinking that Som. On the last day of the dark fortnight, Amaavasyaa (New Moon), Pitar drink that Som. This cycle continues like that.

Anusuya mata /Atri Muni Ashram
Ansuya Temple is situated in Chamoli district of Uttarakhand about 30 km from Magpie Camp Chopta.Located in the beautiful litigants of nature , this magnificent temple attracts pilgrims.
Sati Ansuya Temple is one of India’s leading Devi temple . It is a holy place dedicated to goddess Sati , and also depicts the religious nature of India.

Posted in PM Narendra Modi

मोदी के गाँव जयापुर का रोज कायापलट हो रहा है — मीडिया नही दिखा रहा —


मोदी के गाँव जयापुर का रोज कायापलट हो रहा है —
मीडिया नही दिखा रहा —

7 सितम्बर, 2014 को मोदी ने जयापुर गाँव को गोद लिया
था और तब से गाँव का रोज कलपलत हो रहा है –कभी गाँव
में ना मुकम्मल रास्ते थे, ना गरीबो को रहने के लिए घर,
ना पोस्ट ऑफिस था और ना बैंक –मगर मोदी के गाँव को
गोद लेने के बाद विकास के रास्ते खुद ब खुद खुलते चले
गए —

महाराष्ट्र की एक फ़ूड कंपनी ने वनवासियों के लिए आवास
का निर्माण कराया है –एक कमरे के इस घर में रसोई, स्नान
और शौचघर के साथ छोटा आँगन भी है और बिजली के लिए
सोलर लाइट की व्यवस्था है —

गाँव वाले बायो टॉयलेट को लेकर काफी खुश हैं – सार्वजानिक
स्थानो पर 16 टॉयलेट बनने हैं जिसमे 8 बन चुके है और बाकी
बन रहे हैं —

गाँव में 70 सोलर लाइट लगी, 3 बैंकों की शाखा खुल गयी,
एक डाकघर खुला, सार्वजानिक स्थानो पर बैठने के लिए 50
बैंच लगे, बस स्टॉप बना, 50 हैण्डपम्प लगे और दर्जन भर
टी-गार्ड —

यूनियन बैंक ने आंगनबाड़ी भवन का कायाकल्प कर दिया,
फर्श पर टाइल्स और सीलिंग फैंस से और सोलर लाइट से
भवन जगमगा गया –30 महिलाओं को ट्रेनिंग दे कर 50
हज़ार रुपये का कर्ज भी दिया गया है बैंक से —

जयापुर 400 वर्ष पुराना गाँव है जिसकी आबादी 4000 है
और जीविका का मुख्य साधन खेतीबाड़ी है —

अफ़सोस की बात है कि किसी चैनल ने गाँव के विकास को
दिखाने की जरूरत नही समझी —

(ये खबर आज के दैनिक जागरण के पेज 12 पर देख सकते
हैं )

http://www.jagran.com/…/national-modis-jayapur-will-become-…

(सुभाष चन्द्र)
29/03/2015

Posted in भारत का गुप्त इतिहास- Bharat Ka rahasyamay Itihaas

भंगी और मेहतर जातियों का इतिहास


पिछले पोस्ट में आपने भंगी और मेहतर जातियों का इतिहास पढ़ा। अब जानते हैं चमार एवं खटिक जाति का गौरवशाली इतिहास..
सिकन्दर लोदी (१४८९-१५१७) के शासनकाल से पहले पूरे भारतीय इतिहास में ‘चमार’ नाम की किसी जाति का उल्लेख नहीं मिलता। आज जिन्हें हम ‘चमार’ जाति से संबोधित करते हैं और जिनके साथ छूआछूत का व्यवहार करते हैं, दरअसल वह वीर चंवरवंश के क्षत्रिय हैं। जिन्हें सिकन्दर लोदी ने चमार घोषित करके अपमानित करने की चेष्टा की।
भारत के सबसे विश्वसनीय इतिहास लेखकों में से एक विद्वान कर्नल टाड को माना जाता है जिन्होनें अपनी पुस्तक ‘द हिस्ट्री आफ राजस्थान’ में चंवरवंश के बारे में विस्तार से लिखा है।
प्रख्यात लेखक डॅा विजय सोनकर शास्त्री ने भी गहन शोध के बाद इनके स्वर्णिम अतीत को विस्तार से बताने वाली पुस्तक “हिन्दू चर्ममारी जाति: एक स्वर्णिम गौरवशाली राजवंशीय इतिहास” लिखी। महाभारत के अनुशासन पर्व में भी इस राजवंश का उल्लेख है।
डॉ शास्त्री के अनुसार प्राचीनकाल में न तो चमार कोई शब्द था और न ही इस नाम की कोई जाति ही थी।
‘अर्वनाइजेशन’ की लेखिका डॉ हमीदा खातून लिखती हैं,
मध्यकालीन इस्लामी शासन से पूर्व भारत में चर्म एवं सफाई कर्म के लिए किसी विशेष जाति का एक भी उल्लेख नहीं मिलता है। हिंदू चमड़े को निषिद्ध व हेय समझते थे। लेकिन भारत में मुस्लिम शासकों के आने के बाद इसके उत्पादन के भारी प्रयास किए गये थे।
डा विजय सोनकर शास्त्री के अनुसार तुर्क आक्रमणकारियों के काल में चंवर राजवंश का शासन भारत के पश्चिमी भाग में था और इसके प्रतापी राजा चंवरसेन थे। इस क्षत्रिय वंश के राज परिवार का वैवाहिक संबंध बाप्पा रावल वंश के साथ था। राणा सांगा व उनकी पत्नी झाली रानी ने चंवरवंश से संबंध रखने वाले संत रैदासजी को अपना गुरु बनाकर उनको मेवाड़ के राजगुरु की उपाधि दी थी और उनसे चित्तौड़ के किले में रहने की प्रार्थना की थी।
संत रविदास चित्तौड़ किले में कई महीने रहे थे। उनके महान व्यक्तित्व एवं उपदेशों से प्रभावित होकर बड़ी संख्या में लोगों ने उन्हें गुरू माना और उनके अनुयायी बने। उसी का परिणाम है आज भी विशेषकर पश्चिम भारत में बड़ी संख्या में रविदासी हैं। राजस्थान में चमार जाति का बर्ताव आज भी लगभग राजपूतों जैसा ही है। औरतें लम्बा घूंघट रखती हैं आदमी ज़्यादातर मूंछे और पगड़ी रखते हैं।
संत रविदास की प्रसिद्धी इतनी बढ़ने लगी कि इस्लामिक शासन घबड़ा गया सिकन्दर लोदी ने मुल्ला सदना फकीर को संत रविदास को मुसलमान बनाने के लिए भेजा वह जानता था की यदि रविदास इस्लाम स्वीकार लेते हैं तो भारत में बहुत बड़ी संख्या में इस्लाम मतावलंबी हो जायेगे लेकिन उसकी सोच धरी की धरी रह गयी स्वयं मुल्ला सदना फकीर शास्त्रार्थ में पराजित हो कोई उत्तर न दे सका और उनकी भक्ति से प्रभावित होकर अपना नाम रामदास रखकर उनका भक्त वैष्णव (हिन्दू) हो गया। दोनों संत मिलकर हिन्दू धर्म के प्रचार में लग गए जिसके फलस्वरूप सिकंदर लोदी आगबबूला हो उठा एवं उसने संत रैदास को कैद कर लिया और इनके अनुयायियों को चमार यानी अछूत चंडाल घोषित कर दिया। उनसे कारावास में खाल खिचवाने, खाल-चमड़ा पीटने, जुती बनाने इत्यादि काम जबरदस्ती कराया गया उन्हें मुसलमान बनाने के लिए बहुत शारीरिक कष्ट दिए। लेकिन उन्होंने कहा —–
”वेद धर्म सबसे बड़ा, अनुपम सच्चा ज्ञान,
फिर मै क्यों छोडू इसे, पढ़ लू झूठ कुरान.
वेद धर्म छोडू नहीं, कोसिस करो हज़ार,
तिल-तिल काटो चाहि, गोदो अंग कटार” (रैदास रामायण)
संत रैदास पर हो रहे अत्याचारों के प्रतिउत्तर में चंवर वंश के क्षत्रियों ने दिल्ली को घेर लिया। इससे भयभीत हो सिकन्दर लोदी को संत रैदास को छोड़ना पड़ा था।
संत रैदास का यह दोहा देखिए:
बादशाह ने वचन उचारा । मत प्यारा इसलाम हमारा ।।
खंडन करै उसे रविदासा । उसे करौ प्राण कौ नाशा ।।
जब तक राम नाम रट लावे । दाना पानी यह नहींपावे ।।
जब इसलाम धर्म स्वीकारे । मुख से कलमा आपा उचारै ।।
पढे नमाज जभी चितलाई । दाना पानी तब यह पाई ।
समस्या तो यह है कि आपने और हमने संत रविदास के दोहों को ही नहीं पढ़ा, जिसमें उस समय के समाज का चित्रण है जो बादशाह सिकंदर लोदी के अत्याचार, इस्लाम में जबरदस्ती धर्मांतरण और इसका विरोध करने वाले हिंदू ब्राहमणों व क्षत्रियों को निम्न कर्म में धकेलने की ओर संकेत करता है।
चंवरवंश के वीर क्षत्रिय जिन्हें सिकंदर लोदी ने ‘चमार’ बनाया और हमारे-आपके हिंदू पुरखों ने उन्हें अछूत बना कर इस्लामी बर्बरता का हाथ मजबूत किया।
इस समाज ने पददलित और अपमानित होना स्वीकार किया, लेकिन विधर्मी होना स्वीकार नहीं किया आज भी यह समाज हिन्दू धर्म का आधार बनकर खड़ा है।

अब आइये जानते हैं खटिक जाति के बारे में :-
खटिक जाति मूल रूप से वो ब्राहमण जाति है, जिनका काम आदि काल में याज्ञिक पशु बलि देना होता था। आदि काल में यज्ञ में बकरे की बलि दी जाती थी। संस्कृत में इनके लिए शब्द है, ‘खटिटक’।
मध्यकाल में जब क्रूर इस्लामी अक्रांताओं ने हिंदू मंदिरों पर हमला किया तो सबसे पहले खटिक जाति के ब्राहमणों ने ही उनका प्रतिकार किया। राजा व उनकी सेना तो बाद में आती थी। मंदिर परिसर में रहने वाले खटिक ही सर्वप्रथम उनका सामना करते थे। तैमूरलंग को दीपालपुर व अजोधन में खटिक योद्धाओं ने ही रोका था और सिकंदर को भारत में प्रवेश से रोकने वाली सेना में भी सबसे अधिक खटिक जाति के ही योद्धा थे। तैमूर खटिकों के प्रतिरोध से इतना भयाक्रांत हुआ कि उसने सोते हुए हजारों खटिक सैनिकों की हत्या करवा दी और एक लाख सैनिकों के सिर का ढेर लगवाकर उस पर रमजान की तेरहवीं तारीख पर नमाज अदा की। (पढ़िये मेरे पिछले पोस्ट “भारत में इस्लामी आक्रमण एवं धर्मान्तरण का खूनी इतिहास” ४ भागों में)
मध्यकालीन बर्बर दिल्ली सल्तनत में गुलाम, तुर्क, लोदी
वंश और मुगल शासनकाल में जब अत्याचारों की मारी हिंदू जाति मौत या इस्लाम का चुनाव कर रही थी तो खटिक जाति ने अपने धर्म की रक्षा और बहू बेटियों को मुगलों की गंदी नजर से बचाने के लिए अपने घर के आसपास सूअर बांधना शुरू किया।
इस्लाम में सूअर को हराम माना गया है। मुगल तो इसे देखना भी हराम समझते थे। और खटिकों ने मुस्लिम शासकों से बचाव के लिए सूअर पालन शुरू कर दिया। उसे उन्होंने हिंदू के देवता विष्णु के वराह (सूअर) अवतार के रूप में लिया। मुस्लिमों की गो हत्या के जवाब में खटिकों ने सूअर का मांस बेचना शुरू कर दिया और धीरे धीरे यह स्थिति आई कि वह अपने ही हिंदू समाज में पददलित होते चले गए। कल के शूरवीर ब्राहण आज अछूत और दलित श्रेणी में हैं।
1857 की लडाई में मेरठ व उसके आसपास अंग्रेजों के पूरे के पूरे परिवारों को मौत के घाट उतारने वालों में खटिक समाज सबसे आगे था। इससे गुस्साए अंग्रेजों ने 1891 में पूरी खटिक जाति को ही वांटेड और अपराधी जाति घोषित कर दिया।
जब आप मेरठ से लेकर कानपुर तक 1857 के विद्रोह की दासतान पढेंगे तो रोंगटे खडे हो जाए्ंगे। जैसे को तैसा पर चलते हुए खटिक जाति ने न केवल अंग्रेज अधिकारियों, बल्कि उनकी पत्नी बच्चों को इस निर्दयता से मारा कि अंग्रेज थर्रा उठे। क्रांति को कुचलने के बाद अंग्रेजों ने खटिकों के गांव के गांव को सामूहिक रूप से फांसी दे दिया गया और बाद में उन्हें अपराधि जाति घोषित कर समाज के एक कोने में ढकेल दिया।
आजादी से पूर्व जब मोहम्मद अली जिन्ना ने डायरेक्ट
एक्शन की घोषणा की थी तो मुस्लिमों ने कोलकाता शहर
में हिंदुओं का नरसंहार शुरू किया, लेकिन एक दो दिन में ही पासा पलट गया और खटिक जाति ने मुस्लिमों का इतना भयंकर नरसंहार किया कि बंगाल के मुस्लिम लीग के मंत्री ने सार्वजनिक रूप से कहा कि हमसे भूल हो गई। बाद में इसी का बदला मुसलमानों ने बंग्लादेश में स्थित नोआखाली में लिया।
आज हम आप खटिकों को अछूत मानते हैं, क्योंकि हमें
उनका सही इतिहास नहीं बताया गया है, उसे दबा दिया
गया है।
आप यह जान लीजिए कि दलित शब्द का सबसे पहले प्रयोग अंग्रेजों ने 1931 की जनगणना में ‘डिप्रेस्ड क्लास’ के रूप में किया था। उसे ही बाबा साहब अंबेडकर ने अछूत के स्थान पर दलित शब्द में तब्दील कर दिया। इससे पूर्व पूरे भारतीय इतिहास व साहित्य में ‘दलित’ शब्द का उल्लेख कहीं नहीं मिलता है।
हमने और आपने मुस्लिमों के डर से अपना धर्म नहीं छोड़ने वाले, हिंसा और सूअर पालन के जरिए इस्लामी आक्रांताओं का कठोर प्रतिकार करने वाले एक शूरवीर ब्राहमण खटिक जाति को आज दलित वर्ग में रखकर अछूत की तरह व्यवहार किया है और आज भी कर रहे हैं।
भारत में 1000 ईस्वी में केवल 1 फीसदी अछूत जाति थी, लेकिन मुगल वंश की समाप्ति होते-होते इनकी संख्या 14 फीसदी हो गई। आखिर कैसे..?
सबसे अधिक इन अनुसूचित जातियों के लोग आज के उत्तरप्रदेश, बिहार, बंगाल, मध्य भारत में है, जहां मुगलों के शासन का सीधा हस्तक्षेप था और जहां सबसे अधिक धर्मांतरण हुआ। आज सबसे अधिक मुस्लिम आबादी भी इन्हीं प्रदेशों में है, जो धर्मांतरित हो गये थे।
डॉ सुब्रहमनियन स्वामी लिखते हैं, ” अनुसूचित जाति
उन्हीं बहादुर ब्राह्मण व क्षत्रियों के वंशज है, जिन्होंने
जाति से बाहर होना स्वीकार किया, लेकिन मुगलों के
जबरन धर्म परिवर्तन को स्वीकार नहीं किया। आज के हिंदू समाज को उनका शुक्रगुजार होना चाहिए, उन्हें कोटिश: प्रणाम करना चाहिए, क्योंकि उन लोगों ने हिंदू के भगवा ध्वज को कभी झुकने नहीं दिया, भले ही स्वयं अपमान व दमन झेला।”
प्रोफेसर शेरिंग ने भी अपनी पुस्तक ‘
हिंदू कास्ट एंड टाईव्स’ में स्पष्ट रूप से लिखा है कि ”
भारत के निम्न जाति के लोग कोई और नहीं, बल्कि
ब्राहमण और क्षत्रिय ही हैं।”
स्टेनले राइस ने अपनी पुस्तक “हिन्दू कस्टम्स एण्ड देयर ओरिजिन्स” में यह भी लिखा है कि अछूत मानी जाने वाली जातियों में प्राय: वे बहादुर जातियां भी हैं, जो मुगलों से हारीं तथा उन्हें अपमानित करने के लिए मुसलमानों ने अपने मनमाने काम करवाए थे।
यदि आज हम बचे हुए हैं तो अपने इन्हीं अनुसूचित जाति के भाईयों के कारण जिन्होंने नीच कर्म करना तो स्वीकार किया, लेकिन इस्लाम को नहीं अपनाया।
आज भारत में 23 करोड़ मुसलमान हैं और लगभग 35 करोड़ अनुसूचित जातियों के लोग हैं। जरा सोचिये इन लोगों ने भी मुगल अत्याचारों के आगे हार मान ली होती और मुसलमान बन गये होते तो आज भारत में मुस्लिम जनसंख्या 50 करोड़ के पार होती और आज भारत एक मुस्लिम राष्ट्र बन चुका होता। यहाँ भी जेहाद का बोलबाला होता और ईराक, सीरिया, सोमालिया, पाकिस्तान और अफगानिस्तान आदि देशों की तरह बम-धमाके, मार-काट और खून-खराबे का माहौल होता। हम हिन्दू या तो मार डाले जाते या फिर धर्मान्तरित कर दिये जाते या फिर हमें काफिर के रूप में अत्यंत ही गलीज जिन्दगी मिलती।
धन्य हैं हमारे ये भाई जिन्होंने पीढ़ी दर पीढ़ी अत्याचार
और अपमान सहकर भी हिन्दुत्व का गौरव बचाये रखा और स्वयं अपमानित और गरीब रहकर भी हर प्रकार से भारतवासियों की सेवा की।
हमारे अनुसूचित जाति के भाइयों को पूरे देश का सलाम

साभार: 1) हिंदू खटिक जाति: एक धर्माभिमानी समाज
की उत्पत्ति, उत्थान एवं पतन का इतिहास, लेखक- डॉ
विजय सोनकर शास्त्री, प्रभात प्रकाशन
2) आजादी से पूर्व कोलकाता में हुए हिंदू मुस्लिम दंगे में
खटिक जाति का जिक्र, पुस्तक ‘अप्रतिम नायक:
श्यामाप्रसाद मुखर्जी’ में आया है। यह पुस्तक भी प्रभात
प्रकाशन द्वारा प्रकाशित है।

जय श्री राम, जय माँ भारती ।