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मध्यप्रदेश : पत्नी की पूजा से प्रसन्न होकर शिव ने दिया अंग्रेज पति को जीवन का वरदान


मध्यप्रदेश : पत्नी की पूजा से प्रसन्न होकर शिव ने दिया अंग्रेज पति को जीवन का वरदान

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मध्यप्रदेश के आगर मालवा नगर में श्रीबैजनाथ महादेव का एक ऎसा ऎतिहासिक मंदिर हैं जिसका जीर्णोद्धार तत्कालीन अंग्रेज सेना के एक अधिकारी ने करवाया था। प्रदेश के नवगठित एवं 51 वे जिले के रूप में गत वर्ष अस्तित्व में आए आगर मालवा के इतिहास में उल्लेख है कि बैजनाथ महादेव के मंदिर का जीर्णोद्धार कर्नल मार्टिन ने वर्ष 1883 में 15 हजार रूपये का चंदा कर करवाया था। इस बात का शिलालेख भी मंदिर के अग्रभाग में लगा है। उत्तर एवं दक्षिण भारतीय कलात्मक शिल्प में निर्मित श्रीबैजनाथ महादेव को चमत्कारी देव माना जाता है। इसका ज्वलंत उदाहरण उस समय दिखाई दिया जब अफगानिस्तान में 130 वर्ष पहले पठानी सेना से घिरे कर्नल मार्टिन की प्राणरक्षा भगवान शिव ने की और वे सही सलामत घर लौटे।

इतिहास में वर्णित है कि वर्ष 1879 में अंग्रेजों ने अफगानिस्तान पर आक्रमण कर दिया था। इस युद्ध का संचालन आगरमालवा की ब्रिट्रिश छावनी के लेफ्टिनेंट क र्नल मार्टिन को सौंपा गया था। मार्टिन युद्ध एवं स्वयं की कुशलता के समाचार आगर मालवा में छोड कर गए अपनी पत्नी को नियमित भेजते थे। इस दौरान एक वक्त ऎसा भी आया जब मार्टिन के संदेश आना बंद हो गए। उनकी पत्नी को अनेक शंकाएं सताने लगी। वह एक दिन घोडे पर बैठ कर आगरमालवा में घूमने गई तो श्री बैजनाथ महादेव मंदिर से आती शंखध्वनि और मंत्रों से आकर्षित हो मंदिर पहुंची। वहां मंदिर में पूजा पाठ कर रहे पंडितों से चर्चा की एवं शिव पूजन के महत्व के बारे में पूछताछ की। पुजारी ने कहा भगवान शिव औघरदानी और भोलेभंडारी हैं। अपने भक्तों के संकट वह तुरंत ही दूर करते हैं। पुजारी ने लेडी मार्टिन से पूछा बेटी तुम बडी चिंतातुर लग रही हो क्या कारण है। लेडी मार्टिन बोली मेरे पति युद्ध में गए हैं और कई दिनों से उनका कोई समाचार नहीं आया इसलिए चिंतित हूं, इतना कहते हुये लेडी मार्टिन रो पडी। फिर ब्राहमणों के कहने पर श्रीमती मार्टिन ने लघु रूद्रीअनुष्ठान आरंभ करवाया तथा भगवान शिव से अपने पति की रक्षा के लिये प्रार्थना करने लगी और संकल्प लिया कि उनके पति युद्ध जीतकर आ जाए तो वह मंदिर पर शिखर बनवायेगी। लघुरूद्री की पूर्णाहुति के दिन भागता हुआ एक संदेशवाहक शिवमंदिर पहुंचा। लेडी मार्टिन ने घबराते हुए लिफाफा खोला और पढने लगी। पत्र में उनके पति ने लिखा, “हम युद्धरत थे तुम्हारे पास खबर भी भेजते रहते थे लेकिन अचानक हमें पठानी सेना ने घेर लिया। ब्रिटिश सेना के सैनिक मरने लगे ऎसी विषम परिस्थिति से हम घिर गए और जान बचाकर भागना मुश्किल हो गया। इतने में देखा कि युद्ध भूमि में कोई एक योगी जिनकी लम्बी जटाएं एवं हाथ में तीन नोंक वाला हथियार (त्रिशूल) लिए पहुंचे। उन्हें देखते ही पठान सैनिक भागने लगे और हमारी हार की घंडियां एकाएक जीत में बदल गई।

पत्र में लिखा था यह सब उन त्रिशूलधारी योगी के कारण ही संभव हुआ। फिर उन्होने कहा घबराओं नहीं मैं भगवान शिव हूं तथा तुम्हारी पत्नी द्वारा शिवपूजन से प्रसन्न होकर तुम्हारी रक्षा करने आया हूं। पत्र पढते हुए लेडी मार्टिन ने भगवान शिव की प्रतिमा के सम्मुख सिर रखकर प्रार्थना करते हुए भगवान का शुक्रिया अदा किया और उनकी आंखों से खुशी के आंसू छलक पडे। कुछ दिनों बाद जब कर्नल मार्टिन आगर मालवा ब्रिटिश छावनी लौटकर आए और पत्नी को सारी बातें विस्तार से बताई और अपनी पत्नी के संकल्प पर कर्नल मार्टिन ने सन 1883 में पन्द्रह हजार रूपये का सार्वजनिक चंदा कर श्रीबैजनाथ महादेव के मंदिर का जीर्णोद्धार क रवाया। आगरमालवा की उत्तर दिशा में जयपुर मार्ग पर बाणगंगा नदी के किनारे स्थापित श्रीबैजनाथ महादेव का यह ऎतिहासिक मंदिर लिंग राजा नलकालीन माना जाता है। पहले यह मंदिर एक मठ के रूप में था तथा तांत्रिक अघौरी यहां पूजापाठ करते थे। मंदिर का गर्भगृह 11 गुणा 11 फीट का चौकोर है तथा मध्य में आ ग्नेय पाषाण का शिवलिंग स्थापित है। मंदिर का शिखर चूनेपत्थर का निर्मित है जिसके अंदर और बाहर ब्रहमा, विष्णु और महेश की दर्शनीय प्रतिमाऎं उत्कीर्ण हैं। करीब 50 फुट ऊंचे इस मंदिर के शिखर पर चार फुट उुंचा स्वर्णकलश है। मंदिर के सामने विशाल सभा मंडप और मंडप में दो फुट ऊंची एवं तीन फु ट लंबी नंदी की प्रतिमा है। मंदिर के पीछे लगभग 115 फुट लंबा और 48 फुट चौडा कमलकुंड है जहां खिलते हुए कमल के फूलों से यह स्थल और भी रमणीक दिखाई देता है। महाशिवरात्रि के अलावा यहां चैत्र एवं कार्तिक माह में भी भव्यशिव मेला आयोजित होता है और दूर दराज से श्रद्धालु चमत्कारिक श्रीबैजनाथ महादेव के दर्शन पूजन करने पहुंचते हैं।

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सारे के सारे मंदिर सरकार के अधीन हैं और उनके ट्रस्ट के मैनेजर और उनके बोर्ड में सरकार के आदमी होते हैं जो दान के रूपये कहाँ खर्च किये जाने हैं उसका फैसला लेता हैं


सारे के सारे मंदिर सरकार के अधीन हैं और उनके ट्रस्ट के मैनेजर और उनके बोर्ड में सरकार के आदमी होते हैं जो दान के रूपये कहाँ खर्च किये जाने हैं उसका फैसला लेता हैं

ये कैसी सेकुलर सरकार?
हिन्दू मन्दिरों का पैसा मदरसों,हज, और चर्च में हो रहा खर्च।
सुप्रीम कोर्ट ने किया भण्डाफोड़
यदि आप सोचते हैं कि मन्दिरों में दान किया हुआ, भगवान को अर्पित किया हुआ पैसा, सनातन धर्म की बेहतरी के लिए, हिन्दू धर्म के उत्थान के लिए काम आ रहा है तो आप निश्चित ही बड़े भोले हैं। मन्दिरों की सम्पत्ति एवं चढ़ावे का क्या और कैसा उपयोग किया जाता है पहले इसका एक उदाहरण देख लीजिये, फ़िर आगे बढ़ेंगे-
कर्नाटक सरकार के मन्दिर एवं पर्यटन विभाग (राजस्व) द्वारा प्राप्त जानकारी के अनुसार 1997 से2002 तक पाँच साल में कर्नाटक सरकार को राज्य में स्थित मन्दिरों से सिर्फ़ चढ़ावे में” 391 करोड़ की रकम प्राप्त हुई, जिसे निम्न मदों में खर्च किया गया-
1) मन्दिर खर्च एवं रखरखाव – 84 करोड़ (यानी 21.4%)
2) मदरसा उत्थान एवं हज – 180 करोड़ (यानी 46%)
3) चर्च भूमि को अनुदान – 44 करोड़ (यानी 11.2%)
4) अन्य – 83 करोड़ (यानी 21.2%)
कुल 391 करोड़
जैसा कि इस हिसाब-किताब में दर्शाया गया है उसको देखते हुए सेकुलरोंकी नीयत बिलकुल साफ़ हो जाती है कि मन्दिर की आय से प्राप्त धन का (46+11) 57% हिस्सा हज एवं चर्च को अनुदान दिया जाता है (ताकि वे हमारे ही पैसों से जेहाद, धार्मिक सफ़ाए एवं धर्मान्तरण कर सकें)। जबकि मन्दिर खर्च के नाम पर जो 21% खर्च हो रहा है, वह ट्रस्ट में कुंडली जमाए बैठे नेताओं व अधिकारियों की लग्जरी कारों, मन्दिर दफ़्तरों में AC लगवाने तथा उनके रिश्तेदारों की खातिरदारी के भेंट चढ़ाया जाता है। उल्लेखनीय है कि यह आँकड़े सिर्फ़ एक राज्य (कर्नाटक) के हैं, जहाँ 1997 से2002 तक कांग्रेस सरकार ही थी
सुप्रीम कोर्ट ने इस खजाने की रक्षा एवं इसके उपयोग के बारे में सुझाव माँगे हैं। सेकुलरों एवं वामपंथियों के बेहूदा सुझाव एवं उसे काला धनबताकर सरकारी जमाखाने में देने सम्बन्धी सुझाव तो आ ही चुके हैं, ऐसे कई सुझाव माननीय सुप्रीम कोर्ट को दिये जा सकते हैं, जिससे हिन्दुओं द्वारा संचित धन का उपयोग हिन्दुओं के लिए ही हो, सनातन धर्म की उन्नति के लिए ही हो, न कि कोई सेकुलर या नास्तिक इसमें मुँह मारनेचला आए।
कभी कभी कोफ़्त होती हैं इस देश की जनता पर जो सच्चाई या तो जानना नहीं चाहती और जान कर भी अनजान बनी रहती हैं, वो सभी लोग जो ये सवाल उठा रहे हैं क्या वो मुझे बतायेंगे की भारत का कौन सा अमीर मंदिर सरकारी नियंत्रण के बाहर हैं? सारे मंदिर चाहे वह पद्मनाभ मंदिर हो या मुंबई का सिद्धि विनायक या तिरुपति या ओडिशा का श्री जगन्नाथ मंदिर सारे के सारे मंदिर सरकार के अधीन हैं और उनके ट्रस्ट के मैनेजर और उनके बोर्ड में सरकार के आदमी होते हैं जो दान के रूपये कहाँ खर्च किये जाने हैं उसका फैसला लेता हैं, अभी तुरंत का मामला विन्ध्वासिनी देवी विन्ध्याचल उत्तर प्रदेश का हैं जो 15 दिन पहले ही सरकारी नियंत्रण में लिया गया हैं| कुम्भ मेले से सरकार को अरबो रूपये की कमाई होती हैं|
अब आप मुझे बताइए की कैसे वो मंदिर दान कर सकते हैं? और आप सब ने यह न्यूज़ चैनेल में सुना होगा की बदरीनाथ में पंडो ने सभी के लिए लंगर चलाया आज की डेट में उनके पास खाने के लिए कुछ भी नहीं हैं उन्होंने हजारो लोगो को लगातार कई दिनों तक खाना खिलाया और उनकी सरकार भी कोई मदद नहीं कर रही हैं|
कुछ कमियां जरुर हो सकती हैं पर आपको सिर्फ नकारात्मकता ही क्यूँ दिखाई दे रही है ?
अखाड़ों के साधुओं ने इकठ्ठा करके एक करोड़ रुपया दिया है, कई गाँव गोद लेने की घोषणा की है
पतंजलि योगपीठ ,परमार्थ निकेतन ,आर्ट ऑफ लिविंग ,गुरुद्वारा कमिटी ,गायत्री परिवार,दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान,संघ परिवार,स्थानीय मंदिर समितियों और स्थानीय लोगों तथा और भी कई धार्मिक संस्थाओं के प्रयास की जानकारी तो आपको निरंतर दी ही जा रही है
इन बातो को मीडिया या ऐसे आरोप लगाने वाले लोग क्यूँ नहीं बताते है
क्यूँ आप ये मांग नहीं करते कि हिंदुओं के मंदिरों से सरकारी नियंत्रण हटाया जाए…
नहीं ये तो आपसे नहीं होगा , पर हिंदुओं और उनके मंदिरों साधुओं आस्था की आलोचना जरुर होगी..क्यूँकि ये सबसे सरल कार्य है

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अरब की प्राचीन समृद्ध वैदिक संस्कृति और भारत


http://vrhindu.blogspot.com/2013/06/blog-post_470.html

अरब की प्राचीन समृद्ध वैदिक संस्कृति और भारत

अरब देश का भारत, भृगु के पुत्र शुक्राचार्य तथा उनके पोत्र और्व से ऐतिहासिक संबंध प्रमाणित है, यहाँ तक कि “हिस्ट्री ऑफ पर्शिया” के लेखक साइक्स का मत है कि अरब का नाम और्व के ही नाम पर पड़ा, जो विकृत होकर “अरब” हो गया। भारत के उत्तर-पश्चिम में इलावर्त था, जहाँ दैत्य और दानव बसते थे, इस इलावर्त में एशियाई रूस का दक्षिणी-पश्चिमी भाग, ईरान का पूर्वी भाग तथा गिलगित का निकटवर्ती क्षेत्र सम्मिलित था। आदित्यों का आवास स्थान-देवलोक भारत के उत्तर-पूर्व में स्थित हिमालयी क्षेत्रों में रहा था। बेबीलोन की प्राचीन गुफाओं में पुरातात्त्विक खोज में जो भित्ति चित्र मिले है, उनमें विष्णु को हिरण्यकशिपु के भाई हिरण्याक्ष से युद्ध करते हुए उत्कीर्ण किया गया है।
उस युग में अरब एक बड़ा व्यापारिक केन्द्र रहा था, इसी कारण देवों, दानवों और दैत्यों में इलावर्त के विभाजन को लेकर 12 बार युद्ध ‘देवासुर संग्राम’ हुए। देवताओं के राजा इन्द्र ने अपनी पुत्री ज्यन्ती का विवाह शुक्र के साथ इसी विचार से किया था कि शुक्र उनके (देवों के) पक्षधर बन जायें, किन्तु शुक्र दैत्यों के ही गुरू बने रहे। यहाँ तक कि जब दैत्यराज बलि ने शुक्राचार्य का कहना न माना, तो वे उसे त्याग कर अपने पौत्र और्व के पास अरब में आ गये और वहाँ 10 वर्ष रहे। साइक्स ने अपने इतिहास ग्रन्थ “हिस्ट्री ऑफ पर्शिया” में लिखा है कि ‘शुक्राचार्य लिव्ड टेन इयर्स इन अरब’। अरब में शुक्राचार्य का इतना मान-सम्मान हुआ कि आज जिसे ‘काबा’ कहते है, वह वस्तुतः ‘काव्य शुक्र’ (शुक्राचार्य) के सम्मान में निर्मित उनके आराध्य भगवान शिव का ही मन्दिर है। कालांतर में ‘काव्य’ नाम विकृत होकर ‘काबा’ प्रचलित हुआ। अरबी भाषा में ‘शुक्र’ का अर्थ ‘बड़ा’ अर्थात ‘जुम्मा’ इसी कारण किया गया और इसी से ‘जुम्मा’ (शुक्रवार) को मुसलमान पवित्र दिन मानते है।
“बृहस्पति देवानां पुरोहित आसीत्, उशना काव्योऽसुराणाम्”-जैमिनिय ब्रा.(01-125)
अर्थात बृहस्पति देवों के पुरोहित थे और उशना काव्य (शुक्राचार्य) असुरों के।
प्राचीन अरबी काव्य संग्रह गंथ ‘सेअरूल-ओकुल’ के 257वें पृष्ठ पर हजरत मोहम्मद से 2300 वर्ष पूर्व एवं ईसा मसीह से 1800 वर्ष पूर्व पैदा हुए लबी-बिन-ए-अरव्तब-बिन-ए-तुरफा ने अपनी सुप्रसिद्ध कविता में भारत भूमि एवं वेदों को जो सम्मान दिया है, वह इस प्रकार है-
“अया मुबारेकल अरज मुशैये नोंहा मिनार हिंदे।
व अरादकल्लाह मज्जोनज्जे जिकरतुन।1।
वह लवज्जलीयतुन ऐनाने सहबी अरवे अतुन जिकरा।
वहाजेही योनज्जेलुर्ररसूल मिनल हिंदतुन।2।
यकूलूनल्लाहः या अहलल अरज आलमीन फुल्लहुम।
फत्तेबेऊ जिकरतुल वेद हुक्कुन मालन योनज्वेलतुन।3।
वहोबा आलमुस्साम वल यजुरमिनल्लाहे तनजीलन।
फऐ नोमा या अरवीयो मुत्तवअन योवसीरीयोनजातुन।4।
जइसनैन हुमारिक अतर नासेहीन का-अ-खुबातुन।
व असनात अलाऊढ़न व होवा मश-ए-रतुन।5।”
अर्थात- (1) हे भारत की पुण्यभूमि (मिनार हिंदे) तू धन्य है, क्योंकि ईश्वर ने अपने ज्ञान के लिए तुझको चुना। (2) वह ईश्वर का ज्ञान प्रकाश, जो चार प्रकाश स्तम्भों के सदृश्य सम्पूर्ण जगत् को प्रकाशित करता है, यह भारतवर्ष (हिंद तुन) में ऋषियों द्वारा चार रूप में प्रकट हुआ। (3) और परमात्मा समस्त संसार के मनुष्यों को आज्ञा देता है कि वेद, जो मेरे ज्ञान है, इनके अनुसार आचरण करो। (4) वह ज्ञान के भण्डार साम और यजुर है, जो ईश्वर ने प्रदान किये। इसलिए, हे मेरे भाइयों! इनको मानो, क्योंकि ये हमें मोक्ष का मार्ग बताते है। (5) और दो उनमें से रिक्, अतर (ऋग्वेद, अथर्ववेद) जो हमें भ्रातृत्व की शिक्षा देते है, और जो इनकी शरण में आ गया, वह कभी अन्धकार को प्राप्त नहीं होता।
इस्लाम मजहब के प्रवर्तक मोहम्मद स्वयं भी वैदिक परिवार में हिन्दू के रूप में जन्में थे, और जब उन्होंने अपने हिन्दू परिवार की परम्परा और वंश से संबंध तोड़ने और स्वयं को पैगम्बर घोषित करना निश्चित किया, तब संयुक्त हिन्दू परिवार छिन्न-भिन्न हो गया और काबा में स्थित महाकाय शिवलिंग (संगे अस्वद) के रक्षार्थ हुए युद्ध में पैगम्बर मोहम्मद के चाचा उमर-बिन-ए-हश्शाम को भी अपने प्राण गंवाने पड़े। उमर-बिन-ए-हश्शाम का अरब में एवं केन्द्र काबा (मक्का) में इतना अधिक सम्मान होता था कि सम्पूर्ण अरबी समाज, जो कि भगवान शिव के भक्त थे एवं वेदों के उत्सुक गायक तथा हिन्दू देवी-देवताओं के अनन्य उपासक थे, उन्हें अबुल हाकम अर्थात ‘ज्ञान का पिता’ कहते थे। बाद में मोहम्मद के नये सम्प्रदाय ने उन्हें ईष्यावश अबुल जिहाल ‘अज्ञान का पिता’ कहकर उनकी निन्दा की।
जब मोहम्मद ने मक्का पर आक्रमण किया, उस समय वहाँ बृहस्पति, मंगल, अश्विनी कुमार, गरूड़, नृसिंह की मूर्तियाँ प्रतिष्ठित थी। साथ ही एक मूर्ति वहाँ विश्वविजेता महाराजा बलि की भी थी, और दानी होने की प्रसिद्धि से उसका एक हाथ सोने का बना था। ‘Holul’ के नाम से अभिहित यह मूर्ति वहाँ इब्राहम और इस्माइल की मूर्त्तियो के बराबर रखी थी। मोहम्मद ने उन सब मूर्त्तियों को तोड़कर वहाँ बने कुएँ में फेंक दिया, किन्तु तोड़े गये शिवलिंग का एक टुकडा आज भी काबा में सम्मानपूर्वक न केवल प्रतिष्ठित है, वरन् हज करने जाने वाले मुसलमान उस काले (अश्वेत) प्रस्तर खण्ड अर्थात ‘संगे अस्वद’ को आदर मान देते हुए चूमते है।
प्राचीन अरबों ने सिन्ध को सिन्ध ही कहा तथा भारतवर्ष के अन्य प्रदेशों को हिन्द निश्चित किया। सिन्ध से हिन्द होने की बात बहुत ही अवैज्ञानिक है। इस्लाम मत के प्रवर्तक मोहम्मद के पैदा होने से 2300 वर्ष पूर्व यानि लगभग 1800 ईश्वी पूर्व भी अरब में हिंद एवं हिंदू शब्द का व्यवहार ज्यों का त्यों आज ही के अर्थ में प्रयुक्त होता था।
अरब की प्राचीन समृद्ध संस्कृति वैदिक थी तथा उस समय ज्ञान-विज्ञान, कला-कौशल, धर्म-संस्कृति आदि में भारत (हिंद) के साथ उसके प्रगाढ़ संबंध थे। हिंद नाम अरबों को इतना प्यारा लगा कि उन्होंने उस देश के नाम पर अपनी स्त्रियों एवं बच्चों के नाम भी हिंद पर रखे ।
अरबी काव्य संग्रह ग्रंथ ‘ सेअरूल-ओकुल’ के 253वें पृष्ठ पर हजरत मोहम्मद के चाचा उमर-बिन-ए-हश्शाम की कविता है जिसमें उन्होंने हिन्दे यौमन एवं गबुल हिन्दू का प्रयोग बड़े आदर से किया है । ‘उमर-बिन-ए-हश्शाम’ की कविता नयी दिल्ली स्थित मन्दिर मार्ग पर श्री लक्ष्मीनारायण मन्दिर (बिड़ला मन्दिर) की वाटिका में यज्ञशाला के लाल पत्थर के स्तम्भ (खम्बे) पर काली स्याही से लिखी हुई है, जो इस प्रकार है –
” कफविनक जिकरा मिन उलुमिन तब असेक ।
कलुवन अमातातुल हवा व तजक्करू ।1।
न तज खेरोहा उड़न एललवदए लिलवरा ।
वलुकएने जातल्लाहे औम असेरू ।2।
व अहालोलहा अजहू अरानीमन महादेव ओ ।
मनोजेल इलमुद्दीन मीनहुम व सयत्तरू ।3।
व सहबी वे याम फीम कामिल हिन्दे यौमन ।
व यकुलून न लातहजन फइन्नक तवज्जरू ।4।
मअस्सयरे अरव्लाकन हसनन कुल्लहूम ।
नजुमुन अजा अत सुम्मा गबुल हिन्दू ।5।
अर्थात् – (1) वह मनुष्य, जिसने सारा जीवन पाप व अधर्म में बिताया हो, काम, क्रोध में अपने यौवन को नष्ट किया हो। (2) अदि अन्त में उसको पश्चाताप हो और भलाई की ओर लौटना चाहे, तो क्या उसका कल्याण हो सकता है ? (3) एक बार भी सच्चे हृदय से वह महादेव जी की पूजा करे, तो धर्म-मार्ग में उच्च से उच्च पद को पा सकता है। (4) हे प्रभु ! मेरा समस्त जीवन लेकर केवल एक दिन भारत (हिंद) के निवास का दे दो, क्योंकि वहाँ पहुँचकर मनुष्य जीवन-मुक्त हो जाता है। (5) वहाँ की यात्रा से सारे शुभ कर्मो की प्राप्ति होती है, और आदर्श गुरूजनों (गबुल हिन्दू) का सत्संग मिलता है
मुसलमानों के पूर्वज कोन?(जाकिर नाइक के चेलों को समर्पित लेख)
स्व0 मौलाना मुफ्ती अब्दुल कयूम जालंधरी संस्कृत ,हिंदी,उर्दू,फारसी व अंग्रेजी के जाने-माने विद्वान् थे। अपनी पुस्तक “गीता और कुरआन “में उन्होंने निशंकोच स्वीकार किया है कि,”कुरआन” की सैकड़ों आयतें गीता व उपनिषदों पर आधारित हैं।
मोलाना ने मुसलमानों के पूर्वजों पर भी काफी कुछ लिखा है । उनका कहना है कि इरानी “कुरुष ” ,”कौरुष “व अरबी कुरैश मूलत : महाभारत के युद्ध के बाद भारत से लापता उन २४१६५ कौरव सैनिकों के वंसज हैं, जो मरने से बच गए थे।
अरब में कुरैशों के अतिरिक्त “केदार” व “कुरुछेत्र” कबीलों का इतिहास भी इसी तथ्य को प्रमाणित करता है। कुरैश वंशीय खलीफा मामुनुर्र्शीद(८१३-८३५) के शाशनकाल में निर्मित खलीफा का हरे रंग का चंद्रांकित झंडा भी इसी बात को सिद्ध करता है।
कौरव चंद्रवंशी थे और कौरव अपने आदि पुरुष के रूप में चंद्रमा को मानते थे। यहाँ यह तथ्य भी उल्लेखनीय है कि इस्लामी झंडे में चंद्रमां के ऊपर “अल्लुज़ा” अर्ताथ शुक्र तारे का चिन्ह,अरबों के कुलगुरू “शुक्राचार्य “का प्रतीक ही है। भारत के कौरवों का सम्बन्ध शुक्राचार्य से छुपा नहीं है।
इसी प्रकार कुरआन में “आद “जाती का वर्णन है,वास्तव में द्वारिका के जलमग्न होने पर जो यादव वंशी अरब में बस गए थे,वे ही कालान्तर में “आद” कोम हुई।
अरब इतिहास के विश्वविख्यात विद्वान् प्रो० फिलिप के अनुसार २४वी सदी ईसा पूर्व में “हिजाज़” (मक्का-मदीना) पर जग्गिसा(जगदीश) का शासन था।२३५० ईसा पूर्व में शर्स्किन ने जग्गीसी को हराकर अंगेद नाम से राजधानी बनाई। शर्स्किन वास्तव में नारामसिन अर्थार्त नरसिंह का ही बिगड़ा रूप है। १००० ईसा पूर्व अन्गेद पर गणेश नामक राजा का राज्य था। ६ वी शताब्दी ईसा पूर्व हिजाज पर हारिस अथवा हरीस का शासन था। १४वी सदी के विख्यात अरब इतिहासकार “अब्दुर्रहमान इब्ने खलदून ” की ४० से अधिक भाषा में अनुवादित पुस्तक “खलदून का मुकदमा” में लिखा है कि ६६० इ० से १२५८ इ० तक “दमिश्क” व “बग़दाद” की हजारों मस्जिदों के निर्माण में मिश्री,यूनानी व भारतीय वातुविदों ने सहयोग किया था। परम्परागत सपाट छत वाली मस्जिदों के स्थान पर शिव पिंडी कि आकृति के गुम्बदों व उस पर अष्ट दल कमल कि उलट उत्कीर्ण शैली इस्लाम को भारतीय वास्तुविदों की देन है।इन्ही भारतीय वास्तुविदों ने “बैतूल हिक्मा” जैसे ग्रन्थाकार का निर्माण भी किया था।
अत: यदि इस्लाम वास्तव में यदि अपनी पहचान कि खोंज करना चाहता है तो उसे इसी धरा ,संस्कृति व प्रागैतिहासिक ग्रंथों में स्वं को खोजना पड़ेगा……………………………..
भाइयो एक सत्य में आपको बताना चाहुगा की मुहम्मद को लेकर मुसलमानों में जो गलतफैमी है की मुहम्मद ने अरब से अत्याचारों को दूर किया … केबल अत्याचारियो को मारा , समाज की बुरयियो को दूर किया अरब में भाई भाई का दुश्मन था , स्त्रियो की दशा सुधारी … मुहमद एक अनपढ़ (उम्मी ) था …. आदि ..सत्य क्या है आप उस समय की जानकारियों से पता लगा सकते है … जब की उस समय अरब में सनातन धर्म ही था ..इसके कई प्रमाण है
१- जब मुहम्मद का जन्म हुआ तो पिता की म्रत्यु हो चुकी थी .. मा भी कुछ सालो बाद चल बसी .. मुहम्मद की देखभाल उनके चाचा ने की … यदि समाज में लालच , लोभ होता तो क्या उनके चाचा उनको पलते ?
२- खालिदा नामक पढ़ी लिखी स्त्री का खुद का व्यापर होना सनातन धर्म में स्त्रियो की आजादी का सबुत है… मुहमम्द वहा पर नोकरी करते थे ?
३- ३ बार शादी के बाद भी विधवा स्त्री का खुद मुहम्मद से शादी का प्रस्ताब ? स्त्रियो को खुद अपने लिए जीवन साथी चुने और विधवा स्त्री होने पर भी शादी और व्यापर की आजादी … सनातन धर्म के अंदर ..
४- खालिदा का खुद शिक्षित होना सनातन धर्म में स्त्रियो को शिक्षा का सबुत है
५- मुहम्मद का २५ साल का होकर ४० साल की स्त्री से विवाह ..किन्तु किसी ने कोई हस्तक्षेप नहीं किया ..सनातन धर्म में हर एक को आजादी ..कोई बंधन नहीं
६- मुहम्मद का धार्मिक प्रबचन देना किसी का कोई विरोध ना होना जब तक सनातन धर्म के अंदर नये धर्म का प्रचार
७- मुहम्मद यदि अनपढ़ होते तो क्या व्यापर कर सकते थे ? नहीं ..मुहम्मद पहले अनपढ़ थे लेकिन बाद में उनकी पत्नी और साले ने उनको पढ़ना लिखना सीखा दिया था … सबूत मरते समय मुहम्मद का कोई वसीयत ना बनाने पर कलम और कागज का ना मिलना ..और कुछ लोगो का उनपर वसीयत ना बनाने पर रोष करना …
मुहम्मद को उनकी पत्नी ने सारे धार्मिक पुस्तकों जैसे रामायण , गीता , महाभारत , वेद, वाईविल, और यहूदी धार्मिक पुस्तकों को पढ़ कर सुनाया था और पढ़ना लिखना सीखा दिया था , आप किसी को लिखना पढ़ना सीखा सकते हो लेकिन बुद्धि का क्या ?…जो आज तक उसके मानने बालो की बुद्धि पर असर है .. जो कुरान और हदीश में मुहम्मद में लिखा या उनके कहानुसार लिखा गया बाद में , लेकिन किसी को कितना ही कुछ भी सुना दो लेकिन व्यक्ति की सोच को कोन बदल सकता है मुझे तुलसीदास जी की चोपाई याद आ रही है जो मुहम्मद पर सटीक बैठती है
ढोल , गवाँर ,शूद्र, पसु , नारी , सकल ताडना के अधिकारी …..
आप किसी कितना ज्ञान देदो बो बेकार हो जाता है जब कोई किसी चीज का गलत अर्थ लगा कर समझता है गवाँर बुद्धि में क्या आया और उसने क्या समझा ये आप कुरान में जान सकते है …. कुरान में वेदों , रामायण , गीता , पुराणों का ज्ञान मिलेगा लेकिन उसका अर्थ गलत मिलेगा ………
चलिए आपको कुछ रामायण जी से इस्लाम की जानकारी लेते है ………
ये उस समय की बात है जन राम और लक्ष्मण जी और भरत आपस में सत्य कथाओ को उन रहे थे .. तब प्रभु श्री राम ने राजा इल की कथा सुनायी जो वाल्मीकि रामायण में उत्तरकांड में आती है .. मै श्लोको के अनुसार ना ले कर सारांश में बता रहा हू ……
उत्तरकांड का ८७ बा सर्ग :=
प्रजापति कर्दम के पुत्र राजा इल बहिकदेश (अरब ईरान क्षेत्र के जो इलावर्त क्षेत्र कहलाता था ) के राजा थे , बो धर्म और न्याय से राज्य करते थे .. सपूर्ण संसार के जीव , राक्षस , यक्ष , जानबर आदि उनसे भय खाते थे .एक बार राजा अपने सैनिको के साथ शिकार पर गए उन्होंने कई हजार हिसक पशुओ का वध किया था शिकार में ,राजा उस निर्जन प्रदेश में गए जहा महासेन (स्वामी कार्तीय) का जन्म हुआ था बहा भगवन शिव अपने को स्त्री रूप में प्रकट करके देवी पार्वती का प्रिय पात्र बनने करने की इच्छा से वह पर्वतीय झरने के पास उनसे विहार कर रहे थे .. वह जो कुछ भी चराचर प्राणी थे वे सब स्त्री रूप में हो गए थे , राजा इल भी सेवको के साथ स्त्रीलिंग में परिणत हो गए …. शिव की शरण में गए लेकिन शिवजी ने पुरुषत्व को छोड़ कर कुछ और मानने को कहा , राजा दुखी हुए फिर बो माँ पार्वती जी के पास गए और माँ की वंदना की .. फिर माँ पार्वती ने राजा से बोली में आधा भाग आपको दे सकती हू आधा भगवन शिव ही जाने … राजा इल को हर्ष हुआ .. माँ पार्वती ने राजा की इच्छानुसार वर दी की १ माह पुरुष राजा इल , और एक माह नारी इला रहोगे जीवन भर .. लेकिन दोनों ही रूपों में तुम अपने एक रूप का स्मरण नहीं रहेगा ..इस प्रकार राजा इल और इला बन कर रहने लगे
८८ बा सर्ग := चंद्रमा के पुत्र पुत्र बुध ( चंद्रमा और गुरु ब्रस्पति की पत्नी के पुत्र ) जो की सरोवर में ताप कर रहे थे इला ने उनको और उन्होंने इला को देखा …मन में आसक्त हो गया उन्होंने इला की सेविका से जानकारी पूछी ..बाद में बुध ने पुण्यमयी आवर्तनी विधा का आवर्तन (स्मरण ) किया और राजा के विषय में सम्पुण जानकारी प्राप्त करली , बुध ने सेविकाओ को किंपुरुषी (किन्नरी) हो कर पर्वत के किनारे रहने और निवास करने को बोला .. आगे चल कर तुम सभी स्त्रियों को किंपुरुष प्राप्त होगे .. बुध की बात सुन किंपुरुषी नाम से प्रसिद्ध हुयी सेविकाए जो संख्या में बहुत थी पर्वत पर रहने लगी ( इस प्रकार किंपुरुष जाति का जन्म हुआ )
८९ सर्ग := बुध का इला को अपना परिचय देना और इला का उनके साथ मे में रमण करना… एक माह राजा इल के रूप में एक माह रूपमती इला के रूप में रहना … इला और बुध का पुत्र पुरुरवा हुए
९० सर्ग;= राजा इल को अश्वमेध के अनुष्ठन से पुरुत्व की प्राप्ति बुध के द्वारा रूद्र( शिव ) की आराधना करना और यज्ञ करना मुनियों के द्वारा ..महादेव को दरशन देकर राजा इल को पूर्ण पुरुषत्व देना … राजा इल का बाहिक देश छोड़ कर मध्य प्रदेश (गंगा यमुना संगम के निकट ) प्रतिष्ठानपुर बसाया बाद में राजा इल के ब्रहम लोक जाने के बाद पुरुरवा का राज्य के राजा हुए
– इति समाप्त
आज के लेख से आपके प्रश्न और उसके जबाब …..
1. इस्लाम में बोलते है की इस्लाम सनातन धर्म है और बहुत पुराना है ? और अल्लाह कोन था ? कलमा में क्या है ?
# भाई आसान सबाल का आसान उत्तर है की सनातन धर्म सम्पूर्ण संसार में था और लोगो का विश्वास धर्म पर बहुत गहरा था , मुहम्मद ने जब सनातन धर्म के अंदर ही अपने धर्म का प्रचार किया था तो लोगो ने विरोध नहीं किया था ..लेकिन जब उसने सनातन धर्म का विरोध किया तो उसको मक्का छोडना पड़ा था … मुहम्मद कैसा भी था लेकिन देश भक्त था बो चाहता था जैसे पूरब का देश (भारत) का धर्म सम्पूर्ण संसार में है और सब उसको सम्मान देते है वैसे ही बो अरब के लिए चाहता था …. लेकिन जब उसको अपने ही शहर से निकला गया तो बो समझ गया की सनातन धर्म को कोई खतम नहीं कर सकता है लेकिन बो इसका रूप बदल सकता है …जिससे लोगो में विद्रोह का डर भी नहीं रहेगा … जब उसने काबा को जीता और उसकी सारी ३६० मुर्तिया और शिवलिंग तोडा … उसको कुछ याद आया और उसने कुछ नीचे के भाग(शक्ति) को चांदी में करके काबा की दीवार से लगा दिया और अपनी गलती के लिए पत्थर को चूमा (क्युकि उसका परिबार कई पीडीयो से इसकी रक्षा और पूजा करता आ रहा था ) और बोला तो केबल पत्थर है और कुछ और नहीं …….
इस्लाम के बारे में 1372 साल पहले अस्तित्व में आया था. यह सर्वविदित है कि 7500 साल पहले से अधिक, महाभारत युद्ध के समय में, कुरूस दुनिया शासन. कि परिवार के घरानों के वारिस के विभिन्न क्षेत्रों दिलाई. पैगंबर मोहम्मद खुद को और अपने परिवार के वैदिक संस्कृति के अनुयायियों थे. विश्वकोश इस्लामिया के रूप में बहुत मानते हैं, जब यह कहते हैं: “के मोहम्मद दादा और चाचा जो 360 मूर्तियों स्थित काबा मंदिर के वंशानुगत याजक थे!”
(ये मेरे एक मुस्लिम मित्र ने बताया था ….. की …
“काबा” में जो ३६० बुत रखे थे वो किसी तुफ़ान में नही टुटे थे बल्कि उनको “मक्का फ़तह” के वक्त हुज़ुर सल्लाहो अलैहि वसल्लम ने अपनी छ्डी से तोडा था…हर बुत को तोड्ते जा रहे थे और कुरआन की आयत पढते जा रहे थे सुरह बनी इसराईल सु.१७ : आ. ८१ “और तु कह कि अल्लाह की तरफ़ से हक आ चुका है और झुठ नाबूद हो चुका है क्यौंकि झुठ बर्बाद होने वाला है….. )
तो उसने ये बोलना शुरू किया की अल्लाह का कोई आकार नहीं है बो निराकार है …जो की सनातन धर्म का ही एक भाग है (वेद से) …
• अल्लाह कोन था ?
मोहम्मद का जन्म हुआ Qurayshi जनजाति विशेष रूप से अल्लाह (पार्वती ) और चंद्रमा भगवान (शिव)की तीन बच्चों (त्रिदेवी – काली(७) , गोरी (दुर्गा ८) , सरस्वती (ज्ञान की देवी) या कात्यानी (सिद्धि की देवी) को समर्पित किया गया था. इसलिए जब मुहम्मद अपने ही देवी धर्म बनाने का फैसला किया, और ७८६ (जिससे ओम भी बनता है)
चुकी मुहम्मद एक लुटेरा था इस कारण बो अल्लाह को मानता था केबल (जैसे डाकू माँ काली की पूजा करते है ) कारण था की उसने ये रामायण की कथा सुन ली थी जिस कारण बो भगवान शिव की पूजा से बच कर शक्ति की पूजा करता था …. क्युकि माँ पार्वती ने ही राजा इल को वरदान दिया था और शिव के कारण ही समस्या हुयी टी ऐसा शयद बो सोचता था … इस लिए बो अल्लाह (पार्वती) के निर्गुण मानता था … मुहम्मद से भारत का नाम धर्म से हटाने के लिए हिन्दू देवी देवताओ को इस्लाम के नवी और पैगम्बर बोलना शुरु कर दिया और सनातन धर्म से उल्टा काम करना … जैसे काबा के ७ चक्कर (उलटे ), आदि जिससे उसको जनता से कोई परेशनी नहीं हुयी जिससे हुयी उसको उसने खत्म कर दिया …
• दिन की जगह रात में पूजा .?..
क्युकि भगवान शिव और शक्ति की पूजा रात्रि में ही होती है और सनातन धर्म का नाम इस्लाम रख दिया कुछ समय बाद जब बहुत कुछ उसके हाथो में आ गया ….
• कलमा में क्या है ?
ला इलाहा इल्लल्लाह, मुहम्मद उर-रसूलुल्लाह इस कलमे का अर्थ मुहम्मद ने बताया है की ईश्वर एक है और मुहम्मद उसके पैगम्बर है … अब जब की सब जानते है की इला और इल एक थे , जिनकी पूजा होती थी और अल्लाह (पार्वती शक्ति ) थी ..और मुहम्मद शक्ति मत को मानने और फ़ैलाने वाले ,
2. इस्लाम के आदम और ईव कोन कोन थे ?
# इस कथा के अनुसार राजा इल की आदम था और बो ही ईव … क्युकि आदम से ही ईव पैदा हुयी ऐसा इस्लाम और ईसाई मत है …और बाद में आदम और ईव (राजा इल ) को अपना देश छोडना देना ..इस मत को सिद्ध करता है
3. इस्लाम में हरा रंग क्यों ? चाँद और तारा क्यों ?
# इस्लाम में अपने पूर्वजो को पूजता है ये जग जाहिर है … हिन्दुओ में सब जानते है की नव ग्रह ने बुध एक ग्रह है और बो स्याम वर्ण और हरा रंग पहनते है ज्ञान के देवता कहलाते है .. लकिन उनके जन्म पर कुछ अजीब किस्सा है जिससे कुछ मुस्लिम हिन्दू धर्म को बदनाम करते है जब की ये इसके ही पूर्वजो की कहानी है … चंदमा के द्वारा देवताओ के गुरु ब्रस्पति की पत्नी तारा के संयोग से उत्पन्न हुए थे जिसके कारण आज भी मुसलमान चाँद तारा को देख कर अपना रोजा खोते है और ईद मानते है .. साथ ही अपने झंडो और धार्मिक स्थान में प्रयोग करते है
4. क्यों शेख लोग ओरत और मर्द दोनों को पसंद करते है ? क्यों शेख स्त्री जैसे बोलते और रहते है ?
# जैसा की इस कथा से जाहिर है की भगवान शिव ने उस क्षेत्र को स्त्री लिंग में बदल दिया था … ये बाद मे शुक्राचार्य(दत्यो के गुरु) जी के आने के बाद सब सही हुआ था अन्यथा तो सब स्त्री में था जिस कारण सभी में स्त्री अंश रह गया है
5. क्यों किन्नर अधिकतर मुस्लमान होते है ?
# कथा के अनुसार किन्नर की उत्पत्ति राजा इल के सेवको का स्त्री में हो जाने के कारण हुयी ..जिनको बुध ने उसी क्षेत्र (पर्वत के पास ) रहने को बोला था
भाइयो ये सत्य मैंने किसी धर्म का मजाक उड़ने के लिए नहीं बताया है .. मैंने केबल सत्य को सामने लाना चाहता हू ..आज हमारे हिन्दू समाज में ही बहुत से लोग राम और कृष्ण के साथ साथ सम्पूर्ण सनातन धर्म को बदनाम करने की सोचते है … इस कारण इस ग्रंथो को और राम , कृष्ण को कल्पनिक बता कर या कभी .. सत्य का मजाक उड़ा कर सत्य को छिपाने की कोशिस करते है लेकिन जो सत्य है तो सूरज की तरह है जो बदलो से कुछ समय के लिए कुछ लोगो से छिप सकता है सब से नहीं और नहीं ज्यादा देर तक … संतान धर्म तो उस गंगा , यमुना की तरह है जो निरंतर बहता रहत है ..और लोगो को सही राह दिखता है ..जो निर्मल और पवित्र है … जिसमे सादा ही परिवर्तन ..समय के अनुसार होते रहे है … जो वैज्ञानिक और अधात्मिक दोनों रूपों ने सिद्ध है … यहाँ मैंने एक कथा बुध के जन्म की सुनायी है जो पुराणों से है लेकिन इसका अर्थ भी कुछ और है.
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राम मंदिर-बाबरी मस्जिद


राम मंदिर-बाबरी मस्जिद

अयोध्या विवाद को दशकों बीत रहे हैं। मसला आज भी जस का तस है। विवाद इस बात पर है कि देश के हिंदूओं की मान्यता के अनुसार अयोध्या की विवादित जमीन भगवान राम की जन्मभूमि है जबकि देश के मुसलमानों की पाक बाबरी मस्जिद भी विवादित स्थल पर स्थित है। मुस्लिम सम्राट बाबर ने फतेहपुर सीकरी के राजा राणा संग्राम सिंह को वर्ष 1527 में हराने के बाद इस स्थान पर बाबरी मस्जिद का निर्माण किया था। बाबर ने अपने जनरल मीर बांकी को क्षेत्र का वायसराय नियुक्त किया। मीर बांकी ने अयोध्या में वर्ष 1528 में बाबरी मस्जिद का निर्माण कराया। पढ़ें – अयोध्या मामलाः 21 साल, 13 बेंच, 18 जज इस बारे में कई तह के मत प्रचलित हैं कि जब मस्जिद का निर्माण हुआ तो मंदिर को नष्ट कर दिया गया या बड़े पैमाने पर उसमे बदलाव किये गए। कई वर्षों बाद आधुनिक भारत में हिंदुओं ने फिर से राम जन्मभूमि पर दावे करने शुरू किये जबकि देश के मुसलमानों ने विवादित स्थल पर स्थित बाबरी मस्जिद का बचाव करना शुरू किया। प्रमाणिक किताबों के अनुसार पुन: इस विवाद की शुरुआत सालों बाद वर्ष 1987 में हुई।
वर्ष 1940 से पहले मुसलमान इस मस्जिद को मस्जिद-ए-जन्मस्थान कहते थे, इस बात के भी प्रमाण मिले हैं।
वर्ष 1947– भारत सरकार ने मुस लमानों के विवादित स्थल से दूर रहने के आदेश दिए और मस्जिद के मुख्य द्वार पर ताला डाल दिया गया जबकि हिंदू श्रद्धालुओं को एक अलग जगह से प्रवेश दिया जाता रहा।
वर्ष 1984– विश्व हिंदू परिषद ने हिंदुओं का एक अभियान शिरू किया कि हमें दोबारा इस जगह पर मंदिर बनाने के लिए जमान वापस चाहिए।
वर्ष 1989– इलाहाबाद उच्च न्यायलय ने आदेश दिया कि विवादित स्थल के मुख्य द्वारों को खोल देना चाहिए और इस जगह को हमेशा के लिए हिंदुओं को दे देना चाहिए। सांप्रदायिक ज्वाला तब भड़की जब विवादित स्थल पर स्थित मस्जिद को नुकसान पहुंचाया गया। जब भारत सरकार के आदेश के अनुसार इस स्थल पर नये मंदिर का निर्माण सुरू हुआ तब मुसलमानों के विरोध ने सामुदायिक गुस्से का रूप लेना शरु किया। वर्ष1992– 6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद विध्वंस के साथ ही यह मुद्दा सांप्रदायिक हिंसा और नफरत का रूप लेकर पूरे देश में संक्रामक रोग की तरह फैलने लगा। इन दंगों में 2000 से ऊपर लोग मारे गए। मस्जिद विध्वंस के 10 दिन बाद मामले की जांच के लिए लिब्रहान आयोग का गठन किया गया।
वर्ष 2003– उच्च न्यायालय के आदेश पर भारतीय पुरात्तव विभाग ने विवादित स्थल पर 12 मार्च 2003 से 7 अगस्त 2003 तक खुदाई की जिसमें एक प्राचीन मंदिर के प्रमाण मिले।
वर्ष 2003 में इलाहाबाद उच्च न्यायल की लखनऊ बेंच में 574 पेज की नक्शों और समस्त साक्ष्यों सहित एक रिपोर्ट पेश की गयी। भारतीय पुरात्तव विभाग के अनुसार खुदाई में मिले भग्वशेषों के मुताबिक विवादित स्थल पर एक प्रचीन उत्तर भारतीय मंदिर के प्रचुर प्रमाण मिले हैं। विवादित स्थल पर 50X30 के ढांचे का मंदिर के प्रमाण मिले हैं।
वर्ष 2005– 5 जुलाई 2005 को 5 आतंकियों ने अयोध्या के रामलला मंदिर पर हमला किया। इस हमले का मौके पर मौजूद सीआरपीएफ जवानों ने वीरतापूर्वक जवाब दिया और पांचों आतंकियों को मार गिराया। वर्ष 2010- 24 सितंबर 2010 को दोनों पक्षों की बहस सुनने के बाद इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ बेंच ने फैसले की तारीख मुकर्रर की थी। फैसले के एक दिन पहले सुप्रीम कोर्ट ने फैसले को टालने के लिए की यगयी एक याचिका पर सुनवाई करते हुए इसे 28 सितंबर तक के लिए टाल दिया।
Read more at: http://hindi.oneindia.in/news/2010/09/28/history-ayodhya-temple-babri-masjid-dispute.html

– मधुसूदन आनंद
इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ पीठ ने अयोध्या में राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद में जो फैसला सुनाया है, उसमें तीनों न्यायाधीशों-न्यायमूर्ति एसयू खान, न्यायमूर्ति सुधीर अग्रवाल और न्यायमूर्ति डीवी शर्मा की इस बारे में अलग-अलग राय है कि बाबरी मस्जिद बनाने के लिए किसी हिन्दू मंदिर को तोड़ा गया था या नहीं।

न्यायमूर्ति श्री अग्रवाल का कहना है कि मस्जिद बनाने से पहले वहाँ स्थित एक

यह भी सही है कि कई देशों में एक समुदाय ने दूसरे समुदाय के धार्मिक स्थानों पर अपने धार्मिक केंद्रों का निर्माण किया है

गैर-इस्लामी धार्मिक ढाँचे अर्थात मंदिर को तोड़ा गया था, जबकि न्यायमूर्ति श्री खान का कहना है कि मस्जिद एक हिन्दू मंदिर के भग्नावशेषों पर बनाई गई थी। यह जगह काफी समय से इसी हालत में पड़ी हुई थी और मस्जिद के निर्माण में भग्नावशेष मंदिर की सामग्री का इस्तेमाल हुआ था।

तीसरे न्यायाधीश, न्यायमूर्ति डीवी शर्मा का स्पष्ट मत है कि यह मस्जिद जिस पुराने ढाँचे को ढहा कर बनाई गई, उसे भारतीय पुरातत्व संरक्षण (एएसआई) एक विराट हिन्दू धार्मिक ढाँचा साबित कर चुका है। अयोध्या फैसले के इस बिंदु पर तीनों न्यायाधीशों के अलग-अलग निष्कर्ष पढ़कर मेरा मन हुआ कि मैं बाबरनामा में यह ढूँढने की कोशिश करूँ कि क्या बाबर के विचार मोहम्मद गजनवी और मोहम्मद गौरी की तरह मंदिरों को लूटने और उन्हें नष्ट करने वाले थे।

बाबर के खुद लिखे हुए संस्मरणों का हिन्दी अनुवाद बाबरनामा के नाम से साहित्य अकादमी ने 1974 में प्रकाशित किया था। अनुवादक युगजीत नवलपुरी हैं। ये संस्मरण अपनी कहानी स्वयं कहते हैं और अँगरेजी संस्मरण की भूमिका में एफजी टैलबोट ने लिखा है कि विद्वानों ने इन संस्मरणों को संत अगस्टीन और रूसो की स्वीकारोक्तियों के समकक्ष स्थान दिया है।

इस किताब में बाबर हिन्दुओं को काफिर तो जरूर लिखते हैं, लेकिन कहीं भी ऐसे वर्णन नहीं मिलते हैं, जिससे यह साबित हो कि मंदिरों को तोड़कर मस्जिदों का निर्माण करना उनका खास शगल रहा हो। बाबर की आत्मकथा का तुर्की भाषा से अँगरेजी में अनुवाद एएस बेवरिज ने किया है, जिसमें कहीं भी इस बात का उल्लेख नहीं है कि बाबरी मस्जिद का निर्माण उनके फौजी जनरल मीर बाकी ने उनके कहने पर कराया था। बाबर लड़ाई लड़ते हुए अवध भी गया।

इस किताब में सरयू नदी का जिक्र आया है पर किताब में कहीं भी न तो अयोध्या का जिक्र है और न भगवान राम का। अलबत्ता बाबर ने हिन्दुओं को बुतपरस्त के रूप में जरूर दर्शाया है। बाबरनामा पृष्ठ 480 पर बाबर ने लिखा है-‘सोमवार को अवध की ओर कूच हुआ। दस कोस चल कर सरू (सरयू) किनारे फतेहपुर (यह स्थान आजमगढ़ जिले का नाथपुर होना चाहिए) के गाँव कालरा में उतर गया। यहाँ कई दिन बड़े चैन से बीते। बाग हैं, नहरें हैं, बड़ी अच्छी-अच्छी काट के मकान हैं, पेड़ हैं, सबसे बढ़कर अमराइयाँ हैं, रंगबिरंगी चिड़ियाँ हैं-जी बहुत लगा।’

‘फिर गाजीपुर की ओर कूच का हुकुम हुआ…जो लोग पहले ही चल निकले थे, वे राह भटक गए। फतेहपुर (नाथपुर) की बड़ी झील, ताल रतोई नाथपुर जा पहुँचे ।’ आगे लिखा है कि रात झील पर बिताने के बाद पौ फटते ही हम चले। आधा रास्ता चलकर मैं आसाइश में बैठा और उसे उजानी खिंचवाया।

‘कुछ और ऊपर खलीफा शाह मोहम्मद दीवाना के बेटे को लाया। वह बाकी (मीर बाकी) के पास से लखनूर (लखनऊ) का पक्का हाल लाया था। उन्होंने (विद्राही शेख बायजीद और बीबन) सनीचर तेरहवीं (21मई) को हमला किया पर लड़ाई से वे कुछ कर न सके।’

पृष्ठ 481 पर बाबर ने लिखा है, ‘आज हम दस कोस चले। सगरी परगने में सरू (सरयू) के किनारे जलेसर (चकसर, जिला आजमगढ़) नाम के गाँव में उतरे।’ आगे लिखते हैं- ‘जुमेरात को सबेरे वहाँ से चले। ग्यारह कोस चलकर परसरू (मूल सरयू) पार की और किनारे पर ही उतरे। रात को मैं परसरू में नहाने गया। लोग पानी पर मशालें दिखा रहे थे। मछलियाँ मशालों के पास उतर आती थीं।

इस ढंग से बहुत मछली पकड़ी गईं। मैंने भी पकड़ी। जुमा (शुक्रवार) को उसी नदी से फूटी एक बहुत सी पतली धार के किनारे उतरे। लशकर के आने-जाने से धार गंदली होने का अंदेशा था। इसलिए मैंने उसे कुछ ऊपर ही बंधवा कर नहाने के लिए एक दह-दर-दह बनवा दिया। रात को वहीं रहे। सबेरे चले और टौंस (फैजाबाद के ऊपर घाघरा से निकली नदी) पार करके उसके किनारे उतरे।’ इसी इलाके में मंगल के रोज बाबर ने ईद मनाने की बात भी की है।

बाबर ने हिन्दुस्तान का लंबा-चौड़ा वर्णन किया है। पृष्ठ 352 पर उसने लिखा है-‘मेरी

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जीत के दिनों में यहाँ पाँच मुसलमान बादशाह और दो काफिर थे। इनका सब ओर मान था और ये किसी के मातहत न थे। जंगलों, पहाड़ों में और भी बहुत से राय और राजा थे पर उनका उतना मान न था। चलती इन्हीं सात की थी।’ काफिरों में उन्होंने बीजानगर के राजा का और चित्तौड़ के राणा सांगा का जिक्र किया है।

बाबर ने लिखा है- ‘हिन्दुस्तान कमाल का मुल्क है। हमें तो बात-बात पर अचंभा होता है। दूसरी ही दुनिया है। जंगल, पहाड़, नदी-नाले, रेगिस्तान, शहर, खेत, जानवर, पेड़-पौधे, लोग, बोलियाँ, बरसातें, हवाएँ, सब और ही और हैं, कुछ बातों में तो काबुल का गर्म-सैर (मौसम) यहाँ से मिलता-जुलता है। पर उन कुछ बातों को छोड़ बिल्कुल निराला है। सिंध पार करते ही मिट्टी, पानी, पेड़, चट्टान, लोग, उलूस, उनकी रायें और बातें, उनकी सोच-समझ, उनके रंग-ढंग और रस्म-रिवाज सब और ही ढंग के मिलने लगते हैं।’

हिन्दुस्तान के पहाड़ों, नदियों, शहरों, देहातों, जंगली जानवरों, चिड़ियों, घड़ियालों, मछलियों के साथ-साथ फलों, फूलों का उन्होंने लंबा वर्णन किया है। यह भी बताया है कि यहाँ समय किस तरह से नापा जाता है और हिन्दुस्तानी नाप-तौल कैसे करते हैं। एक जगह उन्होंने लिखा है कि भारत में सौ पदुम का एक सांग (शंख) का होना यह बताता है कि हिन्दुस्तानी बहुत मालदार हैं।

पृष्ठ 369 पर बाबर लिखते हैं, ‘अक्सर हिन्दुस्तानी बुत पूजते हैं, वे हिन्दू कहलाते हैं। तनासुख (ब्रह्मांश आत्मा) के आवागमन यानी पुनर्जन्म का सिद्धांत मानते हैं। सब कारीगर, मजूर और ओहदेदार हिन्दू हैं। हमारे मुल्कों में घुमंतू लोगों के हर कबीले का अलग नाम है। पर यहाँ तो बसे हुए लोगों में कितने ही अलग-अलग नाम हैं (जात-पात के नाम) और हर हुनर का आदमी अपना ही धंधा करता है।’

पृष्ठ 370 पर बाबर ने लिखा है-‘जफरनामा में मुल्ला शरक ने कहा है कि तैमूर बेग ने संगीन मस्जिद बनवाई तो आजरबायजान (अजरबैजान, फारस (ईरान), हिन्दुस्तान और दूसरे मुल्कों के 200 संगतराशों से काम लिया। (यह तादाद उन्हें बहुत बड़ी लगी) पर आगरा की मेरी इमारतों पर रोजाना आगरा के ही 680 संगतराश काम करते थे। आगरा, सीकरी, बियाना, धौलपुर, ग्वालियर और कोइल के मेरे मकानों में रोजाना 1491 संगतराश लगे थे।’

बाबर ने लिखा है कि हिन्दुस्तान और उसके लोगों की जो बातें अब तक पक्के तौर पर मालूम हुईं, लिख दीं। आगे लिखने की जो भी देखूँ-सुनूँगा, लिख दूँगा।

जाहिर है कि बाबर ने भारत के मंदिरों, देवताओं, पवित्र धार्मिक स्थानों का वर्णन नहीं किया है। यह बात भी अपने-आप में विचित्र लगती है कि रामचरित मानस जैसा कालजयी ग्रंथ लिखने वाले गोस्वामी तुलसीदास ने भी कहीं भी बाबरी मस्जिद का उल्लेख नहीं किया। बाबरी मस्जिद 1528 ई.में बनाई गई। अकबर 1565 ई. में गद्दी पर बैठा था और रहीम खानखाना अकबर के दरबार में थे।

वही समय मीरा बाई का भी है, जिनका तुलसीदास के साथ पत्र-व्यवहार हुआ था।

आज का भारत युवा, जागरूक और प्रगतिकामी भारत है। हमें यह सोचना चाहिए कि आस्था के नाम पर इतिहास को बदला नहीं जा सकता। इसे पीछे छोड़कर हमें आगे देखना चाहिए। यही आधुनिक भारत का तकाजा है

तो सवाल यह उठता है कि उस समय के किसी भी भक्त कवि ने बाबरी मस्जिद का जिक्र क्यों नहीं किया। उनसे पहले कबीरदास धार्मिक जड़ता और कूप-मंडूकता की निंदा कर चुके थे। उनकी कविताओं में मंदिर-मस्जिद, मुल्ला-मौलवी जैसे तमाम शब्दों का प्रयोग हुआ है या तो भक्त कवि बेहद आत्मकेंद्रित थे या फिर राम मंदिर को तोड़कर बाबरी मस्जिद बनाने का काम बहुत पहले नहीं हुआ होगा।

बहरहाल। यह भी सही है कि कई देशों में एक समुदाय ने दूसरे समुदाय के धार्मिक स्थानों पर अपने धार्मिक केंद्रों का निर्माण किया है। दिल्लीमें कुतुबमीनार को ही देखें तो उसके बाहर यह लिखा हुआ मिलेगा कि कैसे जैन और बौद्ध मंदिरों को तोड़ कर लाई गई सामग्री से यहाँ निर्माण हुआ। मथुरा, काशी और अयोध्या हिन्दुओं के ही नहीं, जैनों और बौद्धों के भी महत्वपूर्ण नगर माने जाते हैं।

इतिहास के दौर में मंदिर टूटे और बने और जिस धर्म का असर रहा उसने भग्नावशेषों पर अपने धार्मिक स्थल बनाए। तो यह संभव है कि बाकायदा हिन्दू मंदिर को तोड़कर बाबरी मस्जिद बनाई गई होगी, लेकिन क्या एक धर्म-निरपेक्ष और लोकतांत्रिक भारत में आस्था के नाम पर वही घटनाएँ दोहराई जानी चाहिए, जो मध्यकाल में हुईं? और किस-किस को आस्था के नाम पर तोड़कर आप अपने मंदिर वहाँ बनाएँगे। मामला कहाँ जाकर रुकेगा?

केंद्र सरकार ने अयोध्या को छोड़कर सभी धार्मिक स्थलों को 1947 के पहले की स्थिति में रखने का कानून पास किया है। मगर आस्था के नाम पर एक बार यह सिलसिला शुरू हो गया तो पता नहीं कहाँ जाकर रुकेगा। आज का भारत युवा, जागरूक और प्रगतिकामी भारत है। हमें यह सोचना चाहिए कि आस्था के नाम पर इतिहास को बदला नहीं जा सकता। इसे पीछे छोड़कर हमें आगे देखना चाहिए। यही आधुनिक भारत का तकाजा है।

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सुप्रीम कोर्ट ने कहा गौ रक्षा करना,सर्वंधन करना देश के प्रत्येक नागरिक का सांविधानिक कर्त्तव्य है ! सरकार का तो है ही नागरिकों का भी सांविधानिक कर्तव्य है !


सुप्रीम कोर्ट ने कहा गौ रक्षा करना,सर्वंधन करना देश के प्रत्येक नागरिक का सांविधानिक कर्त्तव्य है ! सरकार का तो है ही नागरिकों का भी सांविधानिक कर्तव्य है !

पहले आप सब ये जान ले भारत मे 3600 कत्लखाने ऐसे हैं जिनके पास गाय काटने का लाइसेन्स है ! इसके इलावा 36000 कत्लखाने गैर कानूनी चल रहे हैं ! प्रति वर्ष ढाई करोड़ गायों का कत्ल किया जाता है ! 1 से सवा करोड़ भैंसो का , और 2 से 3 करोड़ सुअरो का ,बकरे -बकरियाँ ,मुर्गे मुर्गियाँ आदि छोटे जानवरों की संख्या भी करोड़ो मे हैं गिनी नहीं जा सकती ! तो भारत एक ऐसा देश बन गया है जहां कत्ल ही कत्ल होता है !

तो ये सब जब उनको सहन नहीं हुआ तो सन 1998 मे राजीव भाई और राजीव भाई जैसे कुछ समविचारी लोगो ने सुप्रीम कोर्ट मे मुक़द्दमा किया ! एक संस्था है भारत मे अखिल भारतीय गौ सेवक संघ जिससे राजीव भाई जुड़े हुए थे और इस संस्था का मुख्य कार्यालय जो की राजीव भाई के शहर वर्धा मे ही है !! और एक दूसरी संस्था है उसका नाम है अहिंसा आर्मी ट्रस्ट !तो इन दोनों ने सुप्रीम कोर्ट मे मुक़द्दमा दाखिल किया और बाद मे पता चला की गुजरात सरकार भी मुक़द्दमे मे शामिल हो गई !

तो सुप्रीम कोर्ट मे मुक़द्दमा किया गया कि गाय और गौ वंश की ह्त्या नहीं होनी चाहिए ! तो सामने
बैठे कसाई लोगो ने कहा क्यूँ नहीं होनी चाहिए ?? जरूर होनी चाहिए ! तो राजीव भाई की तरफ से सुप्रीम कोर्ट मे अपील किया गया कि ये एक -दो जज का मामला नहीं है आप इसमे बड़ी बैंच बनाई जाए !
3-4 साल तो सुप्रीम कोर्ट ने स्वीकार नहीं किया बाद मे मान लिया की चलो इसके लिए constitutional bench बनाई जाएगी ! भारत के थोड़े दिन पहले चीफ जस्टिस रहे श्री RC लाहोटी ने अपनी अध्यक्षता मे 7 जजो की एक constitutional bench बनाई जिसमे 2004 से सितंबर 2005 तक मुकदमे की सुनवाई चली !!

कसाइयो की तरफ से लड़ने वाले भारत के सभी बड़े -बड़े वकील जो 50 -50 लाख तक फीस लेते हैं
सोली सोराब्जी की बीस लाख की फीस है !, कपिल सिब्बल 22 लाख की फीस है ! महेश जेठ मालानी राम जेठ मालानी का लड़का जो फीस लेते है ३२ लाख से ३४ लाख सारे सभी बड़े वकील कसाइयों के पक्ष में !! राजीव भाई के तरफ से लड़ने वाला कोई बड़ा वकील नहीं क्यूंकि फीस देने का इतना पैसा नहीं !तो राजीव भाई ने आदालत को कहा की हमारे पास तो कोई वकील नहीं है तो क्या करेगे ?? तो आदालत ने कहा की हम अगर आपको वाकिल दे ??? तो राजीव भाई ने कहा बड़ी मेहरबानी होगी या फिर आप हमें ही बहस का मौका दे दो तो बड़ी मेहरबानी होगी !! तो उन्होंने कहा की हां आप ही बहस कर लो और हम आपको एम् इ एस्क्युरी देगे यानि कोर्ट के द्वारा दिया गाया वकील और फिर हमने ये केस लड़ना शुरू किया !

तो मुक़द्दमे मे कसाईयो द्वारा गाय काटने के लिए वही सारे कुतर्क रखे गए जो कभी शरद पवार द्वारा बोले गए या इस देश के ज्यादा पढ़ें लिखे लोगो द्वारा बोले जाते है या देश के पहले प्रधान मंत्री नेहरू द्वारा कहे गए !

कसाईयो का पहला कुतर्क !!

1) गाय जब बूढ़ी हो जाती है तो बचाने मे कोई लाभ नहीं उसे कत्ल करके बेचना ही बढ़िया है ! और हम भारत की अर्थ व्यवस्था को मजबूत बना रहे हैं क्यूंकि गाय का मांस export कर रहे हैं !!

दूसरा कुतर्क !

2) भारत मे गाय के चारे की कमी है ! भूखी मरे इससे अच्छा ये है हम उसका कत्ल करके बेचें !

तीसरा कुतर्क

3) भारत मे लोगो को रहने के लिए जमीन नहीं है गाय को कहाँ रखें ?

चौथा कुतर्क

4 ) इससे विदेशी मुद्रा मिलती है !

और सबसे खतरनाक कुतर्क जो कसाइयों की तरफ से दिया गया कि गया की ह्त्या करना हमारे धर्म इस्लाम मे लिखा हुआ है की हम गायों की ह्त्या करें !! (this is our religious right ) !
कसाई लोग कौन है आप जानते है ??मुसलमानो मे एक कुरेशी समाज है जो सबसे ज्यादा जानवरों की ह्त्या करता है ! उनकी तरफ से ये कुतर्क आयें !

राजीव भाई की तरफ से बिना क्रोध प्रकट किए बहुत ही धैर्य से इन सब कुतर्को का तर्कपूर्वक जवाब दिया !

उनका पहला कुतर्क गाय का मांस बेचते हैं तो आमदनी होती है देशो को ! तो राजीव भाई ने सारे आंकड़े सुप्रीम कोर्ट मे रखे कि एक गाय को जब काट देते हैं तो उसके शरीर मे से कितना मांस निकलता है ??? कितना खून निकलता है ?? कितनी हड्डियाँ निकलती हैं ??

एक सव्स्थय गाय का वजन 3 से साढ़े तीन कवींटल होता है उसे जब काटे तो उसमे से मात्र 70 किलो मांस निकलता है एक किलो गाय का मांस जब भारत से export होता है तो उसकी कीमत है लगभग 50 रुपए ! तो 70 किलो का 50 से गुना को ! 70 x 50 = 3500 रुपए !

खून जो निकलता है वो लगभग 25 लीटर होता है ! जिससे कुल कमाई 1500 से 2000 रुपए होती है
फिर हड्डियाँ निकलती है वो भी 30-35 किलो हैं ! जो 1000 -1200 के लगभग बिक जाती है !!
तो कुल मिलकर एक गाय का जब कत्ल करे और मांस ,हड्डियाँ खून समेत बेचें तो सरकार को या कत्ल करने वाले कसाई को 7000 रुपए से ज्यादा नहीं मिलता !!

फिर राजीव भाई द्वारा कोर्ट के सामने उल्टी बात रखी गई यही गाय को कत्ल न करे तो क्या मिलता है ??? हमने कत्ल किया तो 7000 मिलेगा और अगर इसको जिंदा रखे तो कितना मिलेगा ??
तो उसका calculation ये है !!

एक सव्स्थ्य गाय एक दिन मे 10 किलो गोबर देती है और ढाई से 3 लीटर मूत्र देती है ! गाय के एक किलो गोबर से 33 किलो fertilizer (खाद ) बनती है !जिसे organic खाद कहते हैं तो कोर्ट के जज ने कहा how it is possible ??

राजीव भाई द्वारा कहा गया आप हमे समय दीजिये और स्थान दीजिये हम आपको यही सिद्ध करके बताते हैं ! तो कोर्ट ने आज्ञा दी तो राजीव भाई ने उनको पूरा करके दिखाया !! और कोर्ट से कहा की आई. आर. सी. के वैज्ञानिक को बुला लो और टेस्ट करा लो !!! तो गाय का गोबर कोर्ट ने भेजा टेस्ट करने के लिए ! तो वैज्ञानिको ने कहा की इसमें 18 micronutrients (पोषक तत्व )है !जो सभी खेत की मिट्टी को चाहिए जैसे मैगनीज है ! फोस्फोरस है ! पोटाशियम है, कैल्शियम,आयरन,कोबाल्ट, सिलिकोन ,आदि आदि | रासायनिक खाद मे मुश्किल से तीन होते हैं ! तो गाय का खाद रासायनिक खाद से 10 गुना ज्यादा ताकतवर है !तो कोर्ट ने माना !!

राजीव भाई ने कहा अगर आपके र्पोटोकोल के खिलाफ न जाता हो तो आप चलिये हमारे साथ और देखे कहाँ – कहाँ हम 1 किलो गोबर से 33 किलो खाद बना रहे हैं राजीव भाई ने कहा मेरे अपने गाँव मे मैं बनाता हूँ ! मेरे माता पिता दोनों किसान है पिछले 15 साल से हम गाय के गोबर से ही खेती करते हैं !
तो 1 किलो गोबर है तो 33 किलो खाद बनता है ! और 1 किलो खाद का जो अंराष्ट्रीय बाजार मे भाव है वो 6 रुपए है !तो रोज 10 किलो गोबर से 330 किलो खाद बनेगी ! जिसे 6 रुपए किलो के हिसाब से बेचें तो 1800 से 2000 रुपए रोज का गाय के गोबर से मिलता है !

और गाय के गोबर देने मे कोई sunday नहीं होता weekly off नहीं होता ! हर दिन मिलता है ! तो साल मे कितना ??? 1800 का 365 मे गुना कर लो !
1800 x 365 = 657000 रुपए !साल का !
और गाय की समानय उम्र 20 साल है और वो जीवन के अंतिम दिन तक गोबर देती है !
तो 1800 गुना 365 गुना 20 कर लो आप !! 1 करोड़ से ऊपर तो मिल जाएगा केवल गोबर से !

और हजारो लाखों वर्ष पहले हमारे शास्त्रो मे लिखा है की गाय के गोबर मे लक्ष्मी जी का वास है !!
और मेकोले के मानस पुत्र जो आधुनिक शिक्षा से पढ़ कर निकले हैं जिनहे अपना धर्म ,संस्कृति – सभ्यता सब पाखंड ही लगता है !हमेशा इस बात का मज़ाक उड़ाते है ! कि हाहाहाःहाहा गाय के गोबर मे लक्ष्मी !
तो ये उन सबके मुंह पर तमाचा है ! क्यूंकि ये बात आज सिद्ध होती है की गाय के गोबर से खेती कर ,अनाज उत्पादन कर धन कमाया जा सकता है और पूरे भारत का पेट भरा जा सकता है !

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अब बात करते हैं मूत्र की रोज का 2 – सवा दो लीटर !! और इससे ओषधियाँ बनती है
diabetes ,की ओषधि बनती है !
arthritis,की ओषधि बनती है
bronkitis, bronchial asthma, tuberculosis, osteomyelitis ऐसे करके 48 रोगो की ओषधियाँ बनती है !! और गाय के एक लीटर मूत्र का बाजार मे दवा के रूप मे कीमत 500 रुपए है ! वो भी भारत के बाजार मे ! अंतर्राष्ट्रीय बाजार मे तो इससे भी ज्यादा है !! आपको मालूम है ?? अमेरिका मे गौ मूत्र patent हैं ! और अमरीकी सरकार हर साल भारत से गाय का मूत्र import करती है और उससे कैंसर की medicine बनाते हैं !! diabetes की दवा बनाते हैं ! और अमेरिका मे गौ मूत्र पर एक दो नहीं तीन patent है ! अमेरिकन market के हिसाब से calculate करे तो 1200 से 1300 रुपए लीटर बैठता है एक लीटर मूत्र ! तो गाय के मूत्र से लगभग रोज की 3000 की आमदनी !!!
और एक साल का 3000 x 365 =1095000
और 20 साल का 300 x 365 x 20 = 21900000 !

इतना तो गाय के गोबर और मूत्र से हो गया !! एक साल का !

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और इसी गाय के गोबर से एक गैस निकलती है जिसे मैथेन कहते हैं और मैथेन वही गैस है जिससे आप अपने रसोई घर का सिलंडर चला सकते हैं और जरूरत पड़ने पर गाड़ी भी चला सकते हैं 4 पहियो वाली गाड़ी भी !!

जैसे LPG गैस से गाड़ी चलती है वैसे मैथेन गैस से भी गाड़ी चलती है !तो न्यायधीश को विश्वास नहीं हुआ ! तो राजीव भाई ने कहा आप अगर आज्ञा दो तो आपकी कार मे मेथेन गैस का सिलंडर लगवा देते हैं !! आप चला के देख लो ! उन्होने आज्ञा दी और राजीव भाई ने लगवा दिया ! और जज साहब ने 3 महीने गाड़ी चलाई ! और उन्होने कहा its excellent ! क्यूंकि खर्चा आता है मात्र 50 से 60 पैसे किलोमीटर और डीजल से आता है 4 रुपए किलो मीटर ! मेथेन गैस से गाड़ी चले तो धुआँ बिलकुल नहीं निकलता ! डीजल गैस से चले तो धुआँ ही धुआँ !! मेथेन से चलने वाली गाड़ी मे शोर बिलकुल नहीं होता ! और डीजल से चले तो इतना शोर होता है कान फट जाएँ !! तो ये सब जज साहब की समझ मे आया !!

तो फिर हमने कहा रोज का 10 किलो गोबर एकठ्ठा करे तो एक साल मे कितनी मेथेन गैस मिलती है ?? और 20 साल मे कितनी मिलेगी और भारत मे 17 करोड़ गाय है सबका गोबर एक साथ इकठ्ठा करे और उसका ही इस्तेमाल करे तो 1 लाख 32 हजार करोड़ की बचत इस देश को होती है ! बिना डीजल ,बिना पट्रोल के हम पूरा ट्रांसपोटेशन इससे चला सकते हैं ! अरब देशो से भीख मांगने की जरूरत नहीं और पट्रोल डीजल के लिए अमेरिका से डालर खरीदने की जरूरत नहीं !!अपना रुपया भी मजबूत !

तो इतने सारे calculation जब राजीव भाई ने बंब्बाड कर दी सुप्रीम कोर्ट पर तो जज ने मान लिया गाय की ह्त्या करने से ज्यादा उसको बचाना आर्थिक रूप से लाभकारी है !

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जब कोर्ट की opinion आई तो ये मुस्लिम कसाई लोग भड़क गए उनको लगा कि अब केस उनके हाथ से गया क्यूंकि उन्होने कहा था कि गाय का कत्ल करो तो 7000 हजार कि इन्कम ! और इधर राजीव भाई ने सिद्ध कर दिया कत्ल ना करो तो लाखो करोड़ो की इन्कम !!और फिर उन्होने ने अपना trump card खेला !! उन्होने कहा की गाय का कत्ल करना हमारा धार्मिक अधिकार है (this is our religious right )

तो राजीव भाई ने कोर्ट मे कहा अगर ये इनका धार्मिक अधिकार है तो इतिहास मे पता करो कि किस – किस मुस्लिम राजा ने अपने इस धार्मिक अधिकार का प्रयोग किया ?? तो कोर्ट ने कहा ठीक है एक कमीशन बैठाओ हिस्टोरीयन को बुलाओ और जीतने मुस्लिम राजा भारत मे हुए सबकी history निकालो दस्तावेज़ निकालो !और किस किस राजा ने अपने इस धार्मिक अधिकार का पालण किया ?

तो पुराने दस्तावेज़ जब निकाले गए तो उससे पता चला कि भारत मे जितने भी मुस्लिम राजा हुए एक ने भी गाय का कत्ल नहीं किया ! इसके उल्टा कुछ राजाओ ने गायों के कत्ल के खिलाफ कानून बनाए ! उनमे से एक का नाम था बाबर ! बाबर ने अपनी पुस्तक बाबर नामा मे लिखवाया है कि मेरे मरने के बाद भी गाय के कत्ल का कानून जारी रहना चाहिए ! तो उसके पुत्र हुमायु ने भी उसका पालण किया और उसके बाद जितने मुगल राजा हुए सबने इस कानून का पालन किया including ओरंगजेब !!

फिर दक्षिण भारत मे एक राजा था हेदर आली !टीपू सुल्तान का बाप !! उनसे एक कानून बनवाया था कि अगर कोई गाय की ह्त्या करेगा तो हैदर उसकी गर्दन काट देगा और हैदर अली ने ऐसे सेकड़ो कासयियो की गर्दन काटी थी जिन्होने गाय को काटा था फिर हैदर अली का बेटा आया टीपू सुलतान तो उसने इस कानून को थोड़ा हल्का कर दिया तो उसने कानून बना दिया की हाथ काट देना ! तो टीपू सुलतान के समय में कोई भी अगर गाय काटता था तो उसका हाथ काट दिया जाता था |

तो ये जब दस्तावेज़ जब कोर्ट के सामने आए तो राजीव भाई ने जज साहब से कहा कि आप जरा बताइये अगर इस्लाम मे गाय को कत्ल करना धार्मिक अधिकार होता तो बाबर तो कट्टर ईस्लामी था 5 वक्त की नमाज पढ़ता था हमायु भी था ओरंगजेब तो सबसे ज्यादा कट्टर था ! तो इनहोने क्यूँ नहीं गाय का कत्ल करवाया और क्यूँ ? गाय का कत्ल रोकने के लिए कानून बनवाए ??? क्यूँ हेदर अली ने कहा कि वो गाय का कत्ल करने वाले के हाथ काट देगा ??

तो राजीव भाई ने कोर्ट से कहा कि आप हमे आज्ञा दें तो हम ये कुरान शरीफ ,हदीस,आदि जितनी भी पुस्तके है हम ये कोर्ट मे पेश करते हैं और कहाँ लिखा है गाय का कत्ल करो ये जानना चाहतें है ! और आपको पता चलेगा कि इस्लाम की कोई भी धार्मिक पुस्तक मे नहीं लिखा है की गाय का कत्ल करो !
हदीस मे तो लिखा हुआ है कि गाय की रक्षा करो क्यूंकि वो तुम्हारी रक्षा करती है ! पेगंबर मुहमद साहब का statement है की गाय अबोल जानवर है इसलिए उस पर दया करो ! और एक जगह लिखा है गाय का कत्ल करोगे तो दोझक मे भी जमीन नहीं मिलेगी !मतलब जहनुम मे भी जमीन नहीं मिलेगी !!

तो राजीव भाई ने कोर्ट से कहा अगर कुरान ये कहती है मुहम्मद साहब ये कहते हैं हदीस ये कहती है तो फिर ये गाय का कत्ल कर धार्मिक अधिकार कब से हुआ ?? पूछो इन कसाईयो से ?? तो कसाई बोखला गए ! और राजीव भाई ने कहा अगर मक्का मदीना मे भी कोई किताब हो तो ले आओ उठा के !!

अंत कोर्ट ने उनको 1 महीने का पर्मिशन दिया की जाओ और दस्तावेज़ ढूंढ के लाओ जिसमे लिखा हो गाय का कत्ल करना इस्लाम का मूल अधिकार है ! हम मान लेंगे !! और एक महीने तक भी कोई दस्तावेज़ नहीं मिला !! कोर्ट ने कहा अब हम ज्यादा समय नहीं दे सकते ! और अंत 26 अक्तूबर 2005 judgement आ गया !! और आप चाहें तो judgement की copy
www. supremecourtcaselaw . com पर जाकर download कर सकते हैं !

ये 66 पनने का judgement है सुप्रीम कोर्ट ने एक इतिहास बाना दिया और उन्होंने कहा की गाय को काटना सांविधानिक पाप है धार्मिक पाप है ! और सुप्रीम कोर्ट ने कहा गौ रक्षा करना,सर्वंधन करना देश के प्रत्येक नागरिक का सांविधानिक कर्त्तव्य है ! सरकार का तो है ही नागरिकों का भी सांविधानिक कर्तव्य है ! अब तक जो संविधानिक कर्तव्य थे जैसे , संविधान का पालन करना ,राष्ट्रीय ध्वज ,का सम्मान करना ,क्रांतिकारियों का समान करना ,देश की एकता , अखंडता को बनाए रखना ! आदि आदि अब इसमे गौ की रक्षा करना भी जुड़ गया है !!

सुप्रीम कोर्ट ने कहा की भारत की 34 राज्यों कीसरकार की जिमेदारी है की वो गाय का कतल आपने आपने राज्य में बंद कराये और किसी राज्य में गाय का कतल होता है तो उस राज्य के मुख्यमंत्री की जिमेदारी है राज्यपाल की जावबदारी,चीफ सेकेट्री की जिमे

दारी है, वो अपना काम पूरा नहीं कर रहे है तो ये राज्यों के लिए सविधानिक जवाबदारी है और नागरिको के लिए सविधानिक कर्त्तव्य है !!

अब कानून दो सतर पर बनाये जाते हैं एक जो केद्र सरकार बना सकती है और एक 35 राज्यों की राज्य सरकार बना सकती है अपने आपने राज्यों में !! अगर केंद्र सरकार ही बना दे !! तो किसी राज्य सरकार को बनाने की जरूरत नहीं ! केंद्र सरकार का कानून पूरे देश मे लागू होगा ! तो आप सब केंद्र सरकार पर दबाव बनाये !! जब तक केंद्र सरकार नहीं बनाती तब तक आप अपने अपने राज्य की सरकारों पर दबाव बनाये ! दबाव कैसे बनाना है ???

आपको हजारो ,लाखो की संख्या मे प्रधानमंत्री ,राष्ट्रपति या राज्य के मुख्यमंत्री को पत्र लिखना है और इतना ही कहना है की 26 अक्तूबर 2005 को जो सुप्रीम कोर्ट का judgment आया है उसे लागू करो !!
आप अपने -आस पड़ोस ,गली गाँव ,मुहल्ला ,शहर मे लोगो से बात करनी शुरू करे उनको गाय का महत्व समझाये !! देश के लिए गाय का आर्थिक योगदान बताएं ! और प्रधानमंत्री ,राष्ट्रपति या राज्य के मुख्यमंत्री को पत्र लिखने का निवेदन करें ! इतना दबाव डालें की 2014 के चुनाव मे लोगो उसी सरकार को वोट दें जो इस सुप्रीम कोर्ट के गौ ह्त्या के खिलाफ judgement को पूरे देश मे लागू करें !

और अंत उस क्रांतिकारी मंगल पांडे ने इतिहास बना वो फांसी पर चढ़ गया लेकिन गाय की चर्बी के कारतूस उसने अपने मुंह से नहीं खोले ! और जिस अंग्रेज़ अधिकारी ने उसको मजबूर किया उसको मंगल पांडे ने गोली मर दी !! तो हमने कहा था कि हमारी तो आजादी का इतिहास शुरू होता है गौ रक्षा से !!

आपने पूरी post पढ़ीं बहुत बहुत धन्यवाद !!

यहाँ जरूर click कर देखें !!!
http://www.youtube.com/watch?v=i7xaTCfA7js

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वैदिक परंपरा के ये गुरुकुल(Gurukul) …सतयुग लाने की पहल


वैदिक परंपरा के ये गुरुकुल(Gurukul) …सतयुग लाने की पहल

कर्नाटक के मंगलुरु से 40-50 कि.मी. दूर है विट्टला और विट्टला से कोई चार-पांच कि.मी. दूर है मुरकजे। इसी गांव में नारियल और सुपारी के घने उपवन के बीच परमेश्वरी अम्मा की छोटी सी कुटिया में मानो “सतयुग” वापस लौट आया है। परमेश्वरी अम्मा अब नहीं रहीं लेकिन उनके आंगन में जिस प्रकार वैदिक ऋचाएं गूंज रही हैं, वह कालचक्र के इस महान निर्णायक मोड़ को स्वत: परिभाषित कर रही हैं। अभी कुछ ही वर्ष पहले की बात है, देश में विवाद का विषय बन गया था कि स्त्रियों को वेद पढ़ने का अधिकार नहीं है। यह विवाद जब उफान पर था, उसके पूर्व ही मुरकजे ग्राम ने इस रूढ़ि को धता बता दिया था। आज एक-दो नहीं सैकड़ों की संख्या में बालिकाएं परमेश्वरी अम्मा के आनन्द आंगन में वेद पाठ कर रही हैं।

परमेश्वरी अम्मा मुरकजे गांव की रहने वाली थीं। 1997 में उनका शरीरांत हुआ किन्तु इसके पूर्व अपने भतीजे वेंकटरमण भट्ट की प्रेरणा से उन्होंने अपनी सारी संपत्ति, सैकड़ों एकड़ जमीन कन्याओं के गुरुकुल के लिए दान कर दी। कन्याओं को वेद शिक्षा देने वाले इस मैत्रेयी गुरुकुल की स्थापना श्री कृष्णप्पा, श्री सीताराम केदिलाय, श्री सूर्यनारायण राव प्रभृति वरिष्ठ प्रचारकों की प्रेरणा रा.स्व. संघ के स्वयंसेवकों के प्रयासों एवं 1994 में बंगलुरु में हुई। 1999 में मंगलुरु स्थित परमेश्वरी अम्मा के घर, उससे जुड़ी सैकड़ों एकड़ जमीन में मैत्रेयी गुरुकुल स्थानांतरित हो गया। आज यहां 101 कन्याएं हैं जो वेद शिक्षा के साथ आधुनिक विषयों की शिक्षा भी ग्रहण कर रही हैं। छह वर्षीय पाठक्रम, किन्तु भोजन, आवास एवं शिक्षा का कोई शुल्क नहीं। योग्यता, प्रतिभा और रुचि के मूल्यांकन पर आधारित चयन प्रक्रिया और पूरे छह साल तक कठोर दिनचर्या के अन्तर्गत गुरुकुल में निवास। आधुनिक पद्धति की पांचवीं कक्षा से यहां कन्याओं का प्रवेश होता है और दसवीं श्रेणी तक की शिक्षा प्राप्त कर वे अपनी वेद और आधुनिक विषयों की शिक्षा पूर्ण कर लेती हैं। इन छह वर्षों में इन्हें कोई परीक्षा नहीं देनी होती। वार्षिक मूल्यांकन हेतु यहां वैदिक पद्धति का अनुसरण किया जाता है जिसमें कोई भी किसी विषय में कम अंक के कारण अनुत्तीर्ण नहीं किया जाता। मातृश्री मीनाक्षी इसका कारण बताते हुए स्पष्ट करती हैं- “निसर्ग में तो सभी कुछ न कुछ गुण लेकर ही आते हैं, फिर कोई उत्तीर्ण और अनुत्तीर्ण कैसे हो सकता है। विद्यालय प्रतिभा निखारें, बस! ईश्वर की अनमोल कृतियां अपना भविष्य स्वयं तय कर लेंगी।”

लगभग एक दर्जन मातृश्री (शिक्षिकाएं) यहां रहकर प्रमुख मातृश्री सावित्री देवी के सुयोग्य संचालन में इन कन्याओं को पंचमुखी शिक्षा पद्धति के अनुसार विविध विषयों का शिक्षण देती हैं। पांचवीं कक्षा को यहां श्रद्धा कहते हैं और दसवीं तक क्रमश: मेधा, प्रज्ञा, प्रतिभा, धृति: और धी: नाम से श्रेणी-कक्षाओं का सुन्दर नामकरण किया गया है। वेद शिक्षा के अन्तर्गत यहां ऋग्वेद के चयनित सूक्तों, तैत्तरीय उपनिषद सहित अन्य संकलित ऋचाओं, यज्ञ विधियों, शांतिपाठ, नित्य पूजा कर्म के साथ श्रीमद्भगवद्गीता, रामायण, महाभारत के अनेक अंशों का शिक्षण दिया जाता है। सभी कन्याएं श्रद्धा श्रेणी के स्तर पर ही स्वर-लय के साथ वेदमंत्रों का पठन करने लगती हैं। इसके अतिरिक्त गणित, इतिहास, भूगोल, अंग्रेजी, कन्नड़, संस्कृत, भौतिक विज्ञान, रसायन विज्ञान, जीव विज्ञान, योग शिक्षा, कृषि-कर्म के साथ कम्प्यूटर, स्वरुचि के अनुसार पेंटिंग, नृत्य-कला, नाट शिक्षण, संगीत आदि का शिक्षण भी प्रत्येक श्रेणी के अनुसार यहां दिया जा रहा है। आधुनिक विज्ञान के शिक्षण के लिए यहां कणाद नामक सुन्दर प्रयोगशाला है, तो भारद्वाज नामक कम्प्यूटर रूम है, जिसका संचालन वरिष्ठ श्रेणी की कन्याएं करती हैं। जिज्ञासा नामक पुस्तकालय, निरामया नामक चिकित्सा कक्ष और कन्याओं के निवास तथा अध्ययन के लिए यहां विश्ववारा, गार्गी, आराधना, सुनैना, चुड़ाला आदि अनेक प्रकोष्ठ हैं। अन्नपूर्णा नामक भोजनालय और सुन्दर गोशाला भी यहां है। पूरे परिसर की देखभाल करने वाले 5 गृहस्थ परिवार भी यहां रहते हैं।

प्रतिदिन प्रात:काल 5 बजे से गुरुकुल की दिनचर्या प्रारंभ हो जाती है, कक्षाओं का प्रारंभ सामूहिक वेदपाठ, श्रीमद्भगवद् गीता-पाठ से होता है, उसके पूर्व योग-शिक्षण और योगाभ्यास सभी के लिए अनिवार्य है। इसके बाद पंचायतन पूजा और फिर जलपान और भोजन अवकाश के साथ शाम 4.30 बजे तक शिक्षण-कक्षाएं। परिसर के मध्य में भारत माता की अत्यंत सुन्दर प्रतिमा, नित्य भारत माता की आराधना और रा.से. समिति की शाखा भी इस गुरुकुल की दिनचर्या का हिस्सा है। शाम के समय बागवानी और कृषि कार्य में सभी कन्याएं जुटती हैं। जिसकी जैसी रुचि, वो वैसे कार्य में सक्रिय हो जाती है। कहीं फूलों की क्यारियां, कहीं सब्जी-तरकारी तो कहीं नारियल, सुपारी, वनिला, केले व अन्य फलदार वृक्षों की सेवा, गोमाता की सेवा, गोशाला की भी देखभाल और इन सभी कार्यों में वेंकटरमण सपत्नीक कन्याओं का मार्गदर्शन करते हैं। सभी मातृश्री भी अपनी-अपनी श्रेणी के साथ निरन्तर किसी न किसी युक्ति से कन्याओं का शिक्षण करती हैं।

श्रृंगेरी की आश्रिता, उडुपी की रक्षिता, बागलकोट की सहना, शिवमोगा की वत्सला, बंगलुरु की अपर्णा, हासन की स्वाती से हम मिले, ये सभी यहां की वरिष्ठ छात्राएं हैं। सभी को यहां रहने-पढ़ने का आनन्द भाता है, वेद मंत्रों का सस्वर पाठ इनके मुंह से सुनने का आनन्द ऐसा कि तुरंत ध्यान लग जाए। ग्रीष्म अवकाश में सभी कन्याओं के माता-पिता इन्हें घर ले जाते हैं लेकिन गुरुपूर्णिमा के पूर्व सभी को वापस आना होता है। बीच-बीच में अभिभावक इन बच्चों का हाल-चाल लेने आते रहते हैं।

श्रृंगेरी में रहकर संगीत साधना में जुटी आश्रिता ने हाल ही में मैत्रेयी गुरुकुल से अपनी शिक्षा पूर्ण की। उसने बताया, “मैत्रेयी गुरुकुल ने जीवन जीने की कला सिखाई है, जीवन का उद्देश्य भी बताया है। संगीत और कन्नड़ साहित्य की साधना करने की मेरी योजना है। दीक्षान्त में समाज के लिए कुछ न कुछ करने का जो वचन मैंने दिया, उसे निभाऊ‚ंगी।” कर्नाटक के बीजापुर जिले के इंडी तालुके का एक छोटा सा गांव है- गुदूवाना। यहां के लिंगायत समुदाय की कन्या ज्योति कोई दो साल पहले गुरुकुल से पढ़ाई पूरी कर अपने गांव पहुंची। गांव में उसने अपने माता-पिता को विधिपूर्वक पूजा-पाठ करना सिखाया, घर में उसके बाबा, जो उसके गुरुकुल जाने से कभी नाराज थे, घर में वेद मंत्रों का नित्य पाठ देख भावविह्वल हो उठे, परिवार में संस्कृत भाषा के साथ सुसंस्कृत वातावरण निर्मित हुआ। पूरा गांव मानो ज्योति की ज्योति से जगमगा उठा। गुरुकुल की यह प्रेरणा कि “घर में बैठने के लिए ये शिक्षा नहीं ली,” को पूर्ण करते हुए ज्योति ने आस-पास की अन्य छोटी बालिकाओं को सुशिक्षित करने के प्रयास शुरू किए हैं। कुछ ऐसा ही शुरू किया चित्रदुर्ग जिले के पास मडकालमोरु के कोंडलाहल्ली गांव की एक कृषक कन्या शकुन्तला ने। शकुन्तला वेद और आधुनिक शिक्षा प्राप्त कर घर पहुंची तो लोगों को लगा कि अब ये गांव में क्या करेगी। लेकिन नहीं, शकुन्तला ने अपने पिता को खेती के कार्य में सहयोग देना प्रारंभ किया। गुरुकुल में जैविक खेती का अभ्यास जो उसने किया था, अब ये प्रयोग उसकी प्रेरणा से घर वालों ने प्रारंभ किया। घर में नित्य यज्ञ धूम्र भी उठने लगा। पास-पड़ोस की स्कूल न जाने वाली कन्याओं को नियमित पढ़ाने का काम भी शकुंतला ने प्रारंभ कर दिया।

गुरुकुल में ही पढ़ी-लिखी वैशाली का विवाह चिकमंगलूर के होरानाडु गांव के एक सुप्रसिद्ध धर्माधिकारी के पुत्र से हुआ। अन्नपूर्णा देवी शक्ति स्थल के उक्त धर्माधिकारी के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा जब उन्होंने देखा कि उनकी बहू वेदमंत्रों का विधिपूर्वक पाठ करती है। घर के सारे काम भी निपटाती है और अंग्रेजी समाचार पत्र पढ़कर घर के अन्य सदस्यों को देश-विदेश की जानकारी भी देती है। सुसंस्कारित वातावरण को और अधिक सुसंस्कारमय बनाने वाली बहू धर्माधिकारी परिवार को मिली, इससे बढ़कर आनन्ददायक और क्या हो सकता है।

मैसूर में एक महाविद्यालय में ज्योतिष शास्त्र पढ़ाने वाली निवेदिता भी जब गुरुकुल में आई थी तब उसे कल्पना नहीं थी कि एक दिन उसकी गिनती एक विदुषी नारी के रूप में होगी। गुरुकुल से उसे जो शिक्षा मिली, उसका उपयोग करते हुए जहां उसने स्नातक स्तर पर ज्योतिष-संस्कृत- व्याकरण को अपने अध्ययन का विषय बनाया वहीं कम्प्यूटर तथा अंग्रेजी के ज्ञान को भी और निखारा।

यहां से पढ़कर निकलने वाली बालिकाएं न सिर्फ संस्कृत-ज्योतिष -वेद- धर्मशास्त्रों वरन् इंजीनियरिंग, एयरोनोटिक इंजीनियरिंग, पॉलिटेक्नीक, आई.टी.आई., आयुर्वेद, शिक्षा शास्त्र, संगीत, हिन्दी, अंग्रेजी एवं कन्नड़ साहित्य में उच्च अध्ययन कर रही हैं। मैत्रेयी गुरुकुल द्वारा आस-पास के ग्रामों में बच्चों को शिक्षा एवं संस्कार देने के लिए बाल-गोकुलम के आयोजन बहुत लोकप्रिय हुए हैं। गुरुकुल ने अपनी स्थापना के 12 वर्ष पूर्ण होने पर भव्य उत्सव का आयोजन किया जिसमें हजारों की संख्या में स्थानीय महिलाओं ने हिस्सा लिया।

आज कर्नाटक में इस गुरुकुल की इतनी ख्याति हो चली है कि लोग दूर-दूर से अपनी कन्याओं को गुरुकुल में दाखिल कराने के लिए सहज चले आते हैं किन्तु गुरुकुल की सीमित क्षमता के कारण सभी को स्थान मिल पाना संभव नहीं होता। ऐसे कितने ही अभिभावक अपने गांवों-क्षेत्र में भूमि-आवास भी उपलब्ध कराने को तैयार हैं लेकिन सवाल यही उठता है कि कौन संभालेगा इतनी बड़ी जिम्मेदारी। सुश्री पद्मा, नेत्रवती, गिरिजा, राजेश्वरी, सुमति मालती, चंपकावती और सुश्री नागरत्ना सहित जो मातृश्री (पूर्णकालिक शिक्षिकाएं) यहां 365 दिन, 24 घंटे रहकर अद्भुत परिश्रम और सेवा-साधना कर रही हैं, ऐसे समर्पण के बिना सिर्फ भूमि-भवन से क्या गुरुकुल चलाए जा सकते हैं?

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“भारत की प्राचीन गुरुकुल परंपरा देश के अनेक हिस्सों में आज भी जीवंत रूप में विद्यमान हैं। वह परंपरा जहां शिक्षा और संस्कार साधना के लिए कोई आर्थिक कीमत नहीं चुकानी पड़ती। यूरोपीय शिक्षा पद्धति की नकल करते हुए वैदिक शिक्षा प्रणाली के अनमोल सर्वांगसुन्दर वृक्ष को जिस प्रकार षडंत्र पूर्वक ध्वस्त किया गया, उसी के दुष्परिणाम हम निठारी काण्ड, किडनी काण्ड, पाटण में छात्राओं के शोषण, दिल्ली के महाविद्यालयों में अध्यापिकाओं से छेड़छाड़, स्कूलों- अस्पतालों तक में बच्चियों से बलात्कार, किशोरवय उम्र में हिंसक मनोवृत्ति प्रकट करने वाली भीषण वारदातों के रूप में घटित होते देखते हैं। वर्तमान विकृत शिक्षा प्रणाली का विकल्प भारत की श्रेष्ठ गुरुकुल परंपरा है, इसके पुनरुज्जीवन में देश का पुनरुज्जीवन है।” यह कहना है वेद विज्ञान गुरुकुल, चेननहल्ली के प्रमुख मार्गदर्शक आचार्य पं. रामचन्द्र भट्ट का। श्री भट्ट से हम चेननहल्ली वेद विज्ञान गुरुकुल में मिले थे। चेन्ननहल्ली गुरुकुल में छात्रों के लिए 11वीं श्रेणी से परास्नातक श्रेणी तक की वेद-विज्ञान शिक्षा नि:शुल्क दी जाती है। यहां सिर्फ शिक्षा ही नहीं दी जाती है वरन् सामाजिक परिवर्तन का महान संदेश भी यहां से निकलकर सर्वत्र सुगन्धि फैला रहा है। आस-पास के ग्रामों में ग्राम-सेवा के अनेक कार्य ये गुरुकुल संचालित कर रहा है। शिक्षा की गुणवत्ता ऐसी कि यहां के छात्र स्नातक-परास्नातक की उपाधि के लिए तिरुपति विश्वविद्यालय, स्वामी विवेकानंद योग अनुसंधान संस्थान (डीम्ड यूनिवर्सिटी) से योग, वेदान्त, मनोचिकित्सा और योग, वेद-विज्ञान आदि विषयों में बी.एससी., एम.एससी. की उपाधि प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण करते हैं। यद्यपि वे पढ़ते गुरुकुल में हैं किन्तु निजी परीक्षार्थी के रूप में इन परीक्षाओं में शामिल होते हैं। आज दर्जनों छात्र वेद, वेदांत, योग और मनोविज्ञान जैसे महत्वपूर्ण विषयों में यहां रहकर विभिन्न विद्वानों के मार्गदर्शन में अनेक विश्वविद्यालयों से पीएच.डी. कर रहे हैं। इसी गुरुकुल की पूर्व श्रेणी श्रृंगेरी के पास हरिहरपुर ग्राम में स्थापित है, जिसे प्रबोधिनी गुरुकुल कहा जाता है। यहां छात्रों को 5वीं श्रेणी से 10वीं श्रेणी तक की शिक्षा नि:शुल्क दी जाती है।

चेननहल्ली बंगलुरु शहर सीमा के करीब बसा गांव है जबकि हरिहरपुर जगद्गुरु आद्य शंकराचार्य के पाद स्पर्श से पवित्र पुण्य क्षेत्र है जो शारदा पीठ, श्रृंगेरी से 60 कि.मी. दूर पड़ता है। ये सभी गुरुकुल अपने पूरे रूप में समाज आश्रित हैं, ग्राम-आश्रित हैं। यहां अध्ययनरत सभी छात्रों को शिक्षा-भोजन-आवास नि:शुल्क मिलता है। यदि उनकी वेद विद्या में, इसके अध्ययन और प्रसार में रुचि है तो बिना किसी जाति-बंधन और पूर्व की औपचारिक शिक्षा के वे इनमें एक निश्चित वय और चरण में प्रवेश प्राप्त कर सकते हैं। हरिहरपुर में 9-10 वर्ष की उम्र के बालक प्रवेश पाते हैं। उन्हें आधुनिक शिक्षा पद्धति की पांचवी कक्षा में प्रवेश मिलता है और इस प्रकार से छह वर्ष तक उन्हें गुरुकुल में अपना कठोरता पूर्वक रहकर शिक्षाभ्यास करना होता है। तीनों ही विद्यालयों में पंचायतन पूजा भी शिक्षा का एक अंग है, जहां वे एक साथ सस्वर मंत्रों से शिव, विष्णु, गणपति, देवी दुर्गा और भगवान सूर्य की आराधना-उपासना नित्य करते हैं। अति प्रात: से जो शिक्षा सत्र प्रारंभ होता है रात्रि 9 बजे तक लगातार चलता है। विविध श्रेणियों में विद्यार्थी अपने आचार्यों और हरी-भरी प्रकृति के स्नेहिल सान्निध्य में परीक्षा प्रणाली के भूत से मुक्त होकर वेद मंत्रों, मंत्र रहस्यों का अनुसंधान करते हुए आधुनिक शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं। चेननहल्ली में विद्यार्थियों के ध्यान के लिए एक विशेष ध्यान कक्ष “सरस्वती शिखिरणी” बनाया गया है। इस कक्ष की छत पिरामिड जैसी है, इस छत के नीचे कई सप्ताह तक फल आदि रखे रहने पर भी खराब नहीं होते। इसमें बैठते ही छात्र ध्यान की अनन्त गहराई और आनन्द से सराबोर हो उठते हैं। यहां वेद मंत्रों का चमत्कार प्रत्यक्ष दिख रहा है। अनेक ऐसे वृक्ष जिन्हें लोगों ने कितने ही वर्षों से “निष्फल” घोषित कर रखा था, वेदमंत्रों के स्वर गुंजायमान होने के बाद वे फलदार हो गए।

तीनों ही गुरुकुलों के पास कृषि कार्य के लिए पर्याप्त भूमि है। प्रबोधिनी गुरुकुल, हरिहरपुर के पास 10 एकड़ से अधिक कृषियोग्य भूमि है, जहां जैविक कृषि के सुन्दर प्रयोग सफलतापूर्वक चल रहे हैं। चिक- मंगलूर जिले के सुप्रसिद्ध जैव कृषि विशेषज्ञ के.टी. नागेन्द्र राव की गुरुकुल में सक्रियता उल्लेखनीय है। वे इस गुरुकुल के ट्रस्ट में भी शामिल हैं। गुरुकुल में प्रत्यक्ष खेती का काम सिद्धप्पा करते हैं और वे इस कार्य के लिए सपरिवार यहां रहते हैं। गुरुकुल में जैव कृषि के सफल प्रयोगों ने आस-पास के ग्रामों के कृषकों को भी जैव कृषि के लिए प्रेरित किया। शिवण्णाचार्य ने इस लोक जागरण की कमान संभाली। गुरुकुल के प्रयासों से पास के दो ग्रामों में पूरी तरह से जैविक कृषि होने लगी है। इन गांवों में उत्पादन भी जबर्दस्त बढ़ा। कर्नाटक सरकार ने इन दोनों ग्रामों को आदर्श कृषि ग्राम के रूप में मान्यता दी है।

आस-पास के सैंकड़ों ग्रामों के निवासी गुरुकुल के पवित्र कार्य में सहयोग कर रहे हैं। कुछ कार्यकर्ता जो पूर्णकालिक हैं, दिन-रात इन ग्रामों में प्रवास कर एक तो लोक जागरण की अलख जगाते हैं, दूसरे गुरुकुल के लिए ग्रामों से अन्न और धन का संग्रह भी करते हैं। गुरुकुल की इस कार्यप्रणाली को देखकर अनेक धनाढ लोगों का भी सहज-सहयोग प्राप्त होता है, उन लोगों का सहयोग, जो चाहते हैं कि गुरुकुल प्रणाली चलती रहे ताकि “भारत” जिन्दा रहे। हरिहरपुर गुरुकुल में हमें उडुपी के कुन्दापुर तालुका के कोटेश्वर गांव निवासी सुदर्शन पई परिवार सहित मिले। सुदर्शन पई उडुपी में ही रहते हैं, प्रतिष्ठित चार्टर्ड एकाउंटेंट हैं। हमने पूछा- यहां क्यों आए? उनका जो उत्तर मिला, वह आश्चर्यकारी था- मेरा बेटा सुहास पई यहीं गुरुकुल में पढ़ता है। मैंने पूछा- आप सी.ए. हैं, गुरुकुल में बेटे को पढ़ाने का कारण? उनका उत्तर था, “मुझे अपने बेटे को अपनी मिट्टी से जोड़े रखना है। इसे तो मैं कितने ही महंगे अंग्रेजी स्कूल में पढ़ा दूं पर जो संस्कार यहां मिल रहे हैं वे अनमोल हैं। यह घर जाता है तो सुबह उठकर वेदमंत्र बोलता है। कहां मिलेंगे ये संस्कार? बड़ा होगा तो जिस विषय में उच्च शिक्षा लेना चाहेगा, ये उसकी इच्छा, पर मैं चाहता हूं कि आज के दूषित वातावरण की आंधी से बचा रहे और युवावस्था में इसका ठीक प्रकार से सामना करे। इसकी शिक्षा समाज के खर्च से पूरी होगी, इससे समाज के प्रति इसके मन में हमेशा ऋण-भाव बना रहेगा। गुरुकुल मुझसे एक पैसा नहीं लेता, इसलिए ऐसे गुरुकुल बिना किसी बाधा के चलते रहें, ये देखना सहज मेरी भी जिम्मेदारी बनती है।” चेननहल्ली में गुरुकुल के प्रबंधन से जुड़े आचार्य लक्ष्मी नरसिंह ने बताया- “यहां ब्राहृण और अनुसूचित जाति के बालक, कृष्ण और सुदामा एक साथ रहकर पढ़ते-खेलते-सोते हैं। समाज इस गुरुकुल प्रणाली के संचालन के लिए आगे बढ़कर सहयोग दे रहा है। जो जिस रूप में देता है, हम स्वीकार करते हैं पर यहां पढ़ने वाले बच्चों के अविभावकों से हम कभी कोई शुल्क नहीं लेते। हां, इन बच्चों से दीक्षांत के समय एक वचन जरूर लेते हैं- जिस भावना से समाज ने तुम्हारी चिंता की, उन संस्कारों- उस भावना को समाजहित में तुम भी जीवन भर धारण रखना। जैसे भी हो सके- समाज की सेवा करना, भारत जननी का मान बढ़ाना।”वैदिक परंपरा के ये गुरुकुल …सतयुग लाने की पहल

कर्नाटक के मंगलुरु से 40-50 कि.मी. दूर है विट्टला और विट्टला से कोई चार-पांच कि.मी. दूर है मुरकजे। इसी गांव में नारियल और सुपारी के घने उपवन के बीच परमेश्वरी अम्मा की छोटी सी कुटिया में मानो “सतयुग” वापस लौट आया है। परमेश्वरी अम्मा अब नहीं रहीं लेकिन उनके आंगन में जिस प्रकार वैदिक ऋचाएं गूंज रही हैं, वह कालचक्र के इस महान निर्णायक मोड़ को स्वत: परिभाषित कर रही हैं। अभी कुछ ही वर्ष पहले की बात है, देश में विवाद का विषय बन गया था कि स्त्रियों को वेद पढ़ने का अधिकार नहीं है। यह विवाद जब उफान पर था, उसके पूर्व ही मुरकजे ग्राम ने इस रूढ़ि को धता बता दिया था। आज एक-दो नहीं सैकड़ों की संख्या में बालिकाएं परमेश्वरी अम्मा के आनन्द आंगन में वेद पाठ कर रही हैं।

परमेश्वरी अम्मा मुरकजे गांव की रहने वाली थीं। 1997 में उनका शरीरांत हुआ किन्तु इसके पूर्व अपने भतीजे वेंकटरमण भट्ट की प्रेरणा से उन्होंने अपनी सारी संपत्ति, सैकड़ों एकड़ जमीन कन्याओं के गुरुकुल के लिए दान कर दी। कन्याओं को वेद शिक्षा देने वाले इस मैत्रेयी गुरुकुल की स्थापना श्री कृष्णप्पा, श्री सीताराम केदिलाय, श्री सूर्यनारायण राव प्रभृति वरिष्ठ प्रचारकों की प्रेरणा रा.स्व. संघ के स्वयंसेवकों के प्रयासों एवं 1994 में बंगलुरु में हुई। 1999 में मंगलुरु स्थित परमेश्वरी अम्मा के घर, उससे जुड़ी सैकड़ों एकड़ जमीन में मैत्रेयी गुरुकुल स्थानांतरित हो गया। आज यहां 101 कन्याएं हैं जो वेद शिक्षा के साथ आधुनिक विषयों की शिक्षा भी ग्रहण कर रही हैं। छह वर्षीय पाठक्रम, किन्तु भोजन, आवास एवं शिक्षा का कोई शुल्क नहीं। योग्यता, प्रतिभा और रुचि के मूल्यांकन पर आधारित चयन प्रक्रिया और पूरे छह साल तक कठोर दिनचर्या के अन्तर्गत गुरुकुल में निवास। आधुनिक पद्धति की पांचवीं कक्षा से यहां कन्याओं का प्रवेश होता है और दसवीं श्रेणी तक की शिक्षा प्राप्त कर वे अपनी वेद और आधुनिक विषयों की शिक्षा पूर्ण कर लेती हैं। इन छह वर्षों में इन्हें कोई परीक्षा नहीं देनी होती। वार्षिक मूल्यांकन हेतु यहां वैदिक पद्धति का अनुसरण किया जाता है जिसमें कोई भी किसी विषय में कम अंक के कारण अनुत्तीर्ण नहीं किया जाता। मातृश्री मीनाक्षी इसका कारण बताते हुए स्पष्ट करती हैं- “निसर्ग में तो सभी कुछ न कुछ गुण लेकर ही आते हैं, फिर कोई उत्तीर्ण और अनुत्तीर्ण कैसे हो सकता है। विद्यालय प्रतिभा निखारें, बस! ईश्वर की अनमोल कृतियां अपना भविष्य स्वयं तय कर लेंगी।”

लगभग एक दर्जन मातृश्री (शिक्षिकाएं) यहां रहकर प्रमुख मातृश्री सावित्री देवी के सुयोग्य संचालन में इन कन्याओं को पंचमुखी शिक्षा पद्धति के अनुसार विविध विषयों का शिक्षण देती हैं। पांचवीं कक्षा को यहां श्रद्धा कहते हैं और दसवीं तक क्रमश: मेधा, प्रज्ञा, प्रतिभा, धृति: और धी: नाम से श्रेणी-कक्षाओं का सुन्दर नामकरण किया गया है। वेद शिक्षा के अन्तर्गत यहां ऋग्वेद के चयनित सूक्तों, तैत्तरीय उपनिषद सहित अन्य संकलित ऋचाओं, यज्ञ विधियों, शांतिपाठ, नित्य पूजा कर्म के साथ श्रीमद्भगवद्गीता, रामायण, महाभारत के अनेक अंशों का शिक्षण दिया जाता है। सभी कन्याएं श्रद्धा श्रेणी के स्तर पर ही स्वर-लय के साथ वेदमंत्रों का पठन करने लगती हैं। इसके अतिरिक्त गणित, इतिहास, भूगोल, अंग्रेजी, कन्नड़, संस्कृत, भौतिक विज्ञान, रसायन विज्ञान, जीव विज्ञान, योग शिक्षा, कृषि-कर्म के साथ कम्प्यूटर, स्वरुचि के अनुसार पेंटिंग, नृत्य-कला, नाट शिक्षण, संगीत आदि का शिक्षण भी प्रत्येक श्रेणी के अनुसार यहां दिया जा रहा है। आधुनिक विज्ञान के शिक्षण के लिए यहां कणाद नामक सुन्दर प्रयोगशाला है, तो भारद्वाज नामक कम्प्यूटर रूम है, जिसका संचालन वरिष्ठ श्रेणी की कन्याएं करती हैं। जिज्ञासा नामक पुस्तकालय, निरामया नामक चिकित्सा कक्ष और कन्याओं के निवास तथा अध्ययन के लिए यहां विश्ववारा, गार्गी, आराधना, सुनैना, चुड़ाला आदि अनेक प्रकोष्ठ हैं। अन्नपूर्णा नामक भोजनालय और सुन्दर गोशाला भी यहां है। पूरे परिसर की देखभाल करने वाले 5 गृहस्थ परिवार भी यहां रहते हैं।

प्रतिदिन प्रात:काल 5 बजे से गुरुकुल की दिनचर्या प्रारंभ हो जाती है, कक्षाओं का प्रारंभ सामूहिक वेदपाठ, श्रीमद्भगवद् गीता-पाठ से होता है, उसके पूर्व योग-शिक्षण और योगाभ्यास सभी के लिए अनिवार्य है। इसके बाद पंचायतन पूजा और फिर जलपान और भोजन अवकाश के साथ शाम 4.30 बजे तक शिक्षण-कक्षाएं। परिसर के मध्य में भारत माता की अत्यंत सुन्दर प्रतिमा, नित्य भारत माता की आराधना और रा.से. समिति की शाखा भी इस गुरुकुल की दिनचर्या का हिस्सा है। शाम के समय बागवानी और कृषि कार्य में सभी कन्याएं जुटती हैं। जिसकी जैसी रुचि, वो वैसे कार्य में सक्रिय हो जाती है। कहीं फूलों की क्यारियां, कहीं सब्जी-तरकारी तो कहीं नारियल, सुपारी, वनिला, केले व अन्य फलदार वृक्षों की सेवा, गोमाता की सेवा, गोशाला की भी देखभाल और इन सभी कार्यों में वेंकटरमण सपत्नीक कन्याओं का मार्गदर्शन करते हैं। सभी मातृश्री भी अपनी-अपनी श्रेणी के साथ निरन्तर किसी न किसी युक्ति से कन्याओं का शिक्षण करती हैं।

श्रृंगेरी की आश्रिता, उडुपी की रक्षिता, बागलकोट की सहना, शिवमोगा की वत्सला, बंगलुरु की अपर्णा, हासन की स्वाती से हम मिले, ये सभी यहां की वरिष्ठ छात्राएं हैं। सभी को यहां रहने-पढ़ने का आनन्द भाता है, वेद मंत्रों का सस्वर पाठ इनके मुंह से सुनने का आनन्द ऐसा कि तुरंत ध्यान लग जाए। ग्रीष्म अवकाश में सभी कन्याओं के माता-पिता इन्हें घर ले जाते हैं लेकिन गुरुपूर्णिमा के पूर्व सभी को वापस आना होता है। बीच-बीच में अभिभावक इन बच्चों का हाल-चाल लेने आते रहते हैं।

श्रृंगेरी में रहकर संगीत साधना में जुटी आश्रिता ने हाल ही में मैत्रेयी गुरुकुल से अपनी शिक्षा पूर्ण की। उसने बताया, “मैत्रेयी गुरुकुल ने जीवन जीने की कला सिखाई है, जीवन का उद्देश्य भी बताया है। संगीत और कन्नड़ साहित्य की साधना करने की मेरी योजना है। दीक्षान्त में समाज के लिए कुछ न कुछ करने का जो वचन मैंने दिया, उसे निभाऊ‚ंगी।” कर्नाटक के बीजापुर जिले के इंडी तालुके का एक छोटा सा गांव है- गुदूवाना। यहां के लिंगायत समुदाय की कन्या ज्योति कोई दो साल पहले गुरुकुल से पढ़ाई पूरी कर अपने गांव पहुंची। गांव में उसने अपने माता-पिता को विधिपूर्वक पूजा-पाठ करना सिखाया, घर में उसके बाबा, जो उसके गुरुकुल जाने से कभी नाराज थे, घर में वेद मंत्रों का नित्य पाठ देख भावविह्वल हो उठे, परिवार में संस्कृत भाषा के साथ सुसंस्कृत वातावरण निर्मित हुआ। पूरा गांव मानो ज्योति की ज्योति से जगमगा उठा। गुरुकुल की यह प्रेरणा कि “घर में बैठने के लिए ये शिक्षा नहीं ली,” को पूर्ण करते हुए ज्योति ने आस-पास की अन्य छोटी बालिकाओं को सुशिक्षित करने के प्रयास शुरू किए हैं। कुछ ऐसा ही शुरू किया चित्रदुर्ग जिले के पास मडकालमोरु के कोंडलाहल्ली गांव की एक कृषक कन्या शकुन्तला ने। शकुन्तला वेद और आधुनिक शिक्षा प्राप्त कर घर पहुंची तो लोगों को लगा कि अब ये गांव में क्या करेगी। लेकिन नहीं, शकुन्तला ने अपने पिता को खेती के कार्य में सहयोग देना प्रारंभ किया। गुरुकुल में जैविक खेती का अभ्यास जो उसने किया था, अब ये प्रयोग उसकी प्रेरणा से घर वालों ने प्रारंभ किया। घर में नित्य यज्ञ धूम्र भी उठने लगा। पास-पड़ोस की स्कूल न जाने वाली कन्याओं को नियमित पढ़ाने का काम भी शकुंतला ने प्रारंभ कर दिया।

गुरुकुल में ही पढ़ी-लिखी वैशाली का विवाह चिकमंगलूर के होरानाडु गांव के एक सुप्रसिद्ध धर्माधिकारी के पुत्र से हुआ। अन्नपूर्णा देवी शक्ति स्थल के उक्त धर्माधिकारी के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा जब उन्होंने देखा कि उनकी बहू वेदमंत्रों का विधिपूर्वक पाठ करती है। घर के सारे काम भी निपटाती है और अंग्रेजी समाचार पत्र पढ़कर घर के अन्य सदस्यों को देश-विदेश की जानकारी भी देती है। सुसंस्कारित वातावरण को और अधिक सुसंस्कारमय बनाने वाली बहू धर्माधिकारी परिवार को मिली, इससे बढ़कर आनन्ददायक और क्या हो सकता है।

मैसूर में एक महाविद्यालय में ज्योतिष शास्त्र पढ़ाने वाली निवेदिता भी जब गुरुकुल में आई थी तब उसे कल्पना नहीं थी कि एक दिन उसकी गिनती एक विदुषी नारी के रूप में होगी। गुरुकुल से उसे जो शिक्षा मिली, उसका उपयोग करते हुए जहां उसने स्नातक स्तर पर ज्योतिष-संस्कृत- व्याकरण को अपने अध्ययन का विषय बनाया वहीं कम्प्यूटर तथा अंग्रेजी के ज्ञान को भी और निखारा।

यहां से पढ़कर निकलने वाली बालिकाएं न सिर्फ संस्कृत-ज्योतिष -वेद- धर्मशास्त्रों वरन् इंजीनियरिंग, एयरोनोटिक इंजीनियरिंग, पॉलिटेक्नीक, आई.टी.आई., आयुर्वेद, शिक्षा शास्त्र, संगीत, हिन्दी, अंग्रेजी एवं कन्नड़ साहित्य में उच्च अध्ययन कर रही हैं। मैत्रेयी गुरुकुल द्वारा आस-पास के ग्रामों में बच्चों को शिक्षा एवं संस्कार देने के लिए बाल-गोकुलम के आयोजन बहुत लोकप्रिय हुए हैं। गुरुकुल ने अपनी स्थापना के 12 वर्ष पूर्ण होने पर भव्य उत्सव का आयोजन किया जिसमें हजारों की संख्या में स्थानीय महिलाओं ने हिस्सा लिया।

आज कर्नाटक में इस गुरुकुल की इतनी ख्याति हो चली है कि लोग दूर-दूर से अपनी कन्याओं को गुरुकुल में दाखिल कराने के लिए सहज चले आते हैं किन्तु गुरुकुल की सीमित क्षमता के कारण सभी को स्थान मिल पाना संभव नहीं होता। ऐसे कितने ही अभिभावक अपने गांवों-क्षेत्र में भूमि-आवास भी उपलब्ध कराने को तैयार हैं लेकिन सवाल यही उठता है कि कौन संभालेगा इतनी बड़ी जिम्मेदारी। सुश्री पद्मा, नेत्रवती, गिरिजा, राजेश्वरी, सुमति मालती, चंपकावती और सुश्री नागरत्ना सहित जो मातृश्री (पूर्णकालिक शिक्षिकाएं) यहां 365 दिन, 24 घंटे रहकर अद्भुत परिश्रम और सेवा-साधना कर रही हैं, ऐसे समर्पण के बिना सिर्फ भूमि-भवन से क्या गुरुकुल चलाए जा सकते हैं?

“भारत की प्राचीन गुरुकुल परंपरा देश के अनेक हिस्सों में आज भी जीवंत रूप में विद्यमान हैं। वह परंपरा जहां शिक्षा और संस्कार साधना के लिए कोई आर्थिक कीमत नहीं चुकानी पड़ती। यूरोपीय शिक्षा पद्धति की नकल करते हुए वैदिक शिक्षा प्रणाली के अनमोल सर्वांगसुन्दर वृक्ष को जिस प्रकार षडंत्र पूर्वक ध्वस्त किया गया, उसी के दुष्परिणाम हम निठारी काण्ड, किडनी काण्ड, पाटण में छात्राओं के शोषण, दिल्ली के महाविद्यालयों में अध्यापिकाओं से छेड़छाड़, स्कूलों- अस्पतालों तक में बच्चियों से बलात्कार, किशोरवय उम्र में हिंसक मनोवृत्ति प्रकट करने वाली भीषण वारदातों के रूप में घटित होते देखते हैं। वर्तमान विकृत शिक्षा प्रणाली का विकल्प भारत की श्रेष्ठ गुरुकुल परंपरा है, इसके पुनरुज्जीवन में देश का पुनरुज्जीवन है।” यह कहना है वेद विज्ञान गुरुकुल, चेननहल्ली के प्रमुख मार्गदर्शक आचार्य पं. रामचन्द्र भट्ट का। श्री भट्ट से हम चेननहल्ली वेद विज्ञान गुरुकुल में मिले थे। चेन्ननहल्ली गुरुकुल में छात्रों के लिए 11वीं श्रेणी से परास्नातक श्रेणी तक की वेद-विज्ञान शिक्षा नि:शुल्क दी जाती है। यहां सिर्फ शिक्षा ही नहीं दी जाती है वरन् सामाजिक परिवर्तन का महान संदेश भी यहां से निकलकर सर्वत्र सुगन्धि फैला रहा है। आस-पास के ग्रामों में ग्राम-सेवा के अनेक कार्य ये गुरुकुल संचालित कर रहा है। शिक्षा की गुणवत्ता ऐसी कि यहां के छात्र स्नातक-परास्नातक की उपाधि के लिए तिरुपति विश्वविद्यालय, स्वामी विवेकानंद योग अनुसंधान संस्थान (डीम्ड यूनिवर्सिटी) से योग, वेदान्त, मनोचिकित्सा और योग, वेद-विज्ञान आदि विषयों में बी.एससी., एम.एससी. की उपाधि प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण करते हैं। यद्यपि वे पढ़ते गुरुकुल में हैं किन्तु निजी परीक्षार्थी के रूप में इन परीक्षाओं में शामिल होते हैं। आज दर्जनों छात्र वेद, वेदांत, योग और मनोविज्ञान जैसे महत्वपूर्ण विषयों में यहां रहकर विभिन्न विद्वानों के मार्गदर्शन में अनेक विश्वविद्यालयों से पीएच.डी. कर रहे हैं। इसी गुरुकुल की पूर्व श्रेणी श्रृंगेरी के पास हरिहरपुर ग्राम में स्थापित है, जिसे प्रबोधिनी गुरुकुल कहा जाता है। यहां छात्रों को 5वीं श्रेणी से 10वीं श्रेणी तक की शिक्षा नि:शुल्क दी जाती है।

चेननहल्ली बंगलुरु शहर सीमा के करीब बसा गांव है जबकि हरिहरपुर जगद्गुरु आद्य शंकराचार्य के पाद स्पर्श से पवित्र पुण्य क्षेत्र है जो शारदा पीठ, श्रृंगेरी से 60 कि.मी. दूर पड़ता है। ये सभी गुरुकुल अपने पूरे रूप में समाज आश्रित हैं, ग्राम-आश्रित हैं। यहां अध्ययनरत सभी छात्रों को शिक्षा-भोजन-आवास नि:शुल्क मिलता है। यदि उनकी वेद विद्या में, इसके अध्ययन और प्रसार में रुचि है तो बिना किसी जाति-बंधन और पूर्व की औपचारिक शिक्षा के वे इनमें एक निश्चित वय और चरण में प्रवेश प्राप्त कर सकते हैं। हरिहरपुर में 9-10 वर्ष की उम्र के बालक प्रवेश पाते हैं। उन्हें आधुनिक शिक्षा पद्धति की पांचवी कक्षा में प्रवेश मिलता है और इस प्रकार से छह वर्ष तक उन्हें गुरुकुल में अपना कठोरता पूर्वक रहकर शिक्षाभ्यास करना होता है। तीनों ही विद्यालयों में पंचायतन पूजा भी शिक्षा का एक अंग है, जहां वे एक साथ सस्वर मंत्रों से शिव, विष्णु, गणपति, देवी दुर्गा और भगवान सूर्य की आराधना-उपासना नित्य करते हैं। अति प्रात: से जो शिक्षा सत्र प्रारंभ होता है रात्रि 9 बजे तक लगातार चलता है। विविध श्रेणियों में विद्यार्थी अपने आचार्यों और हरी-भरी प्रकृति के स्नेहिल सान्निध्य में परीक्षा प्रणाली के भूत से मुक्त होकर वेद मंत्रों, मंत्र रहस्यों का अनुसंधान करते हुए आधुनिक शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं। चेननहल्ली में विद्यार्थियों के ध्यान के लिए एक विशेष ध्यान कक्ष “सरस्वती शिखिरणी” बनाया गया है। इस कक्ष की छत पिरामिड जैसी है, इस छत के नीचे कई सप्ताह तक फल आदि रखे रहने पर भी खराब नहीं होते। इसमें बैठते ही छात्र ध्यान की अनन्त गहराई और आनन्द से सराबोर हो उठते हैं। यहां वेद मंत्रों का चमत्कार प्रत्यक्ष दिख रहा है। अनेक ऐसे वृक्ष जिन्हें लोगों ने कितने ही वर्षों से “निष्फल” घोषित कर रखा था, वेदमंत्रों के स्वर गुंजायमान होने के बाद वे फलदार हो गए।

तीनों ही गुरुकुलों के पास कृषि कार्य के लिए पर्याप्त भूमि है। प्रबोधिनी गुरुकुल, हरिहरपुर के पास 10 एकड़ से अधिक कृषियोग्य भूमि है, जहां जैविक कृषि के सुन्दर प्रयोग सफलतापूर्वक चल रहे हैं। चिक- मंगलूर जिले के सुप्रसिद्ध जैव कृषि विशेषज्ञ के.टी. नागेन्द्र राव की गुरुकुल में सक्रियता उल्लेखनीय है। वे इस गुरुकुल के ट्रस्ट में भी शामिल हैं। गुरुकुल में प्रत्यक्ष खेती का काम सिद्धप्पा करते हैं और वे इस कार्य के लिए सपरिवार यहां रहते हैं। गुरुकुल में जैव कृषि के सफल प्रयोगों ने आस-पास के ग्रामों के कृषकों को भी जैव कृषि के लिए प्रेरित किया। शिवण्णाचार्य ने इस लोक जागरण की कमान संभाली। गुरुकुल के प्रयासों से पास के दो ग्रामों में पूरी तरह से जैविक कृषि होने लगी है। इन गांवों में उत्पादन भी जबर्दस्त बढ़ा। कर्नाटक सरकार ने इन दोनों ग्रामों को आदर्श कृषि ग्राम के रूप में मान्यता दी है।

आस-पास के सैंकड़ों ग्रामों के निवासी गुरुकुल के पवित्र कार्य में सहयोग कर रहे हैं। कुछ कार्यकर्ता जो पूर्णकालिक हैं, दिन-रात इन ग्रामों में प्रवास कर एक तो लोक जागरण की अलख जगाते हैं, दूसरे गुरुकुल के लिए ग्रामों से अन्न और धन का संग्रह भी करते हैं। गुरुकुल की इस कार्यप्रणाली को देखकर अनेक धनाढ लोगों का भी सहज-सहयोग प्राप्त होता है, उन लोगों का सहयोग, जो चाहते हैं कि गुरुकुल प्रणाली चलती रहे ताकि “भारत” जिन्दा रहे। हरिहरपुर गुरुकुल में हमें उडुपी के कुन्दापुर तालुका के कोटेश्वर गांव निवासी सुदर्शन पई परिवार सहित मिले। सुदर्शन पई उडुपी में ही रहते हैं, प्रतिष्ठित चार्टर्ड एकाउंटेंट हैं। हमने पूछा- यहां क्यों आए? उनका जो उत्तर मिला, वह आश्चर्यकारी था- मेरा बेटा सुहास पई यहीं गुरुकुल में पढ़ता है। मैंने पूछा- आप सी.ए. हैं, गुरुकुल में बेटे को पढ़ाने का कारण? उनका उत्तर था, “मुझे अपने बेटे को अपनी मिट्टी से जोड़े रखना है। इसे तो मैं कितने ही महंगे अंग्रेजी स्कूल में पढ़ा दूं पर जो संस्कार यहां मिल रहे हैं वे अनमोल हैं। यह घर जाता है तो सुबह उठकर वेदमंत्र बोलता है। कहां मिलेंगे ये संस्कार? बड़ा होगा तो जिस विषय में उच्च शिक्षा लेना चाहेगा, ये उसकी इच्छा, पर मैं चाहता हूं कि आज के दूषित वातावरण की आंधी से बचा रहे और युवावस्था में इसका ठीक प्रकार से सामना करे। इसकी शिक्षा समाज के खर्च से पूरी होगी, इससे समाज के प्रति इसके मन में हमेशा ऋण-भाव बना रहेगा। गुरुकुल मुझसे एक पैसा नहीं लेता, इसलिए ऐसे गुरुकुल बिना किसी बाधा के चलते रहें, ये देखना सहज मेरी भी जिम्मेदारी बनती है।” चेननहल्ली में गुरुकुल के प्रबंधन से जुड़े आचार्य लक्ष्मी नरसिंह ने बताया- “यहां ब्राहृण और अनुसूचित जाति के बालक, कृष्ण और सुदामा एक साथ रहकर पढ़ते-खेलते-सोते हैं। समाज इस गुरुकुल प्रणाली के संचालन के लिए आगे बढ़कर सहयोग दे रहा है। जो जिस रूप में देता है, हम स्वीकार करते हैं पर यहां पढ़ने वाले बच्चों के अविभावकों से हम कभी कोई शुल्क नहीं लेते। हां, इन बच्चों से दीक्षांत के समय एक वचन जरूर लेते हैं- जिस भावना से समाज ने तुम्हारी चिंता की, उन संस्कारों- उस भावना को समाजहित में तुम भी जीवन भर धारण रखना। जैसे भी हो सके- समाज की सेवा करना, भारत जननी का मान बढ़ाना।”

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क़ुतुबमीनार-श्रेयसम्राट चन्द्र गुप्त विक्रमादित्य के राज्यकलमें खगोल शाष्त्री वराहमिहिरको जाता है


1191A.D.में मोहम्मद गौरी ने दिल्ली परआक्रमण किया ,तराइन के मैदान में पृथ्वी राज चौहान के साथ युद्ध में गौरी बुरी तरह पराजित हुआ,
1192 में गौरी ने दुबारा आक्रमण मेंपृथ्वीराज को हरा दिया,कुतुबुद्दीन,गौ री का सेनापति था.
1206 में गौरी ने कुतुबुद्दीन को अपना नायब नियुक्त किया और जब 1206 A.D,में मोहम्मद गौरी की मृत्यु हुई तब वह गद्दी पर बैठा ,अनेक विरोधियोंको समाप्त करने में उसे लाहौर में हीदो वर्ष लगगए.
1210 A.D. लाहौर में पोलो खेलते हुए घोड़े से गिरकर उसकी मौत हो गयी. अब इतिहास के पन्नों में लिख दिया गया है कि कुतुबुद्दीन ने क़ुतुब मीनार,कुवैतुल इस्लाम मस्जिद और अजमेर में अढाई दिन का झोपड़ा नामक मस्जिद भी बनवाई.
अब कुछ प्रश्न …….अब कुतुबुद्दीन ने क़ुतुब मीनार बनाई, लेकिन कब ? क्या कुतुबुद्दीन ने अपने राज्य काल 1206 से 1210 मीनार का निर्माण करा सकता था ?जबकि पहले के दो वर्ष उसने लाहौर में विरोधियों को समाप्त करनेमें बिताये और 1210 में भी मरने के पहले भी वह लाहौर में था ?
कुछ ने लिखा कि इसे 1193 AD में बनाना शुरूकिया यह भी कि कुतुबुद्दीन ने सिर्फ एक ही मंजिल बनायीं उसके ऊपर तीन मंजिलें उसके परवर्ती बादशाह इल्तुतमिश ने बनाई औरउसके ऊपर कि शेष मंजिलें बाद में बनी. यदि 1193 में कुतुबुद्दीन ने मीनार बनवाना शुरू किया होता तो उसका नाम बादशाह गौरी के नाम पर”गौरीमीनार”, या ऐसा ही कुछ होता न कि सेनापति कुतुबुद्दीन के नाम पर क़ुतुब मीनार.उसने लिखवाया कि उस परिसर में बने 27 मंदिरों को गिरा करउनके मलबे से मीनार बनवाई,
अब क्या किसी भवन के मलबे से कोई क़ुतुबमीनार जैसा उत्कृष्ट कलापूर्ण भवन बनाया जा सकता है जिसका हर पत्थर स्थानानुसार अलग अलगनाप का पूर्वनिर्धारित होता है ?
कुछ लोगो ने लिखा कि नमाज़ समय अजान देने केलिए यह मीनार बनी पर क्या उतनी ऊंचाई से किसी कि आवाज़ निचे तकआ भी सकती है ?
सच तो यह है की जिस स्थान में क़ुतुब परिसर है वह मेहरौली कहा जाता है,मेहरौली वराहमिहिर के नाम पर बसाया गया था जो सम्राट चन्द्रगुप्तविक्रमादित्य के नवरत्नों में एक , और खगोलशास्त्री थे उन्होंने इस परिसर में मीनार यानि स्तम्भ के चारों ओर नक्षत्रों के अध्ययन केलिए२७ कलापूर्ण परिपथों का निर्माण करवाया था.इन परिपथों के स्तंभों पर सूक्ष्मकारीगरी के साथ देवी देवताओं की प्रतिमाएं भी उकेरी गयींथीं जो नष्ट किये जाने केबाद भी कहींकहींदिख जाती हैं.
कुछ संस्कृत भाषा के अंश दीवारों और बीथिकाओं के स्तंभों पर उकेरे हुए मिल जायेंगे जो मिटाए गए होने के बावजूद पढ़े जा सकते हैं. मीनार , चारों ओर के निर्माण का ही भाग लगता है ,अलग से बनवाया हुआ नहीं लगता,इसमेमूल रूप में सात मंजिलें थीं सातवीं मंजिल पर “ब्रम्हा जी की हाथ में वेद लिए हुए”मूर्ति थी जो तोड़ डाली गयींथी ,छठी मंजिल पर विष्णु जी की मूर्ति के साथ कुछ निर्माण थे. वह भी हटा दिए गए होंगे
,अब केवल पाँच मंजिलें ही शेष है.इसकानाम विष्णु ध्वज / विष्णु स्तम्भया ध्रुव स्तम्भ प्रचलन में थे, इन सब का सब से बड़ा प्रमाण उसी परिसर में खड़ा लौह स्तम्भ हैजिस पर खुदा हुआ ब्राम्ही भाषा का लेख,जिसमे लिखा है की यह स्तम्भ जिसे गरुड़ ध्वज कहा गया है जो सम्राट चन्द्र गुप्त विक्रमादित्य (राज्य काल 380-414ईसवीं)द्वा रा स्थापित किया गया था और यह लौहस्तम्भ आज भी विज्ञानं के लिए आश्चर्य की बातहै कि आज तक इसमें जंग नहीं लगा.उसी महानसम्राट के दरबार में महान गणितज्ञआर्य भट्ट,खगोल शास्त्री एवं भवन निर्माण विशेषज्ञ वराह मिहिर ,वैद्य राजब्रम्हगुप्त आदि हुए.ऐसे राजा के राज्य काल को जिसमे लौह स्तम्भ स्थापित हुआ तो क्या जंगल मेंअकेला स्तम्भ बना होगा?
निश्चय ही आसपास अन्य निर्माण हुए होंगे, जिसमे एक भगवन विष्णु का मंदिरथा उसी मंदिर के पार्श्व में विशाल स्तम्भवि ष्णुध्वज जिसमे सत्ताईस झरो खेजो सत्ताई सन क्षत्रो व खगोलीय अध्ययन के लिए बनाएगएनिश्चय ही वराह मिहिर के निर्देशन मेंबनायेगए.इस प्रकार कुतब मीनार केनिर्माणका श्रेयसम्राट चन्द्र गुप्त विक्रमादित्य के राज्यकलमें खगोल शाष्त्री वराहमिहिरको जाता है.कुतुबुद्दीन ने सिर्फ इतना किया कि भगवानविष्णु के मंदिर को विध्वंसकिया उसे कुवातु लइस्लाम मस्जिद कह दिया ,विष्णु ध्वज(स्तम्भ )के हिन्दूसंकेतों को छुपाकर उन पर अरबी के शब्द लिखा दिए और क़ुतुब मीनार बन गया.

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हम्पी-बादामी यात्रा वृत्त-


डा श्याम गुप्त का ब्लोग…

shyam guptaLucknow, UP, Indiaएक चिकित्सक, शल्य-चिकित्सक जो हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान व उसकी संस्कृति-सभ्यता के पुनुरुत्थान व समुत्थान को समर्पित है व हिन्दी एवम हिन्दी साहित्य की शुद्धता, सरलता, जन-सम्प्रेषणीयता के साथ कविता को जन-जन के निकट व जन को कविता के निकट लाने को ध्येयबद्ध है क्योंकि मेरा मानना है कि साहित्य ही व्यक्ति, समाज, देश व राष्ट्र को तथा मानवता को सही राह दिखाने में समर्थ है, आज विश्व के समस्त द्वन्द्वों का मूल कारण मनुष्य का साहित्य से दूर होजाना ही है…. मेरी सात पुस्तकें प्रकाशित हैं… —I am a medicine man, a surgeon and now a literature-pro and an avid Hindi/English writer.I have published seven books on Hindi literature. काव्य-दूत,काव्य-मुक्तामृत,;काव्य-निर्झरिणी, सृष्टि ( Mahakavya on scientific,philosophic and vadik perceptions on creation of earth, life and univarse and god),प्रेम-महाकाव्य (Geeti vidha),on various forms of love as whole. शूर्पणखा काव्य उपन्यास, इन्द्रधनुष उपन्यास एवं अगीत साहित्य दर्पण (-अगीत विधा का छंद-विधान ) my blogs– 1.the world of my thoughts श्याम स्मृति… 2.drsbg.wordpress.com, 3.saahityshyam 4.विजानाति-विजानाति-विग्यान ५ हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान ६ अगीतायन ७ छिद्रान्वेषीमेरा पूरा प्रोफ़ाइल देखें

बुधवार, 15 जनवरी 2014

हम्पी-बादामी यात्रा वृत्त-८ …बादामी – अन्य स्थान व मंदिर …डा श्याम गुप्त….

….कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ…

          हम्पी-बादामी यात्रा वृत्त-८ …बादामी – अन्य स्थान व मंदिर …

अगस्त्य महातीर्थ एवं भूतनाथ मंदिर समूह….दोनों पर्वतों के मध्य विशाल झील है जहां अगस्त्य मुनि का आश्रम था इसके चारों और ही बादामी नगर बसा हुआ है | इस अगस्त्य सरोवर के किनारे ही भूतनाथ-शिव मंदिर है जो मंदिरों की एक लम्बी श्रृंखला है एवं ऊपर पर्वत शिखर तक चली गयी है, कहावत है कि मांडव्य मुनि की अभिलाषा के अनुआर यहाँ पर शिव भूतनाथ के नाम से रहते थे | इस क्षेत्र में शैल-पर उकेरे गए विभिन्न पौराणिक चित्र हैं, सरोवर के किनारे ही अन्य प्राचीन-शिवालय है एवं कुछ जैन मंदिर भी हैं|

भूतनाथ मंदिर-अगस्त्य सरोवर

       

भू.म… -ग्राम-देवतामंदिर –नागराज -पुरुष मूर्ति एवं नाग युगलों की मूर्तियाँ
शार्प फीचर्स वाली स्थानीय युवती –शायद नाग-वंशीय
गर्भ गृह में शिव-लिंग -भू.म.
शिला पर उकेरी गयी विविध पौराणिक कथा मूर्तियाँ
क्या ये फासिल्स हैं
अगस्त्य गुफा
अग.गुफा…अगस्त्य मुनि का शिला-शिल्प
अगस्त्य गुफा में –बुद्ध शिला-शिल्प -विकृत किया हुआ
मल्लिकार्जुन मंदिर -अगस्त्य ताल

 घाट पर ही प्रवेश द्वार के समीप एक छोटा सा सामान्य मंदिर है जिसमें नागराज की आदम-मुख प्रतिमा है एवं अन्य बहुत सी विविध क्रीडाओं में ..प्रणय क्रीडाओं में लिप्त नागों की मूर्तियाँ हैं| मंदिर में पूजा भी होती है | यह एक नाग-मंदिर है | पुजारी के अनुसार यह ग्राम-देवता का मंदिर है| इस क्षेत्र में प्रायः हर जगह..नागराज, सर्पों की मूर्तिया ..युगल मूर्तियाँ बहुतायत में पायी जाती हैं| शायद यह पौराणिक कालीन नाग जाति का क्षेत्र रहा होगा जो शिव क्षेत्र भी है| घाट के एकअगस्त्य गुफा में दीवार पर उकेरी गयी महर्षि अगस्त्य की शैल-मूर्ति है जिसके समीप ही बुद्ध की मूर्ति भी उत्कीर्णित की गयी है जिसे भंग किया गया है| भूतनाथ मंदिर परिसर में पूर्व की और शिवमंदिरसमूह मल्लिकार्जुन मंदिर है |

निर्विकार–मल्लिकार्जुन मंदिर पर …नंदी
वनाशंकरी देवी मंदिर
वन् शंकरी देवी

      वनशंकरी मंदिर ..बादामी से लगभग ५ किमी एक छोटा सा गाँव परशघड है,( संभवतः यहाँ प्राचीन समय में परशु अर्थात फरसे या कुल्हाड़ी प्रमुख हथियार होता होगा एवं  भगवान परशुराम का मूल क्षेत्र ) जहां एक सुन्दर सरोवर जिसे हरिहर तीर्थ कहा जाता है , के साथ वन-देवता का मंदिर है वनशंकरी जो स्थानीय देवी है| इसे शाकम्भरी देवी भी कहा जाता है | यहाँ दुर्गमासुर असुर के उपद्रव से देवी ने उसे युद्ध में परास्त करके प्रजा की रक्षा की थी| देवी को महालक्ष्मी, महाकाली व महा सरस्वती का रूप भी कहा जाता है जो वैदिक आदि-शक्ति का मूल त्रिदेवी स्वरुप है | आठ बाहों की काले ग्रेनाईट से बनी देवी मूर्ति पूर्ण आभूषण श्रृंगार एवं समस्त आयुधों सहित सहित सिंह पर विराजमान है जिसमें पाश, कपाल भी है |

आराध्य का अंगद पांव –बादामी से नहीं जाना है

          बादामी फोर्ट…भूतनाथ मंदिर के पूर्व में बादामी गुफाओं के पर्वत शीर्ष पर बादामी फोर्ट है इसी पर इस क्षेत्र का सबसे प्राचीन शिव मंदिर मालगित्ती मंदिर है |

बादामी -पत्तदकल मार्ग पर भेड़ों  का झुण्ड
बादामी संग्रहालय में लज्जा गौरी की मूर्ति

          पुरातात्विक संग्रहालय बादामी ….में खुदाई में प्राप्त विभिन्न प्राचीन शिल्प-मूर्तियाँ हैं जो स्थानीय मूर्तिकला के अद्वितीय समूह को प्रदर्शित करती है। | इस क्षेत्र के उर्वरता संप्रदाय के संतान देवता—लज्जा-गौरी का एक विशेष स्थान है जिसकी प्रतिमा संग्रहालय में प्रदर्शित है | यह शायद योनि-पूजा का एक मात्र उदाहरण है | इस संग्रहालय में चार गैलरियां हैंजिनमें भगवान शिव तथा भगवान विष्णु की मूर्तियाँ विभिन्न रूपों में दिखाई गई है। इसके अलावा भगवान गणपति तथा भगवद्गीता के दृश्य भी चित्रित किये गए है। शिदलापहाड़ी गुफा एक गैलरी है जो प्राचीन गुफा आवासों की याद दिलाती है। पत्थर की कलाकृतियों के अलावा यह गैलरी भी पूर्व ऐतिहासिक कला तथा शिलालेख प्रदर्शित करती है।

नागनाथ मंदिर….यह सुन्दर प्राचीन शिव मंदिर बादामी से पत्तदकल के मार्ग में स्थित है |इसमें शिव, नंदी आदि की मूर्तियों के साथ कई श्रंगारिक मूर्तियाँ भी हैं|

ना.म.-नंदी पर सवार शिव-पार्वती
प्रणयी मूर्ति
शेषनाग पर विष्णु
नाग.म.–आराध्य एवं नंदी
नागनाथ मंदिर
कमल पर ब्रह्मा

शिव योगी मंदिर...नागनाथ मंदिर से कुछ दूर पर ही पत्तदकल मार्ग पर है जो शिव-योगी महात्मा द्वारा स्थापित शिव मंदिर एवं प्राच्य शिक्षा  केंद्र है |

शिव योगी मंदिर एवं प्राच्य-शिक्षा केंद्र बादामी-पत्तदकल मार्ग पर

 

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शिव ने पार्वती को चूम लिया


शिव ने पार्वती को चूम लिया

दक्षिण में चोल राजवंश ने ९वीं से १४वीं शताब्दी तक राज्य किया। उन्होंने गंगई कोंडा चोलापुरम में वृहद ईश्वर मंदिर बनवाया। इस चिट्ठी में, इस मन्दिर की चर्चा है।
बृहद ईश्वर मन्दिर – चित्र विकिपीडिया से


दक्षिण में  चोल राजवंश ने ९वीं  से  १४वीं शताब्दी तक राज्य किया। ११वीं शताब्दी की शुरुवात में, राजेन्द्र चोल-I (१०१२-१०४४ ईसवी) ने वृहद ईश्वर मंदिर का निर्माण किया। इस मंदिर का निर्माण, पाला राजवंश पर जीत के स्मरणोत्सव के रूप में किया गया है। यह मंदिर शिव भगवान को अर्पित है। इसे, युनेस्को के द्वारा, विश्व धरोहर स्थान का दर्जा दिया गया है।

इस मंदिर के बाहर की तरफ, कई तरह की मूर्तियां हैं। इनमें से एक मूर्ति, गणेश जी की, नृत्य करते हुए है। इसकी कथा कुछ इस प्रकार की है

एक बार गणेश जी को, एक तरफ से पार्वती और एक तरफ से शिव, चूम रहे थे। गणेश जी नीचे बैठ गये। इस कारण, शिव और पार्वती ने एक दूसरे को चूम लिया। इस बात पर प्रसन्न होकर, गणेश जी नृत्य करने लगे। इस मूर्ति में यही दर्शाया गया है। यह  मूर्ति, देवताओं में, मानवीय गुणों को बताती है।

अर्ध-नारीश्वर

एक अन्य मूर्ति थी जिसमें कुछ अर्द्व नारीश्वर का रूप दिया गया है। इसमे आधा नर और आधा नारी का रूप दिखाया गया है।

लिंग केवल स्त्री और पुरूष में नहीं  बाँटा जा सकता है। कुछ लोग बीच के हैं। मेरे विचार से,  अर्ध-नारीश्वर की कल्पना,इस तरह के लोगों को समाज में मान्यता देने के लिए, की गयी है। इस तरह की चर्चा, मैंने अपनी चिट्ठी Trans-gendered – सेक्स परिवर्तित पुरुष या स्त्री में भी की है।

इस मंदिर में रोज़ ऊपर जाने की अनुमति नहीं होती थी। लेकिन उस दिन श्री अरबिन्दो आश्रम के स्कूल के बच्चे आये थे। उनके लिए खास अनुमति थी। जिसके कारण हम लोग भी, मंदिर के ऊपर जा सके।

वहां पर लोगों ने बताया कि मंदिर पूजा करने का ही स्थान नहीं होता था। वहां पर बहुत कुछ अन्य कार्य भी किया जाता था। ऊपर से दूर तक दिखाई पड़ता था। यह इसलिए था कि यदि बाहर से कोई आक्रमण हो तो वह दिखाई पड़ सके।

आश्रम विद्यालय के छात्रों को, उनके गुरुदेव समझाते हुऐ

भगवान शिव को नटराज भी कहा जाता है और शायद इसीलिए कहा जाता है कि वह नाट्य शास्त्र के गुरू है और इसकी कथा भी कुछ इस तरह बतायी गयी।

कुछ ऋषि  थे। लेकिन वे अच्छे नहीं थे। भगवान शिव और  विष्णु को लगा कि इन्हें समाप्त किया जाना चाहिए। भगवान विष्णु ने एक मोहनी का स्वरूप रखा और भगवान शिव ने एक शिकारी का रूप रख कर वहां पहुंचे। मोहिनी पर, ऋषि लोग मोहित हो गये और उनकी पत्नियां शिकारी पर।

बाद में, ऋषियों को पता चला यह लोग धोखा दे रहे हैं। तब वे लोग, इन दोनों को मारने के लिए, एक यज्ञ कर उसमें अपनी शक्ति डाली। इस पर उसमें से एक बाघ निकला। कहा जाता है कि जब वह भगवान शिव की तरफ बढ़ा तब उन्होंने उसकी गर्दन पकड़ कर मरोड़ दी और उसकी खाल निकाल कर पहन ली।

नटराज की मूर्ति

जब उनका पहला प्रयत्न विफल हो गया तब उसके बाद उन्होंने दूसरे प्रयत्न में, अपनी शक्ति से, सांप निकाले। शिव जी उन्हें पकड़कर अपने गले में डाल लिया।

तीसरी बार,  यज्ञ से एक छोटा सा बौना दानव निकला। वह अंधा था। जब वह शिव जी के पास मारने के लिए आया तो शिवजी ने उसको पैर रख कर दबा दिया और प्रसन्न कर और नृत्य करने लगें। उस समय भारत मुनि उपस्थित थे। उन्होंने उसका वर्णन किया और तभी नृत्य शास्त्र का जन्म हुआ।

नटराज की नृत्य करती हुई यह प्रतिमा अक्सर दिखाई पड़ती है। उसके एक हाथ में डमरू तथा दूसरे हाथ में आग है और उसके पैर के नीचे जो बौना दिखाई पड़ता है वह वही अंधा बौना दानव है। यह हर मूर्ति में नहीं है पर अधिकतर मूर्तियों में दिखायी पड़ता है।

वास्तव में जो यह नटराज की मूर्ति नृत्य करते हुए है। यह एक प्रकृति की सृजन एवं विनाश को बताती है कि किस तरह से इस सृष्टि की रचना और उसका अंत। इसके बारे में कार्ल सेगन ने अपनी टीवी श्रृंखला में बताया है। इसकी चर्चा मैंने, डार्विन की श्रृंखला की इस कड़ी में की है।

हम लोग जब गंगई कोंडा चोलापुरम गये थे तो वहां पर कोई भी ढ़ंग का शौचालय नहीं था। वहां पर बहुत सारे विदेशी पर्यटक और अपने देश के पर्यटक जाते हैं। यदि साफ सुथरा शौचालय होगा तब पर्यटन को अधिक बढ़ावा मिलेगा।

मेरे विचार से, साफ सुथरा शौचालय का निर्माण बहुत आसानी से हो सकता है। वहां पर पंचायतें हैं। उन्हें पंचायत निधि भी मिलती है। इस निधि से इसका आसानी से निर्माण किया जा सकता है। हमने वहां के प्रधान को यह सलाह दी। उसने हमसे वायदा किया गया कि वह ऐसा ही करेगा। आप जब कभी जायें तो हो सकता है कि आपको वहां साफ सुथरा शौचालय भी मिले। इस तरह की, सलाह हमने कुफरी में भी दी थी।

अगली बार कुछ चर्चा श्री अरबिन्दो की समाधि एवं मां की।

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108 proofs that prove TAJMAHAL is a SHIVA Temple:


108 proofs that prove TAJMAHAL is a SHIVA Temple:


Taj Mahal was Hindu Temple “Tejo Mahalay” the temple of shiva which was destroyed by mugals(Muslims) and changed a bit and called it their structure. Most evident of such structures is Taj Mahal–a structure supposedly devoted to carnal love by the “great” moghul king Shah Jahan to his favorite wife Mumtaz Mahal. Please keep in my mind that this is the same Shah Jahan who had a harem of 5,000 women and the same Shah Jahan who had a incestuous relationship with his daughter justifing it by saying, ‘a gardner has every right to taste the fruit he has planted’! Is such a person even capable of imagning such a wondrous structure as the Taj Mahal let alone be the architect of it?
The answer is no. It cannot be. And it isn’t as has been proven. The Taj Mahal is as much a Islamic structure as is mathematics a muslim discovery! The famous historian Shri P.N. Oak has proven that Taj Mahal is actuallyTejo Mahalaya– a shiv temple-palace. His work was published in 1965 in the book, Taj Mahal – The True Story. However, we have not heard much about it because it was banned by the corrupt and power crazed Congress government of Bharat who did not want to alienate their precious vote bank–the muslims.

108 proofs that prove TAJMAHAL is a SHIVA Temple:

After reading Shri Oak’s work which provides more than adequate evidence to prove that Taj Mahal is indeed Tejo Mahalaya, one has to wonder if the government of Bharat has been full of traitors for the past 50 years! Because to ban such a book which states only the truth is surely a crime against our great nation of Bharat.
The most valuable evidence of all that Tejo Mahalaya is not an Islamic building is in the Badshahnama which contains the history of the first twenty years of Shah Jahan’s reign. The writer Abdul Hamid has stated that Taj Mahal is a temple-palace taken from Jaipur’s Maharaja Jaisigh and the building was known as Raja Mansingh’s palace. This by itself is enough proof to state that Tejo Mahalaya is a Hindu structure captured, plundered and converted to a mausoleum by Shah Jahan and his henchmen. But I have taken the liberty to provide you with 109 other proofs and logical points which tell us that the structure known as the Taj Mahal is actually Tejo Mahalaya.
There is a similar story behind Every Islamic structure in Bharat. They are all converted Hindu structures. As I mentioned above, hundereds of thousands of temples in Bharat have been destroyed by the barbaric muslim invaders and I shall dedicate several articles to these destroyed temples. However, the scope of this article is to prove to you beyond the shadow of any doubt that Taj Mahal is Tejo Mahalaya and should be recognized as such! Not as a monument to the dead Mumtaz Mahal–an insignificant sex object in the incestous Shah Jahan’s harem of 5,000.
Another very important proof that Taj Mahal is a Hindu structure is shown by figure 1 below. It depicts Aurangzeb’s letter to Shah Jahan in Persian in which he has unintentionally revealed the true identity of the Taj Mahal as a Hindu Temple-Palace. Refer to proofs below.

Proofs follow below:

1.The term Tajmahal itself never occurs in any mogul court paper or chronicle even in Aurangzeb’s time. The attempt to explain it away as Taj-i-mahal is therefore, ridiculous.

2.The ending “Mahal” is never muslim because in none of the muslim countries around the world from Afghanistan to Algeria is there a building known as “Mahal”.

3.The unusual explanation of the term Tajmahal derives from Mumtaz Mahal, who is buried in it, is illogical in at least two respects viz., firstly her name was never Mumtaj Mahal but Mumtaz-ul-Zamani and secondly one cannot omit the first three letters “Mum” from a woman’s name to derive the remainder as the name of the building.

4.Since the lady’s name was Mumtaz (ending with ‘Z’) the name of the building derived from her should have been Taz Mahal, if at all, and not Taj (spelled with a ‘J’).

5.Several European visitors of Shahjahan’s time allude to
the building as Taj-e-Mahal is almost the correct tradition, age old Sanskrit name Tej-o-Mahalaya, signifying a Shiva temple. Contrarily Shahjahan and Aurangzeb scrupulously avoid using the Sanskrit term and call it just a holy grave.

6.The tomb should be understood to signify Not A Building but only the grave or centotaph inside it. This would help people to realize that all dead muslim courtiers and royalty including Humayun, Akbar, Mumtaz, Etmad-ud-Daula and Safdarjang have been buried in capture Hindu mansions and temples.

7.Moreover, if the Taj is believed to be a burial place, how can the term Mahal, i.e., mansion apply to it?

8.Since the term Taj Mahal does not occur in mogul courts it is absurd to search for any mogul explanation for it. Both its components namely, ‘Taj’ and’ Mahal’ are of Sanskrit origin.

Temple Tradition

9.The term Taj Mahal is a corrupt form of the sanskrit term TejoMahalay signifying a Shiva Temple. Agreshwar Mahadev i.e., The Lord of Agra was consecrated in it.

10.The tradition of removing the shoes before climbing the marble platform originates from pre Shahjahan times when the Taj was a Shiva Temple. Had the Taj originated as a tomb, shoes need not have to be removed because shoes are a necessity in a cemetery.

11.Visitors may notice that the base slab of the centotaph is the marble basement in plain white while its superstructure and the other three centotaphs on the two floors are covered with inlaid creeper designs. This indicates that the marble pedestal of the Shiva idol is still in place and Mumtaz’s centotaphs are fake.

12.The pitchers carved inside the upper border of the marble lattice plus those mounted on it number 108-a number sacred in Hindu Temple tradition.

13.There are persons who are connected with the repair and the maintainance of the Taj who have seen the ancient sacred Shiva Linga and other idols sealed in the thick walls and in chambers in the secret, sealed red stone stories below the marble basement. The Archaeological Survey of India is keeping discretely, politely and diplomatically silent about it to the point of dereliction of its own duty to probe into hidden historical evidence.

14.In India there are 12 Jyotirlingas i.e., the outstanding Shiva Temples. The Tejomahalaya alias The Tajmahal appears to be one of them known as Nagnatheshwar since its parapet is girdled with Naga, i.e., Cobra figures. Ever since Shahjahan’s capture of it the sacred temple has lost its Hindudom.

15.The famous Hindu treatise on architecture titled Vishwakarma Vastushastra mentions the Tej-Linga amongst the Shivalingas i.e., the stone emblems of Lord Shiva, the Hindu deity. Such a Tej Linga was consecrated in the Taj Mahal, hence the term Taj Mahal alias Tejo Mahalaya.

16.Agra city, in which the Taj Mahal is located, is an ancient centre of Shiva worship. Its orthodox residents have through ages continued the tradition of worshipping at five Shiva shrines before taking the last meal every night especially during the month of Shravan. During the last few centuries the residents of Agra had to be content with worshipping at only four prominent Shiva temples viz., Balkeshwar, Prithvinath, Manakameshwarand Rajarajeshwar. They had lost track of the fifth Shiva deity which their forefathers worshipped. Apparently the fifth was Agreshwar Mahadev Nagnatheshwar i.e., The Lord Great God of Agra, The Deity of the King of Cobras, consecrated in the Tejomahalay alias Tajmahal.

17.The people who dominate the Agra region are Jats. Their name of Shiva is Tejaji. The Jat special issue of The Illustrated Weekly of India (June 28,1971) mentions that the Jats have the Teja Mandirs i.e., Teja Temples. This is because Teja-Linga is among the several names of the Shiva Lingas. From this it is apparent that the Taj-Mahal is Tejo-Mahalaya, The Great Abode of Tej.
Documentary Evidence

18.Shahjahan’s own court chronicle, the Badshahnama, admits (page 403, vol 1) that a grand mansion of unique splendor, capped with a dome (Imaarat-a-Alishan wa Gumbaze) was taken from the Jaipur Maharaja Jaisigh for Mumtaz’s burial, and the building was known as Raja Mansingh’s palace.

19. The plaque put the archealogy department outside the Tajmahal describes the edifice as a mausoleum built by Shahjahan for his wife Mumtaz Mahal, over 22 years from 1631 to 1653 That plaque is a specimen of historical bungling. Firstly, the plaque sites no authority for its claim. Secondly the lady’s name was Mumtaz-ulZamani and not Mumtazmahal. Thirdly, the period of 22 years is taken from some mumbo jumbo noting by an unreliable French visitor Tavernier, to the exclusion of all muslim versions, which is an absurdity.

20. Prince Aurangzeb’s letter (Refer to Figure 1 above) to his father, emperor Shahjahan, is recorded in atleast three chronicles titled Aadaab-e-Alamgiri, Yadgarnama, and the Muruqqa-i-Akbarabadi (edited by Said Ahmed, Agra, 1931, page 43, footnote 2). In that letter Aurangzeb records in 1652 A.D itself that the several buildings in the fancied burial place of Mumtaz were seven storeyed and were so old that they were all leaking, while the dome had developed a crack on the northern side. Aurangzeb, therefore, ordered immediate repairs to the buildings at his own expense while recommending to the emperor that more elaborate repairs be carried out later. This is the proof that during Shahjahan’s reign itself that the Taj complex was so old as to need immediate repairs.

21. The ex-Maharaja of Jaipur retains in his secret personal KapadDwara collection two orders from Shahjahan dated Dec 18, 1633 (bearing modern nos. R.176 and 177) requestioning the Taj building complex. That was so blatant a usurpation that the then ruler of Jaipur was ashamed to make the document public.

22. The Rajasthan State archives at Bikaner preserve three other firmans addressed by Shahjahan to the Jaipur’s ruler Jaisingh ordering the latter to supply marble (for Mumtaz’s grave and koranic grafts) from his Makranna quarris, and stone cutters. Jaisingh was apparently so enraged at the blatant seizure of the Tajmahal that he refused to oblige Shahjahan by providing marble for grafting koranic engravings and fake centotaphs for further desecration of the Tajmahal. Jaisingh looked at Shahjahan’s demand for marble and stone cutters, as an insult added to injury. Therefore, he refused to send any marble and instead detained the stone cutters in his protective custody.

23. The three firmans demanding marble were sent to Jaisingh within about two years of Mumtaz’s death. Had Shahjahan really built the Tajmahal over a period of 22 years, the marble would have needed only after 15 or 20 years not immediately after Mumtaz’s death.

24. Moreover, the three mention neither the Tajmahal, nor Mumtaz, nor the burial. The cost and the quantity of the stone also are not mentioned. This proves that an insignificant quantity of marble was needed just for some supercial tinkering and tampering with the Tajmahal. Even otherwise Shahjahan could never hope to build a fabulous Tajmahal by abject dependence for marble on a non cooperative Jaisingh.

European Visitor’s Accounts

25. Tavernier, a French jeweller has recorded in his travel memoirs that Shahjahan purposely buried Mumtaz near the Taz-i-Makan (i.e.,`The Taj building’) where foriegners used to come as they do even today so that the world may admire. He also adds that the cost of the scaffolding was more than that of the entire work. The work that Shahjahan commissioned in the Tejomahalaya Shiva temple was plundering at the costly fixtures inside it, uprooting the Shiva idols, planting the centotaphs in their place on two stories, inscribing the koran along the arches and walling up six of the seven stories of the Taj. It was this plunder, desecrating and plunderring of the rooms which took 22 years.

26. Peter Mundy, an English visitor to Agra recorded in 1632 (within only a year of Mumtaz’s death) that `the places of note in and around Agra, included Taj-e-Mahal’s tomb, gardens and bazaars’. He, therefore, confirms that that the Tajmahal had been a noteworthy building even before Shahjahan.

27. De Laet, a Dutch official has listed Mansingh’s palace about a mile from Agra fort, as an outstanding building of pre shahjahan’s time. Shahjahan’s court chronicle, the Badshahnama records, Mumtaz’s burial in the same Mansingh’s palace.

28. Bernier, a contemporary French visitor has noted that non muslim’s were barred entry into the basement (at the time when Shahjahan requisitioned Mansingh’s palace) which contained a dazzling light. Obviously, he reffered to the silver doors, gold railing, the gem studded lattice and strings of pearl hanging over Shiva’s idol. Shahjahan comandeered the building to grab all the wealth, making Mumtaz’s death a convineant pretext.

29. Johan Albert Mandelslo, who describes life in agra in 1638 (only 7 years after mumtaz’s death) in detail (in his Voyages and Travels to West-Indies, published by John Starkey and John Basset, London), makes no mention of the Tajmahal being under constuction though it is commonly erringly asserted or assumed that the Taj was being built from 1631 to 1653.

Sanskrit Inscription
30. A Sanskrit inscription too supports the conclusion that the Taj originated as a Shiva temple. Wrongly termed as the Bateshwar inscription (currently preserved on the top floor of the Lucknow museum), it refers to the raising of a “crystal white Shiva temple so alluring that Lord Shiva once enshrined in it decided never to return to Mount Kailash his usual abode”. That inscription dated 1155 A.D. was removed from the Tajmahal garden at Shahjahan’s orders. Historicians and Archeaologists have blundered in terming the insription the Bateshwar inscription when the record doesn’t say that it was found by Bateshwar. It ought, in fact, to be called The Tejomahalaya inscription because it was originally installed in the Taj garden before it was uprooted and cast away at Shahjahan’s command.
Missing Elephants

31. Far from the building of the Taj, Shahjahan disfigured it with black koranic lettering and heavily robbed it of its Sanskrit inscription, several idols and two huge stone elephants extending their trunks in a welcome arch over the gateway where visitors these days buy entry tickets. An Englishman, Thomas Twinning, records (pg.191 of his book “Travels in India A Hundred Years ago”) that in November 1794 “I arrived at the high walls which enclose the Taj-e-Mahal and its circumjacent buildings. I here got out of the palanquine and…..mounted a short flight of steps leading to a beautiful portal which formed the centre of this side of the Court Of Elephants as the great area was called.”
Koranic Patches

32. The Taj Mahal is scrawled over with 14 chapters of the Koran but nowhere is there even the slightest or the remotest allusion in that Islamic overwriting to Shahjahan’s authorship of the Taj. Had Shahjahan been the builder he would have said so in so many words before beginning to quote Koran.

33. That Shahjahan, far from building the marble Taj, only disfigured it with black lettering is mentioned by the inscriber Amanat Khan Shirazi himself in an inscription on the building. A close scrutiny of the Koranic lettering reveals that they are grafts patched up with bits of variegated stone on an ancient Shiva temple.
Carbon 14 Test

34. A wooden piece from the riverside doorway of the Taj subjected to the carbon 14 test by an American Laboratory and initiated by Professors at Pratt School of Architecture, New York, has revealed that the door to be 300 years older than Shahjahan,since the doors of the Taj, broken open by Muslim invaders repeatedly from the 11th century onwards, had to b replaced from time to time. The Taj edifice is much more older. It belongs to 1155 A.D, i.e., almost 500 years anterior to Shahjahan.
Architectural Evidence

35. Well known Western authorities on architechture like E.B.Havell, Mrs.Kenoyer and Sir W.W.Hunterhave gone on record to say that the TajMahal is built in the Hindu temple style. Havell points out the ground plan of the ancient Hindu Chandi Seva Temple in Java is identical with that of the Taj.

36. A central dome with cupolas at its four corners is a universal feature of Hindu temples.

37. The four marble pillars at the plinth corners are of the Hindu style. They are used as lamp towers during night and watch towers during the day. Such towers serve to demarcate the holy precincts. Hindu wedding altars and the altar set up for God Satyanarayan worship have pillars raised at the four corners.

38. The octagonal shape of the Tajmahal has a special Hindu significance because Hindus alone have special names for the eight directions, and celestial guards assigned to them. The pinnacle points to the heaven while the foundation signifies to the nether world. Hindu forts, cities, palaces and temples genrally have an octagonal layout or some octagonal features so that together with the pinnacle and the foundation they cover all the ten directions in which the king or God holds sway, according to Hindu belief.

39. The Tajmahal has a trident pinncle over the dome. A full scale of the trident pinnacle is inlaid in the red stone courtyard to the east of the Taj. The central shaft of the trident depicts a Kalash (sacred pot) holding two bent mango leaves and a coconut. This is a sacred Hindu motif. Identical pinnacles have been seen over Hindu and Buddhist temples in the Himalayan region. Tridents are also depicted against a red lotus background at the apex of the stately marble arched entrances on all four sides of the Taj.

40. The two buildings which face the marble Taj from the east and west are identical in design, size and shape and yet the eastern building is explained away by Islamic tradition, as a community hall while the western building is claimed to be a mosque. How could buildings meant for radically different purposes be identical? This proves that the western building was put to use as a mosque after seizure of the Taj property by Shahjahan. Curiously enough the building being explained away as a mosque has no minaret. They form a pair af reception pavilions of the Tejomahalaya temple palace.

41. A few yards away from the same flank is the Nakkar Khana alias DrumHouse which is a intolerable incongruity for Islam. The proximity of the Drum House indicates that the western annex was not originally a mosque. Contrarily a drum house is a neccesity in a Hindu temple or palace because Hindu chores,in the morning and evening, begin to the sweet strains of music.

42. The embossed patterns on the marble exterior of the centotaph chamber wall are foilage of the conch shell design and the Hindu letter OM. The octagonally laid marble lattices inside the centotaph chamber depict pink lotuses on their top railing. The Lotus, the conch and the OM are the sacred motifs associated with the Hindu deities and temples.

43. The spot occupied by Mumtaz’s centotaph was formerly occupied by the Hindu Teja Linga a lithic representation of Lord Shiva. Around it are five perambulatory passages. Perambulation could be done around the marble lattice or through the spacious marble chambers surrounding the centotaph chamber, and in the open over the marble platform. It is also customary for the Hindus to have apertures along the perambulatory passage, overlooking the deity. Such apertures exist in the perambulatories in the Tajmahal.

44. The sanctom sanctorum in the Taj has silver doors and gold railings as Hindu temples have. It also had nets of pearl and gems stuffed in the marble lattices. It was the lure of this wealth which made Shahjahan commandeer the Taj from a helpless vassal Jaisingh, the then ruler of Jaipur.

45. Peter Mundy, a Englishman records (in 1632, within a year of Mumtaz’s death) having seen a gem studded gold railing around her tomb. Had the Taj been under construction for 22 years, a costly gold railing would not have been noticed by Peter mundy within a year of Mumtaz’s death. Such costl fixtures are installed in a building only after it is ready for use. This indicates that Mumtaz’s centotaph was grafted in place of the Shivalinga in the centre of the gold railings. Subsequently the gold railings, silver doors, nets of pearls, gem fillings etc. were all carried away to Shahjahan’s treasury. The seizure of the Taj thus constituted an act of highhanded Moghul robery causing a big row between Shahjahan and Jaisingh.

46. In the marble flooring around Mumtaz’s centotaph may be seen tiny mosaic patches. Those patches indicate the spots where the support for the gold railings were embedded in the floor. They indicate a rectangular fencing.

47. Above Mumtaz’s centotaph hangs a chain by which now hangs a lamp. Before capture by Shahjahan the chain used to hold a water pitcher from which water used to drip on the Shivalinga.

48. It is this earlier Hindu tradition in the Tajmahal which gave the Islamic myth of Shahjahan’s love tear dropping on Mumtaz’s tomb on the full moon day of the winter eve.
Treasury Well

49. Between the so-called mosque and the drum house is a multistoried octagonal well with a flight of stairs reaching down to the water level. This is a traditional treasury well in Hindu temple palaces. Treasure chests used to be kept in the lower apartments while treasury personnel had their offices in the upper chambers.

50. Had Shahjahan really built the Taj Mahal as a wonder mausoleum, history would have recorded a specific date on which she was ceremoniously buried in the Taj Mahal. No such date is ever mentioned. This important missing detail decisively exposes the falsity of the Tajmahal legend.

51. Even the year of Mumtaz’s death is unknown. It is variously speculated to be 1629, 1630, 1631 or 1632. Had she deserved a fabulous burial, as is claimed, the date of her death had not been a matter of much speculation. In an harem teeming with 5000 women it was difficult to keep track of dates of death. Apparently the date of Mumtaz’s death was so insignificant an event, as not to merit any special notice. Who would then build a Taj for her burial?

Baseless Love Stories

52. Stories of Shahjahan’s exclusive infatuation for Mumtaz’s are concoctions. They have no basis in history nor has any book ever written on their fancied love affairs. Those stories have been invented as an afterthought to make Shahjahan’s authorship of the Taj look plausible.

Cost

53. The cost of the Taj is nowhere recorded in Shahjahan’s court papers because Shahjahan never built the Tajmahal. That is why wild estimates of the cost by gullible writers have ranged from 4 million to 91.7 million rupees.

Period Of Construction

54. Likewise the period of construction has been guessed to be anywhere between 10 years and 22 years. There would have not been any scope for guesswork had the building construction been on record in the court papers.
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दोस्तों छोटी कक्षाओं में हम यही लिख कर पास हुए की ताज महल शाहजहाँ ने अपनी रानी की याद में बनवाया । यदि उस समय परीक्षाओं में हम ये गप्पे नही लिखते तो नंबर कट जाते ।

अब तो हम पास हो चुके है इसलिए क्यों न सत्य का आलिंगन कर लिया जाये । किन्तु हमारे जो छोटे भाई, बहिन छोटी कक्षाओं में है वो परीक्षाओं में अभी भी गप्पे ही मारे अन्यथा नंबर काट दिए जायेंगे ।”ताज महल शाहजहाँ ने बनवाया था”
इस कथन को प्रथम चुनौती देने वाला व्यक्ति था : पुरुषोत्तम नागेश ओक
ओक जी आजाद हिन्द फोज़ में सुभाष चन्द्र बोस के साथ  स्वतंत्रता सेनानी के रूप में भी कार्य कर चुके है |
ओक जी का नाम उन महान इंसानों में लिया जाता है जो सदैव भारतीय संस्कृती को बचाने के प्रयासों में संलग्न रहे ।
एक तरफ चाटुकार इतिहासकार अपने आकाओं को प्रसन्न रखने हेतु उनके कहे अनुसार इतिहास के पन्ने भर रहे थे तो दूसरी और ओक जी उन पन्नो को संशोधित करने में तुले हुए थे |
श्री पी.एन. ओक अपनी पुस्तक “Tajmahal is a Hindu Temple Palace” में 100 से भी अधिक प्रमाण और तर्को का हवाला देकर दावा करते हैं कि ताजमहल वास्तव में शिव मंदिर है जिसका असली नाम तेजोमहालयहै तथा शाहजहाँ के समय यह राजा मानसिंह के आधिपत्य में था |
श्री ओक के इन तथ्‍यो पर सरकार और प्रमुख विश्वविद्यालय आदि मौन रहे । जबकि इस विषय पर शोध किया जाना चाहिये और सही इतिहास से हमे अवगत करना चाहिये। किन्‍तु दुःख की बात तो यह है कि आज तक उनकी किसी भी प्रकार से अधिकारिक जाँच नहीं हुई।
खैर सरकार ना करे ना सही ।
इसके पश्चात अनेकों सत्पुरुषों ने खोज आरंभ की और महत्वपूर्ण तथ्य पाए  |
इसके पश्चात एक अंग्रेज जिसका नाम Stephen Knapp है।
सनातन धर्म में अपनी रूचि के कारण Stephen Knapp सनातन धर्म पर कई पुस्तकें लिख चुके है  |
इनकी अनेकों पुस्तकों में से  Proof of Vedic Culture’s Global Existence  अत्यधिक लोकप्रिय रही |जिसमे इन्होने अपने  ताबड़तोड़ प्रयासों से सप्रमाण यह सिद्ध किया है की वैदिक/हिन्दू धर्म आदिकाल (SINCE THE TIME OF CREATION ) से है तथापि हजारों वर्षों पूर्व सम्पूर्ण पृथ्वी पर यही एक धर्म विद्यमान था |
इस पुस्तक के १४वें पाठ में इन्होने ताजमहल, कुतुबमीनार, दिल्ली, अहमदाबाद तथा बीजापुर आदि में स्थित अनेकों इमारतों पर संदेह व्यक्त किया है जैसा की ओक जी अपनी पुस्तकों में पहले ही कर चुके थे ।  यहाँ देखें :
http://www.stephen-knapp.com/proof_of_vedic_culture’s_global_existence.htmचूँकि सत्य का प्रकाश इनकी आत्मा में प्रवाहित हो चूका था फिर इन्होने ताजमहल पर भी शोध किया |
कहीं से ताजमहल के सत्य को बयां करती कई तस्वीरे इनके हाथ लग गई जिस पर Copyright Archaeology Survey of India की मुहर लगी थी । जो फ़िलहाल ठन्डे बस्ते में पड़ी थी ।

और इसके पश्चात एक लेख के साथ ये समस्त तस्वीरे इन्होने ने नेट पर चढ़ा दी । इन्होने अपने लेख में
लिखा है :
This collection has since traveled all across the internet after I have posted them here.

तथा वे आगे साफ साफ लिखते है की यदि ताजमहल जैसी विश्व प्रसिद्ध महान रचना के साथ भी ऐसा विवाद जुडा है तो भारत के कई अन्य छोटे मोटे स्थानों  के साथ क्या क्या हुआ होगा ?

“The point to consider is how much more of India’s history has been distorted if the background of such a grand building is so inaccurate.”

http://hinduveer.shambhulokseva.org/108-proofs-that-prove-tajmahal-is-a-shiva-temple/