“शंकरो शंकर: साक्षात्”
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पारंपरिक मान्यता के अनुसार सनातन धर्म के उन्नायक ,महान दार्शनिक ,वेदांत दर्शन के अद्वुत वायाख्याकर ,प्रचंड मेधा संपन्न शिवावतार भगवान आदिशंकराचार्य का जन्म वर्तमान भारत के केरल प्रान्त में एर्नाकुलम जनपद के कलती नमक ग्राम में युधिस्ठिर शक संवत २६३१ वैशाख शुक्ल पंचमी नंदन वर्ष तदनुसार इशवी सन पूर्व ५०७ में शिवगुरु तथा अर्याम्बा नमक पिता- माता के घर में हुआ था
काल्टी ग्राम केरल के प्रमुख औद्योगिक नगर अलवाये से मात्र १० किलोमीटर दूर है ,एर्नाकुलम जनपद से अलवाये की दूरी २१ किलोमीटर है.आदिशंकराचार्य का कैलाश गमन युधिस्ठिर शक संवत २६६३ कार्तिक पूर्णिमा तदनुसार इशवी सन पूर्व ४७५ में हुआ था
आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती के “सत्यार्थ प्रकाश ” के लेखन काल १८७५ इशवी सन तक उपर्युक्त मान्यता निर्विवाद मान्य थी यह “सत्यार्थ प्रकाश ” से स्पष्ट होता है
इस मान्यता के विरुद्ध बेलगाम हाईस्कूल के अध्यापक ने “इंडियन एंटीक्य्वारी खंड ११ पृष्ठ २६३ (जून १८८२ ई . अंक ) में प्रकाशित अपने एक लेख में लिखा की उन्हें बेलगाम में गोविन्द भट्ट हेर्लेकर के पास से बालबोध प्रकृति की तीन पत्रों की एक पाण्डुलिपि प्राप्त हुई
जिसके अनुसार आदिशंकराचार्य का जन्म विभव वर्ष कलि संवत ३८८९ तथा परलोक गमन कलि संवत ३९२१ वैशाख पूर्णिमा तदनुसार इशवी सन ७७८ – ८२० में हुआ था .
“इंडियन एंटीक्य्वारी खंड १६ पृष्ठ १६१ (ई० सन १८८७ )” में प्रकाशित एक लेख में कालीकट के डब्लू लोगन का अभिमत है की “केरालोत्पत्ति में लिखा है की आदिशंकराचार्य का जन्म ‘सफल वर्ष ‘में हुआ था ,चेरमन पेरूमल ने इस्लाम धर्म अंगीकार कर लिया था .१६ वी सदी के उतरार्ध में लिखी गयी अरबी पुस्तक “तह्फत -उल-मुजाहिदीन ” में लिखा है की जफ़र में एक रजा दफनाया गया था .शिलालेख से ज्ञात होता है की २१२ हिजरी सन तुल्य इशवी सन ८३१-३२ में मृत्यु को प्राप्त हुआ था “
कुरान के अनुसार समीरी अथवा समरियाई का अर्थ ‘बछड़े का पूजक ‘ करते हुए लोगन महोदय ने उक्त कब्र को चेरामन पेरूमल की कब्र बता कर आदिशंकराचार्य को उनका समकालीन मानते हुए श्री पाठक द्वारा सुझाये गए काल ७८८ ई० से ८२० ई ० को आदिशंकराचार्य का काल मन लिया जब की केरालोत्पत्ति के अनुसार उक्त शंकराचार्य का जन्म ई ० सन ४०० में हुआ था तथा वे ३८ वर्ष तक इस धरा धाम पर रहे
पश्श्चतवर्ती बौद्ध विद्वान कमाल्शील ने आदिशंकराचार्य के भाष्य में उद्घृत कुछ पंक्तियों को दिग्नाग की पंक्तिया बताकर अर्वाचीन मत को और बल दिया जिसका अनुशरण अन्य विद्वानों ने भी किया
अंत में काशिका नन्द गिरी महोदय ने “भारतीय अश्मिता और राष्ट्रीय चेतना के आधार जगदगुरू आदिशंकराचार्य ” नमक पुस्तक में प्रकाशित अपने एक लेख ‘भाष्यकार आचार्य भगवत्पाद का आविर्भाव समय’ में उपर्युक्त अर्वाचीन मतावलंबियो के अन्वेषणों को समेकित करते हुए भाष्यकार शंकराचार्य का आविर्भाव काल ७८८ ई ० सन तथा कैलाश गमन काल ८२० ई ० सन प्रमाणिक बताया और अपनी उक्त मान्यता के आधार पर ई ० सन १९८८ में आदिशंकराचार्य के आविर्भाव काल का कथित द्वादश शताब्दी वर्ष समारोह आयोजित किया
यहाँ यह ध्यान देने योग्य तथ्य है की पंडित बलदेव उपाध्याय द्वारा अनुवादित “श्रीशंकरदिग्विजय ” के द्वितीय संस्करण की भूमिका में १९६७ ई ० में स्वामी प्रकाशानंद आचार्य महामंडलेश्वर श्री जगदगुरू आश्रम ,कनखल हरिद्वार ने आचर्य शंकर के पारंपरिक आविर्भाव काल युधिस्ठिर शक संवत २६३१ को ही प्रमाणिक माना है
यह सभी वर्णित पूर्व पक्ष है
आज उपलब्ध हो रहा भारतीय इतिहास एकांगी एवं आंशिक है .बर्बर आक्रामको ने हमारी सभ्यता और संस्कृति दोनों को नष्ट-भ्रष्ट कर डाला
मठ,मंदिर,नगर ,आश्रम ,हस्तशिल्प ,उद्योग व्यापार तथा समुन्नत वैज्ञानिक उपलब्धियों को छिन्न-भिन्न कर डाला और अनंत ज्ञान-भंडार पुस्तकालयों को स्वाहा कर दिया फलस्वरूप शेष रह गए केवल खंडित अवशेश
इन्ही खंड – खंड विकीर्ण भग्नावशेष पर आधारित हुआ हमारा तथाकथित इतिहास जिसको पुरातात्विक उत्खनित सामग्री पूर्णता न दे सकी
पराधीन भारत के गुलाम इतिहासकार पाश्चत्य दिशा निर्देशों /इंगितो के वस्म्व्द रहे .स्वतंत्र चेतना के साथ इतिहास लेखन नहीं हो सका . सारा इतिवृत राजपरिवार विशेष ,नगर विशेष अथवा कालखंड विशेष के ही परिपार्श्व में ही सिमटा रहा अखंड भारत का तारतम्य अक्षुनं इतिहास समग्रता की दृष्टि से नहीं लिखा जा सका
आदिकाल से लेकर आज तक भारत के सांस्कृतिक वृत्त तो नगण्य ही है ,विश्व गुरु भारत का एक भी एषा ग्रन्थ दुर्भाग्य से नहीं लिखा जा सका जो प्राचीनतम भारत से प्रारंभ कर आज तक की सहितियिक,धार्मिक ,कलात्मिका एवं सांस्कृतिक प्रवितियो का परिचय दे सके
संकीर्ण मनोवृति एवं स्वल्पोप्ल्ब्ध खंडित सामग्री के आभाव के कारण अपेक्षाए पूर्ण नहीं हो सकी ,अतः सारा इतिहास अपने -अपने स्पर्श में आये हाथी के अंगो के अन्य वर्णन ,अपूर्ण और हास्यास्पद भी है
ऐसी स्तिथि में हमारी वैचारिक ,दार्शनिक,धार्मिक एवं सांस्कृतिक परम्पराए ही हमारी विकीर्ण तथ्य-शृंखलाओ का ग्रथन करने में सहायक हो सकती है.खेद है की आज के तथाकथित वैज्ञानिक इतिहासकार परम्परा को निराधार,अवैज्ञानिक,आइतिहसिक अथवा पुराकथा मात्र मानकर विषयों का अपलाप करतें हैं
वास्तिवकता तो यह है की परंपरा ही हमें एक सूत्र में पिरोती है,विलुप्त एवं विश्म्रित्प्रय तथ्यों का परिचय देती है,समन्वय हेतु समाधान प्रस्तुत करती है .
आदि जगतगुरु शंकराचार्य भारतीय आध्यात्मिक संस्कृति के पुनर्स्थापक थे उन्होंने अपने शास्त्रार्थ के बल पर ही सभी हिन्दु संत व साधु सम्प्रदायों में व्याप्त भेद विभेद को समाप्त कर अद्वेतवाद के सिद्धांत को प्रतिपादित कर हिन्दु संस्कृति को सनातन-अमर-अजर बना दिया| उन्होंने चार धाम मठो की स्थापना की| बारह ज्योतिर्लिंग व इक्यावन शक्तिपीठों की पहचान कराई और भारतवर्ष को एक अनूठी धर्म-संस्कृति की एकता में पिरो कर विश्व के धर्म मानचित्र पर विलक्षण पहचान प्रदान की है वे साधारण मानव से महामानव बने वे महादेव शिव-शंकर के ही अंश थे|
विकीर्ण खंडित पुरातात्विक अवशेषों के आधार पर भारत का जो भी राजनितिक,सांस्कृतिक,धार्मिक अथवा साहित्यिक इतिहास प्रस्तुत किया जा सका वह आपनी आधार सामग्री के सदृश ही स्वल्प एवं अपूर्ण है
हर्षवर्धन के पूर्व का इतिहास समग्र भारत की समन्वित झांकी भी नहीं दे पा रहा है,उससे पूर्ववर्ती दार्शनिको,आचार्यो ,धर्मधारावो ,ग्रंथो और सामाजिक मान्यताओ का प्रमाणिक वृतांत उपलब्ध नहीं हो पा रहा है .जिससे उनको लेकर अनेक प्रकार की भ्रान्तिया पैदा होती जा रही है .कुछ कुत्सित एवं घृणित राजनितिक स्वार्थसाधक आज राजनीतिक स्वतंत्रता प्राप्ति की अर्धशताब्दी के बाद भी खुले मश्तिष्क से अपने समृद्ध रिक्थ का सही मूल्याङ्कन न करके विवाद उतपन्न करते जा रहे है .
भारत में विभिन्न अवसरों और प्रदेशो में प्रादुर्भूत विचार-धारावो को परस्पर पूरक और संवर्धक न मानकर परस्पर विरुद्ध सिद्ध किया जा रहा है इसी प्रकार विवादग्रस्त बाते भगवत्पाद आद्यश्रीशंकराचार्य के भी विषय में कही जा रही है .उनकी प्राचीनता की समुचित समीक्षा न करके बिना किसी ‘ननु-नच’ के उनको ईशा की ८ वी शताब्दी का माना जा रहा है ,
क्योंकि आज उपलब्ध स्वल्प साक्ष्य इतने परवर्ती है की उनके आधार पर शंकर को और प्राचीन सिद्ध ही नहीं किया जा सकता .प्रशन्नता का विषय यह है की कुछ विद्वानों का द्रिगुन्मेश हो रहा है-आँखे खुल रही है.नए विवेचना के स्रोत प्रस्फुटित हो रहे है और उनके तथा अन्य अन्तः साक्ष्यो के आधार पर निष्पक्ष विचार की प्रक्रिया प्रारम्भ हो चुकी है
आद्यश्रीशंकराचार्य के काल निर्धारण में वैदिक परम्परा की प्रतिद्वंदी बौद्धधारा के ग्रन्थ ,आचार्य और विषय सहायक हो रहे हैं
इसी प्रकार की बाते माध्यमिक ,वैभासिक ,योगाचार और सौतांत्रिक मतों की ‘शारीरक भाष्य ‘में विवेचना के विषय में उठती है .यहाँ केवल सामान्य आधारभूत सिद्धांत का खंडन है ,न की आचार्य विशेस की उक्ति का.इस तथ्य को सभी बौध विद्वान निर्विवाद रूप से स्वीकार करते है की किसी भी आचार्य ने ,चाहे वह वशुबन्धु , हो,असंग हो,मैत्रयनाथ ,आर्यदेव अथवा नागार्जुन हो ,एषा नया कुछ भी नहीं कहा है जिसका उपदेश पूर्ववर्ती बुद्धो ने किसी न किसी रूप में न किया हो.
अतः समस्त सम्प्रदायों का मूल तो बुद्ध वचनों में ही मिलता है ,परवर्ती आचार्य तो मात्र उनको व्यवस्थित करने वाले ही है,प्रचारक है उद्भावक नहीं .बुद्ध भी एक नहीं अब तक के द्वादश कल्पो में कुल मिलाकर तंत्टनकर से लेकर शाक्य मुनि गौतम बुद्ध तक २८ हो चुके है ,मैत्रयनाथ नाम के २९वे बुद्ध का प्रादुर्भाव अभी शेष है जो भविष्य में होगा .
‘बुद्धवंश’ पालिग्रंथ में (नालंदा महाविहार से सन १९५९ ई. में प्रकाशित ) पृष्ठ २९७ से ३८१ पर इनका वर्णन है .किसी कल्प में चार ,किसी में एक ,दो,तीन,अथवा चार बुद्ध हुए है .बुद्ध पद बोधि प्राप्त मनुष्य की उपाधि है नाम विशेष नहीं .
उक्त सभी बुद्ध ऐतिहासिक पुरुष रहे है ,भद्रकल्प में उत्पन्न ककुसंध ,कोणागमन तथा कस्सप इन तीनो के स्तूप – स्मारक श्रावस्ती से निकट अथवा कुछ योजन दूर भारत या नेपाल में मिल रहे है .इनसे इनकी ऐतिहासिकता सिद्ध हो जाती है .गौतम बुध्ह से सम्बद्ध स्तूप और अवशेष तो लोकविदित है ही
इन सभी बुद्धो की विशेषता यह रही की उन्होंने अपनी स्थापनाओ ,मान्यताओ ,विचारो को अपना स्वतंत्र चिंतन नहीं अपितु पूर्ववर्ती बुद्धो द्वारा अनुभव के बाद उपदिष्ट सत्यो का पर्त्रूप मन है – ”बुद्धवंश’ पालिग्रंथ ‘ पृष्ठ ३०४ में यही कहा गया है
अतीत बुधानम जिनान्म देसितम ,
निकीलितम बुद्ध परम्परागतम
पुब्बेनिवाषानुग्ताय बुध्हिया
पकशामी लोकहितम सदेव के .
अर्थात जो एक बुद्ध का उपदेश है ,वह अतीत के बुद्धो ,जिनों द्वारा उपदिष्ट निश्किलित और बुद्धो की परंपरा से आया हुआ है .वह पूर्व जन्म की स्मृति से अनुगत बुद्धी के द्वारा देवताओ सहित मनुष्य लोक के हितार्थ प्रकाशित किया गया है .
इसी प्रकार अन्यत्र “पुब्बकेही महेशीही आसैवितनिसेवितम ” (वही पृष्ठ ३१४) २.१२६ सदृश उक्तिया दृष्टव्य है
संपूर्ण पालि तृपटिक तथा संस्कृत श्रोतो में पूर्व बुद्धो की मान्यताओ और अनुभवों के परवर्ती बुद्धो द्वारा प्रतिपादन का उल्लेख स्थान स्थान पर मिलता है इसी कारन पुर्वारती बुद्ध के उपदेश सब्द्सः और वाक्यसः परवर्ती बुद्ध के कथनों में उधृत हो जाते है .उनका उल्लेख करते समय आचार्य विशेष के वाक्य समझ लिए जाते है .ऐशे ही कुछ बात धर्मकीर्ति तथा अन्य बुद्ध संप्रदाय के सिधान्तो के निरूपण के विषय में भी चरित्रार्थ होती है
आज आवश्यकता है ,समय की अपेक्षा है की वैदिक तथा अवैदिक यावदुपलब्ध समस्त वांग्मय का आधिकारिक आलोडन – विलोडन करके प्राप्त अन्तः साक्ष्यो के सहाय्य से बाह्य साक्ष्यो से संगति बैठते हुए विषय स्थापना की जाये .जहा यह भी पूर्णतः सहायक नहीं हो पाते वह परंपरागत मान्यताओ को भी प्रमाणिक मानकर निष्कर्ष निकला जाये .
कभी कभी तो केवल उत्खनित पुरातात्विक सामग्रियों को ही आधार बनाकर विषय स्थापना हास्यास्पद प्रतीत होगा