Posted in भारत का गुप्त इतिहास- Bharat Ka rahasyamay Itihaas

प्राचीन भारत के आविष्कार तथा संस्कृत


प्राचीन भारत के आविष्कार तथा संस्कृत (Ancient Indian Technology with Sanskrit)

2005 में पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम जब इलाहाबाद आये तो महर्षि भारद्धाज आश्रम देखने की इच्छा उन्होंने प्रगट की और उन्होंने बताया कि महर्षि भारद्धाज ने सर्वप्रथम विमान शास्त्र की रचना की थी। महाकुंभ के अवसर पर देश-देशांतर के सभी विद्धान प्रयाग आते थे और इसी भारद्धाज आश्रम में महीने दो महीने रहकर अपने-अपने शोध और खोज पर चर्चा करते थे जिससे उनको जनकल्याण में लगाया जा सके। सोशल नेटवर्किंग साईट पर जब किसी ने अरब के किसी व्यक्ति का नाम देते हुए कहा कि सबसे पहले इन्होंने विमान की खोज की तो आश्‍चर्य हुआ।
प्राचीन काल में वेद, मंत्र, उपनिषद किसने लिखे ? उन भारतीयों ने अपने से अधिक अपनी कृति से प्रेम किया होगा यही कारण है कि अपना नाम प्रकाशित नहीं किया जबकि आप एक छोटी सी कविता भी लिख दें तो छपवाना चाहेंगे।
“ वैज्ञानिकाश्चं: कपिल: कणाद: सुश्रुतस्त था। चरको भास्क्राचार्यो वाराहमिहिर: सुधी:। नागार्जुनो भरद्धाजो बसुर्वुध:। ध्येायो वेंकटरामश्चस विज्ञा रामानुजादय:।

पश्चिम में एक धारणा प्रचलित की गई है कि भारत में साहित्य में अच्छा कार्य हुआ है। रामायण, महाभारत, मेघदूत और शकुंतला विलुप्त नहीं हुए। संगीत के क्षेत्र में भी काफी प्रगति हुई लेकिन भारत वैज्ञानिक प्रगति नहीं कर पाया। पश्चिम के लोग कहते हैं कि आपके साधु-संत आंखे मूंद लेते हैं और ब्रम्हाहण्ड देख लेते हैं। दुनियां जानती है कि शून्यं का आविष्कार भारत में हुआ इससे पहले यूरोप के अंदर दशमलव पद्धति नहीं अपनाई गई थी। रोमन लिपि में गिनती की जाती थी जिसमें अंको को ।, ।।, ।।। का प्रयोग किया जाता रहा। इसमें यदि हजार से उपर की संख्या लिखनी होतो समस्या खडी हो जाती है और गुणा-भाग करना तो और भी कठिन कार्य है। 13 वीं शताब्दी तक यूरोप में गुणा-भाग विश्वाविघालय स्तर पर पढाया जाता था। जोडने और घटाने के साथ ही गुणा-भाग का कार्य सिर्फ भारत में होता था क्यों कि हमारे यहां जीरो का आविष्कार हो चुका था। जीरो रहने से किसी भी अंक का मान दस गुना बढ जाता है। जीरो को सारे अरेबिया ने भारत से प्राप्त किया अरेबिया से यूरोप जाकर वह इंटरनेशनल फार्म आफ अरेबिक न्यूमरल कहा जाने लगा। आज भी अरब के लोग शून्य को हिंदसा कहते हैं तो यूरोप में इसे अरेबिक न्यूमरल कहा जाता है।

आर्यभटट ने पाई रेशो का मान 14 वीं शताब्दी में निकाला कि पाई का मान 3.14159256 होता है इतना ही नहीं बल्कि उन्होंने रेडियस, वृत, डायामीटर आदि का भी उल्लेख किया है। महाभारत के शांति पर्व में कहा गया है कि योजनानां सहस्रेद्धि द्धिशत द्धियोजनम, वह प्रकाश जो एक निमिष इतना चलती है उसको नमस्कार है। महाभारत के समय रास्ते की माप योजन से होती थी, चार कोस का एक योजन और दो मील का एक कोस इसप्रकार आठ मील का एक योजन होता था। प्रकाश के बारे में शांति पर्व में कहा गया है कि दो हजार दो सौ योजन अर्ध निमिष में यात्रा करता है उसे नमस्कार है। निमिष अर्थात आदमी जितने समय में पलक झपकाता है या एक निमिष अर्थात सेकेंड का छठां भाग और अर्ध निमिष सेकेंड का बारहवां हिस्सा जिसमें प्रकाश अपनी दूरी तय करता है। अब इसतरह से जोड करें तो प्रकाश की गति लगभग दो लाख मील प्रति सेकेंड है। जो आज वैज्ञानिक मानते हैं वह वही है जो महाभारत के शांतिपर्व में कहा गया।

इसीप्रकार पृथ्वी की आयु की गणना भी भारतीयों ने अपने अनुसार कर लिया था कि पृथ्वी की आयु दो सौ करोड वर्ष है। हांलाकि कैल्वीन की गणना से लेकर रेडियो एक्टिीवीटी की गणना के बाद वैज्ञानिक अब इस निष्कार्ष पर आ गये हैं कि पृथ्वी की आयु दो सौ करोड वर्ष ही है। भारतीयों ने कहा ब्रम्हा् के एक हजार साल कलियुग है तो दो हजार वर्ष द्धापर, तीन हजार वर्ष त्रेता और चार हजार साल का सतयुग होता है। अब यदि हिसाब लगाये तो सतयुग के संधिकाल के दोनो ओर चार-चार सौ वर्ष और कलियुग के दोनो और सौ-सौ वर्ष का संधिकाल होता है पुराण के अनुसार तो एक महायुग बारह हजार साल का होगा। यह बारह हजार वर्ष ब्रम्हाा जी का एक वर्ष है। मानव का एक वर्ष ब्रम्हा जी का एका दिन होता है। ब्रम्हा जी का एक वर्ष मानव का 360 साल हुए तो संधिकाल जोडने पर ब्रम्हा के 1200 साल का कलियुग हुआ। तो कलियुग का समय निकालने के लिये 1200 में 360 का गुणा कर दें तो मानव के चार लाख बतीस हजार वर्ष आते हैं। इस हिसाब से पृथ्वी की आयु आज के वै‍ज्ञानिकों की खोज के समतुल्य हो जाती है।

पाईथागोरस से काफी पहले ही बौधायन ने यज्ञ वेदियों को लेकर समकोण त्रिभुज पर कार्य किया और अनेक बातें प्रगट की वहीं भाष्क्राचार्य ने सरफेस आफ द स्फीपयर का अध्ययन किया और कहा कि एक वृत का क्षेत्रफल 4 पाई आर स्कवायर होगा। हांलाकि यह तो बिना डिफरेंसियल कैलकुलस के निकल ही नहीं सकता तो यह मानने में कोई हर्ज नहीं कि भाष्काराचार्य को डिफरेंसियल कैलकुलस का ज्ञान रहा होगा। मेडिकल साईंस में सुश्रुत और चरक ने काफी कार्य किया और शल्‍य चिकित्सा की की प्रारंभिक जानकारी इनके ग्रंथो से मिलती है। शल्य क्रिया में कौन-कौन से उपकरण काम आते हैं इसका वर्णन सुश्रुत ने पहले ही कर दिया था। मोतियाबिंद से लेकर प्लानस्टिक सर्जरी तक में पहल भारत ने हजारों साल पहले ही कर दिया था।
एक हजार साल पुराना दिल्ली का लौह स्तंभ भारत के स्टेानलेस स्टील की खोज को सिद्ध करने के लिये पर्याप्त है जिसकी खोज अब जाकर दुनियां ने की है। जब पुरु और सिकंदर की भेंट हुई तो सिकंदर ने पुरु से भेंट में भारत वर्ष का लोहा मांगा ताकी वह उनसे तलवार बना सके और जब वह दुनियां के कुछ देशों में लडने गया तो उसके सैनिक ललकार कर कहते थे सावधान मेरा तलवार भारत के इस्पात से बना है, मेरी यह शमशीर एक बार में सिर को अलग कर देगी। वस्त्रों के मामले में कहा जाता है कि भारतीय मलमल 200 काउंट से उपर का बनता था और आज कंम्यूाटर भी 150 काउंट से अधिक का मलमल नही बना पाता।

महर्षि भारद्धाज ने सबसे पहले विमान शास्त्र की रचना की इसीतरह अगस्त संहिता में भी कई प्रकार के वैज्ञानिक ज्ञान की चर्चा की गई है। क्वांटम मेकेनिक और रिलेटिवीटी का सिद्धांत आने से काफी पहले ही हमारे वैज्ञानिकों ने कहा कि या पिण्डे सो ब्रह्माण्डे अर्थात जो ब्रह्माण्ड में है वही हमारे पिण्ड में है।

प्राचीन भारत के आविष्कार तथा संस्कृत (Ancient Indian Technology with Sanskrit)

2005 में पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम जब इलाहाबाद आये तो महर्षि भारद्धाज आश्रम देखने की इच्छा उन्होंने प्रगट की और उन्होंने बताया कि महर्षि भारद्धाज ने सर्वप्रथम विमान शास्त्र की रचना की थी। महाकुंभ के अवसर पर देश-देशांतर के सभी विद्धान प्रयाग आते थे और इसी भारद्धाज आश्रम में महीने दो महीने रहकर अपने-अपने शोध और खोज पर चर्चा करते थे जिससे उनको जनकल्याण में लगाया जा सके। सोशल नेटवर्किंग साईट पर जब किसी ने अरब के किसी व्यक्ति का नाम देते हुए कहा कि सबसे पहले इन्होंने विमान की खोज की तो आश्‍चर्य हुआ।
प्राचीन काल में वेद, मंत्र, उपनिषद किसने लिखे ? उन भारतीयों ने अपने से अधिक अपनी कृति से प्रेम किया होगा यही कारण है कि अपना नाम प्रकाशित नहीं किया जबकि आप एक छोटी सी कविता भी लिख दें तो छपवाना चाहेंगे।
“ वैज्ञानिकाश्चं: कपिल: कणाद: सुश्रुतस्त था। चरको भास्क्राचार्यो वाराहमिहिर: सुधी:। नागार्जुनो भरद्धाजो बसुर्वुध:। ध्येायो वेंकटरामश्चस विज्ञा रामानुजादय:।

पश्चिम में एक धारणा प्रचलित की गई है कि भारत में साहित्य में अच्छा कार्य हुआ है। रामायण, महाभारत, मेघदूत और शकुंतला विलुप्त नहीं हुए। संगीत के क्षेत्र में भी काफी प्रगति हुई लेकिन भारत वैज्ञानिक प्रगति नहीं कर पाया। पश्चिम के लोग कहते हैं कि आपके साधु-संत आंखे मूंद लेते हैं और ब्रम्हाहण्ड देख लेते हैं। दुनियां जानती है कि शून्यं का आविष्कार भारत में हुआ इससे पहले यूरोप के अंदर दशमलव पद्धति नहीं अपनाई गई थी। रोमन लिपि में गिनती की जाती थी जिसमें अंको को ।, ।।, ।।। का प्रयोग किया जाता रहा। इसमें यदि हजार से उपर की संख्या लिखनी होतो समस्या खडी हो जाती है और गुणा-भाग करना तो और भी कठिन कार्य है। 13 वीं शताब्दी तक यूरोप में गुणा-भाग विश्वाविघालय स्तर पर पढाया जाता था। जोडने और घटाने के साथ ही गुणा-भाग का कार्य सिर्फ भारत में होता था क्यों कि हमारे यहां जीरो का आविष्कार हो चुका था। जीरो रहने से किसी भी अंक का मान दस गुना बढ जाता है। जीरो को सारे अरेबिया ने भारत से प्राप्त किया अरेबिया से यूरोप जाकर वह इंटरनेशनल फार्म आफ अरेबिक न्यूमरल कहा जाने लगा। आज भी अरब के लोग शून्य को हिंदसा कहते हैं तो यूरोप में इसे अरेबिक न्यूमरल कहा जाता है।

आर्यभटट ने पाई रेशो का मान 14 वीं शताब्दी में निकाला कि पाई का मान 3.14159256 होता है इतना ही नहीं बल्कि उन्होंने रेडियस, वृत, डायामीटर आदि का भी उल्लेख किया है। महाभारत के शांति पर्व में कहा गया है कि योजनानां सहस्रेद्धि द्धिशत द्धियोजनम, वह प्रकाश जो एक निमिष इतना चलती है उसको नमस्कार है। महाभारत के समय रास्ते की माप योजन से होती थी, चार कोस का एक योजन और दो मील का एक कोस इसप्रकार आठ मील का एक योजन होता था। प्रकाश के बारे में शांति पर्व में कहा गया है कि दो हजार दो सौ योजन अर्ध निमिष में यात्रा करता है उसे नमस्कार है। निमिष अर्थात आदमी जितने समय में पलक झपकाता है या एक निमिष अर्थात सेकेंड का छठां भाग और अर्ध निमिष सेकेंड का बारहवां हिस्सा जिसमें प्रकाश अपनी दूरी तय करता है। अब इसतरह से जोड करें तो प्रकाश की गति लगभग दो लाख मील प्रति सेकेंड है। जो आज वैज्ञानिक मानते हैं वह वही है जो महाभारत के शांतिपर्व में कहा गया।

इसीप्रकार पृथ्वी की आयु की गणना भी भारतीयों ने अपने अनुसार कर लिया था कि पृथ्वी की आयु दो सौ करोड वर्ष है। हांलाकि कैल्वीन की गणना से लेकर रेडियो एक्टिीवीटी की गणना के बाद वैज्ञानिक अब इस निष्कार्ष पर आ गये हैं कि पृथ्वी की आयु दो सौ करोड वर्ष ही है। भारतीयों ने कहा ब्रम्हा् के एक हजार साल कलियुग है तो दो हजार वर्ष द्धापर, तीन हजार वर्ष त्रेता और चार हजार साल का सतयुग होता है। अब यदि हिसाब लगाये तो सतयुग के संधिकाल के दोनो ओर चार-चार सौ वर्ष और कलियुग के दोनो और सौ-सौ वर्ष का संधिकाल होता है पुराण के अनुसार तो एक महायुग बारह हजार साल का होगा। यह बारह हजार वर्ष ब्रम्हाा जी का एक वर्ष है। मानव का एक वर्ष ब्रम्हा जी का एका दिन होता है। ब्रम्हा जी का एक वर्ष मानव का 360 साल हुए तो संधिकाल जोडने पर ब्रम्हा के 1200 साल का कलियुग हुआ। तो कलियुग का समय निकालने के लिये 1200 में 360 का गुणा कर दें तो मानव के चार लाख बतीस हजार वर्ष आते हैं। इस हिसाब से पृथ्वी की आयु आज के वै‍ज्ञानिकों की खोज के समतुल्य हो जाती है।

पाईथागोरस से काफी पहले ही बौधायन ने यज्ञ वेदियों को लेकर समकोण त्रिभुज पर कार्य किया और अनेक बातें प्रगट की वहीं भाष्क्राचार्य ने सरफेस आफ द स्फीपयर का अध्ययन किया और कहा कि एक वृत का क्षेत्रफल 4 पाई आर स्कवायर होगा। हांलाकि यह तो बिना डिफरेंसियल कैलकुलस के निकल ही नहीं सकता तो यह मानने में कोई हर्ज नहीं कि भाष्काराचार्य को डिफरेंसियल कैलकुलस का ज्ञान रहा होगा। मेडिकल साईंस में सुश्रुत और चरक ने काफी कार्य किया और शल्‍य चिकित्सा की की प्रारंभिक जानकारी इनके ग्रंथो से मिलती है। शल्य क्रिया में कौन-कौन से उपकरण काम आते हैं इसका वर्णन सुश्रुत ने पहले ही कर दिया था। मोतियाबिंद से लेकर प्लानस्टिक सर्जरी तक में पहल भारत ने हजारों साल पहले ही कर दिया था।
एक हजार साल पुराना दिल्ली का लौह स्तंभ भारत के स्टेानलेस स्टील की खोज को सिद्ध करने के लिये पर्याप्त है जिसकी खोज अब जाकर दुनियां ने की है। जब पुरु और सिकंदर की भेंट हुई तो सिकंदर ने पुरु से भेंट में भारत वर्ष का लोहा मांगा ताकी वह उनसे तलवार बना सके और जब वह दुनियां के कुछ देशों में लडने गया तो उसके सैनिक ललकार कर कहते थे सावधान मेरा तलवार भारत के इस्पात से बना है, मेरी यह शमशीर एक बार में सिर को अलग कर देगी। वस्त्रों के मामले में कहा जाता है कि भारतीय मलमल 200 काउंट से उपर का बनता था और आज कंम्यूाटर भी 150 काउंट से अधिक का मलमल नही बना पाता।

महर्षि भारद्धाज ने सबसे पहले विमान शास्त्र की रचना की इसीतरह अगस्त संहिता में भी कई प्रकार के वैज्ञानिक ज्ञान की चर्चा की गई है। क्वांटम मेकेनिक और रिलेटिवीटी का सिद्धांत आने से काफी पहले ही हमारे वैज्ञानिकों ने कहा कि या पिण्डे सो ब्रह्माण्डे अर्थात जो ब्रह्माण्ड में है वही हमारे पिण्ड में है।
राज सकपाळ मानव सभ्यता कितनी प्राचीन है ?

प्रश्न :- मानव सम्वत् कितना है ?

उत्तर :- 1960853115 वर्ष ।

क्योंकि :-

1 सत्युग = 1728000 वर्ष
1 त्रेतायुग =1296000 वर्ष
1 द्वापरयुग = 864000 वर्ष
1 कलियुग = 432000 वर्ष

1 महायुग = 1 सत्युग + 1 त्रेतायुग + 1 द्वापरयुग + 1 कलियुग = 4320000 वर्ष

1 महायुग = 4320000 वर्ष

71 महायुग = 1 मनु

14 मनु = मानव सृष्टि की आयु

1 कल्प = 1000 महायुग = 4320000000 वर्ष ( ब्रह्माण्ड की आयु )

अब तक 14 मनुओं में से 6 मनु बीत चुके हैं 7 वाँ वैवस्वत मनु वर्तमान चल रहा है ।
7 वें मनु का 28 वाँ महायुग चल रहा है ।

28 वें महायुग के कलियुग का 5115 वाँ वर्ष चल रहा है ।

6 मनु + 27 महायुग + 1 सत्युग + 1 त्रेतायुग + 1 द्वापरयुग + 5115 वर्ष = 1960853115 वर्ष ( 15 मार्च 2014 तक )

यानी कि मानव जाति को पृथिवी पर आए इतना समय हो गया है।एक अरब छियानवें करोड़ आठ लाख तरेपन हजार एक सौ पंद्रह वर्ष ..
(1960853115 वर्ष)
यह गणना सूर्य सिद्धान्त के अनुसार है।

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शव जलाना या दफनाना ??( Cremation or Burials ??)


शव जलाना या दफनाना ??( Cremation or Burials ??)

अजीब बात है मित्रो की हमें सिखाया जाता है की भारतीयों ने शवो को जलाना 1600 ईसापूर्व के करीब शुरू किया ,तो उससे पूर्व लोग क्या करते थे शवो के साथ ??
इस सवाल का जवाब शायद ही मिलेगा ।
सिंधु सरस्वती सभ्यता के लोग अपने शवो के साथ क्या करते थे ???
इस प्रश्न का जवाब केवल कुछ ही लोग देते है और उनकी राय है की सिंधु सरस्वती के लोग अपने शव दफनाते थे ।
मैंने इसपर शोध की और पाया की हड़प्पा नगर में 30 हज़ार लोग रहते थे और वहा केवल 100 ही कब्र मिले है ,हड़प्पा में लोग लगभग 800 वर्षो तक रहे यानि कई पीड़िया पर फिर भी केवल 100 ही कब्रे ??
तो हजारो अन्य शवो का क्या हुआ ??
इसका उत्तर कुछ समझदार व्यक्ति देते है की सिंधु सरस्वती के लोग अपने शवो को जलाते थे ,इसका सबूत यह है की लोथल में शवो को जलाने के सबूत है ।
कुछ विद्वान कहते है की भारत ,पाकिस्तान और अफगान में कई कब्रिस्तान मिले है जो सिंधु सरस्वती सभ्यता से ताल्लुक रखते है ।
हाल ही में उत्तरप्रदेश में मेरठ और बागपत जिले में कई कब्रे मिली है पर वे उत्तर हड़प्पा काल (Late Harappan Period) के है ,कुछ विद्वान मानते थे की हड़प्पा के लोग दफनाते थे बजाए जलाने ,वे असल में शवो को नगरो के पास नहीं दफनाते थे बल्कि दूर कब्रिस्तानो में दफनाते थे और बागपत में मिले कब्र असल में कब्रिस्तान थे सिंधु सरस्वती सभ्यता के ।
पर एक सवाल है जो हमेशा उठता है की सिंधु सरस्वती सभ्यता में 50 लाख तक लोग रहते थे पर इन 90 सालो में जबसे हड़प्पा की खोज हुई है तबसे काफी कम कब्र मिले है जन संख्या के अनुपात में ।
हाल ही में मोहनजोदड़ो में एक शोध से पता चला है की मोहनजोदड़ो में भी 100 के आस पास कब्र मिले है और अधिकतर शव मोहनजोदड़ो के मूल लोगो के नहीं वे आस पास के नगर ,उत्तर पाकिस्तान और ईरान आदि देशो के व्यापारियों के है ,मोहनजोदड़ो में कई कब्रों में विदेशि व्यापारियों के साथ मोहनजोदड़ो की मूल औरतों के शव मिले है जो उन व्यापारियों की पत्नीया होंगी ।
इससे साफ़ होता है की केवल 10% ही हड़प्पा के लोग खुदके शव दफनाते जो विदेशी होते और वही के मूल लोग जिन्होंने जलाने के बजाए दफ़न होना पसंद किया हो ।
कुछ विद्वान मानते है की वे शव अमीरों के होंगे ,आम आदमी अपने शव जालाते होंगे ।
अंग्रेजो द्वारा वेदों के अनुवाद से हमें पता चलता है की वेदों में दफ़नाने और शव जलाने का जीकर है ।
इससे यह पता चलता है की सिंधु सरस्वती के लोग हिन्दू थे ।
साथ ही कई कब्रे हिन्दू परंपरा अनुसार है जो उन्हें पूरी तरह से हिन्दू साबित करती है ।
लोथल में शव जलाने के सबूत बताते है की शवो को हिन्दू परंपरा अनुसार जलाया जाता था ।
बल्थल जो आहार बसन संस्कृति (Ahar Basan Culture) का भाग था वहा 2000 ईसापूर्व पुराना एक शव मिला पद्मासन में जो समाधी का सबूत है (तस्वीर देखे)
समाधी भी हिन्दू होने का सबूत है ।
तो हमें यह पता चलता है की 90% सिंधु सरस्वती सभ्यता के लोग खुदके शव जलाते वो भी हिन्दू परंपरा अनुसार ।
जिन लोगो के शव मिले है उनमे अधिकतर विदेशी व्यापारी थे ।
भारत में शव जलाने की परंपरा 7000 ईसापूर्व से शुरू होती है ।

शव जलाना या दफनाना ??( Cremation or Burials ??)

अजीब बात है मित्रो की हमें सिखाया जाता है की भारतीयों ने शवो को जलाना 1600 ईसापूर्व के करीब शुरू किया ,तो उससे पूर्व लोग क्या करते थे शवो के साथ ??
इस सवाल का जवाब शायद ही मिलेगा ।
सिंधु सरस्वती सभ्यता के लोग अपने शवो के साथ क्या करते थे ???
इस प्रश्न का जवाब केवल कुछ ही लोग देते है और उनकी राय है की सिंधु सरस्वती के लोग अपने शव दफनाते थे ।
मैंने इसपर शोध की और पाया की हड़प्पा नगर में 30 हज़ार लोग रहते थे और वहा केवल 100 ही कब्र मिले है ,हड़प्पा में लोग लगभग 800 वर्षो तक रहे यानि कई पीड़िया पर फिर भी केवल 100 ही कब्रे ??
तो हजारो अन्य शवो का क्या हुआ ??
इसका उत्तर कुछ समझदार व्यक्ति देते है की सिंधु सरस्वती के लोग अपने शवो को जलाते थे ,इसका सबूत यह है की लोथल में शवो को जलाने के सबूत है ।
कुछ विद्वान कहते है की भारत ,पाकिस्तान और अफगान में कई कब्रिस्तान मिले है जो सिंधु सरस्वती सभ्यता से ताल्लुक रखते है ।
हाल ही में उत्तरप्रदेश में मेरठ और बागपत जिले में कई कब्रे मिली है पर वे उत्तर हड़प्पा काल (Late Harappan Period) के है ,कुछ विद्वान मानते थे की हड़प्पा के लोग दफनाते थे बजाए जलाने ,वे असल में शवो को नगरो के पास नहीं दफनाते थे बल्कि दूर कब्रिस्तानो में दफनाते थे और बागपत में मिले कब्र असल में कब्रिस्तान थे सिंधु सरस्वती सभ्यता के ।
पर एक सवाल है जो हमेशा उठता है की सिंधु सरस्वती सभ्यता में 50 लाख तक लोग रहते थे पर इन 90 सालो में जबसे हड़प्पा की खोज हुई है तबसे काफी कम कब्र मिले है जन संख्या के अनुपात में ।
हाल ही में मोहनजोदड़ो में एक शोध से पता चला है की मोहनजोदड़ो में भी 100 के आस पास कब्र मिले है और अधिकतर शव मोहनजोदड़ो के मूल लोगो के नहीं वे आस पास के नगर ,उत्तर पाकिस्तान और ईरान आदि देशो के व्यापारियों के है ,मोहनजोदड़ो में कई कब्रों में विदेशि व्यापारियों के साथ मोहनजोदड़ो की मूल औरतों के शव मिले है जो उन व्यापारियों की पत्नीया होंगी ।
इससे साफ़ होता है की केवल 10% ही हड़प्पा के लोग खुदके शव दफनाते जो विदेशी होते और वही के मूल लोग जिन्होंने जलाने के बजाए दफ़न होना पसंद किया हो ।
कुछ विद्वान मानते है की वे शव अमीरों के होंगे ,आम आदमी अपने शव जालाते होंगे ।
अंग्रेजो द्वारा वेदों के अनुवाद से हमें पता चलता है की वेदों में दफ़नाने और शव जलाने का जीकर है ।
इससे यह पता चलता है की सिंधु सरस्वती के लोग हिन्दू थे ।
साथ ही कई कब्रे हिन्दू परंपरा अनुसार है जो उन्हें पूरी तरह से हिन्दू साबित करती है ।
लोथल में शव जलाने के सबूत बताते है की शवो को हिन्दू परंपरा अनुसार जलाया जाता था ।
बल्थल जो आहार बसन संस्कृति (Ahar Basan Culture) का भाग था वहा 2000 ईसापूर्व पुराना एक शव मिला पद्मासन में जो समाधी का सबूत है (तस्वीर देखे)
समाधी भी हिन्दू होने का सबूत है ।
तो हमें यह पता चलता है की 90% सिंधु सरस्वती सभ्यता के लोग खुदके शव जलाते वो भी हिन्दू परंपरा अनुसार ।
जिन लोगो के शव मिले है उनमे अधिकतर विदेशी व्यापारी थे ।
भारत में शव जलाने की परंपरा 7000 ईसापूर्व से शुरू होती है ।
Posted in रामायण - Ramayan

The Ramayana records a dynastic marriage between Prince Rama of Ayodhya and Sita


The Ramayana records a dynastic marriage between Prince Rama of Ayodhya and Sita, the daughter of Raja Janak of Mithila. The town of Janakpur, in the northern Nepali section of Mithila, is believed to be Janak’s old capital. And Sita is a Mithila girl.

The Ramayana records a dynastic marriage between Prince Rama of Ayodhya and Sita, the daughter of Raja Janak of Mithila. The town of Janakpur, in the northern Nepali section of Mithila, is believed to be Janak's old capital. And Sita is a Mithila girl.
Posted in हिन्दू पतन

“A British Mastermind, A pawn of Christianity who divided people of PUNJAB into two religions SIKHS and HINDUS in between 1860-1900.”


“A British Mastermind, A pawn of Christianity who divided people of PUNJAB into two religions SIKHS and HINDUS in between 1860-1900.”

Name: Max Arthur Macauliffe
Born September 10 1841, Newcastle West, Limerick, Ireland
Died March 15 1913, London, Sinclair Gardens, West Kensington, United Kingdom
Known for: English translator of the Sikh Scriptures and historian of Sikhism

Max Arthur Macauliffe, A Christian Mastermind who divided people of PUNJAB into two religions, people who were living on this land of Saints and Gurus since centuries were divided, A Masterminded Christian whose research later declared SIKHISM (New English Word) a new religion, Even British also were responsible for creating HINDUISM (New English Word) which was also not a religion. There was a time till the Leadership of Maharaja Ranjit Singh Ji, when first son in HINDU families was used to become a SIKH, but after Macauliffe’s research and Historical manipulations during those days same blood brothers were separated into SIKHS and HINDUS. Concept and Purity of SIKHI was turned into Abrahmic Ideological word “A Religion” which does a permanent harm to Society.

Macauliffe converted to Sikhism in the 1860s. The very First converted SIKH, a diplomat who sneaked into our simple minded and non-political society. Our people had no concept of conversions on those days. MacAuliffe entered the Indian Civil Service in 1862, and arrived in the Punjab in February 1864. He was appointed Deputy Commissioner of the Punjab in 1882, and a Divisional Judge in 1884. He retired from the Indian Civil Service in 1893.

The Concept of conversions was brought by Muslims and Christians to our land.

"A British Mastermind, A pawn of Christianity who divided people of PUNJAB into two religions SIKHS and HINDUS in between 1860-1900."

Name: Max Arthur Macauliffe
Born September 10 1841, Newcastle West, Limerick, Ireland
Died March 15 1913, London, Sinclair Gardens, West Kensington, United Kingdom
Known for: English translator of the Sikh Scriptures and historian of Sikhism

Max Arthur Macauliffe, A Christian Mastermind who divided people of PUNJAB into two religions, people who were living on this land of Saints and Gurus since centuries were divided, A Masterminded Christian whose research later declared SIKHISM (New English Word) a new religion, Even British also were responsible for creating HINDUISM (New English Word) which was also not a religion. There was a time till the Leadership of Maharaja Ranjit Singh Ji, when first son in HINDU families was used to become a SIKH, but after Macauliffe's research and Historical manipulations during those days same blood brothers were separated into SIKHS and HINDUS. Concept and Purity of SIKHI was turned into Abrahmic Ideological word "A Religion" which does a permanent harm to Society.

Macauliffe converted to Sikhism in the 1860s. The very First converted SIKH, a diplomat who sneaked into our simple minded and non-political society. Our people had no concept of conversions on those days. MacAuliffe entered the Indian Civil Service in 1862, and arrived in the Punjab in February 1864. He was appointed Deputy Commissioner of the Punjab in 1882, and a Divisional Judge in 1884. He retired from the Indian Civil Service in 1893.

The Concept of conversions was brought by Muslims and Christians to our land.