श्रंगगिरी पीठ के अनुसार आदि शंकराचार्य का आविर्भाव -काल (According to Sringgiri Ashram, Shankaracharya’s birth – period )
http://parantapmishra.blogspot.com/
श्रंगगिरी पीठ के अनुसार आदि शंकराचार्य का आविर्भाव -काल
by परंतप मिश्र
पूर्व पक्ष :
~~~~~~~~
श्रंगगिरी पीठ के अनुसार ३८८९ कलि संवत आचार्य का अविर्भाव काल है –
निधि नागे भवहंब्दे विभवे मासि माधवे .
शुक्ले तिथि दश्म्याम तु शंकरार्योदयः स्मृतः
यद्यपि कुछ आधुनिक अन्वेषकों ने ‘ काशी में कुम्भकोणंम मठ विषयक विवाद ‘ नामक ग्रन्थ का उद्धरण देकर आचार्य का ६८४इश्वी सन से ७१६ इश्वी सन तक का समय श्रंगगिरी वालों को मान्य बताया है तथा कुछ अन्य विचारकों ने सुरेश्वराचार्य को दीर्घायु बताकर सैकणों वर्ष पूर्व आचार्य को ले जाने की बात लिखी है .कितु १९८८ इश्वी सन में द्वादश शताब्दी मनाने के सम्बन्ध में श्रंगगिरी के शंकराचार्य के साथ जो पत्रव्यवहार हुआ उसमी तत्कालीन पीठाधिपति ने उसे स्वीकृत करते हुए प्रमाणिक बताया .
श्रंगगिरी मठ वालों के अनुसार श्रिंगगिरी के उत्कर्ष को कम करने और अपने महत्व को बढ़ाने के लिए दूसरे मठ वालों ने आचार्य को तेरह सौ वर्ष पीछे ले जाने का निर्णय किया ?
उत्तर पक्ष :~~~~~~~~~~~
श्रंगगिरी मठ की प्राचीन पारंपरिक मान्यता के अनुसार आदिशंकराचार्य का जन्म विक्रम शासन के १४ वे वर्ष में हुआ था .इस सन्दर्भ में माधवाचार्य कृत शंकरदिग्विजय ग्रन्थ के आंग्लभाषांतरकरता श्री रामकृष्ण मठ, मद्रास (सम्प्रति चेन्नई ) के स्वामी तपस्यानंद को तत्कालीन श्रंगगिरी पीठ के शंकराचार्य के व्यक्तिगत सचिव द्वारा लिखे गए एक पत्र का सुसंगत अंश इस प्रकार है –
श्रंगगिरी मठ के अभिलेखों के अनुसार शंकर का जन्म विक्रमादित्य के शासन के १४ वें वर्ष में हुआ था .कहीं भी श्रंगगिरी मठ के अधिकृत व्यक्तियों ने स्वयं इश्वी सन पूर्व अथवा ईस्वी सन पश्चात की अवधी नहीं दी है ‘……………….
‘ सकलनकर्ताओं ने इसको उज्जैन के विक्रमादित्य का संवत मिथ्या उद्धृत किया है. श्री एल.राईस ने सुझाया है कियह चालुक्य विक्रमादित्य के शासन वर्ष में अंकित है जो कि इतिहासकारों के अनुसार ६५५ ई० से ६७० ई० तक शासक थे ‘
उपर्युक्त पत्रांश से स्पष्ट होता है कि श्रंगगिरी के पूर्व शंकराचार्य श्रीमद अभिनवविद्यातीर्थ आचार्यत्व काल ( ई० सन १९५४ से ई० सन १९८९ ) के पूर्व आचार्यों के समय तक श्रंगगिरी मठ कि प्राचीन मान्यता यही थी कि आचार्य शंकर का जन्म किसी विक्रम नामक शासक के १४ वें वर्ष में हुआ था .परन्तु पाश्चात्य विद्वान श्री एल.राईस के सुझाव कि गुरुता प्रदान करते हुए शंकराचार्य श्रीमद अभिनवविद्यातीर्थ के समय में आचार्य शंकर का अविर्भाव काल ई० सन ६६९ मान लिया गया .
श्रंगगिरी मठ के एक अन्य पूर्व शंकराचार्य श्री सच्चिदानंद शिवाभिनव नरसिंह भारती ( ई० सन १८७९ से ई० सन १९१२ ) की आंध्र भाषा में लिखित जीवनी ‘ महान तपस्वी ‘ में श्रंगगिरी मठ की अर्वाचीन मान्यता के अनुसार कालक्रमानुसार एक आचार्यावली प्रस्तुत की गयी है .उस पुस्तक में दिनांक १५-०५-१९६६ ई० की तिथि को मुद्रांकित तत्कालीन शंकराचार्य श्रीमद अभिनवविद्यातीर्थ कस सन्देश भी प्रकाशित किया गया है .ऐसी स्तिथि में पुनः इन्ही आचार्यों द्वारा आचार्य शंकर का अविर्भाव काल ७८८ ई० सन मान लेना जैसा कि पूर्वपक्षी ने लिखा है ,
यह प्रमाणित कर देता है कि इन आचार्यों के पास ऐसा कोई ठोस प्रमाण नहीं था .जिसके आधार पर वे आचार्य शंकर का आविर्भाव काल दृढ़तापूर्वक बता सकते . जिसके कारन अन्य लोगों के सुझाव पर एक बार इन्होने आचार्य शंकर का अविर्भाव काल ई० सन ६६९ तथा दूसरी बार पूर्वपक्षी के सुझाव पर ७८८ ई ० मान लिया
वास्तव में श्रंगगिरी कि परम्परा में जिस विक्रमादित्य के शासन के १४ वें वर्ष में आचार्य शंकर का जन्म होना लिखा है उसका अभिषेक ई० पू ० ५२१ में हुआ था . यह कोई और नहीं बल्कि उज्जैन का रजा चंडप्रद्योत था . चंड का अर्थ विक्रम व वैक्रम तथा प्रद्योत का अर्थ आदित्य शब्दकोष में दिया गया है .जिससे स्पष्ट हो जाता है कि चंडप्रद्योत ,विक्रमादित्य का ही रूपांतर है . कथासरित्सागर में कहा गया है कि इसका यतार्थ नाम विक्रमादित्य था . शत्रुओं के लिए कठिन होने के कारन इशे विशमशील तथा बड़ी सेना रखने के कारन महासेन कहा जाता था . माता काली को इसने अपनी ऊँगली काटकर अर्पित कर दी थी जिसके कारन इसे चंड भी कहते थे . इसने कर्णात आदि देशों के राजाओं को जीत लिया था .ऐसी इस्थिति में कर्णात राज्य के अंतर्गत पड़ने वाले श्रंगगिरी पीठ के प्राचीन अभिलेख में निश्चितरूप से इसी राजा विक्रमादित्य के शासन वर्ष का उल्लेख है .इस नरेश का शासन का १४ वन वर्ष ई० पू ० ५०७ ही प्राप्त होता है .जो कि आदि शंकराचार्य का वास्तविक अविर्भाव काल है .
पूर्वपक्षी द्वारा उद्दृत श्लोक किसी अन्य शंकर नामक शंकराचार्य के जन्म कल को बताता है ,क्योंकि उक्त शंकर का जन्म विभव वर्ष में दशमी के दिन होना लिखा है जबकि आदि शंकराचार्य का जन्म नंदन वर्ष में वैशाख शुक्ल पंचमी के दिन हुआ था .वैसे यह श्लोक श्रंगगिरी मठ की प्राचीन परंपरा का नहीं है .
यह कहना की श्रंगगिरी की प्रतिष्टा को कम करने के लिए अन्य मठों के आचार्यों ने परस्पर विचार कर आदि शंकराचार्य का काल १३०० वर्ष पीछे कर दिया मात्र कुंठा और तुक्छ अहम् का प्रतीक है. आदि शंकराचार्य के अविर्भाव काल पर उनके द्वारा स्थापित चार आम्नाय मठों की प्रतिष्ठा आधारित नहीं है बल्कि इन चरों मठों की प्रतिष्टा इस बात पर आधारित है की उन्होंने इन चार मठों की आम्नाय मठों के रूप में प्रतिष्ठा करके मठाम्नाय-महानुशासनम में इन मठों -शारदा मठ -द्वारका , गोवर्धन मठ -पुरी , ज्योतिर्मठ – बद्रिकाश्रम तथा श्रंगगिरी मठ के पीठाधीश्वर को अपनी प्रतिमूर्ति कह दिया . चारों मठों की प्रतिष्ठा ,सम्मान एवं मर्यादा समान है .
तथा सम्पूर्ण सनातनधर्मावलम्बी इन चारों पीठों के आचार्यों में समान श्रद्धा रखतें हैं .
आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती ने १८७५ ई० सन में लिखित अपने ग्रन्थ ‘ सत्यार्थ प्रकाश ‘ में लिखा है की उनके ग्रन्थ लेखन में २२०० वर्ष पूर्व शंकराचार्य का जन्म हुआ था तो क्या स्वामी दयानंद सरस्वती ने भी अन्य पीठों के शंकराचार्य से मिलकर उनकी प्रतिष्ठा बढ़ाने तथा श्रंगगिरी की प्रतिष्ठा को कम करने के लिए ऐसा लिख दिया ?…………..
प्रथम तीन पीठो के अनुसार आदि शंकराचार्य का आविर्भाव काल (According to the first three Ashrams – emergence period of Adi Shankaracharya)
प्रथम तीन पीठो के अनुसार आदि शंकराचार्य का आविर्भाव काल (According to the first three Ashrams – emergence period of Adi Shankaracharya)
—————————————————————————
पूर्व पक्ष :
आचार्य द्वारा प्रतिस्थापित चार मैथ तो प्रशिद्ध ही है .द्वारका पीठ की वंशानुमात्रिका के अनुसार आचार्य का जन्म युधिस्ठिर शक संवत २६३१ व समाधि युधिस्ठिर शक संवत २६६३ है
गोवर्धन पीठ की वंशानुमात्रिका के अनुसार आचार्य का जन्म २३०० वर्ष पूर्व सिद्ध होता है ज्योतिर्मठ की परंपरा विच्छिन्न होने के कारन वह से जोई निश्चित समय नहीं प्राप्त होता इस प्रकार आचार्य के अविर्भाव काल के सम्बन्ध में इन मठों में मतभेद है ?
=================================================
उत्तरपक्ष :
आचार्य शंकर का अविर्भाव काल उपर्युक्त तीन मठों :पस्चिमाम्नाया श्री शारदा पीठं – द्वारका , पूर्वाम्नाया श्री गोवर्धन पीठं – जगन्नाथ पुरी तथा उत्तराम्नाया श्री ज्योतिष पीठं – बद्रिकाश्रम के अनुशार निम्नाकित है –
श्री शारदा पीठं – द्वारका के पूर्व शंकराचार्य श्रीमद राजराजेश्वरशंकराश्रम द्वारा १८९७ ई ० सन में विरचित ‘ विमर्श ‘ नामक ग्रन्थ के अनुसार आचार्य शंकर का जन्म युधिस्ठिर शक संवत २६३१ वैशाख शुक्ल पंचमी तथा कैलाश गमन युधिस्ठिर शक संवत २६६३ कार्तिक शुक्ल पूर्णिमा लिखा है .
वर्तमान में युधिस्ठिर शक संवत ५१५० वर्त रहा है इसमें आचार्य शंकर के जन्म वर्ष युधिस्ठिर शक संवत २६३१ का वियोग करने पर उनका आविर्भाव काल वर्तमान काल से २५१९ वर्ष पूर्व सिद्ध होता है ,वर्तमान काल में इशवी सन का २०१२ वां वर्ष चल रहा है .अतएव इशवी सन में आचार्य शंकर का आविर्भाव काल इशवी पूर्व ५०७ (२५१९ वर्ष – २०१२ इशवी सन )निश्चित होता है
गोवर्धन मtठ पुरी के अनुसार आदिसंकरार्चार्य का अविर्भाव काल विक्रम संवत पूर्व ४५० में वैशाख शुक्ल पंचमी के दिन हुआ था .वर्तमान काल में विक्रम संवत २०६९ चल रहा है इसमें ४५० वर्ष का योग करने पर आचार्य शंकर का अविर्भाव काल प्राप्त हो जाता है जो की वर्तमान काल से २५१९ वर्ष पूर्व सिद्ध होता है .
विक्रम संवत पूर्व ४५० वर्ष को इशवी सन में परिवर्तित करने पर उसमे ५७ वर्ष का योग करना पड़ेगा क्योंकि विक्रम संवत का प्रवर्तन इशवी सन पूर्व ५८ वे वर्ष में हुआ था .जिसके कारण विक्रम संवत तथा इशवी सन में ५७ वर्ष का अंतर प्राप्त होता है . इसप्रकार आचार्य का अविर्भाव काल इशवी पूर्व ५०७ निश्चित होता है .
ज्योतिर्मठ – बद्रिकाश्रम के अनुसार आचार्य संकर का जन्म कलि संवत २५९५ में वैशाख शुक्ल पंचमी के दिन हुआ था .वर्तमान काल में कलि संवत ५११४ चल रहा है इसमें से आचार्य शंकर का जन्म वर्ष कलि संवत २५९५ का वियोग करने पर आदि आचार्य शंकर का अविर्भाव काल २५१९ वर्ष पूर्व प्राप्त होता है .
कलि संवत का आरम्भ इशवी पूर्व ३१०२ में हुआ था .इसमें से आचार्य शंकर के जन्म वर्ष कलि संवत २५९५ का वियोग करने पर उनका अविर्भाव काल इशवी पूर्व ५०७ निश्चित होता है .
यहाँ यह सपष्ट कर देना प्रासंगिक होगा कि ज्योतिर्मठ की परम्परा भी अविछिन्न है .इस पीठ पर प्रथम आचार्य तोटकाचार्य से ४२ वे आचार्य श्रीरामकृष्ण तीर्थ पर्यंत सभी आचार्य निर्विघ्न समासीन रहे .
इशवी सन १७७६ में श्रीरामकृष्ण तीर्थ के ब्रह्मलीन होने के पश्च्यात इस पीठ के ४३ वे आचार्य टोकरानन्द जी को टिहरी – गढवाल के नरेश प्रदीप शाह ने लोभवश बद्रीनाथ मंदिर के अर्चक पद को नहीं सँभालने दिया .नरेश ने एक नम्बूदरीपाद ब्राह्मन गोपाल नामक ब्रह्मचारी को रावल की उपाधि से विभूषित कर बद्रीनाथ मंदिर के अर्चक पद पर विक्रम संवत १८३३ में समासीन कर दिया ,जिसके कारण श्री टोकरा नन्द जी को ज्योतिर्मठ में रहकर अपने धार्मिक क्र्तिया का निर्वहन करना कठिन हो गया क्योंकि पूर्ववर्ती शंकराचार्यों का आर्थिक श्रोत बद्रीनाथ मंदिर में श्रधालुओ द्वारा अर्पित भेंट उपहार ही था
ऐसी विषम परिस्थिति में ज्योतिर्मठ के ४३ वे आचार्य टोकरा नन्द जी गुजरात प्रान्त के अहमदाबाद जनपद में अवस्थित धोलका चले आये तथा धोलका की धर्मानुरागी जनता के द्वारा प्रदत्त भेंट उपहार की धनराशि से उन्होंने ज्योतिर्मठ के स्थानापन्न मुख्यालय की स्थापना की .ज्योतिर्मठ के इस स्थानापन्न मुख्यालय में श्री टोकरा नन्द समेत कुल ९ आचार्य हुए.
तत्पश्चात इश्वी सन १९४१ में ज्योतिर्मठ बद्रिकाश्रम के मुख्यमठ का जीर्णोद्धार कर वह पर श्री ब्रह्मा नन्द सरस्वती जी का अभिषेक किया गया .श्री ब्रह्मानंद सरस्वती जी के बाद श्री कृष्णबोधाश्रम जी जगद्गुरु शंकराचार्य हुए .श्री कृष्णबोधाश्रम जी के बाद अनंतश्रीविभूषित स्वामी स्वरूपानन्द सरस्वती जी महाराज यहाँ के शंकराचार्य के पद पर अभिषिक्त हुए जो की वर्तमान काल तक पदारूढ़ हैं .
मूल ज्योतिर्मठ की पुनः प्रतिस्ठा हो कने के पश्चात ज्योतिर्मठ का स्थानापन्न मुख्यालय धोलका मठ इश्वी सन १९८६ में ज्योतिर्मठ के वर्तमान शंकराचार्य अनंतश्रीविभूषित स्वामी स्वरूपानन्द सरस्वती जी महाराज को समर्पित कर दिया गया .इस प्रकार यह कहना कि ज्योतिर्मठ कि परंपरा विछिन्न रही ,कोरा भ्रम है .
टोकरा नन्द जी से वर्तमान शंकराचार्य अनंतश्रीविभूषित स्वामी स्वरूपानन्द सरस्वती जी महाराज पर्यंत १२ आचार्य हुए हैं और ब्रह्मचारी गोपाल से वासुदेव पर्यंत बद्रीनाथ मंदिर के कुल १२ ही रावल अब तक हुए हैं .
उपर्युक्त विवरणों से स्पष्ट है कि आचार्य शंकर के आविर्भाव काल के सम्बन्ध में अविछिन्न परंपरा वाले शारदा मठ -द्वारका , गोवर्धन मठ – पूरी एवं ज्योतिर्मठ -बद्रिकाश्रम में पूर्ण मतैक्य है और यर तीनो मठ आचार्य शंकर का अविर्भाव काल वर्तमान काल से २५१९ वर्ष पूर्व तथा कैलाश गमन २४८७ वर्ष पूर्व मानते हैं