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अयोध्या की खूनी कहानी जिसे पढ़कर आप रो पड़ेंगे।


अयोध्या की खूनी कहानी जिसे पढ़कर आप रो पड़ेंगे। कृपया सच्चे हिन्दुओं की संतानें ही इस लेख को पढ़ें।
जब बाबर दिल्ली की गद्दी पर आसीन हुआ उस
समय जन्मभूमि सिद्ध महात्मा श्यामनन्द जी महाराज के अधिकार
क्षेत्र में थी।
महात्मा श्यामनन्द की ख्याति सुनकर ख्वाजा कजल अब्बास
मूसा आशिकान अयोध्या आये । महात्मा जी के शिष्य बनकर ख्वाजा कजल अब्बास मूसा ने योग और सिद्धियाँ प्राप्त कर ली और उनका नाम
भी महात्मा श्यामनन्द के ख्यातिप्राप्त शिष्यों में लिया जाने
लगा। ये सुनकर जलालशाह नाम का एक फकीर भी
महात्मा श्यामनन्द के पास आया और उनका शिष्य बनकर सिद्धियाँ प्राप्त करने लगा।
जलालशाह एक कट्टर मुसलमान था, और उसको एक ही सनक थी,
हर जगह इस्लाम का आधिपत्य साबित करना । अत: जलालशाह ने अपने काफिर गुरू की पीठ में छुरा घोंपकर
ख्वाजा कजल अब्बास मूसा के साथ मिलकर ये विचार
किया की यदि इस मदिर को तोड़ कर मस्जिद बनवा दी जाये तो इस्लाम का परचम हिन्दुस्थान में स्थायी हो जायेगा। धीरे
धीरे जलालशाह और ख्वाजा कजल अब्बास मूसा इस साजिश
को अंजाम देने की तैयारियों में जुट गए ।
सर्वप्रथम जलालशाह और ख्वाजा बाबर के विश्वासपात्र बने और दोनों ने अयोध्या को खुर्द
मक्का बनाने के लिए जन्मभूमि के आसपास की जमीनों में बलपूर्वक मृत मुसलमानों को दफन करना शुरू किया॥ और मीरबाँकी खां के माध्यम से बाबर को उकसाकर मंदिर के विध्वंस
का कार्यक्रम बनाया। बाबा श्यामनन्द जी अपने मुस्लिम शिष्यों की करतूत देख के बहुत दुखी हुए और अपने
निर्णय पर उन्हें बहुत पछतावा हुआ। दुखी मन से बाबा श्यामनन्द जी ने
रामलला की मूर्तियाँ सरयू में प्रवाहित किया और खुद हिमालय
की और तपस्या करने चले गए। मंदिर के पुजारियों ने मंदिर के
अन्य सामान आदि हटा लिए और वे स्वयं मंदिर के द्वार पर रामलला की रक्षा के लिए खड़े
हो गए। जलालशाह
की आज्ञा के अनुसार उन चारो पुजारियों के सर काट लिए गए.
जिस समय मंदिर को गिराकर मस्जिद बनाने की घोषणा हुई उस समय भीटी के
राजा महताब सिंह बद्री नारायण की यात्रा करने के लिए
निकले थे,अयोध्या पहुचने पर रास्ते में उन्हें ये खबर
मिली तो उन्होंने अपनी यात्रा स्थगित कर दी और अपनी छोटी सेना में रामभक्तों को शामिल कर १ लाख चौहत्तर हजार लोगो के साथ बाबर की सेना के ४ लाख ५० हजार सैनिकों से लोहा लेने निकल पड़े।
रामभक्तों ने सौगंध ले रक्खी थी रक्त की आखिरी बूंद तक
लड़ेंगे जब तक प्राण है तब तक मंदिर नहीं गिरने देंगे।
रामभक्त वीरता के साथ लड़े ७० दिनों तक घोर
संग्राम होता रहा और अंत में राजा महताब सिंह समेत
सभी १ लाख ७४ हजार रामभक्त मारे गए। श्रीराम जन्मभूमि रामभक्तों के रक्त से लाल हो गयी। इस भीषण कत्ले आम के बाद मीरबांकी ने
तोप लगा के मंदिर गिरवा दिया ।
मंदिर के मसाले से ही मस्जिद का निर्माण
हुआ पानी की जगह मरे हुए हिन्दुओं का रक्त इस्तेमाल
किया गया नीव में लखौरी इंटों के साथ ।
इतिहासकार कनिंघम अपने लखनऊ गजेटियर के
66वें अंक के पृष्ठ 3 पर लिखता है की एक लाख चौहतर हजार
हिंदुओं की लाशें गिर जाने के पश्चात मीरबाँकी अपने मंदिर
ध्वस्त करने के अभियान मे सफल हुआ और उसके बाद
जन्मभूमि के चारो और तोप लगवाकर मंदिर को ध्वस्त कर
दिया गया..
इसी प्रकार हैमिल्टन नाम का एक अंग्रेज बाराबंकी गजेटियर में
लिखता है की ” जलालशाह ने हिन्दुओं के खून का गारा बना के
लखौरी ईटों की नीव मस्जिद बनवाने के लिए दी गयी थी। ”
उस समय अयोध्या से ६ मील की दूरी पर सनेथू नाम का एक गाँव के पंडित देवीदीन पाण्डेय ने वहां के आस पास के
गांवों सराय सिसिंडा राजेपुर आदि के सूर्यवंशीय
क्षत्रियों को एकत्रित किया॥
देवीदीन पाण्डेय ने सूर्यवंशीय क्षत्रियों से
कहा भाइयों आप लोग मुझे अपना राजपुरोहित मानते
हैं ..अप के पूर्वज श्री राम थे और हमारे पूर्वज
महर्षि भरद्वाज जी। आज मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम की जन्मभूमि को मुसलमान
आक्रान्ता कब्रों से पाट रहे हैं और खोद रहे हैं इस परिस्थिति में
हमारा मूकदर्शक बन कर जीवित रहने की बजाय
जन्मभूमि की रक्षार्थ युद्ध करते करते
वीरगति पाना ज्यादा उत्तम होगा॥
देवीदीन पाण्डेय की आज्ञा से दो दिन के भीतर ९० हजार
क्षत्रिय इकठ्ठा हो गए दूर दूर के गांवों से लोग समूहों में
इकठ्ठा हो कर देवीदीन पाण्डेय के नेतृत्व में जन्मभूमि पर
जबरदस्त धावा बोल दिया । शाही सेना से लगातार ५
दिनों तक युद्ध हुआ । छठे दिन मीरबाँकी का सामना देवीदीन
पाण्डेय से हुआ उसी समय धोखे से उसके अंगरक्षक ने एक
लखौरी ईंट से पाण्डेय जी की खोपड़ी पर वार कर दिया। देवीदीन
पाण्डेय का सर बुरी तरह फट गया मगर उस वीर ने अपने
पगड़ी से खोपड़ी से बाँधा और तलवार से उस कायर अंगरक्षक
का सर काट दिया। इसी बीच मीरबाँकी ने
छिपकर गोली चलायी जो पहले ही से घायल देवीदीन पाण्डेय
जी को लगी और वो जन्मभूमि की रक्षा में वीर
गति को प्राप्त हुए..जन्मभूमि फिर से 90 हजार हिन्दुओं के रक्त से लाल हो गयी।
देवीदीन पाण्डेय के
वंशज सनेथू ग्राम के ईश्वरी पांडे का पुरवा नामक जगह पर
अब भी मौजूद हैं॥
पाण्डेय जी की मृत्यु के १५ दिन बाद हंसवर के महाराज
रणविजय सिंह ने सिर्फ २५ हजार सैनिकों के साथ मीरबाँकी की विशाल और शस्त्रों से
सुसज्जित सेना से रामलला को मुक्त कराने के लिए आक्रमण किया । 10 दिन तक युद्ध
चला और महाराज जन्मभूमि के रक्षार्थ
वीरगति को प्राप्त हो गए। जन्मभूमि में 25 हजार हिन्दुओं का रक्त फिर बहा।
रानी जयराज कुमारी हंसवर के स्वर्गीय महाराज रणविजय सिंह
की पत्नी थी।जन्मभूमि की रक्षा में महाराज के
वीरगति प्राप्त करने के बाद महारानी ने उनके कार्य
को आगे बढ़ाने का बीड़ा उठाया और तीन हजार
नारियों की सेना लेकर उन्होंने जन्मभूमि पर हमला बोल
दिया और हुमायूं के समय तक उन्होंने छापामार युद्ध जारी रखा। रानी के गुरु स्वामी महेश्वरानंद जी ने
रामभक्तों को इकठ्ठा करके सेना का प्रबंध करके जयराज
कुमारी की सहायता की। साथ ही स्वामी महेश्वरानंद
जी ने सन्यासियों की सेना बनायीं इसमें उन्होंने २४ हजार
सन्यासियों को इकठ्ठा किया और रानी जयराज कुमारी के
साथ , हुमायूँ के समय में कुल १० हमले जन्मभूमि के उद्धार के
लिए किये। १०वें हमले में शाही सेना को काफी नुकसान
हुआ और जन्मभूमि पर रानी जयराज कुमारी का अधिकार
हो गया।
लेकिन लगभग एक महीने बाद हुमायूँ ने पूरी ताकत से शाही सेना फिर भेजी ,इस युद्ध में स्वामी महेश्वरानंद और
रानी कुमारी जयराज कुमारी लड़ते हुए अपनी बची हुई
सेना के साथ मारे गए और जन्मभूमि पर
पुनः मुगलों का अधिकार हो गया। श्रीराम जन्मभूमि एक बार फिर कुल 24 हजार सन्यासियों और 3 हजार वीर नारियों के रक्त से लाल हो गयी।
रानी जयराज कुमारी और स्वामी महेश्वरानंद जी के बाद यद्ध
का नेतृत्व स्वामी बलरामचारी जी ने अपने हाथ में ले
लिया। स्वामी बलरामचारी जी ने गांव गांव में घूम कर
रामभक्त हिन्दू युवकों और सन्यासियों की एक मजबूत
सेना तैयार करने का प्रयास किया और जन्मभूमि के
उद्धारार्थ २० बार आक्रमण किये. इन २० हमलों में काम से
काम १५ बार स्वामी बलरामचारी ने जन्मभूमि पर
अपना अधिकार कर लिया मगर ये अधिकार अल्प समय के
लिए रहता था थोड़े दिन बाद बड़ी शाही फ़ौज
आती थी और जन्मभूमि पुनः मुगलों के अधीन
हो जाती थी..जन्मभूमि में लाखों हिन्दू बलिदान होते रहे।
उस समय का मुग़ल शासक अकबर था। शाही सेना हर दिन के इन युद्धों से कमजोर हो रही थी.. अतः अकबर ने बीरबल और टोडरमल के
कहने पर खस की टाट से उस चबूतरे पर ३ फीट का एक
छोटा सा मंदिर बनवा दिया. लगातार युद्ध करते रहने के
कारण स्वामी बलरामचारी का स्वास्थ्य
गिरता चला गया था और प्रयाग कुम्भ के अवसर पर
त्रिवेणी तट पर स्वामी बलरामचारी की मृत्यु
हो गयी ..
इस प्रकार बार-बार के
आक्रमणों और हिन्दू जनमानस के रोष एवं हिन्दुस्थान पर मुगलों की
ढीली होती पकड़ से बचने का एक राजनैतिक प्रयास की अकबर की इस कूटनीति से कुछ दिनों के लिए जन्मभूमि में रक्त नहीं बहा।
यही क्रम शाहजहाँ के समय भी चलता रहा।
फिर औरंगजेब के हाथ
सत्ता आई वो कट्टर मुसलमान था और उसने समस्त भारत से काफिरों के सम्पूर्ण सफाये का संकल्प लिया था। उसने लगभग 10 बार अयोध्या मे
मंदिरों को तोड़ने का अभियान चलकर यहाँ के सभी प्रमुख
मंदिरों की मूर्तियों को तोड़ डाला।
औरंगजेब के समय में समर्थ गुरु श्री रामदास
जी महाराज जी के शिष्य श्री वैष्णवदास जी ने
जन्मभूमि के उद्धारार्थ 30 बार आक्रमण किये। इन
आक्रमणों मे अयोध्या के आस पास के गांवों के सूर्यवंशीय
क्षत्रियों ने पूर्ण सहयोग दिया जिनमे सराय के ठाकुर
सरदार गजराज सिंह और राजेपुर के कुँवर गोपाल सिंह
तथा सिसिण्डा के ठाकुर जगदंबा सिंह प्रमुख थे। ये सारे
वीर ये जानते हुए भी की उनकी सेना और हथियार
बादशाही सेना के सामने कुछ भी नहीं है अपने जीवन के
आखिरी समय तक शाही सेना से लोहा लेते रहे। लम्बे समय तक चले इन युद्धों में रामलला को मुक्त कराने के लिए हजारों हिन्दू वीरों ने अपना बलिदान दिया और अयोध्या की धरती पर उनका रक्त बहता रहा।
ठाकुर
गजराज सिंह और उनके साथी क्षत्रियों के वंशज आज भी सराय मे मौजूद हैं। आज
भी फैजाबाद जिले के आस पास के सूर्यवंशीय क्षत्रिय
सिर पर
पगड़ी नहीं बांधते,जूता नहीं पहनते, छता नहीं लगाते,
उन्होने अपने पूर्वजों के सामने ये प्रतिज्ञा ली थी की जब
तक श्री राम जन्मभूमि का उद्धार नहीं कर लेंगे तब तक
जूता नहीं पहनेंगे,छाता नहीं लगाएंगे, पगड़ी नहीं पहनेंगे।
1640 ईस्वी में औरंगजेब ने मन्दिर को ध्वस्त करने के लिए जबांज खाँ के नेतृत्व में एक
जबरजस्त सेना भेज दी थी, बाबा वैष्णव दास के साथ साधुओं की एक
सेना थी जो हर विद्या मे निपुण थी इसे
चिमटाधारी साधुओं की सेना भी कहते थे । जब
जन्मभूमि पर जबांज खाँ ने आक्रमण किया तो हिंदुओं के
साथ चिमटाधारी साधुओं की सेना की सेना मिल
गयी और उर्वशी कुंड नामक जगह पर जाबाज़ खाँ
की सेना से सात दिनों तक भीषण युद्ध किया ।
चिमटाधारी साधुओं के चिमटे के मार से
मुगलों की सेना भाग खड़ी हुई। इस प्रकार चबूतरे पर स्थित
मंदिर की रक्षा हो गयी ।
जाबाज़ खाँ की पराजित सेना को देखकर औरंगजेब बहुत
क्रोधित हुआ और उसने जाबाज़ खाँ को हटाकर एक अन्य
सिपहसालार सैय्यद हसन अली को 50 हजार
सैनिकों की सेना और तोपखाने के साथ अयोध्या की ओर भेजा और साथ मे
ये आदेश दिया की अबकी बार जन्मभूमि को बर्बाद करके वापस आना है ,यह समय सन् 1680 का था ।
बाबा वैष्णव दास ने सिक्खों के
गुरु गुरुगोविंद सिंह से युद्ध मे सहयोग के लिए पत्र के
माध्यम संदेश भेजा । पत्र पाकर गुरु गुरुगोविंद सिंह सेना समेत तत्काल अयोध्या आ
गए और ब्रहमकुंड पर अपना डेरा डाला । ब्रहमकुंड वही जगह जहां आजकल गुरुगोविंद सिंह
की स्मृति मे सिक्खों का गुरुद्वारा बना हुआ है।
बाबा वैष्णव दास एवं सिक्खों के
गुरुगोविंद सिंह रामलला की रक्षा हेतु एकसाथ रणभूमि में कूद पड़े ।इन वीरों कें सुनियोजित हमलों से
मुगलो की सेना के पाँव उखड़ गये सैय्यद हसन
अली भी युद्ध मे मारा गया। औरंगजेब हिंदुओं की इस
प्रतिक्रिया से स्तब्ध रह गया था और इस युद्ध के बाद 4 साल तक उसने अयोध्या पर
हमला करने की हिम्मत नहीं की।
औरंगजेब ने सन् 1664 मे एक बार फिर श्री राम
जन्मभूमि पर आक्रमण किया । इस
भीषण हमले में शाही फौज ने लगभग 10 हजार से ज्यादा हिंदुओं
की हत्या कर दी नागरिकों तक को नहीं छोड़ा। जन्मभूमि हिन्दुओं के रक्त से लाल हो गयी। जन्मभूमि के अंदर नवकोण के एक कंदर्प कूप
नाम का कुआं था, सभी मारे गए हिंदुओं की लाशें मुगलों ने
उसमे फेककर चारों ओर चहारदीवारी उठा कर उसे घेर
दिया। आज भी कंदर्पकूप “गज शहीदा” के नाम से प्रसिद्ध
है,और जन्मभूमि के पूर्वी द्वार पर स्थित है।
शाही सेना ने जन्मभूमि का चबूतरा खोद डाला बहुत
दिनो तक वह चबूतरा गड्ढे के रूप मे वहाँ स्थित था ।
औरंगजेब के क्रूर अत्याचारो की मारी हिन्दू जनता अब
उस गड्ढे पर ही श्री रामनवमी के दिन भक्तिभाव से
अक्षत,पुष्प और जल चढाती रहती थी.
नबाब सहादत अली के समय 1763 ईस्वी में जन्मभूमि के रक्षार्थ अमेठी के राजा गुरुदत्त सिंह और पिपरपुर के
राजकुमार सिंह के नेतृत्व मे बाबरी ढांचे पर पुनः पाँच
आक्रमण किये गये जिसमें हर बार हिन्दुओं की लाशें अयोध्या में गिरती रहीं।
लखनऊ गजेटियर मे कर्नल हंट लिखता है की
“ लगातार हिंदुओं के हमले से ऊबकर नबाब ने हिंदुओं और
मुसलमानो को एक साथ नमाज पढ़ने और भजन करने
की इजाजत दे दी पर सच्चा मुसलमान होने के नाते उसने काफिरों को जमीन नहीं सौंपी।
“लखनऊ गजेटियर पृष्ठ 62”
नासिरुद्दीन हैदर के समय मे मकरही के
राजा के नेतृत्व में जन्मभूमि को पुनः अपने रूप मे लाने के
लिए हिंदुओं के तीन आक्रमण हुये जिसमें बड़ी संख्या में हिन्दू मारे गये। परन्तु तीसरे आक्रमण में डटकर
नबाबी सेना का सामना हुआ 8वें दिन हिंदुओं
की शक्ति क्षीण होने लगी ,जन्मभूमि के मैदान मे हिन्दुओं
और मुसलमानो की लाशों का ढेर लग गया । इस
संग्राम मे भीती,हंसवर,,मकरही,खजुरहट,दीयरा अमेठी के
राजा गुरुदत्त सिंह आदि सम्मलित थे। हारती हुई हिन्दू सेना के साथ वीर चिमटाधारी साधुओं की सेना आ
मिली और इस युद्ध मे शाही सेना के चिथड़े उड गये और
उसे रौंदते हुए हिंदुओं ने जन्मभूमि पर कब्जा कर लिया।
मगर हर बार की तरह कुछ दिनो के बाद विशाल शाही सेना ने
पुनः जन्मभूमि पर अधिकार कर लिया और हजारों हिन्दुओं को मार डाला गया। जन्मभूमि में हिन्दुओं का रक्त प्रवाहित होने लगा।
नावाब वाजिदअली शाह के समय के समय मे पुनः हिंदुओं ने जन्मभूमि के
उद्धारार्थ आक्रमण किया । फैजाबाद गजेटियर में कनिंघम ने लिखा
“इस संग्राम मे बहुत ही भयंकर खूनखराबा हुआ ।दो दिन
और रात होने वाले इस भयंकर युद्ध में सैकड़ों हिन्दुओं के मारे जाने के बावजूद हिन्दुओं नें राम जन्मभूमि पर कब्जा कर लिया। क्रुद्ध हिंदुओं
की भीड़ ने कब्रें तोड़ फोड़ कर
बर्बाद कर डाली मस्जिदों को मिसमार करने लगे और पूरी ताकत से मुसलमानों को मार-मार कर अयोध्या से खदेड़ना शुरू किया।मगर
हिन्दू भीड़ ने मुसलमान स्त्रियों और बच्चों को कोई
हानि नहीं पहुचाई।
अयोध्या मे प्रलय मचा हुआ था ।
इतिहासकार कनिंघम लिखता है की ये
अयोध्या का सबसे बड़ा हिन्दू मुस्लिम बलवा था।
हिंदुओं ने अपना सपना पूरा किया और
औरंगजेब द्वारा विध्वंस किए गए चबूतरे को फिर वापस
बनाया । चबूतरे पर तीन फीट ऊँची खस की टाट से एक
छोटा सा मंदिर बनवा लिया ॥जिसमे
पुनः रामलला की स्थापना की गयी।
कुछ जेहादी मुल्लाओं को ये बात स्वीकार नहीं हुई और कालांतर में जन्मभूमि फिर हिन्दुओं के हाथों से निकल गयी।
सन 1857 की क्रांति मे बहादुर
शाह जफर के समय में बाबा रामचरण दास ने एक मौलवी आमिर अली के साथ जन्मभूमि के उद्धार का प्रयास किया पर
18 मार्च सन 1858 को कुबेर टीला स्थित एक इमली के
पेड़ मे दोनों को एक
साथ अंग्रेज़ो ने फांसी पर लटका दिया ।
जब अंग्रेज़ो ने ये
देखा कि ये पेड़ भी देशभक्तों एवं रामभक्तों के लिए एक
स्मारक के रूप मे विकसित हो रहा है तब उन्होने इस पेड़
को कटवा कर इस आखिरी निशानी को भी मिटा दिया…
इस प्रकार अंग्रेज़ो की कुटिल नीति के कारण रामजन्मभूमि के उद्धार का यह प्रयास विफल हो गया …
अन्तिम बलिदान …
३० अक्टूबर १९९० को हजारों रामभक्तों ने वोट-बैंक के लालची मुलायम सिंह यादव के द्वारा खड़ी की गईं
अनेक बाधाओं को पार कर अयोध्या में प्रवेश किया और
विवादित ढांचे के ऊपर भगवा ध्वज फहरा दिया।
लेकिन २ नवम्बर १९९०
को मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने कारसेवकों पर
गोली चलाने का आदेश दिया, जिसमें सैकड़ों
रामभक्तों ने अपने जीवन की आहुतियां दीं। सरकार ने मृतकों की असली संख्या छिपायी परन्तु प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार सरयू तट रामभक्तों की लाशों से पट गया था।
४ अप्रैल १९९१ को कारसेवकों के हत्यारे,
उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने
इस्तीफा दिया।
लाखों राम भक्त ६ दिसम्बर
को कारसेवा हेतु अयोध्या पहुंचे और राम जन्मस्थान पर बाबर
के सेनापति द्वार बनाए गए अपमान के प्रतीक
मस्जिदनुमा ढांचे को ध्वस्त कर दिया।
परन्तु हिन्दू समाज के अन्दर व्याप्त घोर संगठनहीनता एवं नपुंसकता के कारण आज भी हिन्दुओं के सबसे बड़े आराध्य भगवान श्रीराम एक फटे हुए तम्बू में विराजमान हैं।
जिस जन्मभूमि के उद्धार के लिए हमारे पूर्वजों ने अपना रक्त पानी की तरह बहाया। आज वही हिन्दू बेशर्मी से इसे “एक विवादित स्थल” कहता है।
सदियों से हिन्दुओं के साथ रहने वाले मुसलमानों ने आज भी जन्मभूमि पर अपना दावा नहीं छोड़ा है। वो यहाँ किसी भी हाल में मन्दिर नहीं बनने देना चाहते हैं ताकि हिन्दू हमेशा कुढ़ता रहे और उन्हें नीचा दिखाया जा सके।
जिस कौम ने अपने ही भाईयों की भावना को नहीं समझा वो सोचते हैं हिन्दू उनकी भावनाओं को समझे। आज तक किसी भी मुस्लिम संगठन ने जन्मभूमि के उद्धार के लिए आवाज नहीं उठायी, प्रदर्शन नहीं किया और सरकार पर दबाव नहीं बनाया आज भी वे बाबरी-विध्वंस की तारीख 6 दिसम्बर को काला दिन मानते हैं। और मूर्ख हिन्दू समझता है कि राम जन्मभूमि राजनीतिज्ञों और मुकदमों के कारण उलझा हुआ है।
ये लेख पढ़कर पता नहीं कितने हिन्दुओं को शर्म आयी परन्तु विश्व हिन्दू परिषद के कार्यकर्ता एक दिन श्रीराम जन्मभूमि का उद्धार कर वहाँ मन्दिर अवश्य बनाएंगे। चाहे अभी और कितना ही बलिदान क्यों ना देना पड़े।
जय श्री राम..।

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“शंकरो शंकर: साक्षात्”


“शंकरो शंकर: साक्षात्”

 http://parantapmishra.blogspot.com/
पारंपरिक मान्यता के अनुसार सनातन धर्म के उन्नायक ,महान दार्शनिक ,वेदांत दर्शन के अद्वुत वायाख्याकर ,प्रचंड मेधा संपन्न शिवावतार भगवान आदिशंकराचार्य का जन्म वर्तमान भारत के केरल प्रान्त में एर्नाकुलम जनपद के कलती नमक ग्राम में युधिस्ठिर शक संवत २६३१ वैशाख शुक्ल पंचमी नंदन वर्ष तदनुसार इशवी सन पूर्व ५०७ में शिवगुरु तथा अर्याम्बा नमक पिता- माता के घर में हुआ था
 
 काल्टी ग्राम केरल के प्रमुख औद्योगिक नगर अलवाये से मात्र १० किलोमीटर दूर है ,एर्नाकुलम जनपद से अलवाये की दूरी २१ किलोमीटर है.आदिशंकराचार्य का कैलाश गमन युधिस्ठिर शक संवत २६६३ कार्तिक पूर्णिमा तदनुसार इशवी सन पूर्व ४७५ में हुआ था 
 
आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती के “सत्यार्थ प्रकाश ” के लेखन काल १८७५ इशवी सन तक उपर्युक्त मान्यता निर्विवाद मान्य थी यह “सत्यार्थ प्रकाश ” से स्पष्ट होता है
 
 इस मान्यता के विरुद्ध बेलगाम हाईस्कूल के अध्यापक ने “इंडियन एंटीक्य्वारी खंड ११ पृष्ठ २६३ (जून १८८२ ई . अंक ) में प्रकाशित अपने एक लेख में लिखा की उन्हें बेलगाम में गोविन्द भट्ट हेर्लेकर के पास से बालबोध प्रकृति की तीन पत्रों की एक पाण्डुलिपि प्राप्त हुई
 जिसके अनुसार आदिशंकराचार्य का जन्म विभव वर्ष कलि संवत ३८८९ तथा परलोक गमन कलि संवत ३९२१ वैशाख पूर्णिमा तदनुसार इशवी सन ७७८ – ८२० में हुआ था .
 
“इंडियन एंटीक्य्वारी खंड १६ पृष्ठ १६१ (ई० सन १८८७ )” में प्रकाशित एक लेख में कालीकट के डब्लू लोगन का अभिमत है की “केरालोत्पत्ति में लिखा है की आदिशंकराचार्य का जन्म ‘सफल वर्ष ‘में हुआ था ,चेरमन पेरूमल ने इस्लाम धर्म अंगीकार कर लिया था .१६ वी सदी के उतरार्ध में लिखी गयी अरबी पुस्तक “तह्फत -उल-मुजाहिदीन ” में लिखा है की जफ़र में एक रजा दफनाया गया था .शिलालेख से ज्ञात होता है की २१२ हिजरी सन तुल्य इशवी सन ८३१-३२ में मृत्यु को प्राप्त हुआ था “
 
कुरान  के अनुसार समीरी अथवा समरियाई का अर्थ ‘बछड़े का पूजक ‘ करते हुए लोगन महोदय ने उक्त कब्र को चेरामन पेरूमल की कब्र बता कर आदिशंकराचार्य को उनका समकालीन मानते हुए श्री पाठक द्वारा सुझाये गए काल ७८८ ई० से ८२० ई ० को आदिशंकराचार्य का काल मन लिया जब की केरालोत्पत्ति के अनुसार उक्त शंकराचार्य का जन्म ई ० सन ४०० में हुआ था तथा वे ३८ वर्ष तक इस धरा धाम पर रहे 
 
पश्श्चतवर्ती बौद्ध विद्वान कमाल्शील ने आदिशंकराचार्य के भाष्य में उद्घृत कुछ पंक्तियों को दिग्नाग की पंक्तिया बताकर अर्वाचीन मत को और बल दिया जिसका अनुशरण अन्य विद्वानों ने भी किया 
 
 अंत में काशिका नन्द गिरी महोदय ने “भारतीय अश्मिता और राष्ट्रीय चेतना के आधार जगदगुरू आदिशंकराचार्य ” नमक पुस्तक में प्रकाशित अपने एक लेख ‘भाष्यकार आचार्य भगवत्पाद का आविर्भाव समय’ में उपर्युक्त अर्वाचीन मतावलंबियो के अन्वेषणों को समेकित करते हुए  भाष्यकार शंकराचार्य का आविर्भाव काल ७८८ ई ० सन तथा कैलाश गमन काल ८२० ई ० सन प्रमाणिक बताया और अपनी उक्त मान्यता के आधार पर ई ० सन १९८८ में आदिशंकराचार्य के आविर्भाव काल का कथित द्वादश शताब्दी वर्ष समारोह आयोजित किया 
 
 यहाँ यह ध्यान देने योग्य तथ्य है की पंडित बलदेव उपाध्याय द्वारा अनुवादित “श्रीशंकरदिग्विजय ” के द्वितीय संस्करण की भूमिका में १९६७ ई ० में स्वामी प्रकाशानंद आचार्य महामंडलेश्वर श्री जगदगुरू आश्रम ,कनखल हरिद्वार ने आचर्य शंकर के पारंपरिक आविर्भाव काल युधिस्ठिर शक संवत २६३१ को ही प्रमाणिक माना है 
 
यह  सभी वर्णित पूर्व पक्ष है 
 
 आज उपलब्ध हो रहा भारतीय इतिहास एकांगी एवं आंशिक है .बर्बर आक्रामको ने हमारी सभ्यता और संस्कृति दोनों को नष्ट-भ्रष्ट कर डाला
 मठ,मंदिर,नगर ,आश्रम ,हस्तशिल्प ,उद्योग व्यापार तथा समुन्नत वैज्ञानिक उपलब्धियों को छिन्न-भिन्न कर डाला और अनंत ज्ञान-भंडार पुस्तकालयों को स्वाहा कर दिया  फलस्वरूप शेष रह गए केवल खंडित अवशेश 
 इन्ही खंड – खंड विकीर्ण भग्नावशेष पर आधारित हुआ हमारा तथाकथित इतिहास जिसको पुरातात्विक उत्खनित सामग्री पूर्णता न दे सकी
 
 पराधीन भारत के गुलाम इतिहासकार पाश्चत्य दिशा निर्देशों /इंगितो के वस्म्व्द रहे .स्वतंत्र चेतना के साथ इतिहास लेखन नहीं हो सका . सारा इतिवृत राजपरिवार विशेष ,नगर विशेष अथवा कालखंड विशेष के ही परिपार्श्व में ही सिमटा रहा अखंड भारत का तारतम्य अक्षुनं इतिहास समग्रता की दृष्टि से नहीं लिखा जा सका 
 
 आदिकाल से लेकर आज तक भारत के सांस्कृतिक वृत्त तो नगण्य ही है ,विश्व गुरु भारत का एक भी एषा ग्रन्थ दुर्भाग्य से नहीं लिखा जा सका जो प्राचीनतम भारत से प्रारंभ कर आज तक की सहितियिक,धार्मिक ,कलात्मिका एवं सांस्कृतिक प्रवितियो का परिचय दे सके
 
 संकीर्ण मनोवृति एवं स्वल्पोप्ल्ब्ध खंडित सामग्री के आभाव के कारण अपेक्षाए पूर्ण नहीं हो सकी ,अतः सारा इतिहास अपने -अपने स्पर्श में आये हाथी के अंगो के अन्य वर्णन ,अपूर्ण और हास्यास्पद भी है
 
 ऐसी स्तिथि में हमारी वैचारिक ,दार्शनिक,धार्मिक एवं सांस्कृतिक परम्पराए ही हमारी विकीर्ण तथ्य-शृंखलाओ का ग्रथन करने में सहायक हो सकती है.खेद है की आज के तथाकथित वैज्ञानिक इतिहासकार परम्परा को निराधार,अवैज्ञानिक,आइतिहसिक अथवा पुराकथा मात्र मानकर विषयों का अपलाप करतें हैं 
 वास्तिवकता तो यह है की परंपरा ही हमें एक सूत्र में पिरोती है,विलुप्त एवं विश्म्रित्प्रय तथ्यों का परिचय देती है,समन्वय हेतु समाधान प्रस्तुत करती है .
 
 आदि जगतगुरु शंकराचार्य भारतीय आध्यात्मिक संस्कृति के पुनर्स्थापक थे उन्होंने अपने शास्त्रार्थ के बल पर ही सभी हिन्दु संत व साधु सम्प्रदायों में व्याप्त भेद विभेद को समाप्त कर अद्वेतवाद के सिद्धांत को प्रतिपादित कर हिन्दु संस्कृति को सनातन-अमर-अजर बना दिया| उन्होंने चार धाम मठो की स्थापना की| बारह ज्योतिर्लिंग व इक्यावन शक्तिपीठों की पहचान कराई और भारतवर्ष को एक अनूठी धर्म-संस्कृति की एकता में पिरो कर विश्व के धर्म मानचित्र पर विलक्षण पहचान प्रदान की है वे साधारण मानव से महामानव बने वे महादेव शिव-शंकर के ही अंश थे|
 
 विकीर्ण खंडित पुरातात्विक अवशेषों के आधार पर भारत का जो भी राजनितिक,सांस्कृतिक,धार्मिक अथवा साहित्यिक इतिहास प्रस्तुत किया जा सका वह आपनी आधार सामग्री के सदृश ही स्वल्प एवं अपूर्ण है 
 
  हर्षवर्धन के पूर्व का इतिहास समग्र भारत की समन्वित झांकी भी नहीं दे पा रहा है,उससे पूर्ववर्ती दार्शनिको,आचार्यो ,धर्मधारावो ,ग्रंथो और सामाजिक मान्यताओ का प्रमाणिक वृतांत उपलब्ध नहीं हो पा रहा है .जिससे उनको लेकर अनेक प्रकार की भ्रान्तिया पैदा होती जा रही है .कुछ कुत्सित एवं घृणित राजनितिक स्वार्थसाधक आज राजनीतिक स्वतंत्रता प्राप्ति की अर्धशताब्दी के बाद भी खुले मश्तिष्क से अपने समृद्ध रिक्थ का सही मूल्याङ्कन न करके विवाद उतपन्न करते जा रहे है .
 
भारत में विभिन्न अवसरों और प्रदेशो में प्रादुर्भूत विचार-धारावो को परस्पर पूरक और संवर्धक न मानकर परस्पर विरुद्ध सिद्ध किया जा रहा है  इसी प्रकार विवादग्रस्त बाते भगवत्पाद आद्यश्रीशंकराचार्य के भी विषय में कही  जा रही है .उनकी प्राचीनता की समुचित समीक्षा न करके बिना किसी ‘ननु-नच’ के उनको ईशा की ८ वी शताब्दी का माना जा रहा है ,
 क्योंकि आज उपलब्ध स्वल्प साक्ष्य इतने परवर्ती है की उनके आधार पर शंकर को और प्राचीन सिद्ध ही नहीं किया जा सकता .प्रशन्नता का विषय यह है की कुछ विद्वानों का द्रिगुन्मेश हो रहा है-आँखे खुल रही है.नए विवेचना के स्रोत प्रस्फुटित हो रहे है और उनके तथा अन्य अन्तः साक्ष्यो के आधार पर निष्पक्ष विचार की प्रक्रिया प्रारम्भ हो चुकी है
 
 आद्यश्रीशंकराचार्य के काल निर्धारण में वैदिक परम्परा की प्रतिद्वंदी बौद्धधारा के ग्रन्थ ,आचार्य और विषय सहायक हो रहे हैं
 
इसी प्रकार की बाते माध्यमिक ,वैभासिक ,योगाचार और सौतांत्रिक मतों की ‘शारीरक भाष्य ‘में विवेचना के विषय में उठती है .यहाँ केवल सामान्य आधारभूत सिद्धांत का खंडन है ,न की आचार्य विशेस की उक्ति का.इस तथ्य को सभी बौध विद्वान निर्विवाद रूप से स्वीकार करते है की किसी भी आचार्य ने ,चाहे वह वशुबन्धु , हो,असंग हो,मैत्रयनाथ ,आर्यदेव अथवा नागार्जुन हो ,एषा नया कुछ भी नहीं कहा है जिसका उपदेश पूर्ववर्ती बुद्धो ने किसी न किसी रूप में न किया हो.
 
अतः समस्त सम्प्रदायों का मूल तो बुद्ध वचनों में ही मिलता है ,परवर्ती आचार्य तो मात्र उनको व्यवस्थित करने वाले ही है,प्रचारक है उद्भावक नहीं .बुद्ध भी एक नहीं अब तक के द्वादश कल्पो में कुल मिलाकर तंत्टनकर से लेकर शाक्य मुनि गौतम बुद्ध तक २८ हो चुके है ,मैत्रयनाथ नाम के २९वे बुद्ध का प्रादुर्भाव अभी शेष है जो भविष्य में होगा .
 
‘बुद्धवंश’ पालिग्रंथ में (नालंदा महाविहार से सन १९५९ ई. में प्रकाशित ) पृष्ठ २९७ से ३८१ पर इनका वर्णन है .किसी कल्प में चार ,किसी में एक ,दो,तीन,अथवा चार बुद्ध हुए है .बुद्ध पद बोधि प्राप्त मनुष्य की उपाधि है नाम विशेष नहीं . 
 
उक्त सभी बुद्ध ऐतिहासिक पुरुष रहे है ,भद्रकल्प में उत्पन्न ककुसंध ,कोणागमन तथा कस्सप इन तीनो के स्तूप – स्मारक श्रावस्ती से निकट अथवा कुछ योजन दूर भारत या नेपाल में मिल रहे है .इनसे इनकी ऐतिहासिकता सिद्ध हो जाती है .गौतम बुध्ह से सम्बद्ध स्तूप और अवशेष तो लोकविदित है ही 
इन सभी बुद्धो की विशेषता यह रही की उन्होंने अपनी स्थापनाओ ,मान्यताओ ,विचारो को अपना स्वतंत्र चिंतन नहीं अपितु पूर्ववर्ती बुद्धो द्वारा अनुभव के बाद उपदिष्ट सत्यो का पर्त्रूप मन है – ”बुद्धवंश’ पालिग्रंथ ‘ पृष्ठ ३०४ में यही कहा गया है 
 
अतीत बुधानम जिनान्म देसितम ,
निकीलितम  बुद्ध परम्परागतम 
पुब्बेनिवाषानुग्ताय बुध्हिया
पकशामी लोकहितम  सदेव के . 
 
अर्थात जो एक बुद्ध का उपदेश है ,वह अतीत के बुद्धो ,जिनों द्वारा उपदिष्ट निश्किलित और बुद्धो की परंपरा से आया हुआ है .वह पूर्व जन्म की स्मृति से अनुगत बुद्धी  के द्वारा देवताओ सहित मनुष्य लोक के हितार्थ प्रकाशित किया गया है .
 
इसी प्रकार अन्यत्र “पुब्बकेही महेशीही आसैवितनिसेवितम ” (वही पृष्ठ ३१४) २.१२६ सदृश उक्तिया दृष्टव्य है   
 
संपूर्ण पालि तृपटिक  तथा संस्कृत श्रोतो में पूर्व बुद्धो की मान्यताओ और अनुभवों के परवर्ती बुद्धो  द्वारा प्रतिपादन का उल्लेख स्थान स्थान पर मिलता है  इसी कारन पुर्वारती बुद्ध के उपदेश सब्द्सः और वाक्यसः परवर्ती बुद्ध के कथनों में उधृत हो जाते है .उनका उल्लेख करते समय आचार्य विशेष के वाक्य समझ लिए जाते है .ऐशे ही कुछ बात धर्मकीर्ति तथा अन्य बुद्ध संप्रदाय के सिधान्तो के निरूपण के विषय में भी चरित्रार्थ होती है 
 
आज आवश्यकता है ,समय की अपेक्षा है की वैदिक तथा अवैदिक यावदुपलब्ध समस्त वांग्मय का आधिकारिक आलोडन – विलोडन करके प्राप्त अन्तः साक्ष्यो के सहाय्य से बाह्य साक्ष्यो से संगति बैठते हुए विषय स्थापना की जाये .जहा यह भी पूर्णतः सहायक नहीं हो पाते वह परंपरागत मान्यताओ को भी प्रमाणिक मानकर निष्कर्ष निकला जाये .
 
कभी कभी तो केवल उत्खनित पुरातात्विक सामग्रियों को ही आधार बनाकर विषय स्थापना हास्यास्पद प्रतीत होगा
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श्रंगगिरी पीठ के अनुसार आदि शंकराचार्य का आविर्भाव -काल (According to Sringgiri Ashram, Shankaracharya’s birth – period )


श्रंगगिरी पीठ के अनुसार आदि शंकराचार्य का आविर्भाव -काल (According to Sringgiri Ashram, Shankaracharya’s birth – period )

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श्रंगगिरी पीठ के अनुसार आदि शंकराचार्य का आविर्भाव -काल

पूर्व पक्ष :

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श्रंगगिरी  पीठ के अनुसार ३८८९ कलि संवत आचार्य का अविर्भाव काल  है –

  निधि   नागे भवहंब्दे  विभवे  मासि  माधवे . 

 शुक्ले तिथि दश्म्याम तु शंकरार्योदयः स्मृतः 

यद्यपि कुछ आधुनिक अन्वेषकों ने ‘ काशी में कुम्भकोणंम मठ विषयक विवाद ‘ नामक ग्रन्थ का उद्धरण देकर आचार्य का ६८४इश्वी सन से ७१६ इश्वी सन तक का समय श्रंगगिरी  वालों को मान्य बताया है तथा कुछ अन्य विचारकों ने सुरेश्वराचार्य को दीर्घायु बताकर सैकणों वर्ष पूर्व आचार्य को ले जाने की बात लिखी है .कितु १९८८ इश्वी सन में द्वादश शताब्दी मनाने के सम्बन्ध में श्रंगगिरी के शंकराचार्य के साथ जो पत्रव्यवहार हुआ उसमी तत्कालीन पीठाधिपति ने उसे स्वीकृत करते हुए प्रमाणिक बताया .

श्रंगगिरी  मठ वालों के अनुसार श्रिंगगिरी के उत्कर्ष को कम करने और अपने महत्व को बढ़ाने के लिए दूसरे मठ वालों ने आचार्य को तेरह सौ वर्ष पीछे ले जाने का निर्णय किया ?

उत्तर पक्ष :~~~~~~~~~~~

 
श्रंगगिरी मठ की प्राचीन पारंपरिक मान्यता के अनुसार आदिशंकराचार्य का जन्म विक्रम शासन के १४ वे वर्ष में हुआ था .इस सन्दर्भ में माधवाचार्य कृत शंकरदिग्विजय ग्रन्थ के आंग्लभाषांतरकरता श्री रामकृष्ण मठ, मद्रास (सम्प्रति चेन्नई ) के स्वामी तपस्यानंद को तत्कालीन श्रंगगिरी  पीठ के शंकराचार्य  के व्यक्तिगत सचिव द्वारा लिखे गए एक पत्र का सुसंगत अंश इस प्रकार है –
श्रंगगिरी मठ के अभिलेखों के अनुसार शंकर का जन्म विक्रमादित्य के शासन के १४ वें वर्ष में हुआ था .कहीं भी श्रंगगिरी मठ के अधिकृत व्यक्तियों ने स्वयं इश्वी सन पूर्व अथवा ईस्वी सन पश्चात की अवधी नहीं दी है ‘……………….
‘ सकलनकर्ताओं ने इसको उज्जैन  के विक्रमादित्य का संवत मिथ्या उद्धृत किया है. श्री एल.राईस ने सुझाया है कियह चालुक्य विक्रमादित्य के शासन वर्ष में अंकित है जो कि इतिहासकारों के अनुसार ६५५ ई० से ६७० ई० तक शासक थे ‘
उपर्युक्त पत्रांश से स्पष्ट होता है कि श्रंगगिरी के पूर्व शंकराचार्य श्रीमद अभिनवविद्यातीर्थ आचार्यत्व काल ( ई० सन १९५४ से ई० सन १९८९ ) के पूर्व आचार्यों के समय तक श्रंगगिरी मठ कि प्राचीन मान्यता यही थी कि आचार्य शंकर का जन्म किसी विक्रम नामक शासक के १४ वें वर्ष में हुआ था .परन्तु पाश्चात्य विद्वान  श्री एल.राईस के सुझाव कि गुरुता प्रदान करते हुए  शंकराचार्य श्रीमद अभिनवविद्यातीर्थ के समय में आचार्य शंकर का अविर्भाव काल ई० सन ६६९ मान लिया गया .
श्रंगगिरी मठ के एक अन्य पूर्व शंकराचार्य श्री सच्चिदानंद शिवाभिनव नरसिंह भारती ( ई० सन १८७९  से ई० सन १९१२  ) की आंध्र भाषा में लिखित जीवनी ‘ महान तपस्वी ‘ में श्रंगगिरी मठ की अर्वाचीन मान्यता के अनुसार कालक्रमानुसार एक आचार्यावली प्रस्तुत की गयी है .उस पुस्तक में दिनांक १५-०५-१९६६ ई० की तिथि को मुद्रांकित तत्कालीन शंकराचार्य श्रीमद अभिनवविद्यातीर्थ कस सन्देश भी प्रकाशित किया गया है .ऐसी स्तिथि में पुनः इन्ही आचार्यों द्वारा आचार्य शंकर का अविर्भाव काल ७८८ ई० सन मान लेना जैसा कि पूर्वपक्षी ने लिखा है ,
यह प्रमाणित कर देता है कि इन आचार्यों के पास ऐसा कोई ठोस प्रमाण नहीं था .जिसके आधार पर वे आचार्य शंकर का आविर्भाव काल दृढ़तापूर्वक बता सकते  . जिसके कारन अन्य लोगों के सुझाव पर एक बार इन्होने आचार्य शंकर का अविर्भाव काल ई० सन ६६९  तथा दूसरी बार पूर्वपक्षी के सुझाव पर ७८८ ई ० मान लिया
वास्तव में  श्रंगगिरी  कि परम्परा में जिस विक्रमादित्य के शासन के १४ वें वर्ष में आचार्य शंकर का जन्म होना लिखा है उसका अभिषेक ई० पू ० ५२१ में हुआ था . यह कोई और नहीं बल्कि उज्जैन का रजा चंडप्रद्योत था . चंड का अर्थ विक्रम व वैक्रम तथा प्रद्योत का अर्थ आदित्य शब्दकोष में दिया गया है .जिससे स्पष्ट हो जाता है कि चंडप्रद्योत ,विक्रमादित्य  का ही रूपांतर है . कथासरित्सागर में कहा गया है कि इसका यतार्थ नाम विक्रमादित्य था . शत्रुओं के लिए कठिन होने के कारन इशे विशमशील तथा बड़ी सेना रखने के कारन महासेन कहा जाता था . माता काली को इसने अपनी ऊँगली काटकर अर्पित कर दी थी जिसके कारन इसे चंड भी कहते थे . इसने कर्णात आदि देशों के राजाओं को जीत लिया था .ऐसी इस्थिति में कर्णात राज्य के अंतर्गत पड़ने वाले श्रंगगिरी पीठ के प्राचीन अभिलेख में निश्चितरूप से इसी राजा विक्रमादित्य के शासन वर्ष का उल्लेख है .इस नरेश का शासन का १४ वन वर्ष ई० पू ० ५०७ ही प्राप्त होता है .जो कि आदि शंकराचार्य का वास्तविक अविर्भाव काल   है .
पूर्वपक्षी द्वारा उद्दृत श्लोक किसी अन्य शंकर नामक शंकराचार्य के जन्म कल को बताता है ,क्योंकि उक्त शंकर का जन्म विभव वर्ष में दशमी के दिन होना लिखा है जबकि आदि शंकराचार्य का जन्म नंदन वर्ष में वैशाख शुक्ल पंचमी के दिन हुआ था .वैसे यह श्लोक  श्रंगगिरी मठ की प्राचीन परंपरा का नहीं है .
यह कहना की श्रंगगिरी की प्रतिष्टा को कम करने के लिए अन्य मठों के आचार्यों ने परस्पर विचार कर  आदि शंकराचार्य का काल १३०० वर्ष पीछे कर दिया मात्र कुंठा और तुक्छ अहम् का प्रतीक है. आदि शंकराचार्य के अविर्भाव काल पर उनके द्वारा स्थापित चार आम्नाय मठों की प्रतिष्ठा आधारित नहीं है बल्कि इन चरों मठों की प्रतिष्टा इस बात पर आधारित है की उन्होंने इन चार मठों की आम्नाय मठों के रूप में प्रतिष्ठा करके मठाम्नाय-महानुशासनम में इन मठों -शारदा मठ -द्वारका  , गोवर्धन मठ -पुरी , ज्योतिर्मठ – बद्रिकाश्रम तथा  श्रंगगिरी मठ  के पीठाधीश्वर को अपनी प्रतिमूर्ति कह दिया  . चारों मठों की प्रतिष्ठा ,सम्मान एवं मर्यादा समान है .
तथा सम्पूर्ण सनातनधर्मावलम्बी इन चारों पीठों के आचार्यों में समान श्रद्धा रखतें हैं .
आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती ने १८७५ ई० सन में लिखित अपने ग्रन्थ ‘ सत्यार्थ प्रकाश ‘ में लिखा है की उनके ग्रन्थ लेखन में २२०० वर्ष पूर्व शंकराचार्य का जन्म हुआ था तो क्या स्वामी  दयानंद सरस्वती ने भी अन्य पीठों के शंकराचार्य से मिलकर उनकी प्रतिष्ठा बढ़ाने तथा श्रंगगिरी की प्रतिष्ठा को कम करने के लिए ऐसा लिख दिया ?…………..

प्रथम तीन पीठो के अनुसार आदि शंकराचार्य का आविर्भाव काल (According to the first three Ashrams – emergence period of Adi Shankaracharya)

प्रथम तीन पीठो के अनुसार आदि शंकराचार्य का आविर्भाव काल (According to the first three Ashrams – emergence period of Adi Shankaracharya)

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पूर्व पक्ष :

आचार्य द्वारा प्रतिस्थापित चार मैथ तो प्रशिद्ध ही है .द्वारका पीठ की वंशानुमात्रिका के अनुसार आचार्य का जन्म युधिस्ठिर  शक संवत २६३१ व समाधि  युधिस्ठिर  शक संवत २६६३ है

गोवर्धन पीठ की  वंशानुमात्रिका के अनुसार आचार्य का जन्म २३०० वर्ष पूर्व सिद्ध होता है ज्योतिर्मठ की परंपरा विच्छिन्न होने के कारन वह से जोई निश्चित समय नहीं प्राप्त होता इस प्रकार आचार्य के अविर्भाव काल के सम्बन्ध में इन मठों में मतभेद है ?

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उत्तरपक्ष :

आचार्य शंकर का अविर्भाव काल उपर्युक्त तीन मठों :पस्चिमाम्नाया   श्री  शारदा  पीठं – द्वारका , पूर्वाम्नाया  श्री  गोवर्धन  पीठं  – जगन्नाथ  पुरी तथा उत्तराम्नाया  श्री  ज्योतिष  पीठं  –  बद्रिकाश्रम  के अनुशार निम्नाकित है –

श्री  शारदा  पीठं – द्वारका के पूर्व शंकराचार्य श्रीमद राजराजेश्वरशंकराश्रम द्वारा १८९७ ई ० सन में विरचित ‘ विमर्श ‘ नामक ग्रन्थ के अनुसार आचार्य शंकर का जन्म   युधिस्ठिर  शक संवत २६३१ वैशाख शुक्ल पंचमी तथा कैलाश गमन  युधिस्ठिर  शक संवत २६६३ कार्तिक शुक्ल पूर्णिमा लिखा है .
वर्तमान में  युधिस्ठिर  शक संवत ५१५०    वर्त रहा है इसमें आचार्य शंकर के जन्म वर्ष  युधिस्ठिर  शक संवत २६३१ का वियोग करने पर उनका आविर्भाव काल वर्तमान काल से २५१९  वर्ष पूर्व सिद्ध होता है ,वर्तमान काल में इशवी सन का २०१२ वां वर्ष चल रहा है .अतएव इशवी सन में आचार्य शंकर का आविर्भाव काल इशवी पूर्व ५०७  (२५१९ वर्ष – २०१२ इशवी सन )निश्चित होता है
 
गोवर्धन मtठ पुरी के अनुसार आदिसंकरार्चार्य का अविर्भाव काल विक्रम संवत पूर्व ४५० में वैशाख शुक्ल पंचमी के दिन हुआ था .वर्तमान काल में विक्रम संवत २०६९ चल रहा है इसमें ४५० वर्ष का योग करने पर आचार्य शंकर का अविर्भाव काल प्राप्त हो जाता है जो की वर्तमान काल से २५१९ वर्ष पूर्व सिद्ध होता है .
 
विक्रम संवत पूर्व ४५० वर्ष को इशवी सन में परिवर्तित करने पर उसमे ५७ वर्ष का योग करना पड़ेगा क्योंकि विक्रम संवत का प्रवर्तन इशवी सन पूर्व ५८ वे वर्ष में हुआ था .जिसके कारण विक्रम संवत तथा इशवी सन में ५७ वर्ष का अंतर प्राप्त होता है . इसप्रकार आचार्य का अविर्भाव काल इशवी पूर्व ५०७ निश्चित होता है .
 
ज्योतिर्मठ – बद्रिकाश्रम के अनुसार आचार्य संकर का जन्म कलि संवत २५९५ में वैशाख शुक्ल पंचमी के दिन हुआ था .वर्तमान काल में कलि संवत ५११४ चल रहा है इसमें से आचार्य शंकर का जन्म वर्ष कलि संवत २५९५ का वियोग करने पर आदि आचार्य शंकर का अविर्भाव काल २५१९ वर्ष पूर्व प्राप्त होता है .
 
कलि संवत का आरम्भ इशवी पूर्व ३१०२ में हुआ था .इसमें से आचार्य शंकर के जन्म वर्ष कलि संवत २५९५ का वियोग करने पर उनका अविर्भाव काल इशवी पूर्व ५०७ निश्चित होता है .
 
यहाँ यह सपष्ट कर देना प्रासंगिक होगा कि ज्योतिर्मठ की परम्परा भी अविछिन्न है .इस पीठ पर प्रथम आचार्य तोटकाचार्य से ४२ वे आचार्य श्रीरामकृष्ण तीर्थ पर्यंत सभी आचार्य निर्विघ्न समासीन रहे .
 
इशवी सन १७७६ में श्रीरामकृष्ण तीर्थ के ब्रह्मलीन होने के पश्च्यात इस पीठ के ४३ वे आचार्य टोकरानन्द जी को टिहरी – गढवाल के नरेश प्रदीप  शाह ने लोभवश  बद्रीनाथ मंदिर के अर्चक पद को नहीं सँभालने दिया .नरेश ने एक नम्बूदरीपाद ब्राह्मन गोपाल नामक ब्रह्मचारी को रावल की उपाधि से विभूषित कर बद्रीनाथ मंदिर के अर्चक पद पर विक्रम संवत १८३३ में समासीन कर दिया ,जिसके कारण श्री टोकरा नन्द जी को ज्योतिर्मठ में रहकर अपने धार्मिक क्र्तिया का निर्वहन करना कठिन हो गया क्योंकि पूर्ववर्ती शंकराचार्यों का आर्थिक श्रोत बद्रीनाथ मंदिर में श्रधालुओ द्वारा अर्पित भेंट उपहार ही था   
 
ऐसी विषम परिस्थिति में ज्योतिर्मठ के ४३ वे आचार्य टोकरा नन्द जी गुजरात प्रान्त के अहमदाबाद जनपद में अवस्थित धोलका चले आये तथा धोलका की धर्मानुरागी जनता के द्वारा प्रदत्त भेंट उपहार की धनराशि से उन्होंने ज्योतिर्मठ के स्थानापन्न मुख्यालय की स्थापना की .ज्योतिर्मठ के इस स्थानापन्न मुख्यालय में श्री टोकरा नन्द समेत कुल ९ आचार्य हुए.
 
तत्पश्चात इश्वी सन १९४१ में ज्योतिर्मठ बद्रिकाश्रम के मुख्यमठ का जीर्णोद्धार कर वह पर श्री ब्रह्मा नन्द सरस्वती जी का अभिषेक किया गया .श्री ब्रह्मानंद सरस्वती जी के बाद श्री कृष्णबोधाश्रम जी जगद्गुरु शंकराचार्य हुए .श्री कृष्णबोधाश्रम जी के बाद अनंतश्रीविभूषित  स्वामी  स्वरूपानन्द सरस्वती जी महाराज यहाँ के शंकराचार्य के पद पर अभिषिक्त हुए जो की वर्तमान काल तक पदारूढ़ हैं .
 
मूल ज्योतिर्मठ की पुनः प्रतिस्ठा हो कने के पश्चात ज्योतिर्मठ का स्थानापन्न मुख्यालय धोलका मठ इश्वी सन १९८६ में ज्योतिर्मठ के वर्तमान शंकराचार्य अनंतश्रीविभूषित  स्वामी  स्वरूपानन्द सरस्वती जी महाराज को समर्पित कर दिया गया .इस प्रकार यह कहना कि ज्योतिर्मठ कि परंपरा विछिन्न रही ,कोरा भ्रम है .
 
टोकरा नन्द जी से वर्तमान शंकराचार्य अनंतश्रीविभूषित  स्वामी  स्वरूपानन्द सरस्वती जी महाराज पर्यंत १२ आचार्य हुए हैं और ब्रह्मचारी गोपाल से वासुदेव पर्यंत बद्रीनाथ मंदिर के कुल १२ ही रावल अब तक हुए हैं .
 
उपर्युक्त विवरणों से स्पष्ट है कि आचार्य शंकर के आविर्भाव  काल के सम्बन्ध में अविछिन्न परंपरा वाले शारदा मठ -द्वारका , गोवर्धन मठ – पूरी एवं ज्योतिर्मठ -बद्रिकाश्रम में पूर्ण मतैक्य है और यर तीनो मठ आचार्य शंकर का अविर्भाव काल वर्तमान काल से २५१९ वर्ष पूर्व तथा कैलाश गमन २४८७ वर्ष पूर्व मानते हैं          
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आदिशङ्कराचार्य का काल और इतिहास(भाग – ४) Adishankracharya period and Historical Facts Part – 4


आदिशंकराचार्य का काल और इतिहास( भाग -१ ) (Adishankracharya period and Historical Facts Part – 1 )

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आदिशंकराचार्य का काल और इतिहास( भाग -१ )

(Adishankracharya period and Historical Facts Part – 1 )

पारंपरिक  मान्यता के अनुसार सनातन धर्म के उन्नायक ,महान  दार्शनिक ,वेदांत दर्शन के अद्भुत  वायाख्याकर ,प्रचंड मेधा संपन्न शिवावतार भगवान आदिशंकराचार्य का जन्म वर्तमान भारत के केरल प्रान्त में एर्नाकुलम जनपद के काल्टी  नमक ग्राम में युधिस्ठिर शक संवत २६३१ वैशाख शुक्ल पंचमी नंदन वर्ष तदनुसार इशवी सन पूर्व ५०७ में शिवगुरु तथा अर्याम्बा नमक पिता- माता के घर में हुआ था.
काल्टी ग्राम केरल के प्रमुख औद्योगिक नगर अलवाये से मात्र १० किलोमीटर दूर है ,एर्नाकुलम जनपद से अलवाये की दूरी २१ किलोमीटर है.आदिशंकराचार्य का कैलाश गमन युधिस्ठिर शक संवत २६६३ कार्तिक पूर्णिमा तदनुसार इशवी सन पूर्व ४७५ में हुआ था .
 आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती के “सत्यार्थ प्रकाश ” के लेखन काल १८७५ इशवी सन तक उपर्युक्त मान्यता निर्विवाद मान्य थी यह “सत्यार्थ प्रकाश ” से स्पष्ट होता है.
 इस मान्यता के विरुद्ध बेलगाम हाईस्कूल के अध्यापक ने “इंडियन एंटीक्य्वारी खंड ११ पृष्ठ २६३ (जून १८८२ ई . अंक ) में प्रकाशित अपने एक लेख में लिखा की उन्हें बेलगाम में गोविन्द भट्ट हेर्लेकर के पास से बालबोध प्रकृति की तीन पत्रों की एक पाण्डुलिपि प्राप्त हुई जिसके अनुसार आदिशंकराचार्य का जन्म विभव वर्ष कलि संवत ३८८९ तथा परलोक गमन कलि संवत ३९२१ वैशाख पूर्णिमा तदनुसार इशवी सन ७७८ – ८२० में हुआ था .
 “इंडियन एंटीक्य्वारी खंड १६ पृष्ठ १६१ (ई० सन १८८७ )” में प्रकाशित एक लेख में कालीकट के डब्लू लोगन का अभिमत है की “केरालोत्पत्ति में लिखा है की आदिशंकराचार्य का जन्म ‘सफल वर्ष ‘में हुआ था ,चेरमन पेरूमल ने इस्लाम धर्म अंगीकार कर लिया था .
१६ वी सदी के उतरार्ध में लिखी गयी अरबी पुस्तक “तह्फत -उल-मुजाहिदीन ” में लिखा है की जफ़र में एक रजा दफनाया गया था .शिलालेख से ज्ञात होता है की २१२ हिजरी सन तुल्य इशवी सन ८३१-३२ में मृत्यु को प्राप्त हुआ था ” कुरान के अनुसार समीरी अथवा समरियाई का अर्थ ‘बछड़े का पूजक ‘ करते हुए लोगन महोदय ने उक्त कब्र को चेरामन पेरूमल की कब्र बता कर आदिशंकराचार्य को उनका समकालीन मानते हुए श्री पाठक द्वारा सुझाये गए काल ७८८ ई० से ८२० ई ० को आदिशंकराचार्य का काल मन लिया जब की केरालोत्पत्ति के अनुसार उक्त शंकराचार्य का जन्म ई ० सन ४०० में हुआ था तथा वे ३८ वर्ष तक इस धरा धाम पर रहे.
पश्चातवर्ती बौद्ध विद्वान कमलशील  ने आदिशंकराचार्य के भाष्य में उद्घृत कुछ पंक्तियों को दिग्नाग की पंक्तिया बताकर अर्वाचीन मत को और बल दिया जिसका अनुशरण अन्य विद्वानों ने भी किया . अंत में काशिका नन्द गिरी महोदय ने “भारतीय अश्मिता और राष्ट्रीय चेतना के आधार जगदगुरू आदिशंकराचार्य ” नमक पुस्तक में प्रकाशित अपने एक लेख ‘भाष्यकार आचार्य भगवत्पाद का आविर्भाव समय’ में उपर्युक्त अर्वाचीन मतावलंबियो के अन्वेषणों को समेकित करते हुए भाष्यकार शंकराचार्य का आविर्भाव काल ७८८ ई ० सन तथा कैलाश गमन काल ८२० ई ० सन प्रमाणिक बताया और अपनी उक्त मान्यता के आधार पर ई ० सन १९८८ में आदिशंकराचार्य के आविर्भाव काल का कथित द्वादश शताब्दी वर्ष समारोह आयोजित किया .
 यहाँ  यह ध्यान देने योग्य तथ्य है की पंडित बलदेव उपाध्याय द्वारा अनुवादित “श्रीशंकरदिग्विजय ” के द्वितीय संस्करण की भूमिका में १९६७ ई ० में स्वामी प्रकाशानंद आचार्य महामंडलेश्वर श्री जगदगुरू आश्रम ,कनखल हरिद्वार ने आचर्य शंकर के पारंपरिक आविर्भाव काल युधिस्ठिर शक संवत २६३१ को ही प्रमाणिक माना है .
यह सभी वर्णित पूर्व पक्ष है. आज उपलब्ध हो रहा भारतीय इतिहास एकांगी एवं आंशिक है .बर्बर आक्रामको ने हमारी सभ्यता और संस्कृति दोनों को नष्ट-भ्रष्ट कर डाला,मठ,मंदिर,नगर ,आश्रम ,हस्तशिल्प ,उद्योग व्यापार तथा समुन्नत वैज्ञानिक उपलब्धियों को छिन्न-भिन्न कर डाला और अनंत ज्ञान-भंडार पुस्तकालयों को स्वाहा कर दिया . फलस्वरूप शेष रह गए केवल खंडित अवशेष इन्ही खंड – खंड विकीर्ण भग्नावशेष पर आधारित हुआ हमारा तथाकथित इतिहास जिसको पुरातात्विक उत्खनित सामग्री पूर्णता न दे सकी.  पराधीन भारत के गुलाम इतिहासकार पाश्चत्य दिशा निर्देशों /इंगितो के वंशवद  रहे .स्वतंत्र चेतना के साथ इतिहास लेखन नहीं हो सका .
 सारा इतिवृत राजपरिवार विशेष ,नगर विशेष अथवा कालखंड विशेष के ही परिपार्श्व में ही सिमटा रहा अखंड भारत का तारतम्य अक्षुण्य  इतिहास समग्रता की दृष्टि से नहीं लिखा जा सका आदिकाल से लेकर आज तक भारत के सांस्कृतिक वृत्त तो नगण्य ही है ,विश्व गुरु भारत का एक भी ऐसा  ग्रन्थ दुर्भाग्य से नहीं लिखा जा सका जो प्राचीनतम भारत से प्रारंभ कर आज तक की साहित्यिक ,धार्मिक ,कलात्मिका एवं सांस्कृतिक प्रवितियो का परिचय दे सके.
  संकीर्ण मनोवृति एवं स्वल्पोपलब्ध खंडित  सामग्री के आभाव के कारण अपेक्षाए पूर्ण नहीं हो सकी ,अतः सारा इतिहास अपने -अपने स्पर्श में आये हाथी के अंगो के अन्य वर्णन सा है ,खंडित अपूर्ण और हास्यास्पद भी है ऐसी स्तिथि में हमारी वैचारिक ,दार्शनिक,धार्मिक एवं सांस्कृतिक परम्पराए ही हमारी विकीर्ण तथ्य-श्रृंखलाओं  का ग्रथन करने में सहायक हो सकती है.
खेद है की आज के तथाकथित वैज्ञानिक इतिहासकार परम्परा को निराधार,अवैज्ञानिक,ऐतिहासिक अथवा  पुराकथा मात्र मानकर विषयों  का अपलाप करते हैं  वास्तिवकता तो यह है की परंपरा ही हमें एक सूत्र में पिरोती है,विलुप्त एवं विस्मृतप्राय   तथ्यों का परिचय देती है,समन्वय हेतु समाधान प्रस्तुत करती है .
विकिर्ण खंडित पुरातात्विक अवशेषों के आधार पर भारत का जो   भी राजनीतिक ,सांस्कृतिक,धार्मिक अथवा साहित्यिक इतिहास प्रस्तुत किया  जा  सका वह अपनी आधार सामग्री के सदृश स्वल्प एवं अपूर्ण  ही  हैं
हर्षवर्धन के पूर्व का इतिहास समग्र भारत की समन्वित झांकी भी नहीं दे पा रहा है,उससे पूर्ववर्ती दार्शनिको,आचार्यो ,धर्मधारावो ,ग्रंथो और सामाजिक मान्यताओ का प्रमाणिक वृतांत उपलब्ध नहीं हो पा रहा है . उससे पूर्ववर्ती दार्शनिको,आचार्यो ,धर्मधाराओ  ,ग्रंथो और सामाजिक मान्यताओ का प्रमाणिक वृतांत उपलब्ध नहीं हो पा रहा है .
जिससे उनको लेकर अनेक प्रकार की भ्रान्तिया पैदा होती जा रही है .कुछ कुत्सित एवं घृणित राजनितिक स्वार्थसाधक आज राजनीतिक स्वतंत्रता प्राप्ति की अर्धशताब्दी के बाद भी खुले मश्तिष्क से अपने समृद्ध रिक्थ का सही मूल्याङ्कन न करके विवाद उतपन्न करते जा रहे है .भारत में विभिन्न अवसरों और प्रदेशो में प्रादुर्भूत विचार-धारावो को परस्पर पूरक और संवर्धक न मानकर परस्पर विरुद्ध सिद्ध किया जा रहा है.
 इसी प्रकार विवादग्रस्त बाते भगवत्पाद आद्यश्रीशंकराचार्य के भी विषय में उठाई  जा रही है .उनकी प्राचीनता की समुचित समीक्षा न करके बिना किसी ‘ननु-नच’ के उनको ईशा की ८ वी शताब्दी का  माना  जा रहा है ,क्योंकि आज उपलब्ध स्वल्प खंडित  साक्ष्य इतने परवर्ती है की उनके आधार पर आद्यश्रीशंकराचार्य को और प्राचीन सिद्ध ही नहीं किया जा सकता .
प्रसन्न्ता  का विषय यह है की कुछ विद्वानों का द्रिगुन्मेश हो रहा है-आँखे खुल रही है.नए विवेचना के स्रोत प्रस्फुटित हो रहे है और उनके तथा अन्य अन्तः साक्ष्यो के आधार पर निष्पक्ष विचार की प्रक्रिया प्रारम्भ हो चुकी है आद्यश्रीशंकराचार्य के काल निर्धारण में वैदिक परम्परा की प्रतिद्वंदी बौद्धधारा के ग्रन्थ ,आचार्य और विषय सहायक हो रहे हैं

आदिशंकराचार्य का काल और इतिहास(भाग – २) Adishankracharya period and Historical Facts Part – 2)

आद्यश्रीशंकराचार्य से महाराज सुधन्वा का सम्बन्ध सिद्ध 
 Adishankaracharya and Great King Sudnwa(historical evidence and Relationships)
सुधन्वा पौराणिक अथवा  ऐतिह्य पात्र न होकर ऐतिहासिक पुरुष रहे है .तिब्बत के बौद्ध विद्वान लामा तारा नाथ(Tibetan Buddhist scholar Lama Tara Nath) ने अपने ग्रन्थ “भारत में बौद्ध धर्म का विकास”(“Development of Buddhism in India”)में ऐतिहासिक पुरुष सुधनु का उल्लेख किया है जो सुधन्वा के समरूप हैं, हिमाचल प्रदेश के ताबो बौद्ध मठ में (Tabo Buddhist monastery Of Himachal Pradesh(India )भी सुधनु से संबध अभिलेख प्राप्त हो रहे है
 इन अभिलेखों पर ऑस्ट्रिया के बौद्ध विद्याविद प्रो .अर्नेस्ट इस्तायीन्न केलनर(Austrian Buddhist Pro. Ernest Istain Kellner) ने पुस्तक लिखी है ,जो इटली के रोम नगर की इस्मियो संस्था से प्रकाशित हो चुकी हैbeen published by the Ismio institution in the Italian city of Rome),इनकी सभी बातें हमारे लिए प्रासंगिक नहीं हो सकती है किन्तु इतना तो निशित हो जाता है की सुधनु (=सुधन्वा )ऐतिहासिक पुरुष थे,मात्र मिथक नहीं .
यूरोपीय विद्वान इन्गाल्स ने १९५४ ई. में(European Scholar Ingalls in 1954 AD) शोध पत्रिका “फिलासोफी ईस्ट एंड वेस्ट ” अंक ३ .(“Samkara’s arguments against the Buddhists”.Author:Ingalls, Daniel H. H.Source:Philosophy East and West=Philosophy East & West.Volume:v.3 n.4.Date:1954.01.01.Pages:163 – 175)
में आद्यश्रीशंकराचार्य द्वारा शारीरक भाष्य में उद्धत बौद्ध संदर्भो की समीक्षा की हैऔर नए विचार प्रस्तुत करते हुए पुराणी  स्थापनाओ का खंडन किया है .इन्होने भाष्य में तथाकथित रूप से धर्मकीर्ति के नाम से उद्धत अंश को प्रमाणवार्तिक आदि बौद्ध न्याय के आचार्य धर्मकीर्ति का वचन न मानकर किसी अन्य धर्मकीर्ति का कथन माना  है .बौद्ध न्यायिक धर्मकीर्ति के उद्धत वचन के आधार पर आद्यश्रीशंकराचार्य का समय उनके बाद स्थापित किया जाता है.
 इन्गाल्स के आधार पर आद्यश्रीशंकराचार्य के धर्मकीर्ति से उत्तरवर्तिका की अवधारणा निर्मूल हो जाती है .
आदि शंकराचार्य ने एक नहीं अनेक बार बुद्ध को अपने मस्तिष्क का परिचालक बताया है, किन्तु दूसरी तरफ उन्होंने बौद्ध स्थलियों को नेस्तोनाबूद करने का अभियान भी चलाया। प्रख्यात स्वतंत्रता सेनानी तथा इतिहासकार विश्वंभर नाथ पाण्डे ने लिखा है कि बौद्ध विरोधी राजा ‘सुधन्वा’ की सेना के आगे-आगे शंरकाचार्यजी चलते थे। स्मरण रहे कि उज्जैन के राजा सुधन्वा ने अनगिनत मठों को धवस्त कराया था। जिन चार पीठों की स्थापना शंकराचार्य ने की, वहां पुराने बौद्ध मठ हुआ करते थे, आचार्य शंकर का तथाकथित ‘विश्व विजय` अभियान कुछ और न होकर वास्तव में बौद्धों के ऊपर हिंसक विजय का अभियान ही था, जिसमे रजा सुधन्वा की सक्रीय भागीदारी थी। यह तथ्य भी आद्यश्रीशंकराचार्य से महाराज सुधन्वा का सम्बन्ध सिद्ध करता है।
चीनी यात्री युवानच्वांग के यात्रावृत से ज्ञात होता है कि अवन्ती या उज्जयिनी का राज्य उस समय (615-630 ई.) मालव राज्य से अलग था और वहाँ शंकराचार्य के समकालीन एक स्वतन्त्र राजा अवन्ती-नरेश सुधन्वा का शासन था। यह भी इस तथ्य की पुष्टि करता है।
प्रसिद्द इतिहासकार डॉ. वी वी. मिराशी ने भी लिखा है कि – “. . . . और ८वी. शती में शंकराचार्य ने वैदिक मत के आधार पर इस (अवंतिका) क्षेत्र में यहाँ के राजा सुधन्वा के साथ मिल कर बौद्धों से युद्ध किया और हिंदू धर्म को पुनर्जीवित किया, जिससे लोकमत में अनोखी क्रांति आई और लोक संस्कृति में आत्मविश्वास जगा।”
महाराजा सुधन्वा ने आद्यशंकराचार्य जी से अत्यंत आग्रहपूर्वक शांकरपीठों के पीठाधिपति शंकराचार्यो को धर्म रक्षार्थ देवराज इन्द्र की भांति छत्र, चँवर, सिंहासन धारण करने का निवेदन किया था। उनके इस आग्रह को पूज्यपाद आद्य शंकर द्वारा स्वीकार किया गया।
धर्म की स्थापना, उसके प्रचार-प्रसार और भौम तीर्थो यथा-प्रयागादि कुम्भादि पर्वो पर एक धर्म सम्राट की तरह छत्र चांवरादि धारण करने का निर्देश आद्य शंकराचार्य ने भावी पीठाचार्यो को दिया। आज भी चारों पीठों के शंकराचार्यो द्वारा कुंभ आदि पर्वो किंवा अवसरों पर इस परंपरा का पालन किया जाता है। श्रृंगेरीपीठ में आज भी हैदर अली के पुत्र सम्राट टीपू सुल्तान द्वारा प्रदत्त मुकुट वहां के शंकराचार्य जी के पास विद्यमान है।
सुघन्वन: समौत्सुक्यनिवृत्त्यै धर्म-हेतवे।
देवराजोपचारांश्च   यथावदनु      पालयेत।।
आचार्य शंकर के अनुसार राजचिह्न धारण करने वाले धर्माचार्यो को पद्मपुत्र की तरह निर्लिप्त रहकर इस वैभव का निर्वाह करना चाहिए। राजचिह्न धारण का पात्र केवल पीठ का अधिपति ही है। यह व्यवस्था संन्यासी के लिए नहीं है। अत: जो लोग यह संदेह करते हैं कि संन्यासी तो मात्र दण्ड-कमंडल के ही धारक हैं। छत्र-चँवर से उनका क्या प्रयोजन है। इसका भी उत्तर भगवत्पाद द्वारा अत्यंत विनम्रता के साथ दिया गया कि “धर्म से विमुख लोगों को धर्मपथानुगामी बनाने तथा परोपकार की भावना से ही ब्रह्मनिष्ठ आचार्यो के लिए ऐसे वैभव का विधान बनाया गया। इसीलिए लोक को चाहिए कि मनसा, वाचा, कर्मणा अपने अपने संबंधित गुरु-पीठ की अर्चना करे। जिस प्रकार पृथ्वीपालक राजा अपनी प्रजा से कर लेने का अधिकारी है, उसी प्रकार अधिकार प्राप्त पीठाधीश्वर भी धर्मानुसार कर लेने के अधिकारी हैं।”
केवलं   धर्ममुद्दिश्य  विभवो    ब्रह्माचेतसाम्।
विहितश्चोपकाराय  –  पद्मपत्रनयं      व्रजेत्।।
चातुर्व‌र्ण्य यथायोग्यं वाड्.मन: कायकर्मभि:।
गुरो:पीठं     समर्चेत-विभागानुक्त्रमेण    वै।।
धरामालब्य   राजान:  प्रजाभ्य: करभागिन:।
कृताधिकारा   आचार्या – धर्मस्तद्वदेव   हि।।
आद्य शंकराचार्य जी का अभिमत था कि मानव का मूल धर्म है, वह आचार्य पर निर्भर है, क्योंकि सामान्य जन को धर्म के तत्वों का ज्ञान नहीं होता, धर्माचार्य लोग अपने अनुभूतिजन्य ज्ञान से कर्तव्य कर्म का उपदेश देते हैं इसलिए आचार्यरूपी अनमोलमणि का शासन सर्वोपरि है। अत: सर्वतोभावेन उदारचरितवाले आचार्य का शासन सभी को स्वीकार करना चाहिए। विश्व के रक्षार्थ धर्म का यह उपदिष्ट मार्ग ही सभी वर्गो तथा सभी आश्रमों (ब्रंाचर्य, ग्रहस्थ, वानप्रस्थ व संन्यास) के लोगों के लिए अनुकरणीय और मर्यादानुकूल है-
धर्मो  मूलं मनुष्याणां स  चाचार्यावलम्बन:।
तस्मादाचार्यसुमणे:  शासनं  सर्वतोधिकम्।
तस्मात् सर्वप्रयत्‍‌नेन शासनं  सर्वसम्मतम्।
आचार्यस्य विशेषण  ह्यौदार्यभर  भागिन:।।
धर्मस्य  पद्धतिह्यौषा जगत:  स्थितिहेतवे।
सर्ववर्णाश्रमाणां  हि  यथाशास्त्रं   विधीयते।।
वैदिक सनातन धर्म के रक्षार्थ आद्य शंकराचार्य ने चार मठों की स्थापना किया। तदन्तर सात धर्म-सैनिक अखाड़ों का निर्माण हुआ। इन अखाड़ों का सनातन संस्कृति की रक्षा में तो योगदान है ही कुंभ पर्व में इन अखाड़ों के साधुओं व नागाओं की उपस्थिति कुंभ पर्व के सौन्दर्य व आध्यात्मिक गरिमा को सुदृढ़ बनाती है। ये सात अखाड़े तीन भागों में विभक्त हैं। जिनमें महानिर्वाणी के साथ अटल, निरंजनी के साथ आनंद तथा जूना अखाड़े के साथ आवाहन व अग्नि अखाड़े रहते हैं। कुंभ पर्व के अवसर पर संपादित होने वाले शाही स्नान हेतु इसी क्त्रम में ये अखाड़े स्नान को आते हैं।
राजा सुधन्वा के द्वारा भगवत्पाद की समर्पित प्रशस्तिपत्र में अंकित है
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“युधिष्ठिरशके २६६३, आश्विन शुक्ल १५,- सुधन्वा सार्वभौमः “
अतः २६६३ – २६३१ जन्मकाल युधिष्ठिरशक ३२ वर्ष की आयु जब आचार्यप्रवर की थी तब सार्वभौम सम्राट सुधन्वा ने ताम्रपत्र विज्ञप्ति समर्पित की .
आचार्य शङ्कर के शिष्य माहिष्मती नरेश सुधन्वा ,नेपाल नरेश वृषदेव वर्मा तथा कश्मीर नरेश जलौक, तद्वत पूर्ण वर्मा तथा राजसेन समसामयिक सम्राट थे .
‘ गोवर्द्धनमठ – विमलापीठ – जगद्गुरुपरम्परानाममालास्त्रेत ‘ में भगवत्पाद के सोलह अपीठग शिष्यों में ब्रह्मर्षि चित्सुखादि के एवं राजर्षि सुधन्वा आदि के नामों का समुल्लेख इस प्रकार है –
चित्सुखं   भारतीवंशं   सुबोधज्च  प्रभाकरम् 
उदङ्कं  दृढभक्तं  च    मेधातिथिमुनिश्वरम् ।।
नित्यानन्दं  शुद्धकीर्तिं योगानन्दो यतिश्वरम् 
ब्रह्मस्वरुपं सुमतिं गुरोः शिष्यान्नमाम्यहम् ।।
सुध्न्वानं     राज्सेनं      पूर्णवर्माणमेव    च 
वृषदेवञ्च  नृपतीन्  गुरुभक्तान्  भजे   सदा ।।
अद्वैताचार्यसच्छिष्यान्   षोडशैतानपीठगान् 
शङ्कराचार्यबोधेन्दुकला   भूतान्     समाश्रये ।।
कलिसम्वत २६१५ अर्थात युधिष्ठिर सम्वत (२६१५ + ३६) २६५१ में भगवत्पाद ने नेपाल की यात्रा की थी .
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 का काल और इतिहास(भाग – ३) Adishankracharya period and Historical Facts Part – 3

आदि शङ्कराचार्य और बौद्ध साहित्य
(Adi Sankaracharya and Buddhist literature)
 
श्री आदिशङ्कराचार्य   के काल निर्धारण में वैदिक परम्परा की प्रतिद्वंदी बौद्धधारा के ग्रन्थ ,आचार्य और विषय सहायक हो रहे ‎हैं
इसी प्रकार की बाते माध्यमिक ,वैभासिक ,योगाचार और सौतांत्रिक मतों की ‘शारीरक भाष्य ‘में विवेचना के विषय में उठती है .यहाँ केवल सामान्य आधारभूत सिद्धांत का खंडन है ,न की आचार्य विशेष  की उक्ति का. इस तथ्य को सभी बौध विद्वान निर्विवाद रूप से स्वीकार करते है की किसी भी आचार्य ने ,चाहे वह वसुबन्धु हो,असंग हो, मैत्रेयनाथ आर्यदेव अथवा नागार्जुन हो . ऐसा नया कुछ भी नहीं कहा है जिसका उपदेश पूर्ववर्ती बुद्धो ने किसी न किसी रूप में न किया हो.
अतः समस्त सम्प्रदायों का मूल तो बुद्ध-वचनों में ही मिलता है ,परवर्ती आचार्य तो मात्र उनको व्यवस्थित करने वाले ही है, प्रचारक है उद्भावक नहीं . बुद्ध भी एक नहीं अब तक के द्वादश कल्पो में कुल मिलाकर तण्ट्टङकर से लेकर शाक्यमुनि गौतम बुद्ध तक २८ हो चुके है , मैत्रयनाथ नाम के २९वे बुद्ध का प्रादुर्भाव अभी शेष है जो भविष्य में होगा .
‘बुद्धवंश’ पालिग्रंथ में (नालंदा महाविहार से सन १९५९ ई. में प्रकाशित ) पृष्ठ २९७ से ३८१ पर इनका वर्णन है .किसी कल्प में चार ,किसी में एक ,दो,तीन,अथवा चार बुद्ध हुए है .बुद्ध पद बोधि प्राप्त मनुष्य की उपाधि है नाम विशेष नहीं .
उक्त सभी बुद्ध ऐतिहासिक पुरुष रहे है ,भद्रकल्प में उत्पन्न ककुसंध ,कोणागमन तथा कस्सप इन तीनो के स्तूप – स्मारक श्रावस्ती से निकट अथवा कुछ योजन दूर भारत या नेपाल में मिल रहे है .इनसे इनकी ऐतिहासिकता सिद्ध हो जाती है .गौतम बुद्ध से सम्बद्ध स्तूप और अवशेष तो लोकविदित है ही
इन सभी बुद्धो की विशेषता यह रही की उन्होंने अपनी स्थापनाओ, मान्यताओ, विचारो को अपना स्वतंत्र चिंतन नहीं अपितु पूर्ववर्ती बुद्धो द्वारा अनुभव के बाद उपदिष्ट सत्यो का प्रतिरूप माना  है – ”बुद्धवंश’ पालिग्रंथ ‘ पृष्ठ ३०४ में यही कहा गया है
अतीत बुद्धानं जिनानं देसितम ,
निकीलितं   बुद्ध   परम्परागतं . 
पुब्बेनिवाषानुग्ताय     बुद्धिया , 
पकशामी  लोकहितं  सदेव  के .  
                                (१ . ७९ ) 
अर्थात जो एक बुद्ध का उपदेश है ,वह अतीत के बुद्धो, जिनों द्वारा उपदिष्ट निष्कीलित और बुद्धो की परंपरा से आया हुआ है . वह पूर्व जन्म की स्मृति से अनुगत बुद्धी  के द्वारा देवताओ सहित मनुष्य लोक के हितार्थ प्रकाशित किया गया है .
इसी प्रकार अन्यत्र “पुब्बकेही महेसीि आसवितनिसेवित “ (वही पृष्ठ ३१४) २.१२६ सदृश उक्तिया दृष्टव्य है  .
संपूर्ण पालित्रिपटिक तथा संस्कृत श्रोतो में पूर्व बुद्धो की मान्यताओ और अनुभवों के परवर्ती बुद्धो  द्वारा प्रतिपादन का उल्लेख स्थान – स्थान पर मिलता है . इसी कारण पुर्ववर्ती  बुद्ध के उपदेश शब्दसः और वाक्यशः परवर्ती बुद्ध के कथनों में उद्धृत हो जाते है .उनका उल्लेख करते समय आचार्य भी उन्ही को उद्धृत कर दाते हैं जो बाद मे अल्पज्ञों द्वारा , बुद्ध  का नहीं आचार्य विशेष के वाक्य समझ लिए जाते है . ऐसी  ही कुछ बात धर्मकीर्तितथा अन्य बुद्ध संप्रदाय के सिधान्तो के निरूपण के विषय में भी चरित्रार्थ होती है
आज आवश्यकता है ,समय की अपेक्षा है की वैदिक तथा अवैदिक यावदुपलब्ध समस्त वाङ्ग्मय का आधिकारिक आलोडन – विलोडन करके प्राप्त अन्तः साक्ष्यो के सहाय्य से बाह्य साक्ष्यो से संगति बैठते हुए विषय स्थापना की जाये .जहा यह भी पूर्णतः सहायक नहीं हो पाते वह परंपरागत मान्यताओ को भी प्रमाणिक मानकर निष्कर्ष निकला जाये .
कभी कभी तो केवल उत्खनित पुरातात्विक सामग्रियों को ही आधार बनाकर विषय स्थापना हास्यास्पद प्रतीत होगा .
गौतम बुद्ध का निर्वाणकाल
आज के इतिहास विशेषज्ञ यह मानते हैं कि भगवान बुद्ध का जन्म इसवी सन पूर्व ५६१ तथा निर्वाण इसवी सन पूर्व ४८१ में हुआ , यदि आचार्य का समय इसवी सन पूर्व ५०१ से इसवी सन पूर्व ४७७ होता तो ऐसी स्थिति में उनका शास्त्रार्थ बुद्धानुयायियों के साथ न होकर साक्षात बुद्ध के साथ ही संभव था .क्या इस बात को इतिहास पढने वाला बच्चा भी मान सकता है?
कैण्टन से प्राप्त एक अभिलेख के प्रमाण को ग्रहण कर इतिहासकार डॉ. रमेशचन्द्र मजुमदार एवम डॉ.विद्याधर महाजन (Historian Dr Ramesh Chandra Majumdar and Dr. Vidyadhar Mahajan )ने गौतम बुद्ध क निर्वाण काल इसवी सन पुर्व ४८७ माना है . इसकी पुष्टि बौद्ध ग्रन्थ ‘ महावंश ‘  से भी होती है जिसके अनुसारगौतम बुद्ध के निर्वाण के २१८ वर्ष पश्चात् मौर्य सम्राट अशोक का राज्याभिषेक हुआ था .
द्वारका – शारदा मठ के तत्कालीन शंकराचार्य द्वारा १८९७ इसवी सन में रचित ‘ विमर्शः ‘ ग्रन्थ के अनुसारइसवी सन पुर्व ४८८ में आचार्य शंकर ने अपनी धार्मिक दिग्विजय यात्रा का शुभारम्भ द्वारका से किया. ऐसी स्थिति में द्वारका से अत्यधिक दूर कुशीनारा में ४८७ इसवी पुर्व में ८० वर्ष की आयु में मृत्यु को वरण करने वाले गौतम बुद्ध के साथ आचार्य शंकर का शास्त्रार्थ होना सम्भव न था .
नेपाल के इतिहास से ज्ञात होता है कि शंकराचार्य बौद्ध विद्वानों से शास्त्रार्थ करने हेतु उनकी खोज में चल पड़े जिसके फलस्वरूप १६ बोधिसत्व उनकी विद्वता से भयाक्रान्त होकर शास्त्रार्थ से बचने के लिए भारत से नेपाल की ओर भाग गए. आचार्य शंकर उन १६ बोधिसत्वों का पीछा करते हुए ई. सन पूर्व ४८७ में नेपाल पहुचे परन्तु उन्हें बोधिस्त्व न मिले क्योंकि वो लोग शंकराचार्य जी से बचने के लिए उत्तर दिशा में स्थित हिमालय की ओर भाग गए थे. ऐसी स्थिति में नेपाल के गृहस्थ बौद्ध विद्वानों को शास्त्रार्थ में पराजित कर वहां पर सनातनधर्म की पुनः प्रतिष्ठा कर आचार्य शंकर वापस पूर्व समुद्र की ओर चले गए.
उपर्युक्त विवरणों से स्पष्ट हो जाता है कि आचार्य शंकर ने बुद्ध एवं उनके १६ बोधिसत्वों से शास्त्रार्थ करने का प्रयास किया परन्तु बुद्ध की मृत्यु तथा बोधिसत्वों के पलायन ने उनके प्रयास को विफल कर दिया . आचार्य शंकर का प्रमाणिक काल ई० पूर्व ५०७ से ई० पूर्व ४७५ है.( Adi Shankaracharya authentic period from 507 BC to 475 BC) अतः उपर्युक्त परिस्थितियों में उनका शास्त्रार्थ साक्षात् बुद्ध के साथ न होकर बुद्धानुयायिवों के साथ होना पुर्णतः संगत है .    
 

आदिशङ्कराचार्य का काल और इतिहास(भाग – ४) Adishankracharya period and Historical Facts Part – 4

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चार संप्रदाय प्रवर्तक बुद्ध


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पूर्व पक्ष :
 
आचार्य ने वैभाषिक (Vaibhāṣika Philosophy),सौतांत्रिक (Sautrāntika Philosophy),योगाचार (Yogācāra Philosophy)एवं माध्यमिक ( Mādhyamika Philosophy) इन चारो सिद्धांतो का यथासंभव निराकरण किया है। यह निश्चित बात है कि ये चार मतभेद बुद्ध के काफी समय बाद में हुए है 
 
वैभाषिक मत (Vaibhāṣika Philosophy), के प्रवर्तक कात्यायनीपुत्र बुद्ध (KātyāyanīPutra Buddha) के तीन सौ वर्ष बाद , सौतांत्रिक मत (Sautrāntika Philosophy), के प्रवर्तक कुमारलात बुद्ध (Kumar Laat Buddha) के चार सौ वर्ष बाद ,योगाचार मत (Yogācāra Philosoph) के प्रवर्तक मैत्रेयनाथ (Maitreyanātha) ई० सन की चतुर्थ शती तथा माध्यमिक मत ( Mādhyamika Philosophy)  के प्रवर्तक नागार्जुन (Nāgārjuna) ई० सन की द्वीतीय  शती में हुआ था  अतः ई० सन की द्वीतीय शती से पूर्व आचार्यो को ले जाना संभव नहीं है  
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वैभाषिक (Vaibhāṣika Philosophy),सौतांत्रिक (Sautrāntika Philosophy),योगाचार (Yogācāra Philosophy)एवं माध्यमिक Mādhyamika Philosophy) इन चारो सम्प्रदायों का प्रवर्तन गौतम बुद्ध(Siddhārtha Gautama Buddha) एवं उनके तीन पूर्ववर्ती बुद्धो क्रमशः कश्यप (Mahākāśyapa Buddha) ,कोणागमन (Koṇāgamana Buddha कनकमुनि) तथा क्रकुच्छन्द (Krakucchanda Buddha) द्वारा किया गया था  

कात्यायनी पुत्र (KātyāyanīPutra Buddha),कुमार लात (Kumar Laat Buddha), मैत्रेय नाथ  (Maitreyanātha )एवं नागार्जुन (Nāgārjuna )उपर्युक्त सम्प्रदायों के प्रवर्तक नहीं है .इन लोगो ने भाष्य ग्रंथो का सृजन कर पूर्ववर्ती चार बुद्धो द्वारा प्रवर्तित सम्प्रदायों के सिद्धांतो का विशदीकरण एवं व्याख्यान किया है  

इसमें साक्षात् गौतम बुद्ध (Siddhārtha Gautama Buddha) का वचन प्रमाण है   वेरंजा वर्षा-वास कल में गौतम बुद्ध(Siddhārtha Gautama Buddha) के शिष्य सारिपुत्र (Śāriputra) ने उनसे पूछा – किन किन बुद्धो का संप्रदाय चिरस्थायी नहीं हुआ है और ऐसा होने का कारण क्या था?गौतम बुद्ध (Siddhārtha Gautama Buddha ने उत्तर दिया भगवान् क्रकुच्छन्द (KrakucchandaBuddha)  ,कोणागमन (Koṇāgamana Buddha कनकमुनि) तथा कश्यप (Mahākāśyapa Buddha )के संप्रदाय चिरस्थायी हुए क्योंकि वे श्रावको को विस्तारपुर्वक धर्मदेशना करने में आलस्य रहित थे   उनके उपदेश किये सूत्र ,गेय .व्याकरण (=व्याख्यान), गाथा , उदान ,एतिवृतक , जातक ,अद्भुत ,धर्म एवं वैदल्य बहुत थे   उन्होंने ने शिक्षापदों (= विनय) का विधान किया था तथा प्रतिमोक्ष (= भिक्षुयो के आचारिक नियम ) का उपदेश किया था जिसके कारण उन बुद्ध भगवानो के तथा  बुद्धानुबुद्ध  श्रावको के अंतर्ध्यान होने पर परवर्ती  प्रव्रजित शिष्यों की परंपरा ने  उनके सम्प्रदायों को दीर्घकाल तक चिरस्थाई रखा  परन्तु भगवन विपश्यी Vipashyin)शिखी (Śikhīn Buddha)  तथा विश्वभू (Vessabhū ) के संप्रदाय चिरस्थाई नहीं हुए  क्योंकि वे श्रावको को विस्तारपूर्वक धर्मदेशना करने में आलसी थे   उनके उपदेश किये सूत्र ,गेय .व्याकरण (=व्याख्यान), गाथा , उदान ,एतिवृतक , जातक ,अद्भुत ,धर्म एवं वैदल्य बहुत थोड़े  थे .उन्होंने ने शिक्षापदों (= विनय) का विधान नहीं किया था तथा प्रतिमोक्ष (= भिक्षुयो के आचारिक नियम ) का उपदेश नहीं किया था जिसके कारण  उन बुद्ध भगवानो के तथा  बुद्धानुबुद्ध  श्रावको के अंतर्ध्यान होने पर पिछले   प्रव्रजित श्रावको ने  उनके सम्प्रदायों का शीघ्र ही लोप कर दिया ‘  

उपर्युक्त प्रमाण से यह प्रकट होता है कि गौतम बुद्ध (Siddhārtha Gautama Buddha )के समय कम से कम उनके तीन परवर्ती बुद्धो द्वारा तीन अलग अलग  सम्प्रदायों का विपुल साहित्य वर्तमान था   बाद में गौतम बुद्ध (Siddhārtha Gautama Buddha )ने अपने इन तीन पूर्ववर्ती बुद्धो का अनुकरण करते हुए चौथे संप्रदाय का प्रवर्तन किया  इन्ही चार सम्प्रदायों को विभिन्न बौध विद्वानों के भाश्यग्रंथो की प्रसिद्धि के आधार पर हम , वैभाषिक (VaibhāṣikaPhilosophy), सौतांत्रिक (SautrāntikaPhilosophy), योगाचार (Yogācāra Philosophy) एवं माध्यमिक Mādhyamika Philosophy)   सिद्धांतो के नाम से जानते है  

अतएव यह कहना सर्वथा अयुक्तियुक्त एवं असंगत है कि उपर्युक्त चारो सम्प्रदायों का विकास गौतम बुद्ध (Siddhārtha Gautama Buddha )के पश्चात हुआ .परवर्ती विद्वानों ने तो केवल प्राचीन बौद्ध सिद्धांतो कि व्याख्या एवं मंडन किया है न कि प्रवर्तन.
आचार्य नरेन्द्र देव (Acharya Narendra Deva) लिखते है – हीनवादियो(Hīnayāna members) के अनुसार शत साहस्त्रिकाप्रज्ञापारमिता (Shat sahstrikaPrajñāpāramitā) अंतिम महायान सूत्र Mahāyāna Mahāparinirvāṇa Sūtra)है और उसके रचयिता नागार्जुन(Nāgārjuna) है .

वास्तव में नागार्जुन (Nāgārjuna) कृत प्रज्ञापारमिता सूत्र (Prajñāpāramitā sūtras)  शास्त्रपंचविंशतिसाहस्त्रिकाप्रज्ञापारमिता की  टीका है  इसी कारण भ्रम वश नागार्जुन (Nāgārjuna) को शतसाहस्त्रिकाप्रज्ञापारमिता का रचियता मान लिया गया  कम से कम नागार्जुन महायान (( Mahāyāna )के प्रतिष्ठापक नहीं है ,क्योंकि इसमें संदेह नहीं कि उनसे बहुत पहले ही महायान सूत्रों  ( Mahāyāna Mahāparinirvāṇa Sūtra) कि रचना हो चुकी थी ‘  

आचार्य नरेन्द्र देव (Acharya Narendra Deva)  आगे लिखते है -योगाचार (Yogācāra) विज्ञानवाद के प्रतिस्थापक असंग (Asaṅga) न थे बल्कि मैत्रयनाथ (Maitreyanātha) थे  अभिसमयाल्न्कारकारिका (Abhisamaya-alaṅkāra) मैत्रयनाथ ((Maitreyanātha) की कृति है   यह ग्रन्थ  पंचविंशतिसाहस्त्रिकाप्रज्ञापारमिता सूत्र की  टीका है   यह टीका योगाचार (Yogācāra) की दृष्टि  से लिखी गयी है   


 
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शरीर का दर्द


शरीर का दर्द

शरीर का दर्द
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हार्ट अटैक: ना घबराये ……!!


हार्ट अटैक: ना घबराये ……!!!
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सहज सुलभ उपाय ….
99 प्रतिशत ब्लॉकेज को भी रिमूव कर देता है पीपल का पत्ता….
पीपल के 15 पत्ते लें जो कोमल गुलाबी कोंपलें न हों, बल्कि पत्ते हरे, कोमल व भली प्रकार विकसित हों। प्रत्येक का ऊपर व नीचे का कुछ भाग कैंची से काटकर अलग कर दें। पत्ते का बीच का भाग पानी से साफ कर लें। इन्हें एक गिलास पानी में धीमी आँच पर पकने दें। जब पानी उबलकर एक तिहाई रह जाए तब ठंडा होने पर साफ कपड़े से छान लें और उसे ठंडे स्थान पर रख दें, दवा तैयार। इस काढ़े की तीन खुराकें बनाकर प्रत्येक तीन घंटे बाद प्रातः लें। हार्ट अटैक के बाद कुछ समय हो जाने के पश्चात लगातार पंद्रह दिन तक इसे लेने से हृदय पुनः स्वस्थ हो जाता है और फिर दिल का दौरा पड़ने की संभावना नहीं रहती।
दिल के रोगी इस नुस्खे का एक बार प्रयोग अवश्य करें।
* पीपल के पत्ते में दिल को बल और शांति देने की अद्भुत क्षमता है।
* इस पीपल के काढ़े की तीन खुराकें सवेरे 8 बजे, 11 बजे व 2 बजे ली जा सकती हैं।
* खुराक लेने से पहले पेट एक दम खाली नहीं होना चाहिए, बल्कि सुपाच्य व हल्का नाश्ता करने के बाद ही लें।
* प्रयोगकाल में तली चीजें, चावल आदि न लें। मांस, मछली, अंडे, शराब, धूम्रपान का प्रयोग बंद कर दें। नमक, चिकनाई का प्रयोग बंद कर दें।
* अनार, पपीता, आंवला, बथुआ, लहसुन, मैथी दाना, सेब का मुरब्बा, मौसंबी, रात में भिगोए काले चने, किशमिश, गुग्गुल, दही, छाछ आदि लें । ……
तो अब समझ आया, भगवान ने पीपल के पत्तों को हार्टशेप क्यों बनाया..
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हार्ट अटैक: ना घबराये ......!!!
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सहज सुलभ उपाय ....
99 प्रतिशत ब्लॉकेज को भी रिमूव कर देता है पीपल का पत्ता....
पीपल के 15 पत्ते लें जो कोमल गुलाबी कोंपलें न हों, बल्कि पत्ते हरे, कोमल व भली प्रकार विकसित हों। प्रत्येक का ऊपर व नीचे का कुछ भाग कैंची से काटकर अलग कर दें। पत्ते का बीच का भाग पानी से साफ कर लें। इन्हें एक गिलास पानी में धीमी आँच पर पकने दें। जब पानी उबलकर एक तिहाई रह जाए तब ठंडा होने पर साफ कपड़े से छान लें और उसे ठंडे स्थान पर रख दें, दवा तैयार। इस काढ़े की तीन खुराकें बनाकर प्रत्येक तीन घंटे बाद प्रातः लें। हार्ट अटैक के बाद कुछ समय हो जाने के पश्चात लगातार पंद्रह दिन तक इसे लेने से हृदय पुनः स्वस्थ हो जाता है और फिर दिल का दौरा पड़ने की संभावना नहीं रहती।
दिल के रोगी इस नुस्खे का एक बार प्रयोग अवश्य करें।
* पीपल के पत्ते में दिल को बल और शांति देने की अद्भुत क्षमता है।
* इस पीपल के काढ़े की तीन खुराकें सवेरे 8 बजे, 11 बजे व 2 बजे ली जा सकती हैं।
* खुराक लेने से पहले पेट एक दम खाली नहीं होना चाहिए, बल्कि सुपाच्य व हल्का नाश्ता करने के बाद ही लें।
* प्रयोगकाल में तली चीजें, चावल आदि न लें। मांस, मछली, अंडे, शराब, धूम्रपान का प्रयोग बंद कर दें। नमक, चिकनाई का प्रयोग बंद कर दें।
* अनार, पपीता, आंवला, बथुआ, लहसुन, मैथी दाना, सेब का मुरब्बा, मौसंबी, रात में भिगोए काले चने, किशमिश, गुग्गुल, दही, छाछ आदि लें । ......
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Posted in श्रीमद्‍भगवद्‍गीता

Sushma Swaraj urges Centre to declare Bhagwad Gita as national holy book


Sushma Swaraj urges Centre to declare Bhagwad Gita as national holy book

http://indiatoday.intoday.in/…/sushma-swaraj-…/1/405663.html

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प्रासाद स्‍तवन – आठ-आठ देव प्रासाद


प्रासाद स्‍तवन - आठ-आठ देव प्रासाद

धार के परमार नरेश राजा भोज (1015-1045 ई.) के लिखे 'समरागण सूत्रधार' में प्रासादों की प्रशस्ति में ऐसे 64 प्रकार के मंदिरों का उल्‍लेख है जो प्रशंसा के योग्‍य हैं। इसमें चौंसठ मंदिरों का जिक्र है और उनको संबंधित देवताओं के लिए बनाने का निर्देश है। प्रत्‍येक देवता के लिए आठ आठ प्रकार के प्रासाद बताए गए हैं।ये प्रासाद शिव, विष्‍णु, ब्रह्मा, सूर्य, चंडिका, गणेश, लक्ष्‍मी और अन्‍य देवताओं के लिए हैं। प्रासादों की शैली या देवताओं की प्रतिष्‍ठा के अनुसार उनके लक्षणों काे पहचाना जा सकता है।
1. शिव प्रासाद - विमान, सर्वतोभद्र, गजपृष्ठ, पद्मक, वृषभ, मुक्‍तकोण, नलिन और द्राविड।
2. विष्‍णु प्रासाद - गरुड, वर्धमान, शंखावर्त, पुष्‍पक, गृहराज, स्‍वस्तिक, रुचक और पुंडवर्धन।
3. ब्रह्मा प्रासाद - मेरु, मंदर, कैलास, हंस, भद्र, उत्‍तुंग, मिश्रक व मालाधर।
4. सूर्य प्रासाद - गवय, चित्रकूट, किरण, सर्वसुंदर, श्रीवत्‍स, पद्मनाभ, वैराज और वृत्‍त।
5. चडिका प्रासाद - नंद्यावर्त, वलभ्‍य, सुपर्ण, सिंह, विचित्र, योगपीठ, घंटानाद व पताकिन।
6. विनायक प्रासाद - गुहाधर, शालाक, वेणुभद्र, कुंजर, हर्ष, विजय, उदकुंभ व मोदक।
7. लक्ष्‍मी प्रासाद - महापद्म, हर्म्‍य, उज्‍जर्यन्‍त, गन्‍धमादन, शतशृंग, अनवद्यक, स‍ुविभ्रान्‍त और मनोहारी। 
इसके अलावा वृत्‍त, वृत्‍तायत, चैत्‍य, किंकिणी, लयन, पट्टिश, विभव और तारागण नामक प्रासाद और बताए गए हैं जो सभी देवताओं के लिए हो सकते हैं। यहां लयन प्रासादों का विवरण रोचक है, यह पर्वतों को काटकर बनाए गए गुहागृहों या प्रासादों के लिए है (जैसा क‍ि अलोरा का चित्र दिखा रहा है), ये कौतुक है या सचमुच,,, बस सोचना है। इसके बारे में कभी फिर...

प्रासाद स्‍तवन – आठ-आठ देव प्रासाद

धार के परमार नरेश राजा भोज (1015-1045 ई.) के लिखे ‘समरागण सूत्रधार’ में प्रासादों की प्रशस्ति में ऐसे 64 प्रकार के मंदिरों का उल्‍लेख है जो प्रशंसा के योग्‍य हैं। इसमें चौंसठ मंदिरों का जिक्र है और उनको संबंधित देवताओं के लिए बनाने का निर्देश है। प्रत्‍येक देवता के लिए आठ आठ प्रकार के प्रासाद बताए गए हैं।ये प्रासाद शिव, विष्‍णु, ब्रह्मा, सूर्य, चंडिका, गणेश, लक्ष्‍मी और अन्‍य देवताओं के लिए हैं। प्रासादों की शैली या देवताओं की प्रतिष्‍ठा के अनुसार उनके लक्षणों काे पहचाना जा सकता है।
1. शिव प्रासाद – विमान, सर्वतोभद्र, गजपृष्ठ, पद्मक, वृषभ, मुक्‍तकोण, नलिन और द्राविड।
2. विष्‍णु प्रासाद – गरुड, वर्धमान, शंखावर्त, पुष्‍पक, गृहराज, स्‍वस्तिक, रुचक और पुंडवर्धन।
3. ब्रह्मा प्रासाद – मेरु, मंदर, कैलास, हंस, भद्र, उत्‍तुंग, मिश्रक व मालाधर।
4. सूर्य प्रासाद – गवय, चित्रकूट, किरण, सर्वसुंदर, श्रीवत्‍स, पद्मनाभ, वैराज और वृत्‍त।
5. चडिका प्रासाद – नंद्यावर्त, वलभ्‍य, सुपर्ण, सिंह, विचित्र, योगपीठ, घंटानाद व पताकिन।
6. विनायक प्रासाद – गुहाधर, शालाक, वेणुभद्र, कुंजर, हर्ष, विजय, उदकुंभ व मोदक।
7. लक्ष्‍मी प्रासाद – महापद्म, हर्म्‍य, उज्‍जर्यन्‍त, गन्‍धमादन, शतशृंग, अनवद्यक, स‍ुविभ्रान्‍त और मनोहारी।
इसके अलावा वृत्‍त, वृत्‍तायत, चैत्‍य, किंकिणी, लयन, पट्टिश, विभव और तारागण नामक प्रासाद और बताए गए हैं जो सभी देवताओं के लिए हो सकते हैं। यहां लयन प्रासादों का विवरण रोचक है, यह पर्वतों को काटकर बनाए गए गुहागृहों या प्रासादों के लिए है (जैसा क‍ि अलोरा का चित्र दिखा रहा है), ये कौतुक है या सचमुच,,, बस सोचना है। इसके बारे में कभी फिर…

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जानिये भारत भूमी के बारे मे विदेशीयो कि राय


जानिये भारत भूमी के बारे मे विदेशीयो कि राय
जरुर पढना—-
1. अलबर्ट आइन्स्टीन – हम भारत के बहुत ऋणी हैं, जिसने हमें गिनती सिखाई, जिसके बिना कोई भी सार्थक वैज्ञानिक खोज संभव नहीं हो पाती।
2. रोमां रोलां (फ्रांस) – मानव ने आदिकाल से जो सपने देखने शुरू किये, उनके साकार होने का इस धरती पर कोई स्थान है, तो वो है भारत।
3. हू शिह (अमेरिका में चीन राजदूत)- सीमा पर एक भी सैनिक न भेजते हुए भारत ने बीस सदियों तक सांस्कृतिक धरातल पर चीन को जीता और उसे प्रभावित भी किया।…
4. मैक्स मुलर- यदि मुझसे कोई पूछे की किस आकाश के तले मानव मन अपने अनमोल उपहारों समेत पूर्णतया विकसित हुआ है, जहां जीवन की जटिल समस्याओं का गहन विश्लेषण हुआ और समाधान भी प्रस्तुत किया गया, जो उसके भी प्रसंशा का पात्र हुआ जिन्होंने प्लेटो और कांट का अध्ययन किया,तो मैं भारत का नाम लूँगा।
5. मार्क ट्वेन- मनुष्य के इतिहास में जो भी मूल्यवान और सृजनशील सामग्री है, उसका भंडार अकेले भारत में है।
6. आर्थर शोपेन्हावर – विश्व भर में ऐसा कोई अध्ययन नहीं है जो उपनिषदों जितना उपकारी और उद्दत हो। यही मेरे जीवन को शांति देता रहा है, और वही मृत्यु में भी शांति देगा।
7. हेनरी डेविड थोरो – प्रातः काल मैं अपनी बुद्धिमत्ता को अपूर्व और ब्रह्माण्डव्यापी गीताके तत्वज्ञान से स्नान करता हूँ, जिसकी तुलना में हमारा आधुनिक विश्व और उसका साहित्य अत्यंत क्षुद्र और तुच्छ जन पड़ता है।
8. राल्फ वाल्डो इमर्सन – मैं भगवत गीता का अत्यंत ऋणी हूँ। यह पहला ग्रन्थ है जिसे पढ़कर मुझे लगा की किसी विराट शक्ति से हमारा संवाद हो रहा है।
9. विल्हन वोन हम्बोल्ट- गीता एक अत्यंत सुन्दर और संभवतः एकमात्र सच्चा दार्शनिक ग्रन्थ है जो किसी अन्य भाषा में नहीं। वह एक ऐसी गहन और उन्नत वस्तु है जैस पर सारी दुनिया गर्व कर सकतीहै।
10. एनी बेसेंट -विश्व के विभिन्न धर्मों का लगभग ४० वर्ष अध्ययन करने के बाद मैं इस नतीजेपर पहुंची हूँ की हिंदुत्व जैसा परिपूर्ण, वैज्ञानिक, दार्शनिक और अध्यात्मिक धर्म और कोई नहीं।
इसमें कोई भूल न करे की बिना हिंदुत्व के भारत का कोई भविष्य नहीं है।
हिंदुत्व ऐसी भूमिहै जिसमे भारत की जड़े गहरे तक पहुंची है,
उन्हें यदि उखाड़ा गया तो यह महावृक्ष निश्चय ही अपनी भूमि से उखड जायेगा।
हिन्दू ही यदि हिंदुत्व की रक्षा नही करेंगे, तो कौन करेगा?
अगर भारत के सपूत हिंदुत्व में विश्वास नहीं करेंगे तो कौन उनकी रक्षा करेगा? भारत ही भारत की रक्षा करेगा।
भारत और हिंदुत्व एक ही है।

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उत्तर प्रदेश के खजुहा में चल रही ५२५ साल पुरानी रामलीला


उत्तर प्रदेश के खजुहा में चल रही ५२५ साल पुरानी रामलीला

http://www.hindujagruti.org/hindi/news/13584.html

मार्गशीर्ष शुक्लपक्ष एकादशी, कलियुग वर्ष ५११६
यूपी में एक ऐसी जगह है जहां इस समय रामलीला का मंचन हो रहा है. सुनने में यह बात भले ही अटपटी लगती है, लेकिन है सोलह आने सच. फतेहपुर जिले में खजुहा कस्बे का ऐतिहासिक मेला इन दिनों अपने शबाब पर है. इस मेले की खासियत है कि ये दशहरा के दिन से शुरू होता है और उसके बाद यहां रामलीला शुरू होती है. यहां दशहरा के बाद रामलीला मनाने की परंपरा लगभग 525 वर्ष से चली आ रही है.यह रामलीला रामनगर (बनारस) सहित पूरे उत्तर भारत में प्रसिद्ध है, जो आश्विन शुल्क पक्ष की तृतीया से शुरू होकर कार्तिक पक्ष की षष्ठी तक चलती है. यहां एक माह तक कुशल कारीगरों द्वारा कास्ट एवं तिनरई से विशालकाय रावण व रामदल के स्वरूपों का निर्माण किया जाता है. साथ ही पंचवटी, चित्रकूट, सबरी आश्रम, किष्किंधा पर्वत, अशोक वाटिका, सेतुबंध रामेश्वर और लंका का स्वरूप भी तैयार किया जाता है.

मेले की शुरुआत गणेश पूजन के साथ होती है. इस दिन मंदिर के पुजारी व्रत रखते हैं. रावण वध के बाद सरयू स्नान के साथ रावण की 13वीं में यहां ब्रह्मभोज भी कराया जाता है. इन रस्मों को देखने यहां दूर-दराज से लोग आते हैं. मेले में छोटी-बड़ी लगभग दो दर्जन झांकियां सजाई जाती हैं. राम-रावण युद्ध के दिन लाखों की तादाद में लोग जुटते हैं. इसमें प्रशासनिक अधिकारी और जनप्रतिनिधि भी शामिल होते हैं.

इस रामलीला की चर्चा फतेहपुर जिले में ही नहीं, बल्कि संपूर्ण उत्तर भारत में होती रही है. मेला कमेटी के अध्यक्ष दयाराम उत्तम ने बताया कि दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित भी कई बार यहां आ चुकी हैं. खजुहा कस्बे का ऐतिहासिक परिचय सुनकर लोग चकित रह जाते हैं हालांकि शासन-प्रशासन की उपेक्षा के चलते इस कस्बे की साख दिन-प्रतिदिन खत्म हो रही है.

बिंदकी तहसील से लगभग सात किलोमीटर दूर मुगल रोड आगरा मार्ग पर स्थित खजुहा कस्बे में दो विशालकाय फाटक व सराय आज भी इसकी बुलंदियां बयां करती हैं. मुगल रोड के उत्तर में तीन राम जानकी मंदिर तथा तीन विशालकाय शिवालय हैं.

उत्तम ने बताया कि दक्षिण में छिन्न मस्तिष्का मां पंथेश्वरी देवी का प्राचीन व बंशी वाला मठ, भूरा बाबा की समाधि स्थल है. बड़ी बाजार में तीन राधाकृष्ण मंदिर है. इस प्राचीन सांस्कृतिक नगरी में 118 छोटे-बड़े शिवालय तथा इतने ही कुएं हैं. चार विशालकाय तालाब इस नगर की चारों दिशाओं में शोभायमान है, जो इस नगर के स्वर्णिम युग की याद दिलाते हैं.

विदेशी पर्यटक आज भी इस नगरी की प्राचीनतम धरोहरों को देखने आते हैं, लेकिन शासन-प्रशासन की उपेक्षा के कारण यह गौरवमयी नगरी अपना अस्तित्व बचा पाने में असफल साबित हो रही है. कहा जाता है कि इस नगरी में एक ऐसी सुरंग बनी थी, जिसके अंदर राजा-महाराजा घुड़सवारी कर दिल्ली तक का सफर तय करते थे.