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भीटा इलाहाबाद


भीटा इलाहाबाद

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भीटा, इलाहाबाद
Bhita, Allahabad

प्रयाग से लगभग बारह मील दक्षिण-पश्चिम की ओर यमुना के तट पर कई विस्तृत खण्डहर हैं, जो एक प्राचीन समृद्धशाली नगर के अवशेष हैं। इन खण्डहरों से प्राप्त अभिलेखों में इस स्थान का प्राचीन नाम सहजाति है। भीटा, सहजाति इलाहाबाद से दस मील पर स्थित है।

उत्खनन

19091910 में भीटा में भारतीय पुरातत्त्व विभाग की ओर से मार्शल ने उत्खनन किया था। विभाग के प्रतिवेदन में कहा गया है कि खुदाई में एक सुन्दर, मिट्टी का बना हुआ वर्तुल पट्ट प्राप्त हुआ था, जिस पर सम्भवतः शकुन्तलादुष्यन्त की आख्यायिका का एक दृश्य अंकित है। इसमें दुष्यन्त और उनका सारथी कण्व के आश्रम में प्रवेश करते हुए प्रदर्शित हैं और आश्रमवासी उनसे आश्रम के हिरण को न मारने के लिए प्रार्थना कर रहा है। पास ही एक कुटी भी है, जिसके सामने एक कन्या आश्रम के वृक्षों को सींच रही है। यह मृत्खंड शुगकालीन है[1] और इस पर अंकित चित्र यदि वास्तव में दुष्यन्त व शकुन्तला की कथा [2] से सम्बन्धित हैं, तो महाकवि कालिदास का समय इस तथ्य के आधार पर, गुप्तकाल [3] के बजाए पहली या दूसरी शती से भी काफ़ी पूर्व मानना होगा। किन्तु पुरातत्त्व विभाग के प्रतिवेदन में इस दृश्य की समानता कालिदास द्वारा वर्णित दृश्य से आवश्यक नहीं मानी गई है।

भीटा से, खुदाई में मौर्यकालीन विशाल ईंटें, परवर्तिकाल की मूर्तियाँ, मिट्टी की मुद्राएँ तथा अनेक अभिलेख प्राप्त हुए हैं। जिनसे सिद्ध होता है कि मौर्यकाल से लेकर गुप्त काल तक यह नगर काफ़ी समृद्धशाली था। यहाँ से प्राप्त सामग्री लखनऊ के संग्रहालय में है। भीटा के समीप ही मानकुँवर ग्राम से एक सुन्दर बुद्ध प्रतिमा मिली थी, जिस पर महाराजाधिराज कुमारगुप्त के समय का एक अभिलेख उत्कीर्ण है. [4]

व्यापारिक नगर

सहजाति या भीटा, गुप्त और शुंग काल के पूर्व एक व्यस्त व्यापारिक नगर के रूप में भी प्रख्यात था क्योंकि एक मिट्टी की मुद्रा पर सहजातिये निगमस यह पाली शब्द तीसरी शती ई. पू. की ब्राह्मीलिपि में अंकित पाए गए हैं। इससे प्रमाणित होता है कि इतने प्राचीन काल में भी यह स्थान व्यापारियों के निगम या व्यापारिक संगठन का केन्द्र था। वास्तव में यह नगर मौर्यकाल में भी काफ़ी समुन्नत रहा होगा, जैसा कि उस समय के अवशेषों से सूचित होता है।

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देवगढ़, उत्तर प्रदेश


देवगढ़, उत्तर प्रदेश

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Disamb2.jpg देवगढ़ एक बहुविकल्पी शब्द है अन्य अर्थों के लिए देखें:- देवगढ़

दशावतार मन्दिर, देवगढ़

देवगढ़ उत्तर प्रदेश राज्य के ललितपुर ज़िले से लगभग 37 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यह मध्य रेलवे के जाखलौन से 9 मील (लगभग 14.4 कि.मी.) की दूरी पर पड़ता है। यहाँ के प्राचीन स्मारक बहुत ही उल्लेखनीय हैं। देवगढ़ में दशावतार विष्णु भगवान का मध्ययुगीन मन्दिर है, जो स्थापत्य कला की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है।

इतिहास

देवगढ़ का इतिहास में बहुत ही ख़ास स्थान रहा है। यह ऐतिहासिक दृष्टि से भी बहुत महत्त्वपूर्ण है। इसके अन्य दर्शनीय स्थलों में मुख्य हैं- सैपुरा ग्राम से 3 मील (लगभग 4.8 कि.मी.) पश्चिम की ओर पहाड़ी पर एक चतुष्कोण कोट, नीचे मैदान में एक भव्य विष्णु का मंदिर, यहाँ से एक फलांग पर वराह मंदिर, पास ही एक विशाल दुर्ग के खंडहर, इसके पश्चात दो और दुर्गों के भग्नावशेष, एक दुर्ग के विशाल घेरे में 31 जैन मंदिरों और अनेक भवनों के खंडहर।

दशावतार विष्णु मंदिर

देवगढ़ में सब मिला कर 300 के लगभग अभिलेख मिले हैं, जो 8वीं शती से लेकर 18वीं शती तक के हैं। इनमें ऋषभदेव की पुत्री ब्राह्मी द्वारा अंकित अठारह लिपियों का अभिलेख तो अद्वितीय ही है। चंदेल नरेशों के अभिलेख भी महत्त्वपूर्ण हैं। देवगढ़ बेतवा नदी के तट पर स्थित है। तट के निकट पहाड़ी पर 24 मंदिरों के अवशेष हैं, जो 7वीं शती ई. से 12वीं शती ई. तक बने थे। देवगढ़ का शायद सर्वोत्कृष्ट स्मारक ‘दशावतार का विष्णु मंदिर’ है, जो अपनी रमणीय कला के लिए भारत भर के उच्च कोटि के मंदिरों में गिना जाता है। इसका समय छठी शती ई. माना जाता है, जब गुप्त वास्तु कला अपने पूर्ण विकास पर थी। मंदिर का समय भग्नप्राय अवस्था में है, किन्तु यह निश्चित है कि प्रारम्भ में इसमें अन्य गुप्त कालीन देवालयों की भांति ही गर्भगृह के चतुर्दिक पटा हुआ प्रदक्षिणा पथ रहा होगा। इस मंदिर के एक के बजाए चार प्रवेश द्वार थे और उन सबके सामने छोटे-छोटे मंडप तथा सीढ़ियां थीं। चारों कोनों में चार छोटे मंदिर थे। इनके शिखर आमलकों से अलंकृत थे, क्योंकि खंडहरों से अनेक आमलक प्राप्त हुए हैं। प्रत्येक सीढ़ियों की पंक्ति के पास एक गोखा था। मुख्य मंदिर के चतुर्दिक कई छोटे मंदिर थे, जिनकी कुर्सियाँ मुख्य मंदिर की कुर्सी से नीची हैं। ये मुख्य मंदिर के बाद में बने थे। इनमें से एक पर पुष्पावलियों तथा अधोशीर्ष स्तूप का अलंकरण अंकित है। यह अलंकरण देवगढ़ की पहाड़ी की चोटी पर स्थित मध्ययुगीन जैन मंदिरों में भी प्रचुरता से प्रयुक्त है।

गुप्त वास्तुकला का प्रभाव

दशावतार मंदिर में गुप्त वास्तु कला के प्रारूपिक उदाहरण मिलते हैं, जैसे, विशाल स्तम्भ, जिनके दंड पर अर्ध अथवा तीन चौथाई भाग में अलंकृत गोल पट्टक बने हैं। ऐसे एक स्तम्भ पर छठी शती के अंतिम भाग की गुप्त लिपि में एक अभिलेख पाया गया है, जिससे उपर्युक्त अलंकरण का गुप्त कालीन होना सिद्ध होता है। इस मंदिर की वास्तु कला की दूसरी विशेषता चैत्य वातायनों के घेरों में कई प्रकार के उत्कीर्ण चित्र हैं। इन चित्रों में प्रवेश द्वार या मूर्ति रखने के अवकाश भी प्रदर्शित हैं। इनके अतिरिक्त सारनाथ की मूर्तिकला का विशिष्ट अभिप्राय स्वस्तिकाकार शीर्ष सहित स्तम्भयुग्म भी इस मंदिर के चैत्यवातायनों के घेरों में उत्कीर्ण है। दशावतार मंदिर का शिखर ऐतिहासिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण संरचना है। पूर्व गुप्त कालीन मंदिरों में शिखरों का अभाव है।

देवगढ़ के मंदिर का शिखर भी अधिक ऊँचा नहीं है, वरन् इसमें क्रमिक घुमाव बनाए गए हैं। इस समय शिखर के निचले भाग की गोलाई ही शेष है, किन्तु इससे पूर्ण शिखर का आभास मिल जाता है। शिखर के आधार के चारों ओर प्रदक्षिणा पथ की सपाट छत थी, जिसके किनारे पर बड़ी व छोटी दैत्य खिड़कियाँ थीं, जैसा कि महाबलीपुरम के रथों के किनारों पर हैं। द्वार मंडप दो विशाल स्तम्भों पर आधृत था। प्रवेश द्वार पर पत्थर की चौखट है, जिस पर अनेक देवताओं तथा गंगा और यमुना की मूर्तियाँ उत्कीर्ण हैं। मंदिर की बहिर्भित्तियों के अनेक विशाल पट्टों पर गजेन्द्रमोक्ष, शेषशायी विष्णु आदि के कलात्मक मूर्ति चित्र अंकित हैं। मंदिर की कुर्सी के चारों ओर भी गुप्त कालीन मूर्तिकारी का वैभव अवलोकनीय है। रामायण और कुष्ण लीला से संबंधित दृश्यों का चित्रण बहुत ही कलापूर्ण शैली में प्रदर्शित है।

अन्य स्थल

देवगढ़ के अन्य मंदिरों में गोमटेश्वर, भरत, चक्रेश्वरी, पद्मावती, ज्वालाभालिनी, श्री, ह्री, तथा पंच परमेष्ठी आदि जैन तथा तांत्रिक मूर्तियों का सुंदर प्रदर्शन है। दूसरे दुर्ग से पहाड़ी में नदी तक काटकर बनाई हुई सीढ़ियों द्वारा नाहरघाटी व राजघाटी तक पहुँचा जा सकता है। मार्ग में पांच पांडवों की मूर्तियां, जिन प्रतिमाएं, शैलकृत सिद्ध गुहा तथा गुप्त कालीन अभिलेख मिलते हैं।

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कान्यकुब्ज


कान्यकुब्ज

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गौरी शंकर मंदिर, कन्नौज

कान्यकुब्ज उत्तर प्रदेश के प्रमुख नगरों में से एक कन्नौज का प्राचीन नाम है। यह उत्तर प्रदेश राज्य का प्रमुख मुख्यालय एवं नगरपालिका है। कान्यकुब्ज कभी हिन्दू साम्राज्य की राजधानी के रूप में प्रतिष्ठित रहा था। माना जाता है कि कान्यकुब्ज ब्राह्मण मूल रूप से इसी स्थान के रहने वाले हैं। सम्राट हर्षवर्धन के शासन काल में कान्यकुब्ज अपने चरमोत्कर्ष पर पहुँच गया था। वर्तमान कन्नौज शहर अपने ‘इत्र’ व्यवसाय के अलावा तंबाकू के व्यापार के लिए भी मशहूर है। यहाँ मुख्य रूप से कन्नौजी बोली, कनउजी भाषा के रूप में इस्तेमाल की जाती है।

साहित्यिक उल्लेख

साहित्य में कान्यकुब्ज के निम्न नाम उपलब्ध हैं-

  1. ‘कन्यापुर’ (वराहपुराण)
  2. ‘महोदय’
  3. ‘कुशिक’
  4. ‘कोश’
  5. गाधिपुर
  6. कुसुमपुर‘ (युवानच्वांग)
  7. ‘कण्णकुज्ज’ (पाली)

कान्यकुब्ज की गणना भारत के प्राचीनतम ख्याति प्राप्त नगरों में की जाती है। वाल्मीकि रामायण के अनुसार इस नगर का नामकरण कुशनाभ की कुब्जा कन्याओं के नाम पर हुआ था। पुराणों में कथा है कि पुरुरवा के कनिष्ठ पुत्र अमावसु ने कान्यकुब्ज राज्य की स्थापना की थी। कुशनाभ इन्हीं का वंशज था। कान्यकुब्ज का पहला नाम ‘महोदय’ बताया गया है। महोदय का उल्लेख विष्णुधर्मोत्तर पुराण में भी है-

‘पंचालाख्योस्ति विषयो मध्यदेशेमहोदयपुरं तत्र’[1]

महाभारत में कान्यकुब्ज का विश्वामित्र के पिता राजा गाधि की राजधानी के रूप में उल्लेख है। उस समय कान्यकुब्ज की स्थिति दक्षिण पंचाल में रही होगी, किन्तु उसका अधिक महत्व नहीं था, क्योंकि दक्षिण-पंचाल की राजधानी कांपिल्य में थी।

‘कन्यातीर्थेऽश्वतीर्थे च गवांतीर्थे च भारत, कालकोट्यां वृषपृस्थे गिरावुष्य च पांडवा:।’[2]

इतिहास

दूसरी शती ई. पू. में कान्यकुब्ज का उल्लेख पंतजलि ने महाभाष्य में किया है। प्राचीन ग्रीक लेखकों की भी इस नगर के विषय में जानकारी थी। चंद्रगुप्त मौर्य और अशोक के शासन काल में यह नगर मौर्य साम्राज्य का अंग ज़रूर ही रहा होगा। इसके पश्चात् शुंग और कुषाण और गुप्त नरेशों का क्रमशः कान्यकुब्ज पर अधिकार रहा। 140 ई. के लगभग लिखे हुए टाल्मी के भूगोल में कन्नौज को कनगौर या कनोगिया लिखा गया है। 405 ई. में चीनी यात्री फाह्यान कन्नौज आया था और उसने यहाँ पर केवल दो हीनयान विहार और एक स्तूप देखा था, जिससे सूचित होता है कि 5वीं शती ई. तक यह नगर अधिक महत्त्वपूर्ण नहीं था। कान्यकुब्ज के विशेष ऐश्वर्य का युग 7वीं शती से प्रारम्भ हुआ, जब महाराजा हर्षवर्धन ने इसको अपनी राजधानी बनाया। इससे पहले यहाँ मौखरि वंश की राजधानी थी। इस समय कान्यकुब्ज को ‘कुशस्थल‘ भी कहते थे। हर्षचरित के अनुसार हर्ष के भाई राज्यवर्धन की मृत्यु के पश्चात् गुप्त नामक व्यक्ति ने कुशस्थल को छीन लिया था, जिसके परिणामस्वरूप हर्ष की बहिन राज्यश्री को विन्ध्याचल पर्वतमाला की ओर चला जाना पड़ा था। कुशस्थल में राज्यश्री के पति गृहवर्मा मौखरि की राजधानी थी।

युवानच्वांग का वर्णन

चीनी यात्री युवानच्वांग के अनुसार कान्यकुब्ज प्रदेश की परिधि 400 ली या 670 मील थी। वास्तव में हर्षवर्धन (606-647 ई.) के समय में कान्यकुब्ज की अभूतपूर्व उन्नति हुई थी और उस समय शायद यह भारत का सबसे बड़ा एवं समृद्धशाली नगर था। युवानच्वांग लिखता है कि नगर के पश्चिमोत्तर में अशोक का बनवाया हुआ एक स्तूप था, जहाँ पर पूर्वकथा के अनुसार गौतम बुद्ध ने सात दिन ठहकर प्रवचन किया था। इस विशाल स्तूप के पास ही अन्य छोटे स्तूप भी थे, और एक विहार में बुद्ध का दाँत भी सुरक्षित था, जिसके दर्शन के लिए सैकड़ों यात्री आते थे।

चीनी यात्री ह्वेनसांग

युवानच्वांग ने नगर के दक्षिणपूर्व में अशोक द्वारा निर्मित एक अन्य स्तूप का भी वर्णन किया है जो कि दो सौ फुट ऊँचा था। किंवदन्ती है कि गौतम बुद्ध इस स्थान पर छः मास तक ठहरे थे।युवानच्वांग ने कान्यकुब्ज के सौ बौद्ध विहारों और दो सौ देव-मन्दिरों का उल्लेख किया है। वह लिखता है कि ‘नगर लगभग पाँच मील लम्बा और डेढ़ मील चौड़ा है और चतुर्दिक सुरक्षित है। नगर के सौंन्दर्य और उसकी सम्पन्नता का अनुमान उसके विशाल प्रासादों, रमणीय उद्यानों, स्वच्छ जल से पूर्ण तड़ागों और सुदूर देशों से प्राप्त वस्तुओं से सजे हुए संग्रहालयों से किया जा सकता है’। उसके निवासियों की भद्र वेशभूषा, उनके सुन्दर रेशमी वस्त्र, उनका विद्या प्रेम तथा शास्त्रानुराग और कुलीन तथा धनवान कुटुम्बों की अपार संख्या, ये सभी बातें कन्नौज को तत्कालीन नगरों की रानी सिद्ध करने के लिए पर्याप्त थीं। युवानच्वांग ने नगर के देवालयों में महेश्वर शिव और सूर्य के मन्दिरों का भी ज़िक्र किया है। ये दोनों क़ीमती नीले पत्थर के बने थे और उनमें अनेक सुन्दर मूर्तियाँ उत्खनित थीं। युवानच्वांग के अनुसार कन्नौज के देवालय, बौद्ध विहारों के समान ही भव्य और विशाल थे। प्रत्येक देवालय में एक सहस्र व्यक्ति पूजा के लिए नियुक्त थे और मन्दिर दिन-रात नगाड़ों तथा संगीत के घोष से गूँजते रहते थे। युवानच्वांग ने कान्यकुब्ज के भद्रविहार नामक बौद्ध महाविद्यालय का भी उल्लेख किया है, जहाँ पर वह 635 ई. में तीन मास तक रहा था। यहीं रहकर उसने आर्य वीरसेन से बौद्ध ग्रंथों का अध्ययन किया था।

अपने उत्कर्ष काल में कान्यकुब्ज जनपद की सीमाएँ कितनी विस्तृत थीं, इसका अनुमान स्कन्दपुराण से और प्रबंधचिंतामणि के उस उल्लेख से होता है जिसमें इस प्रदेश के अंतर्गत छत्तीस लाख गाँव बताए गए हैं। शायद इसी काल में कान्यकुब्ज के कुलीन ब्राह्मणों की कई जातियाँ बंगाल में जाकर बसी थीं। आज के संभ्रांत बंगाली इन्हीं जातियों के वंशज बताए जाते हैं।

यशोवर्मन का अधिकार

हर्षवर्धन के पश्चात कन्नौज का राज्य तत्कालीन अव्यवस्था के कारण छिन्न-भिन्न हो गया। आठवीं शती में यशोवर्मन कन्नौज का प्रतापी राजा हुआ। गौड़वहो नामक काव्य के अनुसार उसने मगध के गौड़ राजा को पराजित किया। कल्हण के अनुसार कश्मीर के प्रसिद्ध नरेश ललितादित्य मुक्तापीड़ ने यशोवर्मन के राज्य का मूलोच्छेद कर दिया (‘समूलमुत्पाटयत्’) और कान्यकुब्ज को जीतकर उसे ललितपुर (=लाटपौर) के सूर्यमन्दिर को अर्पित कर दिया। कल्हण लिखता है कि ललितादित्य का कान्यकुब्ज प्रदेश पर उसी प्रकार अधिकार था जैसे अपने राजप्रासाद के प्रांगण पर। राजतरंगिणी में, इस समय के कान्यकुब्ज के जनपद का विस्तार यमुना तट में कालिका नदी (=काली नदी) तक कहा गया है। यशोवर्मन के पश्चात् उसके कई वंशजों के नाम हमें जैन ग्रंथों तथा अन्य सूत्रों से ज्ञात होते हैं—इनमें वज्रायुध, इंद्रायुध और चक्रायुध नामक राजाओं ने यहाँ पर राज्य किया था। वज्रायुध का नाम केवल राजशेखर की कर्पूरमंजरी में है। जैन हरिवंश के अनुसार 783-784 ई. में इंद्रायुध कान्यकुब्ज में राज्य कर रहा था। कल्हण ने कश्मीर नरेश जयापीड विनयादित्य (राज्यकाल, 779-810 ई.) द्वारा कन्नौज पर आक्रमण का उल्लेख किया है।

गुर्जर प्रतिहारों का राज्य

इसके पश्चात ही राष्ट्रकूट वंश के ध्रुव ने भी कन्नौज के इस राजा को पराजित किया। इन निरन्तर आक्रमणों से कन्नौज का राज्य नष्ट-भ्रष्ट हो गया। राष्ट्रकूटों की शक्ति क्षीण होने पर राजपूताना मालवा प्रदेश केप्रतिहार शासक नागभट्ट द्वितीय ने चक्रायुध को हराकर कन्नौज पर अधिकार कर लिया। इस वंश में मिहिरभोज, महेन्द्र पाल और महिपाल प्रसिद्ध राजा हुए। इनके समय में कन्नौज के फिर से एक बार दिन फिरे। प्रतिहारकाल में कन्नौज हिन्दू धर्म का प्रमुख केन्द्र था। 8वीं शती से 10वीं शती तक हिन्दू देवताओं के अनेक कलापूर्ण मन्दिर बने, जिनके सैकड़ों अवशेष आज भी कन्नौज के आसपास विद्यमान हैं। इन मन्दिरों मेंविष्णु, शिव, सूर्य, गणेश, दुर्गा और महिषमर्दिनी की मूर्तियाँ हैं। कुछ समय पूर्व शिव-पार्वती परिणय की एक सुन्दर विशाल मूर्ति यहाँ से प्राप्त हुई थी, जो कि 8वीं शती की है।

मुस्लिमों का आक्रमण

बौद्ध धर्म का इस समय पूर्णतः ह्रास हो गया था। प्रतिहार वंश की अवनति के साथ ही साथ कन्नौज का गौरव भी लुप्त होने लगा। 10वीं शती के अन्त में राज्यपाल कन्नौज का शासक था। यह भी उस महासंघ का सदस्य था, जिसने सम्मिलित रूप से महमूद ग़ज़नवी से पेशावर और लमगान के युद्धों में लोहा लिया था। 1018 ई. में महमूद ने कन्नौज पर ही हमला कर दिया। मुसलमान नगर का वैभव देख कर चकित रह गए। अलउतबी के अनुसार राज्यपाल को किसी पड़ोसी राज्य से सहायता न प्राप्त हो सकी। उसके पास सेना थोड़ी-सी ही थी और इसी कारण वह नगर छोड़कर गंगा पार बारी की ओर चला गया। मुसलमान सैनिकों ने नगर को लूटा, मन्दिरों को ध्वस्त किया और अनेक निर्दोष लोगों का संहार किया। अलबेरूनी लिखता है कि इस आक्रमण के पश्चात् यह विशाल नगर बिल्कुल उजड़ गया। 1019 ई. में महमूद ने दुबारा कन्नौज पर आक्रमण किया औरत्रिलोचनपाल से लड़ाई ठानी। त्रिलोचनपाल 1027 ई. तक जीवित था। इस वर्ष का उसका एक दानपत्र प्रयाग के निकट पाया गया है। इसके पश्चात प्रतिहारों का कन्नौज पर शासन समाप्त हो गया।

जयचंद की पराजय

1085 ई. में फिर एक बार कन्नौज पर चंद्रदेव गहड़वाल ने सुव्यवस्थित शासन स्थापित किया। उसके समय के अभिलेखों में उसे कुशिक (कन्नौज), काशी, उत्तर कोसल और इंद्रस्थान या इंद्रप्रस्थ का शासक कहा गया है। इस वंश का सबसे प्रतापी राजा गोविन्द चंद्र हुआ। उसने मुसलमानों के आक्रमणों को विफल किया जैसा कि उसके प्रशस्तिकारों ने लिखा है, ‘हम्मीरं (=अमीर) न्यस्तवैरं मुहुरसमरणक्रीडया यो विधते’। गोविन्द चंद्र बड़ा दानी तथा विद्याप्रेमी था। उसकी रानी कुमारदेवी बौद्ध थी और उसने सारनाथ में धर्मचक्रजिनविहार बनवाया था। गोविन्द चंद्र का पुत्र विजय चंद्र था। उसने भी मुसलमानों के आक्रमण से मध्यदेश की रक्षा की जैसा की उसकी प्रशस्ति से सूचित होता है, ‘भुवनदलहेलाहर्म्य हम्मीर (=अमीर) नारीनयनजलदधारा धौत भूकोकतापः’। विजयचंद्र का पुत्र जयचंद्र (जयचंद) 1170 ई. के लगभग कन्नौज की गद्दी पर बैठा। पृथ्वीराज रासो के अनुसार उसकी पुत्री संयोगिता का पृथ्वीराज चौहान ने हरण किया था। जयचंद का मुहम्मद ग़ोरी के साथ 1163 में, इटावा के निकट घोर युद्ध हुआ, जिसके पश्चात कन्नौज से गहड़वाल सत्ता समाप्त हो गई। जयचंद ने इस युद्ध के पहले कई बार मुहम्मद ग़ौरी को बुरी तरह से हराया था, जैसा कि पुरुषपरीक्षा के, ‘वारंवारं यवनेश्वरः पराजयी पलायते’ और रंभामंजरीनाटक के ‘निखिल यवन क्षयकरः’ उल्लेखों से सूचित होता है। यह स्वाभाविक ही है कि मुसलमान इतिहास लेखकों ने ग़ौरी की पराजयों का वर्णन नहीं किया है, किन्तु उन्होंने जयचंद की उत्तरभारत के तत्कालीन श्रेष्ठ शासकों में गणना की है।

अंग्रेज़ों का अधिकार

गहड़वालों की अवनति के पश्चात कन्नौज पर मुसलमानों का आधिपत्य स्थापित हो गया, किन्तु इस प्रदेश में शासकों को निरन्तर विद्रोहों का सामना करना पड़ा। 1540 ई. में कन्नौज शेरशाह के हाथ में आ गया। उस समय यहाँ का हाक़िम बैरक नियाजी था, जिसके कठोर शासन के विषय में प्रसिद्ध था कि उसके लोगों के पास हल के अतिरिक्त लोहे की कोई दूसरी वस्तु नहीं छोड़ी थी। अकबर के समय कन्नौज नगर आगरा के सूबे में आता था और इसे एक सरकार बना दिया गया था, जिसमें 30 महाल थे। जहाँगीर के समय में कन्नौज को रहीम को जागीर के रूप में दिया गया था। 18वीं शती में कन्नौज में बंगश नवाबों का अधिकार रहा, किन्तु अवध के नवाब और रुहेलों से उनकी सदा लड़ाई होती रही, जिसके कारण कन्नौज में बराबर अव्यवस्था बना रही। 1775 ई. में यह प्रदेश ईस्ट इण्डिया कम्पनी के अधिकार में चला गया। 1857 ई. के स्वतंत्रता युद्ध में बंगश-नवाबतफ़ज्जुल हुसैन ने यहाँ स्वतंत्रता की घोषणा की, किन्तु शीघ्र ही अंग्रेज़ों का यहाँ पुनः अधिकार हो गया। इस समय कन्नौज अपने आँचल में सैंकड़ों वर्षों का इतिहास समेटे हुए और कई बार उत्तरी भारत के विशाल राज्यों की राजधानी बनने की गौरवपूर्ण स्मृतियों को अपने अंतस् में संजोए एक छोटा-सा कस्बा मात्र है।

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कटरा गुलाब सिंह


कटरा गुलाब सिंह

बाबा भयहरणनाथ धाम, कटरा गुलाब सिंह

कटरा गुलाब सिंह उत्तर प्रदेश प्रांत के प्रतापगढ़ ज़िले के सदर तहसील अंतर्गत एक ग्रामीण कस्बा है, जो बकुलाही नदी के किनारे बसा है। प्रतापगढ़ ज़िला मुख्यालय से 30 किलोमीटर तथा राजधानी लखनऊ से 160 किलोमीटर दूरी पर जनपद मुख्यालय के दक्षिणांचल व इलाहाबाद (प्रयाग) ज़िले के उत्तरांचल मे जनपदीय सीमा पर स्थित है। ऐतिहासिक व पुरातात्विक दृष्टि से यह स्थान काफ़ी संपन्न माना जाता है। प्रदेश का सुविख्यात महाभारतकालीन पौराणिक तीर्थ बाबा भयहरणनाथ धाम, कटरा गुलाब सिंह बाज़ार के पूर्व दिशा मे उत्तरमुखी बालकुनी तट पर अवस्थित है।

बौद्धकालीनपांडवकालीन इतिहास को सँजोए यहाँ का प्राचीन सूर्य मंदीर ग्राम सभा कटरा गुलाब सिहं से 2 किलोमीटर की दूरी पर बाबा धाम के निकट गौरा गाँव मे विद्यमान है।

नामकरण

बाबा भयहरणनाथ धाम ,कटरा गुलाब सिंह

प्रतापगढ़ ज़िले का यह कस्बे को तारागढ़ के तालुकेदार व स्वतंत्रता सेनानी अमर शहीद बाबू गुलाब सिंह द्वारा बसाया गया था। उन्हीं के नाम पर इस स्थान का नाम कटरा गुलाब सिंह अथवा गुलाब सिंह कटरा पड़ा।

इतिहास

ऐतिहासिक व पौराणिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण कटरा गुलाब सिंह सन् 1857 के महान शहीद बाबू गुलाब सिंह व शहीद बाबू मेंदनी सिंह की कर्मस्थली रह चुकी है। कानपुर के नाना साहब पेशवा के व्यक्तित्व से प्रभावित होकर तालुकेदार बाबू गूलाब सिंह ने अवध क्षेत्र प्रतापगढ़ मे क्रांति का बिगुल बजाया और उनके साथ उनके भाई बाबू मेंदनी सिंह ने उनका पूर्ण सहयोग दिया।

1857 की क्रांति मे अंग्रेजो से लड़ते लड़ते भारत माँ के वीर सपूत क्रांतिकारी बाबू गुलाब सिंह और बाबू मेंदनी सिंह वीरगति को प्राप्त हुए। इस शहादत के बाद सन 1858 मे प्रतापगढ़ रियासत उत्तर प्रदेशके एक नए ज़िले के रूप मे अस्तित्व मे आया, लगभग इसी दरम्यान शहीद बाबू गुलाब सिंह के याद में श्रद्धाजंली स्वरूप अधिकारिक तौर पर इस क्षेत्र को कटरा गुलाब सिंह ग्राम घोषित किया गया।

पौराणिक महत्व

प्राप्त भग्नावशेष

यह कस्बा वाल्मीकि रामायण मे वर्णित पतित पावनी नदी बालकुनी (बकुलाही) के किनारे बसा हुआ है। यहाँ पर पांडवकालीन भयहरणनाथ धाम की उत्पत्ति है। मान्यताओ के अनुसार अज्ञातवास के दौरान पांडव ने इस क्षेत्र मे निवास किये थे। बकुलाही तीरे पूजन पाठ कर शिवलिंग की स्थापना की थी। इस क्षेत्र मे प्राप्त पुरावशेष यहाँ की अमर इतिहास की गाथा बयाँ करती है।

पुरातात्विक महत्त्व

पांडवकालीन भयहरणनाथ धाम तथा कटरा गुलाब सिंह के निकटवर्ती क्षेत्रों के उत्खनन से प्राप्त पुरावशेष महाभारत कालीन व बौद्ध संस्कृति के प्रतीत होते है। प्राप्त भग्नावशेषों को पंजीकृत कर इलाहाबाद संग्राहालय मे संरक्षित रखा है। इस क्षेत्र के दो तीन कि.मी. परिधि मे कम से कम आधे दर्जन से अधिक पुरातात्विक महत्व के स्थान है।

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गुप्तकालीन मन्दिर, भीतरगाँव


भीतरगाँव कानपुर

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गुप्तकालीन मन्दिर, भीतरगाँव

भीतरगाँव, कानपुर से लगभग 20 मील दूर स्थित है। इस स्थान पर ईंटों के बने हुए एक गुप्तकालीन मन्दिर के अवशेष हैं।

गुप्तकालीन मन्दिर

यह मन्दिर कनिंघम के अनुसार[1] सातवीं-आठवीं शती ई. का है, किन्तु वोगल ने प्रमाणित किया है कि यह इससे कम से कम तीन सौ वर्ष अधिक प्राचीन है [2] सम्भवतः यहभारत का प्राचीनतम मन्दिर है। यह पक्की ईंटों का बना हुआ है। इसका विवरण इस प्रकार से है।

विवरण

एक वर्गाकार स्थान पर यह मन्दिर बना हुआ है। वर्ग के कोने, एक छोड़कर एक, इस प्रकार से बने हैं और मध्य में 15 वर्ग फुट वर्ग का एक गर्भगृह तथा उसके साथ एक 7 फुट वर्ग का मण्डप है। दोनों के बीच एक मार्ग है। गर्भगृह के ऊपर एक वेश्म है जिसका क्षेत्र नीचे के कक्ष से लगभग आधा है। 1850 ई. में ऊपरी भाग की छत बिजली गिरने से नष्ट हो गई थी। स्थूल दीवारों के बाह्य भाग पर आयताकार घेरों में सुन्दर मूर्तिकारी अंकन है। ये मूर्तियाँ पकी हुई मिट्टी की बनी हैं। मन्दिर में अनेक सुन्दर अलंकरणों का प्रदर्शन किया गया है। कसिया के निर्वाण मन्दिर की कुर्सी के पूर्वी भाग पर भी इसी प्रकार का अलंकरण है। जिससे इन दोनों संरचनाओं की समकालीनता सूचित होती है। श्रीराखालदास बनर्जी के मत में इस मन्दिर के शिखर में महराबों की पंक्तियाँ बनी हुई हैं। जो चैत्यवातायनों से भिन्न है। मन्दिर की कुर्सी के ऊपर उभरी हुई पट्टियाँ नहीं हैं, जिससे नचना-कुठारा तथा भुमरा के मन्दिरों की वास्तुकला से भीतरगाँव की कला भिन्न जान पड़ती है। मन्दिर का शिखर वास्तविक शिखर है तथा 40 फुट के क़रीब ऊँचा है। भीतरगाँव का मन्दिर, गुप्त वास्तुकला का अनुपम उदाहरण माना जाता है।

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बुन्देलखंड


बुन्देलखंड का सांस्कृतिक मानचित्र
संस्कृति जनजीवन का दर्पण है। जिस प्रकार वह उसके बौद्धिक विकास तथा भौतिक उन्नयन का दृश्य अभिलेखित करती है, उसी प्रकार वह उसकी आध्यात्मिक चेतना का प्रतीक भी है। बुन्देखण्ड कला, धर्म तथा पुरातात्विक परंपराओं से भरपूर अंचल रहा है। प्राय: समूचे प्रदेश मे मंदिर, महल, किले तथा छतरियों के माध्यम से प्राचीन संस्कृति तथा कला के दर्शन होते हंै। वास्तव में मंदिर की हमारी सम्यता और संस्कृति के संक्षिप्त स्वरूप हैं। वे प्रतीकवाद में ढाले हुये सदियों पुरानी पौराणिकता और कल्पना शीलता को चित्रित करते हंै। इस अंचल में केवल इतिहास के अभ्युदय काल के कुछ अमूल्य स्मारक ही नही हंै वरन कुछ प्रागैतिहासिक काल के अवशेष भी हैंे जिनमें प्रौढ किन्तु बलपूर्ण ढंग से मानव के आत्मव्यक्तिकरण के प्रारभिक प्रयास अब भी सुरक्षित हं।ै शिलाओं ईटों और पत्थरों के रूप में वे भारतीय इतिहास तथा सांस्कृतिक चरणों के उस काल के महत्वपूर्ण प्रमाण है। उनमें से अधिकंश अभी तक विख्यात नही हंै और दुरूह क्षेत्रों में है। स्व. घासीराम जी व्यास केशब्दो मे….ं

चित्रकूट, औरछौ, कांलिजर, उन्नाव तीर्थ,!
पन्ना, खजुराहो जहॅा कीर्ति झुकि झूठी है!!
जमुन,पहुज सिन्धु, बेतवा, धसान, केन!
मन्दाकिनी, पर्यास्वेनी, प्रेमपाय धूमी है!!
पंचम नृसिंह राव चंपतरा छत्रसाल,!
लाला हरदौल भाव-भाव चित चूमी है!!
अमर अनन्दनीय असुर निकन्दनीय!
वन्दनीय विश्व में बुन्देखण्ड भूमि है!!।

प्रागैतिहासिक काल के अनेक अवशेष बुन्देलखण्ड में कई जगह बिखरे हुए हैं। गिजवा की पहाड़ी की एक गुफा में गैरिक रंग से रंगे हुए भित्ति चित्र, जिसमें शिकारी और हिरन के छाया चित्र उभरे हुए है,ं बडे ही महत्वपूर्ण है। सिलहरा की गुफाओ में भी इसी प्रकार के चित्र पाए गए हंै। मांडा की गुफाये रामा मणकालीन इतिहास की साक्षी है। गृद्धकूट का प्राचीन स्थान आज भी  महत्वपूर्ण हैं। विजावर (छतरपुर जिला) के निकट देवरा के आसपास शिला मित्तियों पर की गई चित्रकारी मानव-प्रकतिप्राचीनतम अनुभूतियॉ हैं।इस प्रकार की चित्रकारियों की परिगणना ऐतिहासिकों के मतानुसार उत्तर पाषाण युग में की जाती है।ं इस अंचल के कुछ प्राय: अवशेष धुवेला संग्रहालय में देखेंे जा सकते हंै। एरन (सागर जिला) के उत्खनन से भी इस क्षेत्र की विशाल संास्कृतिक धरोहर का अनुमान लगाया जा सकता है। दतिया नगर के पास गुजर्रा गांव से प्राप्त ऐतिहासिक महत्व के एक अस्तीकालीन शिलालेख जो ईसा पूर्व 258 का मोर्य सम्राट अशोक भी माना जाता हैं। सिद्ध करता है कि वर्तमान गुजर्रा गांव मोर्यकाल के एक समृद्धशील प्रशासिनिक केन्द्र के आसपास था।

सम्पूर्ण ऐतिहा​िंसक एवं सांस्कृतिक घटनाक्रमों का मिलन स्थल बुन्देलखण्ड ही रहा हैं जहां पर बुन्देल, चन्देली, कलचुरी कालीन संस्कृति का समन्वय हुआ है, वही पर जैन और बौद्ध संस्कृति भी अधिक महत्वपूर्ण बन सकी है। उन्नाव का सूर्य मन्दिर सोनागिरि, पपौरा तथा कहार के जैन मंदिर, खजुराहो के प्रसिद्ध अनेक मंदिर भुलाए नहीं जा सकते । बानपुर (ललितपुर जनपद) महाभारत कालीन प्रसिद्ध नगर भी ,जिसमें शिशुपाल की राजधानी थी। दतिया का उत्तरी भू- भाग द्रोण प्रदेश कहा जाता था जो कौरवों और पाण्डवों के गुरू द्रोणाचार्य को गुरू दक्षिणा में प्राप्त हुआ था ।सेवढ़ा में महात्मा सनक सनकन ऋषि के आश्रम आज भी आस्था के प्रतीक हंै यहां भी विशाल एंव मनमोहक सरस्वती शिव आर्ट देवताओं की मूर्तियांें अपने युगों की स्थापत्य कला एवं मूर्तिकला के अनुपम उदाहरण हंै।

खजुराहो के मंदिर मध्यकालीन भारतीय कला का सर्वोत्तम प्रतिनिधित्व करते हैं। उनकी कलापद्धिति, आकार प्रकार की सुन्दरता तथा अलंकरण की गहनता और विविधता में ये मंदिर अपनी सानी नहीं रखते । यहां शिल्पियों ने छेनी से पत्थर पर जीवन और प्रकृति के विभिन्न पन्नांे का सजीव चित्रण किया है।ं उनमे कल्पना की सूक्ष्मता ,वृत्ति ,वैभव और विश्लेषण परम्पररागत होते हुये भी नवीन है। लगभग 2 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैले 30 मंदिर इन्डोआयरन शैली में भारतीय स्थापत्य कला और सांस्कृतिक चेतना के उज्जवलतम प्रमाण हैं।

इन मंन्दिरों का निर्माण चन्देलों के राजत्वकाल मे ंदसवीं और ग्यारहवीं शताब्दी में हुआ। चंदेल शासन अपने निर्माण एंव लोक कल्याण कार्यो के लिए प्रसिद्ध रहे हैं । खजुराहो के मंदिरों में सबसे अधिक हाथ यशों वर्मन धंगदेव, विद्याधर, और सल्लक्षणवर्मन देव का है।ं चौसठ जोगनी तथा ब्रहम्हा जी के मंदिर को छोड़ कर सभी मंदिर केन नदी से लाए गए पत्थरों से बने हंै। शैव, वैष्णव और जैन मतांे का प्रतिनिधित्व करने वाले इन मन्दिरों का एक ही स्थान पर एकत्रीकरण यद्यपि तत्कालीन सुन्दरतम भारतीय शिल्पकला और कौशल का ही घोतक नहीं वरन धार्मिक सहिष्णुता का अद्धितीय प्रमाण है । मंन्दिरो को तीन भागों में बांटा जा सकता है। पश्चिमी भाग जिसमें शैव और वैष्णव मंदिर है उत्तरी भाग में वैष्णव और दक्षिणी पूर्वी भाग में केवल जैन मंदिर है।ं पश्चिमी भाग का सर्वोत्तम उदाहरण कन्दरिया महादेव का मंदिर है। उत्तरी भाग का वृहत मंदिर भगवान विष्णु के बावन अवतार सेंे संबंधित हंै जबकि घटई और जिननार्थ के मंदिर दक्षिणी पूर्वी भाग के विचित्र मंदिर, हैं। अन्य महत्वपूर्ण मंदिरों में विश्वनाथ ,मातगेश्वर, चतुभू‍र्ज, दूलहदेव, लक्ष्मणेश्वर ,सूर्य बाराह मंदिर, जगदम्बा मंदिर, पाश्र्वनाथ ,शांतिनाथ आदि हैं। यहां के मंदिरों में उत्सवों लोकनृत्यों का और श्रंगार करती हुई अप्स राआं,े ंअतिथि सेवा, भगवदभक्ति आदि के जो उत्कृष्ट नमूने मिलते हंै अत्यन्त दुलर्भ है।ं वहां के प्रत्येक मंदिर की प्रत्येक मूर्ति अपने में पूर्णहै और अपनी निजी विशेषता लिए ह।ै प्रत्येक मूर्ति में इतनी सजीवता है कि वह गतिमान हो उठती है। नृत्य संबंधी मुद्राओं को देखने के प्रतीत होता हैंकि मानो पाषाण प्रतिमांए वास्तव में नृत्य कर रही हंै। खजुराहो में सामाजिक जीवन के माध्यम से युग के दार्शनिक विचारो,ं धार्मिक मान्तव्य और प्रयोजनों तथा संास्कृतिक कल्पनाओं की सफल और सुन्दर अभिव्यक्ति हुई है।

प्राकृतिक सौन्दर्य के बाहुल्य के बीच स्थित बुंदेला इतिहास के आकर्षण पृष्ठ ओरछा (टीमकगढ) के ऐतिहासिक मंदिर दुर्ग तथा छतरियों को अमरता प्राप्त हैै। बेतवा नदी के किनारे ओरेछा का अतीत अपने वैभव की कहानी कह रहा है। ओरछा के मंन्दिरों मे चतुर्भुज का मंदिर, रामराजा मंदिर तथा लक्ष्मीनारायण मंदिर बुन्देला स्थापत्य कला के जीते जागते स्मारक हंै। चतुभू‍र्ज मंदिर का निर्माण 17वीं शताब्दी में ओरछा नरेश  वीरसिंह देव ने कराया था। राम राजा मंदिर में भगवान रामचंद्र जी की मूर्ति है। इसे मधुकर शाह की रानी राजेश कुंवरि आयोध्या से लाई थी ं।यह पहले सुंदर महल था जिसे महाराज भारती चंद ने रानी गणेश कुंवरि के निवास हेतु बनया  था।

लक्ष्मीनारायण मंदिर का निर्माण  ओरछा के उत्तरी- पश्चिमी भाग में महाराजा वीर​िंसह द्वारा कराया गया था। मंदिर में प्रवेश करते ही चित्रकारी प्रांरभ हो जाती है। इसके अंदर अठारहवीं, उन्नसवींसदी के सुन्दर झिलमिल चित्र हंै। शिल्पकला की दृष्टि से लक्ष्मीनारायण जी का मंदिर विशेष महत्वपूर्ण है।

महाराजा छत्रसाल की हीरो की नगरी पन्ना अपने ऐतिहासिक मंदिरो के लिए प्रसिद्ध है। पन्ना के ऐतिहासिक मंदिरों में स्वामी प्राणनाथ एंव जुगल किशोर जी के मंदिर महत्व के हैं। प्राणनाथ मंदिर का निर्माण विक्रमी संवत 1784 के लगभग हुआ था। स्वामी प्राणनाथ माहराज छत्रसाल के धमोेपदेशक गुरू थे। उन्हीे के लिए इस मंदिर का निर्माण कराया गया था ।स्वामी प्राणनाथ के प्रण्मयी सम्प्रदाय का परिवर्तन किया ।स्थापत्य कला के अतिरिक्त चित्रकारी के उत्कृष्ट नमूने यहां विद्यमान हैं। जुगल किशोर जी के मंदिर में राधाकृष्ण की मूर्तियां हैं। पुरातन और मध्यकालीन वास्तुकला के इन मंदिरों के गगनचुम्बी कलशांे की शिखरें अत्यन्त शोभा देती हंै।

दतिया नगर मे भी ऐसे मंदिर हैं जो अपनी स्थापत्य कला के लिए प्रसिद्ध हैं। श्री बडे़ गोविन्द जी का मंदिर, श्री बिहारी जी का मंदिर, श्री विजय गोविंद का मंदिर तथा श्री राजेश्वर महादेव का मंदिर गौरव एवं श्रद्धा के योग्य हैं । दक्षिण से 18 किलो मीटर पूर्व में पहूज नदी के किनारे स्थित उन्नाव में ब्रम्हवाला जी की मूर्ति भारत वर्ष मे अनोखी है।

वाकाटक प्रभाव के मंदिरों में मड़खेरा (टीकमगढ़) का सूर्य मंदिर हैं यहां के सूर्य मंदिर में सूर्य के रथ चक्र का अंकन कोणार्क के चक्र के समान है।ं मड़खेरा की मूर्ति का स्थापत्य नचना के महादेव मंदिर के सदृश ही है। जिसमें केवल  शिखर ही हंै। इन मंदिरों का सबसे सुन्दर शिल्प उन्मत मयूर का है। इसमें बादल को देखकर उन्मत भाव से पंख फैला कर नाचने वाले मयूर का अंकन बहुत ही सुन्दर हुआ है।

बुन्देलखण्ड के अन्य दर्शनीय संास्कृतिक स्थानों में सोनागिरी, अहारक्षेत्र, पपोरा, वंधपजी और द्रोणागिरी के ऐतिहासिक एवं धार्मिक जैन तीर्थ अपना विशिष्ट महत्व रखते हैं। सेानागिरी के जैन मंदिर दतिया से 10 किलोमीटर दूर एक मनोरम पहाड़ी पर अवस्त्रित है।ं यह भूमि जैन मुनियों की तपो भूमि है। मंदिरों की क्रमबद्ध पवित्र दर्शकांे का मन मोह लेती हंै। सोनागिरी पर्वत पर 77 शिखर सहित जैन मंदिर हंै। चन्द्रप्रभु का विशाल एवं दर्शनीय मंदिर विशेष उल्लेखनीय है। इसी के पास नवनिर्मित विशाल मान स्तम्भ तथा श्री बाहुबलि भगवान की मूर्ति स्थापित है। जैन परम्परा के अनुसार सोनागिरी पर लाखों साधुओं ने निर्वाण प्राप्त किया है।

जैनियों का तीर्थ अहार क्षेत्र टीकमगढ जिले में अवस्थित हैं ।यहां जैनियों के प्राचीन मंदिर है जिन में अधिकांशखण्डहर हो गये है। ये मंदिर बाहरवीं, तेरहवीं शताब्दी के बने कहे जाते हैं। पपींरा टीकमगढ से बड़ा गांव सड़क पर लभगग 5 किलोमीटर पूर्व की ओर स्थित है। यहां पर लगभग एक किलोमीटर क्षेत्र में 108 कलापूर्ण जैन मंदिरों का समूह है। इन मंदिरो का भव्य दृश्य कई किलोमीटर दूरे से ही दिखाई देने लगता है। इन मंदिरो की स्थापत्य तथा मूर्तिकला से स्पष्ट होता है कि प्राचीन कला अपनी पूर्णता और भव्यता के शिखर पर थी। मंदिरों के तोरण द्वार मूर्ति कला की सूक्ष्मता और विपुलता के लिए प्रसिद्ध है।  यहां के प्राय: सभी मंदिरों की मूर्तियों की भाव मुद्रायें भिन्न भिन्न प्रकार की हंै। यहां पर कुछ तेरहवीं शताब्दी के शिलालेख भी प्राप्त हुए हंै। मंदिरों की दीवालो,ं तोरण और छत्तों की मूर्तियों तथा चित्रकारी का लेखा अवर्णनीय है।

द्रोणागिरी के जैन मंदिर छतरपुर जिले में छतरपुर सागर -सड़क पर मलहरा से 7 किलोमीटर पर स्थित है। ये 26 मंदिर समूह में पहाड़ी पर बने है तथा विभिन्न काल की शिल्प कलाओं के प्रमाण यहां उपलब्ध हंै। सबसे प्राचीन मंदिर तिगोड़ा वालों का है।ं इसमें स्थित प्रतिमा सवंत 1549 की है। इस मंदिर में आदिनाथ स्वामी की मूर्ति है। एक मंदिर पाश्र्वनाथ स्वामी का है। मंदिरों के कलश दूर से बड़े ही मनोरम प्रतीत होते हैं।

जतारा से 6 कि.मी. दूर एक मनोरम पहाड़ी पर स्थित अब्दा पीर मुस्लिम भाईयों का महत्वपूर्ण और पवित्र स्थल है। भादों के महीने में शुक्रवार को अब्दा साहब की स्मृति में यहां प्रतिवर्ष मेला लगता है यहां एक गहरा कुण्ड तथा ओरछा की लड़ई महारानी द्वारा निर्माण कराया गया एक सुन्दर भवन है।

बुंदेलखण्ड के संास्कृतिक मानचित्र पर उभरे ये स्थल इस बात के ठोस प्रमाण हंै कि यहां का जनमानस धर्म परायण लोककलाओं में अभिरूचि रखने वाला प्रबुद्ध तथा जागरूक रहा है। तभी तो उसने ऐेसे स्थलों का निर्माण कराया। अनुभवी कलाकारों ने निष्प्राण पत्थरांे में प्राण फूंक दिए हंै तथा उसमें कलाकार के हृदय की झलक स्पष्ट रूप से अभिव्यक्त होती ह।ै यहां की न जाने कितनी ऐतिहासिक मूर्तियां विदेशो के ब़डे- बड़े संग्रहालयों मे पहॅुचकर भारतीय शिल्प एंव स्थापत्य कला का परिचय दे रही हैं। इसमें संदेह नहीं है कि बुंदेल भूमि के प्रसिद्ध ये संास्कृतिक स्थल आज भी किसी न किसी रूप में अतीत की स्मृतियां सजोये हुए है। उनमें से अधिकांश अभी तक विख्यात नही हो पाए हैं। एवं खण्डहर खण्डित और जीर्ण शीर्षण अवस्था में है।ं जबकि कुछ सुरक्षा और संरक्षण के विभिन्न स्तरों पर भी है। आज सामूहिक रूप से इनका महत्व भले ही न हो लेकिन ऐतिहासिक और संास्कृतिक परिप्रेक्ष्य में इनका महत्व कभी कम नहीं हो सकता ।सांस्कृतिक धरोहर जो विरासत में प्राप्त हुई है सुरक्षा एंव सरंक्षण की ओर भी आशान्वित हैं। केन्द्र तथा राज्य शासन इस दिशा में निरंतर प्रयत्नशील हैं।

डा. नर्बदा प्रसाद पाण्डे

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अयोध्या में नही दिन में ओरछा वास करते है राम……….


अयोध्या में नही दिन में ओरछा वास करते है राम……….

Posted on 02 November 2009 by admin

बुंदेलखंड के  झांसी से मात्र 15 किमी. की दूरी पर  ओरछा को दूसरी अयोध्या के रूप में मान्यता प्राप्त है। यहां पर रामराजा अपने बाल रूप में विराजमान हैं। यह जनश्रुति है कि श्रीराम दिन में यहां तो रात्रि में अयोध्या विश्राम करते हैं। शयन आरती के पश्चात उनकी ज्योति हनुमानजी को सौंपी जाती है, जो रात्रि विश्राम के लिए उन्हें अयोध्या ले जाते हैं-

सर्व व्यापक राम के दो निवास हैं खास,
दिवस ओरछा रहत हैं, शयन अयोध्या वास

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शास्त्रों में वर्णित है कि आदि मनु-सतरूपा ने हजारों वषरें तक शेषशायी विष्णु को बालरूप में प्राप्त करने के लिए तपस्या की। विष्णु ने उन्हें प्रसन्न होकर आशीष दिया और त्रेता में राम, द्वापर में कृष्ण और कलियुग में ओरछा के रामराजा के रूप में अवतार लिया। इस प्रकार मधुकर शाह और उनकी पत्नी गणेशकुंवरि साक्षात दशरथ और कौशल्या के अवतार थे। त्रेता में दशरथ अपने पुत्र का राज्याभिषेक न कर सके थे, उनकी यह इच्छा भी कलियुग में पूर्ण हुई।

रामराजा के अयोध्या से ओरछा आने की एक मनोहारी कथा है। एक दिन ओरछा नरेश मधुकरशाह ने अपनी पत्नी गणेशकुंवरि से कृष्ण उपासना के इरादे से वृंदावन चलने को कहा। लेकिन रानी राम भक्त थीं। उन्होंने वृंदावन जाने से मना कर दिया। क्रोध में आकर राजा ने उनसे यह कहा कि तुम इतनी राम भक्त हो तो जाकर अपनेराम को ओरछा ले आओ। रानी ने अयोध्या पहुंचकर सरयू नदी के किनारे लक्ष्मण किले के पास अपनी कुटी बनाकर साधना आरंभ की। इन्हीं दिनों संत शिरोमणि तुलसीदास भी अयोध्या में साधना रत थे। संत से आशीर्वाद पाकर रानी की आराधना दृढ से दृढतर होती गई। लेकिन रानी को कई महीनों तक रामराजा के दर्शन नहीं हुए। अंतत: वह निराश होकर अपने प्राण त्यागने सरयू की मझधार में कूद पडी। यहीं जल की अतल गहराइयों में उन्हें रामराजा के दर्शन हुए। रानी ने उन्हें अपना मंतव्य बताया। रामराजा ने ओरछा चलना स्वीकार किया किन्तु उन्होंने तीन शतर्ें रखीं- पहली, यह यात्रा पैदल होगी, दूसरी- यात्रा केवल पुष्प नक्षत्र में होगी, तीसरी- रामराजा की मूर्ति जिस जगह रखी जाएगी वहां से पुन: नहीं उठेगी।

रानी ने राजा को संदेश भेजा कि वो रामराजा को लेकर ओरछा आ रहीं हैं। राजा मधुकरशाह ने रामराजा के विग्रह को स्थापित करने के लिए करोडों की लागत से चतुर्भुज मंदिर का निर्माण कराया। जब रानी ओरछा पहुंची तो उन्होंने यह मूर्ति अपने महल में रख दी। यह निश्चित हुआ कि शुभ मुर्हूत में मूर्ति को चतुर्भुज मंदिर में रखकर इसकी प्राण प्रतिष्ठा की जाएगी। लेकिन राम के इस विग्रह ने चतुर्भुज जाने से मना कर दिया। कहते हैं कि राम यहां बाल रूप में आए और अपनी मां का महल छोडकर वो मंदिर में कैसे जा सकते थे। राम आज भी इसी महल में विराजमान हैं और उनके लिए बना करोडों का चतुर्भुज मंदिर आज भी वीरान पडा है। यह मंदिर आज भी मूर्ति विहीन है।

यह भी एक संयोग है कि जिस संवत 1631 को रामराजा का ओरछा में आगमन हुआ, उसी दिन रामचरित मानस का लेखन भी पूर्ण हुआ। जो मूर्ति ओरछा में विद्यमान है उसके बारे में बताया जाता है कि जब राम वनवास जा रहे थे तो उन्होंने अपनी एक बाल मूर्ति मां कौशल्या को दी थी। मां कौशल्या उसी को बाल भोग लगाया करती थीं। जब राम अयोध्या लौटे तो कौशल्या ने यह मूर्ति सरयू नदी में विसर्जित कर दी। यही मूर्ति गणेशकुंवरि को सरयू की मझधार में मिली थी। यह विश्व का अकेला मंदिर है जहां राम की पूजा राजा के रूप में होती है और उन्हें सूर्योदय के पूर्व और सूर्यास्त के पश्चात सलामी दी जाती है। यहां राम ओरछाधीश के रूप में मान्य हैं। रामराजा मंदिर के चारों तरफ हनुमान जी के मंदिर हैं। छडदारी हनुमान, बजरिया के हनुमान, लंका हनुमान के मंदिर एक सुरक्षा चक्र के रूप में चारों तरफ हैं। ओरछा की अन्य बहुमूल्य धरोहरों में लक्ष्मी मंदिर, पंचमुखी महादेव, राधिका बिहारी मंदिर , राजामहल, रायप्रवीण महल, हरदौल की बैठक, हरदौल की समाधि, जहांगीर महल और उसकी चित्रकारी प्रमुख है। ओरछा झांसी से मात्र 15 किमी. की दूरी पर है। झांसी देश की प्रमुख रेलवे लाइनों से जुडा है। पर्यटकों के लिए झांसी और ओरछा में शानदार आवासगृह बने हैं।

Vikas Sharma
JHANSI

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चिरगांव


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vikas_sharma_jhansi1Vikas Sharma
JHANSI

 

पिछले वर्ष ग्राम स्तरीय पुरातात्विक सर्वेक्षण में चिरगांव विकास खण्ड एवं अमरा व खिरियाराम से प्राप्त अनेक दुर्लभ अवशेषों से लगने लगा है कि इस क्षेत्र में कम से कम तीन हजार वर्ष प्राचीन विकसित सभ्यता सांस ले रही है। इसमें रमपुरा गांव के मन्दिर में भित्ति-चित्र की प्राप्ति भी उल्लेखनीय है। इससे उत्साहित पुरातत्व विभाग द्वारा इस बार मोंठ विकास खण्ड का ग्राम स्तरीय पुरातात्विक सर्वेक्षण का काम 27 फरवरी से शुरू कर दिया। क्षेत्रीय पुरातत्व अधिकारी डा. एसके दुबे ने बताया कि अभी 29 गांवों का सर्वे किया जा सका। इस दौरान ग्राम सेना, ऐरेरा, सिलारी, बुढ़ावली, भरोसा, लावन, जौरा, इमलिया, आमखैरा, बमौनिया, खेरा, छपार, रेव, पसइया, खड़ौना, भुजौंद, जरहाखुर्द, अमरोख, कुम्हरार, जरहाखुर्द, अमरोख, कुम्हरार में पुरातात्विक महत्व के अवशेषों में प्राचीन टीले, मन्दिर, मूर्तियां, कोल्हू, सतीपट, वीरपट, टीले आदि प्रकाश में आए।

उन्होंने बताया कि ग्राम ऐरोरा व जौरा में मध्य कालीन टीलों को खोज निकाला गया है। इसमें 4-5 सौ वर्ष प्राचीन सभ्यता के दबे होने की आशंका पाई गई है। भरोसा में लगभग 300 वर्ष प्राचीन ऐसा शिवालय प्रकाश में आया जिसके निचले भाग में सीढ़ीयुक्त तलघर बना है। इसका उपयोग गर्मियों में ध्यान कक्ष के रूप में करने का आभास होता है। मन्दिर के तोड़ों (छज्जो) के बीच में रंगीन सुन्दर चित्र तो आकर्षित करते ही है साथ ही चूना प्लास्टर से बनी प्रतिमाएं इसकी प्राचीनता का आभास कराती है।

पुरातत्व अधिकारी के अनुसार इस मन्दिर के द्वार के पास चूने के प्लास्टर से गज लक्ष्मी की सुन्दर प्रतिमा बनी है। यहां यह महत्वपूर्ण है कि गज लक्ष्मी की प्रतिमा की परम्परा लगभग 11-12 वीं सदी तक चलती रही है। लगभग 17 वीं सदी के इस मन्दिर में गज लक्ष्मी का अंकन होना पुरातात्विक दृष्टि से महत्वपूर्ण है। मन्दिर के शिखर पर हनुमान आदि देवताओं की प्रतिमाएं भी चूने के प्लास्टर से बनी है। इस विषय में अनुसंधान की आवश्यकता है। फिलहाल कहा जा रहा है कि इस काल में ऐसे शिखरयुक्त मन्दिर की कला वृज अथवा राजस्थानी कलाकारों की देन है। जनपद में अनेक स्थानों पर राजस्थानी कलाकारों द्वारा निर्मित भव्य मन्दिर ग्राम सिंगार, सुट्टा व रमपुरा में भी पूर्व में खोजे जा चुके है। इनमें सिंगार व रमपुरा के रामायण व महाभारत के दृष्टांतों के भित्ति चित्र अद्वितीय है। चिरगांव विकास खण्ड के पर्यटन विकास के लिए रमपुरा के मन्दिर को पुरातत्व विभाग अपने संरक्षण में लेने की योजना बना रहा है।

मोंठ विकास खण्ड के पुरातात्विक सर्वेक्षण के दौरान टीम द्वारा कुम्हरार के प्राचीन राम-जानकी मन्दिर में प्रतिमाओं की प्राचीनता व कलाकारी का आंकलन करना महंगा साबित हो गया। चोरों को लगा होगा कि टीम द्वारा परखी जा ही मूर्तियां पुरातत्व की दृष्टि से महत्वपूर्ण है और अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में उनकी कीमत लाखों में हो सकती है। सर्वेक्षण के तीन दिन बाद ही मूर्तियों को चोर उड़ा ले गए। इधर, ग्रामीणों ने पुरातत्व टीम को ही मूर्तियां उड़ाने वाला समझा और पुलिस को इसकी जानकारी दी। पुलिस ने भी सर्वे टीम को बैठा लिया, किन्तु जब वास्तविकता पता चली तब उन्हे छोड़ा। ग्रामीणों के आक्रोश को देखते हुए टीम ने अपना टैण्ट उखाड़ लिया और सर्वेक्षण बन्द कर दिया है।

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ओरछा


आज भी यहां के मंदिरों में चमक बरकरार, अपने में समाए है कई कहानियां

आज भी यहां के मंदिरों में चमक बरकरार, अपने में समाए है कई कहानियां

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भारत में धार्मिक स्थानों की कमी नहीं है और हर स्थान की अपनी महत्तता भी है। एक ऐसा ही स्थान है उत्तरी मध्य प्रदेश में जो अपनी भव्यता के कारण काफी प्रसिद्ध है। उत्तरी मध्य प्रदेश में बेतवा नदी के किनारे बसा ओरछा अपने भव्य मंदिरों, महलों और किलों के लिए सर्वाधिक प्रसिद्ध है।
झांसी से मात्र 16 किमी. की दूरी पर स्थित यह जगह अतीत की कई कहानियों को बयां करती है। हरा-भरा और पहाड़ियों से घिरा ओरछा राजा बीरसिंह देव के काल में बुंदेलखण्ड की राजधानी हुआ करता था।
परिहार राजाओं के बाद ओरछा चन्देलों और फिर बुंदेलों के अधिकार में रहा। हालांकि चन्देल राजाओं के पराभव के बाद ओरछा श्रीहीन हो गया लेकिन जब बुंदेलों का शासन आया तो ओरछा ने पुन: अपना गौरव प्राप्त किया। बुंदेला राजा रुद्रप्रताप ने 1531 ई. में नए सिरे से इस नगर की स्थापना की। उन्होंने नगर में मंदिर महल और किले का निर्माण करवाया। यही नहीं, उनके बाद के राजाओं ने भी सौंदर्य से परिपूर्ण कलात्मक इमारतें और भवन बनवाए।
मुगल शासक अकबर के समय यहां के राजा मधुकर शाह थे जिनके साथ मुगल सम्राट ने कई युद्ध किए थे। जहांगीर ने वीरसिंहदेव बुंदेला को, जो ओरछा राज्य की बड़ौनी जागीर के स्वामी थे, पूरे ओरछा राज्य की गद्दी दी थी। इसके बदले में वीरसिंहदेव ने जहांगीर के कहने से अकबर के शासन काल में अकबर के विद्वान दरबारी अबुलफजल की हत्या करवा दी थी।
वहीं जब शाहजहां का शासन काल आया तो मुगलों ने बुन्देलों से कई असफल लड़ाइयां लड़ीं। किंतु अंत में जुझार सिंह को ओरछा का राजा स्वीकार कर लिया गया। ओरछा की विरासत यहां की इमारतों में कैद है जो अपने आप में न जाने कितनी ही सुंदरता समाए हुए है। आज भी यहां के मंदिरों और इमारत की चमक बरकरार है।
ओरछा का नजदीकी हवाई अड्डा खजुराहो है जो 163 किमी. की दूरी पर है। खजुराहो से आप टैक्सी, ऑटो के जरिए ओरछा पहुंच सकते हैं। अगर आप ट्रेन के जरिए ओरछा पहुंचना चाहते हैं तो झांसी ओरछा का नजदीकी रेलवे स्टेशन है। दिल्ली, आगरा, भोपाल, मुंबई, ग्वालियर आदि प्रमुख शहरों से झांसी के लिए काफी संख्या में ट्रेने हैं। ओरछा के सबसे प्राचीन स्मारकों में से एक ‘राजमहल’ को 17वीं शताब्दी में मधुकर शाह ने बनवाया था।
बुन्देलों और मुगल शासक जहांगीर की दोस्ती की निशानी है जहांगीर महल। जहांगीर महल के प्रवेश द्वार पर दो झुके हुए हाथी बने हुए हैं जो अपने आप में वास्तुकला का बेहतरीन नमूना है। कमल की आकृति और अन्य आकृतियों से परिपूर्ण यह मंदिर चार भुजाधारी भगवान विष्णु को समर्पित है। इस मंदिर का निर्माण 1558 से 1573 के बीच राजा मधुकर ने करवाया था। अपने समय की यह उत्कृष्ठ रचना यूरोपीय कैथोड्रल से समान है।
622 ई. में बीरसिंह देव द्वारा बनवाया गया यह मंदिर ओरछा गांव के पश्चिम में एक पहाड़ी पर बना है। मंदिर में सत्रहवीं और उन्नीसवीं शताब्दी के चित्र बने हुए हैं, जो तब के इतिहास को बयां कर रहे हैं।

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खूब लड़ी मरदानी, अरे झांसी वारी रानी [जयंति पर विशेष] – आकांक्षा यादव


खूब लड़ी मरदानी, अरे झांसी वारी रानी [जयंति पर विशेष] – आकांक्षा यादव

स्वतंत्रता और स्वाधीनता प्राणिमात्र का जन्मसिद्ध अधिकार है। इसी से आत्मसम्मान और आत्मउत्कर्ष का मार्ग प्रशस्त होता है। भारतीय राष्ट्रीयता को दीर्घावधि विदेशी शाषन और सत्ता की कुटिल-उपनिवेशवादी नीतियों के चलते परतंत्रता का दंश झेलने को मजबूर होना पड़ा था और जब इसके क्रूरतम कृत्यों से भरी अपमानजनक स्थिति की चरम सीमा हो गई तब जनमानस उद्वेलित हो उठा था। अपनी राजनैतिक-सामाजिक-सांस्कृतिक-आर्थिक पराधीनता से मुक्ति के लिए क्रान्ति यज्ञ की बलिवेदी पर अनेक राष्ट्रभक्तों ने तन-मन-जीवन अर्पित कर दिया था।
क्रान्ति की ज्वाला सिर्फ पुरुषों को ही नहीं आकृष्ट करती बल्कि वीरांगनाओं को भी उसी आवेग से आकृष्ट करती है। भारत में सदैव से नारी को श्रद्धा की देवी माना गया है, पर यही नारी जरूरत पड़ने पर चंडी बनने से परहेज नहीं करती। ’स्त्रियों की दुनिया घर के भीतर है, शाषन-सूत्र का सहज स्वामी तो पुरूष ही है‘ अथवा ‘“शाषन व समर से स्त्रियों का सरोकार नहीं‘ जैसी तमाम पुरूषवादी स्थापनाओं को ध्वस्त करती इन वीरांगनाओं के बिना स्वाधीनता की दास्तान अधूरी है, जिन्होंने अंग्रेजों को लोहे के चने चबवा दिये। 1857 की क्रान्ति में जहाँ रानी लक्ष्मीबाई, बेगम हजरत महल, बेगम जीनत महल, रानी अवन्तीबाई, रानी राजेश्वरी देवी, झलकारी बाई, ऊदा देवी, अजीजनबाई जैसी वीरांगनाओं ने अंग्रेजों को लोहे के चने चबवा दिये, वहीं 1857 के बाद अनवरत चले स्वाधीनता आन्दोलन में भी नारियों ने बढ़-चढ़ कर भाग लिया। इन वीरांगनाओं में से अधिकतर की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि वे किसी रजवाड़े में पैदा नहीं हुईं बल्कि अपनी योग्यता की बदौलत उच्चतर मुकाम तक पहुँचीं।
1857 की क्रान्ति की अनुगूँज में जिस वीरांगना का नाम प्रमुखता से लिया जाता है, वह झांसी में क्रान्ति का नेतृत्व करने वाली रानी लक्ष्मीबाई हैं। 19 नवम्बर 1835 को बनारस में मोरोपंत तांबे व भगीरथी बाई की पुत्री रूप मे लक्ष्मीबाई का जन्म हुआ। उनका बचपन का नाम मणिकर्णिका था, पर प्यार से लोग उन्हें मनु कहकर पुकारते थें। काशी में रानी लक्ष्मीबाई के जन्म पर प्रथम वीरांगना रानी चेनम्मा को याद करना लाजिमी है। 1824 में कित्तूर (कर्नाटक) की रानी चेनम्मा ने अंगेजों को मार भगाने के लिए ’फिरंगियों भारत छोड़ो’ की ध्वनि गुंजित की थी और रणचण्डी का रूप धर कर अपने अदम्य साहस व फौलादी संकल्प की बदौलत अंग्रेजों के छक्के छुड़ा दिये थे। कहते हैं कि मृत्यु से पूर्व रानी चेनम्मा काशीवास करना चाहती थीं पर उनकी यह चाह पूरी न हो सकी थी। यह संयोग ही था कि रानी चेनम्मा की मौत के 6 साल बाद काशी में ही लक्ष्मीबाई का जन्म हुआ।
बचपन में ही लक्ष्मीबाई अपने पिता के साथ बिठूर आ गईं। वस्तुत: 1818 में तृतीय मराठा युद्ध में अंतिम पेशवा बाजीराव द्वितीय की पराजय के पश्चात उनको 8 लाख रूपये की वार्षिक पेंशन मुकर्रर कर बिठूर भेज दिया गया। पेशवा बाजीराव द्वितीय के साथ उनके सरदार मोरोपंत तांबे भी अपनी पुत्री लक्ष्मीबाई के साथ बिठूर आ गये। लक्ष्मीबाई का बचपन नाना साहब के साथ कानपुर के बिठूर में ही बीता। लक्ष्मीबाई की शादी झाँसी के राजा गंगाधर राव से हुई। 1853 में अपने पति राजा गंगाधर राव की मौत के बाद रानी लक्ष्मीबाई ने झाँसी का शासन सँभाला पर अंग्रेजों ने उन्हें और उनके दत्तक पुत्र को शाषक मानने से इन्कार कर दिया। अंग्रेजी सरकार ने रानी लक्ष्मीबाई को पांच हजार रूपये मासिक पेंशन लेने को कहा पर महारानी ने इसे लेने से मना कर दिया। पर बाद में उन्होंने इसे लेना स्वीकार किया तो अंग्रेजी हुकूमत ने यह शर्त जोड़ दी कि उन्हें अपने स्वर्गीय पति के कर्ज़ को भी इसी पेंशन से अदा करना पड़ेगा, अन्यथा यह पेंशन नहीं मिलेगी। इतना सुनते ही महारानी का स्वाभिमान ललकार उठा और अंग्रेजी हुकूमत को उन्होंने संदेश भिजवाया कि जब मेरे पति का उत्तराधिकारी न मुझे माना गया और न ही मेरे पुत्र को, तो फिर इस कर्ज़ के उत्तराधिकारी हम कैसे हो सकते हैं। उन्होंने अंग्रेजी हुकूमत को स्पष्टतया बता दिया कि कर्ज़ अदा करने की बारी अब अंग्रेजों की है न कि भारतीयों की। इसके बाद घुड़सवारी व हथियार चलाने में माहिर रानी लक्ष्मीबाई ने ब्रिटिश सेना को कड़ी टक्कर देने की तैयारी आरंभ कर दी और उद्घोषणा की कि- ‘‘मैं अपनी झांसी नहीं दूंगी।”
रानी लक्ष्मीबाई द्वारा गठित सैनिक दल में तमाम महिलायें शामिल थीं। उन्होंने महिलाओं की एक अलग ही टुकड़ी ‘दुर्गा दल’ नाम से बनायी थी। इसका नेतृत्व कुश्ती, घुड़सवारी और धनुर्विद्या में माहिर झलकारीबाई के हाथों में था। झलकारीबाई ने कसम उठायी थी कि जब तक झांसी स्वतंत्र नहीं होगी, न ही मैं श्रृंगार करूंगी और न ही सिन्दूर लगाऊँगी। अंग्रेजों ने जब झांसी का किला घेरा तो झलकारीबाई जोशो-खरोश के साथ लड़ी। चूँकि उसका चेहरा और कद-काठी रानी लक्ष्मीबाई से काफी मिलता-जुलता था, सो जब उसने रानी लक्ष्मीबाई को घिरते देखा तो उन्हें महल से बाहर निकल जाने को कहा और स्वयं घायल सिहंनी की तरह अंग्रेजों पर टूट पड़ी और शहीद हो गई। रानी लक्ष्मीबाई अपने बेटे को कमर में बाँध घोड़े पर सवार किले से बाहर निकल गई और कालपी पहुँची, जहाँ तात्या टोपे के साथ मिलकर ग्वालियर के किले पर कब्जा कर लिया।………… अन्तत: 18 जून 1858 को भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम की इस अद्भुत वीरांगना ने अन्तिम सांस ली पर अंग्रेजों को अपने पराक्रम का लोहा मनवा दिया। तभी तो उनकी मौत पर जनरल ह्यूगरोज ने कहा – ‘‘यहाँ वह औरत सोयी हुयी है, जो विद्रोहियों में एकमात्र मर्द थी।”
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इतिहास अपनी गाथा खुद कहता है। सिर्फ पन्नों पर ही नहीं बल्कि लोकमानस के कंठ में, गीतों और किवदंतियों इत्यादि के माध्यम से यह पीढ़ी-दर-पीढ़ी प्रवाहित होता रहता है। वैसे भी इतिहास की वही लिपिबद्धता सार्थक और शास्वत होती है जो बीते हुये कल को उपलब्ध साक्ष्यों और प्रमाणों के आधार पर यथावत प्रस्तुत करती है। बुंदेलखण्ड की वादियों में आज भी दूर-दूर तक लोक -लय सुनाई देती है- खूब लड़ी मरदानी, अरे झाँसी वारी रानी/पुरजन पुरजन तोपें लगा दईं, गोला चलाए असमानी/अरे झाँसी वारी रानी, खूब लड़ी मरदानी/सबरे सिपाइन को पैरा जलेबी, अपन चलाई गुरधानी……छोड़ मोरचा जसकर कों दौरी, ढूढ़ेहूँ मिले नहीं पानी/अरे झाँसी वारी रानी, खूब लड़ी मरदानी। माना जाता है कि इसी से प्रेरित होकर ‘झाँसी की रानी’ नामक अपनी कविता में सुभद्राकुमारी चौहान ने 1857 की उनकी वीरता का बखान किया हैं- चमक उठी सन् सत्तावन में वह तलवार पुरानी थी / बुन्देले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी / खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।
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