ठीक उस जगह
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एक गुरू जी नदी के तट पर ध्यान अवस्था में बैठे थे। उनके एक शिष्य ने उनके चरणों में श्रद्धा एवं समर्पण के प्रतीक के रूप में दो बेशकीमती मोती रखे।
गुरू जी ने अपनी आँखें खोलीं, उनमें से एक मोती को उठाया और उसे इतनी असावधानी से पकड़ा कि वह उनके हाथ से छिटक कर लुढ़कता हुआ नदी में चला गया।
शिष्य ने आव देखा न ताव, नदी में छलांग लगा दी। उसने कई गोते लगाये पर मोती को ढ़ूँढ़ने में असफल रहा।
अंततः थककर उसने पुनः अपने गुरू का ध्यान भंग किया और बोला – “आप उस जगह को जानते हैं, जहाँ वह मोती गिरा है। कृपया मुझे वह जगह बता दें ताकि मैं आपके लिये मोती खोज़ कर ला सकूं।
गुरू जी ने दूसरा मोती अपने हाथ में लिया और पानी में फेंकते हुए बोले – “ठीक उस जगह।’
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चाय के कप
एक छात्र ने गुरू सुजुकी रोशी से पूछा कि जापानी लोग अपने चाय के कपों को इतना पतला क्यों बनाते हैं कि वे आसानी से टूट जायें ?
गुरू जी ने उत्तर दिया -“कप नाजुक नहीं हैं बल्कि तुम्हें उन्हें पकड़ने का सलीका नहीं आता। वातावरण को बदलने के बजाए तुम्हें अपने आप को इसके अनुरूप ढ़ालने की कला आनी चाहिए।’
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न्याय की कुर्सी
प्राचीन काल में मध्य भारत में राजा भोज नामक एक न्याय-प्रिय राजा राज्य करता था. वह अपनी न्यायप्रियता के लिए प्रसिद्ध था.
एक बार उसके राजदरबार में एक व्यक्ति न्याय के लिए आया और अपना दुखड़ा सुनाया कि उसने दूर देश की यात्रा पर जाने से पहले घर के हीरे जवाहरात और गहने अपने पड़ोसी को सुरक्षित रखने के लिए दे दिया था, क्योंकि मेरे छोटे बच्चों के साथ मेरी पत्नी निपट अकेली थी. परंतु जब मैं यात्रा से वापस लौटा तो इसके मन में खोट आ गया है और यह मेरे जवाहरातों को वापस लौटाने के बजाय कह रहा है कि उसने तमाम जवाहरात मेरी पत्नी को पहले ही लौटा दिए हैं. जबकि उसने मेरी पत्नी को कोई जवाहरात नहीं लौटाए हैं.
राजा भोज ने पड़ोसी से तहकीकात की तो पड़ोसी ने गांव के कोतवाल और सरपंच को गवाह के तौर पर पेश कर दिया कि उनके सामने उसने गहने उसकी पत्नी को लौटाए हैं.
राजा भोज ने इन गवाहियों को सत्य मानते हुए फैसला सुना दिया. मगर वह व्यक्ति प्रलाप करने लगा कि राजा का फैसला न्यायोचित नहीं है. प्रलाप करते ही उसने कहा कि
इससे तो बेहतर एक गांव का चरवाहा न्याय सुनाता है.
राजा भोज को उस चरवाहे के बारे में जानकारी हुई तो उन्होंने उस व्यक्ति और गवाह कोतवाल और सरपंच को लेकर चरवाहे के पास पहुँचे और कहा कि वो न्याय करे.
चरवाहे ने एक टीले पर बैठकर पूरी बात सुनी और कोतवाल को अकेले बुलाया. उससे पूछा कि जवाहरात कैसे थे कितने थे और उनका रूप रंग कैसा था.
उसके पश्चात चरवाहे ने सरपंच को बुलाकर यही बात पूछी.
और फिर चरवाहे ने फैसला सुना दिया कि पड़ोसी झूठ बोल रहा है. दरअसल कोतवाल और सरपंच दोनों ने हीरे जवाहरातों और गहनों के बारे में पूरी तरह भिन्न और अलग विवरण दिये थे, जिसमें कोई मेल नहीं था. थोड़ी कड़ाई से पूछताछ करने पर कोतवाल और सरपंच ने मुंह खोल दिया कि उसे उस व्यक्ति के पड़ोसी ने रिश्वत देकर यह गवाही देने के लिए कहा था.
राजा ने चरवाहे से पूछा कि वो ऐसा चतुराई भरा निर्णय कैसे दे देता है. चरवाहे ने कहा कि उसे खुद नहीं मालूम. मगर जब वह इस टीले पर बैठता है तो उसका दिमाग चलने लग जाता है.
राजा भोज ने उस टीले की खुदाई की तो वहाँ से राजा विक्रमादित्य का सिंहासन मिला, जिसमें 32 पुतलियाँ थीं. सिंहासन बत्तीसी नामक ग्रंथ इसी सिंहासन के 32 पुतलियों द्वारा सुनाई गई कहानियों पर आधारित है.
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जो राम रचिराखा…
लंका विजय के लिए समुद्र पर पुल बनाया जा रहा था. सुग्रीव की वानर सेना इस कार्य में लगी हुई थी. बड़े और विशाल पत्थरों को ढो कर लाया जा रहा था और समुद्र पर पुल बनाने के लिए डाला जा रहा था. ये पत्थर पानी में डूब नहीं रहे थे, बल्कि तैर रहे थे.
राम जी भी यह देख रहे थे और यह सोचते हुए कि उन्हें भी अपना योगदान देना चाहिए. उन्होंने कुछ पत्थर उठाए और समुद्र में डाले. परंतु उनके द्वारा डाले गए पत्थर समुद्र में डूब गए. उन्होंने कई बार प्रयास किए, परंतु उनके द्वारा समुद्र में डाले गए पत्थर डूब ही जाते थे. जबकि तमाम उत्साहित वानर सेना द्वारा डाले गए पत्थर डूबते नहीं थे. राम जी थोड़े परेशान हो गए कि आखिर माजरा क्या है.
हनुमान जी बड़ी देर से राम जी को यह कार्य करते देख रहे थे और मंद ही मंद मुस्कुरा रहे थे. अचानक राम जी की नजर उनपर पड़ी.
हनुमान जी ने कहा – हे प्रभु! जिसको आपने छोड़ दिया, उसे कौन बचाएगा? उसे तो डूबना ही है…
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