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शतपथ ब्राह्मण


शतपथ ब्राह्मण

 / Shatpath Brahman

समस्त ब्राह्मण-ग्रन्थों के मध्य शतपथ ब्राह्मण सर्वाधिक बृहत्काय है। शुक्लयजुर्वेद की दोनों शाखाओं-माध्यान्दिन तथा काण्व में यह उपलब्ध है। यह तैत्तिरीय ब्राह्मण के ही सदृश स्वराङिकत है।[1] अनेक विद्वानों के विचार से यह तथ्य इसकी प्राचीनता का द्योतक है।

विषय सूची

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नामकरण

गणरत्नमहोदधि के अनुसार शतपथ का यह नामकरण उसमें विद्यमान सौ अध्यायों के आधार पर हुआ है-

  • ‘शतंपन्थानो यत्र शतपथ: तत्तुल्यग्रन्थ:’।*

श्रीधर शास्त्री के बारे में भी ऐसा माना है-

  • ’शतं पन्थानो मार्गा नामाध्याया यस्य तच्छतपथम्’।*

यद्यपि काण्वशतपथ-ब्राह्मण में एक सौ चार अध्याय हैं, तथापि वहाँ ‘छत्रिन्याय’ से यह संज्ञा अन्वर्थ हो जाती है। कुछ विद्वानों ने यह सम्भावना प्रकट की है कि शुक्लयजुर्वेद की वाजसनेयि-संहिता से सम्बद्ध कोई ‘शतपथी’-शाखा रही होगी, जिसके आधार पर इस ब्राह्मण का नामकरण हुआ होगा। इस अनुमान का आधार असम और उड़ीसा प्रदेश के कुछ क्षेत्रों में प्राप्त ‘सत्पथी’ आस्पद है। किन्तु यह मत मान्य इसलिए नहीं प्रतीत होता, कि शाखाओं से सम्बद्ध प्राप्त सामग्री में ‘शतपथ’ या ‘शतपथी’ नाम की किसी शाखा का कहीं भी उल्लेख नहीं है। सौ-अध्याय वाली बात ही अधिक विश्वसनीय प्रतीत होती है।

माध्यन्दिन-शतपथ के विभाग, चयनक्रम एंव प्रतिपाद्य

माध्यन्दिन शतपथ-ब्राह्मण में 14 काण्ड, सौ अध्याय, 438 ब्राह्मण तथा 7624 कण्डिकाएँ है।

  • प्रथम काण्ड में दर्श और पूर्णमास इष्टियों का प्रतिपादन है।
  • द्वितीय काण्ड में अग्न्याधान, पुनराधान, अग्निहोत्र, उपस्थान, प्रवत्स्यदुपस्थान, आगतोपस्थान, पिण्डपितृयज्ञ, आग्रयण, दाक्षायण तथा चातुर्मास्यादि यार्गो की मीमांसा की गई है।
  • तृतीय काण्ड में दीक्षाभिषवपर्यन्त सोमयाग का वर्णन है।
  • चतुर्थ काण्ड में सोमयोग के तीनों सवनों के अन्तर्गत किये जाने वाले कर्मों का, षोडशीसदृश सोमसंस्था, द्वादशाहयाग तथा सत्रादियागों का प्रतिपादन हुआ है।
  • पञ्चम काण्ड में वाजपेय तथा राजसूय यागों का वर्णन है।
  • छठे काण्ड में उषासम्भरण तथा विष्णुक्रम का विवेचन हुआ है।
  • सातवें में चयन याग, गार्हपत्य चयन, अग्निक्षेत्र-संस्कार तथा दर्भस्तम्बादि के दूर करने तक के कार्यों विवेचन हुआ है।
  • आठवें काण्ड में प्राणभृत् प्रभुति इष्टकाओं की स्थापनाविधि वर्णित है।
  • नवम काण्ड में शत्रुद्रिय होम, धिष्ण्य चयन, पुनश्चिति: तथा चित्युपस्थान का निरूपण हैं।
  • दशम काण्ड में चिति-सम्पत्ति, चयनयाग स्तुति, चित्यपक्षपुच्छ-विचार, चित्याग्निवेदि का परिमाण, उसकी सम्पत्ति, चयनकाल, चित्याग्नि के छन्दों का अवयवरूप, यजुष्मती और लोकम्पृणा आदि इष्टकाओं की संस्था, उपनिषदरूप से अग्नि की उपासना, मन की सृष्टि, लोकादिरूप से अग्नि की उपासना, अग्नि की सर्वतोमुखता तथा सम्प्रदायप्रवर्तक ॠषिवंश प्रभृति का विवेचन हुआ है।
  • ग्यारहवें काण्ड में आधान-काल, दर्शपूर्णमास तथा दाक्षायणयज्ञों की अवधि, दाक्षायण यज्ञ, पथिकृदिष्टि, अभ्युदितेष्टि, दर्शपूर्णमासीय द्रव्यों का अर्थवाद, अग्निहोत्रीय अर्थवाद, ब्रह्मचारी के कर्त्तव्य, मित्रविन्देष्टि, हवि:-समृद्धि, चातुर्मास्यार्थवाद, पंच महायज्ञ, स्वाध्याय-प्रशंसा, प्रायश्चित्त, अंशु और अदाभ्यग्र्ह, अध्यात्मविद्या, पशुबन्ध-प्रशंसा तथा हविर्याग के अवशिष्ट विधानों पर विचार किया गया है।
  • बारहवें काण्ड में सत्रगत दीक्षा-क्रम, महाव्रत, गवामयनसत्र, अग्निहोत्र-प्रायश्चित्त, सौत्रामणीयाग, मृतकाग्निहोत्र तथा मृतकदाह प्रभृति विषयों का निरूपण है।
  • तेरहवें काण्ड में अश्वमेध, तदगत प्रायश्चित्त, पुरुषमेध, सर्वमेध तथा पितृमेध का विवरण है।
  • चौदहवें काण्ड में प्रवर्ग्यकर्म, धर्म-विधि महावीरपात्र, प्रवर्ग्योत्सादन, प्रवर्ग्यकर्तृक नियम, ब्रह्मविद्या, मन्थ तथा वंश इत्यादि का प्रतिपादन हुआ है। इसी काण्ड में बृहदारण्यक उपनिषद भी है। सामूहिक रूप के इन काण्डों के नाम क्रमश: ये हैं-
  • हविर्यज्ञम्,
  • एकपदिप,
  • अध्वरम्,
  • ग्रहनाम,
  • सवम्,
  • उपासम्भरणम्,
  • हस्तिघटक,
  • चिति:,
  • संचिति:,
  • अग्निरहस्यम्,
  • अष्टाध्यायी(संग्रह),
  • मध्यमम्(सौत्रामणी),
  • अश्वमेधम्,
  • बृहदारण्यकम्।

काण्वशतपथ का विभाग, चयनक्रम एंव प्रतिपाद्य

काण्व-शतपथ की व्यवस्था और विन्यास में विपुल अन्तर है। उसमें 17 काण्ड, 104 अध्याय, 435 ब्राह्मण तथा 6806 कण्डिकाएं है।

  • प्रथम काण्ड में आधान-पुनराधान, अग्निहोत्र, आग्रयण, पिण्डपितृयज्ञ, दाक्षायण यज्ञ, उपस्थान तथा चातुर्मास्य संज्ञक यागों का विवेचन है।
  • द्वितीय काण्ड में पूर्णमास तथा दर्शयागों का प्रतिपादन है।
  • तृतीय काण्ड में अग्निहोत्रीय अर्थवाद तथा दर्शपूर्णमासीय अर्थवाद विवेचित हैं।
  • चतुर्थ काण्ड में सोमयागजन्य दीक्षा का वर्णन हैं।
  • पञ्चम काण्ड में सोमयाग, सवनत्रयाग कर्म, षोडशी प्रभृति सोमसंस्था, द्वादशाहयाग, त्रिरात्रहीन दक्षिणा, चतुस्त्रिंशद्धोम और सत्रधर्म का निरूपण हैं।
  • षष्ठ काण्ड में वाजपेययाग का विवेचन है।
  • सप्तम काण्ड में राजसूय का विवेचन है।
  • अष्टम में उखा-सम्भरण का विवेचन है।
  • नवम काण्ड से लेकर बारहवें काण्ड तक विभिन्न चयन-याग निरुपित हैं।
  • तेरहवें काण्ड में आधान काल, पथिकृत इष्टि, प्रयाजानुयामन्त्रण, शंयुवाक्, पत्नीसंयाज, ब्रह्मचर्य, दर्शपूर्णमास की शेष विधियों तथा पशुबन्ध का निरूपण है।
  • चौदहवें काण्ड में दीक्षा-क्रम, पृष्ठयाभिप्लवादि, सौत्रामणीयाग, अग्निहोत्र-प्रायश्चित्त, मृतकाग्निहोत्र आदि का वर्णन हुआ है।
  • पन्द्रहवें काण्ड में अश्वमेध का, सोलहवें में सांगोपाङ्ग प्रवर्ग्यकर्म का तथा सत्रहवें काण्ड में ब्रह्मविद्या का विवेचन किया गया है।

सामूहिक रूप से इन काण्डों के नाम ये हैं-

  • एकपात्-काण्डम्,
  • हविर्यज्ञ काण्डम्,
  • उद्धारि काण्डम्,
  • अध्वरम्,
  • ग्रहनाम,
  • वाजपेय काण्डम्,
  • राजसूय काण्डम्,
  • उखासम्भरणम्,
  • हस्तिघट काण्डम्,
  • चिति काण्डम्,
  • साग्निचिति,
  • अग्निरहस्यम्,
  • अष्टाध्यायी,
  • मध्यमम्,
  • अश्वमेध काण्डम्,
  • प्रवर्ग्य काण्डम् तथा
  • बृहदारण्यकम्।

उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि दोनों ही शाखाओं ही प्रतिपाद्य विषय-वस्तु समान है। केवल क्रम में कुछ भिन्नता है। विषय की एकरूपता की दृष्टि से माध्यन्दिन-शतपथ अधिक व्यवस्थित है। इसका एक अन्य वैशिष्ट्य यह है कि वाजसनेयि-संहिता के अठाहरवें अध्यायों की क्रमबद्ध व्याख्या इसके प्रथम नौ अध्यायों में मिल जाती है। केवल पिण्ड-पितृयज्ञ का वर्णन संहिता में दर्शपूर्णमास के अनन्तर है।

शतपथ ब्राह्मण के प्रवचनकर्ता

परम्परा से शतपथ-ब्राह्मण के रचयिता वाजसनेय याज्ञवल्क्य माने जाते हैं। शतपथ के अन्त में उल्लेख है-‘आदित्यानीमानि शुक्लानि यजूंषि वाजसनेयेन याज्ञवल्क्येनाख्यायन्ते।’ महाभारत और पुराणों में उनके विषय में प्राप्य विवरण के अनुसार याज्ञवल्क्य का आश्रम सौराष्ट्र क्षेत्र के आनर्तभाग में कहीं था।[2] जनक से सम्बद्ध होने पर मिथिला में भी उन्होंने निवास किया। श्रीधर शर्मा वारे के अनुसार उनका जन्म श्रावण शुक्ल चतुर्दशीविद्धा पूर्णिमा को हुआ था।* वायु पुराण*, ब्रह्माण्ड पुराण*, तथा विष्णु पुराण* में उनके पिता का नाम ब्रह्मरात बतलाया गया है, जबकि भागवत पुराण* के अनुसार याज्ञवल्क्य देवरात के पुत्र थे। अनुश्रुति के अनुसार उनके गुरु वैशम्पायन थे, जिनसे बाद में उनका मतभेद हो गया था। तदनन्तर उन्होंने सूर्य की उपासना की, जिससे उन्हें समग्र वेदों का ज्ञान प्राप्त हुआ। जनक ने उनकी इसी प्रसिद्धि से आकृष्ट होकर उन्हें अपने यहाँ आमन्त्रित किया।* वे ‘वाजसनि’ कहलाते थे-
वाज इत्यन्नस्य नामधेयम्, अन्नं वे वाज इति श्रुते:। वाजस्य सनिदनि यस्य महर्षेरस्ति सोऽयं वाजसनिस्तस्य पुत्रो वाजसनेय इति तस्य याज्ञवल्क्य नामधेयम् (काण्वसंहिता, भाष्योपक्रमणिका)।
स्वयं शतपथ-ब्राह्मण ने याज्ञवल्क्य को वाजसनेय बतलाया है।* इसलिए उसी को अन्तिम रूप से स्वीकार किया जाना चाहिए। ब्रह्मरात या देवरात इत्यादि उन्हीं के नामान्तर हो सकते हैं। ‘स्कन्द पुराण’ के ‘नागरखण्ड’* के अनुसार याज्ञवल्क्य की माता का नाम सुनन्दा था। कंसारिका उनकी बहन थी। बृहदारण्यकोपनिषद* से ज्ञात होता है कि याज्ञवल्क्य की कात्यायनी और मैत्रेयी नाम्नी दो पत्नियाँ थीं। पुराणों में कात्यायनी का उल्लेख कल्याणी नाम से भी है। स्कन्द पुराण ने ही कात्यायन और पारस्कर को एक मानकर उन्हें याज्ञवल्क्य का पुत्र बतलाया है। उल्लेखनीय है कि शुक्लयजुर्वेद का गृह्यकल्प ‘पारस्कर गृह्यसूत्र’ के रूप में प्रसिद्ध है। महाभारत (शान्ति पर्व)* के अनुसार याज्ञवल्क्य के 100 शिष्य थे। वैशम्पायन को याज्ञवल्क्य का मातामह बताया गया है-
तत: स्वमातामहानमहामुनेर्वृद्धाद्वैशम्पायनाद्यजुर्वेदमधीतवान्।*

पुराणों में याज्ञवल्क्य की अनेक सिद्धियों और चमत्कारों का उल्लेख है। परम्परा याज्ञवल्क्य को शुक्लयजुर्वेद-संहिता और शतपथ-ब्राह्मण के सम्पादन के अतिरिक्त याज्ञवल्क्य स्मृति, याज्ञवल्क्य शिक्षा और योगियाज्ञवल्क्य शीर्षक अन्य ग्रन्थों के प्रणयन का श्रेय भी देती है। संभव है, प्रथम याज्ञवल्क्य के अनन्तर, उसकी परम्परा में याज्ञवल्क्य उपाधिधारी अन्य याज्ञवल्क्यों ने स्मृति प्रभृति ग्रन्थों की रचना की हो।

यजुर्वेद संहिता

इस वेद की दो संहितायें हैं।

एक शुक्ल

शुक्ल यजुर्वेद याज्ञवल्क्य को प्राप्त हुआ। उसे `वाजसनेयि-संहिता´ भी कहते हैं। `वाजसनेयि-संहिता´ की 17 शाखायें हैं। उसमें 40 अध्याय हैं। उसका प्रत्येक अध्याय कण्डिकाओं में विभक्त है, जिनकी संख्या 1975 है। इसके पहले के 25 अध्याय प्राचीन माने जाते हैं और पीछे के 15 अध्याय बाद के। इसमें दर्श पौर्णमास, अग्निष्टोम, वाजपेय, अग्निहोत्र, चातुर्मास्य, अश्वमेध, पुरुषमेध आदि यज्ञों के वर्णन है।

दूसरी कृष्ण

कृष्ण-यजुर्वेद-संहिता शुक्ल से की है। उसे `तैत्तिरिय-संहिता´ भी कहते हैं। यजुर्वेद के कुछ मन्त्र ॠग्वेद के हैं तो कुछ अथर्ववेद के हैं।

शतपथ ब्राह्मण का रचना-काल

मैक्डानेल ने ब्राह्मणकाल को 800 ई॰ पूर्व से 500 ई॰पू॰ तक माना है, लेकिन प्रो॰ सी॰ वी॰ वैद्य और दफ़्तरी का मत अधिक ग्राह्य प्रतीत होत है जिसमें उन्होंने शतपथ-ब्राह्मण का रचना-काल न्यूनतम ई॰ पू॰ 24वीं शताब्दी स्वीकार किया है।* यह आगे ई॰पू॰ 3000 तक जाता है। उनके अनुसार शतपथ-ब्राह्मण की रचना महाभारत-युद्ध के अनन्तर हुई। महाभारत का युद्ध ई॰पू॰ 3102 में हुआ। अत: यही समय याज्ञवल्क्य का भी माना जा सकता है। प्रो॰ विण्टरनित्स भी महाभारत-युद्ध की उपर्युक्त तिथि से सहमत प्रतीत होते है।* इसलिए आज से प्राय: 5000 वर्ष पूर्व शतपथ-ब्राह्मण का रचना-काल माना जा सकता है। प्रो॰ कीथ ने भी शतपथ को अपेक्षाकृत अधिक प्राचीन ब्राह्मण माना है।* कृत्तिकाओं के विषय में भी शतपथ में जो विवरण मिलता है, वह शंकर बालकृष्ण दीक्षित के अनुसार 3000 ई॰पू॰ के आस-पास का ही है। शतपथ के अनुसार कृत्तिकाएँ ठीक पूर्व दिशा में उदित होती हैं और वे वहाँ से च्युत नहीं होती।[3] पं॰ सातवलेकर के अनुसार* किसी ॠषि ने कृत्तिकाओं को पूर्व दिशा में अच्युत रूप में देखा, तभी शतपथ में उसका उल्लेख वर्तमानकालिक क्रिया से किया गया। अब तो पूर्व दिशा को छोड़कर कृत्तिकाएँ ऊपर की ओर अन्यत्र चली गई हैं। उनका ऊपर की ओर स्थानान्तरण 5000 वर्षों से कम की अवधि में नहीं हो सकता। ताण्ड्य-ब्राह्मण में सरस्वती के लुप्त होने के स्थान का नाम मिलता है-‘विनशन’ तथा पुन: उद्भूत होने के स्थान का नाम है ‘प्लक्ष प्रास्त्रवण’। किन्तु शतपथ में सरस्वती के लुप्त होने की घटना का उल्लेख नहीं है। प्रतीत होता है कि शतपथ के काल तक सरस्वती लुप्त नहीं हुई थी। राजा के अभिषेकार्थ जिस सारस्वत जल को तैयार किया जाता था, उसमें सरस्वती का जल भी मिलाया जाता था।* इस तथ्य से भी शतपथ की प्राचीनता पर प्राकाश पड़ता है।

शतपथगत याग-मीमांसा का वैशिष्ट्य

शतपथ में विविध प्रकार के यज्ञों के विधि-विधान का अत्यन्त सांगोपाङ्ग विवरण प्राप्त होता है। मैकदानेल ने इसी कारण इसे वदिक वाङ्मय में ॠग्वेद तथा अथर्ववेद के अनन्तर सर्वाधिक महत्वपूर्ण ग्रन्थ बतलाया है।* यज्ञों के नानारूपों तथा विविध अनुष्ठानों का जिस असाधारण परिपूर्णता के साथ शतपथ में निरूपण है, अन्य ब्राह्मणों में नहीं। आध्यात्मिक दृष्टि से भी यज्ञों के स्वरूप-निरूपण का श्रेय इस ब्राह्मण को प्राप्त है। शतपथ-ब्राह्मणकार इस तथ्य से अवगत है कि वैध-याग एक प्रतिकात्मक व्यापार है, इसीलिए उसने अन्तर्याग एवं बहिर्याग में पूर्ण सामंजस्य तथा आनुरूप्य पर बल दिया है। प्रा॰ लूइस रेनू ने भी इस ओर इंगित किया है।*

शतपथ के अनुसार यज्ञ का स्वरूप द्विविध है- प्राकृत एवं कृत्रिम। प्राकृत यज्ञ प्रकृति में निरन्तर चल रहा है; उसी के अनुगमन से अन्य यज्ञों के विधान बने – ‘देवान् अनुविधा वै मनुष्या: यद् देवा: अकुर्वन् तदहं करवाणि।’ ‘यज्ञ’ के नामकरण का हेतु उसका विस्तृत किया जाना है- ‘तद् यदेनं तन्वते तदेनं जनयन्ति स तायमानो जायते* इस ब्राह्मण में वाक्, पुरुष, प्राण, प्रजापति, विष्णु आदि को यज्ञ से समीकृत किया गया है। शतपथ ने यज्ञ को जीवन का सबसे महत्वपूर्ण कृत्य बतलाया है- ‘यज्ञो वै श्रेष्ठतमं कर्म’* तदनुसार जगत अग्नीषोमात्मक है। सोम अन्न है तथा अग्नि अन्नाद। अग्निरूपी अन्नाद सोमरूपी अन्न की आहुति ग्रहण करता रहता है। यही क्रिया जगत में सतत विद्यमान है। शतपथ-ब्राह्मण में यज्ञ की प्रतीकात्मक व्याखाएँ भी है। एक रूपक के अनुसार यज्ञ पुरुष है, हविर्द्वान उसका शिर, आहवनीय मुख, आग्नीध्रीय तथा मार्जालीय दोनों बाहुएँ हैं। यहाँ यज्ञ का मानवीकरण किया गया है।* सृष्टि-यज्ञ का रूपक भी उल्लेख्य है। तदनुसार संवत्सर ही यजमान है, ॠतुएँ यज्ञानिष्ठान कराती हैं, बसन्त आग्निघ्र है, अत: बसन्त में दावाग्नि फैलती हैं; ग्रीष्म-ॠतु अध्वर्युस्वरूप है, क्योंकि वह तप्त-सी होती है। वर्षा उद्गाता है, क्योंकि उसमें जोर से शब्द करते हुए जल-वर्षा होती है; प्रजा ब्रह्मावती है; हेमन्त होता है।

यह यज्ञ पांक्त[4] है। शतपथ ने यज्ञ को देवों की आत्मा कहा है।* अनृत-भाषणादि कार्यों से यज्ञ को क्षति पहुँचती है।* यज्ञ ही प्रकाश, दिन, देवता तथा सूर्य है। देवों ने यज्ञ के द्वारा ही सब कुछ पाया था। यज्ञ के द्वारा यजमान मृत्यु से ऊपर उठ जाता है।

शतपथ ने यज्ञ-मीमांसा का प्रारम्भ हविर्यागों से किया है जिनका आधार अग्निहोत्र है। अग्निहोत्री को अग्नि मृत्यु के पश्चात भी नष्ट नहीं करता, अपितु माता-पिता के समान नवीन जन्म दे देता है। अग्निहोत्र कभी भी बंद नहीं होता। यह यजमान को स्वर्ग ले जाने वाली नौका के सदृश है-‘नौर्ह वा एषा यदग्निहोत्रम्’* ‘अध्वरो वै यज्ञ:’* प्रभृति उल्लेखों से स्पष्ट है कि शतपथ की दृष्टि में सामान्यत: यज्ञ में हिंसा नहीं होनी चाहिए। ग्यारहवें काण्ड में पञ्चमहायज्ञों-भूतयज्ञ, मनुष्ययज्ञ, पितृयज्ञ, देवयज्ञ और ब्रह्मयज्ञ का विशेष विवेचन है।* स्वाध्यायरूप ‘ब्रह्मयज्ञ’ की प्ररोचना करते हुए वहीं कहा गया है कि ॠक् का अध्ययन देवों के लिए पयस् की आहुति है, यजुष् का आज्याहुति, साम का सोमाहुति, अथर्वाङिगरस् का मेदस्-आहुति है। विभिन्न वेदांगों (अनुशासन), वाकोवाक्य, इतिहास और पुराण तथा नाराशंसी गाथाओं का अध्ययन देवों के लिए मधु की आहुति है। पं॰ मोतीलाल शास्त्री ने शतपथ-ब्राह्मण की याग-विवेचना में निहित आध्यात्मिक प्रतीकवत्ता की विशद व्याख्या अपने विज्ञानभाष्य में की है।[5]

शतपथ-ब्राह्मण ने यज्ञ की सर्वाङ्गीण समृद्धि पर बल दिया है। इसके लिए याज्ञवल्क्य ने अनेक पूर्ववर्ती यागवेत्ताओं से अपना मतवैभिन्य भी प्रकट किया है। उनकी दृष्टि में यज्ञ एक सजीव पुरुष है। उसके लिए भी शरीर के आच्छादनार्थ वस्त्र एवं क्षुत्पिपासा-शमनार्थ भोजन चाहिए।* वे कण-कण मंत जीवन-प्रदायिनी शक्ति देखते हैं। किसी भी रूप में यज्ञ का अङ्ग-वैकल्य उन्हें अभीष्ट नहीं है। यज्ञ-विधि को याज्ञवल्क्य अपौरुषेय मानते हैं। कठिन नियमों से वे पलायन नहीं करते। कालगत, देशगत, पात्रगत, वस्तुगत तथा क्रमगत औचित्यो। पर शतपथ-ब्राह्मणकार की निरन्तर दृष्टि रही है। वह शब्दप्रयोग की दृष्टि से भी निरन्तर सजग है। उदाहरण के लिए ‘दर्शेष्टि’ में अध्वर्यु वत्सापाकरण करते समय ‘वायव:स्थ’ मन्त्र का उच्चारण भी करता है। तैत्तिरीय शाखा में ‘वायव:स्थ’ के साथ-साथ ‘उपायव:स्थ’* पाठ भी मिलता है।[6] अन्य आचार्य भले ही दोनों को एक समझते हों, किन्तु याज्ञवल्क्य ने ‘वायव:स्थ’ पाठ पर ही बल दिया है। लोकव्यवहार के प्रति उनमें समादर की दृष्टि है। यज्ञ-विधान के समय उसका वे ध्यान रखते हैं। यज्ञ-वेदि का स्वरूप स्त्री के समान बतलाकर उन्होंने अपनी सौन्दर्य-दृष्टि का परिचय दिया है-‘योषा वै व्वैदिर्वृषाग्नि: परिगृह्य वै योष व्वृषाणं शेते।* इसी प्रसंग में उनका कथन है कि यज्ञ-वेदि के दोनों अंस उन्नत होने चाहिए। मध्य में उसे पतली होना चाहिए तथा उसका पिछला भाग (श्रोणि) अधिक चौड़ा होना चाहिए-
सा वै पश्चाद्वरीयसी स्यात्। मध्ये संस्वारिता पुन: पुरस्तादुर्व्येवमिव हि योषां प्रशसन्ति पृथुश्रोणिर्विमृष्टान्तरां सा मध्ये संग्राह्योति जुष्टामेवैनामेतद्देवेभ्य: करोति।*
इस प्रकार यज्ञ-विवेचना के प्रसंग में शतपथ-ब्राह्मणकार का दृष्टिकोण अत्यन्त व्यावहारिक, सर्वाङ्गीण और कलामय है।

शतपथ-ब्राह्मण में सांस्कृतिक तत्व

शतपथ-ब्राह्मण के षष्ठ से लेकर दसवें काण्ड तक, जिन्हें ‘शाण्डिल्य-काण्ड’ भी कहते है, क्योंकि इनमें उनके मत का आदरपूर्वक पौन: पुन्येन उल्लेख है, गान्धार, केकय और शाल्व जनापदों की विशेष चर्चा की गई है। अन्य काण्डों में आर्यावर्त के मध्य तथा पूर्वभाग- कुरु पांचाल, कोसल, विदेह, सृंजय आदि जनपदों का उल्लेख है। शतपथ-ब्राह्मण में वैदिक संस्कृति के सारस्वत-मण्डल से पूर्व की ओर प्रसार का सांकेतिय कथन है। अश्वमेध के प्रसंग में अनेक प्राचीन सम्राटों का उल्लेख है जिनमें जनक, दुष्यंत और जनमेजय के नाम महत्वपूर्ण हैं। देवशास्त्रीय सामग्री भी शतपथ में पुष्कल हैं। वरुण को ‘धर्मपति’ कहा गया है* जो उनके ॠत (प्रकृति के शाश्वत नियम) पालक स्वरूप का द्योतक है। इस ब्राह्मन में कुल 3003 देवों की स्थिति बतलाई गई है, किन्तु वास्तव में 33 देवताओं का ही स्वरूप-निरूपण है।* विदग्ध शाकल्य ने जब याज्ञवल्क्य से 3003 देवों के नाम पूछे, तो उन्होंने उत्तर दिया कि ये देव न होकर उनकी महिलाएँ हैं। नाम्ना केवल 33 देवों का ही उल्लेख है। ये हैं-

  • 8 वसु,
  • 11 रुद्र,
  • 12 आदित्य तथा इन्द्र,
  • प्रजापति।

अभिचार को इस ब्राह्मण में ‘वलग’ कहा गया है-‘इदमहं ते वलगमुत्किरामि यन्मे निष्ठ्योऽयमात्यो निचरवाम’* श्रम एवं तप का महत्व इस ब्राह्मण में पौन:पुन्येन प्रदर्शित है अनृतभाषी को अमेध्य कहा गया है-‘अमेध्यो वै पुरुषो यदनृतं’ वदति*

आख्यान-उपाख्यान

शतपथ-ब्राह्मण आख्यानों का एक अत्यन्त महत्वपूर्ण संकलन है इनमें अनेक ऐसे आख्यान हैं, जिनका इतिहास-पुराण में विशद उपबृंहण हुआ है। इनमें इन्द्र-वृत्र-युद्ध, योषित्कामी गन्धर्व, सुपर्णी तथा कद्रू, च्यवन भार्गव तथा शर्यात मानव, स्वर्भानु असुर तथा सूर्य, वेन्य, असुर नमुचि एंव इन्द्र, पुरूरवाउर्वशी, केशिन्-राजन्य, मनु एंव श्रद्धा तथा जल-प्लावन आदि के आख्यान अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं।

सृष्टि-प्रक्रिया

शतपथ-ब्राह्मण के अनुसार सृष्टि के प्रारम्भ में, ब्रह्म के दो रूप थे- मूर्त और अमूर्त। इन्हें ‘यत्’ और ‘त्यत्’ अर्थात सत् तथा असत् कहा जा सकता है-‘द्वै वाव ब्रह्मणो रूपे। मूर्त्त चैवामूर्त्तम्। स्थितं च यच्च। सच्च त्यच्च’।* यज्ञ विश्वसृष्टि का मूलहेतु है। यज्ञ में ही प्रजाएँ उत्पन्न हुईं, जिनसे सृष्टि का विकास होता रहा-‘यज्ञाद्वै प्रजा: यज्ञात्प्रजायमाना मिथुना प्रजायन्ते…अन्ततो यज्ञस्येमा: प्रजा: प्रजायन्त’।* सृष्टि-कर्ता प्रजापति यज्ञ हैं। मनु-मत्स्य-प्रकरण में प्रलय के अनन्तर मनु के द्वारा जल एवं आमिक्षा से सम्पादित यज्ञ से एक सुन्दर स्त्री की उत्पत्ति बतलाई गई है। इस प्रकार यज्ञ विश्व की नाभिस्थली है। अभिप्राय यह है कि सृष्टि के आरम्भ में एकमात्र ब्रह्म की सत्ता थी और तदनन्तर प्रजापति की-‘प्रजापतिर्वा इदमग्र आसीत्’।* इस बिन्दु पर शतपथ का अन्य ब्राह्मणग्रन्थों से पूर्ण साहमत्य दिखता है। आगे प्रजापति के अजायमान तथा विजयमान (निरुक्त तथा अनिरुक्त) रूपों का उल्लेख है-

  • ‘उभयं वा एतत्प्रजापतिर्निरुक्तश्चानिरुक्तश्च, परिमितश्चापरिमित्श्च’*

प्रजापति की उत्पत्ति जल में तैरते हुए हिरण्यमय अण्ड से मानी गई है-

  • ‘तस्मादाहुर्हिरण्यमय: प्रजापतिरिति’*

‘आपो ह वा इदमग्रसलिलमेवास्…संवत्सरे हि प्रजापतिरजायत्।*
शनै:शनै: प्रजापति के श्रम एवं तप से सृष्टि-प्रक्रिया आगे बढ़ी-

  • ‘प्रजापतिर्हवा इदमग्र एक एवास। स ऐक्षत कथं नु प्रजायेय इति सोऽश्राम्यत, स तपोऽतप्यत’*

भुवनों में सर्वप्रथम पृथ्वी की रचना हुई-‘इयं वै पृथिवी भूतस्य प्रथमजा’* इसके पश्चात हिलती हुई पृथिवी के दृढीकरण, शर्करासम्भरण (कंकड़ों की स्थापना), फेन-सृजन, मृत्तिका-सृजन, पशु-सृष्टि, औषधियों एवं वनस्पतियों की सृष्टि, अन्य लोकों की सृष्टि, संवत्सरादि की सृष्टि, विभिन्न वेदों और छन्दों के आविर्भाव का शतपथ-ब्राह्मण में वर्णन है।

संस्करण

शतपथ ब्राह्मण के विभिन्न प्रकाशित और अनूदित संस्करणों का विवरण इस प्रकार है-

  • सन् 1940 में लक्ष्मी वेंकटेश्वर प्रेस, मुम्बई से सायण-भाष्य (वेदार्थप्रकाश) तथा हरिस्वामी की टीका-सहित सम्पूर्ण माध्यन्दिन शतपथ-ब्राह्मण प्रकाशित हुआ। इसके सम्पादक हैं श्रीधर शर्मा वारे।
  • वेबर द्वारा सम्पादित संस्करण सन् 1855 में प्रकाशित्। इसी का पुनर्मुद्रण चौखम्बा संस्कृत सीरीज आफिस, वाराणसी से सन् 1964 में हुआ।
  • सत्यव्रत सामश्रमी के द्वारा अपनी ही टीका के साथ कलकत्ते से सन् 1912 में सम्पादित और प्रकाशित्।
  • शतपथ-ब्राह्मण (विज्ञान-भाष्य) पं॰ मोतीलाल शर्मा, राजस्थान वैदिक तत्व-शोध संस्थान, मानवाश्रम, जयपुर से 1956 ई॰ में प्रकाशित।
  • शतपथ-ब्राह्मण (हिन्दी अनुवाद), पं॰ गंगाप्रसाद उपाध्याय, प्राचीन वैज्ञानिक अध्ययन-अनुसन्धान संस्थान, दिल्ली से 1967 ई॰ में प्रकाशित।
  • शतपथ-ब्राह्मण (महत्वपूर्ण अंशो के सरलभावानुवाद के साथ), सं॰ चमनलाल गौतम, संस्कृति संस्थान, बरेली से 1973 ई॰ में प्रकाशित।
  • शतपथ-ब्राह्मण, वैदिक यन्त्रालय, अजमेर से सन् 1950 ई॰ में मुद्रित।
  • मा॰ शतपथ-ब्राह्मण (अंग्रेजी अनुवाद) जूलियस एगलिंग, से॰बु॰ई॰, भाग।
  • काण्व-शतपथ (प्रथम काण्ड), कलान्द-सम्पादित, लाहौर।
  • काण्व- शतपथ-ब्राह्मण, सम्पादन- डॉ॰ स्वामीनाथन् इन्दिरागान्धी कला केन्द्र दिल्ली 1994 में प्रकाशित।

टीका-टिप्पणी

  1. शतपथगत स्वर-प्रक्रिया के विशेष विवरण के लिए द्रष्टव्य-प्रो॰ व्रजबिहारी चौबे-‘शतपथ’ ब्राह्मण की स्वर-प्रक्रिया, राजस्थान विश्वविद्यालय पत्रिका, स्टडीज, 1968-69, पृ॰ 61-73; भाषिकसूत्रम्, होशियारपुर, 1975
  2. स्कन्द पुराण 6.129.1 1-2
  3. कृत्तिकास्वादधीत। एता ह वै कृत्तिका: प्राच्यै दिशो न च्यवन्ते। (शतपथ ब्राह्मण, 2.2.1.2)
  4. म॰म॰ पं॰ गोपीनाथ कविराज के अनुसार यज्ञ का पांक्त स्वरूप देवता, हविर्द्रव्य, मन्त्र, ॠत्विक् तथा दक्षिणा से सम्पन्न होता है- भारतीय संस्कृति और साधना, प्रथम खण्ड, पृष्ठ 168 शतपथ ब्राह्मण, 1.1.2.16
  5. शतपथ-ब्राह्मण हिन्दी विज्ञान-भाष्य, राजस्थान वैदिक तत्वशोध संस्थान, जयपुर
  6. याज्ञवल्क्य के अनुसार ‘उप’ का अर्थ द्वितीय और ‘द्वितीय’ का अर्थ शत्रु होता है, इसलिए उसे छोड़ देना चाहिए-शतपथ ब्राह्मण 1.7.1.3

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श्रुतियां


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क्षत्रपति संभाजी राजे


क्षत्रपति संभाजी राजे——-!
”होनहार विरवान के होत चीकने पात’ जैसी चरितार्थ कथा यथार्थ यदि देखना हो तो क्षत्रपति शिवाजी महाराज के पुत्र संभाजी को देखा जा सकता है धरती पर कदम रखते ही संघर्षो का जिसका साथ रहा हो जिसने ५-६ वर्ष की आयु से ही पिता के कंधे से कन्धा मिलाकर संघर्ष किया हो, जिसके पास हिन्दू पद्पाद्शाही से क्षत्रपति तक का अनुभव रहा हो, जिसने शिवा जी राजे की संघर्ष शील छत्र क्षाया में प्रशिक्षण प्राप्त किया हो, ऐसे संभा जी के ऊपर उनके अष्ट प्रधानो द्वारा ही अपने निजी स्वार्थ के कारन उन्हें लांछित करने का प्रयास किया जा रहा हो, एक तरफ औरंगजेब की पांच लाख की सेना का आक्रमण तो दूसरी तरफ साम्राज्य की अंतर कलह ऐसी विकट परिस्थिति में जिस महापुरुष ने २२ वर्ष कि अल्प आयु में क्षत्रपति जैसे दायित्व का भार सुशोभित किया जिसने नौ वर्षो तक सफलता पूर्वक शासन ही नहीं किया बल्कि हिन्दवी साम्राज्य का विस्तार भी किया ऐसे महान देश भक्त धर्म वीर सम्भाजी राजे ही हो सकते है संभा जी का जन्म १६५७ में हुआ आठ वर्ष की आयु में पिता की आज्ञा से मुग़ल दरबार में पांच हजारी लेकर राजा की उपाधि ग्रहण की लेकिन वे तो हिन्दवी स्वराज्य संसथापक शिवा जी महाराज के पुत्र थे उन्हें यह नौकरी बर्दास्त नहीं थी, लेकिन पिता की आज्ञा मानकर मराठा सेना के साथ छह वर्षो तक औरंगजेब के यहाँ रहे १४ साल की आयु में उन्होंने ३ संस्कृति ग्रन्थ लिखे वे कितने मेधावी थे इससे यह पता चलता है.
उन्होंने बचपन में ही शिवाजी महराज जैसे पिता के नेतृत्व में राजनीति, संघर्ष और स्वाभिमान के साथ जीना सीखा था, वे राजभवन के षडयंत्र से बच नहीं सके उनके ऊपर तमाम प्रकार के गलत अनर्गल प्रकार के आरोप लगाकर शिवाजी के अन्तरंग लोगो ने साम्राज्य को कमजोर करने का जाने- अनजाने षडयंत्र करते रहे, क्षत्रपति बनने के पश्चात् वे लगातार १२ वर्षो तक मुग़ल सम्राट औरंगजेब, पुर्तगालियो, दक्षिण के मुस्लिम सासको तथा इष्ट इण्डिया कंपनी से संघर्ष के साथ-साथ हिन्दू साम्राज्य का विस्तार कर संभाजी राजे ने यह सिद्ध कर दिया की वे हिन्दू पदपद्साही के कुशल उत्तराधिकारी हैं, वे संकल्प शक्ति के धनी थे उन्हें अपने महान पिता व माता जीजा बाई का बराबर स्मरण रहता था वे केवल संकल्प ही नहीं तो वीर योधा और कुशल सेनापति भी थे, अपने नौ वर्षो के शासन में १२० युद्ध लड़ी किसी में उन्हें हार का सामना नहीं करना पड़ा, तमाम युद्ध बहुत कम आयु में शिवजी के नेतृत्व में लड़ चुके थे कहीं न कहीं वे शिवा जी महाराज से भी कर्मठ और योग्य हिन्दू धर्म रक्षक थे जिन्होंने हिन्दू समाज, अपने पिता सहित गुरु समर्थ रामदास के मर्यादा की भी रक्षा की, यदि कहा जाय तो अपने सम- कालीन ही वीरबन्दा वैरागी के सामान क्रन्तिकारी और धर्म रक्षक थे.
शिवा जी महराज की मृत्यु के पश्चात् २० जुलाई १६८० में उनके दरबारी संभाजी के स्थान पर उनके छोटे भाई राजाराम को गद्दी पर बिठाना चाहते थे लेकिन तत्कालीन सेनापति मोहिते ने इसे कामयाब नहीं होने दिया १० जनवरी १६८१ को संभाजी राजे का बिधिवत राज्याभिषेक हुआ उन्होंने अनेक युद्ध लड़ा पुर्तगालियो को पराजित कर किसी राजनैतिक कारन से वे संगमनेर में रहने लगे अपने साथ केवल २०० सैनिको को रख सभी सेना को रायगढ़ भेज दिया यह केवल मराठो को ही पता था सम्भाजी के साले गणेश जी सिरके ने गद्दारी कर मुग़ल सेना सरदार इलियास खान ५००० सेना सहित गुप्त रास्ते से आ गया, यह रास्ता केवल मराठे ही जानते थे वे घिर गए युद्ध के प्रयास करने पर भी २०० सैनिको के साथ वे कुछ कर नहीं सके, उन्हें १फ़रवरी १६८९ को जीवित पकड़ लिया, मुगलों को उनका सबसे प्रबल शत्रु मिल चुका था महराज के साथ उनके मित्र, सलाहकार, कबि कलस भी थे दोनों के मुख में कपड़ा ठूसकर बढ़कर घोड़े पर लादकर उन्हें मुग़ल छावनी लाया गया औरंगजेब ने उन्हें मुसलमान बनाने की कोसिस की मुग़ल छावनी में उन्हें बास में बाधकर घसीटा गया सरीर का अंग-अंग कट गया कपडे फट गए कबि कलश और संभाजी दोनों ने इस्लाम स्वीकार करने से मना के दिया वे वीर पिता के धर्मवीर पुत्र थे, औरंगजेब ने महराज से कहा की यदि मेरे चारो पुत्रो में से कोई भी तुम्हारे जैसा होता तो मै पूरे हिंदुस्तान पर सासन करता, पूरे मुग़ल छावनी में उनका अपमान पुर्बक जुलुस निकाला गया उनका सिर मुडाया गया था वे पहचान में नहीं आते थे वे निश्प्रिय लग रहे थे जैसे कोई सन्यासी हो कुछ हो ही न रहा हो (इतिहास बताता है की उस जुलुस में बल पूर्बक एक लाख हिन्दुओ को सम्लित किया गया था) उन्होंने कहा की मै धर्मवीर पिता का पुत्र हूँ यदि तुम अपनी पुत्री हमें देदो तो भी मै इस्लाम नहीं स्वीकार करुगा उनकी जबान काट ली, जब उन्होंने औरंगजेब को घूर तो उसने उनके आखो में गरम सलाखे डाल दी, उनके हाथ काट लिया और अंत में एक दिन ११ मार्च १६८९ को उनके तुकडे-तुकडे कर (हत्या कर) तुलापुर की नदी में फेक दिया उस नदी के किनारे रहने वालो ने उस भयंकर भयभीत दसा में क्षत्रपति संभाजी के लॉस के तुकडे को इकठ्ठा कर सिलकर जोड़ दिया और महराज का बिधि पूर्बक दाह संस्कार किया आज उनको लोग सिवले के नाम से जानते है.
औरंगजेब को लगता था कि क्षत्रपति संभाजी के समाप्त होने के पश्चात् हिन्दू साम्राज्य समाप्त हो जायेगा, जब सम्भाजी मुसलमान हो जायेगा तो सारा का सारा हिन्दू मुसलमान हो जायेगा लेकिन वह नहीं जनता था कि वह वीर पिता का धर्म वीर पुत्र वह बिधर्मी न होकर मौत को गले लगाएगा, उसकी बुद्धि काम नहीं की वह नहीं जनता था कि सम्भाजी किस मिट्टी का बना हुआ है, सम्भाजी मुगलों के लिए रक्त बीज साबित हुआ, प्रत्येक हिन्दू सम्भाजी बनकर खड़ा हो गया, सम्भाजी की मौत ने मराठो को जागृत कर दिया और सभी इकठ्ठा होकर लड़ने लगे उससे हिन्दवी साम्राज्य का बिस्तार तो हुआ ही पूरा भारत खड़ा हो गया मुगलों का सासन केवल दिल्ली तक ही सिमट कर रह गया, औरंगजेब की समाधी भी वहीँ बन गयी वह लौटकर वापस अपनी राजधानी नहीं जा सका, सम्भाजी का जीवन बहुत अल्प था केवल ३१ वर्ष कि आयु में चले गए, लेकिन हिंदुत्व के लिए उन्होंने एक ऐसा उदहारण प्रस्तुत किया जैसे वीरबंदा बैरागी ने किया इन्ही धर्म वीरो ने भारत और हिन्दू धर्म की रक्षा की आज हमें उनसे प्रेरणा लेने की आवस्यकता है. क्षत्रपति संभाजी महराज हिन्दू इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठ हैं उन्हें गुरु गोविन्द सिंह, वीरबन्दा बैरागी जैसे राणाप्रताप और शिवाजी की अग्रिम पंक्ति में खड़ा करेगा, भविष्य का इतिहास और सम्पूर्ण हिन्दू समाज उन पर गर्व करेगा.

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पृथ्वी राज की समाधि को पैरों से ठोकर मारकर ले रहे हैं गोरी की हत्या का बदला


पृथ्वी राज की समाधि को पैरों से ठोकर मारकर ले रहे हैं गोरी की हत्या का बदला

कुछ घंटे पहले हमने अपनी आजादी की 67 वीं वर्षगांठ धूमधाम से मनाई। इस मौके पर देश ने अपने महान सपूतों और वीरांगनाओं को याद किया। लेकिन क्या आपको मालूम है कि भारत पर अंग्रेजों के कब्जे से कई शताब्दियों पहले ही विदेशी आक्रमणकारियों ने हमारी जमीन को नापाक करने की कोशिश की थी?

सबसे पहले 1001 ईस्वी में मध्य पूर्व एशियाई लुटेरे महमूद गजनवी ने भारत के बड़े हिस्से में लूटमार की शुरुआत की थी। उसने जबर्दस्ती धर्म परिवर्तन भी कराए। गजनवी को भारत में ज्यादा संघर्ष नहीं करना पड़ा था। गजनवी ने ही सोमनाथ मंदिर को ‘अपवित्र’ किया था। गजनवी ने 17 बार भारत पर हमला किया था। गजनवी के जाने के करीब डेढ़ सौ साल बाद अफगानिस्तान के घोर के रहने वाले आक्रांता मोहम्मद गोरी ने हिंदुस्तान पर नजर टेढ़ी की थी। उसने भी इस्लाम के विस्तार के नाम पर भारत के पश्चिम उत्तर में अत्याचार और लूटमार की थी। लेकिन भारत के एक वीर सपूत ने उसके दांत खट्टे कर दिए थे और पहली जंग में उसे बुरी तरह हरा दिया था।

पृथ्वीराज चौहान ने किए थे गोरी के दांत खट्टे

अफगानिस्तान के घोर के रहने वाले शहाबुद्दीन मोहम्मद गोरी को तब हिंदुस्तान पर हमले की पहली कोशिश में कामयाबी मिली थी। उसने मुल्तान के मुस्लिम शासक को हराकर वहां कब्जा कर लिया था। लेकिन जब उसने गुजरात की ओर रुख किया तो उसे कायदरा में भीमदेव सोलंकी के हाथों हार का सामना करना पड़ा था। लेकिन गोरी ने यहीं हार नहीं मानी। उसने करीब 23 साल बाद 11911 में खैबर दर्रे को पार करते हुए भारत की ओर रुख किया था। उसने भठिंडा के किले पर कब्जा कर लिया। तब भठिंडा पृथ्वीराज चौहान की रियासत का हिस्सा था। गोरी ने बठिंडा के किले को काजी जियाउद्दीन को सौंपकर वापस जाने का फैसला किया था। लेकिन तभी उसे सूचना मिली कि पृथ्वीराज चौहान की सेना किले को दोबारा हासिल करने के लिए आ रही है। दोनों के बीच तराइन (आज के हरियाणा के थानेसर से 14 मील दूर) के मैदान में जंग हुई। जंग में गोरी को बुरी तरह से मात खानी पड़ी। गोरी को गिरफ्तार कर लिया गया। उसने माफी मांगते हुए आज़ाद किए जाने की मांग की। पृथ्वीराज के सलाहकार गोरी को छोड़ने के खिलाफ थे। लेकिन पृथ्वीराज ने दया दिखाते हुए गोरी को छोड़ दिया।

पृथ्वीराज की चूक पड़ी भारी

मोहम्मद गोरी पर दया दिखाना पृथ्वीराज पर भारी पड़ा। उसने एक साल बाद 1192 ईस्वी में करीब 1 लाख 20 हजार दासों (मामलूक) की फौज खड़ी कर पृथ्वीराज के राज्य पर फिर हमला किया। तराइन के मैदान में हुई दूसरी लड़ाई में पृथ्वीराज को हार का मुंह देखना पड़ा। गोरी पृथ्वीराज को गिरफ्तार कर अपने साथ अफगानिस्तान के गजनी इलाके में ले गया। लौटने से पहले मोहम्मद गोरी ने दिल्ली के तख्त पर कुतुबउद्दीन एबक को बैठा दिया और उसे सुल्तान घोषित कर दिया। पृथ्वीराज की हार के बाद भारत के मुख्य हिस्से पर इस्लामिक शासन की शुरुआत हुई। कई मायने में यह ऐतिहासिक घटना थी।

पृथ्वीराज ने ले लिया था बदला!

मोहम्मद गोरी के बारे में इतिहासकार कहते हैं कि पाकिस्तान के पंजाब प्रांत के झेलम जिले में एक विद्रोह को कुचलने के दौरान उसकी हत्या कर दी गई थी। लेकिन पृथ्वीराज के दरबारी कवि चंद्र बरदाई के काव्य पृथ्वीराज रासो के मुताबिक पृथ्वीराज ने मोहम्मद गोरी की हत्या कर अपनी हार का बदला ले लिया था

आज भी अफगानिस्तान में मौजूद है पृथ्वीराज की ‘समाधि’

अफगानिस्तान के गजनी शहर के बाहरी इलाके में आज भी पृथ्वीराज की समाधि मौजूद है। गोरी की मजार पाकिस्तान के पंजाब के झेलम जिले में है। कई इतिहासकार गोरी की मजार के गजनी शहर में होने का दावा करते हैं।

पृथ्वीराज की समाधि का अपमान कर रहे हैं अफगानी

‘आर्म्स एंड आर्मर: ट्रेडिशनल वेपंस ऑफ इंडिया’ नाम की किताब लिखने वाले ई जयवंत पॉल के मुताबिक, अफगानिस्तान के गजनी शहर के बाहरी इलाके में मौजूद पृथ्वीराज की समाधि आज बहुत ही बुरी हालत में है। गोरी की मौत के 900 साल बाद भी अफगानिस्तानी और पाकिस्तानी उसे अपना ‘हीरो’ मानते हैं। ये लोग गोरी की मौत का बदला लेने के लिए अपना गुस्सा पृथ्वीराज की समाधि पर निकालते हैं। पॉल की किताब के मुताबिक पृथ्वीराज की मजार के ऊपर एक लंबी मोटी रस्सी लटकी हुई है। कंधे की ऊंचाई पर इस रस्सी में गांठ लगी हुई है। स्थानीय लोग रस्सी की गांठ को एक हाथ में पकड़कर मजार के बीचोबीच अपने पैर से ठोकर मारते हैं।

पृथ्वीराज की मजार से मिट्टी लेकर लौटने का दावा

एक भारतीय शमशेर सिंह राणा 2005 में अफगानिस्तान में मौजूद पृथ्वीराज की समाधि से मिट्टी लेकर लौटा है। उसने ऐसा कर भारत का सम्मान वापस लौटाया है।

पृथ्वी राज की समाधि को पैरों से ठोकर मारकर ले रहे हैं गोरी की हत्या का बदला

कुछ घंटे पहले हमने अपनी आजादी की 67 वीं वर्षगांठ धूमधाम से मनाई। इस मौके पर देश ने अपने महान सपूतों और वीरांगनाओं को याद किया। लेकिन क्या आपको मालूम है कि भारत पर अंग्रेजों के कब्जे से कई शताब्दियों पहले ही विदेशी आक्रमणकारियों ने हमारी जमीन को नापाक करने की कोशिश की थी?

सबसे पहले 1001 ईस्वी में मध्य पूर्व एशियाई लुटेरे महमूद गजनवी ने भारत के बड़े हिस्से में लूटमार की शुरुआत की थी। उसने जबर्दस्ती धर्म परिवर्तन भी कराए। गजनवी को भारत में ज्यादा संघर्ष नहीं करना पड़ा था। गजनवी ने ही सोमनाथ मंदिर को ‘अपवित्र’ किया था। गजनवी ने 17 बार भारत पर हमला किया था। गजनवी के जाने के करीब डेढ़ सौ साल बाद अफगानिस्तान के घोर के रहने वाले आक्रांता मोहम्मद गोरी ने हिंदुस्तान पर नजर टेढ़ी की थी। उसने भी इस्लाम के विस्तार के नाम पर भारत के पश्चिम उत्तर में अत्याचार और लूटमार की थी। लेकिन भारत के एक वीर सपूत ने उसके दांत खट्टे कर दिए थे और पहली जंग में उसे बुरी तरह हरा दिया था।



पृथ्वीराज चौहान ने किए थे गोरी के दांत खट्टे 

अफगानिस्तान के घोर के रहने वाले शहाबुद्दीन मोहम्मद गोरी को तब  हिंदुस्तान पर हमले की पहली कोशिश में कामयाबी मिली थी। उसने मुल्तान के मुस्लिम शासक को हराकर वहां कब्जा कर लिया था। लेकिन जब उसने गुजरात की ओर रुख किया तो उसे कायदरा में भीमदेव सोलंकी के हाथों हार का सामना करना पड़ा था। लेकिन गोरी ने यहीं हार नहीं मानी। उसने करीब 23 साल बाद 11911 में खैबर दर्रे को पार करते हुए भारत की ओर रुख किया था। उसने भठिंडा के किले पर कब्जा कर लिया। तब भठिंडा पृथ्वीराज चौहान की रियासत का हिस्सा था। गोरी ने बठिंडा के किले को काजी जियाउद्दीन को सौंपकर वापस जाने का फैसला किया था। लेकिन तभी उसे सूचना मिली कि पृथ्वीराज चौहान की सेना किले को दोबारा हासिल करने के लिए आ रही है। दोनों के बीच तराइन (आज के हरियाणा के थानेसर से 14 मील दूर) के मैदान में जंग हुई। जंग में गोरी को बुरी तरह से मात खानी पड़ी। गोरी को गिरफ्तार कर लिया गया। उसने माफी मांगते हुए आज़ाद किए जाने की मांग की। पृथ्वीराज के सलाहकार गोरी को छोड़ने के खिलाफ थे। लेकिन पृथ्वीराज ने दया दिखाते हुए गोरी को छोड़ दिया।



पृथ्वीराज की चूक पड़ी भारी 

मोहम्मद गोरी पर दया दिखाना पृथ्वीराज पर भारी पड़ा। उसने एक साल बाद 1192 ईस्वी में करीब 1 लाख 20 हजार दासों (मामलूक) की फौज खड़ी कर पृथ्वीराज के राज्य पर फिर हमला किया। तराइन के मैदान में हुई दूसरी लड़ाई में पृथ्वीराज को हार का मुंह देखना पड़ा। गोरी पृथ्वीराज को गिरफ्तार कर अपने साथ अफगानिस्तान के गजनी इलाके में ले गया। लौटने से पहले मोहम्मद गोरी ने दिल्ली के तख्त पर कुतुबउद्दीन एबक को बैठा दिया और उसे सुल्तान घोषित कर दिया। पृथ्वीराज की हार के बाद भारत के मुख्य हिस्से पर इस्लामिक शासन की शुरुआत हुई। कई मायने में यह ऐतिहासिक घटना थी।



पृथ्वीराज ने ले लिया था बदला! 

मोहम्मद गोरी के बारे में इतिहासकार कहते हैं कि पाकिस्तान के पंजाब प्रांत के झेलम जिले में एक विद्रोह को कुचलने के दौरान उसकी हत्या कर दी गई थी। लेकिन पृथ्वीराज के दरबारी कवि चंद्र बरदाई के काव्य पृथ्वीराज रासो के मुताबिक पृथ्वीराज ने मोहम्मद गोरी की हत्या कर अपनी हार का बदला ले लिया था



आज भी अफगानिस्तान में मौजूद है पृथ्वीराज की ‘समाधि’ 

अफगानिस्तान के गजनी शहर के बाहरी इलाके में आज भी पृथ्वीराज की समाधि मौजूद है। गोरी की मजार पाकिस्तान के पंजाब के झेलम जिले में है। कई इतिहासकार गोरी की मजार के गजनी शहर में होने का दावा करते हैं।



पृथ्वीराज की समाधि का अपमान कर रहे हैं अफगानी 

‘आर्म्स एंड आर्मर: ट्रेडिशनल वेपंस ऑफ इंडिया’ नाम की किताब लिखने वाले ई जयवंत पॉल के मुताबिक, अफगानिस्तान के गजनी शहर के बाहरी इलाके में मौजूद पृथ्वीराज की समाधि आज बहुत ही बुरी हालत में है। गोरी की मौत के 900 साल बाद भी अफगानिस्तानी और पाकिस्तानी उसे अपना ‘हीरो’ मानते हैं। ये लोग गोरी की मौत का बदला लेने के लिए अपना गुस्सा पृथ्वीराज की समाधि पर निकालते हैं। पॉल की किताब के मुताबिक पृथ्वीराज की मजार के ऊपर एक लंबी मोटी रस्सी लटकी हुई है। कंधे की ऊंचाई पर इस रस्सी में गांठ लगी हुई है। स्थानीय लोग रस्सी की गांठ को एक हाथ में पकड़कर मजार के बीचोबीच अपने पैर से ठोकर मारते हैं।



पृथ्वीराज की मजार से मिट्टी लेकर लौटने का दावा 

एक भारतीय शमशेर सिंह राणा 2005 में अफगानिस्तान में मौजूद पृथ्वीराज की समाधि से मिट्टी लेकर लौटा है।  उसने ऐसा कर भारत का सम्मान वापस लौटाया है।
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kumar vishvas ने ‪#‎किरण_बेदी‬ पे टिप्पनी की है।


@drkumarvishvas ने ‪#‎किरण_बेदी‬ पे टिप्पनी की है।

‘युद्धों में कभी नहीं हारे हम डरते हैं छल-छंदों से,
हर बार पराजय पाई है अपने घर के जयचंदों से।’

उनकी कविता का उत्तर।

पेट पाल रहे है “आप” जनता के दिए चंदो से।
खुद जयचंद कर रहे है तुलना अब जयचंदो से।।
अब दिल्ली की सडको पे तुम सड़े टमाटर अंडे खाओ।
अब जनता न फंसेगी तुम्हारे नौटंकी वाले धंधो से।।