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यहाँ दो पात्र हैं : एक है भारतीय और एक है इंडियन ! आइए देखते हैं दोनों में क्या बात होती है !


यहाँ दो पात्र हैं : एक है भारतीय और एक है इंडियन ! आइए देखते हैं दोनों में
क्या बात होती है !

इंडियन : ये शिव रात्रि पर जो तुम इतना दूध चढाते हो शिवलिंग पर, इस से अच्छा
तो ये हो कि ये दूध जो बहकर नालियों में बर्बाद हो जाता है, उसकी बजाए गरीबों
मे बाँट दिया जाना चाहिए ! तुम्हारे शिव जी से ज्यादा उस दूध की जरुरत देश के
गरीब लोगों को है. दूध बर्बाद करने की ये कैसी आस्था है ?

भारतीय : सीता को ही हमेशा अग्नि परीक्षा देनी पड़ती है, कभी रावण पर प्रश्न
चिन्ह क्यूँ नहीं लगाते तुम ?

इंडियन : देखा ! अब अपने दाग दिखने लगे तो दूसरों पर ऊँगली उठा रहे हो ! जब
अपने बचाव मे कोई उत्तर नहीं होता, तभी लोग दूसरों को दोष देते हैं. सीधे-सीधे
क्यूँ नहीं मान लेते कि ये दूध चढाना और नालियों मे बहा देना एक बेवकूफी से
ज्यादा कुछ नहीं है !

भारतीय : अगर मैं आपको सिद्ध कर दूँ की शिवरात्री पर दूध चढाना बेवकूफी नहीं
समझदारी है तो ?

इंडियन : हाँ बताओ कैसे ? अब ये मत कह देना कि फलां वेद मे ऐसा लिखा है इसलिए
हम ऐसा ही करेंगे, मुझे वैज्ञानिक तर्क चाहिएं.

भारतीय : ओ अच्छा, तो आप विज्ञान भी जानते हैं ? कितना पढ़े हैं आप ?

इंडियन : जी, मैं ज्यादा तो नहीं लेकिन काफी कुछ जानता हूँ, एम् टेक किया है,
नौकरी करता हूँ. और मैं अंध विशवास मे बिलकुल भी विशवास नहीं करता, लेकिन
भगवान को मानता हूँ.

भारतीय : आप भगवान को मानते तो हैं लेकिन भगवान के बारे में जानते नहीं कुछ
भी. अगर जानते होते, तो ऐसा प्रश्न ही न करते ! आप ये तो जानते ही होंगे कि हम
लोग त्रिदेवों को मुख्य रूप से मानते हैं : ब्रह्मा जी, विष्णु जी और शिव जी
(ब्रह्मा विष्णु महेश) ?

इंडियन : हाँ बिलकुल मानता हूँ.

भारतीय : अपने भारत मे भगवान के दो रूपों की विशेष पूजा होती है : विष्णु जी
की और शिव जी की ! ये शिव जी जो हैं, इनको हम क्या कहते हैं – भोलेनाथ, तो
भगवान के एक रूप को हमने भोला कहा है तो दूसरा रूप क्या हुआ ?

इंडियन (हँसते हुए) : चतुर्नाथ !

भारतीय : बिलकुल सही ! देखो, देवताओं के जब प्राण संकट मे आए तो वो भागे
विष्णु जी के पास, बोले “भगवान बचाओ ! ये असुर मार देंगे हमें”. तो विष्णु जी
बोले अमृत पियो. देवता बोले अमृत कहाँ मिलेगा ? विष्णु जी बोले इसके लिए
समुद्र मंथन करो !

तो समुद्र मंथन शुरू हुआ, अब इस समुद्र मंथन में कितनी दिक्कतें आई ये तो
तुमको पता ही होगा, मंथन शुरू किया तो अमृत निकलना तो दूर विष निकल आया, और वो
भी सामान्य विष नहीं हलाहल विष !
भागे विष्णु जी के पास सब के सब ! बोले बचाओ बचाओ !

तो चतुर्नाथ जी, मतलब विष्णु जी बोले, ये अपना डिपार्टमेंट नहीं है, अपना तो
अमृत का डिपार्टमेंट है और भेज दिया भोलेनाथ के पास !
भोलेनाथ के पास गए तो उनसे भक्तों का दुःख देखा नहीं गया, भोले तो वो हैं ही,
कलश उठाया और विष पीना शुरू कर दिया !
ये तो धन्यवाद देना चाहिए पार्वती जी का कि वो पास में बैठी थी, उनका गला
दबाया तो ज़हर नीचे नहीं गया और नीलकंठ बनके रह गए.

इंडियन : क्यूँ पार्वती जी ने गला क्यूँ दबाया ?

भारतीय : पत्नी हैं ना, पत्नियों को तो अधिकार होता है .. किसी गण की हिम्मत
होती क्या जो शिव जी का गला दबाए……अब आगे सुनो
फिर बाद मे अमृत निकला ! अब विष्णु जी को किसी ने invite किया था ????
मोहिनी रूप धारण करके आए और अमृत लेकर चलते बने.

और सुनो –
तुलसी स्वास्थ्य के लिए अच्छी होती है, स्वादिष्ट भी, तो चढाई जाती है
कृष्ण जी को (विष्णु अवतार).

लेकिन बेलपत्र कड़वे होते हैं, तो चढाए जाते हैं भगवान भोलेनाथ को !

हमारे कृष्ण कन्हैया को 56 भोग लगते हैं, कभी नहीं सुना कि 55 या 53 भोग लगे
हों, हमेशा 56 भोग !
और हमारे शिव जी को ? राख , धतुरा ये सब चढाते हैं, तो भी भोलेनाथ प्रसन्न !

कोई भी नई चीज़ बनी तो सबसे पहले विष्णु जी को भोग !
दूसरी तरफ शिव रात्रि आने पर हमारी बची हुई गाजरें शिव जी को चढ़ा दी जाती
हैं……

अब मुद्दे पर आते हैं……..इन सबका मतलब क्या हुआ ???

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विष्णु जी हमारे पालनकर्ता हैं, इसलिए जिन चीज़ों से हमारे प्राणों का
रक्षण-पोषण होता है वो विष्णु जी को भोग लगाई जाती हैं !
_________________________________________________________________

और शिव जी ?

__________________________________________________________________
शिव जी संहारकर्ता हैं, इसलिए जिन चीज़ों से हमारे प्राणों का नाश होता है,
मतलब जो विष है, वो सब कुछ शिव जी को भोग लगता है !
_________________________________________________________________

इंडियन : ओके ओके, समझा !

भारतीय : आयुर्वेद कहता है कि वात-पित्त-कफ इनके असंतुलन से बीमारियाँ होती
हैं और श्रावण के महीने में वात की बीमारियाँ सबसे ज्यादा होती हैं. श्रावण के
महीने में ऋतू परिवर्तन के कारण शरीर मे वात बढ़ता है. इस वात को कम करने के
लिए क्या करना पड़ता है ?
ऐसी चीज़ें नहीं खानी चाहिएं जिनसे वात बढे, इसलिए पत्ते वाली सब्जियां नहीं
खानी चाहिएं !

और उस समय पशु क्या खाते हैं ?

इंडियन : क्या ?

भारतीय : सब घास और पत्तियां ही तो खाते हैं. इस कारण उनका दूध भी वात को
बढाता है ! इसलिए आयुर्वेद कहता है कि श्रावण के महीने में (जब शिवरात्रि होती
है !!) दूध नहीं पीना चाहिए.
इसलिए श्रावण मास में जब हर जगह शिव रात्रि पर दूध चढ़ता था तो लोग समझ जाया
करते थे कि इस महीने मे दूध विष के सामान है, स्वास्थ्य के लिए अच्छा नहीं है,
इस समय दूध पिएंगे तो वाइरल इन्फेक्शन से बरसात की बीमारियाँ फैलेंगी और वो
दूध नहीं पिया करते थे !
इस तरह हर जगह शिव रात्रि मनाने से पूरा देश वाइरल की बीमारियों से बच जाता था
! समझे कुछ ?

इंडियन : omgggggg !!!! यार फिर तो हर गाँव हर शहर मे शिव रात्रि मनानी चाहिए,
इसको तो राष्ट्रीय पर्व घोषित होना चाहिए !

भारतीय : हम्म….लेकिन ऐसा नहीं होगा भाई कुछ लोग साम्प्रदायिकता देखते हैं,
विज्ञान नहीं ! और सुनो. बरसात में भी बहुत सारी चीज़ें होती हैं लेकिन हम
उनको दीवाली के बाद अन्नकूट में कृष्ण भोग लगाने के बाद ही खाते थे (क्यूंकि
तब वर्षा ऋतू समाप्त हो चुकी होती थी). एलोपैथ कहता है कि गाजर मे विटामिन ए
होता है आयरन होता है लेकिन आयुर्वेद कहता है कि शिव रात्रि के बाद गाजर नहीं
खाना चाहिए इस ऋतू में खाया गाजर पित्त को बढाता है !
तो बताओ अब तो मानोगे ना कि वो शिव रात्रि पर दूध चढाना समझदारी है ?

इंडियन : बिलकुल भाई, निःसंदेह ! ऋतुओं के खाद्य पदार्थों पर पड़ने वाले
प्रभाव को ignore करना तो बेवकूफी होगी.

भारतीय : ज़रा गौर करो, हमारी परम्पराओं के पीछे कितना गहन विज्ञान छिपा हुआ
है ! ये इस देश का दुर्भाग्य है कि हमारी परम्पराओं को समझने के लिए जिस
विज्ञान की आवश्यकता है वो हमें पढ़ाया नहीं जाता और विज्ञान के नाम पर जो
हमें पढ़ाया जा रहा है उस से हम अपनी परम्पराओं को समझ नहीं सकते !

जिस संस्कृति की कोख से मैंने जन्म लिया है वो सनातन (=eternal) है, विज्ञान
को परम्पराओं का जामा इसलिए पहनाया गया है ताकि वो प्रचलन बन जाए और हम
भारतवासी सदा वैज्ञानिक जीवन जीते रहें !

(और अंतिम बात आज भारत मे प्रति बर्ष 3 करोड़ गायों का कत्ल कर मांस का निर्यात
किया जाता वो जिंदा रहे तो ये 2 करोड़ गाय जिंदा रहे तो वर्ष का कितने करोड़
लीटर दूध मिलेगा लेकिन इस पर कोई सवाल नहीं उठाएगा )

1 देशी गाय साल मे 8 से 10 महीने दूध देती है ! और सुबह शाम दो समय देती है !
देशी गाय ओसतन 1 समय मे 4 से 5 लीटर दूध देती है ! दिन मे 2 बार के हिसाब से
10 लीटर हो गया !!

आप दिन का 5 लीटर ही मान लो ! 10 महीने देती है आप 8 महीने ही मान लो !!

5 लीटर रोज का !

1 महीने मे 30 दिन तो महीने का 5×30 =150 लीटर !

8 महीने का 150×8= 1200 लीटर दूध (प्रति वर्ष एक गाय )

3 करोड़ गाय प्रति वर्ष काटी जाती है ! आप मान लो दूध देने वाली 1 करोड़ ही हो !

तो 1 गाय एक वर्ष मे 1200 लीटर दूध !

तो 1 करोड़ गाय देंगी एक वर्ष मे देंगी 1200 करोड़ लीटर दूध !

( ये हमने कम से कम लगाया है )

अब आप दूध चढ़ाओ या ना चढ़ाओ ! ये आपकी इच्छा है लेकिन दूध चढ़ाने को पाखंड ना
बताओ !
क्योंकि हमारी (हिन्दू ,भारतीय,सनातनी)संस्कृति मे जो कुछ भी कहा गया है उसके
पीछे पूरा वैज्ञानिक प्रमाण है !!

हर हर महादेव

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सुल्तान इल्तुतमिश का सच


सुल्तान इल्तुतमिश का सच
—————————–
इल्तुतमिश दिल्ली सल्तनत में ग़ुलाम वंश का एक प्रमुख शासक था।१२३१ ई. में इल्तुतमिश ने ग्वालियर पर आक्रमण किया और बड़ी संखया में लोगों को गुलाम बनाया। उसके द्वारा पकड़े और गुलाम बनाये गये महाराजाओं के परिवारीजनों की गिनती देना संभव नहीं है।

इल्तुतमिश ने भी भारत के इस्लामीकरण में पूरा योगदान दिया। सन्‌ १२३४ ई. में मालवा पर आक्रमण हुआ। वहाँ पर विदिशा का प्राचीन मंदिर नष्ट कर दिया गया। बदायुनी लिखता है : ‘६०० वर्ष पुराने इस महाकाल के मंदिर को नष्ट कर दिया गया। उसकी बुनियाद तक खुदवा कर राय विक्रमाजीत की प्रतिमा तोड़ डाली गयी। वह वहाँ से पीतल की कुछ प्रतिमाएँ उठा लाया। उनको पुरानी दिल्ली की मस्जिद के दरवाजों और सीढ़ियों पर डालकर लोगों को उन पर चलने का आदेश दिया।५०० वर्षों के मुस्लिम आक्रमणों ने हिन्दुओं को इतना दरिद्र बना दिया था कि मंदिरों में सोने की मूर्तियों के स्थान पर पीतल की मूर्तियाँ रखी जाने लगी थीं।

हिन्दू आसानी से इस्लाम ग्रहण नहीं करते थे क्योंकि अल-बेरुनी के अनुसार हिन्दू यह समझते थे कि उनके धर्म से बेहतर दूसरा धर्म नहीं है और उनकी संस्कृति और विज्ञान से बढ़कर कोई दूसरी संस्कृति और विज्ञान नहीं है।दूसरा कारण यह था जैसा कि इल्तुतमिश को उसके वजीर निजामुल मुल्क जुनैदी ने बताया था ‘इस समय हिन्दुस्तान में मुसलमान दाल में नमक के बराबर हैं। अगर जोर जबरदस्ती की गयी तो वे सब संगठित हो सकते हैं और मुसलमानों को उनको दबाना संभव नहीं होगा। जब कुछ वर्षों के बाद राजधानी में और नगरों में मुस्लिम संखया बढ़ जाये और मुस्लिम सेना भी अधिक हो जाये, उस समय हिन्दुओं को इस्लाम और तलवार में से एक का विकल्प देना संभव होगा।डॉ. के.एस. लाल के अनुसार, यह स्थिति तेरहवीं शताब्दी के बाद हो गयी थी और इसलिये बाद धर्मान्तरण का कार्य तेहरवीं शताब्दी के पश्चात्‌ शीघ्र गति से चला।

सुल्तान इल्तुतमिश का सच 
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इल्तुतमिश दिल्ली सल्तनत में ग़ुलाम वंश का एक प्रमुख शासक था।१२३१ ई. में इल्तुतमिश ने ग्वालियर पर आक्रमण किया और बड़ी संखया में लोगों को गुलाम बनाया। उसके द्वारा पकड़े और गुलाम बनाये गये महाराजाओं के परिवारीजनों की गिनती देना संभव नहीं है। 

इल्तुतमिश ने भी भारत के इस्लामीकरण में पूरा योगदान दिया। सन्‌ १२३४ ई. में मालवा पर आक्रमण हुआ। वहाँ पर विदिशा का प्राचीन मंदिर नष्ट कर दिया गया। बदायुनी लिखता है : '६०० वर्ष पुराने इस महाकाल के मंदिर को नष्ट कर दिया गया। उसकी बुनियाद तक खुदवा कर राय विक्रमाजीत की प्रतिमा तोड़ डाली गयी। वह वहाँ से पीतल की कुछ प्रतिमाएँ उठा लाया। उनको पुरानी दिल्ली की मस्जिद के दरवाजों और सीढ़ियों पर डालकर लोगों को उन पर चलने का आदेश दिया।५०० वर्षों के मुस्लिम आक्रमणों ने हिन्दुओं को इतना दरिद्र बना दिया था कि मंदिरों में सोने की मूर्तियों के स्थान पर पीतल की मूर्तियाँ रखी जाने लगी थीं।

हिन्दू आसानी से इस्लाम ग्रहण नहीं करते थे क्योंकि अल-बेरुनी के अनुसार हिन्दू यह समझते थे कि उनके धर्म से बेहतर दूसरा धर्म नहीं है और उनकी संस्कृति और विज्ञान से बढ़कर कोई दूसरी संस्कृति और विज्ञान नहीं है।दूसरा कारण यह था जैसा कि इल्तुतमिश को उसके वजीर निजामुल मुल्क जुनैदी ने बताया था 'इस समय हिन्दुस्तान में मुसलमान दाल में नमक के बराबर हैं। अगर जोर जबरदस्ती की गयी तो वे सब संगठित हो सकते हैं और मुसलमानों को उनको दबाना संभव नहीं होगा। जब कुछ वर्षों के बाद राजधानी में और नगरों में मुस्लिम संखया बढ़ जाये और मुस्लिम सेना भी अधिक हो जाये, उस समय हिन्दुओं को इस्लाम और तलवार में से एक का विकल्प देना संभव होगा।डॉ. के.एस. लाल के अनुसार, यह स्थिति तेरहवीं शताब्दी के बाद हो गयी थी और इसलिये बाद धर्मान्तरण का कार्य तेहरवीं शताब्दी के पश्चात्‌ शीघ्र गति से चला।
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“HAPPY NEW


“HAPPY NEW कुछ लोग आजकल फेसबुक, व्हाट्सएप, हाईक हर जगह सिर्फ “HAPPY NEW YEAR” की पोस्ट कर रहे हैं या फिर पर्सनल मैसेज दे रहे हैं और कई लोग तो 31 दिसंबर की पार्टी मांग रहे हैं| और कैसी पार्टी…व्यभिचार, नशा यानि दारू, सिगरेट, चरस और साथ में निर्दोष प्राणियों को मारकर उनके मृतक शरीर को खा जाना यही है आजकल लोगों की पार्टी…. और यही है उनके New years के स्वागत का तरीका……. आप रात के समय नशे और व्यभिचार में लिप्त हैं, कानफोड़ू संगीत में ऐसे थिरक रहे हैं मानो आतंकी हमले में जान बचाने के लिए भाग रहे हों और बारह बजते ही एक दूसरे के उपर दारू छिड़कते हुए चिल्ला कर कहते हैं “HAPPY NEW YEAR 20…” क्या वास्तव में यही नववर्ष का आगाज है क्या ऐसे ही नव वर्ष का स्वागत किया जाना चाहिए?…
शास्त्रों में एक बात आती है कि, “एक होता है शुभ और एक है शुभ की तैयारी” माने यदि आपका दिन शुभ की तैयारी में बीतता है तो निश्चित ही आपकी रात शुभ होगी और यदि आपकी रात शुभ की तैयारी में बीतती है तो निश्चित ही आपका अगला दिन शुभ होगा… हमारा आने वाला दिन शुभ हो उसके लिए हमें अपने आज को शुभ की तैयारी में बिताना चाहिए|

क्या इस अंग्रेजी NEW YEAR में ऐसा ध्यान रखा जाता है? क्या इस अंग्रेजी NEW YEAR में आने वाला साल शुभ हो उसके लिए अपने आज (31st) को शुभ की तैयारी में बिताते हैं?
अरे जब यहाँ पर हमारा आज ही नशा, विषय – वासनाओं और व्यभिचार में बीत रहा है तब कैसे आने वाला दिन/साल शुभ होगा?

अब चलते हैं नववर्ष के शाब्दिक अर्थ की तरफ…. नववर्ष का शाब्दिक अर्थ है “नया साल” यानि जब प्रकृति में भी कुछ नयापन आ रहा हो, कुछ परिवर्तन हो रहा हो उस वक्त होना चाहिए “नववर्ष का आगाज” क्या आजकल कुछ परिवर्तन हो रहा है क्या प्रकृति में? और क्या रात के बारह बजे के घुप अंधेरे में कुछ नयापन आता है क्या प्रकृति में?…. यदि नहीं तब कैसा नववर्ष?….

अब तुलना करता हूँ हिन्दुओं के नववर्ष की अंग्रेजी NEW YEAR से……

भारतीय नववर्ष चैत्र शुदी १ को मनाया जाता है, शुदी ‘शुक्ल पक्ष’ का संक्षिप्त रूप है। और शुदी १ का मतलब शुक्ल पक्ष का प्रथम दिन है। इसका मतलब यह है कि हमारा नववर्ष चैत शुक्ल प्रतिपदा को शुरू होता है और इस दिन हम ब्रह्म मुहूर्त में उठकर बदन की सरसों के तेल से मालिश करने के उपरांत नित्य कर्म से निवृत हो सूर्योदय के समय नहा धोकर भगवान के भजन कीर्तन के साथ नववर्ष का स्वागत करते हैं| यहाँ बदन पर सरसों के तेल लगाये जाने का विधान है क्योंकि इससे मन में सात्विकता आती है और मन विषय – वासनाओं से मुक्त रहता है ताकि हमारा ध्यान शुभ की तैयारी में रहे जिससे कि आने वाला वर्ष शुभ हो| इस वक्त प्रकृति में भी परिवर्तन होते हैं जैसे पेड़-पोधों मे फूल, पत्तियां, मंजर, कलियां आदि आना शुरू होते है| वातावरण मे एक नया उल्लास होता है जो मन को आह्लादित कर देता है| कहा जाता है कि यह दिन कल्प, सृष्टि, युगादि का प्रारंभिक दिन है इसीलिए सारी सृष्टि सबसे ज्यादा चैत्र में ही महक रही होती है। इस समय न तो अधिक शीत होती है और न ही अधिक गर्मी। पूरा पावन काल। इसीलिए ऎसे पावन समय में सूर्य की चमकती किरणों की साक्षी में चरित्र और धर्म धरती पर स्वयं भगवान श्रीराम का रूप धारण कर उतर आए। श्रीराम का अवतार चैत्र की शुक्ल नवमी को हुआ था।
ऐसे संसारव्यापी निर्मलता और कोमलता के बीच प्रकट होता है हमारा अपना नया साल “विक्रम संवत्सर” । विक्रम संवत का संबंध हमारे कालचक्र से ही नहीं, बल्कि हमारे सुदीर्घ साहित्य और जीवन जीने की विविधता से भी है। कहीं धूल-धक्कड़ नहीं, कुत्सित कीच नहीं, बाहर-भीतर जमीन-आसमान सर्वत्र स्नानोपरांत मन जैसी शुद्धता। पता नहीं किस महामना ऋषि ने चैत्र के इस दिव्य भाव को समझा होगा और किसान को सबसे ज्यादा सुहाती इस चैत्र मेे ही काल की शुरूआत मानी होगी। वैसे तो वसंत ऋतु का आगमन फाल्गुन में ही हो जाता है पर पूरी तरह से व्यक्त चैत्र में ही होता है इस समय सारी वनस्पति और सृष्टि प्रस्फुटित होती है। पके मीठे अन्न के दानों में, आम की मन को लुभाती खुशबू में, गणगौर पूजती कन्याओं और सुहागिन नारियों के हाथ की हरी-हरी दूब में तथा वसंतदूत कोयल की गूंजती स्वर लहरी में हर जगह नयापन दिखाई देता है चारों ओर पकी फसल का दर्शन आत्मबल और उत्साह को जन्म देता है। खेतों में हलचल, फसलों की कटाई, हांसिए का मंगलमय खर-खर करता स्वर और खेतों में डांट-डपट-मजाक करती आवाजें। जरा दृष्टि फैलाइए, भारत के आभा मंडल के चारों ओर। चैत्र क्या आया मानो खेतों में हंसी-खुशी की रौनक छा जाती है |

नया फसल घर मे आने का समय भी यही है | इस समय प्रकृति मे उष्णता बढ्ने लगती है |जिससे पेड़ -पोधे ,जीव-जन्तु मे नव जीवन आ जाता है| लोग एकदम मदमस्त हो गीत गुनगुनाने लगते हैl ऐसे प्रकृति के नयेपन के साथ सूर्य की सुनहरी रोशनी के बीच आता है हमारा नववर्ष और जिसके लिए पिछले कल को हमने शुभ की तैयारी में बिताया है तो आने वाला साल भी शुभ ही होगा जो भारतीय इस लेख से संतुष्ट है l
इसे अधिक से अधिक लोगो के बीच शेयर करे और देश को बचाए |

चैत शुक्ल प्रतिपदा को नववर्ष मनाने का संकल्प ले | 31 दिसंबर की आधी रात और 1जनवरी के प्रारंभ में नशे और व्यभिचार के साथ शोरगुल में आप जो करते हैं कम से कम वह नववर्ष तो नहीं है और न ही वह शुभ की तैयारी है|

कृपया कोई भी
happy new year
का सन्देश न भेजें l

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Posted in रामायण - Ramayan

14 Pictures That Tell Us Ramayana Might Have Actually Happened


14 Pictures That Tell Us Ramayana Might Have Actually Happened

There is a great deal of debate about whether there is any historical accuracy in the story of Ramayana. For many of us, this is a no-brainer. The fact that our elders had told us the heroic story of Lord Ram’s victory over Raavan was enough. And then there’s the if-there’s-a-TV-show-about-it-it-must’ve-happened crowd.

But that’s not how history works.

There are many things about the Ramayana that are absolutely mythological. A demon king with ten heads? Yeah, right. Talking monkeys? Nope. Didn’t exist. Demon uncle that could morph into a deer? Don’t think so. A flying chariot? No way. Demi-god who could take the form of a vulture? Again, no. But here’s the thing – Ramayana wasn’t originally written as a historical text but as an  epic poem. Whether we like it or not, creative liberty was a thing back then too.

But if we remove all the myth from the story, it is basically about an exiled prince waging war against a king from another kingdom who kidnapped his wife. And that could have happened. We cannot prove or disprove anything. But at least we can present a list of places that are mentioned in the Ramayana.

 

The place in Ayodhya where Hanuman was patiently waiting while Ram was in exile, is now a temple called Hanuman Garhi.

Source

There’s an actual Janki Temple in Janakpur in Nepal. Janki, as we know, is another name for Sita, Janaka’s daughter.

Source

 

When Ram, Sita and Lakshman went into exile, they set up a hut in Panchavati, which is an actual area near Nashik. Tapovan, a nearby spot, is where Lakshman encountered Surpanakha.

Source

 

When Sita was abducted by Raavan, they bumped into Jatayu, a demi-god in vulture form, who tried his best to stop Raavan. Lepakshi, in Andhra Pradesh, is said to be the place where Jatayu fell.

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Ram, accompanied by Hanuman, met the dying Jatayu. Ram helped him attain moksha by uttering the words “Le Pakshiwhich is Telugu for “Rise, bird”. Hence the name, Lepakshi. There’s also a large footprint in that area which is said to be that of Hanuman’s.

Source

 

Ram Sethu, the bridge made of stones built by Ram’s army that connected the mainland to the island kingdom of Lanka, actually exists, albeit now, it’s underwater.

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Meanwhile, in Lanka, Raavan’s devotion to Lord Shiva earned him the respect of the God. So much so that he built his devotee a temple. This is the only time when a temple is dedicated to the one who prayed and not the one being prayed to. Today, it exists as Koneswaram Temple in Sri Lanka.



Source

 

Here’s the part of the temple where Raavan has been idolized. While having 10 heads is an exaggeration, the idea is based on the fact that Raavan ruled 10 kingdoms which meant that he had 10 different crowns.

Source

 

It is said that the Kanniya hot wells near the temple were also built by Raavan. They still exist.

Source

 

When Raavan brought Sita to Lanka, he first took her to this place called Sita Kotuwa, which is now a tourist spot in Sri Lanka.

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From here, he took her to the beautiful forest, which in Valmiki’s text was called Ashok Vatika. There is an actual Ashokavanam in Sri Lanka.

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When Hanuman reached Ashok Vatika, he is said to have come in the form of a giant. There are giant imprints on one side of the lake there which are said to be Hanuman’s footprints, formed when he landed.

Source

 

When they say “Hanuman set Lanka on fire” what they actually mean is he set fire to certain parts of Raavan’s palace. The ground here is said to be somewhat black which is nothing like the surrounding area. The picture below is from Ussangoda, which according to mythology was the landing strip for Raavan’s Pushpak Vimaan.



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After Ram rescued Sita from Lanka, he made her go through Agni Pariksha to test her purity. The place where this is said to have happened is Divurumpola in Sri Lanka. There is a tree in that exact spot and even today, local disputes are settled through debates and discussions under that tree.

Source

 

The fact that these places actually exist is perhaps not enough to prove Ramayana actually happened. But then again, we need to understand that this epic was not written as one definite piece of text. Valmiki collected data from different sources and combined them with his own knowledge of events, (curated content FTW!) which was largely passed down orally through the years. And then other writers too contributed to it by adding details. The thing is, it is a little pointless to argue about the historical accuracy of the Ramayana. Whether it happened or not, is not as important as the message of good triumphing over evil it has spread throughout the passage of time.

 

 

 

 

Note: An earlier version of this post included wrong pictures of Thiru Koneswaram Temple and Raavan’s Palace.

Posted in यत्र ना्यरस्तुपूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता:

यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः इत्यादि – मनुस्मृति के वचन


‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः’ इत्यादि – मनुस्मृति के वचन

 

‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते …’ कहते हुए समाज में स्त्रियों को सम्मान मिलना चाहिए की बात अक्सर सुनने को मिलती हैं । सम्मान तो हर व्यक्ति को मिलना चाहिए, चाहे वह स्त्री हो या पुरुष, बालक हो या वृद्ध, धनी हो या निर्धन, आदि । किंतु देखने को यही मिलता है कि व्यक्ति शरीर से कितना सबल है, वह कितना धनी है, बौद्धिक रूप से कितना समर्थ है, किस कुल में जन्मा है, आदि बातें समाज में मनुष्य को प्राप्त होने वाले सम्मान का निर्धारण करते हैं । सम्मान-अपमान की बातें समाज में हर समय घटित होती रहती हैं, किंतु स्त्रियों के साथ किये जाने वाले भेदभाव की बात को विशेष तौर पर अक्सर उठाया जाता है । फलतः उक्त वचन लोगों के मुख से प्रायः सुनने को मिल जाता है ।

उक्त वचन मनुस्मृति के हैं जो एक विवादास्पद ग्रंथ माना जाता है, फिर भी जिस पर हिंदू समाज के नियम-कानून कुछ हद तक आधारित हैं । मैंने सुना है कि समाज में व्याप्त कुछएक विकृतियों की जड़ में यह ग्रंथ भी है । मेरा विचार है कि यथाशीघ्र इस ग्रंथ का अध्ययन करूं और देखूं कि उसमें कितना कुछ आपत्तिजनक है । फिलहाल मेरी दृष्टि में उक्त कथन और उससे संबद्ध पांच श्लोकों पर गयी तो सोचा कि उनका उल्लेख इस स्थल पर करूं । ये श्लोक आगे दिये जा रहे हैं (मनुस्मृति अध्याय ३, श्लोक ५६-६०):

यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः ।
यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफलाः क्रियाः ।।५६।।

[यत्र तु नार्यः पूज्यन्ते तत्र देवताः रमन्ते, यत्र तु एताः न पूज्यन्ते तत्र सर्वाः क्रियाः अफलाः (भवन्ति) ।]
जहां स्त्रीजाति का आदर-सम्मान होता है, उनकी आवश्यकताओं-अपेक्षाओं की पूर्ति होती है, उस स्थान, समाज, तथा परिवार पर देवतागण प्रसन्न रहते हैं । जहां ऐसा नहीं होता और उनके प्रति तिरस्कारमय व्यवहार किया जाता है, वहां देवकृपा नहीं रहती है और वहां संपन्न किये गये कार्य सफल नहीं होते हैं ।

शोचन्ति जामयो यत्र विनश्यत्याशु तत्कुलम् ।
न शोचन्ति तु यत्रैता वर्धते तद्धि सर्वदा ।।५७।।

[यत्र जामयः शोचन्ति तत् कुलम् आशु विनश्यति, यत्र तु एताः न शोचन्ति तत् हि सर्वदा वर्धते ।]
जिस कुल में पारिवारिक स्त्रियां दुर्व्यवहार के कारण शोक-संतप्त रहती हैं उस कुल का शीघ्र ही विनाश हो जाता है, उसकी अवनति होने लगती है । इसके विपरीत जहां ऐसा नहीं होता है और स्त्रियां प्रसन्नचित्त रहती हैं, वह कुल प्रगति करता है । (परिवार की पुत्रियों, बधुओं, नवविवाहिताओं आदि जैसे निकट संबंधिनियों को ‘जामि’ कहा गया है ।)

जामयो यानि गेहानि शपन्त्यप्रतिपूजिताः ।
तानि कृत्याहतानीव विनश्यन्ति समन्ततः ।।५८।।

[अप्रतिपूजिताः जामयः यानि गेहानि शपन्ति, तानि कृत्या आहतानि इव समन्ततः विनश्यन्ति ।]
जिन घरों में पारिवारिक स्त्रियां निरादर-तिरस्कार के कारण असंतुष्ट रहते हुए शाप देती हैं, यानी परिवार की अवनति के भाव उनके मन में उपजते हैं, वे घर कृत्याओं के द्वारा सभी प्रकार से बरबाद किये गये-से हो जाते हैं । (कृत्या उस अदृश्य शक्ति की द्योतक है जो जादू-टोने जैसी क्रियाओं के किये जाने पर लक्षित व्यक्ति या परिवार को हानि पहुंचाती है ।)

तस्मादेताः सदा पूज्या भूषणाच्छादनाशनैः ।
भूतिकामैर्नरैर्नित्यं सत्कारेषूत्सवेषु च ।।५९।।

[तस्मात् भूतिकामैः नरैः एताः (जामयः) नित्यं सत्कारेषु उत्सवेषु च भूषणात् आच्छादन-अशनैः सदा पूज्याः ।]
अतः ऐश्वर्य एवं उन्नति चाहने वाले व्यक्तियों को चाहिए कि वे पारिवारिक संस्कार-कार्यों एवं विभिन्न उत्सवों के अवसरों पर पारिवार की स्त्रियों को आभूषण, वस्त्र तथा सुस्वादु भोजन आदि प्रदान करके आदर-सम्मान व्यक्त करें ।

सन्तुष्टो भार्यया भर्ता भर्त्रा भार्या तथैव च ।
यस्मिन्नेव कुले नित्यं कल्याणं तत्र वै ध्रुवम् ।।६०।।

[यस्मिन् एव कुले नित्यं भार्यया भर्ता सन्तुष्टः, तथा एव च भर्त्रा भार्या, तत्र वै कल्याणं ध्रुवम् ।]
जिस कुल में प्रतिदिन ही पत्नी द्वारा पति संतुष्ट रखा जाता है और उसी प्रकार पति भी पत्नी को संतुष्ट रखता है, उस कुल का भला सुनिश्चित है । ऐसे परिवार की प्रगति अवश्यंभावी है । – योगेन्द्र

Posted in यत्र ना्यरस्तुपूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता:

लोग पत्नी का मजाक उड़ाते है। बीवी के नाम पर कई msg भेजते है उन सभी के लीये


लोग पत्नी का मजाक उड़ाते है। बीवी के
नाम पर कई msg भेजते है उन सभी के लीये
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Please Read This….
A Lady’s Simple Questions & Surely It Will
Touch A Man’s heart…
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देह मेरी ,
हल्दी तुम्हारे नाम की ।
हथेली मेरी ,
मेहंदी तुम्हारे नाम की ।
सिर मेरा ,
चुनरी तुम्हारे नाम की ।
मांग मेरी ,
सिन्दूर तुम्हारे नाम का ।
माथा मेरा ,
बिंदिया तुम्हारे नाम की ।
नाक मेरी ,
नथनी तुम्हारे नाम की ।
गला मेरा ,
मंगलसूत्र तुम्हारे नाम का ।
कलाई मेरी ,
चूड़ियाँ तुम्हारे नाम की ।
पाँव मेरे ,
महावर तुम्हारे नाम की ।
उंगलियाँ मेरी ,
बिछुए तुम्हारे नाम के ।
बड़ों की चरण-वंदना
मै करूँ ,
और ‘सदा-सुहागन’ का आशीष
तुम्हारे नाम का ।
और तो और –
करवाचौथ/बड़मावस के व्रत भी
तुम्हारे नाम के ।
यहाँ तक कि
कोख मेरी/ खून मेरा/ दूध मेरा,
और बच्चा ?
बच्चा तुम्हारे नाम का ।
घर के दरवाज़े पर लगी
‘नेम-प्लेट’ तुम्हारे नाम की ।
और तो और –
मेरे अपने नाम के सम्मुख
लिखा गोत्र भी मेरा नहीं,
तुम्हारे नाम का ।
सब कुछ तो
तुम्हारे नाम का…
Namrata se puchti hu?
आखिर तुम्हारे पास…
क्या है मेरे नाम का?
एक लड़की ससुराल चली गई।
कल की लड़की आज बहु बन गई.
कल तक मौज करती लड़की,
अब ससुराल की सेवा करना सीख गई.
कल तक तो टीशर्ट और जीन्स पहनती लड़की,
आज साड़ी पहनना सीख गई.
पिहर में जैसे बहती नदी,
आज ससुराल की नीर बन गई.
रोज मजे से पैसे खर्च करती लड़की,
आज साग-सब्जी का भाव करना सीख गई.
कल तक FULL SPEED स्कुटी चलाती लड़की,
आज BIKE के पीछे बैठना सीख गई.
कल तक तो तीन वक्त पूरा खाना खाती लड़की,
आज ससुराल में तीन वक्त
का खाना बनाना सीख गई.
हमेशा जिद करती लड़की,
आज पति को पूछना सीख गई.
कल तक तो मम्मी से काम करवाती लड़की,
आज सासुमां के काम करना सीख गई.
कल तक भाई-बहन के साथ
झगड़ा करती लड़की,
आज ननद का मान करना सीख गई.
कल तक तो भाभी के साथ मजाक करती लड़की,
आज जेठानी का आदर करना सीख गई.
पिता की आँख का पानी,
ससुर के ग्लास का पानी बन गई.
फिर लोग कहते हैं कि बेटी ससुराल जाना सीख
गई.
(यह बलिदान केवल लड़की ही कर
सकती है,इसिलिए हमेशा लड़की की झोली
वात्सल्य से भरी रखना…)

Posted in कविता - Kavita - કવિતા

झांसी की रानी


झांसी की रानी
सिंहासन हिल उठे राजवंशों ने
भृकुटी तानी थी,
बूढ़े भारत में आई फिर से नयी जवानी थी,
गुमी हुई आजादी की कीमत सबने
पहचानी थी,
दूर फिरंगी को करने की सबने मन में
ठानी थी।
चमक उठी सन सत्तावन में, वह तलवार
पुरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुंह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लडी मर्दानी वह
तो झांसी वाली रानी थी।।
कानपूर के नाना की, मुंहबोली बहन
छबीली थी,
लक्ष्मीबाई नाम, पिता की वह संतान
अकेली थी,
नाना के संग पढ़ती थी वह, नाना के संग
खेली थी,
बरछी ढाल, कृपाण,
कटारी उसकी यही सहेली थी।
वीर शिवाजी की गाथायें उसकी याद
ज़बानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुंह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लडी मर्दानी वह
तो झांसी वाली रानी थी।।
लक्ष्मी थी या दुर्गा थी वह स्वयं
वीरता की अवतार,
देख मराठे पुलकित होते उसकी तलवारों के
वार,
नकली युद्ध-व्यूह की रचना और खेलना खूब
शिकार,
सैन्य घेरना, दुर्ग तोडना ये थे उसके प्रिय
खिलवार।
महाराष्टर-कुल-देवी उसकी भी आराध्य
भवानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुंह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लडी मर्दानी वह
तो झांसी वाली रानी थी।।
हुई वीरता की वैभव के साथ सगाई
झांसी में,
ब्याह हुआ रानी बन आई लक्ष्मीबाई
झांसी में,
राजमहल में बजी बधाई खुशियां छाई
झांसी में,
चित्रा ने अर्जुन को पाया, शिव से
मिली भवानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुंह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लडी मर्दानी वह
तो झांसी वाली रानी थी।।
उदित हुआ सौभाग्य, मुदित महलों में
उजियाली छाई,
किंतु कालगति चुपके-चुपके काली घटा घेर
लाई,
तीर चलाने वाले कर में उसे चूडियां कब
भाई,
रानी विधवा हुई, हाय!
विधि को भी नहीं दया आई।
निसंतान मरे राजाजी रानी शोक-
समानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुंह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लडी मर्दानी वह
तो झांसी वाली रानी थी।।
बुझा दीप झांसी का तब डलहौज़ी मन में
हरषाया,
राज्य हडप करने का उसने यह अच्छा अवसर
पाया,
फोरन फौजें भेज दुर्ग पर
अपना झंडा फहराया,
लावारिस का वारिस बनकर ब्रिटिश
राज्य झांसी आया।
अश्रुपूर्णा रानी ने देखा झांसी हुई
बिरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुंह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लडी मर्दानी वह
तो झांसी वाली रानी थी।।
अनुनय विनय नहीं सुनती है, विकट
शासकों की माया,
व्यापारी बन दया चाहता था जब यह
भारत आया,
डलहौज़ी ने पैर पसारे, अब तो पलट गई
काया,
राजाओं नव्वाबों को भी उसने
पैरों ठुकराया।
रानी दासी बनी, बनी यह दासी अब
महरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुंह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लडी मर्दानी वह
तो झांसी वाली रानी थी।।
छिनी राजधानी दिल्ली की, लखनऊ
छीना बातों-बात,
कैद पेशवा था बिठुर में, हुआ नागपुर
का भी घात,
उदैपुर, तंजौर, सतारा, करनाटक की कौन
बिसात?
जबकि सिंध, पंजाब ब्रह्म पर अभी हुआ
था वज्र-निपात।
बंगाले, मद्रास
आदि की भी तो वही कहानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुंह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लडी मर्दानी वह
तो झांसी वाली रानी थी।।
रानी रोयीं रिनवासों में, बेगम ग़म से
थीं बेज़ार,
उनके गहने कपडे बिकते थे कलकत्ते के बाज़ार,
सरे आम नीलाम छापते थे अंग्रेजों के अखबार,
‘नागपूर के ज़ेवर ले लो लखनऊ के लो नौलख
हार’।
यों परदे की इज्जत परदेशी के हाथ
बिकानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुंह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लडी मर्दानी वह
तो झांसी वाली रानी थी।।
कुटियों में भी विषम वेदना, महलों में आहत
अपमान,
वीर सैनिकों के मन में था अपने
पुरखों का अभिमान,
नाना धुंधूपंत पेशवा जुटा रहा था सब
सामान,
बहिन छबीली ने रण-चण्डी का कर
दिया प्रकट आहवान।
हुआ यज्ञ प्रारंभ उन्हें तो सोई
ज्योति जगानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुंह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लडी मर्दानी वह
तो झांसी वाली रानी थी।।
महलों ने दी आग, झोंपडी ने
ज्वाला सुलगाई थी,
यह स्वतंत्रता की चिनगारी अंतरतम से आई
थी,
झांसी चेती, दिल्ली चेती, लखनऊ लपटें
छाई थी,
मेरठ, कानपूर, पटना ने भारी धूम मचाई थी,
जबलपूर, कोल्हापूर में भी कुछ हलचल
उकसानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुंह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लडी मर्दानी वह
तो झांसी वाली रानी थी।।
इस स्वतंत्रता महायज्ञ में कई वीरवर आए
काम,
नाना धुंधूपंत, तांतिया, चतुर
अज़ीमुल्ला सरनाम,
अहमदशाह मौलवी, ठाकुर कुंवरसिंह सैनिक
अभिराम,
भारत के इतिहास गगन में अमर रहेंगे जिनके
नाम।
लेकिन आज जुर्म
कहलाती उनकी जो कुरबानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुंह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लडी मर्दानी वह
तो झांसी वाली रानी थी।।
इनकी गाथा छोड, चले हम झांसी के
मैदानों में,
जहां खडी है लक्ष्मीबाई मर्द
बनी मर्दानों में,
लेफ्टिनेंट वाकर आ पहुंचा, आगे
बडा जवानों में,
रानी ने तलवार खींच ली, हुया द्वन्द्ध
असमानों में।
जख्मी होकर वाकर भागा, उसे अजब
हैरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुंह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लडी मर्दानी वह
तो झांसी वाली रानी थी।।
रानी बढ़ी कालपी आई, कर सौ मील
निरंतर पार,
घोडा थक कर गिरा भूमि पर गया स्वर्ग
तत्काल सिधार,
यमुना तट पर अंग्रेजों ने फिर खाई रानी से
हार,
विजयी रानी आगे चल दी,
किया ग्वालियर पर अधिकार।
अंग्रेजों के मित्र सिंधिया ने
छोडी रजधानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुंह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लडी मर्दानी वह
तो झांसी वाली रानी थी।।
विजय मिली, पर अंग्रेजों की फिर
सेना घिर आई थी,
अबके जनरल स्मिथ सम्मुख था, उसने मुंह
की खाई थी,
काना और मंदरा सखियां रानी के संग आई
थी,
युद्ध श्रेत्र में उन दोनों ने भारी मार मचाई
थी।
पर पीछे ह्यूरोज़ आ गया, हाय! घिरी अब
रानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुंह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लडी मर्दानी वह
तो झांसी वाली रानी थी।।
तो भी रानी मार काट कर
चलती बनी सैन्य के पार,
किंतु सामने नाला आया, था वह संकट
विषम अपार,
घोडा अडा, नया घोडा था, इतने में आ गये
अवार,
रानी एक, शत्रु बहुतेरे, होने लगे वार-पर-वार।
घायल होकर गिरी सिंहनी उसे वीर
गति पानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुंह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लडी मर्दानी वह
तो झांसी वाली रानी थी।।
रानी गई सिधार चिता अब उसकी दिव्य
सवारी थी,
मिला तेज से तेज, तेज की वह
सच्ची अधिकारी थी,
अभी उम्र कुल तेइस की थी, मनुज
नहीं अवतारी थी,
हमको जीवित करने आयी बन स्वतंत्रता-
नारी थी,
दिखा गई पथ, सिखा गई हमको जो सीख
सिखानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुंह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लडी मर्दानी वह
तो झांसी वाली रानी थी।।
जाओ रानी याद रखेंगे ये कृतज्ञ
भारतवासी,
यह तेरा बलिदान
जगावेगा स्वतंत्रता अविनासी,
होवे चुप इतिहास, लगे सच्चाई को चाहे
फांसी,
हो मदमाती विजय, मिटा दे गोलों से
चाहे झांसी।
तेरा स्मारक तू ही होगी, तू खुद अमिट
निशानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुंह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लडी मर्दानी वह
तो झांसी वाली रानी थी।।

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लीला सेमसन का काला सच


लीला सेमसन का काला सच

लीला सेमसन का काला सच
31Dec 14

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लीला सैमसन का ज़हरीला अतीत ; पीके की रिलीज के साथ ही सेंसर बोर्ड की अध्यक्ष लीला सैमसन की हिंदुओं के लिए भयानक घृणा उजागर हो गई जिसने उन्हें सुर्खियों में ला दिया ।

यह फिल्म, ईसाईयत और इस्लाम पर नाम के लिए हल्के-फुल्के कटाक्ष करती है लेकिन हिन्दू धर्म का नफ़रत से भरा मज़ाक उड़ाते हुए तथा सनातन संस्कृति का कुत्सित अपमान करने के लिए प्रचलित सिकुलरी ज़हर से भरे घिसे-पिटे चालू फिकरों का सहारा लेती है. जहां एक ओर लोग अपनी मान्यताओं के खिलाफ इस हानिकर प्रचार के विरोध में उतर आए हैं, उस व्यक्ति के इतिहास पर एक नज़र लेने की जरूरत है जिसने अपने एक साथी सेंसर बोर्ड सदस्य द्वारा गंभीर विरोध के बावजूद बिना किसी कांट-छांट के इस फिल्म को पारित कर दिया।

1) लीला सैमसन की कहानी औपनिवेशिक मिशनरीवाद के युग से भरत नाट्यम के नृत्य रूप को बचाने वाली एक नृत्‍य गुरु रुक्मिणी अरूंडेल द्वारा स्थापित एक शास्त्रीय नृत्य संस्‍थान कलाक्षेत्र से प्रारंभ होती है. रुक्मिणी के अनुसार “नृत्य एक ऐसी साधना है जिसे पूर्ण भक्ति की आवश्यकता है.”

2) लीला सैमसन की यहूदी-ईसाई पृष्ठभूमि को देखते हुए रुक्मिणी उन्हें संस्था में स्वीकार करने के लिए कुछ अनिच्छुक सी थीं. हालांक‍ि उन्हें शायद ही इस बात का संज्ञान था कि उनका यह डर आने वाले वर्षों में दस गुना भयावह सच बन कर सामने आ जाएगा.

3) 2005 में कलाक्षेत्र की निदेशक बनने के लिए लीला ने अपनी अर्हताओं में फर्जीवाड़ा करके धोखे से यह पद प्राप्त किया. इस धोखाधड़ी के उजागर होने के बावजूद संप्रग सरकार के अधीन संस्कृति मंत्रालय ने उन्हें इस पद पर जारी रखा.

4) उनकी नियुक्ति के बाद लीला का पहला कार्य भरत नाट्यम की आध्यात्मिक जड़ों का उन्मूलन था. छात्रों और शिक्षकों के भारी विरोध के बावजूद उन्होंने परिसर से सभी गणेश और नटराज की प्रतिमाओं को ‘हिन्दू अंधविश्वास’ कहते हुए ज़बर्दस्ती हटाने के आदेश दिए.

 

5) 1936 के बाद से कलाक्षेत्र के प्रतीक के रूप में स्थापित लोगो को लीला ने सिर्फ इसलिए बदल दिया क्योंकि उसमें भगवान शिव के प्रतीक के साथ प्रभु नटराज गणेश की छवि थी. कारण, फिर वही हिन्दू अंधविश्वास का हवाला.
6) वर्ष 2006 में 5-8 दिसम्बर के बीच चेन्नई में आर्ट ऑफ लिविंग के श्री श्री रविशंकर द्वारा आयोजित ‘हेल्थ एंड हैप्पिनेस’ कार्यक्रम के उद्घाटन के दौरान एक लघु नृत्य में भाग लेने की अनुमति से लीला ने इनकार कर दिया और न मानने पर छात्रों के निष्कासन की धमकी दी: वजह बताई गई कि यह एक “हिंदू घटना” है.
(छात्र-कलाकारों ने उनकी धमकी को नज़रअंदाज कर दिया और उन्हें यह याद दिलाते हुए कि कला कलाकार से भी बड़ी है, उस आयोजन में भाग लिया. उसके बाद लीला ने इस आयोजन में जाने वाले छात्रों की सहायता करने वाले शिक्षकों को लगातार उत्पीडि़त करना प्रारंभ कर दिया.)

7) सुबह की सभा में, सैमसन ने कथित तौर पर छात्रों और शिक्षकों से साफ-साफ कहा कि “मूर्ति पूजा” एक अंधविश्वास है और कलाक्षेत्र में इसे हतोत्साहित किया जाना चाहिए. लीला सैमसन हिंदू ग्रंथों और देवताओं की जम कर खिल्ली उड़ाया करती थीं, और उनकी तुलना वॉल्ट डिज्नी के कार्टून चरित्रों से किया करती थीं.

8) नियंत्रक एवं लेखा महापरीक्षक (CAG) की एक रिपोर्ट में उनके सात साल के कार्यकाल (2005-12) के दौरान उनके कामकाज के तरीके की सख्‍़ती से आलोचना की. उन्होंने आधुनिकीकरण के बहाने से कलाक्षेत्र सभागार के मंदिर के ढांचे को ध्वस्त कर दिया. इसके अतिरिक्त वहाँ कई करोड़ रुपए की निधि अनियमितताओं बरती गई थीं और कम से कम 16 नियुक्तियों में योग्यता के मानकों और संस्था के मानदंडों को धता बताते हुए मनमाने तरीके से उनका निर्णय किया गया था. अपनी शक्ति का यह घिनौना और ज़बरदस्त दुरुपयोग लीला सैमसन सोनिया के समर्थन से ही कर पाई थीं. और ऐसा होता भी क्यों नहीं – आखिर लीला प्रियंका वाड्रा की निजी नृत्य शिक्षक थीं.

9) नियत आयु से अधिक होने के बावजूद, लीला को एक ग़ैरकानूनी सेवा विस्तार दिया गया और सेंसर बोर्ड की प्रमुख बनाया गया था. उनका खुद का सिनेमा ज्ञान शून्य था, लेकिन वह बोर्ड के अधिकांश सदस्यों को अशिक्षित और मूर्ख बताया करती थीं. जब इन सदस्यों में से दो द्वारा उन्हें कानूनी नोटिस जारी किया गया, जब वह माफी मांगने के लिए मजबूर हुई थीं.

10) हालांकि किसी भी फिल्म में ईसाइयों या मुसलमानों को लेकर ज़रा से भी हास्यपूर्ण संदर्भ पर वह कड़ी आपत्ति जताती थीं, लेकिन हिंदू धर्म की मान्यताओं खिल्ली उड़ाती फिल्मों को वह नियमित रूप से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर बिना किसी काट-छांट के जारी कर देती थीं.


लीला सैमसन अकेली नहीं है। कांग्रेस द्वारा नियुक्त सोनिया के इस तरह के घिनौने चमचों का एक विशाल गठजोड़ है जो लगातार अक्सर हिंदू विरोधी भारत विरोधी दुष्प्रचार में लिप्त है. यह लोग अंतरराष्ट्रीय मंचों पर हमारे देश का प्रतिनिधित्व करते हैं और पश्चिम को खुश करने के लिए हमारे राष्ट्र की एक घटिया तस्वीर पेश करते हैं. केंद्र में फिलहाल जो नई सरकार है, उसके सामने यह बड़ी चुनौती है कि इसे एक ऐसी प्रणाली को साफ करना है जो अंदर से इतनी सड़ी हुई, ताक़तवर और भयानक है जिसका सफाया करने पर इस सरकार को गिरने तक का ख़तरा उठाना पड़ सकता है.

 

Posted in हिन्दू पतन

Height of Secularism: गरीब के बच्चे सिर्फ तभी याद आते हैं जब शिवलिंग पर दूध चढता है, 31 Dec को 10000करोड़ की दारू पीते हुए सब भूल जाते हैं


Height of Secularism: गरीब के बच्चे सिर्फ तभी याद आते हैं जब शिवलिंग पर दूध चढता है,
31 Dec को 10000करोड़ की दारू पीते हुए सब भूल जाते हैं

Posted in जीवन चरित्र

Savitribai Jyoti Rao Phule


Today, 03 January is 184th Birth anniversary of the greatest REFORMIST of India and first female teacher of India`s foremost women`s school. Savitribai Jyoti Rao Phule. On her birth anniversary I offer my flouring tributes to this great lady. Savitribai Phule was a famous social revolutionary reformer of India who was born on January 3, 1831 in the family of an affluent farmer in a small village of Naigaum of Satara district, Maharashtra, India. She was a great wife of one of the most respected personality, father of the Indian Social Revolution Mahatma Jyoti Rao Phoolay. Krantijot Savitri Bai Phoolay revolted against Feudal Brahminical system and hegemony of the Brahmins in all spheres of life. Savitribai had taken women’s education and their liberation from the cultural patterns of the male-dominated society as mission of her life even for Brahmin women and widows too. She worked towards tackling some of the then major social problems including women’s liberation, widow remarriages and removal of untouchability.
When Savitribai completed her studies, she, along with her husband, started a school for girls in 1847 Started school with Sagunabai in Maharwada and countries first school started on 1st January 1848 in a place called Bhide Wada, Narayan Peth, Pune. Nine girls, belonging to different castes, enrolled them as students including for Brahmin widows.
Jyotiba and Savitribai were also opposed to idolatry and championed the cause of peasants and workers. They faced social isolation and vicious attacks from people whom they questioned. After his demise, Savitribai took over the responsibility of Satya Shodhak Samaj, founded by Jyotiba. She presided over meetings and guided workers and championed the cause of peasants and workers.
She worked relentlessly for the victims of plague, where she organized camps for poor children. It is said that she used to feed two thousand children every day during the epidemic. She herself was struck by the disease while nursing a sick child and died on 10 March 1897. Long live Savitribai.

Today, 03 January is 184th Birth anniversary of the greatest REFORMIST of India and first female teacher of India`s foremost women`s school. Savitribai Jyoti Rao Phule. On her birth anniversary I offer my flouring tributes to this great lady. Savitribai Phule was a famous social revolutionary reformer of India who was born on January 3, 1831 in the family of an affluent farmer in a small village of Naigaum of Satara district, Maharashtra, India. She was a great wife of one of the most respected personality, father of the Indian Social Revolution Mahatma Jyoti Rao Phoolay. Krantijot Savitri Bai Phoolay revolted against Feudal Brahminical system and hegemony of the Brahmins in all spheres of life. Savitribai had taken women’s education and their liberation from the cultural patterns of the male-dominated society as mission of her life even for Brahmin women and widows too. She worked towards tackling some of the then major social problems including women’s liberation, widow remarriages and removal of untouchability.
When Savitribai completed her studies, she, along with her husband, started a school for girls in 1847 Started school with Sagunabai in Maharwada and countries first school started on 1st January 1848 in a place called Bhide Wada, Narayan Peth, Pune. Nine girls, belonging to different castes, enrolled them as students including for Brahmin widows.
Jyotiba and Savitribai were also opposed to idolatry and championed the cause of peasants and workers. They faced social isolation and vicious attacks from people whom they questioned. After his demise, Savitribai took over the responsibility of Satya Shodhak Samaj, founded by Jyotiba. She presided over meetings and guided workers and championed the cause of peasants and workers.
She worked relentlessly for the victims of plague, where she organized camps for poor children. It is said that she used to feed two thousand children every day during the epidemic. She herself was struck by the disease while nursing a sick child and died on 10 March 1897. Long live Savitribai.
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