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वर्ष 1923 हिन्दू-मुस्लमान का दंगा हुआ था जिसमे काफी हिन्दू मारे गये थे


वर्ष 1923 हिन्दू-मुस्लमान का दंगा हुआ था जिसमे काफी हिन्दू मारे गये थे…. कांग्रेस के मुस्लिम तुस्टीकरण के कारण ! केवल पूरी कॉंग्रेस में से एक व्यक्ति ने मुस्लिम तुष्टिकरण की आलोचना करी थी, नाम था विधर्व के बड़े नेता डॉ.‪#‎केशव_बलिराम_हेडगे‬­वार। मुस्लिम आलोचना करने के कारण कांग्रेस ने डॉ.हेडगेवार को अपमानित करके कांग्रेस से निकाल दिया था।
भरी सभा में कांग्रेस के घमंडी नेताओ को चुनोती देते हुए डा. हेगडेवार ने कहा था- “में हिंदुस्तान में हिन्दुओ का इतना बड़ा संघठन खड़ा करूंगा कि किसी पार्टी में हिम्मत नहीं होगी दुबारा हिन्दुओ को अपमानित या तिरस्कित कर सके…… आज वो संघठन आर.एस.एस. हे ”
डॉ.हेडगेवार ने 27 सितम्बर 1925 नागपुर में केवल 10 युवा लडको के साथ संगठन सुरु हुआ किया था। घमंडी कांग्रेस्सियो ने उनका मजाक उड़ाया था। आज RSS और उसकी साथी संघठनो में कम से कम 13 करोड़ लोग जुड़ चुके हे।
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दुनिया का सबसे बड़ा संघठन आर.एस.एस. है !
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दुनिया की सबसे बड़ी फोज हैं !
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देश हित के लिए आप भी जुड़े….!
केवल खुखार or कट्टर हिन्दू ही Ye Group Join करें…….
https://m.facebook.com/groups/344461295727928?refid=18&__tn__=C

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एक गांव में एक


एक गांव में एक नकली जादूगर आया और जोर जोर से डमरू बजाने लगा और अपने बाते कहने लगा सुनो सुनो सुनो मैं मिटटी के पैसे से सोने के पैसे बना देता हूँ, गांव के बहुत से लोग इक्क्ठे हो गए, जादूगर अपने हाथ की सफाई से अपने दूर रक्खे मिटटी के पैसे को सोने के पैसे में बदल देता था, लोग उसकी इस कला से बहुत प्रभावित हुए /लोगो ने उससे पूछा की क्या आप हमारे पैसे को सोने के पैसे में बदल सकते हो, तो उसने कहा हाँ लेकिन वह तत्काल नहीं हो सकता एक रात का समय चाहिए, लोग उसके बातो पर भरोसा करके अपने घर का सारा खजाना उस नकली जादूगर को दे दिया,इस भरोसा में की मेरा पैसा सोने का हो जायेगा और हमारा विकास हो जायेगा , रात में जब सभी लोग सो गए तो नकली जादूगर चुपके से सबका पैसा लेकर चम्पत हो गया, और लोग जब सुबह उठे तो बर्दाद हो चुके थे और उनका सुनहरा सपना टूट चूका था / अब आप बुद्धिजीवियों को ये बताने की जरुरत नहीं की वो जादूगर कौन था / और सपना किसका टुटा। …… हद तो ये है.की लुटे हुए भक्त अभी भी सच्चाई से मुंह छुपा रहे हैं.यां फिर वे चाहते हैं की उनकी तरह सारा देश लूट-पूट जाए…

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एक मकड़ी थी


एक मकड़ी थी. उसने आराम से रहने के लिए एक शानदार जाला बनाने का विचार किया और सोचा की इस जाले मे खूब कीड़ें, मक्खियाँ फसेंगी और मै उसे आहार बनाउंगी और मजे से रहूंगी . उसने कमरे के एक कोने को पसंद किया और वहाँ जाला बुनना शुरू किया. कुछ देर बाद आधा जाला बुन कर तैयार हो गया. यह देखकर वह मकड़ी काफी खुश हुई कि तभी अचानक उसकी नजर एक बिल्ली पर पड़ी जो उसे देखकर हँस रही थी.
मकड़ी को गुस्सा आ गया और वह बिल्ली से बोली , ” हँस क्यो रही हो?”
”हँसू नही तो क्या करू.” , बिल्ली ने जवाब दिया , ” यहाँ मक्खियाँ नही है ये जगह तो बिलकुल साफ सुथरी है, यहाँ कौन आयेगा तेरे जाले मे.”
ये बात मकड़ी के गले उतर गई. उसने अच्छी सलाह के लिये बिल्ली को धन्यवाद दिया और जाला अधूरा छोड़कर दूसरी जगह तलाश करने लगी. उसने ईधर ऊधर देखा. उसे एक खिड़की नजर आयी और फिर उसमे जाला बुनना शुरू किया कुछ देर तक वह जाला बुनती रही , तभी एक चिड़िया आयी और मकड़ी का मजाक उड़ाते हुए बोली , ” अरे मकड़ी , तू भी कितनी बेवकूफ है.”
“क्यो ?”, मकड़ी ने पूछा.
चिड़िया उसे समझाने लगी , ” अरे यहां तो खिड़की से तेज हवा आती है. यहा तो तू अपने जाले के साथ ही उड़ जायेगी.”
मकड़ी को चिड़िया की बात ठीक लगीँ और वह वहाँ भी जाला अधूरा बना छोड़कर सोचने लगी अब कहाँ जाला बनायाँ जाये. समय काफी बीत चूका था और अब उसे भूख भी लगने लगी थी .अब उसे एक आलमारी का खुला दरवाजा दिखा और उसने उसी मे अपना जाला बुनना शुरू किया. कुछ जाला बुना ही था तभी उसे एक काक्रोच नजर आया जो जाले को अचरज भरे नजरो से देख रहा था.
मकड़ी ने पूछा – ‘इस तरह क्यो देख रहे हो?’
काक्रोच बोला-,” अरे यहाँ कहाँ जाला बुनने चली आयी ये तो बेकार की आलमारी है. अभी ये यहाँ पड़ी है कुछ दिनों बाद इसे बेच दिया जायेगा और तुम्हारी सारी मेहनत बेकार चली जायेगी. यह सुन कर मकड़ी ने वहां से हट जाना ही बेहतर समझा .
बार-बार प्रयास करने से वह काफी थक चुकी थी और उसके अंदर जाला बुनने की ताकत ही नही बची थी. भूख की वजह से वह परेशान थी. उसे पछतावा हो रहा था कि अगर पहले ही जाला बुन लेती तो अच्छा रहता. पर अब वह कुछ नहीं कर सकती थी उसी हालत मे पड़ी रही.
जब मकड़ी को लगा कि अब कुछ नहीं हो सकता है तो उसने पास से गुजर रही चींटी से मदद करने का आग्रह किया .
चींटी बोली, ” मैं बहुत देर से तुम्हे देख रही थी , तुम बार- बार अपना काम शुरू करती और दूसरों के कहने पर उसे अधूरा छोड़ देती . और जो लोग ऐसा करते हैं , उनकी यही हालत होती है.” और ऐसा कहते हुए वह अपने रास्ते चली गई और मकड़ी पछताती हुई निढाल पड़ी रही.
दोस्तों , हमारी ज़िन्दगी मे भी कई बार कुछ ऐसा ही होता है. हम कोई काम start करते है. शुरू -शुरू मे तो हम उस काम के लिये बड़े उत्साहित रहते है पर लोगो के comments की वजह से उत्साह कम होने लगता है और हम अपना काम बीच मे ही छोड़ देते है और जब बाद मे पता चलता है कि हम अपने सफलता के कितने नजदीक थे तो बाद मे पछतावे के अलावा कुछ नही बचता.

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रामजन्म भूमि का सच सेकुलरो का झूट।।


रामजन्म भूमि का सच सेकुलरो का झूट।।
सवाल से झल्लाए शाही इमाम ने पत्रकार को पीटा
14 October, 2010
दिल्ली की जामा मस्जिद के शाही इमाम मौलाना अहमद बुखारी तथा उनके समर्थकों ने गुरुवार को अयोध्या विवाद पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ के गत 30 सितम्बर के फैसले के बारे में आयोजित एक संवाददाता सम्मेलन में एक पत्रकार की जमकर पिटाई की.
यह घटना उस समय हुई जब एक उर्दू अखबार के पत्रकार मोहम्मद अब्दुल वाहिद चिश्ती ने बुखारी से अयोध्या के विवादित स्थल पर मालिकाना हक को लेकर सवाल पूछा और इस बात पर उनका रुख जानना चाहा कि खसरा-खतौनी में झगड़े वाली जमीन वर्ष 1528 से राजा दशरथ के नाम पर दर्ज है और उसके बाद वहां बाबरी मस्जिद बनी है.

शुरुआत में तो शाही इमाम ने सवाल को टालने की कोशिश की लेकिन पत्रकार के बार-बार पूछने पर बुखारी और उनके समर्थक आपा खो बैठे और पत्रकार पर झपट पड़े. बुखारी ने चिल्लाते हुए कहा ‘इस आदमी को प्रेस कांफ्रेस से बाहर ले जाओ, यह कांग्रेस का एजेंट है.’ उन्होंने पत्रकार से कहा ‘बेहतर होगा कि तुम अपना मुंह बंद रखो. तुम्हारे जैसे गद्दारों की वजह से ही मुसलमानों का अपमान हुआ है.’

पत्रकार वार्ता खत्म होने के बाद जब अन्य पत्रकार चिश्ती से बात कर रहे थे तब बुखारी और उनके समर्थक उस पत्रकार को दूसरी ओर खींच ले गए और उसकी पिटाई की. बाद में, बुखारी ने कहा ‘यह पत्रकार कांग्रेस का एजेंट है और ऐसे गद्दारों को मुस्लिम बिरादरी किसी भी कीमत पर बरदाश्त नहीं करेगी.’

बाद में, चिश्ती ने आरोप लगाया कि बुखारी अयोध्या मामले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के ऐतिहासिक फैसले के बाद अपने भड़काऊ बयानों से साम्प्रदायिक सौहार्द बिगाड़ने का प्रयास कर रहे हैं. उन्होंने इल्जाम लगाया ‘मैंने सिर्फ वर्ष 1528 के भू अभिलेखों में विवादित जमीन के राजा दशरथ के नाम पर दर्ज होने के बारे में बुखारी की राय जाननी चाही थी लेकिन इस पर वह आपा खो बैठे और उन्होंने तथा उनके समर्थकों ने मुझे मारापीटा.’

चिश्ती ने कहा कि उच्च न्यायालय के फैसले से ऐन पहले तक बुखारी यह कह रहे थे कि अदालत का निर्णय सभी को स्वीकार्य होगा लेकिन फैसला आने के बाद उनके सुर बदल गए और उन्होंने निर्णय के खिलाफ भड़काऊ बयान देना शुरू कर दिया. वह देश में अमन-चैन कायम नहीं रहने देना चाहते. वह मुल्क में दंगे भड़काना चाहते हैं.

उन्होंने कहा कि देश की एकता और सौहार्द के लिये जरूरी है कि अगर वह जमीन राजा दशरथ के नाम पर दर्ज है तो उसे हिंदुओं को सौंप दिया जाए. इसके पूर्व, बुखारी ने संवाददाताओं से कहा कि अयोध्या मामले पर उच्च न्यायालय का फैसला पूरी तरह आस्था पर आधारित है और मुसलमान कौम उसे मंजूर नहीं करेगी. उन्होंने कहा ‘अदालत ने संविधान, कानून और इंसाफ के दायरे से बाहर जाकर वह फैसला दिया है.’ शाही इमाम ने कहा कि शरई नुक्तेनजर से इस मसले का बातचीत के जरिये हल निकलने की कोई गुंजाइश ही नहीं है.

बुखारी ने दावा किया ‘शरीयत के मुताबिक किसी मस्जिद को मंदिर में तब्दील करने के लिये बातचीत करना या आमराय बनाना हराम है.’ उन्होंने कहा कि बातचीत के जरिये अयोध्या मसले का हल नहीं निकलेगा और इस मुकदमे से जुड़े मुसलमानों के पक्ष को उच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ उच्चतम न्यायालय में अपील करनी चाहिये.

अयोध्या विवाद के मुद्दई हाशिम अंसारी द्वारा बातचीत के जरिये मसले की हल की कोशिश किये जाने पर बुखारी ने कहा कि वह अंसारी को गम्भीरता से नहीं लेते क्योंकि वह बार-बार अपने बयान बदलते हैं. शाही इमाम ने अयोध्या विवाद का बातचीत के जरिये हल निकालने की वकालत कर रहे उलमा को भी आड़े हाथ लिया.
http://m.aajtak.in/story.jsp?sid=41485

रामजन्म भूमि का सच सेकुलरो का झूट।।
सवाल से झल्लाए शाही इमाम ने पत्रकार को पीटा
14 October, 2010
दिल्ली की जामा मस्जिद के शाही इमाम मौलाना अहमद बुखारी तथा उनके समर्थकों ने गुरुवार को अयोध्या विवाद पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ के गत 30 सितम्बर के फैसले के बारे में आयोजित एक संवाददाता सम्मेलन में एक पत्रकार की जमकर पिटाई की.
यह घटना उस समय हुई जब एक उर्दू अखबार के पत्रकार मोहम्मद अब्दुल वाहिद चिश्ती ने बुखारी से अयोध्या के विवादित स्थल पर मालिकाना हक को लेकर सवाल पूछा और इस बात पर उनका रुख जानना चाहा कि खसरा-खतौनी में झगड़े वाली जमीन वर्ष 1528 से राजा दशरथ के नाम पर दर्ज है और उसके बाद वहां बाबरी मस्जिद बनी है.

शुरुआत में तो शाही इमाम ने सवाल को टालने की कोशिश की लेकिन पत्रकार के बार-बार पूछने पर बुखारी और उनके समर्थक आपा खो बैठे और पत्रकार पर झपट पड़े. बुखारी ने चिल्लाते हुए कहा ‘इस आदमी को प्रेस कांफ्रेस से बाहर ले जाओ, यह कांग्रेस का एजेंट है.’ उन्होंने पत्रकार से कहा ‘बेहतर होगा कि तुम अपना मुंह बंद रखो. तुम्हारे जैसे गद्दारों की वजह से ही मुसलमानों का अपमान हुआ है.’

पत्रकार वार्ता खत्म होने के बाद जब अन्य पत्रकार चिश्ती से बात कर रहे थे तब बुखारी और उनके समर्थक उस पत्रकार को दूसरी ओर खींच ले गए और उसकी पिटाई की. बाद में, बुखारी ने कहा ‘यह पत्रकार कांग्रेस का एजेंट है और ऐसे गद्दारों को मुस्लिम बिरादरी किसी भी कीमत पर बरदाश्त नहीं करेगी.’

बाद में, चिश्ती ने आरोप लगाया कि बुखारी अयोध्या मामले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के ऐतिहासिक फैसले के बाद अपने भड़काऊ बयानों से साम्प्रदायिक सौहार्द बिगाड़ने का प्रयास कर रहे हैं. उन्होंने इल्जाम लगाया ‘मैंने सिर्फ वर्ष 1528 के भू अभिलेखों में विवादित जमीन के राजा दशरथ के नाम पर दर्ज होने के बारे में बुखारी की राय जाननी चाही थी लेकिन इस पर वह आपा खो बैठे और उन्होंने तथा उनके समर्थकों ने मुझे मारापीटा.’

चिश्ती ने कहा कि उच्च न्यायालय के फैसले से ऐन पहले तक बुखारी यह कह रहे थे कि अदालत का निर्णय सभी को स्वीकार्य होगा लेकिन फैसला आने के बाद उनके सुर बदल गए और उन्होंने निर्णय के खिलाफ भड़काऊ बयान देना शुरू कर दिया. वह देश में अमन-चैन कायम नहीं रहने देना चाहते. वह मुल्क में दंगे भड़काना चाहते हैं.

उन्होंने कहा कि देश की एकता और सौहार्द के लिये जरूरी है कि अगर वह जमीन राजा दशरथ के नाम पर दर्ज है तो उसे हिंदुओं को सौंप दिया जाए. इसके पूर्व, बुखारी ने संवाददाताओं से कहा कि अयोध्या मामले पर उच्च न्यायालय का फैसला पूरी तरह आस्था पर आधारित है और मुसलमान कौम उसे मंजूर नहीं करेगी. उन्होंने कहा ‘अदालत ने संविधान, कानून और इंसाफ के दायरे से बाहर जाकर वह फैसला दिया है.’ शाही इमाम ने कहा कि शरई नुक्तेनजर से इस मसले का बातचीत के जरिये हल निकलने की कोई गुंजाइश ही नहीं है.

बुखारी ने दावा किया ‘शरीयत के मुताबिक किसी मस्जिद को मंदिर में तब्दील करने के लिये बातचीत करना या आमराय बनाना हराम है.’ उन्होंने कहा कि बातचीत के जरिये अयोध्या मसले का हल नहीं निकलेगा और इस मुकदमे से जुड़े मुसलमानों के पक्ष को उच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ उच्चतम न्यायालय में अपील करनी चाहिये.

अयोध्या विवाद के मुद्दई हाशिम अंसारी द्वारा बातचीत के जरिये मसले की हल की कोशिश किये जाने पर बुखारी ने कहा कि वह अंसारी को गम्भीरता से नहीं लेते क्योंकि वह बार-बार अपने बयान बदलते हैं. शाही इमाम ने अयोध्या विवाद का बातचीत के जरिये हल निकालने की वकालत कर रहे उलमा को भी आड़े हाथ लिया.
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विराट पर्व महाभारत


विराट पर्व महाभारत

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
महाभारत के पर्व
आदिपर्व सभापर्व वनपर्व विराटपर्व उद्योगपर्व भीष्मपर्व द्रोणपर्व आश्वमेधिकपर्व महाप्रास्थानिकपर्व
सौप्तिकपर्व स्त्रीपर्व शान्तिपर्व अनुशासनपर्व मौसलपर्व कर्णपर्व शल्यपर्व स्वर्गारोहणपर्व आश्रमवासिकपर्व

विराट पर्व में अज्ञातवास की अवधि में विराट नगर में रहने के लिए गुप्तमन्त्रणा, धौम्य द्वारा उचित आचरण का निर्देश, युधिष्ठिर द्वारा भावी कार्यक्रम का निर्देश, विभिन्न नाम और रूप से विराट के यहाँ निवास,भीमसेन द्वारा जीमूत नामक मल्ल तथा कीचक और उपकीचकों का वध, दुर्योधन के गुप्तचरों द्वारा पाण्डवों की खोज तथा लौटकर कीचकवध की जानकारी देना, त्रिगर्तों और कौरवों द्वारा मत्स्य देश पर आक्रमण, कौरवों द्वारा विराट की गायों का हरण, पाण्डवों का कौरव-सेना से युद्ध, अर्जुन द्वारा विशेष रूप से युद्ध और कौरवों की पराजय, अर्जुन और कुमार उत्तर का लौटकर विराट की सभा में आना, विराट का युधिष्ठिरादि पाण्डवों से परिचय तथा अर्जुन द्वारा उत्तरा को पुत्रवधू के रूप में स्वीकार करना वर्णित है।

राजा विराट के यहाँ आश्रय

पांडवों को बारह वर्ष के वनवास की अवधि की समाप्ति कर एक वर्ष अज्ञातवास करना था। वे विराट नगर के लिए चल दिए। विराट नगर के पास पहुँचकर वे सभी एक पेड़ के नीचे बैठ गए। युधिष्ठिर ने बताया कि मैं राजा विराट के यहाँ ‘कंक’ नाम धारण कर ब्राह्मण के वेश में आश्रय लूँगा। उन्होंने भीम से कहा कि तुम ‘वल्लभ’ नाम से विराट के यहाँ रसोईए का काम माँग लेना, अर्जुन से उन्होंने कहा कि तुम ‘बृहन्नला’ नाम धारण कर स्त्री भूषणों से सुसज्जित होकर विराट की राजकुमारी को संगीत और नृत्य की शिक्षा देने की प्रार्थना करना तथा नकुल ‘ग्रंथिक’ नाम से घोड़ों की रखवाली करने का तथा सहदेव ‘तंत्रिपाल’ नाम से चरवाहे का काम करना माँग ले। सभी पांडवों ने अपने-अपने अस्त्र शस्त्र एक शमी के वृक्ष पर छिपा दिए तथा वेश बदल-बदलकर विराट नगर में प्रवेश किया। विराट ने उन सभी की प्रार्थना स्वीकार कर ली। विराट की पत्नी द्रौपदी के रूप पर मुग्ध हो गई तथा उसे भी केश-सज्जा आदि करने के लिए रख लिया। द्रौपदी ने अपना नाम सैरंध्री बताया और कहा कि मैं जूठे बर्तन नहीं छू सकती और न ही जूठा भोजन कर सकती हूँ।

कीचक-वध

एक दिन विराट की पत्नी सुदेष्णा का भाई कीचक सैरंध्री पर मुग्ध हो गया। उसने अपनी बहन से सैरंध्री के बारे में पूछा। सुदेष्णा ने यह कहकर टाल दिया कि वह महल की एक दासी है। कीचक द्रौपदी के पास जा पहुँचा और बोला, ‘तुम मुझे अपना दास बना सकती हो।’ द्रौपदी डरकर बोली, ‘मैं एक दासी हूँ। मेरा विवाह हो चुका है, मेरे साथ ऐसा व्यवहार मत कीजिए।’ कीचक उस समय तो रुक गया पर बार-बार अपनी बहन सैरंध्री के प्रति आकुलता प्रकट करने लगा। कोई चारा न देखकर सुदेष्णा ने कहा कि पर्व के दिन मैं सैरंध्री को तुम्हारे पास भेज दूँगी। पर्व के दिन महारानी ने कुछ चीज़ें लाने के बहाने सैरंध्री को कीचक के पास भेज दिया। सैरंध्रीकीचक की बुरी नीयत देखकर भाग खड़ी हुई। एक दिन एकांत में मौक़ा पाकर उसने भीम से कीचक की बात बताई। भीम ने कहा कि अब जब वह तुमसे कुछ कहे उसे नाट्यशाला में आधी रात को आने का वायदा कर देना तथा मुझे बता देना। सैरंध्री के कीचक से आधी रात को नाट्यशाला में मिलने को कहा। वह आधी रात को नाट्यशाला में पहुँचा, जहाँ स्त्री के वेश में भीम पहले ही उसकी प्रतीक्षा कर रहे थे। भीम ने कीचक को मार दिया। अगले ही दिन विराट नगर में खबर फैल गई कि सैरंध्री के गंधर्व पति ने कीचक को मार डाला।

गोधन-हरण

कीचक-वध का समाचार दुर्योधन ने भी सुना तथा अनुमान लगा लिया कि सैरंध्री नाम की दासी द्रौपदी तथा उसके गंधर्व पति पांडव ही हैं। तब तक पांडवों के अज्ञातवास की अवधि पूरी हो चुकी थी। त्रिगर्त देश का राजा कीचक से कई बार अपमानित हो चुका था। कीचक की मृत्यु का समाचार सुनकर उसके मन में विराट से बदला लेने की बात सूझी। सुशर्मा दुर्योधन का मित्र था। उसने दुर्योधन को सलाह दी कि यदि विराट की गाएँ ले आई जाएँ तो युद्ध के समय दूध की आवश्यकता पूरी हो जाएगी। आप लोग तैयार रहें, मैं विराट पर आक्रमण करने जा रहा हूँ। उसके जाते ही दुर्योधन ने भी भीष्म, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, कर्ण, अश्वत्थामा आदि के साथ विराट पर आक्रमण कर दिया। महाराज विराट भी कीचक को याद करके रोने लगे पर कंक (युधिष्ठिर) ने उन्हें धैर्य बँधाया। सुशर्मा ने बात-ही-बात में विराट को बाँध लिया, पर इसी समय कंक ने वल्लभ (भीम) को ललकारा। वल्लभ ने सुशर्मा को बाँधकर कंक के सामने उपस्थित का दिया और विराट के बंधन खोल दिए। इसी समय कौरवों के आक्रमण की सूचना मिली। दुर्योधन ने भीष्म से पूछा कि अज्ञातवास की अवधि पूरी हो चुकी है या नहीं भीष्म ने बताया कि एक हिसाब से तो यह अवधि पूरी हो चुकी है, पर दूसरे हिसाब से अभी कुछ दिन शेष हैं। विराट भयभीत हो चुके थे, पर वृहन्नला (अर्जुन) के कहने पर उत्तर कुमार युद्ध को तैयार हो गया। वृहन्नला ने अपना असली परिचय दिया और शमी के वृक्ष से अपना गांडीव तथा अक्षय तूणीर उतार लिया तथा भयंकर संग्राम किया। कर्ण के पुत्र को मार डाला, कर्ण को घायल कर दिया, द्रोणाचार्य और भीष्म के धनुष काट दिए तथा सम्मोहन अस्त्र द्वारा कौरव सेना को मूर्च्छित कर दिया। युद्ध के बाद विराट को पांडवों का परिचय प्राप्त हुआ तथा अर्जुन से अपनी पुत्री उत्तरा के विवाह का प्रस्ताव किया, पर अर्जुन ने कहा कि वे उत्तरा के शिक्षक रह चुके हैं, अतः अपने पुत्र अभिमन्यु से उत्तरा के विवाह का प्रस्ताव किया। धूमधाम से अभिमन्यु और उत्तरा का विवाह हो गया।

विराट पर्व के अन्तर्गत 5 (उप) पर्व और 72 अध्याय हैं। इन पाँच (उप) पर्वों के नाम हैं-

  • पाण्डवप्रवेश पर्व,
  • समयपालन पर्व,
  • कीचकवध पर्व,
  • गोहरण पर्व,
  • वैवाहिक पर्व।

विराट

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
  • राजा विराट महाभारत में अभिमन्यु की पत्नी उत्तरा के पिता थे।
  • राजा विराट के ही नाम से विराट नगर महाभारत काल का एक प्रसिद्ध जनपद था। इस देश में विराट का राज था तथा वहाँ की राजधानी उपप्लव नामक नगर में थी। विराट नगर मत्स्य महाजनपद का दूसरा प्रमुख नगर था।
  • जब पाण्डव अज्ञातवास कर रहे थे, उस समय अर्जुन, बृहन्नला नाम ग्रहण करके रह रहे थे। वृहन्नला ने उत्तरा को नृत्य, संगीत आदि की शिक्षा दी थी।
  • जिस समय कौरवों ने राजा विराट की गायें हस्तगत कर ली थीं, उस समय अर्जुन ने कौरवों से युद्ध करके अर्पूव पराक्रम दिखाया था।
  • अर्जुन की उस वीरता से प्रभावित होकर राजा विराट ने अपनी कन्या उत्तरा का विवाह अर्जुन से करने का प्रस्ताव रखा था किन्तु अर्जुन ने यह कहकर कि उत्तरा उनकी शिष्या होने के कारण उनकी पुत्री के समान थी, उस सम्बन्ध को अस्वीकार कर दिया था।
  • कालान्तर में उत्तरा का विवाह अभिमन्यु के साथ सम्पन्न हुआ था।
  • अभिमन्यु का बाल्यकाल अपनी ननिहाल द्वारका में ही बीता। उनका विवाह महाराज विराट की पुत्री उत्तरा से हुआ।
  • विराट का साला कीचक क्षत्रिय पिता तथा ब्राह्मणी माता का सूत पुत्र कहलाता है। कीचक भी सूत जाति का था। वह केकय राजा (सूतों के अधिपति) के मालवी नामक पत्नी के पूत्रों में सबसे बड़ा था। केकय की दूसरी रानी की कन्या का नाम सुदेष्णा था- वही अपने अनेक भाइयों की एकमात्र बहन थी जिसका विवाह राजा विराट से हुआ। उसके भाइयों की संख्या बहुत अधिक थी तथा सभी शक्तिशाली होकर विराट के साथियों में थे।
  • महाभारत महाकाव्य में 18 पर्व हैं जिनमें से विराट पर्व में अज्ञातवास की अवधि में विराट नगर में रहने के लिए गुप्तमन्त्रणा, धौम्य द्वारा उचित आचरण का निर्देश, युधिष्ठिर द्वारा भावी कार्यक्रम का निर्देश, विभिन्न नाम और रूप से विराट के यहाँ निवास, भीमसेन द्वारा जीमूत नामक मल्ल तथा कीचक और उपकीचकों का वध, दुर्योधन के गुप्तचरों द्वारा पाण्डवों की खोज तथा लौटकर कीचक वध की जानकारी देना, त्रिगर्तों और कौरवों द्वारा मत्स्य देश पर आक्रमण, कौरवों द्वारा विराट की गायों का हरण, पाण्डवों का कौरव-सेना से युद्ध, अर्जुन द्वारा विशेष रूप से युद्ध और कौरवों की पराजय, अर्जुन और कुमार उत्तर का लौटकर विराट की सभा में आना, विराट का युधिष्ठिरादि पाण्डवों से परिचय तथा अर्जुन द्वारा उत्तरा को पुत्रवधू के रूप में स्वीकार करना वर्णित है।
Seealso.jpg इन्हें भी देखें: विराट नगर, मत्स्य महाजनपद, उत्तरा एवं अज्ञातवास

विराटनगर (राजस्थान)

मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से

विराटनगर नाम से प्राय: लोगो को भ्रम हो जाता है। विराटनगर नमक एक क़स्बा नेपाल की सीमा में भी है। किन्तु नेपाल का विराट नगर, महाभारत कालीन विराटनगर नहीं है। पावनधाम श्री पञ्चखंडपीठ से सम्बन्ध विराटनगर पौराणिक, प्रगेतिहासिक, महाभारतकालीन तथा गुप्तकालीन ही नहीं मुगलकालीन महत्वपूर्ण घटनाओ को भी अपने में समेटे हुए, राजस्थान के जयपुर और अलवर जिले की सीमा पर स्थित है विराटनगर में पौराणिक शक्तिपीठ, गुहा चित्रों के अवशेष, बोध माथो के भग्नावशेष, अशोक का शिला लेख और मुगलकालीन भवन विधमान है। अनेक जलाशय और कुंड इस क्षेत्र की शोभा बढा रहे है। प्राकर्तिक शोभा से प्रान्त परिपूर्ण है। विराटनगर के निकट सरिस्का राष्ट्रीय व्याघ्र अभ्यारण, भर्तहरी का तपोवन, पाण्डुपोल नाल्देश्वर और सिलिसेद जैसे रमणीय तथा दर्शनीय स्थल लाखों श्रधालुओ और पर्यटकों को आकर्षित करते है। विराट नगर (बैराट) राजस्थान प्रान्त के जयपुर जिले का एक शहर है। इसका पुराना नाम बैराट है। विराट नगर राजस्थान में उत्तर मे स्थित है। यह नगरी प्राचीन मस्तय राज की राजधानी रही है। चारो और सुरम्य पर्वतो से घिरे प्राचीन मत्स्य देश की राजधानी रहे विराटनगर में पुरातात्विक अवशेषों की सम्पदा बिखरी पड़ी है या भूगर्भ में समायी हुई है। विराट नगर अरावली की पहाडियो के मध्य में बसा है। राजस्थान के जयपुर जिले में शाहपुरा से 25 किलोमीटर दूर विराट नगर कस्बा अपनी पौराणिक ऐतिहासिक विरासत को आज भी समेटे हुए है। == इतिहास == यह वही विराट नगर जहाँ महाभारत काल में पांड्वो ने अपना अज्ञातवास व्यतीत किया था। यहाँ पर पंच्खंड पर्वत पर भीम तालाब और इसके ही निकट जैन मंदिर और अकबर की छतरी है जहाँ अकबर शिकार के समय विश्राम करता था। == दर्शनीय स्थल == यह स्थल राजा विराट के मत्स्य प्रदेशकी राजधानी के रूप में विख्यात था। यही पर पांडवों ने अपने अज्ञातवास का समय व्यतीत किया था। महाभारत कालीन स्मृतियों के भौतिक अवशेष तो अब यहां नहीं रहे किंतु यहां ऐसे अनेक चिन्ह हैं जिनसे पता चलता है कि यहां पर कभी बौद्ध एवं जैन सम्प्रदाय के अनुयायियों का विशेष प्रभाव था। विराट नगर, जिसे पूर्व में वैराठ के नाम से भी जाना जाता था, के दक्षिण की ओर बीजक पहाड़ी है। इस के ऊपर दो समतल मैदान हैं यहां पर व्यवस्थित तरीके से रास्ता बनाया गया है। इस मैदान के मध्य में एक गोलाकार परिक्रमा युक्त ईंटों का मन्दिर था जो आयताकार चार दीवारी से घिरा हुआ था। इस मन्दिर के गोलाकार भीतरी द्वार पर 27 लकड़ी के खम्भे लगे हुए थे। ये अवशेष एक बौद्ध स्तूप के हैं जिसे सांचीसारनाथ के बौद्ध स्तूपों की तरह गुम्बदाकार बनाया गया था। यह बौद्ध मंदिर गोलाकार ईंटों की दीवार से बना हुआ था, जिसके चारों तरफ 7 फीट चौड़ी गैलरी है। इस गोलाकार मंदिर का प्रवेश द्वार पूर्व की तरफ खुलता हुआ 6 फीट चौड़ा है। बाहर की दीवार 1 फीट चौड़ी ईंटों की बनी हुई है। इसी प्लेटफार्म पर बौद्ध भिक्षु एवं भिक्षुणियों आदि के चिंतन-मनन करने हेतु श्रावक गृह बने हुए थे। यहां बनी 12 कोठरियों के अलावा अन्य कई कोठरियों के अवशेष भी चारों तरफ देखे जा सकते हैं। ये कोठरियां साधारणतया वर्गाकार रूप में बनाई जाती थीं। इन पर किए गए निर्माण कार्यों पर सुंदर आकर्षक प्लास्टर किया जाता था। इस प्लेटफार्म के बीच में पश्चिम की तरफ शिला खण्डों को काटकर गुहा-गृह बनाया गया था जो दो तरफ से खुलता था। इसमें भी भिक्षुओं एवं भिक्षुणियों के निवास का प्रबंध किया गया था। इस गुहा गृह के नीचे एक चट्टान काटकर कुन्ड अर्थात् टंकी भी बनाई गई है जिसमें पूजा व पीने के लिए पानी इकट्ठा किया जाता था। विराट नगर की बुद्ध-धाम बीजक पहाड़ी पर स्थित इस मंदिर के प्रवेश द्वार पर एक चट्टान है जिस पर भब्रू बैराठ शिलालेख उत्कीर्ण है। इसे बौद्ध भिक्षु एवं भिक्षुणियों के अलावा आम लोग भी पढ़ सकते थे। इस शिलालेख को भब्रू शिलालेख के नाम से भी जाना जाता था। यह शिलालेख पालीब्राह्मी लिपि में लिखा हुआ था। इसे सम्राट अशोक ने स्वयं उत्कीर्ण करवाया था ताकि जनसाधारण उसे पढ़कर तदनुसार आचरण कर सके। इस शिला लेख को कालान्तर में 1840 में ब्रिटिशसेनाधिकारी कैप्टन बर्ट द्वारा कटवा कर कलकत्ता के संग्रहालय में रखवा दिया गया। आज भी विराटनगर का यह शिलालेख वहां सुरक्षित रखा हुआ है। इसी प्रकार एक और शिला लेख भीमसेन डूंगरी के पास आज भी स्थित है। यह उस समय मुख्य राजमार्ग था। बीजक की पहाड़ी पर बने गोलाकार मन्दिर के प्लेटफार्म के समतल मैदान से कुछ मीटर ऊंचाई पर पश्चिम की तरफ एक चबूतरा है जिसके सामने भिक्षु बैठकर मनन व चिन्तन करते थे। यहीं पर एक स्वर्ण मंजूषा थी जिसमें भगवान बुद्ध के दो दांत एवं उनकी अस्थियां रखी हुई थीं। अशोक महान बैराठ में स्वयं आए थे। यहां आने के पहले वे 255 स्थानों पर बौद्ध धर्म का प्रचार-प्रसार कर चुके थे। बैराठ वर्षों तक बुद्धम् शरणम् गच्छामी, धम्मम् शरणम् गच्छामी से गुंजायमान रहा है। यह स्थल बौद्ध धर्म के प्रचार प्रसार का केंद्र रहा है। कालान्तर में जाकर जैन समाज के विमल सूरी नामक संत ने यहीं पर रहकर वर्षों तपस्या की। ऐसी मान्यता है कि उन्हीं के प्रभाव में आकर अकबर ने सम्पूर्ण मुगल राज्य में वर्ष में एक सौ छ: दिन के लिए जीव हत्या बंद करवाई। विराट नगर के उत्तर में नसिया में जैन समाज का संगमरमर का भव्य मंदिर है। इस मन्दिर की भव्यता देखते ही बनती है। पहाड़ की तलहटी में स्थित यह मन्दिर अपनी धवल आभा के कारण प्रत्येक आगन्तुक को अपनी ओर आकर्षित करता है। नसिया के पास ही मुगल गेट भी बना हुआ है। इस इमारत को अकबर ने बनवाया था। वह यहां पर शिकार के लिए आया करता था। यहीं पर अकबर ने राज्य के लिए सोने चांदी एवं तांबे की टकसाल स्थापित की थी जो औरंगजेब के समय तक चलती रही. === पावन धाम === महान हिन्दू संत, गोभकत महात्मा रामचन्द्र वीर द्वारा स्थापित पावन धाम पंचंखंड पर्वत पर वज्रांग मंदिर भी यही स्थापित है। इस मंदिर के विषय में सबसे महत्वपूर्ण बात ये है की यहाँ हनुमान जी जाति वानर मानी गयी है, तन से उनको मानव सामान माना गया है। यह महात्मा रामचन्द्र वीर की जन्मभूमि भी है।

विराट नगर से 90 कि मी की दूरी पर जयपुर और 60 कि मी पर अलवर और 40 कि मी पर शाहपुरा स्थित है।

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महाजनपद


महाजनपद

बौद्ध और जैन धर्म के प्रारंम्भिक ग्रंथों में महाजनपद नाम के सोलह राज्यों का विवरण मिलता है। महाजनपदों के नामों की सूची इन ग्रंथों में समान नहीं है परन्तु वज्जि, मगध,कोशल, कुरु, पांचाल, गांधार और अवन्ति जैसे नाम अक्सर मिलते हैं। इससे यह ज्ञात होता है कि ये महाजनपद महत्त्वपूर्ण महाजनपदों के रूप में जाने जाते होंगे। अधिकांशतः महाजनपदों पर राजा का ही शासन रहता था परन्तु गण और संघ नाम से प्रसिद्ध राज्यों में लोगों का समूह शासन करता था, इस समूह का हर व्यक्ति राजा कहलाता था। हर एक महाजनपद की एक राजधानी थी जिसे क़िले से घेरा दिया जाता था। भारत के सोलह महाजनपदों का उल्लेख ईसा पूर्व छठी शताब्दी से भी पहले का है। ये महाजनपद थे:
  1. अवन्ति: आधुनिक मालवा का प्रदेश जिसकी राजधानी उज्जयिनी और महिष्मति थी। उज्जयिनी (उज्जैन) मध्य प्रदेश राज्य का एक प्रमुख शहर है। महाभारत में सहदेव द्वारा अवंती को विजित करने का वर्णन है। जैन ग्रंथ भगवती सूत्र में इसी जनपद को मालव कहा गया है। इस जनपद में स्थूल रूप से वर्तमानमालवा, निमाड़ और मध्य प्रदेश का बीच का भाग सम्मिलित था। पुराणों के अनुसार अवंती की स्थापना यदुवंशी क्षत्रियों द्वारा की गई थी। चतुर्थ शती ई. पू. में अवन्ती का जनपद मौर्य-साम्राज्य में सम्मिलित था और उज्जयिनी मगध-साम्राज्य के पश्चिम प्रांत की राजधानी थी। गुप्त काल में चंद्रगुप्त विक्रमादित्य ने अवंती को पुन: विजय किया और वहाँ से विदेशी सत्ता को उखाड़ फैंका। मध्यकाल में इस नगरी को मुख्यत: उज्जैन ही कहा जाता था और इसका मालवा के सूबे के एक मुख्य स्थान के रूप में वर्णन मिलता है। जैन ग्रन्थ विविधतीर्थ कल्प में मालवा प्रदेश का ही नाम अवंति या अवंती है। महाकाल की शिव के द्वादश ज्योतिर्लिगों में गणना की जाती है। इसी कारण इस नगरी को शिवपुरी भी कहा गया है। प्राचीन अवंती वर्तमान उज्जैन के स्थान पर ही बसी थी, यह तथ्य इस बात से सिद्ध होता है कि क्षिप्रा नदी जो आजकल भी उज्जैन के निकट बहती है, प्राचीन साहित्य में भी अवंती के निकट ही वर्णित है।
  2. अश्मक: नर्मदा और गोदावरी नदियों के बीच अवस्थित इस प्रदेश की राजधानी पाटन थी। आधुनिक काल में इस प्रदेश को महाराष्ट्र कहते हैं। बौद्ध साहित्य में इस प्रदेश का, जो गोदावरी तट पर स्थित था, कई स्थानों पर उल्लेख मिलता है। सुत्तनिपात में अस्सक को गोदावरी-तट पर बताया गया है। इसकी राजधानी पोतन, पौदन्य या पैठान (प्रतिष्ठानपुर) में थी। पाणिनि ने अष्टाध्यायी में भी अश्मकों का उल्लेख किया है। सोननंदजातक में अस्सक को अवंती से सम्बंधित कहा गया है। अश्मक नामक राजा का उल्लेख वायु पुराण और महाभारत में है। सम्भवत: इसी राजा के नाम से यह जनपद अश्मक कहलाया। ग्रीक लेखकों ने अस्सकेनोई लोगों का उत्तर-पश्चिमी भारत में उल्लेख किया है। इनका दक्षिणी अश्वकों से ऐतिहासिक सम्बन्ध रहा होगा या यह अश्वकों का रूपान्तर हो सकता है।
  3. अंग: वर्तमान बिहार के मुंगेर और भागलपुर ज़िले इसमें आते थे। महाजनपद युग में अंग महाजनपद की राजधानी चंपा थी। महाभारत ग्रन्थ में प्रसंग है कि हस्तिनापुर में कौरव राजकुमारों के युद्ध कौशल के प्रदर्शन हेतु आचार्य द्रोण ने एक प्रतियोगिता का आयोजन किया। अर्जुन इस प्रतियोगिता में सर्वोच्च प्रतिभाशाली धनुर्धर के रूप में उभरा। कर्ण ने इस प्रतियोगिता में अर्जुन को द्वन्द युद्घ के लिए चुनौती दी। किन्तु कृपाचार्य ने यह कहकर ठुकरा दिया कि कर्ण कोई राजकुमार नहीं है। इसलिए इस प्रतियोगिता में भाग नहीं ले सकता। इसलिए दुर्योधन ने कर्ण को अंग देश का राजा घोषित कर दिया था। पहले अंग मगध के अंतर्गत आता था लेकिन बाद में भीष्म द्वारा अंग को जीतने के पश्चात् ये हस्तिनापुर के अधीन आ गया.
  4. कम्बोज: प्राचीन संस्कृत साहित्य में कंबोज देश या यहाँ के निवासी कांबोजों के विषय में अनेक उल्लेख हैं जिनसे जान पड़ता है कि कंबोज देश का विस्तार स्थूल रूप से कश्मीर से हिन्दूकुश तक था। वाल्मीकि-रामायण में कंबोज, वाल्हीक और वनायु देशों के श्रेष्ठ घोड़ों का अयोध्या में होना वर्णित है. महाभारत के अनुसार अर्जुन ने अपनी उत्तर दिशा की दिग्विजय-यात्रा के प्रसंग में दर्दरों या दर्दिस्तान के निवासियों के साथ ही कांबोजों को भी परास्त किया था. महाभारत में कहा गया है कि कर्ण ने राजपुर पहुंचकर कांबोजों को जीता, जिससे राजपुर कंबोज का एक नगर सिद्ध होता है। वैदिक काल में कंबोज आर्य-संस्कृति का केंद्र था जैसा कि वंश-ब्राह्मण के उल्लेख से सूचित होता है, किंतु कालांतर में जब आर्यसभ्यता पूर्व की ओर बढ़ती गई तो कंबोज आर्य-संस्कृति से बाहर समझा जाने लगां। युवानच्वांग ने भी कांबोजों को असंस्कृत तथा हिंसात्मक प्रवृत्तियों वाला बताया है। कंबोज के राजपुर, नंदिनगर और राइसडेवीज के अनुसार द्वारका नामक नगरों का उल्लेख साहित्य में मिलता है। महाभारत में कंबोज के कई राजाओं का वर्णन है जिनमें सुदर्शन और चंद्रवर्मन मुख्य हैं। मौर्यकाल में चंद्रगुप्त के साम्राज्य में यह गणराज्य विलीन हो गया होगा।
  5. काशी: वाराणसी का दूसरा नाम ‘काशी’ प्राचीन काल में एक जनपद के रूप में प्रख्यात था और वाराणसी उसकी राजधानी थी। इसकी पुष्टि पाँचवीं शताब्दी में भारत आने वाले चीनी यात्री फ़ाह्यान के यात्रा विवरण से भी होती है। हरिवंशपुराण में उल्लेख आया है कि ‘काशी’ को बसाने वाले पुरुरवा के वंशज राजा ‘काश’ थे। अत: उनके वंशज ‘काशि’ कहलाए। संभव है इसके आधार पर ही इस जनपद का नाम ‘काशी’ पड़ा हो। काशी नामकरण से संबद्ध एक पौराणिक मिथक भी उपलब्ध है। उल्लेख है कि विष्णु ने पार्वती के मुक्तामय कुंडल गिर जाने से इस क्षेत्र को मुक्त क्षेत्र की संज्ञा दी और इसकी अकथनीय परम ज्योति के कारण तीर्थ का नामकरण काशी किया। कहा जाता है की कशी भगवान शंकर के त्रिशूल पर स्तिथ है इसी कारण इसे पृथ्वी से बहार का क्षेत्र माना जाता है. ये भी कहा जाता है की प्रलय के समय पूरी धरती का विनाश हो जाता है लेकिन शंकर के त्रिशूल पर होने के कारण काशी नगरी सुरक्षित रहती है.
  6. कुरु: आधुनिक हरियाणा तथा दिल्ली का यमुना नदी के पश्चिम वाला अंश शामिल था। इसकी राजधानी आधुनिक दिल्ली (इन्द्रप्रस्थ) थी। एक प्राचीन देश जिसका हिमालय के उत्तर का भाग ‘उत्तर कुरु’ और हिमालय के दक्षिण का भाग ‘दक्षिण कुरु’ के नाम से विख्यात था। भागवत के अनुसार युधिष्ठर का राजसूय यज्ञ और श्रीकृष्ण का रुक्मिणी के साथ विवाह यहीं हुआ था। अग्नीध के एक पुत्र का नाम ‘कुरु’ था जो वैदिक साहित्य में उल्लिखित एक प्रसिद्ध चंद्रवंशी राजा था। सामान्यत: धृतराष्ट्र की संतान को ही ‘कौरव’ संज्ञा दी जाती है, पर कुरु के वंशज कौरव-पांडवों दोनों ही थे। प्राचीन भारत का प्रसिद्ध जनपद जिसकी स्थितिं वर्तमान दिल्ली-मेरठ प्रदेश में थी। महाभारतकाल में हस्तिनापुर कुरु-जनपद की राजधानी थी। महाभारत से ज्ञात होता है कि कुरु की प्राचीन राजधानी खांडवप्रस्थ थी। महाभारत के अनेक वर्णनों से विदित होता है कि कुरुजांगल, कुरु और कुरुक्षेत्र इस विशाल जनपद के तीन मुख्य भाग थे। मुख्य कुरु जनपद हस्तिनापुर (ज़िला मेरठ, उ.प्र.) के निकट था। इसके दक्षिण में खांडव, उत्तर में तूर्ध्न और पश्चिम में परिणाह स्थित था। संभव है ये सब विभिन्न वनों के नाम थे। कुरु जनपद में वर्तमान थानेसर, दिल्ली और उत्तरी गंगा द्वाबा (मेरठ-बिजनौर ज़िलों के भाग) शामिल थे। महाभारत में भारतीय कुरु-जनपदों को दक्षिण कुरु कहा गया है और उत्तर-कुरुओं के साथ ही उनका उल्लेख भी है। महासुत-सोम-जातक के अनुसार कुरु जनपद का विस्तार तीन सौ कोस था। ऐसा जान पड़ता है कि इस काल के पश्चात और मगध की बढ़ती हुई शक्ति के फलस्वरूप जिसका पूर्ण विकास मौर्य साम्राज्य की स्थापना के साथ हुआ, कुरु, जिसकी राजधानी इस्तिनापुर राजा निचक्षु के समय में गंगा में बह गई थी और जिसे छोड़ कर इस राजा ने वत्स जनपद में जाकर अपनी राजधानी कौशांबी में बनाई थी, धीरे-धीरे विस्मृति के गर्त में विलीन हो गया।
  7. कोशल: उत्तरी भारत का प्रसिद्ध जनपद जिसकी राजधानी विश्वविश्रुत नगरी अयोध्या थी। उत्तर प्रदेश के फैजाबाद ज़िला, गोंडा और बहराइच के क्षेत्र शामिल थे। यह जनपद सरयू (गंगा नदी की सहायक नदी) के तटवर्ती प्रदेश में बसा हुआ था। रामायण-काल में कोसल राज्य की दक्षिणी सीमा पर वेदश्रुति नदी बहती थी। श्री रामचंद्रजी ने अयोध्या से वन के लिए जाते समय गोमती नदी को पार करने के पहले ही कोसल की सीमा को पार कर लिया था। वेदश्रुति तथा गोमती पार करने का उल्लेख अयोध्याकाण्ड में है और तत्पश्चात स्यंदिका या सई नदी को पार करने के पश्चात श्री राम ने पीछे छूटे हुए अनेक जनपदों वाले तथा मनु द्वाराइक्ष्वाकु को दिए गए समृद्धिशाली (कोसल) राज्य की भूमि सीता को दिखाई। रामायण-काल में ही यह देश दो जनपदों में विभक्त था – उत्तर कोसल और दक्षिण कोसल. राजा दशरथ की रानी कौशल्या संभवत: दक्षिण कोसल (रायपुर-बिलासपुर के ज़िले, मध्य प्रदेश) की राजकन्या थी। रामायण-काल में अयोध्या बहुत ही समृद्धिशाली नगरी थी। महाभारत में भीमसेन की दिग्विजय-यात्रा में कोसल-नरेश बृहद्बल की पराजय का उल्लेख है। छठी और पाँचवी शती ई. पू. में कोसल मगध के समान ही शक्तिशाली राज्य था किन्तु धीरे-धीरे मगध का महत्त्व बढ़ता गया और मौर्य-साम्राज्य की स्थापना के साथ कोसल मगध-साम्राज्य ही का एक भाग बन गया।
  8. गांधार: पाकिस्तान का पश्चिमी तथा अफ़ग़ानिस्तान का पूर्वी क्षेत्र। इसे आधुनिक कंदहार से जोड़ने की ग़लती कई बार लोग कर देते हैं जो कि वास्तव में इस क्षेत्र से कुछ दक्षिण में स्थित था। इस प्रदेश का मुख्य केन्द्र आधुनिक पेशावर और आसपास के इलाके थे। इस महाजनपद के प्रमुख नगर थे – पुरुषपुर (आधुनिक पेशावर) तथा तक्षशिला इसकी राजधानी थी । इसका अस्तित्व 600 ईसा पूर्व से 11वीं सदी तक रहा। 13वीं शती तक युन्नान का भारतीय नाम गंधार ही प्रचलित था। इस प्रदेश का उल्लेख महाभारत और अशोक के शिलालेखों में मिलता है। महाभारत के अनुसार धृतराष्ट्र की रानी और दुर्योधन की माता गांधारी गंधार की राजकुमारी थीं। आजकल यह पाकिस्तान के रावलपिंडी और पेशावर ज़िलों का क्षेत्र है। तक्षशिला और पुष्कलावती यहीं के प्रसिद्ध नगर थे। अशोक के साम्राज्य का अंग रहने के बाद कुछ समय यह फारस के और कुषाण राज्य के अंतर्गत रहा। ऐतिहासिक अनुश्रुति में कौटिल्य को तक्षशिला महाविद्यालय का ही रत्न बताया गया है। केकय-नरेश युधाजित के कहने से अयोध्यापति रामचंद्र जी के भाई भरत ने गंधर्व देश को जीतकर यहाँ तक्षशिला और पुष्कलावती नगरियों को बसाया था। महाभारत काल में गंधार देश का मध्यदेश से निकट संबंध था। धृतराष्ट्र की पत्नी गंधारी, गंधार की ही राजकन्या थी। शकुनि इसका भाई था।
  9. चेदि: वर्तमान में बुंदेलखंड का इलाक़ा इसके अर्न्तगत आता है। गंगा और नर्मदा के बीच के क्षेत्र का प्राचीन नाम चेदि था। बौद्ध ग्रंथों में जिन सोलह महाजनपदों का उल्लेख है उनमें यह भी था। किसी समय शिशुपाल यहाँ का प्रसिद्ध राजा था। उसका विवाह रुक्मिणी से होने वाला था कि श्रीकृष्ण ने रूक्मणी का हरण कर दिया इसके बाद ही जब युधिष्ठर के राजसूय यज्ञ में श्रीकृष्ण को पहला स्थान दिया तो शिशुपाल ने उनकी घोर निंदा की। इस पर श्रीकृष्ण ने उसका वध कर डाला। मध्य प्रदेश का ग्वालियर क्षेत्र में वर्तमान चंदेरी कस्बा ही प्राचीन काल के चेदि राज्य की राजधानी बताया जाता है। महाभारत में चेदि देश की अन्य कई देशों के साथ, कुरु के परिवर्ती देशों में गणना की गई है। कर्णपर्व में चेदि देश के निवासियों की प्रशंसा की गई है। महाभारत के समय कृष्ण का प्रतिद्वंद्वी शिशुपाल चेदि का शासक था। इसकी राजधानी शुक्तिमती बताई गई है।
  10. वृजि: उत्तर बिहार का बौद्ध कालीन गणराज्य जिसे बौद्ध साहित्य में वृज्जि कहा गया है। वास्तव में यह गणराज्य एक राज्य-संघ का अंग था जिसके आठ अन्य सदस्य (अट्ठकुल) थे जिनमें विदेह, लिच्छवी तथा ज्ञातृकगण प्रसिद्ध थे। बुद्ध के जीवनकाल में मगध सम्राट अजातशत्रु और वृज्जि गणराज्य में बहुत दिनों तक संघर्ष चलता रहा। महावग्ग के अनुसार अजातशत्रु के दो मन्त्रियों सुनिध और वर्षकार (वस्सकार) ने पाटलिग्राम (पाटलिपुत्र) में एक क़िला वृज्जियों के आक्रमणों को रोकने के लिए बनवाया था। महापरिनिब्बान सुत्तन्त में भी अजातशत्रु और वृज्जियों के विरोध का वर्णन है। वज्जि शायद वृजि का ही रूपांतर है। बुल्हर के मत में वज्रि का नामोल्लेख अशोक के शिलालेख सं. 13 में है। जैन तीर्थंकर महावीर वृज्जि गणराज्य के ही राजकुमार थे।
  11. वत्स: आधुनिक उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद तथा मिर्ज़ापुर ज़िले इसके अर्न्तगत आते थे। इस जनपद की राजधानी कौशांबी (ज़िला इलाहाबाद उत्तर प्रदेश) थी। वत्स देश का नामोल्ल्लेख वाल्मीकि रामायण में भी है कि लोकपालों के समान प्रभाव वाले राम चन्द्र वन जाते समय महानदी गंगा को पार करके शीघ्र ही धनधान्य से समृद्ध और प्रसन्न वत्स देश में पहुँचे। इस उद्धरण से सिद्ध होता है कि रामायण-काल में गंगा नदी वत्स और कोसल जनपदों की सीमा पर बहती थी। गौतम बुद्ध के समय वत्स देश का राजा उदयन था जिसने अवंती-नरेश चंडप्रद्योत की पुत्री वासवदत्ता से विवाह किया था। इस समय कौशांबी की गणना उत्तरी भारत के महान नगरों में की जाती थी। महाभारत के अनुसार भीम सेन ने पूर्व दिशा की दिग्विजय के प्रसंग में वत्स भूमि पर विजय प्राप्त की थी.
  12. पांचाल: पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बरेली, बदायूँ और फर्रूख़ाबाद ज़िलों से परिवृत प्रदेश का प्राचीन नाम है। यह कानपुर से वाराणसी के बीच के गंगा के मैदान में फैला हुआ था। इसकी भी दो शाखाएँ थीं- पहली शाखा उत्तर पांचाल की राजधानी अहिच्छत्र थी तथा दूसरी शाखा दक्षिण पांचाल की राजधानी कांपिल्य थी। पांडवों की पत्नी, द्रौपदी को पंचाल की राजकुमारी होने के कारण पांचाली भी कहा गया।शतपथ ब्राह्मण में पंचाल की परिवका या परिचका नामक नगरी का उल्लेख है जो वेबर के अनुसार महाभारत की एकचका है। पंचाल पाँच प्राचीन कुलों का सामूहिक नाम था। वे थे किवि, केशी, सृंजय, तुर्वसस तथा सोमक। पंचालों और कुरु जनपदों में परस्पर लड़ाई-झगड़े चलते रहते थे। महाभारत के आदिपर्व से ज्ञात होता है कि पांडवों के गुरु द्रोणाचार्य ने अर्जुन की सहायता से पंचालराज द्रुपद को हराकर उसके पास केवल दक्षिण पंचाल (जिसकी राजधानी कांपिल्य थी) रहने दिया और उत्तर पंचाल को हस्तगत कर लिया था। इस प्रकार महाभारत-काल में पंचाल, गंगा के उत्तरी और दक्षिण दोनों तटों पर बसा हुआ था। द्रुपद पहले अहिच्छत्र या छत्रवती नगरी में रहते थे। महाभारत आदिपर्व में वर्णित द्रौपदी का स्वयंवर कांपिल्य में हुआ था। पंचाल निवासियों को भीमसेन ने अपनी पूर्व देश की दिग्विजय-यात्रा में अनेक प्रकार से समझा-बुझा कर वश में कर लिया था।
  13. मगध: बौद्ध काल तथा परवर्तीकाल में उत्तरी भारत का सबसे अधिक शक्तिशाली जनपद था। इसकी स्थिति स्थूल रूप से दक्षिण बिहार के प्रदेश में थी। आधुनिक पटना तथा गया ज़िला इसमें शामिल थे। इसकी राजधानी गिरिव्रज थी । भगवान बुद्ध के पूर्व बृहद्रथ तथा जरासंध यहाँ के प्रतिष्ठित राजा थे। यह दक्षिणी बिहार में स्थित था जो कालान्तर में उत्तर भारत का सर्वाधिक शक्‍तिशाली महाजनपद बन गया। मगध महाजनपद की सीमा उत्तर में गंगा से दक्षिण में विन्ध्य पर्वत तक, पूर्व में चम्पा से पश्‍चिम में सोन नदी तक विस्तृत थीं। मगध की प्राचीन राजधानी राजगृह थी। कालान्तर में मगध की राजधानी पाटलिपुत्र में स्थापित हुई। मगध राज्य में तत्कालीन शक्‍तिशाली राज्य कौशल, वत्स व अवन्ति को अपने जनपद में मिला लिया। इस प्रकार मगध का विस्तार अखण्ड भारत के रूप में हो गया और प्राचीन मगध का इतिहास ही भारत का इतिहास बना। पटना और गया ज़िला का क्षेत्र प्राचीनकाल में मगध के नाम से जाना जाता था। गौतम बुद्ध के समय में मगध मेंबिंबिसार और तत्पश्चात उसके पुत्र अजातशत्रु का राज था। इस समय मगध की कोसल जनपद से बड़ी अनबन थी यद्यपि कोसल-नरेश प्रसेनजित की कन्या का विवाह बिंबिसार से हुआ था। इस विवाह के फलस्वरूप काशी का जनपद मगधराज को दहेज के रूप में मिला था। इनके बाद चन्द्रगुप्त मौर्य तथा अशोक के राज्यकाल में मगध के प्रभावशाली राज्य की शक्ति अपने उच्चतम गौरव के शिखर पर पहुंची हुई थी और मगध की राजधानी पाटलिपुत्र भारत भर की राजनीतिक सत्ता का केंद्र बिंदु थी। मगध का महत्त्व इसके पश्चात भी कई शतियों तक बना रहा और गुप्त काल के प्रारंभ में काफ़ी समय तक गुप्त साम्राज्य की राजधानी पाटलिपुत्र ही में रही। बिम्बिसार को मगध साम्राज्य का वास्तविक संस्थापक माना जाता है। बिम्बिसार ने गिरिव्रज (राजगीर) को अपनी राजधानी बनायी। इसके वैवाहिक सम्बन्धों (कौशल, वैशाली एवं पंजाब) की नीति अपनाकर अपने साम्राज्य का विस्तार किया।
  14. मत्स्य: इसमें राजस्थान के अलवर, भरतपुर तथा जयपुर ज़िले के क्षेत्र शामिल थे। महाभारत काल का एक प्रसिद्ध जनपद जिसकी स्थिति अलवर-जयपुर के परिवर्ती प्रदेश में मानी गई है। इस देश में विराट का राज था तथा वहाँ की राजधानी उपप्लव नामक नगर में थी। विराट नगर मत्स्य देश का दूसरा प्रमुख नगर था। सहदेव ने अपनी दिग्विजय-यात्रा में मत्स्य देश पर विजय प्राप्त की थी। भीम ने भी मत्स्यों को विजित किया था। पांडवों ने मत्स्य देश में विराट के यहाँ रह कर अपने अज्ञातवास का एक वर्ष बिताया था।
  15. मल्ल: यह भी एक गणसंघ था और पूर्वी उत्तर प्रदेश के इलाके इसके क्षेत्र थे। मल्ल देश का सर्वप्रथम निश्चित उल्लेख शायद वाल्मीकि रामायण में इस प्रकार है कि राम चन्द्र जी ने लक्ष्मण-पुत्र चंद्रकेतु के लिए मल्ल देश की भूमि में चंद्रकान्ता नामक पुरी बसाई जो स्वर्ग के समान दिव्य थी। महाभारत में मल्ल देश के विषय में कई उल्लेख हैं. बौद्ध साहित्य में मल्ल देश की दो राजधानियों का वर्णन है कुशावती और पावा. बौद्ध तथा जैन साहित्य में मल्लों और लिच्छवियों की प्रतिद्वंदिता के अनेक उल्लेख हैं. मगध के राजनीतिक उत्कर्ष के समय मल्ल जनपद इसी साम्राज्य की विस्तरणशील सत्ता के सामने न टिक सका। चौथी शती ई. पू. में चंद्रगुप्त मौर्य के महान साम्राज्य में विलीन हो गया।
  16. शूरसेन: शूरसेन महाजनपद उत्तरी-भारत का प्रसिद्ध जनपद था जिसकी राजधानी मथुरा में थी। इस प्रदेश का नाम संभवत: मधुरापुरी (मथुरा) के शासक, लवणासुर के वधोपरान्त, शत्रुघ्न ने अपने पुत्र शूरसेन के नाम पर रखा था। शूरसेन ने पुरानी मथुरा के स्थान पर नई नगरी बसाई थी जिसका वर्णन वाल्मीकि रामायण के उत्तरकांड में है। महाभारत में शूरसेन-जनपद पर सहदेव की विजय का उल्लेख है।  विष्णु पुराण में शूरसेन के निवासियों को ही संभवत: शूर कहा गया है और इनका आभीरों के साथ उल्लेख है.
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विराट नगर का कलचुरी कालीन मंदिर


विराट नगर का कलचुरी कालीन मंदिर

नेपाल यात्रा प्रारंभ से पढें
इलाहाबाद से रीवा की ओर बढ चले। एकबारगी तो हमने तय किया कि रीवा से जबलपुर, कवर्धा होते हुए रायपुर पहुंचे और जबलपुर पहुंच कर गाड़ी का ब्रेक सीधे ही तोप कारखाने के सामने लगाया जाए।। प्राचीन एवं नवीन ब्लॉगर मिलन हो जाएगा। परन्तु उधर के भी रास्ते के खराब होने का समाचार मिला तो हमने जबलपुर जाने का इरादा त्याग दिया। इलाहाबाद से इज्जतगंज होते हुए हम रीवा की ओर बढे। रास्ते में ट्रैफ़िक कमोबेश पहले जैसा ही था। एक स्थान पर आने वाले मार्ग पर जाम लगा हुआ था और हम अपनी साईड में चल रहे थे। तभी हमारे सामने एक उड़ीसा नम्बर की गाड़ी आ गई। जबकि उसे दिख रहा था कि सामने से गाड़ी आ रही है। पाबला जी ने अपनी गाड़ी वहीं रोक ली और सड़क न छोड़ने की ठान ली।
हमारी गाड़ी रुकने से पीछे भी जाम लग रहा था। थोड़ी देर बार जीप वाला तो गाड़ी नीचे से उतार कर ले गया। उसके पीछे पीछे एक ट्रक वाला भी घुस गया। अब पाबला जी की खोपड़ी खराब हो गई। उन्होने ट्रक वाले को बगल से जाने कहा। ट्रक वाला कच्चे में गाड़ी उतारने को तैयार नहीं था और पाबला जी भी अपने स्थान से टस से मस होने को तैयार नहीं थे। गुस्से के मारे चेहरा तमतमा रहा था और आँखे लाल हो गई थी। मेरी बात का कोई जवाब नहीं दे रहे थे। अब जाम पूरी तरह से लग चुका था। मैं सोच रहा था कि अगर इस जाम में फ़ंस गए तो फ़िर 2-4 घंटे की फ़ुरसत। क्योंकि जाम हमारी गाड़ी के कारण ही लग रहा था। मैंने पाबला जी को बहुत मनाया तब कहीं जाकर वे गाड़ी सड़क से नीचे उतार कर आगे बढे। नहीं तो हो गया था पंगा।
मध्यप्रदेश की सीमा तक सड़क ठीक थी। जैसे ही हमने मध्यप्रदेश की सीमा में प्रवेश किया वैसे बड़े बड़े गड्ढों वाली सड़क से सामना हुआ। आगे बढने पर सड़क ही गायब हो गई थी। सिर्फ़ गड्ढे ही गड्ढे थे। रीवा से कुछ दूर पहले हमें एक ठीक ठाक होटल नजर आया। रात के 9 बज रहे थे। सोचा कि यहीं भोजन कर लिया जाए। होटल किसी भाजपानुमा नेता का था। मध्यप्रदेश पहुंच कर लगा कि हम घर ही पहुंच गए हैं क्योंकि मध्यप्रदेश हमारा बंटवारा भाई जो है। लेकिन यह नहीं सोचा था कि सड़क इतनी खराब होगी। भोजनोपरांत मैने पीछे की सीट संभाल ली और सो गया। अब रात को गाड़ी कहाँ कहाँ और कैसे-कैसे चली उसका मुझे पता नहीं।
सुबह शहडोल के पहले मेरी नींद खुली अर्थात हम अनूपपुर पेंड्रा वाले मार्ग पर थे। तभी सोहागपुर में एक मंदिर दिखाई दिया। स्थापत्य की शैली से दूर से ही कलचुरी कालीन मंदिर दिख रहा था। मैने तत्काल गाड़ी रुकवाई। जैसे मनचाही मुराद मिल गई हो। इस मंदिर को विराट मंदिर कहा जाता है। कहते हैं कि महाभारत में पांडवों के अज्ञातवास के दौरान जिस विराट नगर का वर्णन है वह यही विराट नगर है। यहाँ के सम्राट राजा विराट थे। समीप ही बाणगंगा में पाताल तोड़ अर्जुन कुंड स्थित है। शहडोल का पूर्व नाम सहस्त्र डोल बताया जाता है। कलचुरी राजाओं का राज जहाँ भी रहा उन्होने वहाँ सुंदर मंदिरों का निर्माण कराया है।
मंदिर प्रांगण में प्रवेश करने पर यह पीछे की तरफ़ झुका हुआ दिखाई देता है। आगे बढने पर एक केयर टेकर मिला। उसने बताया कि वह फ़ौज से अवकाश प्राप्त है। लेकिन उसके पास भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग का कोई परिचय पत्र नहीं था। उसने मुझसे कहा कि यहाँ फ़ोटो खींचने का 25 रुपए चार्ज लगता है तथा वह रसीद लेकर आ गया। मैने जब उसका मेन्युअल देखा तो उसमें वीडियो बनाने का चार्ज 25 रुपए लिखा था और फ़ोटो लेना फ़्री था। इस तरफ़ केयरटेकर पर्यटकों को ठग कर अतिरिक्त कमाई कर रहा है। गिरीश भैया और हम दोनो मंदिर के दर्शन करने के लिए आए और पाबला जी गेट के समीप ही रुक गए। उनके पैर की एडी में तकलीफ़ होने के कारण अधिक दूर चल नहीं पा रहे थे।
मंडप ढहने के कारण पुन: निर्मित दिखाई दे रहा था। केयर टेकर ने बताया कि 70 साल पहले मंदिर के सामने का हिस्सा धराशायी हो गया था, जिसे तत्कालीन रीवा नरेश गुलाबसिंह ने ठीक कराया था। उसके बाद ठाकुर साधूसिंह और इलाकेदार लाल राजेन्द्रसिंह ने भी मंदिर की देखरेख पर ध्यान दिया। अब यह मंदिर भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के अधीन है। मंदिर का मुख्य द्वार शिल्प की दृष्टि से उत्तम है। मुख्यद्वार के सिरदल पर मध्य में चतुर्भुजी विष्णु विराजित हैं। बांई ओर वीणावादिनी एवं दांई ओर बांया घुटना मोड़ कर बैठे हुए गणेश जी स्थापित हैं। मंदिर का वितान भग्न होने के कारण उसमें बनाई गई शिल्पकारी गायब है।
मंदिर के गर्भ गृह में शिवलिंग स्थापित है। जिसकी ऊंचाई लगभग 8 इंच होगी तथा जलहरी निर्मित है एवं तांबे के एक फ़णीनाग भी शिवलिंग पर विराजित हैं। यह मंदिर सतत पूजित है। जब मैने गर्भ गृह में प्रवेश किया तो कुछ महिलाएं पूजा कर रही थी। मंदिर के शिखर पर आमलक एवं कलश मौजूद है। बाहरी भित्तियों पर सुंदर प्रतिमाएं लगी हुई है। दांई ओर की दीवाल पर वीणावादनी, पीछे की भित्ती पर शंख, चक्र, पद्म, गदाधारी विष्णु तथा बांई ओर स्थानक मुद्रा में ब्रम्हा दिखाई देते हैं। साथ ही स्थानक मुद्रा में नंदीराज, गांडीवधारी प्रत्यंचा चढाए अर्जुन, उमामहेश्वर, वरद मुद्रा में गणपति तथा विभिन्न तरह का व्यालांकन भी दिखाई देता है।
मिथुन मूर्तियों के अंकन की दृष्टि से भी यह मंदिर समृद्ध है। उन्मत्त नायक नायिका कामकला के विभिन्न आसनों को प्रदर्शित करते हैं। इन कामकेलि आसनों को देख कर मुझे आश्चर्य होता है कि काम को क्रीड़ा के रुप में लेकर उन्मुक्त केलि की जाती थी। यहाँ मैथुनरत स्त्री के साथ दाढी वाला पुरुष दिखाई देता है। इससे जाहिर होता है कि यह स्थान शैव तंत्र के लिए भी प्रसिद्ध रहा होगा। प्रतिमाओं में प्रदर्शित मैथुनरत पुरुष कापालिक है। कापालिक वाममार्गी तांत्रिक होते हैं। वे पंच मकारों को धारण करते हैं – मद्यं, मांसं, मीनं, मुद्रां, मैथुनं एव च। ऐते पंचमकार: स्योर्मोक्षदे युगे युगे। कापालिक मान्यता है कि जिस तरह ब्रह्मा के मुख से चार वेद निकले, उसी तरह तंत्र की उत्पत्ति भोले भंडारी के श्रीमुख से हुई। इसलिए कापालिक शैवोपासना करते हैं।
ज्ञात इतिहास के अनुसार उन्तिवाटिका ताम्रलेख के अनुसार जिला का पूर्वी भाग, विशेषकर सोहागपुर के आसपास का भाग लगभग सातवी शताब्दी में मानपुर नामक स्थान के राष्ट्रकूट वंशीय राजा अभिमन्यु के अधिकार में था. उदय वर्मा के भोपाल शिलालेख में ई. सन् 1199 में विन्ध्य मंडल में नर्मदापुर प्रतिजागरणक के ग्राम गुनौरा के दान में दिये जाने का उल्लेख है. इससे तथा देवपाल देव (ई. सन् 1208) के हरसूद शिलालेख से यह पता उल्लेख है कि जिले के मध्य तथा पश्चिमी भागों पर धार के राजाओं का अधिकार था. गंजाल के पूर्व में स्थित सिवनी-मालवा होशंगाबाद तथा सोहागपुर तहसीलों में आने वाली शेष रियासतों पर धीरे-धीरे ई.सन् 1740 तथा 1755 के मध्य नागपुर के भोंसला राजा का अधिकार होता गया. भंवरगढ़ के उसके सूबेदार बेनीसिंह ने 1796 में होशंगाबाद के किले पर भी अधिकार कर लिया. 1802 से 1808 तक होशंगाबाद तथा सिवनी पर भोपाल के नबाव का अधिकार हो गया, किंतु 1808 में नागपुर के भोंसला राजा ने अंतत: उस पर पुन: अधिकार कर लिया।
वर्ष 1817 के अंतिम अंग्रेज-मराठा युध्द में होशंगाबाद पर अंग्रेजों का अधिकार हो गया तथा उसे सन् 1818 में अप्पा साहेब भोंसला द्वारा किए गए अस्थायी करार के अधीन रखा गया. सन् 1820 में भोंसला तथा पेशवा द्वारा अर्पित जिले सागर, तथा नर्मदा भू-भाग के नाम से समेकित कर दिए गए तथा उन्हें गवर्नर जनरल के एजेंट के अधीन रखा गया, जो जबलपुर में रहता था. उस समय होशंगाबाद जिले में सोहागपुर से लेकर गंजाल नदी तक का क्षेत्र सम्मिलित था तथा हरदा और हंडिया सिंधिया के पास थे. सन् 1835 से 1842 तक होशंगाबाद, बैतूल तथा नरसिंहपुर जिले एक साथ सम्मिलित थे, और उनका मुख्यालय होशंगाबाद था. 1842 के बुंदेला विद्रोह के परिणाम स्वरूप उन्हें पहले की तरह पुन: तीन जिलों में विभक्त कर दिया गया।
इस मंदिर के आस पास कई छतरियाँ (मृतक स्मारक) बनी दिखाई देती हैं। मंदिर के मंडप में अन्य स्थानों से प्राप्त कई प्रतिमाएं रखी हुई हैं। जिनमें पद्मासनस्थ बुद्ध की मूर्ति भी सम्मिलित है। मंदिर का अधिष्ठान भी क्षरित हो चुका है। इसका सरंक्षण जारी दिखाई दिया। विराट मंदिर के दर्शन करके मन प्रसन्न हो गया। कलचुरीकालीन गौरव का प्रतीक विराट मंदिर सहस्त्र वर्ष बीत जाने पर भी गर्व से सीना तानकर आसमान से टक्कर ले रहा है। अगर इसका संरक्षण कार्य ढंग से नहीं हुआ तो यह ऐतिहासिक धरोधर धूल में मिल सकती है। यहाँ से हम अपने मार्ग पर चल पड़े।
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विराट नगर


विराट नगर – अल्पज्ञात आश्चर्यों की भूमि

विराट नगर एक उभरता पर्यटन स्‍थल है जो राजस्‍थान की पिंक सिटी, जयपुर से 75 किमी. दूर स्थित है। यह जगह वैराट के नाम से भी लोकप्रिय है और मशहूर पर्यटन स्‍थलों सिलीसेरह, अजबगढ़ – भानगढ़ और अलवर के आसपास के क्षेत्र में स्थित है। इस जगह के नाम विराट नगर से इसके महान महाकाव्‍य महाभारत के उम्र जितना प्राचीन होने का पता लगाया जा सकता है। पौराणिक कथाओं के अनुसार, इस जगह को राजा विराट के द्वारा स्‍थापित किया गया था, उनके राज्‍यकाल में पांडवों ने अपने निर्वासन की एक साल की अवधि ( अज्ञातवास ) को यहीं बिताया था।

इतिहास में विराट नगर

इतिहास से पता चलता है कि यह जगह, महाजनपद की राजधानी या प्राचीन राज्‍य हुआ करता था, जिसे 5 वीं सदी में चेदी शासकों द्वारा कब्‍जा कर लिया गया और बाद में यह मौर्य राज्‍य का एक हिस्‍सा बन गया। विराट नगर के इतिहास को धन्‍यवाद, क्‍यूंकि पर्यटक यहां आकर अशोकशिलालेख भी देख सकते हैं। यहां एक प्राचीन पत्‍थर भी है जो मौर्य शासक अशोक के काल का है, इस पत्‍थर पर उन्‍होने अपने राज्‍य के कानूनों, सलाह और घोषणाओं को खुदवाया था।

विराट नगर के आकर्षण

विराट नगर में छुट्टी की योजना बनाने वाले पर्यटक, यहां आकर विभिन्‍न पहाडियों के अंदर स्थित प्रागैतिहासिक काल की गुफाएं देख सकते हैं। इन गुफाओं के अलावा, भीम की डुंगरी और पांडु हिल्‍स भी इस प्रसिद्ध पर्यटन स्‍थल के आकर्षण हैं। यह एक काफी बड़ी गुफा है, जिसके बारे में माना जाता है कि यहां पांडवों में से एक पांडव भीम ने निवास किया था। यहां कुछ छोटे कमरे हैं,जो नजदीक में ही स्थित है यह कमरे शायद उनके अन्‍य चार भाइयों के लिए होगें।

बीजक की पहाड़ी भी विराट नगर का एक अन्‍य लोकप्रिय पर्यटन केंद्र है। पर्यटक यहां आकर बौद्ध मठ के प्राचीन अवशेष देख सकते हैं। इसके अलावा, गणेशगिरि मंदिर और संग्रहालय, जैन नासिया,और जैन मंदिर भी विराट नगर के अन्‍य महत्‍वपूर्ण पर्यटन आकर्षण हैं।

विराट नगर पहुंचना

विराट नगर, वायु, रेल और सड़क मार्ग से पहुंचा जा सकता है। विराट नगर का नजदीकी हवाई अड्डा जयपुर का सांगानेर एयरपोर्ट है। पर्यटक, विराट नगर जाने के लिए जयपुर रेलवे स्‍टेशन पर उतरें। विराट नगर के लिए एयरपोर्ट और रेलवे स्‍टेशन दोनों ही जगह से कैब की सुविधा उपलब्‍ध है। पर्यटक, भारत के कई हिस्‍सों से विराट नगर तक फ्लाइट और ट्रेन से आसानी से पहुंच सकते हैं,जयपुर हवाई अड्डा और रेलवे स्‍टेशन दोनों ही भारत के प्रमुख गंतव्‍य स्‍थलों जैसे- कलकत्‍ता, मुम्‍बई, दिल्‍ली और चेन्‍नई से भली – भांति जुड़े हुए हैं।जयपुर से शानदार बसें भी विराट नगर के लिए चलती हैं और पर्यटक यहां से विराट नगर के लिए कैब भी बुक करा सकते हैं।

विराट नगर की जलवायु

विराट नगर की जलवायु, गर्मियों में भी उतने ही चरम पर होती है जितनी सर्दियों में। गर्मियों के दौरान यहां भयंकर गर्मी पड़ती है जबकि सर्दी के दौरान यहां का मौसम काफी सर्द होता है और न्‍यूनतम तापमान 5 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच जाता है। विराट नगर की सैर की योजना बना रहे पर्यटकों को सलाह दी जाती है कि वह मार्च और अक्‍टूबर महीने में यहां का भ्रमण करें, इन महीनों में मौसम सहज रहता है।

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हम लोगों को जो झुटा इतिहास पढाया जाता हैं इसलिए की ताकि हमे गुलामी की आदत पड़ जाय | येही पढ़ते हैं हम हमेशा की


हम लोगों को जो झुटा इतिहास पढाया जाता हैं इसलिए की ताकि हमे गुलामी की आदत पड़ जाय |
येही पढ़ते हैं हम हमेशा की
मुगलों ने ४०० साल राज किया, गौरी गजनवी आये, और हमारे मंदिर लूट कर चले गये…!

अरे मैं कहता हूँ———>

जला डालो ऐसी किताबो को ..
जहा ये लिखा है की अकबर महान
था,

फाड़ दो उन पृष्ठों को जो कहते है
की बाबर बहुत शक्तिशाली था,

फेंक दो उन दस्तावेजो को जो कहते
है की औरंगजेब ने लाखो कश्मीरी पंडितो के जनेऊ उतरवाए पर किसी हिन्दू ने प्रतिकार नहीं किया,

1.) अफगानिस्तान के अटक से लेके कटक तक और दक्षिण से दिल्ली तक मुस्लीम सत्ता को हिंदू वीरो ने महावीरो ने परास्त कर चूर चूर कर दिया |

ये इतिहास गांधी-नेहरू जैसे असुर तुमको कभी नही बतायेंगे….

2.) अफगाणिस्तान पर आक्रमण करके मराठा सेना ने ४५०००/-
पठानो को काट फेका और ८०० वर्षो बाद गांधार पर भगवा झंडा लहराया .

3.)सोमनाथ मंदिर तोड़ने वाला भी कुत्ते की तरह टुकड़े टुकड़े कर के चील गिद्धों को खिला दिया गया इसी देश मैं यह कोई नहीं बताएगा

4.) शिवाजी महाराज के सेनापति हम्बिराव ने ३ घंटे मैं ६०० मुल्लो को काट डाला था यह कोई नहीं बताएगा ||

5.) दिल्ली का गौरी शंकर मंदिर आज भी उस वीर हिदू गाथा का गवाह है जब वीर हिन्दू नायक बाजी राव पेशवा प्रथम ने मुगलों की ईंट से ईंट
बजा कर दिल्ली पर भगवा झंडा फहराया था और 800 पुराने गौरी शंकर मंदिर का पुनर्निर्माण करवाया था….!

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विराट नगर – पांडव अज्ञातवास का साक्षी,


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काल चक्र अनंत है, अंतहीन है और घटनाए इसी काल चक्र की धुरी पर भागती दौड़ती रहती है। कई प्रमाणित हो जाती है तो कई कालांतर में विलुप्त हो जाती है। इन्ही घटनाओ की क्रमबद्ध सूचि को कुछ लोग इतिहास कहते है। मैं ऐसे ही किसी एक घटनाचक्र के बारे में काफी दिनों से सोच रहा था। उस घटनाक्रम के चरित्रों एंव पात्रो के बारे में अधिक जानकारी प्राप्त करने के लिए व्याकुल होने लगा था। इस घटनाक्रम की कड़ी जयपुर से लगभग 90 कि. मी. की दूरी पर अरावली पर्वत श्रंखला की सुन्दर और मनमोहक घाटियों के बीच में स्थित विराट नगरीमें अतीत के दस्तावेजो में दर्ज है ।

यह नगरी प्राचीन काल में मत्स्य देश की राजधानी हुआ करती थी। आज भी राजस्थान में बहुत लोग अलवर, दौसा और जयपुर के कुछ क्षेत्रो को मत्स्य भू खंड का ही हिस्सा मानते है। वैदिक काल में मत्स्य देश की गणना 16 महाजनपदो में की जाती थी। प्राचीन भारत में राज्यों और प्रशासनिक इकाईयो को महाजनपद कहा जाता था। महाजनपद पर राजा का ही आधिपत्य रहता था (Monarchy) ,इनसे कुछ विपरीत थे गण राज्य (Republic States) जहाँ लोगो का समूह या एक संघ राज्य किया करता था और देश के सर्वोच्च पद पर आम जनता में से कोई भी पदासीन हो सकता था।प्राचीन यूनान (ग्रीस ) में गण राज्यों का खासा प्रचलन था। प्राचीन भारतीय वैदिक काल के कुछ प्रसिद्ध महाजनपद थे मगध (आधुनिक भारत का पटना), अवन्ती (आज का उज्जैन), कोशल (आज का अयोध्या या फैजाबाद ) इत्यादि। महाजनपदो का प्रचलन और अस्तित्व छठी सदी ईसा पूर्व (6th Century BC) से लेकर तीसरी सदी ईसा पूर्व (3rd Century BC) तक का ही माना गया है। इस काल में लोहे का अत्यधिक प्रयोग होने लग गया था। सिक्के बनाने के लिए टकसालो का भी निर्माण होना प्रारंभ हो गया था। यही वो समय था जब बोद्ध और जैन विचार धाराओ का उद्गम हुआ जिसका प्रचार प्रसार करने के लिए कई जनपदों ने सहर्ष योगदान दिया। ऐसा माना जाता है की माहाभारत काल में इस राज्य के स्वामी महाराजा विराट हुआ करते थे लेकिन इसका कोई प्रमाण पुराविदो को आज तक प्राप्त नहीं हो पाया है। कहा जाता है की पांडवो ने अपने अज्ञातवास के लिए इसी जगह का चुनाव किया था और अपना भेष बदलकर यहाँ एक वर्ष तक जीवन यापन करने लगे थे ।

लगभग  2500 साल पुराना सम्राट अशोक द्वारा बनवाया गया बुद्ध स्तूप

विराट नगर हमारी सभ्यता की कई पौराणिक धरोहरों को अपने अन्दर संजोये इतिहास के धूमिल हुए पन्नो में अपना स्थान आज भी तलाश रहा है। मैंने इन्ही पन्नो पर से कुछ धूल साफ़ करने की चेष्ठा हेतु विराट नगर जाने का निश्चय किया। मुझे इस बात की काफी प्रसन्नता है की अप्रैल माह में मैंने विराट नगर जाकर वहां की कुछ अनमोल ऐतिहासिक धरोहरों को जानने में थोड़ी बहुत सफलता प्राप्त कर ली।

जयपुर मार्ग से विराट नगर आने पर
जयपुर से राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या 8 (National Highway-8) से शाहपुरा पहुँचने के बाद कुछ ही दूर 5-8 km पर एक पेट्रोल पंप दिखाई देता है। इस स्थान से एक सड़क –राज्य पथ संख्या .13(Rajasthan State Highway SH-13) दाहिने ओर अलवर की तरफ जा रही है।यहाँ से करीब 25 कि . मी पर स्थित है विराट नगर।इसी सड़क से सरिस्का अभ्यारण भी जाया जा सकता है जो विराट नगर से करीब 20 KM आगे स्थित है।
जयपुर से शाहपुरा तक का रास्ता है (65 KM) और शाहपुरा से विराट नगर (25 KM). जयपुर से विराट नगर जाने का मार्ग नीचे दिया गया है।

NH – 8 —> जयपुर >>अचरोल >> चंदवाजी >>शाहपुरा —– (दाहिने ) SH-13 से —-> जोगीपुरा >> जवानपुरा >> धौली कोठी >> बील्वाड़ी >> विराट नगर >> थानागाजी >> सरिस्का बाघ अभ्यारण >>भर्तहरी >>अकबरपुर >> अलवर .

 

दिल्ली मार्ग से विराट नगर आने पर
दिल्ली से शाहपुरा की दूरी करीब 201 KM है और वहां से विराट नगर की दूरी 25 KM है।

NH – 8 —> दिल्ली >>गुडगाँव >>शाहजहांपुर >>बहरोड़ >>कोटपुतली >>शाहपुरा —(बाएं मुड़कर ) SH-13 पर मुड़ कर उपरोक्त दिए गए मार्ग तो प्रशस्त करे और विराट नगर पहुंचे।

यदि कोई ट्रेन से आना चाहे तो उसे जयपुर की बजाय अलवर उतरकर आना चाहिए क्यूंकि दिल्ली से जयपुर जाने वाली हर ट्रेन अलवर होकर ही निकलती है। ऐसा में इसलिए कह रहा हूँ क्यूंकि जितनी देर में वो जयपुर पहुंचकर विराट नगर की तरफ सड़क यातायात से जायेगा उस से कम समय में वो अलवर से विराट नगर पहुँच जायेगा।

अगर कोई ट्रेन पकड़कर दिल्ली से जयपुर उतरकर आये तो उसे ज्यादा समय लगेगा। इसका विवरण नीचे दिया गया है:
दिल्ली से जयपुर 265 KM
जयपुर से विराट नगर90 KM ,कुल मिलकर 315 KM.

दिल्ली से विराट नगर जाने के लिए एक और सुगम सड़क है जिसको में कई बार आजमा चुका हूँ।इसका विवरण इस प्रकार है।
NH- 8 —>दिल्ली >>गुडगाँव >>धारूहेड़ा >>(बाएं मुड़कर) SH-25 से —–>भिवाड़ी >>टपूकड़ा >>तिजारा >> अलवर . यह सड़क चार लेन की है और बहुत अच्छी हालत में है।
दिल्ली से अलवर155 KM
अलवर से विराट नगर60 KM कुल मिलाकर 215 KM.

जयपुर से विराट नगर के लिए सुबह सात बजे वाली बस मैं बैठकर 9 बजे पहुँच गया। विराट नगर जाने का मेरा केवल एक ही उद्देश्य था और वो था बीजक की पहाड़ी पर बना हुआ करीब 2500 हज़ार साल पुराना बोद्ध स्तूप। यह एतिहासिक स्मारक विराट नगर बस स्टैंड से करीब ३ कि .मी की दूरी पर एक ऊंची पहाड़ी के ऊपर बने एक समतल धरातल पर स्थित है। इस पहाड़ी पर तीन समतल धरातल है। सबसे पहले वाले पर एक विशाल शिला प्राकृतिक रूप से विद्यमान है जिसका स्वरूप एक डायनासोर की तरह प्रतीत होता है।

डायनासोर\रुपी चट्टान और उसके नीचे बना हनुमान मंदिर

 .

उसे चारो और से देखने से वो बिल्कुल उस भयंकर पुरातत्व जीव की तरह दिखाई देता है। इस शिला के नीचे एक छोटा सा हनुमान मंदिर बनाया गया है जिसका कोई एतिहासिक तथ्य मौजूद नहीं है।

दूसरे समतल धरातल पर स्थित है तीसरी सदी इसा पूर्व (3rd Century BC) के समय में सम्राट अशोक के द्वारा बनवाया गया एक भव्य बोद्ध स्तूप जो अब अपने अंतिम अवशेषों को समेटे धराशायी सा प्रतीत होता है।

बीजक की पहाड़ी पर स्थित बुद्ध का स्तूप एंव चैत्य गृह ... इन सीढ़ियों से ऊपर का रास्ता बोद्ध भिक्षुओ के लिए बने विहार की तरफ जाता है

उस समय विराट नगरी पर मौर्य वंश का आधिपत्य था और यह मगध साम्राज्य के अधीन एक जनपद बन गया था। मौर्य वंश का पतन भी सम्राट अशोक के निधन के बाद ज़ल्दी ही हो गया था।सम्राट अशोक का उत्तराधिकारी अयोग्य था और उसका प्रपौत्र दशरथ अपने ही सेनापति पुष्यमित्र शूंग के हाथों मारा गया था पुष्यमित्र ने शूंग राजवंश की स्थापना की और इस तरह मौर्य वंश का करुण अंत हुआ।
यह स्तूप अब भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (Archaeological Survey Of India) के अधीन है .इसका उत्खनन इसवी 1935 मैं किया गया था। ऐसा माना जाता है की इस स्तूप की दुर्गति के पीछे पुष्यमित्र शूंग का हाथ है और बाद में हूण राजवंश ,या सेंट्रल एशिया या एशिया माइनर से आये थे , ने लगभग पांचवी शताब्दी इसवी (5th Century A.D)में इस स्तूप के लकड़ी के स्तम्भ जलाकर पूरी तरह से ध्वस्त कर दिया। हूणों ने गुप्त वंश को परास्त कर कुछ समय तक उत्तर और पश्चिम भारत पर अपना आधिपत्य कायम किया था।

वास्तविक रूप से स्तूप ऐसे मिट्टी या ईंटो के गुम्बदाकार टीले होते है जो महापुरुषों (उदाहरण के रूप में महात्मा बुद्ध ), की मृत्यु के उपरांत उनके भस्म अवशेषो को भूमि के नीचे गाढ़कर एक स्मारक के रूप में निर्मित किये जाते थे।ऐसा माना जाता है की मध्य प्रदेश में स्थित विश्व विख्यात साँची स्तूप और बीजक की पहाड़ी का यह स्तूप एक दूसरे के समकालीन है जिनका निर्माण मौर्य काल में सम्राट अशोक ने ही करवाया था। हनुमान मंदिर और उस विशाल शिला से कुछ चालीस फुट ऊपर हैं दूसरा समतल मैदान जिसके मध्य में ईंटो की सहायता से निर्मित एक सात फीट चोडी गोलाकार परिक्रमा या प्रदक्षिणा है जो एक आयताकार (Rectangular) जगती (Platform) पर बनी हुई है। इस प्रदक्षिणा के इर्द गिर्द भक्त गण चक्कर लगाया करते थे। इसका व्यास(Diameter) 8.23 मीटर है जिसमे एकांतर में26 अष्ठ कोणीय (Octagonal) लकड़ी के स्तम्भ भी थे जो आज नहीं रहे। इन्ही स्तम्भों की सहायता से स्तूप के ऊपर बना गोलाकार गुम्बद कायम था।

चैत्य गृह के समीप बनी परिक्रमा और अष्ठ कोणीय (26 Octagonal Pillars)  स्तम्भों  के सांचे

यह चैत्य जिसके चारो और यह गोलाकार परिक्रमा थी वो एक आयताकार चार दिवारी से घिरा हुआ था।लेकिन आज इस चारदीवारी का कोई भी अवशेष नहीं बचा और न उस गोलाकार गुम्बद का। बोद्ध धर्म में मूर्ति पूजा का कोई विधान नहीं था इसलिए बुद्ध के प्रतीक रूप में यह स्तूप ही पूजे जाते थे। इन्ही स्तुपो को चैत्य गृह भी कहा जाता था।

तीसरे समतल मैदान पर बना बोद्ध भिक्षुओ के लिए बने आयताकार  विहार (कक्ष)

संभवतः ऐसा कहना अनुचित नहीं होगा की मौर्य राजवंश की बोद्ध धर्म के प्रति सहिष्णुता उस काल के ब्राह्मण समाज को नागवार गुजर रही थी।क्यूंकि बोद्ध विचारधारा वैदिक समाज की नीतियों और रीतियों से बिल्कुल विपरीत थी। जिसके फलस्वरूप मौर्य राजवंश का पतन हुआ और बोद्ध धर्म के यह विभिन्न स्मारक महज ध्वंसावशेष बनकर रह गए।

इस स्थल से 30 या 40 फीट की ऊंचाई पर तीसरा समतल मैदान है जहाँ बोद्ध भिक्षुओ के लिए रहने की व्यवस्था की गयी थी। सारे शयन कक्ष वर्गाकार(Square) है और एक दुसरे से जुड़े है। सभी शयन कक्षों के समीप पानी के निकास के लिए नालियाँ बनाई गयी थी।बोद्ध परंपरा के अनुसार इन्हें विहार(Monastery) कहाँ जाता था। सीधी साधी भाषा में कहे तो यह छात्रावास या होस्टल । यहाँ मेरी भेंट एक सज्जन से हुई जो भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण में कार्यरत है और इस स्मारक की देख रेख करते है। उनका नाम है लहिरी राम जी मीणा। यह मेरी आगे की यात्रा में कुछ समय तक सहायक सिद्ध हुए। गर्मी बहुत तेज़ थी लेकिन हवा का प्रवाह शीतल था।

वहां से अरावली पर्वत माला के विराट शिखर दिखाई दे रहे थे। दूर दूर तक सिर्फ प्राकृतिक सुन्दरता का ही साम्राज्य फैला हुआ था।बीजक की पहाड़ी की भोगोलिक रचना ने मुझे बहुत विस्मित किया क्यूंकि यहाँ पर पहाड़ो पर बड़ी बड़ी चट्टानें और पत्थर यदा कदा बिखरे पड़े है। समस्त अरावली पर्वत श्रंखला में इस तरह की रचना बहुत कम ही देखने को मिलती है और खासकर अलवर,जयपुर से सटी पर्वत माला में इस तरह की रचना कहीं देखने को नहीं मिलेगी। जालोर ,सिरोही या ब्यावर की तरफ इस तरह की भोगोलिक रचना जरूर दिखाई देती है। इन पाषाणों की बिखरे स्वरूप को देखकर ऐसा प्रतीत होता है जैसे किसी ने अपने हाथों से इनको उछालकर इस तरह बिखेर दिया हो। शायद ये सब भीम के क्रोध का परिणाम होगा जब उसने कीचक का वध किया था।लेकिन ये सब लोक कथाओ तक ही प्रतिबंधित सोच है जिसका कोई प्रमाणिक तथ्य पुराविदो अभी तक नहीं मिल पाया है। लाहिरी राम जी से यही सारी बातें करते हुए मैं सहसा सोचने लगा की जहाँ मैं आज बैठा हूँ वहां कभी सम्राट अशोक ने अपने कदम रखे होंगे और महात्मा बुद्ध के अनुयायियों ने यहाँ विराजमान होकर जन साधारण का मार्ग दर्शन किया होगा। लाहिरी राम जी ने मुझे राजस्थान के कई दर्शनीय स्थलों को घूमने के सुझाव भी दिया। उन्होंने मुझे बताया की इस पहाड़ी से कुछ दूर नीचे पत्थरों पर कुछ आदिवासी शैलचित्र (Rock Paintings) भी मौजूद है।

लाहिरी राम जी मीणा जो  (भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ) में कार्यरत है

एक हिरण  की सी आकृति वाला शैल चित्र

“शेखावत जी आप देखना चाहोगे क्या ?” – लहिरी राम जी ने मुझसे पूछा।।। सुनते ही में झट से मान गया और मन ही मन में सोचने लगा की ‘प्यारे ये तो सोने पे सुहाग हो गया। अच्छा सरप्राइज मिला तुझे यहाँ ‘। करीब 200 से 300 फुट नीचे हमने कई शैलचित्र देखे जो उन शिलाओ पर कोरे गए थे । ये चित्रकारी प्राकृतिक रंगों में किसी जीव की चर्बी को मिलकर बनाई गयी है। चर्बी के उपयोग से चित्रकारी उभर कर नज़र आती है और ज्यादा सुरक्षित रहती है। इसके बारे में वह कोई भी जानकारी देने में असमर्थ नज़र आ रहे थे । मेरे पूछने पर उन्होंने बताया की शायाद किसी आदिवासी जाती ने कभी इस जगह को अपने आवास के लिए चुना होगा, लेकिन उनके उत्तर से में संतुष्ट नहीं था।

में लाहिरी राम जी से कह रहा  था ज़ूम प्लीज ...

किसी जानवर की खोपड़ी सी प्रतीत होती एक शिला जिसके नीचे एक छोटी सी गुफा बनी हुई है

उन्होंने मुझे बताया की इस चैत्य और विहार के सारे अवशेष जैसे मिट्टी के बने पात्र, सिक्के, मूर्तियाँ और महात्मा बुद्ध के भस्म अवशेषों इत्यादि को एक संग्रहालय में सुरक्षित रखा गया है। इस संग्रहालय (Museum) का संचालन “पर्यटन,कला एंव संस्कृति विभाग,राजस्थान सरकार” कर रही है। यह संग्रहालय गणेश डूंगरी के नीचे तलहटी में, विराट नगर बस स्टैंड से करीब 2 कि .मी की दूरी पर स्तिथ है। राजस्थानी भाषा में छोटी पहाड़ी को डूंगरी कहते है। बीजक की पहाड़ी से एक छोटा रास्ता संग्रहालय की ओर जाता है। हमने इसी रास्ते को चुन कर जाने का निर्णय किया।

"अरे भाईसाब दरवाज़ा क्यूँ बंद कर रहे हो "??? मैंने पूछा --- "छोटा दरवाज़ा खुला है न सर आपके लिए "

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सम्राट अशोक के विराट नगर में दो शिलालेख मिलने की बात पता चलती है। पहला है भाब्रू शिलालेख जिसका सिर्फ एक चित्र यहाँ इस संग्रहालय में मौजूद है।यह पाली और ब्राह्मी लिपि में लिखा गया था। यह शिलालेख सम्राट अशोक के बौद्ध धर्म को स्वीकार लेने की पुष्टि करता है और इस बात का प्रमुख प्रमाण साबित हुआ है।

भाब्रू  शिलालेख जो पाली भाषा  में लिखा गया है ...यह उसका फोटू है

ब्रिटिशकाल के एक कैप्टेन बर्ट ने इसवी 1837 में विराट नगर से कुछ दूर भाब्रू गाँव से सम्राट अशोक के इस शिलालेख को खोज निकाला था। इसके नष्ट हो जाने के डर से कैप्टेन ने बड़ी सावधानी से इस शिलालेख को चट्टान से अलग काटकर विभाजित करवाया। माना जाता है की यह शिलालेख बीजक की पहाड़ी से ही प्राप्त हुआ था, जो कालांतर में भाब्रू पहुँच गया। कैप्टेन बर्ट इसे कोलकाता ले गए और वहां ये अभिलेख बंगाल एशियाटिक सोसाइटी के भवन में स्थापित किया गया है।इसी कारण से यह शिलालेख भब्रू बैराठ कोलकाता अभिलेख के नाम से भी जाना जाता है।

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मौर्य कालीन सिक्के

दूसरा अशोक शिलालेख, जो इस संगहालय से करीब 5-6 कि .मी की दूरी पर स्थित है, का रास्ता शहर से होकर मुग़ल गेट के समीप है।लाहिरी राम जी का और मेरा इतना ही साथ था।

मेरा दूसरा पड़ाव है मुग़ल दरवाजा जो मध्य कालीन विराट नगर के प्रभुत्व को बड़ी अच्छी तरह से दर्शाता है। इसके लिए मैंने विराट नगर बस स्टैंड से चलना शुरू किया।लोगों ने मुझे सलाह दी की मैं पावटा जाने वाली बस में बैठ कर मुग़ल गेट चला जाऊ। लेकिन बस का इंतज़ार करना मुझे पसंद नहीं।जितनी देर में बस आएगी उतनी देर में मैं चल कर ही पहुँच जाऊँगा, ऐसा सोचकर में चलने लगा। इसी बहाने मुझे विराट नगर शहर को भी नज़दीक से देखने का मौका मिल रहा था। मेरा यह निर्णय काफी उचित सिद्ध हुआ क्यूंकि इसी बहाने मेरी भेंट एक ऐसे व्यक्ति से हुई जिन्होंने मुझे बादशाह अकबर के उन महलो के बारे में विस्तृत जानकारी प्रदान की। शहर में काफी दूर चलते चलते एक तिराया आया और वहां में कुछ भ्रमित हो गया और सोचने लगा की किस रास्ते से जाऊं। तभी आगे एक दुकान दिखाई दी।

प्रह्लाद वल्लभ जी पंच महला के मुख्य प्रवेश  के सामने

मैंने वहां जाकर दुकान मैं बैठे सज्जन से मुग़ल दरवाज़ा जाने का रास्ता पुछा। उन सज्जन का नाम प्रह्लाद वल्लभ है , जो स्वयं विराट नगर के इतिहास में अप्रतिम अभिरुचि रखते जान पड़ते है।जब उन्हें पता चला की मैं ब्लॉग लिखता हूँ तो उन्होंने मेरा बहुत अच्छा सत्कार किया और उन्होंने स्वयं मुझे मुग़ल दरवाज़ा दिखाने का निर्णय किया। उन्होंने मुझे मुग़ल दरवाज़े से जुड़े सारे एतिहासिक वृत्तांत काफी सुलभता से समझा दिये। आजकल प्रह्लाद जी राजस्थानी भाषा को संवैधानिक मान्यता दिलाने वाले आन्दोलन में जुटे हुए है। वह राजस्थानी साहित्य में डिंगल पिंगल शैली पर भी शोध कर रहे हैं। राजस्थान के चारण कवियों ने अपने गीतों के लिए जिस साहित्यिक शैली का प्रयोग किया है,उसे डिंगल पिंगल कहते है।

प्रह्लाद जी से संपर्क करने के लिए उनका मोबाइल नंबर यह रहा – 08233536217 करीब बीस मिनट में हम मुग़ल दरवाज़ा /गेट पहुँच गए।

मुग़ल गेट/दरवाज़ा एक बहुत सुन्दर भवन है जिसका निर्माण आमेर के कछावा वंश के महाराजा मान सिंह ने करवाया था। यह उस समय की बात है जब कछावा या कछवाह वंश के राजपूतों की राजधानी आमेर हुआ करती थी। 17 वी शताब्दी में कछावा राजवंश की राजधानी आमेर से जयपुर हो गयी थी। कछावा राजवंश अपनी उत्पति अयोध्या नरेश सूर्यवंशी श्री राम के ज्येष्ठ पुत्र कुश से पाते है। इसका निर्माण बादशाह अकबर के विश्राम गृह के रूप में करवाया गया था। अजमेर में मोईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह जाते समय अकबर विराट नगर के इसी भवन में विश्राम करने के लिए और कभी कभी आखेट करने के लिए रुका करता था। महाराजा मान सिंह ने बादशाह के स्वागत हेतु तीन भवनों का निर्माण किया जिनके नाम है पंच महला,चौ महला और नौ महला।

महल जिसके बीच में मुख्य प्रवेश द्वार एक गुम्बदाकार हाल में खुलता है ....इस चबूतरे के नीचे घुडसाल बनी है… दूसरी मंजिल पर चारो और कक्ष बने है जिनका आतंरिक प्रवेश हाल में खुलता है ...इन कक्षों में सुन्दर गवाक्ष बने हुए है ..और छत पर पांच सुन्दर छतरियां बनी हुई है

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चबूतरे के नीचे बनी घुडसाल

पंच महला वो भवन था जो बादशाह के आवास के लिए बनाया गया था और इसे पंच महला इसलिए कहा जाता है क्यूंकि इस भवन के ऊपर पांच छतरियाँ बहुत ही सुन्दर ढंग से सुस्सजित है। इसमें चारो कोनो पर चार छतरियाँ का और बीच में एक विशाल छतरी का निर्माण किया गया है। इस महल की एकमात्र विशेषता है इसकी दीवारों पर किये गए भित्ति चित्र। यह भवन देखने में ताजमहल की तरह लगता है परन्तु इसमें ताज महल की तरह चारो ओर मीनारे नहीं बनी हुई है। यह भवन एक एक बहुत बड़े चबूतरे पर बना हुआ है जिसके नीचे एक घुडसाल भी बनाई गयी थी। इस भवन के दरवाजों की ऊंचाई मुग़ल कालीन शैली के अनुसार काफी कम आकर में बनी है। मुख्य प्रवेश से एक बड़ा गुम्बदाकार हाल में जाया जा सकता है इस हाल की दीवारों पर हिंदी एंव फारसी में लिखे कई लेख मिल जाते है जो धूल एंव समय के कारण कुछ अस्पष्ट नज़र आ रहे है।

अरबी और हिंदी के लेख जो दीवारों पर उकेरे गए है

यहीं पर उत्तर की दीवारों पर इसवी 1620 का लेख भी मिलता है जिससे यह स्पष्ट होता है की यहाँ से मुग़ल साम्राज्य के लिए खजाना समय समय पर ले जाया जाता था।खजाने के लिए आने वाले कर्मचारी एंव अधिकारीयों के हस्ताक्षरों के प्रमाण भी मिलते है। इस भवन के ऊपर जाने के लिए दो तरफ पूर्व और पश्चिम की दिशा में दो सीढियां बनी हुई है। इसकी दूसरी मंजिल पर चारो कोनो पर सुन्दर भित्ति चित्रों से युक्त छोटे कमरे बने हुए है। प्रत्येक कमरे के बाहर अर्ध चंद्रमाकर सुन्दर गवाक्ष बने हुए है जो हवा के प्रवाह के लिए अत्यंत उपयोगी होते है। इन चारो कमरों के अन्दर के प्रवेश उस बड़े गुम्बदाकार हाल में खुलते है। इन कमरों को बहुत ही सुन्दर भित्ति चित्रों से अलंकारित किया है जिनमे प्रमुख रूप से मुग़ल कालीन कुश्ती, गुलदस्ते, पक्षी, फूल पत्तियों इत्यादि के चित्र बनाये गए है। तीसरी मंजिल पर अर्थात इस भवन की छत पर चारो और छतरियो का निर्माण करवाया गया है और बीच में एक बड़ी छतरी बनी हुई है।इन छतरियों के खम्भों का निर्माण स्थानीय ग्राम छितोंली के पत्थरों से किया गया है। मध्य में बनी विशाल छतरी पर बनी कला कृतियों में मुग़ल एंव राजपूत स्थापत्य कला का बेजोड़ संगम दिखाई देता है। इस छतरी में कुश्ती, मुग़ल दरबार, हाथी घोड़े, महाभारत, रासलीला इत्यादि के चित्र मौजूद है।

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दूसरी मंजिल पर बने हुए कक्षों में किये गए भित्ति चित्र में बादशाह अकबर कुश्ती का मज़ा लेता दिखाई दे रहा है।

छत पर बनी बीच में सबसे बड़ी छतरी  है ... यह उसके अन्दर बनी चित्रकला है ..जो  अत्यंत मनमोहक है

बीच में बनी विशाल छतरी और इसके चारो और चार छोटी छतरियां बनवाई गयी थी

चौ महला जिसके ऊपर चार छतरियां बनवाई गयी है

इसी तरह चौ महला और नौ महला कहलाए क्यूंकि इन भवनों पर भी चार अथवा नौ छतरियाँ का सुन्दर निर्माण किया गया है।चौ महला मजमे-ए -ख़ास के लिए उपयोग में लाया जाता था जहाँ बादशाह अपने उच्च सलाहकारों और मंत्रियों के साथ राजनैतिक और कूटनैतिक रणनीतियां बनाता था। नौ महला जनाना खाना था जहाँ पर स्त्रियाँ और बेगमे आवास किया करती थी।

नौ महला जिसका उपयोग रानीवास के लिए किया जाता था ... इस पर नौ छतरियां विराजमान है

आठ ढाणे वाला  कुआँ ....पानी को  इन ढाणो में जमा करके नालियों में प्रवाहित किया जाता था

नौ महला और चौ महला दोनों एक दूसरे के आमने सामने बने हुए है। इसका मतलब यह है की चौ महला और नौ महला एक ही चार दिवारी में स्थित है अपितु पंच महला इन दोनों भवनों से कुछ 300 मीटर की दूरी पर स्थित है। इनमे बहुत ही मनोरम बाग़ बगीचों का निर्माण करवाया गया था। इनमे पानी के संचार के लिए मिट्टी और चूने की पक्की नालियाँ बनायीं गयी थी जो वर्गाकार एंव आयताकार रूप में एक दूसरे को जोडती थी ताकि बाग़ के सभी हिस्सों में पानी का प्रवाह हो सके। इस बाग़ में पानी की व्यवस्था के लिए एक आठ ढाणे वाले कुएं का निर्माण करवाया गया था। इन ढाणों से पानी नालियों के सहारे प्रवाहित किया जाता था। बीच बीच में पानी को एकत्रित करने के लिए टैंक यानी छोटे जलाशय भी बनाये गए थे जिनको फव्वारों से सुस्सजित किया जाता था।

आजकल चौ महला और नौमहला जैन संप्रदाय के दिगंबर समाज के आधीन है। नौ महला में महावीर जैन की श्वेत संगमरमर की विशाल मूर्ति भी स्थापित है। अंदर प्रांगण में जैन समाज के लोगो ने एक धर्मशाला एंव शादी ब्याह इत्यादि के लिए एक भवन का निर्माण करवाया है जिसमे कोई भी व्यक्ति अपने पारिवारिक जलसे करवा सकता है। मेरे अनुसार ये निर्माण इस सुन्दर मुग़ल कालीन विरासत को नुकसान पहुंचा रहा है। इनका निर्माण इन भवनों के बाहर भी करवाया जा सकता था क्यूंकि इसके निर्माण हेतु इन्होने सारे बाग़ की ज़मीन का उपयोग कर इन भवनों की आंतरिक सुन्दरता को नष्ट कर दिया गया है।

अशोक शिलालेख

शिलालेख के अंतिम अवशेष

हमारा अंतिम पड़ाव था सम्राट अशोक कालीन दूसरा शिलालेख जो मुग़ल गेट से करीब एक किलोमीटर की दूरी पर भीम की डूंगरी (पहाड़ी) के नीचे स्थित है। यह शिलालेख काफी धूमिल हो चूका है और इसके रख रखाव पर भी कोई ख़ास ध्यान नहीं दिया जा रहा है। इसे कटवाना मुश्किल था इसलिए ये यही पर ही एक लोहे से बनी जाली की एक चारदीवारी में सुरक्षित करके रखा गया है।

शिलालेख को बड़े ध्यान से देखते प्रहलाद जी

शाम के सात बज रहे थे इसलिए मैंने अपने आप को वापस जाने के लिए जैसे तैसे तैयार कर ही लिया। प्रह्लाद जी ने एक रात उनके यहाँ रुकने का आग्रह किया लेकिन मैंने विनम्रता पूर्वक उनको मना कर दिया। जब बस में बैठकर जाने लगा तो सहसा बादशाह अकबर का काफिला पहाड़ो से गुजरता नज़र आने लगा… पत्थर के उन शिलालेखो में सम्राट अशोक का प्रतिबिम्ब उभर कर दिखने लगा और कानो में बुद्धं शरणम गच्छामि के स्वर गूंजने लगे।

अरावली के पहाड़ों पर एक और सूरज अस्त होने जा रहा था,एक और रात सामने खड़ी थी…. और समय के काल चक्र में विराट नगर एक और दिन से अग्रज होने जा रहा था।