संस्कृति जनजीवन का दर्पण है। जिस प्रकार वह उसके बौद्धिक विकास तथा भौतिक उन्नयन का दृश्य अभिलेखित करती है, उसी प्रकार वह उसकी आध्यात्मिक चेतना का प्रतीक भी है। बुन्देखण्ड कला, धर्म तथा पुरातात्विक परंपराओं से भरपूर अंचल रहा है। प्राय: समूचे प्रदेश मे मंदिर, महल, किले तथा छतरियों के माध्यम से प्राचीन संस्कृति तथा कला के दर्शन होते हंै। वास्तव में मंदिर की हमारी सम्यता और संस्कृति के संक्षिप्त स्वरूप हैं। वे प्रतीकवाद में ढाले हुये सदियों पुरानी पौराणिकता और कल्पना शीलता को चित्रित करते हंै। इस अंचल में केवल इतिहास के अभ्युदय काल के कुछ अमूल्य स्मारक ही नही हंै वरन कुछ प्रागैतिहासिक काल के अवशेष भी हैंे जिनमें प्रौढ किन्तु बलपूर्ण ढंग से मानव के आत्मव्यक्तिकरण के प्रारभिक प्रयास अब भी सुरक्षित हं।ै शिलाओं ईटों और पत्थरों के रूप में वे भारतीय इतिहास तथा सांस्कृतिक चरणों के उस काल के महत्वपूर्ण प्रमाण है। उनमें से अधिकंश अभी तक विख्यात नही हंै और दुरूह क्षेत्रों में है। स्व. घासीराम जी व्यास केशब्दो मे….ं
चित्रकूट, औरछौ, कांलिजर, उन्नाव तीर्थ,!
पन्ना, खजुराहो जहॅा कीर्ति झुकि झूठी है!!
जमुन,पहुज सिन्धु, बेतवा, धसान, केन!
मन्दाकिनी, पर्यास्वेनी, प्रेमपाय धूमी है!!
पंचम नृसिंह राव चंपतरा छत्रसाल,!
लाला हरदौल भाव-भाव चित चूमी है!!
अमर अनन्दनीय असुर निकन्दनीय!
वन्दनीय विश्व में बुन्देखण्ड भूमि है!!।
प्रागैतिहासिक काल के अनेक अवशेष बुन्देलखण्ड में कई जगह बिखरे हुए हैं। गिजवा की पहाड़ी की एक गुफा में गैरिक रंग से रंगे हुए भित्ति चित्र, जिसमें शिकारी और हिरन के छाया चित्र उभरे हुए है,ं बडे ही महत्वपूर्ण है। सिलहरा की गुफाओ में भी इसी प्रकार के चित्र पाए गए हंै। मांडा की गुफाये रामा मणकालीन इतिहास की साक्षी है। गृद्धकूट का प्राचीन स्थान आज भी महत्वपूर्ण हैं। विजावर (छतरपुर जिला) के निकट देवरा के आसपास शिला मित्तियों पर की गई चित्रकारी मानव-प्रकतिप्राचीनतम अनुभूतियॉ हैं।इस प्रकार की चित्रकारियों की परिगणना ऐतिहासिकों के मतानुसार उत्तर पाषाण युग में की जाती है।ं इस अंचल के कुछ प्राय: अवशेष धुवेला संग्रहालय में देखेंे जा सकते हंै। एरन (सागर जिला) के उत्खनन से भी इस क्षेत्र की विशाल संास्कृतिक धरोहर का अनुमान लगाया जा सकता है। दतिया नगर के पास गुजर्रा गांव से प्राप्त ऐतिहासिक महत्व के एक अस्तीकालीन शिलालेख जो ईसा पूर्व 258 का मोर्य सम्राट अशोक भी माना जाता हैं। सिद्ध करता है कि वर्तमान गुजर्रा गांव मोर्यकाल के एक समृद्धशील प्रशासिनिक केन्द्र के आसपास था।
सम्पूर्ण ऐतिहािंसक एवं सांस्कृतिक घटनाक्रमों का मिलन स्थल बुन्देलखण्ड ही रहा हैं जहां पर बुन्देल, चन्देली, कलचुरी कालीन संस्कृति का समन्वय हुआ है, वही पर जैन और बौद्ध संस्कृति भी अधिक महत्वपूर्ण बन सकी है। उन्नाव का सूर्य मन्दिर सोनागिरि, पपौरा तथा कहार के जैन मंदिर, खजुराहो के प्रसिद्ध अनेक मंदिर भुलाए नहीं जा सकते । बानपुर (ललितपुर जनपद) महाभारत कालीन प्रसिद्ध नगर भी ,जिसमें शिशुपाल की राजधानी थी। दतिया का उत्तरी भू- भाग द्रोण प्रदेश कहा जाता था जो कौरवों और पाण्डवों के गुरू द्रोणाचार्य को गुरू दक्षिणा में प्राप्त हुआ था ।सेवढ़ा में महात्मा सनक सनकन ऋषि के आश्रम आज भी आस्था के प्रतीक हंै यहां भी विशाल एंव मनमोहक सरस्वती शिव आर्ट देवताओं की मूर्तियांें अपने युगों की स्थापत्य कला एवं मूर्तिकला के अनुपम उदाहरण हंै।
खजुराहो के मंदिर मध्यकालीन भारतीय कला का सर्वोत्तम प्रतिनिधित्व करते हैं। उनकी कलापद्धिति, आकार प्रकार की सुन्दरता तथा अलंकरण की गहनता और विविधता में ये मंदिर अपनी सानी नहीं रखते । यहां शिल्पियों ने छेनी से पत्थर पर जीवन और प्रकृति के विभिन्न पन्नांे का सजीव चित्रण किया है।ं उनमे कल्पना की सूक्ष्मता ,वृत्ति ,वैभव और विश्लेषण परम्पररागत होते हुये भी नवीन है। लगभग 2 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैले 30 मंदिर इन्डोआयरन शैली में भारतीय स्थापत्य कला और सांस्कृतिक चेतना के उज्जवलतम प्रमाण हैं।
इन मंन्दिरों का निर्माण चन्देलों के राजत्वकाल मे ंदसवीं और ग्यारहवीं शताब्दी में हुआ। चंदेल शासन अपने निर्माण एंव लोक कल्याण कार्यो के लिए प्रसिद्ध रहे हैं । खजुराहो के मंदिरों में सबसे अधिक हाथ यशों वर्मन धंगदेव, विद्याधर, और सल्लक्षणवर्मन देव का है।ं चौसठ जोगनी तथा ब्रहम्हा जी के मंदिर को छोड़ कर सभी मंदिर केन नदी से लाए गए पत्थरों से बने हंै। शैव, वैष्णव और जैन मतांे का प्रतिनिधित्व करने वाले इन मन्दिरों का एक ही स्थान पर एकत्रीकरण यद्यपि तत्कालीन सुन्दरतम भारतीय शिल्पकला और कौशल का ही घोतक नहीं वरन धार्मिक सहिष्णुता का अद्धितीय प्रमाण है । मंन्दिरो को तीन भागों में बांटा जा सकता है। पश्चिमी भाग जिसमें शैव और वैष्णव मंदिर है उत्तरी भाग में वैष्णव और दक्षिणी पूर्वी भाग में केवल जैन मंदिर है।ं पश्चिमी भाग का सर्वोत्तम उदाहरण कन्दरिया महादेव का मंदिर है। उत्तरी भाग का वृहत मंदिर भगवान विष्णु के बावन अवतार सेंे संबंधित हंै जबकि घटई और जिननार्थ के मंदिर दक्षिणी पूर्वी भाग के विचित्र मंदिर, हैं। अन्य महत्वपूर्ण मंदिरों में विश्वनाथ ,मातगेश्वर, चतुभूर्ज, दूलहदेव, लक्ष्मणेश्वर ,सूर्य बाराह मंदिर, जगदम्बा मंदिर, पाश्र्वनाथ ,शांतिनाथ आदि हैं। यहां के मंदिरों में उत्सवों लोकनृत्यों का और श्रंगार करती हुई अप्स राआं,े ंअतिथि सेवा, भगवदभक्ति आदि के जो उत्कृष्ट नमूने मिलते हंै अत्यन्त दुलर्भ है।ं वहां के प्रत्येक मंदिर की प्रत्येक मूर्ति अपने में पूर्णहै और अपनी निजी विशेषता लिए ह।ै प्रत्येक मूर्ति में इतनी सजीवता है कि वह गतिमान हो उठती है। नृत्य संबंधी मुद्राओं को देखने के प्रतीत होता हैंकि मानो पाषाण प्रतिमांए वास्तव में नृत्य कर रही हंै। खजुराहो में सामाजिक जीवन के माध्यम से युग के दार्शनिक विचारो,ं धार्मिक मान्तव्य और प्रयोजनों तथा संास्कृतिक कल्पनाओं की सफल और सुन्दर अभिव्यक्ति हुई है।
प्राकृतिक सौन्दर्य के बाहुल्य के बीच स्थित बुंदेला इतिहास के आकर्षण पृष्ठ ओरछा (टीमकगढ) के ऐतिहासिक मंदिर दुर्ग तथा छतरियों को अमरता प्राप्त हैै। बेतवा नदी के किनारे ओरेछा का अतीत अपने वैभव की कहानी कह रहा है। ओरछा के मंन्दिरों मे चतुर्भुज का मंदिर, रामराजा मंदिर तथा लक्ष्मीनारायण मंदिर बुन्देला स्थापत्य कला के जीते जागते स्मारक हंै। चतुभूर्ज मंदिर का निर्माण 17वीं शताब्दी में ओरछा नरेश वीरसिंह देव ने कराया था। राम राजा मंदिर में भगवान रामचंद्र जी की मूर्ति है। इसे मधुकर शाह की रानी राजेश कुंवरि आयोध्या से लाई थी ं।यह पहले सुंदर महल था जिसे महाराज भारती चंद ने रानी गणेश कुंवरि के निवास हेतु बनया था।
लक्ष्मीनारायण मंदिर का निर्माण ओरछा के उत्तरी- पश्चिमी भाग में महाराजा वीरिंसह द्वारा कराया गया था। मंदिर में प्रवेश करते ही चित्रकारी प्रांरभ हो जाती है। इसके अंदर अठारहवीं, उन्नसवींसदी के सुन्दर झिलमिल चित्र हंै। शिल्पकला की दृष्टि से लक्ष्मीनारायण जी का मंदिर विशेष महत्वपूर्ण है।
महाराजा छत्रसाल की हीरो की नगरी पन्ना अपने ऐतिहासिक मंदिरो के लिए प्रसिद्ध है। पन्ना के ऐतिहासिक मंदिरों में स्वामी प्राणनाथ एंव जुगल किशोर जी के मंदिर महत्व के हैं। प्राणनाथ मंदिर का निर्माण विक्रमी संवत 1784 के लगभग हुआ था। स्वामी प्राणनाथ माहराज छत्रसाल के धमोेपदेशक गुरू थे। उन्हीे के लिए इस मंदिर का निर्माण कराया गया था ।स्वामी प्राणनाथ के प्रण्मयी सम्प्रदाय का परिवर्तन किया ।स्थापत्य कला के अतिरिक्त चित्रकारी के उत्कृष्ट नमूने यहां विद्यमान हैं। जुगल किशोर जी के मंदिर में राधाकृष्ण की मूर्तियां हैं। पुरातन और मध्यकालीन वास्तुकला के इन मंदिरों के गगनचुम्बी कलशांे की शिखरें अत्यन्त शोभा देती हंै।
दतिया नगर मे भी ऐसे मंदिर हैं जो अपनी स्थापत्य कला के लिए प्रसिद्ध हैं। श्री बडे़ गोविन्द जी का मंदिर, श्री बिहारी जी का मंदिर, श्री विजय गोविंद का मंदिर तथा श्री राजेश्वर महादेव का मंदिर गौरव एवं श्रद्धा के योग्य हैं । दक्षिण से 18 किलो मीटर पूर्व में पहूज नदी के किनारे स्थित उन्नाव में ब्रम्हवाला जी की मूर्ति भारत वर्ष मे अनोखी है।
वाकाटक प्रभाव के मंदिरों में मड़खेरा (टीकमगढ़) का सूर्य मंदिर हैं यहां के सूर्य मंदिर में सूर्य के रथ चक्र का अंकन कोणार्क के चक्र के समान है।ं मड़खेरा की मूर्ति का स्थापत्य नचना के महादेव मंदिर के सदृश ही है। जिसमें केवल शिखर ही हंै। इन मंदिरों का सबसे सुन्दर शिल्प उन्मत मयूर का है। इसमें बादल को देखकर उन्मत भाव से पंख फैला कर नाचने वाले मयूर का अंकन बहुत ही सुन्दर हुआ है।
बुन्देलखण्ड के अन्य दर्शनीय संास्कृतिक स्थानों में सोनागिरी, अहारक्षेत्र, पपोरा, वंधपजी और द्रोणागिरी के ऐतिहासिक एवं धार्मिक जैन तीर्थ अपना विशिष्ट महत्व रखते हैं। सेानागिरी के जैन मंदिर दतिया से 10 किलोमीटर दूर एक मनोरम पहाड़ी पर अवस्त्रित है।ं यह भूमि जैन मुनियों की तपो भूमि है। मंदिरों की क्रमबद्ध पवित्र दर्शकांे का मन मोह लेती हंै। सोनागिरी पर्वत पर 77 शिखर सहित जैन मंदिर हंै। चन्द्रप्रभु का विशाल एवं दर्शनीय मंदिर विशेष उल्लेखनीय है। इसी के पास नवनिर्मित विशाल मान स्तम्भ तथा श्री बाहुबलि भगवान की मूर्ति स्थापित है। जैन परम्परा के अनुसार सोनागिरी पर लाखों साधुओं ने निर्वाण प्राप्त किया है।
जैनियों का तीर्थ अहार क्षेत्र टीकमगढ जिले में अवस्थित हैं ।यहां जैनियों के प्राचीन मंदिर है जिन में अधिकांशखण्डहर हो गये है। ये मंदिर बाहरवीं, तेरहवीं शताब्दी के बने कहे जाते हैं। पपींरा टीकमगढ से बड़ा गांव सड़क पर लभगग 5 किलोमीटर पूर्व की ओर स्थित है। यहां पर लगभग एक किलोमीटर क्षेत्र में 108 कलापूर्ण जैन मंदिरों का समूह है। इन मंदिरो का भव्य दृश्य कई किलोमीटर दूरे से ही दिखाई देने लगता है। इन मंदिरो की स्थापत्य तथा मूर्तिकला से स्पष्ट होता है कि प्राचीन कला अपनी पूर्णता और भव्यता के शिखर पर थी। मंदिरों के तोरण द्वार मूर्ति कला की सूक्ष्मता और विपुलता के लिए प्रसिद्ध है। यहां के प्राय: सभी मंदिरों की मूर्तियों की भाव मुद्रायें भिन्न भिन्न प्रकार की हंै। यहां पर कुछ तेरहवीं शताब्दी के शिलालेख भी प्राप्त हुए हंै। मंदिरों की दीवालो,ं तोरण और छत्तों की मूर्तियों तथा चित्रकारी का लेखा अवर्णनीय है।
द्रोणागिरी के जैन मंदिर छतरपुर जिले में छतरपुर सागर -सड़क पर मलहरा से 7 किलोमीटर पर स्थित है। ये 26 मंदिर समूह में पहाड़ी पर बने है तथा विभिन्न काल की शिल्प कलाओं के प्रमाण यहां उपलब्ध हंै। सबसे प्राचीन मंदिर तिगोड़ा वालों का है।ं इसमें स्थित प्रतिमा सवंत 1549 की है। इस मंदिर में आदिनाथ स्वामी की मूर्ति है। एक मंदिर पाश्र्वनाथ स्वामी का है। मंदिरों के कलश दूर से बड़े ही मनोरम प्रतीत होते हैं।
जतारा से 6 कि.मी. दूर एक मनोरम पहाड़ी पर स्थित अब्दा पीर मुस्लिम भाईयों का महत्वपूर्ण और पवित्र स्थल है। भादों के महीने में शुक्रवार को अब्दा साहब की स्मृति में यहां प्रतिवर्ष मेला लगता है यहां एक गहरा कुण्ड तथा ओरछा की लड़ई महारानी द्वारा निर्माण कराया गया एक सुन्दर भवन है।
बुंदेलखण्ड के संास्कृतिक मानचित्र पर उभरे ये स्थल इस बात के ठोस प्रमाण हंै कि यहां का जनमानस धर्म परायण लोककलाओं में अभिरूचि रखने वाला प्रबुद्ध तथा जागरूक रहा है। तभी तो उसने ऐेसे स्थलों का निर्माण कराया। अनुभवी कलाकारों ने निष्प्राण पत्थरांे में प्राण फूंक दिए हंै तथा उसमें कलाकार के हृदय की झलक स्पष्ट रूप से अभिव्यक्त होती ह।ै यहां की न जाने कितनी ऐतिहासिक मूर्तियां विदेशो के ब़डे- बड़े संग्रहालयों मे पहॅुचकर भारतीय शिल्प एंव स्थापत्य कला का परिचय दे रही हैं। इसमें संदेह नहीं है कि बुंदेल भूमि के प्रसिद्ध ये संास्कृतिक स्थल आज भी किसी न किसी रूप में अतीत की स्मृतियां सजोये हुए है। उनमें से अधिकांश अभी तक विख्यात नही हो पाए हैं। एवं खण्डहर खण्डित और जीर्ण शीर्षण अवस्था में है।ं जबकि कुछ सुरक्षा और संरक्षण के विभिन्न स्तरों पर भी है। आज सामूहिक रूप से इनका महत्व भले ही न हो लेकिन ऐतिहासिक और संास्कृतिक परिप्रेक्ष्य में इनका महत्व कभी कम नहीं हो सकता ।सांस्कृतिक धरोहर जो विरासत में प्राप्त हुई है सुरक्षा एंव सरंक्षण की ओर भी आशान्वित हैं। केन्द्र तथा राज्य शासन इस दिशा में निरंतर प्रयत्नशील हैं।
डा. नर्बदा प्रसाद पाण्डे |