अयोध्या की खूनी कहानी जिसे पढ़कर आप रो पड़ेंगे। कृपया सच्चे हिन्दुओं की संतानें ही इस लेख को पढ़ें।
जब बाबर दिल्ली की गद्दी पर आसीन हुआ उस
समय जन्मभूमि सिद्ध महात्मा श्यामनन्द जी महाराज के अधिकार
क्षेत्र में थी।
महात्मा श्यामनन्द की ख्याति सुनकर ख्वाजा कजल अब्बास
मूसा आशिकान अयोध्या आये । महात्मा जी के शिष्य बनकर ख्वाजा कजल अब्बास मूसा ने योग और सिद्धियाँ प्राप्त कर ली और उनका नाम
भी महात्मा श्यामनन्द के ख्यातिप्राप्त शिष्यों में लिया जाने
लगा। ये सुनकर जलालशाह नाम का एक फकीर भी
महात्मा श्यामनन्द के पास आया और उनका शिष्य बनकर सिद्धियाँ प्राप्त करने लगा।
जलालशाह एक कट्टर मुसलमान था, और उसको एक ही सनक थी,
हर जगह इस्लाम का आधिपत्य साबित करना । अत: जलालशाह ने अपने काफिर गुरू की पीठ में छुरा घोंपकर
ख्वाजा कजल अब्बास मूसा के साथ मिलकर ये विचार
किया की यदि इस मदिर को तोड़ कर मस्जिद बनवा दी जाये तो इस्लाम का परचम हिन्दुस्थान में स्थायी हो जायेगा। धीरे
धीरे जलालशाह और ख्वाजा कजल अब्बास मूसा इस साजिश
को अंजाम देने की तैयारियों में जुट गए ।
सर्वप्रथम जलालशाह और ख्वाजा बाबर के विश्वासपात्र बने और दोनों ने अयोध्या को खुर्द
मक्का बनाने के लिए जन्मभूमि के आसपास की जमीनों में बलपूर्वक मृत मुसलमानों को दफन करना शुरू किया॥ और मीरबाँकी खां के माध्यम से बाबर को उकसाकर मंदिर के विध्वंस
का कार्यक्रम बनाया। बाबा श्यामनन्द जी अपने मुस्लिम शिष्यों की करतूत देख के बहुत दुखी हुए और अपने
निर्णय पर उन्हें बहुत पछतावा हुआ। दुखी मन से बाबा श्यामनन्द जी ने
रामलला की मूर्तियाँ सरयू में प्रवाहित किया और खुद हिमालय
की और तपस्या करने चले गए। मंदिर के पुजारियों ने मंदिर के
अन्य सामान आदि हटा लिए और वे स्वयं मंदिर के द्वार पर रामलला की रक्षा के लिए खड़े
हो गए। जलालशाह
की आज्ञा के अनुसार उन चारो पुजारियों के सर काट लिए गए.
जिस समय मंदिर को गिराकर मस्जिद बनाने की घोषणा हुई उस समय भीटी के
राजा महताब सिंह बद्री नारायण की यात्रा करने के लिए
निकले थे,अयोध्या पहुचने पर रास्ते में उन्हें ये खबर
मिली तो उन्होंने अपनी यात्रा स्थगित कर दी और अपनी छोटी सेना में रामभक्तों को शामिल कर १ लाख चौहत्तर हजार लोगो के साथ बाबर की सेना के ४ लाख ५० हजार सैनिकों से लोहा लेने निकल पड़े।
रामभक्तों ने सौगंध ले रक्खी थी रक्त की आखिरी बूंद तक
लड़ेंगे जब तक प्राण है तब तक मंदिर नहीं गिरने देंगे।
रामभक्त वीरता के साथ लड़े ७० दिनों तक घोर
संग्राम होता रहा और अंत में राजा महताब सिंह समेत
सभी १ लाख ७४ हजार रामभक्त मारे गए। श्रीराम जन्मभूमि रामभक्तों के रक्त से लाल हो गयी। इस भीषण कत्ले आम के बाद मीरबांकी ने
तोप लगा के मंदिर गिरवा दिया ।
मंदिर के मसाले से ही मस्जिद का निर्माण
हुआ पानी की जगह मरे हुए हिन्दुओं का रक्त इस्तेमाल
किया गया नीव में लखौरी इंटों के साथ ।
इतिहासकार कनिंघम अपने लखनऊ गजेटियर के
66वें अंक के पृष्ठ 3 पर लिखता है की एक लाख चौहतर हजार
हिंदुओं की लाशें गिर जाने के पश्चात मीरबाँकी अपने मंदिर
ध्वस्त करने के अभियान मे सफल हुआ और उसके बाद
जन्मभूमि के चारो और तोप लगवाकर मंदिर को ध्वस्त कर
दिया गया..
इसी प्रकार हैमिल्टन नाम का एक अंग्रेज बाराबंकी गजेटियर में
लिखता है की ” जलालशाह ने हिन्दुओं के खून का गारा बना के
लखौरी ईटों की नीव मस्जिद बनवाने के लिए दी गयी थी। ”
उस समय अयोध्या से ६ मील की दूरी पर सनेथू नाम का एक गाँव के पंडित देवीदीन पाण्डेय ने वहां के आस पास के
गांवों सराय सिसिंडा राजेपुर आदि के सूर्यवंशीय
क्षत्रियों को एकत्रित किया॥
देवीदीन पाण्डेय ने सूर्यवंशीय क्षत्रियों से
कहा भाइयों आप लोग मुझे अपना राजपुरोहित मानते
हैं ..अप के पूर्वज श्री राम थे और हमारे पूर्वज
महर्षि भरद्वाज जी। आज मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम की जन्मभूमि को मुसलमान
आक्रान्ता कब्रों से पाट रहे हैं और खोद रहे हैं इस परिस्थिति में
हमारा मूकदर्शक बन कर जीवित रहने की बजाय
जन्मभूमि की रक्षार्थ युद्ध करते करते
वीरगति पाना ज्यादा उत्तम होगा॥
देवीदीन पाण्डेय की आज्ञा से दो दिन के भीतर ९० हजार
क्षत्रिय इकठ्ठा हो गए दूर दूर के गांवों से लोग समूहों में
इकठ्ठा हो कर देवीदीन पाण्डेय के नेतृत्व में जन्मभूमि पर
जबरदस्त धावा बोल दिया । शाही सेना से लगातार ५
दिनों तक युद्ध हुआ । छठे दिन मीरबाँकी का सामना देवीदीन
पाण्डेय से हुआ उसी समय धोखे से उसके अंगरक्षक ने एक
लखौरी ईंट से पाण्डेय जी की खोपड़ी पर वार कर दिया। देवीदीन
पाण्डेय का सर बुरी तरह फट गया मगर उस वीर ने अपने
पगड़ी से खोपड़ी से बाँधा और तलवार से उस कायर अंगरक्षक
का सर काट दिया। इसी बीच मीरबाँकी ने
छिपकर गोली चलायी जो पहले ही से घायल देवीदीन पाण्डेय
जी को लगी और वो जन्मभूमि की रक्षा में वीर
गति को प्राप्त हुए..जन्मभूमि फिर से 90 हजार हिन्दुओं के रक्त से लाल हो गयी।
देवीदीन पाण्डेय के
वंशज सनेथू ग्राम के ईश्वरी पांडे का पुरवा नामक जगह पर
अब भी मौजूद हैं॥
पाण्डेय जी की मृत्यु के १५ दिन बाद हंसवर के महाराज
रणविजय सिंह ने सिर्फ २५ हजार सैनिकों के साथ मीरबाँकी की विशाल और शस्त्रों से
सुसज्जित सेना से रामलला को मुक्त कराने के लिए आक्रमण किया । 10 दिन तक युद्ध
चला और महाराज जन्मभूमि के रक्षार्थ
वीरगति को प्राप्त हो गए। जन्मभूमि में 25 हजार हिन्दुओं का रक्त फिर बहा।
रानी जयराज कुमारी हंसवर के स्वर्गीय महाराज रणविजय सिंह
की पत्नी थी।जन्मभूमि की रक्षा में महाराज के
वीरगति प्राप्त करने के बाद महारानी ने उनके कार्य
को आगे बढ़ाने का बीड़ा उठाया और तीन हजार
नारियों की सेना लेकर उन्होंने जन्मभूमि पर हमला बोल
दिया और हुमायूं के समय तक उन्होंने छापामार युद्ध जारी रखा। रानी के गुरु स्वामी महेश्वरानंद जी ने
रामभक्तों को इकठ्ठा करके सेना का प्रबंध करके जयराज
कुमारी की सहायता की। साथ ही स्वामी महेश्वरानंद
जी ने सन्यासियों की सेना बनायीं इसमें उन्होंने २४ हजार
सन्यासियों को इकठ्ठा किया और रानी जयराज कुमारी के
साथ , हुमायूँ के समय में कुल १० हमले जन्मभूमि के उद्धार के
लिए किये। १०वें हमले में शाही सेना को काफी नुकसान
हुआ और जन्मभूमि पर रानी जयराज कुमारी का अधिकार
हो गया।
लेकिन लगभग एक महीने बाद हुमायूँ ने पूरी ताकत से शाही सेना फिर भेजी ,इस युद्ध में स्वामी महेश्वरानंद और
रानी कुमारी जयराज कुमारी लड़ते हुए अपनी बची हुई
सेना के साथ मारे गए और जन्मभूमि पर
पुनः मुगलों का अधिकार हो गया। श्रीराम जन्मभूमि एक बार फिर कुल 24 हजार सन्यासियों और 3 हजार वीर नारियों के रक्त से लाल हो गयी।
रानी जयराज कुमारी और स्वामी महेश्वरानंद जी के बाद यद्ध
का नेतृत्व स्वामी बलरामचारी जी ने अपने हाथ में ले
लिया। स्वामी बलरामचारी जी ने गांव गांव में घूम कर
रामभक्त हिन्दू युवकों और सन्यासियों की एक मजबूत
सेना तैयार करने का प्रयास किया और जन्मभूमि के
उद्धारार्थ २० बार आक्रमण किये. इन २० हमलों में काम से
काम १५ बार स्वामी बलरामचारी ने जन्मभूमि पर
अपना अधिकार कर लिया मगर ये अधिकार अल्प समय के
लिए रहता था थोड़े दिन बाद बड़ी शाही फ़ौज
आती थी और जन्मभूमि पुनः मुगलों के अधीन
हो जाती थी..जन्मभूमि में लाखों हिन्दू बलिदान होते रहे।
उस समय का मुग़ल शासक अकबर था। शाही सेना हर दिन के इन युद्धों से कमजोर हो रही थी.. अतः अकबर ने बीरबल और टोडरमल के
कहने पर खस की टाट से उस चबूतरे पर ३ फीट का एक
छोटा सा मंदिर बनवा दिया. लगातार युद्ध करते रहने के
कारण स्वामी बलरामचारी का स्वास्थ्य
गिरता चला गया था और प्रयाग कुम्भ के अवसर पर
त्रिवेणी तट पर स्वामी बलरामचारी की मृत्यु
हो गयी ..
इस प्रकार बार-बार के
आक्रमणों और हिन्दू जनमानस के रोष एवं हिन्दुस्थान पर मुगलों की
ढीली होती पकड़ से बचने का एक राजनैतिक प्रयास की अकबर की इस कूटनीति से कुछ दिनों के लिए जन्मभूमि में रक्त नहीं बहा।
यही क्रम शाहजहाँ के समय भी चलता रहा।
फिर औरंगजेब के हाथ
सत्ता आई वो कट्टर मुसलमान था और उसने समस्त भारत से काफिरों के सम्पूर्ण सफाये का संकल्प लिया था। उसने लगभग 10 बार अयोध्या मे
मंदिरों को तोड़ने का अभियान चलकर यहाँ के सभी प्रमुख
मंदिरों की मूर्तियों को तोड़ डाला।
औरंगजेब के समय में समर्थ गुरु श्री रामदास
जी महाराज जी के शिष्य श्री वैष्णवदास जी ने
जन्मभूमि के उद्धारार्थ 30 बार आक्रमण किये। इन
आक्रमणों मे अयोध्या के आस पास के गांवों के सूर्यवंशीय
क्षत्रियों ने पूर्ण सहयोग दिया जिनमे सराय के ठाकुर
सरदार गजराज सिंह और राजेपुर के कुँवर गोपाल सिंह
तथा सिसिण्डा के ठाकुर जगदंबा सिंह प्रमुख थे। ये सारे
वीर ये जानते हुए भी की उनकी सेना और हथियार
बादशाही सेना के सामने कुछ भी नहीं है अपने जीवन के
आखिरी समय तक शाही सेना से लोहा लेते रहे। लम्बे समय तक चले इन युद्धों में रामलला को मुक्त कराने के लिए हजारों हिन्दू वीरों ने अपना बलिदान दिया और अयोध्या की धरती पर उनका रक्त बहता रहा।
ठाकुर
गजराज सिंह और उनके साथी क्षत्रियों के वंशज आज भी सराय मे मौजूद हैं। आज
भी फैजाबाद जिले के आस पास के सूर्यवंशीय क्षत्रिय
सिर पर
पगड़ी नहीं बांधते,जूता नहीं पहनते, छता नहीं लगाते,
उन्होने अपने पूर्वजों के सामने ये प्रतिज्ञा ली थी की जब
तक श्री राम जन्मभूमि का उद्धार नहीं कर लेंगे तब तक
जूता नहीं पहनेंगे,छाता नहीं लगाएंगे, पगड़ी नहीं पहनेंगे।
1640 ईस्वी में औरंगजेब ने मन्दिर को ध्वस्त करने के लिए जबांज खाँ के नेतृत्व में एक
जबरजस्त सेना भेज दी थी, बाबा वैष्णव दास के साथ साधुओं की एक
सेना थी जो हर विद्या मे निपुण थी इसे
चिमटाधारी साधुओं की सेना भी कहते थे । जब
जन्मभूमि पर जबांज खाँ ने आक्रमण किया तो हिंदुओं के
साथ चिमटाधारी साधुओं की सेना की सेना मिल
गयी और उर्वशी कुंड नामक जगह पर जाबाज़ खाँ
की सेना से सात दिनों तक भीषण युद्ध किया ।
चिमटाधारी साधुओं के चिमटे के मार से
मुगलों की सेना भाग खड़ी हुई। इस प्रकार चबूतरे पर स्थित
मंदिर की रक्षा हो गयी ।
जाबाज़ खाँ की पराजित सेना को देखकर औरंगजेब बहुत
क्रोधित हुआ और उसने जाबाज़ खाँ को हटाकर एक अन्य
सिपहसालार सैय्यद हसन अली को 50 हजार
सैनिकों की सेना और तोपखाने के साथ अयोध्या की ओर भेजा और साथ मे
ये आदेश दिया की अबकी बार जन्मभूमि को बर्बाद करके वापस आना है ,यह समय सन् 1680 का था ।
बाबा वैष्णव दास ने सिक्खों के
गुरु गुरुगोविंद सिंह से युद्ध मे सहयोग के लिए पत्र के
माध्यम संदेश भेजा । पत्र पाकर गुरु गुरुगोविंद सिंह सेना समेत तत्काल अयोध्या आ
गए और ब्रहमकुंड पर अपना डेरा डाला । ब्रहमकुंड वही जगह जहां आजकल गुरुगोविंद सिंह
की स्मृति मे सिक्खों का गुरुद्वारा बना हुआ है।
बाबा वैष्णव दास एवं सिक्खों के
गुरुगोविंद सिंह रामलला की रक्षा हेतु एकसाथ रणभूमि में कूद पड़े ।इन वीरों कें सुनियोजित हमलों से
मुगलो की सेना के पाँव उखड़ गये सैय्यद हसन
अली भी युद्ध मे मारा गया। औरंगजेब हिंदुओं की इस
प्रतिक्रिया से स्तब्ध रह गया था और इस युद्ध के बाद 4 साल तक उसने अयोध्या पर
हमला करने की हिम्मत नहीं की।
औरंगजेब ने सन् 1664 मे एक बार फिर श्री राम
जन्मभूमि पर आक्रमण किया । इस
भीषण हमले में शाही फौज ने लगभग 10 हजार से ज्यादा हिंदुओं
की हत्या कर दी नागरिकों तक को नहीं छोड़ा। जन्मभूमि हिन्दुओं के रक्त से लाल हो गयी। जन्मभूमि के अंदर नवकोण के एक कंदर्प कूप
नाम का कुआं था, सभी मारे गए हिंदुओं की लाशें मुगलों ने
उसमे फेककर चारों ओर चहारदीवारी उठा कर उसे घेर
दिया। आज भी कंदर्पकूप “गज शहीदा” के नाम से प्रसिद्ध
है,और जन्मभूमि के पूर्वी द्वार पर स्थित है।
शाही सेना ने जन्मभूमि का चबूतरा खोद डाला बहुत
दिनो तक वह चबूतरा गड्ढे के रूप मे वहाँ स्थित था ।
औरंगजेब के क्रूर अत्याचारो की मारी हिन्दू जनता अब
उस गड्ढे पर ही श्री रामनवमी के दिन भक्तिभाव से
अक्षत,पुष्प और जल चढाती रहती थी.
नबाब सहादत अली के समय 1763 ईस्वी में जन्मभूमि के रक्षार्थ अमेठी के राजा गुरुदत्त सिंह और पिपरपुर के
राजकुमार सिंह के नेतृत्व मे बाबरी ढांचे पर पुनः पाँच
आक्रमण किये गये जिसमें हर बार हिन्दुओं की लाशें अयोध्या में गिरती रहीं।
लखनऊ गजेटियर मे कर्नल हंट लिखता है की
“ लगातार हिंदुओं के हमले से ऊबकर नबाब ने हिंदुओं और
मुसलमानो को एक साथ नमाज पढ़ने और भजन करने
की इजाजत दे दी पर सच्चा मुसलमान होने के नाते उसने काफिरों को जमीन नहीं सौंपी।
“लखनऊ गजेटियर पृष्ठ 62”
नासिरुद्दीन हैदर के समय मे मकरही के
राजा के नेतृत्व में जन्मभूमि को पुनः अपने रूप मे लाने के
लिए हिंदुओं के तीन आक्रमण हुये जिसमें बड़ी संख्या में हिन्दू मारे गये। परन्तु तीसरे आक्रमण में डटकर
नबाबी सेना का सामना हुआ 8वें दिन हिंदुओं
की शक्ति क्षीण होने लगी ,जन्मभूमि के मैदान मे हिन्दुओं
और मुसलमानो की लाशों का ढेर लग गया । इस
संग्राम मे भीती,हंसवर,,मकरही,खजुरहट,दीयरा अमेठी के
राजा गुरुदत्त सिंह आदि सम्मलित थे। हारती हुई हिन्दू सेना के साथ वीर चिमटाधारी साधुओं की सेना आ
मिली और इस युद्ध मे शाही सेना के चिथड़े उड गये और
उसे रौंदते हुए हिंदुओं ने जन्मभूमि पर कब्जा कर लिया।
मगर हर बार की तरह कुछ दिनो के बाद विशाल शाही सेना ने
पुनः जन्मभूमि पर अधिकार कर लिया और हजारों हिन्दुओं को मार डाला गया। जन्मभूमि में हिन्दुओं का रक्त प्रवाहित होने लगा।
नावाब वाजिदअली शाह के समय के समय मे पुनः हिंदुओं ने जन्मभूमि के
उद्धारार्थ आक्रमण किया । फैजाबाद गजेटियर में कनिंघम ने लिखा
“इस संग्राम मे बहुत ही भयंकर खूनखराबा हुआ ।दो दिन
और रात होने वाले इस भयंकर युद्ध में सैकड़ों हिन्दुओं के मारे जाने के बावजूद हिन्दुओं नें राम जन्मभूमि पर कब्जा कर लिया। क्रुद्ध हिंदुओं
की भीड़ ने कब्रें तोड़ फोड़ कर
बर्बाद कर डाली मस्जिदों को मिसमार करने लगे और पूरी ताकत से मुसलमानों को मार-मार कर अयोध्या से खदेड़ना शुरू किया।मगर
हिन्दू भीड़ ने मुसलमान स्त्रियों और बच्चों को कोई
हानि नहीं पहुचाई।
अयोध्या मे प्रलय मचा हुआ था ।
इतिहासकार कनिंघम लिखता है की ये
अयोध्या का सबसे बड़ा हिन्दू मुस्लिम बलवा था।
हिंदुओं ने अपना सपना पूरा किया और
औरंगजेब द्वारा विध्वंस किए गए चबूतरे को फिर वापस
बनाया । चबूतरे पर तीन फीट ऊँची खस की टाट से एक
छोटा सा मंदिर बनवा लिया ॥जिसमे
पुनः रामलला की स्थापना की गयी।
कुछ जेहादी मुल्लाओं को ये बात स्वीकार नहीं हुई और कालांतर में जन्मभूमि फिर हिन्दुओं के हाथों से निकल गयी।
सन 1857 की क्रांति मे बहादुर
शाह जफर के समय में बाबा रामचरण दास ने एक मौलवी आमिर अली के साथ जन्मभूमि के उद्धार का प्रयास किया पर
18 मार्च सन 1858 को कुबेर टीला स्थित एक इमली के
पेड़ मे दोनों को एक
साथ अंग्रेज़ो ने फांसी पर लटका दिया ।
जब अंग्रेज़ो ने ये
देखा कि ये पेड़ भी देशभक्तों एवं रामभक्तों के लिए एक
स्मारक के रूप मे विकसित हो रहा है तब उन्होने इस पेड़
को कटवा कर इस आखिरी निशानी को भी मिटा दिया…
इस प्रकार अंग्रेज़ो की कुटिल नीति के कारण रामजन्मभूमि के उद्धार का यह प्रयास विफल हो गया …
अन्तिम बलिदान …
३० अक्टूबर १९९० को हजारों रामभक्तों ने वोट-बैंक के लालची मुलायम सिंह यादव के द्वारा खड़ी की गईं
अनेक बाधाओं को पार कर अयोध्या में प्रवेश किया और
विवादित ढांचे के ऊपर भगवा ध्वज फहरा दिया।
लेकिन २ नवम्बर १९९०
को मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने कारसेवकों पर
गोली चलाने का आदेश दिया, जिसमें सैकड़ों
रामभक्तों ने अपने जीवन की आहुतियां दीं। सरकार ने मृतकों की असली संख्या छिपायी परन्तु प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार सरयू तट रामभक्तों की लाशों से पट गया था।
४ अप्रैल १९९१ को कारसेवकों के हत्यारे,
उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने
इस्तीफा दिया।
लाखों राम भक्त ६ दिसम्बर
को कारसेवा हेतु अयोध्या पहुंचे और राम जन्मस्थान पर बाबर
के सेनापति द्वार बनाए गए अपमान के प्रतीक
मस्जिदनुमा ढांचे को ध्वस्त कर दिया।
परन्तु हिन्दू समाज के अन्दर व्याप्त घोर संगठनहीनता एवं नपुंसकता के कारण आज भी हिन्दुओं के सबसे बड़े आराध्य भगवान श्रीराम एक फटे हुए तम्बू में विराजमान हैं।
जिस जन्मभूमि के उद्धार के लिए हमारे पूर्वजों ने अपना रक्त पानी की तरह बहाया। आज वही हिन्दू बेशर्मी से इसे “एक विवादित स्थल” कहता है।
सदियों से हिन्दुओं के साथ रहने वाले मुसलमानों ने आज भी जन्मभूमि पर अपना दावा नहीं छोड़ा है। वो यहाँ किसी भी हाल में मन्दिर नहीं बनने देना चाहते हैं ताकि हिन्दू हमेशा कुढ़ता रहे और उन्हें नीचा दिखाया जा सके।
जिस कौम ने अपने ही भाईयों की भावना को नहीं समझा वो सोचते हैं हिन्दू उनकी भावनाओं को समझे। आज तक किसी भी मुस्लिम संगठन ने जन्मभूमि के उद्धार के लिए आवाज नहीं उठायी, प्रदर्शन नहीं किया और सरकार पर दबाव नहीं बनाया आज भी वे बाबरी-विध्वंस की तारीख 6 दिसम्बर को काला दिन मानते हैं। और मूर्ख हिन्दू समझता है कि राम जन्मभूमि राजनीतिज्ञों और मुकदमों के कारण उलझा हुआ है।
ये लेख पढ़कर पता नहीं कितने हिन्दुओं को शर्म आयी परन्तु विश्व हिन्दू परिषद के कार्यकर्ता एक दिन श्रीराम जन्मभूमि का उद्धार कर वहाँ मन्दिर अवश्य बनाएंगे। चाहे अभी और कितना ही बलिदान क्यों ना देना पड़े।
जय श्री राम..।
Day: December 7, 2014
“शंकरो शंकर: साक्षात्”
“शंकरो शंकर: साक्षात्”
श्रंगगिरी पीठ के अनुसार आदि शंकराचार्य का आविर्भाव -काल (According to Sringgiri Ashram, Shankaracharya’s birth – period )
श्रंगगिरी पीठ के अनुसार आदि शंकराचार्य का आविर्भाव -काल (According to Sringgiri Ashram, Shankaracharya’s birth – period )
श्रंगगिरी पीठ के अनुसार आदि शंकराचार्य का आविर्भाव -काल
पूर्व पक्ष :
निधि नागे भवहंब्दे विभवे मासि माधवे .
शुक्ले तिथि दश्म्याम तु शंकरार्योदयः स्मृतः
यद्यपि कुछ आधुनिक अन्वेषकों ने ‘ काशी में कुम्भकोणंम मठ विषयक विवाद ‘ नामक ग्रन्थ का उद्धरण देकर आचार्य का ६८४इश्वी सन से ७१६ इश्वी सन तक का समय श्रंगगिरी वालों को मान्य बताया है तथा कुछ अन्य विचारकों ने सुरेश्वराचार्य को दीर्घायु बताकर सैकणों वर्ष पूर्व आचार्य को ले जाने की बात लिखी है .कितु १९८८ इश्वी सन में द्वादश शताब्दी मनाने के सम्बन्ध में श्रंगगिरी के शंकराचार्य के साथ जो पत्रव्यवहार हुआ उसमी तत्कालीन पीठाधिपति ने उसे स्वीकृत करते हुए प्रमाणिक बताया .
श्रंगगिरी मठ वालों के अनुसार श्रिंगगिरी के उत्कर्ष को कम करने और अपने महत्व को बढ़ाने के लिए दूसरे मठ वालों ने आचार्य को तेरह सौ वर्ष पीछे ले जाने का निर्णय किया ?
उत्तर पक्ष :~~~~~~~~~~~
प्रथम तीन पीठो के अनुसार आदि शंकराचार्य का आविर्भाव काल (According to the first three Ashrams – emergence period of Adi Shankaracharya)
प्रथम तीन पीठो के अनुसार आदि शंकराचार्य का आविर्भाव काल (According to the first three Ashrams – emergence period of Adi Shankaracharya)
पूर्व पक्ष :
आचार्य द्वारा प्रतिस्थापित चार मैथ तो प्रशिद्ध ही है .द्वारका पीठ की वंशानुमात्रिका के अनुसार आचार्य का जन्म युधिस्ठिर शक संवत २६३१ व समाधि युधिस्ठिर शक संवत २६६३ है
गोवर्धन पीठ की वंशानुमात्रिका के अनुसार आचार्य का जन्म २३०० वर्ष पूर्व सिद्ध होता है ज्योतिर्मठ की परंपरा विच्छिन्न होने के कारन वह से जोई निश्चित समय नहीं प्राप्त होता इस प्रकार आचार्य के अविर्भाव काल के सम्बन्ध में इन मठों में मतभेद है ?
उत्तरपक्ष :
आचार्य शंकर का अविर्भाव काल उपर्युक्त तीन मठों :पस्चिमाम्नाया श्री शारदा पीठं – द्वारका , पूर्वाम्नाया श्री गोवर्धन पीठं – जगन्नाथ पुरी तथा उत्तराम्नाया श्री ज्योतिष पीठं – बद्रिकाश्रम के अनुशार निम्नाकित है –
आदिशङ्कराचार्य का काल और इतिहास(भाग – ४) Adishankracharya period and Historical Facts Part – 4
आदिशंकराचार्य का काल और इतिहास( भाग -१ ) (Adishankracharya period and Historical Facts Part – 1 )
आदिशंकराचार्य का काल और इतिहास( भाग -१ )
(Adishankracharya period and Historical Facts Part – 1 )
आदिशंकराचार्य का काल और इतिहास(भाग – २) Adishankracharya period and Historical Facts Part – 2)
का काल और इतिहास(भाग – ३) Adishankracharya period and Historical Facts Part – 3
आदिशङ्कराचार्य का काल और इतिहास(भाग – ४) Adishankracharya period and Historical Facts Part – 4
चार संप्रदाय प्रवर्तक बुद्ध
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अतएव यह कहना सर्वथा अयुक्तियुक्त एवं असंगत है कि उपर्युक्त चारो सम्प्रदायों का विकास गौतम बुद्ध (Siddhārtha Gautama Buddha )के पश्चात हुआ .परवर्ती विद्वानों ने तो केवल प्राचीन बौद्ध सिद्धांतो कि व्याख्या एवं मंडन किया है न कि प्रवर्तन.
वास्तव में नागार्जुन (Nāgārjuna) कृत प्रज्ञापारमिता सूत्र (Prajñāpāramitā sūtras) शास्त्रपंचविंशतिसाहस्त्रिकाप्रज्ञापारमिता की टीका है । इसी कारण भ्रम वश नागार्जुन (Nāgārjuna) को शतसाहस्त्रिकाप्रज्ञापारमिता का रचियता मान लिया गया ।कम से कम नागार्जुन महायान (( Mahāyāna )के प्रतिष्ठापक नहीं है ,क्योंकि इसमें संदेह नहीं कि उनसे बहुत पहले ही महायान सूत्रों ( Mahāyāna Mahāparinirvāṇa Sūtra) कि रचना हो चुकी थी ‘ ।
शरीर का दर्द
हार्ट अटैक: ना घबराये ……!!
हार्ट अटैक: ना घबराये ……!!!
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सहज सुलभ उपाय ….
99 प्रतिशत ब्लॉकेज को भी रिमूव कर देता है पीपल का पत्ता….
पीपल के 15 पत्ते लें जो कोमल गुलाबी कोंपलें न हों, बल्कि पत्ते हरे, कोमल व भली प्रकार विकसित हों। प्रत्येक का ऊपर व नीचे का कुछ भाग कैंची से काटकर अलग कर दें। पत्ते का बीच का भाग पानी से साफ कर लें। इन्हें एक गिलास पानी में धीमी आँच पर पकने दें। जब पानी उबलकर एक तिहाई रह जाए तब ठंडा होने पर साफ कपड़े से छान लें और उसे ठंडे स्थान पर रख दें, दवा तैयार। इस काढ़े की तीन खुराकें बनाकर प्रत्येक तीन घंटे बाद प्रातः लें। हार्ट अटैक के बाद कुछ समय हो जाने के पश्चात लगातार पंद्रह दिन तक इसे लेने से हृदय पुनः स्वस्थ हो जाता है और फिर दिल का दौरा पड़ने की संभावना नहीं रहती।
दिल के रोगी इस नुस्खे का एक बार प्रयोग अवश्य करें।
* पीपल के पत्ते में दिल को बल और शांति देने की अद्भुत क्षमता है।
* इस पीपल के काढ़े की तीन खुराकें सवेरे 8 बजे, 11 बजे व 2 बजे ली जा सकती हैं।
* खुराक लेने से पहले पेट एक दम खाली नहीं होना चाहिए, बल्कि सुपाच्य व हल्का नाश्ता करने के बाद ही लें।
* प्रयोगकाल में तली चीजें, चावल आदि न लें। मांस, मछली, अंडे, शराब, धूम्रपान का प्रयोग बंद कर दें। नमक, चिकनाई का प्रयोग बंद कर दें।
* अनार, पपीता, आंवला, बथुआ, लहसुन, मैथी दाना, सेब का मुरब्बा, मौसंबी, रात में भिगोए काले चने, किशमिश, गुग्गुल, दही, छाछ आदि लें । ……
तो अब समझ आया, भगवान ने पीपल के पत्तों को हार्टशेप क्यों बनाया..
शेयर करना ना भूले….. शेयर करना ना भूले….. शेयर करना ना भूले…..!!!
Copid

Sushma Swaraj urges Centre to declare Bhagwad Gita as national holy book
Sushma Swaraj urges Centre to declare Bhagwad Gita as national holy book
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प्रासाद स्तवन – आठ-आठ देव प्रासाद

प्रासाद स्तवन – आठ-आठ देव प्रासाद
धार के परमार नरेश राजा भोज (1015-1045 ई.) के लिखे ‘समरागण सूत्रधार’ में प्रासादों की प्रशस्ति में ऐसे 64 प्रकार के मंदिरों का उल्लेख है जो प्रशंसा के योग्य हैं। इसमें चौंसठ मंदिरों का जिक्र है और उनको संबंधित देवताओं के लिए बनाने का निर्देश है। प्रत्येक देवता के लिए आठ आठ प्रकार के प्रासाद बताए गए हैं।ये प्रासाद शिव, विष्णु, ब्रह्मा, सूर्य, चंडिका, गणेश, लक्ष्मी और अन्य देवताओं के लिए हैं। प्रासादों की शैली या देवताओं की प्रतिष्ठा के अनुसार उनके लक्षणों काे पहचाना जा सकता है।
1. शिव प्रासाद – विमान, सर्वतोभद्र, गजपृष्ठ, पद्मक, वृषभ, मुक्तकोण, नलिन और द्राविड।
2. विष्णु प्रासाद – गरुड, वर्धमान, शंखावर्त, पुष्पक, गृहराज, स्वस्तिक, रुचक और पुंडवर्धन।
3. ब्रह्मा प्रासाद – मेरु, मंदर, कैलास, हंस, भद्र, उत्तुंग, मिश्रक व मालाधर।
4. सूर्य प्रासाद – गवय, चित्रकूट, किरण, सर्वसुंदर, श्रीवत्स, पद्मनाभ, वैराज और वृत्त।
5. चडिका प्रासाद – नंद्यावर्त, वलभ्य, सुपर्ण, सिंह, विचित्र, योगपीठ, घंटानाद व पताकिन।
6. विनायक प्रासाद – गुहाधर, शालाक, वेणुभद्र, कुंजर, हर्ष, विजय, उदकुंभ व मोदक।
7. लक्ष्मी प्रासाद – महापद्म, हर्म्य, उज्जर्यन्त, गन्धमादन, शतशृंग, अनवद्यक, सुविभ्रान्त और मनोहारी।
इसके अलावा वृत्त, वृत्तायत, चैत्य, किंकिणी, लयन, पट्टिश, विभव और तारागण नामक प्रासाद और बताए गए हैं जो सभी देवताओं के लिए हो सकते हैं। यहां लयन प्रासादों का विवरण रोचक है, यह पर्वतों को काटकर बनाए गए गुहागृहों या प्रासादों के लिए है (जैसा कि अलोरा का चित्र दिखा रहा है), ये कौतुक है या सचमुच,,, बस सोचना है। इसके बारे में कभी फिर…
जानिये भारत भूमी के बारे मे विदेशीयो कि राय
जानिये भारत भूमी के बारे मे विदेशीयो कि राय
जरुर पढना—-
1. अलबर्ट आइन्स्टीन – हम भारत के बहुत ऋणी हैं, जिसने हमें गिनती सिखाई, जिसके बिना कोई भी सार्थक वैज्ञानिक खोज संभव नहीं हो पाती।
2. रोमां रोलां (फ्रांस) – मानव ने आदिकाल से जो सपने देखने शुरू किये, उनके साकार होने का इस धरती पर कोई स्थान है, तो वो है भारत।
3. हू शिह (अमेरिका में चीन राजदूत)- सीमा पर एक भी सैनिक न भेजते हुए भारत ने बीस सदियों तक सांस्कृतिक धरातल पर चीन को जीता और उसे प्रभावित भी किया।…
4. मैक्स मुलर- यदि मुझसे कोई पूछे की किस आकाश के तले मानव मन अपने अनमोल उपहारों समेत पूर्णतया विकसित हुआ है, जहां जीवन की जटिल समस्याओं का गहन विश्लेषण हुआ और समाधान भी प्रस्तुत किया गया, जो उसके भी प्रसंशा का पात्र हुआ जिन्होंने प्लेटो और कांट का अध्ययन किया,तो मैं भारत का नाम लूँगा।
5. मार्क ट्वेन- मनुष्य के इतिहास में जो भी मूल्यवान और सृजनशील सामग्री है, उसका भंडार अकेले भारत में है।
6. आर्थर शोपेन्हावर – विश्व भर में ऐसा कोई अध्ययन नहीं है जो उपनिषदों जितना उपकारी और उद्दत हो। यही मेरे जीवन को शांति देता रहा है, और वही मृत्यु में भी शांति देगा।
7. हेनरी डेविड थोरो – प्रातः काल मैं अपनी बुद्धिमत्ता को अपूर्व और ब्रह्माण्डव्यापी गीताके तत्वज्ञान से स्नान करता हूँ, जिसकी तुलना में हमारा आधुनिक विश्व और उसका साहित्य अत्यंत क्षुद्र और तुच्छ जन पड़ता है।
8. राल्फ वाल्डो इमर्सन – मैं भगवत गीता का अत्यंत ऋणी हूँ। यह पहला ग्रन्थ है जिसे पढ़कर मुझे लगा की किसी विराट शक्ति से हमारा संवाद हो रहा है।
9. विल्हन वोन हम्बोल्ट- गीता एक अत्यंत सुन्दर और संभवतः एकमात्र सच्चा दार्शनिक ग्रन्थ है जो किसी अन्य भाषा में नहीं। वह एक ऐसी गहन और उन्नत वस्तु है जैस पर सारी दुनिया गर्व कर सकतीहै।
10. एनी बेसेंट -विश्व के विभिन्न धर्मों का लगभग ४० वर्ष अध्ययन करने के बाद मैं इस नतीजेपर पहुंची हूँ की हिंदुत्व जैसा परिपूर्ण, वैज्ञानिक, दार्शनिक और अध्यात्मिक धर्म और कोई नहीं।
इसमें कोई भूल न करे की बिना हिंदुत्व के भारत का कोई भविष्य नहीं है।
हिंदुत्व ऐसी भूमिहै जिसमे भारत की जड़े गहरे तक पहुंची है,
उन्हें यदि उखाड़ा गया तो यह महावृक्ष निश्चय ही अपनी भूमि से उखड जायेगा।
हिन्दू ही यदि हिंदुत्व की रक्षा नही करेंगे, तो कौन करेगा?
अगर भारत के सपूत हिंदुत्व में विश्वास नहीं करेंगे तो कौन उनकी रक्षा करेगा? भारत ही भारत की रक्षा करेगा।
भारत और हिंदुत्व एक ही है।
उत्तर प्रदेश के खजुहा में चल रही ५२५ साल पुरानी रामलीला
उत्तर प्रदेश के खजुहा में चल रही ५२५ साल पुरानी रामलीला
मार्गशीर्ष शुक्लपक्ष एकादशी, कलियुग वर्ष ५११६
यूपी में एक ऐसी जगह है जहां इस समय रामलीला का मंचन हो रहा है. सुनने में यह बात भले ही अटपटी लगती है, लेकिन है सोलह आने सच. फतेहपुर जिले में खजुहा कस्बे का ऐतिहासिक मेला इन दिनों अपने शबाब पर है. इस मेले की खासियत है कि ये दशहरा के दिन से शुरू होता है और उसके बाद यहां रामलीला शुरू होती है. यहां दशहरा के बाद रामलीला मनाने की परंपरा लगभग 525 वर्ष से चली आ रही है.यह रामलीला रामनगर (बनारस) सहित पूरे उत्तर भारत में प्रसिद्ध है, जो आश्विन शुल्क पक्ष की तृतीया से शुरू होकर कार्तिक पक्ष की षष्ठी तक चलती है. यहां एक माह तक कुशल कारीगरों द्वारा कास्ट एवं तिनरई से विशालकाय रावण व रामदल के स्वरूपों का निर्माण किया जाता है. साथ ही पंचवटी, चित्रकूट, सबरी आश्रम, किष्किंधा पर्वत, अशोक वाटिका, सेतुबंध रामेश्वर और लंका का स्वरूप भी तैयार किया जाता है.
मेले की शुरुआत गणेश पूजन के साथ होती है. इस दिन मंदिर के पुजारी व्रत रखते हैं. रावण वध के बाद सरयू स्नान के साथ रावण की 13वीं में यहां ब्रह्मभोज भी कराया जाता है. इन रस्मों को देखने यहां दूर-दराज से लोग आते हैं. मेले में छोटी-बड़ी लगभग दो दर्जन झांकियां सजाई जाती हैं. राम-रावण युद्ध के दिन लाखों की तादाद में लोग जुटते हैं. इसमें प्रशासनिक अधिकारी और जनप्रतिनिधि भी शामिल होते हैं.
इस रामलीला की चर्चा फतेहपुर जिले में ही नहीं, बल्कि संपूर्ण उत्तर भारत में होती रही है. मेला कमेटी के अध्यक्ष दयाराम उत्तम ने बताया कि दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित भी कई बार यहां आ चुकी हैं. खजुहा कस्बे का ऐतिहासिक परिचय सुनकर लोग चकित रह जाते हैं हालांकि शासन-प्रशासन की उपेक्षा के चलते इस कस्बे की साख दिन-प्रतिदिन खत्म हो रही है.
बिंदकी तहसील से लगभग सात किलोमीटर दूर मुगल रोड आगरा मार्ग पर स्थित खजुहा कस्बे में दो विशालकाय फाटक व सराय आज भी इसकी बुलंदियां बयां करती हैं. मुगल रोड के उत्तर में तीन राम जानकी मंदिर तथा तीन विशालकाय शिवालय हैं.
उत्तम ने बताया कि दक्षिण में छिन्न मस्तिष्का मां पंथेश्वरी देवी का प्राचीन व बंशी वाला मठ, भूरा बाबा की समाधि स्थल है. बड़ी बाजार में तीन राधाकृष्ण मंदिर है. इस प्राचीन सांस्कृतिक नगरी में 118 छोटे-बड़े शिवालय तथा इतने ही कुएं हैं. चार विशालकाय तालाब इस नगर की चारों दिशाओं में शोभायमान है, जो इस नगर के स्वर्णिम युग की याद दिलाते हैं.
विदेशी पर्यटक आज भी इस नगरी की प्राचीनतम धरोहरों को देखने आते हैं, लेकिन शासन-प्रशासन की उपेक्षा के कारण यह गौरवमयी नगरी अपना अस्तित्व बचा पाने में असफल साबित हो रही है. कहा जाता है कि इस नगरी में एक ऐसी सुरंग बनी थी, जिसके अंदर राजा-महाराजा घुड़सवारी कर दिल्ली तक का सफर तय करते थे.