Posted in छोटी कहानिया - १०,००० से ज्यादा रोचक और प्रेरणात्मक

चीनी यात्री ने नम्रता से बोला


चीनी यात्री ने नम्रता से बोला – “आचार्य, मैं इस देश के वातावरण और निवासियों से बहुत प्रभावित हुआ हूँ !! लेकिन यहाँ पर मैंने ऐसी अनेक विचित्रताएं भी देखीं हैं जो मेरी समझ से परे है !!”

“कौन सी विचित्रताएं, मित्र ??” चाणक्य ने स्नेह से पूछा !!

“उदाहरण के लिए सादगी की ही बात कर ली जा सकती है !! इतने बड़े राज्य के महामन्त्री का जीवन इतनी सादगी भरा होगा, इस की तो कल्पना भी हम विदेशी नहीं कर सकते !!” कह कर चीनी यात्री ने अपनी बात आगे बढ़ाई !! “अभी अभी एक और विचित्रता मैंने देखी है आचार्य, आज्ञा हो तो कहूँ ??”

“अवश्य कहो मित्र, आपका संकेत कौन सी विचित्रता से की ओर है ??”

“अभी अभी मैं जब आया तो आप एक दीपक की रोशनी मे काम कर रहे थे !! मेरे आने के बाद उस दीपक को बुझा कर दूसरा दीपक जला दिया !! मुझे तो दोनों दीपक एक समान लगे रहे है !! फिर एक को बुझा कर दूसरे को जलाने का रहस्य मुझे समझ नहीं आया ??”

आचार्य चाणक्य मंदमंद मुस्कुरा कर बोले इसमे ना तो कोई रहस्य है और ना विचित्रता !! इन 2 दीपको मे से एक राजकोष का तेल है और दूसरे मे मेरे अपने परिश्रम से खरीदा गया तेल !! जब आप यहाँ आए थे तो मैं राजकीय कार्य कर रहा था इसलिए उस समय राजकोष के तेल वाला दीपक जला रहा था !! इस समय मैं आपसे व्यक्तिगत बाते कर रहा हूँ इसलिए राजकोष के तेल वाला दीपक जलना उचित और न्यायसंगत नहीं है !! लिहाज मैंने वो वाला दीपक बुझा कर अपनी आमनी वाला दीपक जला दिया !!”

चाणक्य की बात सुन कर यात्री दंग रह गया और बोला – “धन्य हो आचार्य, भारत की प्रगति और उसके विश्वगुरु बनने का रहस्य अब मुझे समझ मे आ गया है !! जब तक यहाँ के लोगो का चरित्र इतना ही उन्नत और महान बना रहेगा, उस देश की तरक्की को संसार की कोई भी शक्ति नहीं रोक सकेगी !! इस देश की यात्रा करके और आप जैसे महात्मा से मिल कर मैं खुद को गौरवशाली महसूस कर रहा हूँ !

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क्या आप लोगो को मालूम है हर साल महाराष्ट्र में लगभग १००० किसान आत्महत्या करते है ।


क्या आप लोगो को मालूम है हर साल महाराष्ट्र में लगभग १००० किसान आत्महत्या करते है ।

‪#‎शिर्डी‬ महाराष्ट्र में है, और यहाँ पर भी बड़ी संख्या में किसान आत्महत्या करते है इस हिसाब से शिर्डी साई को आत्महत्या एक्सपर्ट कहना चाहिए यह सभी किसान साई(‪#‎चाँदमिय्या‬) को मानने वाले होते है । यह किसान सभी लगभग हर महीने शिर्डी जाते है ।

Farmers taking their lives in drought hit maharashtra. Will Sai baba save them?
शिर्डी में किसानो के द्वारा आत्महत्या करने का मुख्य कारण है महाराष्ट्र के इस भाग में सूखे का पड़ना। लगातार कई वर्षो तक बारिश न होने के कारण महाराष्ट्र का ये हिस्सा पुरे देश में सूखे से सबसे अधिक प्रभावित क्षेत्र में आता है।

आश्चर्य की बात है की साईं बाबा (‪#‎चाँद_मुहम्मद‬ )को चमत्कारी मानने वाले लोगों का ध्यान इस पर गया ही नहीं की क्या कारण है साईं बाबा ने इस क्षेत्र में बारिश करने के लिए कोई चमत्कार ही नहीं किया। साईं बाबा के द्वारा साईं सत्चरित्र अध्याय एक के अनुसार क्षेत्र में हैजा रोकने के लिए आटा फेंकने की घटना का वर्णन आता है जिसका मुख्य कारण था बारिश न होना और साईं बाबा ने बारिश करने व् हैजा रोकने के लिए ही आटे फिंकवाया । जबकि साईं बाबा के काल में कुल 16 बार शिर्डी में सूखा पड़ा पर केवल एक बार साईं बाबा ने अपना चमत्कार दिखाया, अन्य 15 बार बाबा कोई भी चमत्कार दिखाने में असफल रहे तो क्या पहले चमत्कार को केवल एक संयोग मात्र था?

नीचे दिए गए लिंक की आप जांच कर सकते है जिनमे शिर्डी में किसानो की आत्महत्या की रिपोर्ट दी हुई है

http://www.thehindu.com/…/maharashtra-co…/article6189959.ece

zeenews.india.com/…/maharashtra/maharashtra-tops-farmer-suicides-list_ 945085.html

इस रिपोर्ट के अनुसार २०१३ में ३१४५ किसानो ने आत्महत्या की । 1995 से अब तक ६० ००० किसानो ने आत्महत्या की ।

इस रिपोर्ट के कुछ अंश नीचे दिए है :-

With the highest number of farmer suicides recorded in the year 2013, Maharashtra continues to paint a dismal picture on the agrarian front with over 3,000 farmers taking their lives.

According to a recent report of the National Crime Records Bureau (NCRB) a total of 3,146 farmers killed themselves in the state in 2013.

Maharashtra repeated this performance despite the state registering 640 less farm suicides than 2012.

According to NCRB data, over 60,000 farmers have killed themselves in the state since 1995.

प्रश्न यह उठता है की साई बाबा इन सब की मदद क्यों नहीं कर पाए। क्या साईं बाबा सच में चमत्कारी थी या एक ढोंग? क्या साईं बाबा सच में लोगों की सेवा सहायता करते थे? क्या हर रोज मरते इन किसानो के लिए साईं बाबा कोई चमत्कार नहीं कर पाते? ऐसे में क्या उनके बाकी चमत्कारों पर प्रशन नहीं उठता?

महाराष्ट्र में आत्महत्या के बारे में रिपोर्ट आप लोगों को भेजा गया है । इस रिपोर्ट से जानकारी ले कर आप लोग यह सिद्ध कर सकते है कि साई बाबा कोई लोगो को भला करने वाले संत नहीं है ।

महाराष्ट्र में गरीबी कि वजह से हर साल लगभग १००० किसान आत्महत्या करते है । इन आत्महत्याओं के पीछे साई की पूजा ही कारण है क्यूंकि प्रेत पूजा वास्तव में ही कष्टदायक होती है १९९५ से अब तक ६०,००० किसानो ने महाराष्ट्र में आत्महत्या की है ।

इस रिपोर्ट में दो न्यूज़ चैनल्स की रिपोर्ट दी गई है । जिसे आप खुद देख सकते हो।

क्या आप लोगो को मालूम है हर साल महाराष्ट्र में लगभग १००० किसान आत्महत्या करते है ।

#शिर्डी महाराष्ट्र में है, और यहाँ पर भी बड़ी संख्या में किसान आत्महत्या करते है इस हिसाब से शिर्डी साई को आत्महत्या एक्सपर्ट कहना चाहिए यह सभी किसान साई(#चाँदमिय्या) को मानने वाले होते है । यह किसान सभी लगभग हर महीने शिर्डी जाते है ।

Farmers taking their lives in drought hit maharashtra. Will Sai baba save them?
शिर्डी में किसानो के द्वारा आत्महत्या करने का मुख्य कारण है महाराष्ट्र के इस भाग में सूखे का पड़ना। लगातार कई वर्षो तक बारिश न होने के कारण महाराष्ट्र का ये हिस्सा पुरे देश में सूखे से सबसे अधिक प्रभावित क्षेत्र में आता है।

आश्चर्य की बात है की साईं बाबा (#चाँद_मुहम्मद )को चमत्कारी मानने वाले लोगों का ध्यान इस पर गया ही नहीं की क्या कारण है साईं बाबा ने इस क्षेत्र में बारिश करने के लिए कोई चमत्कार ही नहीं किया। साईं बाबा के द्वारा साईं सत्चरित्र अध्याय एक के अनुसार क्षेत्र में हैजा रोकने के लिए आटा फेंकने की घटना का वर्णन आता है जिसका मुख्य कारण था बारिश न होना और साईं बाबा ने बारिश करने व् हैजा रोकने के लिए ही आटे फिंकवाया । जबकि साईं बाबा के काल में कुल 16 बार शिर्डी में सूखा पड़ा पर केवल एक बार साईं बाबा ने अपना चमत्कार दिखाया, अन्य 15 बार बाबा कोई भी चमत्कार दिखाने में असफल रहे तो क्या पहले चमत्कार को केवल एक संयोग मात्र था?

नीचे दिए गए लिंक की आप जांच कर सकते है जिनमे शिर्डी में किसानो की आत्महत्या की रिपोर्ट दी हुई है

http://www.thehindu.com/news/national/other-states/maharashtra-continues-to-lead-in-farmers-suicide/article6189959.ece

zeenews.india.com/…/maharashtra/maharashtra-tops-farmer-suicides-list_ 945085.html

इस रिपोर्ट के अनुसार २०१३ में ३१४५ किसानो ने आत्महत्या की । 1995 से अब तक ६० ००० किसानो ने आत्महत्या की ।

इस रिपोर्ट के कुछ अंश नीचे दिए है :-

With the highest number of farmer suicides recorded in the year 2013, Maharashtra continues to paint a dismal picture on the agrarian front with over 3,000 farmers taking their lives.

According to a recent report of the National Crime Records Bureau (NCRB) a total of 3,146 farmers killed themselves in the state in 2013.

Maharashtra repeated this performance despite the state registering 640 less farm suicides than 2012.

According to NCRB data, over 60,000 farmers have killed themselves in the state since 1995.

प्रश्न यह उठता है की साई बाबा इन सब की मदद क्यों नहीं कर पाए। क्या साईं बाबा सच में चमत्कारी थी या एक ढोंग? क्या साईं बाबा सच में लोगों की सेवा सहायता करते थे? क्या हर रोज मरते इन किसानो के लिए साईं बाबा कोई चमत्कार नहीं कर पाते? ऐसे में क्या उनके बाकी चमत्कारों पर प्रशन नहीं उठता?

महाराष्ट्र में आत्महत्या के बारे में रिपोर्ट आप लोगों को भेजा गया है । इस रिपोर्ट से जानकारी ले कर आप लोग यह सिद्ध कर सकते है कि साई बाबा कोई लोगो को भला करने वाले संत नहीं है ।

महाराष्ट्र में गरीबी कि वजह से हर साल लगभग १००० किसान आत्महत्या करते है । इन आत्महत्याओं के पीछे साई की पूजा ही कारण है क्यूंकि प्रेत पूजा वास्तव में ही कष्टदायक होती है १९९५ से अब तक ६०,००० किसानो ने महाराष्ट्र में आत्महत्या की है ।

इस रिपोर्ट में दो न्यूज़ चैनल्स की रिपोर्ट दी गई है । जिसे आप खुद देख सकते हो।
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तुलसी (Tulsi), मुलेठी और सौंफ के गुण-लाभ


तुलसी (Tulsi), मुलेठी और सौंफ के गुण-लाभ

तुलसी (Tulsi)

तुलसी का पौधा यूं ही हर घर-आंगन की शोभा नहीं बनता। घरों तथा मंदिरों में तो इसका पौधा अनिवार्य माना जाता है। धार्मिक दृष्टि से तो इसकी उपयोगिता है ही,स्वास्थ्य रक्षक के रूप में भी यह महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।

तुलसी का पौधा

आज के जमाने में घरों में मनीप्लांट या अन्य सुन्दर सजावटी पौधे लगाये जाते हैं, वहीं तुलसी का पौधा भी जरूर नजर आता है। दरअसल, हम सभी जानते हैं कि तुलसी का पौधा लगा कर कई बीमारियों से बचा जा सकता है। इसके रख-रखाव में भी विशेष परिश्रम नहीं करनी पड़ती। इसके पौधे के पास जाने से इससे स्पर्श हुई हवा से ही कई परेशानियां दूर हो जाती हैं।

स्पर्श और गंध में जादू

इसकी गंध युक्त हवा जहां-जहां जाती है, वहां का वायुमण्डल शुद्ध हो जाता है। इसे दूषित पानी एवं गंदगी से बचाना जरूरी होता है। धार्मिक दृष्टि से तुलसी पर पानी चढ़ाना नित्य नेम का हिस्सा माना जाता है। विद्वानों का मत है कि जल चढ़ाते समय इसका स्पर्श और गंध रोग पैदा करने वाले जीवाणुओं को नष्ट करने में सक्षम है। वैसे तो इसकी कई जातियां हैं, लेकिन श्वेत और श्याम या रामा तुलसी और श्यामा तुलसी ही प्रमुख हैं। पहचान के लिए श्वेत के पत्ते तथा शाखाएं श्वेताय (हल्की सफेदी) तथा कृष्णा के कृष्णाय (हल्का कालापन) लिये होते हैं।

काले पत्ते वाली तुलसी

कुछ विज्ञान काले पत्ते वाली तुलसी को औषधीय गुणों में उत्तम मानते हैं तो कुछ दोनों को ही सामान्य गुण वाली मानते हैं। इसके पत्ते मूल, बीज, जड़ तथा इसकी लकड़ी सभी उपयोगी होती है। इसके पत्तों की रस की मात्र बड़ों के लिए दो तोला (लगभग तीन चम्मच) तथा बीजों का चूर्ण एक से दो ग्राम की मात्रा में लिया जाता है।

औषधीय गुणों में यह हृदय को बल देने वाली, भूख बढ़ाने वाली, वायु, कफ, खांसी-हिचकी,उल्टी, कुष्ठ (कोढ़), रक्त विकार, अपस्भार हिस्टीरीया और सभी प्रकार के बुखारों में उपयोगी है।

जीवाणुओं को नष्ट करता है

तुलसी में एक उड़नशील तेल होता है, जो हवा में मिलकर मलेरिया बुखार फैलाने वाले जीवाणुओं को नष्ट करता है। विद्वानों का मत है कि तुलसी के पत्तों के दो तोले रस में तीन माशे काली मिर्च का चूर्ण मिला कर पीने से मलेरिया में बहुत लाभ होता है।

और भी हैं औषधीय गुण

इसके पत्ते चाय के साथ या अनाज उबाल कर पिलाने से छाती की सर्दी में लाभ होता है। सर्दी के कारण जमा कफ बाहर निकल जाता है जिससे छाती के दर्द में आराम मिलता है।

बढ़े हुए कफ में इस का रस शहद में मिलाकर देना लाभकारी है। पुराने बुखार में इसके पत्तों का रस सारे शरीर पर मलने से लाभ होता है। आंतों में छिपे कीड़ों के लिये पत्तों का चूर्ण सेवन करना हितकर है। उल्टी में इसके पत्तों का रस और अदरख का रस मिला कर पिलाने से लाभ होता है। पेट साफ होता है।

दाद हो तो इसका रस लगाने से फायदा होता है। पुराना घाव हो तो इसके रस से घाव धोने से संक्रमण नहीं होता, उसमें कीड़े नहीं पड़ते, दुगर्न्ध दूर होती है। घाव भरता है।

इसका पाचांग फल-फूल पत्ते तना जड़ का चूर्ण बना कर नीबू के रस में घोल कर लगाने से दाद खाज एक्जिमा एवं अन्य चर्म रोगों में लाभकारी है।

शरीर के सफेद दाग, मुंह पर कील-मुहांसे, झाई पर इसका रस लगाना लाभकारी है। सांप काटे व्यक्ति को एक से दो मुट्ठी तुलसी के पत्ते चबवा दिये जाएं तो सांप का जहर मिट जाएगा। पत्ते खिलाने के साथ इसकी जड़ का चूर्ण मक्खन में मिला सांप काटी जगह पर लेप करना हितकर है। इसकी पहचान यह है कि लेप करते समय इसका रंग सफेद होगा लेकिन जैसे-जैसे जहर इस लेप से कम होगा, लेप का रंग काला होता जाएगा। तभी तुरन्त उस लेप को हटा दूसरा लेप लगा देना चाहिये। जब तक लेप का रंग काला होना बंद हो जाए तो समझना चाहिये ये जहर का असर खत्म हो गया।

बिच्छू या ततैया, बर्र आदि के डंक मारने पर तुलसी का रस लगाने से और पिलाने से दर्द दूर होता है।

खांसी, श्वास में तुलसी के पत्तों का रस वासा के पत्तों का रस एक से दो चम्मच मिला कर पीने से लाभ होता है। बल पौरुष बढ़ाने, शरीर को बलवान बनाने में तुलसी बीज का चूर्ण चमत्कारी है। यह बलवर्धक, शीघ्र पतन व नपुंसकता नाशक और पौष्टिक होता है। इसके सेवन से असमय वृद्धा अवस्था नहीं आती, शरीर बलवान चेहरा कान्तिमान होता है।

बच्चों के लिवर की कमजोरी में इसका काढ़ा पिलाना बहुत लाभकारी है। कान के दर्द में इसके पत्तों का रस गर्म कर कान में टपकाने से दर्द में चैन मिलता है।

इसकी मंजरी (फूल) सौंठ, प्याज रस और शहद मिलाकर चाटने से सूखी खांसी और दमा में लाभ होता है। इसे पत्तों का चूर्ण या मंजरी का चूर्ण सूंघने से जुकाम (सायनोसायटिस) नाक की दुर्गन्ध दूर होती है तथा मस्तक के कीड़े नष्ट होते हैं।

दांत दर्द में तुलसी के पत्ते तथा काली मिर्च साथ पीस कर गोली बना कर खाने से लाभ होता है। तुलसी के पत्ते और जीरा मिलाकर पीस कर शहद से लेने से मरोड़ और दस्त में लाभ होता है।

मुलेठी के गुण

मुलेठी बहुत गुणकारी औषधि है। मुलेठी के प्रयोग करने से न सिर्फ आमाशय के विकार बल्कि गैस्ट्रिक अल्सर के लिए फायदेमंद है। इसका पौधा 1 से 6 फुट तक होता है। यह मीठा होता है इसलिए इसे यष्टिमधु भी कहा जाता है। असली मुलेठी अंदर से पीली, रेशेदार एवं हल्की गंधवाली होती है। यह सूखने पर अम्ल जैसे स्वाद की हो जाती है। मुलेठी की जड़ को उखाड़ने के बाद दो वर्ष तक उसमें औषधीय गुण विद्यमान रहता है। इसका औषधि के रूप में प्रयोग बहुत पहले से होता आया है। मुलेठी पेट के रोग, सांस संबंधी रोग, स्तन रोग, योनिगत रोगों को दूर करता है। ताजी मुलेठी में पचास प्रतिशत जल होता है, जो सुखाने पर मात्र दस प्रतिशत ही शेष रह जाता है। ग्लिसराइजिक एसिड के होने के कारण इसका स्वाद साधारण शक्कर से पचास गुना अधिक मीठा होता है। आइए हम आपको मुलेठी के गुणों के बारे में बताते हैं।

मुलेठी के गुण –

मुलेठी को काली-मिर्च के साथ खाने से कफ ढीला होता है। सूखी खांसी आने पर मुलेठी खाने से फायदा होता है। इससे खांसी तथा गले की सूजन ठीक होती है।
अगर मुंह सूख रहा हो तो मुलेठी बहुत फायदा करती है। इसमें पानी की मात्रा 50 प्रतिशत तक होती है। मुंह सूखने पर बार-बार इसे चूसें। इससे प्‍यास शांत होगी।
गले में खराश के लिए भी मुलेठी का प्रयोग किया जाता है। मुलेठी अच्‍छे स्‍वर के लिए भी प्रयोग की जाती है।
मुलेठी महिलाओं के लिए बहुत फायदेमंद है। मुलेठी का एक ग्राम चूर्ण नियमित सेवन करने से स्त्रियां, अपनी, योनि, सेक्‍स की भावना, सुंदरता को लंबे समय तक बनाये रख सकती हैं।
मुलेठी की जड़ पेट के घावों को समाप्‍त करती है, इससे पेट के घाव जल्‍दी भर जाते हैं। पेट के घाव होने पर मुलेठी की जड़ का चूर्ण इस्‍तेमाल करना चाहिए।

मुलेठी पेट के अल्‍सर के लिए फायदेमंद है। इससे न केवल गैस्ट्रिक अल्सर वरन छोटी आंत के प्रारम्भिक भाग ड्यूओडनल अल्सर में भी पूरी तरह से फायदा करती है। जब मुलेठी का चूर्ण ड्यूओडनल अल्सर के अपच, हाइपर एसिडिटी आदि पर लाभदायक प्रभाव डालता है। साथ ही अल्सर के घावों को भी तेजी से भरता है।
खून की उल्टियां होने पर दूध के साथ मुलेठी का चूर्ण लेने से फायदा होता है। खूनी उल्‍टी होने पर मधु के साथ भी इसे लिया जा सकता है।
हिचकी होने पर मुलेठी के चूर्ण को शहद में मिलाकर नाक में टपकाने तथा पांच ग्राम चूर्ण को पानी के साथ खिला देने से लाभ होता है।
मुलेठी आंतों की टीबी के लिए भी फायदेमंद है। —  (आर्यावर्त भरतखण्ड संस्कृति)

सौंफ के लाभ

सौंफ में कई औषधीय गुण मौजूद होते हैं, जिनका सेवन करने से स्वास्‍थ्‍य को फायदा होता है। सौंफ हर उम्र के लोगों के लिए फायदेमंद होती है। सौंफ में कैल्शियम, सोडियम, आयरन,पोटैशियम जैसे तत्व पाये जाते हैं। सौंफ का फल बीज के रूप में होता है और इसके बीज को प्रयोग किया जाता है। पेट की समस्याओं के लिए सौंफ बहुत फायदेमंद होता है। आइए जानते हैं सौंफ खाना स्वास्‍थ्‍य के लिए कितना फायदेमंद हो सकता है।

सौंफ खाने से पेट और कब्ज की शिकायत नहीं होती। सौंफ को मिश्री या चीनी के साथ पीसकर चूर्ण बना लीजिए, रात को सोते वक्त लगभग 5 ग्राम चूर्ण को हल्केस गुनगने पानी के साथ सेवन कीजिए। पेट की समस्या नहीं होगी व गैस व कब्ज दूर होगा।

आंखों की रोशनी सौंफ का सेवन करके बढ़ाया जा सकता है। सौंफ और मिश्री समान भाग लेकर पीस लें। इसकी एक चम्मच मात्रा सुबह-शाम पानी के साथ दो माह तक लीजिए। इससे आंखों की रोशनी बढती है।

डायरिया होने पर सौंफ खाना चाहिए। सौंफ को बेल के गूदे के साथ सुबह-शाम चबाने से अजीर्ण समाप्त होता है और अतिसार में फायदा होता है।

खाने के बाद सौंफ का सेवन करने से खाना अच्छे से पचता है। सौंफ, जीरा व काला नमक मिलाकर चूर्ण बना लीजिए। खाने के बाद हल्के गुनगुने पानी के साथ इस चूर्ण को लीजिए, यह उत्तम पाचक चूर्ण है।

खांसी होने पर सौंफ बहुत फायदा करता है। सौंफ के 10 ग्राम अर्क को शहद में मिलाकर लीजिए,इससे खांसी आना बंद हो जाएगा।

यदि आपको पेट में दर्द होता है तो भुनी हुई सौंफ चबाइए इससे आपको आराम मिलेगा। सौंफ की ठंडाई बनाकर पीजिए। इससे गर्मी शांत होगी और जी मिचलाना बंद हो जाएगा।

यदि आपको खट्टी डकारें आ रही हों तो थोड़ी सी सौंफ पानी में उबालकर मिश्री डालकर पीजिए। दो-तीन बार प्रयोग करने से आराम मिल जाएगा।

हाथ-पांव में जलन होने की शिकायत होने पर सौंफ के साथ बराबर मात्रा में धनिया कूट-छानकर, मिश्री मिलाकर खाना खाने के पश्चात 5 से 6 ग्राम मात्रा में लेने से कुछ ही दिनों में आराम हो जाता है।

अगर गले में खराश हो जाए तो सौंफ चबाना चाहिए। सौंफ चबाने से बैठा हुआ गला भी साफ हो जाता है।

रोजाना सुबह-शाम खाली सौंफ खाने से खून साफ होता है जो कि त्वचा के लिए बहुत फायदेमंद होता है, इससे त्वचा में चमक आती है।

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स्वास्थ्य के स्वर्णिम 40 सूत्र


स्वास्थ्य के स्वर्णिम 40 सूत्र

  1. भूख व भोजन 

अच्छे स्वास्थ्य के लिए यह आवश्यक है कि उचित भूख लगने पर ही भोजन किया जाए। ऐसा क्यों करें? कारण यह है कि जो भोजन हम करते हैं उसका परिपाक आमाश्य में होता है। यदि भूख ठीक न हो तो आमाशय के द्वारा भोजन ठीक से नहीं पकता अथवा पचता। इस कारण भोजन से जो रस उत्पन्न होते है वो दूषित रहते हैं। ये रस व्यक्ति में रोग उत्पन्न करते हैं व स्वास्थ्य खराब करते हैं। इस समस्या के आयुर्वेद में आमवात कहा जाता है। किसी ने सत्य ही कहा है-

‘‘आम कर दे काम तमाम’’
“AMA” is the term used in Ayurveda for endotoxins. The “Ama” are endotoxins formed in the intestines due to faulty digestion. The low digestive fire leads to formation of fermentation inside the intestines and that in turn can increase the formation of pus and mucus. The formation of “Ama” is increased if the food is rich in fast foods, packaged food, burgers, pizzas, non-veg diet and other heavy greasy items. Cheese is also not good in this case. Milk and dairy products should also be avoided.- (Dr. Vikram Chauhan)

यह आमवात ही सन्धिवात का मूल कारण होता है।

परन्तु आज विडम्बना यह है कि व्यक्ति को खुलकर भूख लगना ही भूख लगना ही बंद हो गया है प्राकृतिक भूख व्यक्ति को लग नहीं पा रही है। बस दो या तीन समय भोजन सामने देख व्यक्ति भोजन कर डालता है। ऐसी स्थिति में व्यक्ति भूख से कम खाए। बहुत से व्यक्ति डायबिटिज व अन्य घातक रोगों के चंगुल में फंस कर बहुत कमजोर हो गए है। ऐसे लोगों को यह सुझाव दिया जाता है कि हर दो तीन घण्टें में कुछ न कुछ खाते रहें अन्यथा बहुत दुर्बलता अथवा अम्लता (Acidity) बनने लगेगी।

इसमें कोई दो राय नहीं है कि यदि व्यक्ति किसी जटिल रोग के चंगुल में फंस गया है तो उसी अनुसार उसे अपने जीवनक्रम को ढालना पड़ेगा जब तक वह उससे मुक्त न हो जाए अन्यथा यह उसके लिए गणघातक हो सकता है।

स्वस्थ व्यक्ति के लिए यह अच्छा होगा कि हफते दस दिन में एक बार उपवास अवश्य करें। उपवास उचित रीति से करें इसके लिए पुस्तक सनातन धर्म का प्रसाद पढ़ें।

पहले लोग खूब मेहनत करते थे व डटकर खाना खाते थे उनको सबकुछ हजम होता था व स्वास्थ्य बढि़या रहता था, क्योंकि उचित शारीरिक श्रम से खूब बढि़या भूख लगती थी।

  1. शारीरिक श्रम व व्यायाम

हमारा सम्पूर्ण शरीर माॅंसपेशियों का बना है। माॅंसपेशियों की ताकत बनाए रखने के लिए उचित शारीरिक श्रम अथवा व्यायाम अनिवार्य है। स्वस्थ व्यक्ति प्रतिदिन इतना श्रम अवश्य करें कि उसके शरीर से पसीना निकलते रहे। जो व्यक्ति पर्याप्त मेहनत नहीं करता उसको व्यायाम, योगासन अथवा प्रातः साॅंय तीन चार कि.मी. पैदल चलना चाहिए।

पहले महिलाएॅं घर का कार्य स्वयं करती थी इससे बहुत स्वस्थ रहती थी,परन्तु आज के मशीनी युग ने हमारी माता-बहनों का स्वास्थ्य चौपट कर दिया है। यह हमारे सामने प्रत्यक्ष है कि बागडि़यों व पहाड़ी महिलाओं को प्रसव में बहुत कम कष्ट होता है। उनके यहाॅं आराम से घर पर ही बच्चे पैदा हो जाते हैं क्योंकि वो मेहनत बहुत करती हैं।

चीन के लोग स्वस्थ व ताकतवर होते हैं क्योंकि वो साइकिलों का प्रयोग खूब करते हैं।

शारीरिक श्रम व्यक्ति अपनी सामर्थ्य के अनुसार करें। यदि रोगी व दुर्बल व्यक्ति अधिक मेहनत कर लेगा तो उसे लाभ के स्थान पर हानि भी हो सकती है। इस स्थिति में पैदल चलना बहुत लाभप्रद रहता है।

समाज में कुछ अच्छी परिपाटियाॅं अवश्य चलें। जैसे प्रातः अथवा सायं पूरा परिवार मिलकर स्वयं लघु वाटिका चलाए कुछ फल, फूल, सब्जियाॅं उगाए। इससे परिवार को अच्छी सब्जियाॅं मिलेंगी व शारीरिक श्रम भी होगा।

  1. उचित दिनचर्या

प्रातःकाल ब्रह्म मुहुर्त में उठना व रात्रि में सही समय पर सोना दीर्ध जीवन के लिए अनिवार्य है। रात्रि 9 बजे के उपरान्त कफ का समय प्रारम्भ होता है उस समय जो शयन करते हैं उनके शरीर की टूट-फूट की मरम्मत अच्छी हो जाती है व शरीर मजबूत बनता है। प्रातः चार बजे के उपरान्त वात का समय होता है। उस समय जो सोता है वायु विकारों की चपेट में आने की सम्भावना बढ़ जाती है। युवाओं के लिए छः से आठ घण्टे की नींद व बच्चों के लिए आठ से दस घण्टे की नींद लेना अच्छा रहता है।

सूर्योदय से पूर्व शीतल जल से स्नान करने का प्रयास करें। यदि शरीर कमजोर है तो हल्का कुनकुना (Luke Warm) अथवा गर्म पानी में स्नान करें। शीतल जल का स्नान उत्तम स्वास्थ्य प्रदान करता है। रात्रि में पेट में जो गर्मी बनती है वह इस स्नान से दूर हो जाती है। अन्यथा सूर्य निकलने पर वह गर्मी बढ़कर पाचन सम्बन्धित विकारों को जन्म देती हैं।

इसी प्रकार दो समय भोजन अच्छा होता है। प्रातः दस ग्यारह बजे व सायं छः सात बजे। परन्तु आवश्यकतानुसार तीन बार भी भोजन किया जा सकता है।

उचित समय पर उचित काम अर्थात् नियमित व संयमित दिनचर्या अच्छे स्वास्थ्य के लिए बहुत आवश्यक हैं।

  1. भोजन की प्रकृति व आपूर्ति

बच्चों के लिए भोजन में कई नियम नहीं रखने चाहिए। जब इच्छा हो खाएॅं। युवाओं के पौष्टिक भोजन नियमानुसार करना चाहिए व प्रौढ़ भोजन सन्तुलित करें।

  1. भोजन का जरूरत से ज्यादा पकाएॅं नहीं।
  2. रोटी के लिए मोटा प्रयोग करें यह आॅंतों में नहीं चिपकेगा। मैदा अथवा         बारीक आटा आॅंतों में चिपक कर सड़ता है जिससे आॅंतों के संक्रमण          (इन्फेक्शन) का खतरा बढ़ जाता है।
  3. भोजन में अम्लीय पदार्थों की मात्रा कम रखें
  4. साबूत दालें भिगोकर अंकुरित कर खाएॅं
  5. भोजन शान्त मन से चबचबा कर करें
  6. भोजन के समय कोई अन्य काम जैसे पुस्तक पढ़ना, टीवी देखना न करें।
  7. भोजन के साथ जल का सेवन न करें।
  8. प्रातःकाल थोड़ा भारी भोजन कर सकते हैं परन्तु सायंकाल भोजन हल्का करें। भोजन का पाचन सूर्य पर निर्भर करता है। सूर्य की ऊष्मा से नाभिचक्र अधिक सक्रिय होता है। भोजन पचाने में लगी अग्नि को जठराग्नि कहा जाता है जिसका नियंत्रण नाभि चक्र से होता है। जिनका नाभि चक्र सुस्त हो जाता है, कितना भी चूर्ण चटनी खा लें भोजन ठीक से नहीं पच पाता। गायत्री का देवता सविता (सूर्य) है अतः नाभि चक्र को मजबूती के लिए गायत्री मंत्र का आधा घण्टा जप अवश्य करें।
  9. भोजन के विषय में कहा जाता है – हितभुक, ऋतुभुक मितभुक अर्थात वह        भोजन करें तो हितकारी हो।

जैसे दूध के साथ मूली व दही के साथ खीर लेना अहितकारी है परन्तु केले के साथ छोटी इलाइची एवं चावल के साथ नारियल की गिरी लाभप्रद है इसी प्रकार भोजन ऋतु के अनुकूल हो (ऋतुभुक) उदाहरण के लिए ग्रीष्म ऋतु में गेहूॅं के साथ जौ लाभप्रद रहता है क्योंकि जौ की प्रकृति शीतल होती है परन्तु वर्षा ऋतु में गेहूॅं के साथ चना पिसवाना आवश्यक है वर्षा ऋतु में वात कुपित होता है जिसको रोकने के लिए चना बहुत लाभप्रद रहता है।

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पित्त एवं पित्त के प्रकार


पित्त एवं पित्त के प्रकार

पित्त से हमारा अभिप्राय हमारे शरीर की गर्मी से है। शरीर को गर्मी देने वाला तत्व ही पित्त कहलाता है। पित्त शरीर का पोषण करता हैं यह शरीर को बल देने वाला है। लारग्रंथि, अमाशय, अग्नाशय, लीवर व छोटी आँत से निकलने वाला रस भोजन को पचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। पित्त का शरीर में कितना महत्व है, इसे हम इस प्रकार समझ सकते हैं कि जब तक यह शरीर गर्म है तब तक यह जीवन है। जब शरीर की गर्मी समाप्त हो जाती है अर्थात् शरीर ठण्डा हो जाता है तो उसे मृत घोषित कर दिया जाता है। कभी-कभी आप सुबह के समय, खाना न पचने पर यह किसी रोग की अवस्था में उल्टी करते समय जो हरे व पीले रंग का तरल पदार्थ मुँह के रास्ते बाहर आता है उसे हम पित्त कहते हैं।
शरीर में पित्त का निर्माण अग्नि तथा जल तत्व से हुआ है। जल इस अग्नि के साथ मिलकर इसकी तीव्रता को शरीर की जरूरत के अनुसार सन्तुलित करता है। पित्त अग्नि का दूसरा नाम है। अग्नि के दो गुण विशेष होते हैः- 1. वस्तु को जला कर नष्ट कर देना 2. ऊर्जा देना। प्रभु ने हमारे शरीर में इसे जल में धारण करवाया है जिस का अर्थ है कि पित्त की अतिरिक्त गर्मी को जल नियन्त्रित करके उसे शरीर ऊर्जा के रूप में प्रयोग में लाता है। यह स्वाद में खट्टा, कड़वा व कसैला होता है। इसका रंग नीला, हरा व पीला हो सकता है। यह शरीर में तरल पदार्थ के रूप में पाया जाता है। यह वज़न में वात की अपेक्षा भारी तथा कफ की तुलना में हल्का होता है। पित्त यूं तो सम्पूर्ण शरीर के भिन्न-भिन्न भागों में रहता है लेकिन इसका मुख्य स्थान हृदय से नाभि तक है। समय की दृष्टि से वर्ष के दौरान यह मई से सितम्बर तक तथा दिन में दोपहर के समय तथा भोजन पचने के दौरान पित्त अधिक मात्रा में बनता है। युवावस्था में शरीर में पित्त का निर्माण अधिक होता है।
प्रकृतिः-पित्त प्रधान व्यक्ति के मुँह का स्वाद कड़वा, जीभ व आंखों का रंग लाल,शरीर गर्म, पेशाब का रंग पीला होता है। ऐसे व्यक्ति को क्रोध अधिक आता है। उसे पसीना भी अधिक आएगा। कई बार ऐसा देखा गया है कि पित्त प्रधान व्यक्ति के बाल कम आयु में ही सफेद होने लगते हैं।
कार्यः-पित्त हमारे शरीर में निम्नलिखित कार्य करता हैः-
भोजन को पचाना।  नेत्र ज्योति।  त्वचा को कान्तियुक्त बनाना।  स्मृति तथा बुद्धि प्रदान करना।    भूख प्यास की अनुभूति करना।  मल को बाहर कर शरीर को निर्मल करना।
लक्षणः-
युवावस्था में बाल सफेद होना।  नेत्र लाल या पीेले होना।  पेशाब का रंग लाल या पीला होना।
दस्त लगना।  नाखून पीले होना।  देह पीली होना।  नाक से रक्त बहना।  गर्म पेशाब आना।   पेशाब में जलन होना।  अधिक भूख लगना।  ठण्डी चीजें अच्छी लगना। अधिक पसीना आना।
शरीर में फोड़े होना।  बेचैनी होना आदि।
पित्त के कुपित होने के कारणः-
कड़वा, खट्टा, गर्म व जलन पैदा करने वाले भोजन का सेवन करना।
तीक्ष्ण द्रव्यों का सेवन करना।  तला हुआ व अधिक मिर्च, मसालेदार भोजन करना।
अधिक परिश्रम करना।  नशीले पदार्थों का सेवन करना।  ज्यादा देर तक तेज धूप में रहना।
अधिक नमक का सेवन करना।
सन्तुलित पित्त जहाँ शरीर को बल व बुद्धि देता है, वहीं यदि इसका सन्तुलन बिगड़ जाए तो यह बहुत घातक सिद्ध होता है। कुपित पित्त से हमारे शरीर में कई प्रकार के रोग आते हैं। पित्त को हमारे शरीर में क्षेत्र व कार्य के आधार पर पाँच भागों में बाँटा गया है। ये इस प्रकार हैः-
पाचक पित्त, रंजक पित्त, साधक पित्त, आलोचक पित्त, भ्राजक पित्त।
पित्त के इन सभी रूपों का शरीर में कार्य क्षेत्र अर्थात् ये कहाँ-कहाँ है, ये क्या कार्य करते हैं, इनके कुपित होने पर क्या रोग आते हैं, इनका उपचार कैसे सम्भव है, इन सब का विवरण नीचे दिया गया हैः-
पाचक पित्तः-पाचक पित्त पंचअग्नियों (पाचक ग्रन्थियों) से निकलने वाले रसों का सम्मिश्रित रूप है। इसमें अग्नि तत्व की प्रधानता पायी जाती है। ये पाँच रस इस प्रकार हैः-
लार ग्रन्थियों से बनने वाला लाररस।
आमाशय में बनने वाला आमाशीय रस।   अग्नाशय का स्त्राव।   पित्ताशय से बनने वाला पित्त रस।   आन्त्र रस।
पाचक पित्त पक्कवाशय और आमाशय के बीच रहता है। इसका मुख्य कार्य भोजन में मिलकर उसका शोषण करना है। यह भोजन को पचा कर पाचक रस व मल को अलग-अलग करता है। यह पक्कवाशय में रहते हुए दूसरे पाचक रसों को शक्ति देता है। शरीर को गर्म रखना भी इसका मुख्य कार्य है। जब पाचक पित्त शरीर में कुपित होता है तो शरीर में नीचे लिखे रोग हो सकते हैः-
जठराग्नि का मन्द होना     दस्त लगना    खूनी पेचिश     कब्ज बनना    मधुमेह
मोटापा    अम्लपित्त     अल्सर    शरीर में कैलस्ट्रोल का अधिक बनना   हृदय रोग
पाचक पित्त को नियन्त्रण करने के लिए नीचे लिखी क्रियाओं का साधक का अभ्यास करना होगा। यदि शरीर में पाचक पित्त सम अवस्था मे बनता है तो हमारा पाचन सुदृढ़ रहता है। जब शरीर में पाचन और निष्कासन क्रियाएं ठीक होती हैं तो हम ऊपर दिए गए रोगों से बच सकते हैं। इस पित्त को सन्तुलित करने के लिए नीचे दी गई क्रियाएं सहायक होंगीः-
शुद्धि क्रियाएंः- कुंजल, शंख प्रक्षालन (नोटः-हृदय रोगियों के लिए निषेध है।)
आसनः-त्रिकोणासन, जानुशिरासन, कोणासन, सर्पासन, पादोतानासन,अर्धमत्स्येन्द्रासन, शवासन।
प्राणायामः-अग्निसार, शीतली, चन्द्रभेदी, उड्डियान बन्ध व बाह्य कुम्भक का अभ्यास।
भोजनः-सुपाच्य भोजन, सलाद, हरी सब्जियाँ तथा ताजे फलों का सेवन भी पाचक पित्त को सम अवस्था में रखने में सहायक है।
रंजक पित्तः-यह पित्त लीवर में बनता है और पित्ताशय में रहता है। रंजक पित्त का कार्य बड़ा ही अनूठा व रहस्यमयी है। हमारे शरीर में भोजन के पचने पर जो रस बनता है रंजक पित्त उसे शुद्ध करके उससे खून बनाने का कार्य करता है। अस्थियों की मज्जा से जो रक्त कण बनते हैं उन्हें यह पित्त लाल रंग में रंगने का कार्य करता है। उसके बाद इसे रक्त भ्रमण प्रणाली के माध्यम से पूरे शरीर में पहुंचा दिया जाता है। यदि इस पित्त का सन्तुलन बिगड़ जाता है तो शरीर में लीवर से सम्बन्धित रोग आते हैं जैसे कि-पीलिया, अल्परक्तता तथा शरीर में कमजोरी आना अर्थात् शरीर की कार्य क्षमता कम हो जाना इत्यादि।
रंजक पित्त नीचे लिखी क्रियाओं के अभ्यास से नियन्त्रित होता है।
शुद्धि क्रियाएंः-अनिमा, कुन्जल
आसनः-त्रिकोणासन, पश्चिमोत्तानासन, कोणासन, अर्धमत्स्येन्द्रासन, मन्डूकासन,पवन मुक्तासन, आकर्ण धनुरासन
प्राणायामः-कपाल भाति, अनुलोम-विलोम, बाह्य कुम्भक, अग्निसार तथा उडिडयान बन्ध का अभ्यास
 साधक पित्तः-यह पित्त हृदय में रहता है। बुद्धि को तेज करता है प्रतिभा का निर्माण करता है। उत्साह एवं आनन्द की अनुभूति करवाता है। आध्यात्मिक शक्ति देता है। सात्विक वृत्ति का निर्माण करता है। ईष्र्या, द्वेष व स्वार्थ की भावना को समाप्त करता है। साधक पित्त के कुपित होने पर स्नायु तन्त्र तथा मानसिक रोग होने लगते हैं जैसे किः-
नीरसता   माईग्रेन    मूर्छा    अधरंग    अनिद्रा    उच्च व निम्न रक्तचाप   हृदय रोग   अवसाद
नीचे लिखी क्रियाओं के अभ्यास से साधक पित्त सन्तुलित रहता है।
शुद्धि क्रियाएंः-सूत्र नेति, जल नेति, कुंजल आदि।
आसनः-सूर्य नमस्कार पहली व बारवीं स्थिति, शशांक आसन, शवासन, योग निद्रा।
प्राणायामः- अनुलोम-विलोम, भ्रामरी व नाड़ी शोधन, उज्जायी प्राणायाम।
ध्यान।
अन्य सुझावः-आध्यात्मिक पुस्तकें पढ़ना, महापुरुषों के प्रवचन सुनना, आत्म-चिन्तन करना तथा लोकहित के कार्य करना।
आलोचक पित्तः-यह पित्त आंखों में रहता है। देखने की क्रिया का संचालन करता है। नेत्र ज्योति को बढ़ाना तथा दिव्य दृष्टि को बनाए रखना इसके मुख्य कार्य हैं। जब आलोचक पित्त कुपित होता है तो नेत्र सम्बन्धी दोष शरीर में आने लगते हैं यथा नज़र कमजोर होना, आंखों में काला मोतिया व सफेद मोतिया के दोष आना। इस पित्त को नियन्त्रित करने के लिये साधक को नीचे लिखी क्रियाओं का अभ्यास करना चाहियेः-
शुद्धि क्रियाएंः- आई वाश कप से प्रतिदिन आंखें साफ करें। नेत्रधोति का अभ्यास करें। मुँह में पानी भरकर आँखों में शुद्ध जल के छींटे लगाएं। दोनो आई वाश कपों में पानी भरें, तत्पश्चात् आई वाश कप में आंखों को डुबो कर आंख की पुतलियों को तीन-चार बार ऊपर-नीचे, दाएं-बाएं व वृत्ताकार दिशा में घुमाएं। इसके लिए शुद्ध जल या त्रिफले के पानी का प्रयोग कर सकते हैं।
आसनः- कोणासन, उष्ट्रासन, भुजंगासन, धनुर व मत्स्यासन, ग्रीवा चालन, शवासन तथा नेत्र सुरक्षा क्रियाएं।
प्राणायामः-गहरे लम्बे श्वास, अनुलोम-विलोम, भ्रामरी, मूर्छा प्राणायाम।
ध्यानः-प्रतिदिन 10 मिनट ध्यान में बैठें।
भोजन हरी व पत्तेदार सब्जियों का सेवन अधिक करें।
भ्राजक पित्तः-यह पित्त सम्पूर्ण शरीर की त्वचा में रहता है। भ्राजक पित्त हमारे शरीर में विभिन्न कार्य करता है जैसे कि त्वचा को कान्तिमान बनाना, शरीर को सौन्दर्य प्रदान करना, विटामिन डी को ग्रहण करना तथा वायुमण्डल में पाए जाने वाले रोगाणुओं से शरीर की रक्षा करना। भ्राजक पित्त के कुपित होने पर शरीर में नीचे लिखे रोग आने की सम्भावना बनी रहती है।
त्वचा पर सफेद तथा लाल चकत्तों का दोष होना।
चर्म रोग का होना।
शरीर में फोड़ा, फुन्सी होना।
एग्जिमा।
त्वचा का फटना आदि।
भ्राजक पित्त को शरीर में सम अवस्था में रखने के लिए नीचे लिखी क्रियाएं करनी चाहिए।
शुद्धि क्रियाएंः-कुंजल, नेति व शंख प्रक्षालन।
आसनः- सूर्य नमस्कार, नौकासन, चक्रासन, हस्तपादोत्तानासन
प्राणायामः-गहरे लम्बे श्वास, प्लाविनी, तालबद्ध व नाड़ी शोधन प्राणायाम तथा तीनों बन्धों का बाह्य व आन्तरिक कुम्भक के साथ अभ्यास करें।
नोटः-हृदय रोगी के लिए कुम्भक निषेध है।  
विशेष क्रियाः-पूरे शरीर में तेल की मालिश करें। सर्दी के मौसम में सूर्य स्नान करें।
नोटः-योग की क्रियाओं की जानकारी हेतु संस्थान द्वारा प्रकाशित नीचे दी गई पुस्तकों का अध्ययन करें।
आसन एवं योग विज्ञान’, ‘प्राणायाम विज्ञानतथा ध्यान योग
कफ का निर्माण पृथ्वी व जल तत्व से हुआ है। यह अन्न व जल का सम्मिश्रित रूप है। पृथ्वी तत्व की अधिकता के कारण यह वज़नदार है तथा जल की प्रधानता के कारण यह शीतल प्रकृति का है। जब हम थूकते हैं या बलगम मुँह के रास्ते बाहर फेंकते हैं, उसे ही कफ कहा जाता है।
अहिंसाः-इस गुण को धारण करने वाले व्यक्ति को क्रोध नहीं आता। ऐसे व्यक्ति में दुश्मनी और दुर्भावना कभी जन्म नहीं ले सकती। क्रोध अग्नि का ही रूप है जो कुपित पित्त का परिणाम होता है। इस प्रकार अहिंसा रूपी गुण के आने से पित्त दोष स्वतः ही ठीक होते हैं।
सत्यः-मन, वचन तथा कर्म से सत्य का पालन किया जाता है। सत्य के लिए दो बातों का होना आवश्यक है। 1. सत्य कथन की वाणी में मधुरता हो, कड़वाहट नहीं 2. उससे दूसरों का भला होता हो। जो व्यक्ति सत्य का पालन करता है उसका जीवन सरल तथा निर्भीक बनता है। इस गुण को धारण करने पर शरीर में वात, पित्त व कफ तीनों ही सन्तुलित होते हैं।
अस्तेयः-ईमानदारी की कमाई से जीवन चलाना। जो व्यक्ति ईमानदारी की कमाई से गुजर करता है उसका मन शान्त रहता है। जो व्यक्ति बेईमानी की कमाई से गुजर करता है उसका मन चंचल होता है। ऐसे व्यक्ति के शरीर में प्राण का प्रवाह सम अवस्था में नहीं होता। अतः उसमें वात् दोष आने की सम्भावनाएं बढ़ जाती हैं यदि व्यक्ति अस्तेय का पालन करता है तो उसके शरीर में वात का सन्तुलन बना रहता है।
ब्रह्मचर्यः-मन, वचन एवं कर्म से इन्द्रियों तथा मन पर नियन्त्रण करना ब्रह्मचर्य है। ब्रह्मचर्य का गुण आने पर साधक अन्तरंग साधना की ओर बढ़ने लगता है। यह गुण ग्रहण करने पर स्नेहन कफ तथा साधक पित्त विशेष कर प्रभाव में आते हैं। स्नेहन कफ के ठीक रहने पर शरीर की सभी ग्रन्थियाँ ठीक प्रकार से कार्य करती हैं और व्यक्ति का शरीर स्वस्थ रहता है। साधक पित्त ठीक होने पर व्यक्ति को अध्यात्म के मार्ग पर अग्रसर होने में सहायता मिलती है।
अपरिग्रहः- जब व्यक्ति अपनी आवश्यकता से अधिक संचय नहीं करता उसे अपरिग्रह कहते है। इस गुण का विकास होने पर व्यक्ति की शक्ति व समय की बचत होने लगती है जो वह प्रभु के कार्य में लगा सकता है। इसके विपरीत जब व्यक्ति आवश्यकता से अधिक संचय करता है तो उसमें लोभ व अहंकार पैदा होता है। अपरिग्रह का गुण आने से कफ व पित्त विशेष रूप से सन्तुलित होते हैं।
तपः-शरीर, इन्द्रियों व मन का संयम तप है। तप से अन्दर की इच्छाएं नष्ट हो जाती है। इच्छाएं अधिक करने वाले व्यक्ति में वात्, दोष अधिक होते हैं उन का मन अशान्त रहता है तप का गुण ग्रहण करने से यह दोष ठीक होता है।
स्वाध्यायः-अपने आप को जानना अर्थात् आत्म अनुसंधान करना स्वाध्याय कहलाता है। आत्म चिन्तन करना आध्यात्मिक पुस्तकें पढ़ना, महापुरुषों के उपदेशों को सुनकर, उन पर मनन करना, अपने भीतर जाना स्वाध्याय है। इस गुण के ग्रहण करने पर विशेषतः स्नेहन कफ, साधक पित्त व व्यान प्राण प्रभाव में आते हैं।
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नाड़ी तंत्र एवं सात चक्र


नाड़ी तंत्र एवं सात चक्र

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सूर्य व चद्र नाड़ी-

 

इच्छाओं की पूर्ति के लिए कोई  क्षमता अवश्य होनी चाहिए। इच्छा तृप्ति के लिए यह शक्ति शरीर के दायीं ओर पिंगला नाड़ी पर कार्यवृति धारण करती है। यह कार्य स्रोत शारीरिक तथा बौद्धिक गतिविधियों का स्रोत है। अपनी गतिविधि के उप-फल के रूप में यह मस्तिष्क के दायीं ओर अंह को विकसित करता है। बायें और दायें दोनों सूक्ष्म-मार्ग स्थूल रूप से मेरूरज्जू के बाहर नाड़ी-प्रणाली को व्यक्त करते है।

सूर्य स्रोत में पुरूषत्व गुण जैसे विश्लेषण, स्पार्धा, सहनशीलता आदि निहित है। चन्द्र स्रोत में सोम्यता, प्रतिसम्वेदना, सहयोग तथा अतर्बोध आदि मादा गुण सम्मिलित है। मस्तिष्क के दो गोलार्ध विरोधी परन्तु सम्पूरक कार्य करते है। शरीर के दायें भाग पर नजर रखने वाले बायें गोलर्ध की विशेषता विचार करना, योजना बनाना तथा विश्लेषण करने जैसे रैखिक प्रक्रम है। शरीर के बायें भाग का ध्यान रखने वाला दायां गोलार्ध भावना, स्मृति और इच्छाऔं आदि में कार्यरत है।

सात चक्र

1- मूलाधार चक्र-

रीढ़ की हड्ड़ी के निचले छोर से थोड़ा सा बाहर की ओर मूलाधार नामक पहला चक्र स्थित है। मूलाधार चक्र का स्थान रीढ़ की हड्डी के एकदम निचले हिस्से में होता है। यानि यह जननेन्द्रिय और गुदा के मध्य में होता है। इस चक्र के बिलकुल उपर कुंडलिनी शक्ति होती है। मूलाधार चक्र को जागृत किए बिना कुंडलिनी शक्ति को जगृत नहीं किया जा सकता। मूलाधार चक्र को अधार चक्र, प्रथम चक्र, बेस चक्र या रूट चक्र भी कहते हैं। यह चक्र निष्कपटता तथा विवेक देवता द्वारा शासित है। यह देवता रीढ़ की हड्ड़ी में स्थित पवित्र अस्थि में विश्राम करती हुर्इ कुंडलिनी की अपवित्र इरादों के अनुचित प्रवेश से रक्षा करता है। मुलाधार चक्र से उपर की ओर पवित्र त्रिकोणकार अस्थि में स्थित ‘मूलाधार’ कहलाता है।

1-मूलाधार चक्र यदि दुर्बल हो तो कुंडलिनी अपने स्थान से नहीं उठती और यदि यह चक्र अपवित्रता ग्रसित हो तो कुंडलिनी उठने के बाद भी खिंच कर वापस अपने स्थान पर आ जाती है। कुंडलिनी का उत्थान मूलाधार से सातवें चक्र तक होता है जहां यह सामूहिक चेतना को व्यक्त करने वाली आत्मा से एकाकार कर लेती है। शरीर के अन्दर मूलाधार चक्र को शारीरिक क्रियाओं, अवरोधन और मल-त्याग को संभालना है। अमर्यादित यौन संबंध, अवांछित नैतिकता, निष्कासन अंगों पर दबाव ( जैसे कब्ज तथा पेचिश ) इस चक्र में तनाव के कारण बनते है। प्रजनन को भी कई  प्रकार से यह चक्र नियंत्रित करता है। नशीले पदार्थ तथा तांत्रिक क्रियाएं इस चक्र को अत्यंत हानि पहुंचाते है। जागृत मूलाधारचक्र साहस, निष्कपटता तथा निर्देशन बुधि  प्रदान करता है। इस प्रकार का व्यक्ति अत्यंत शुभकर तथा पास-पड़ोस के लिए सौभागय और र्इश्वरीय आंनद को लाने वाला होता है। इस चक्र के देवता श्री गणेश है। यदि आपने अपने मूलाधार चक्र को जागृत कर लिया तो सच मानिएं आपने श्रीगणेश को प्राप्त कर लिया। यानि आपकी आध्यात्मिक उन्नति की शुरुआत हो जाएगी।

मूलाधार चक्र की विकृति से बीमारियां

जो व्यक्ति अधिक कामुक, छल, कपट, प्रपंच और अहंकार को पालने वाला होता है, उसके मूलाधार चक्र में विकृतियां आने लगती है। इससे रीढ़ की हड्डी की बीमारियां,जोड़ों का दर्द, रक्त विकार, शरीर विकास की समस्या, कैंसर, कब्ज, गैस, सिर दर्द,जोडों की समस्या, गुदा संबंधी बीमारियां, यौन रोग, संतान प्राप्ति में समस्याएं,मानसिक कमजोरी आ सकती है। इन सभी समस्याओं से बचने के लिए जरूरी है कि हम शुद्ध आचरण करें, शुद्ध विचार रखें, कामवासना की शुद्धता का पालन करें, अहंकार त्यागें और अपने आप में मासूमियत विकसित करें। यदि  इन आप इन बातों का पालन कर लेते है तो निश्चित ही अपने आप में श्रीगणेश को जागृत कर लेंगे।

2-स्वाधिष्ठान चक्र-

भौतिक शरीर में दूसरा चक्र स्वाधिष्ठान चक्र के नाम से जाना जाता है। यह गुर्दे, जिगर के नीचे का हिस्सा, अग्नाश्य (पेनक्रियांस) प्लीहा (स्पलीन) और आंत्र (इन्टैस्टाइन) को चलाने का कार्य करता है। मस्तिष्क के भूरे तथा सफेद कणों की कमी को पूरा करने के लिए यह चक्र पेट की चर्बी के कणों को तोड़ कर मस्तिष्क को उर्जा प्रदान करता है। तथा इस प्रकार मस्तिष्क की विचार शक्ति को नव जीवन प्रदान करता है। फिर भी अत्याधिक सोच विचार, हीन भावना सूर्य स्रोत को नि:शक्त कर देती है। चिंता इसी स्रोत का अपव्यय करके इसे दुर्बल बनाती है। यह चक्र र्सोदर्य बोध तथा कलात्मक दृष्टि कोण उत्पन्न करता है। दैवी सरस्वती इसकी शासक है।

3-नाभि चक्र-

भौतिक रूप में नाभि-चक्र नाम का तीसरा चक्र पेट और जिगर के उपरी भाग की देखभाल करता है। अव्यवस्थित जीवन शैली, उतेजनापूर्ण  चिन्तन, धन लोलुपता इस चक्र के विकास में बाधा उत्पन्न करता है।

4-हृदय चक्र-

करूणा सभी पैगम्बरों और अवतरणों का सार-तत्व है। एक स्वस्थ हृदय चक्र ही इसका स्रोत है। केवल हृदय चक्र द्वारा ही निर्मल प्रेम के सुखद उल्लास का अनुभव हो पाता है। पति-पत्नी में से किसी का एक दूसरे पर प्रभुत्व जमाना या स्वामित्व भाव-ग्रस्त होना वास्तविक प्रेम का गला घोंट देता है। तथा संबंधों के विकास में बाधा डालता है। तिरस्कृति की अवस्था में नारी हतोत्साहित हो जाती है और उसमें दबा-दबा क्रोध विकसित हो जाता है। यह क्रोध प्राय: बच्चों पर या चरित्रहीनता के रूप में प्रकट होता है। तथा पुरानी बीमारियों की स्थिती में नारियों में स्तन संबंधी रोग उत्पन्न हो जाते है। असंतुलित जीवन, तीव्र अनुशासन, कठोर व्यवहार एवं हठ योग इस चक्र को दूषित करते है। दैवी नियमों की अवहेलना, र्इश्वर का अपमान, आत्मतत्व की और उदासीनता,दास्ता, चापलूसी तथा झूठी नम्रता इस चक्र के लिए हानिकारक है।

मध्य हृदय-मध्य हृदय की अधिष्ठात्री श्री जगदम्बा जी है। यह शक्तिप्रदायनी है। असुरक्षा भावना, भय, आशंका आदि से यह चक्र व्यथित हो जाता है। जगदम्बा रूप में श्री माता जी से हृदय-पूर्वक प्रार्थना करने से यह चक्र ठीक हो जाता है।

दायां हृदय- दायां हृदय के अधिष्ठाता श्री सीता राम जी है। मर्यादा इनका गुण है। मर्यादा विहिनता इस चक्र को हानि पहुंचाती है। यह पिता का चक्र हैं। जो पिता अपने बच्चों को अधार्मिकता में उतारता है या जिसकें संबंध अपने बच्चों से ठीक नहीं उसका यह चक्र विकृत हो जाता है। तथा उसे श्वास रोग हो सकता है। श्री राम तथा सीता के गुणों को अपने अंदर स्थापित करने तथा प्रार्थना करने से यह चक्र ठीक हो जाता है।

5-विशुद्धि चक्र-

विशुद्धि चक्र शरीर का प्रथम छन्ना (फिल्टर) है। अत: यह अति संवेदनशील चक्र है। तथा बाहरी जीवाणुओं से रक्षा करता है। दूषित वायु में श्वास लेना, तथा ध्रुमपान से यह चक्र रूद्ध हो जाता है। झूठे अंधाधुध मंत्रोच्चारण से भी इस चक्र की संवेदनशीलता भंग हो जाती है। झूठे गुरूओं द्वारा दिये गए मंत्र इसकी संवेदनशीलता के लिए अति हानिकारक है।

इस चक्र के देवता राधा कृष्ण व्यवहार में कुशलता का उपदेश देते है। जिससे कि मनुष्य चतुराई  से विपत्ति का सामना कर सकें। जब यह चक्र खुलता है। तो मानवीय लघु-ब्रह्मंड़ अंतरिक्षीय ब्रहमांड  के प्रति जागरूक हो उठता है।

(अर्थात मानाव विराट के प्रति जागरूक हो जाता है।)

6-आज्ञा चक्र-

विकास के छठे चरण पर कुंड़लिनी इस चक्र का छेदन करके पूर्ण गौरव के साथ सातवें चक्र पर आरोहित हो पाती है। अंह से मुक्ति प्राप्त करने के लिए मनुष्य को सबको क्षमा करना पड़ता है।

दूसरों को क्षमा करने से हमारा अंह कम होता है।  परमात्मा के विषय में अनुचित विचार भी इस चक्र में बाधा उत्पन्न करते है। धार्मिक लोग मतांध हो जाते है। वे शास्त्रों के शब्द-जाल में उलझ कर पैगम्बरों द्वारा बताया सार-तत्व खो देते है। मनुष्य को कट्टर नहीं बनना है।

येशु मानव मात्र को सब दोषों से मुक्त करने के लिए आये। उन्होने सब को क्षमा कर दिया तथा सब दोषों को स्वय  पर ले लिया। स्वय को क्रूसारोपित करवा कर मानव को स्वनिहित अंह (अभिमान) का स्पष्ट अनुभव करने में सहायता की। मानव  के महान पश्चाताप का उद्य हुआ जिसने उसे अपने अंह की दुष्टता को देखने के योग्य बनाया। परिणामत: मानव में नम्रता जाग्रत हुर्इ।

(From a book of Mata Nirmla Devi Sahaj Yoga with thanks)

अवधू सहस दल अब देख।
श्वेत रंग जहाँ पैंखरी छवि, अग्र डोर विशेख।।
अमृत वरषा होत अति झरि, तेज पुंज प्रकाश।
नाद अनहद बजत अद्भुत, महा ब्रह्मविलास।।
-सन्त चरण दास

उस सहस्त्रार चक्र में हज़ार पंखुडि़यों वाला कमल है, जो जल के बिना ही विकसित होता है। जानते हो, उससे निरन्तर अमृत की वर्षा होती है। वह अमृत जिसका पान कर जीवात्मा के दुःख, पाप, व्याधि आदि समाप्त हो जाते हैं। उस नगर में अद्भुत संगीत भी बज रहा है। ऐसी मधुर ध्वनि, जिसकी कोई हद नहीं- अनहद बाजे बाजन लागे, चोर नगरिया तजि-तजि भागे। उन बाजों-ध्वनियों को सुनकर काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार रूपी चोर, जो हमारी पुण्य पूँजी को लूट रहे थे, डर कर भाग जाते है। कितना विलक्षण है यह नगर, जहाँ कोई भय, दुःख क्लेश नहीं!! यदि है, तो मात्र आनंद ही आनंद, मात्र दर्शन ही दर्शन!

(to be continued)

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आयुर्वेद का मूलाधार – 1


आयुर्वेद का मूलाधार – 1

त्रिदोष सिद्धान्त

आयुर्वेद में ‘त्रिदोष सिद्धान्त’ की विस्तृत व्याख्या है; वात, पित्त, कफ-दोषों के शरीर में बढ़ जाने या प्रकुपित होने पर उनको शांत करने के उपायों का विशद् वर्णन हैं;आहार के प्रत्येक द्रव्य के गुण-दोष का सूक्ष्म विश्लेषण है; ऋतुचर्या-दिनचर्या, आदि के माध्यम में स्वास्थ्य-रक्षक उपायों का सुन्दर विवेचन है तथा रोगों से बचने व रोगों की चिरस्थायी चिकित्सा के लिए पथ्य-अपथ्य पालन के लिए उचित मार्ग दर्शन है । आयुर्वेद  में परहेज-पालन के महत्व को आजकल आधुनिक डाक्टर भी समझने लग गए हैं और आवश्यक परहेज-पालन पर जोर देने लग गए हैं । लेखक का दृढ़ विश्वास है कि साधारण व्यक्ति को दृष्टिगत रखते हुए यहां दी जा रही सरलीकृत जानकारी से उसे रोग से रक्षा, रोग के निदान तथा उपचार में अवश्य सहायता मिलेगी ।

त्रिदोष सिद्धान्त:

आयुर्वेद की हमारे रोजमर्रा के जीवन, खान-पान तथा रहन-सहन पर आज भी गहरी छाप दिखाई देती है । आयुर्वेद की अद्भूत खोज है – ‘त्रिदोष सिद्धान्त’ जो कि एक पूर्ण वैज्ञानिक सिद्धान्त है और जिसका सहारा लिए बिना कोई भी चिकित्सा पूर्ण नहीं हो सकती । इसके द्वारा रोग का शीघ्र निदान और उपचार के अलावा रोगी की प्रकृति को समझने में भी सहायता मिलती है ।

आयुर्वेद का मूलाधार है- ‘त्रिदोष सिद्धान्त’ और ये तीन दोष है- वात, पित्त और कफ । त्रिदोष अर्थात् वात, पित्त, कफ की दो अवस्थाएं होती है – 1. समावस्था (न कम,न अधिक, न प्रकुपित, यानि संतुलित, स्वाभाविक, प्राकृत) 2. विषमावस्था (हीन, अति,प्रकुपित, यानि दुषित, बिगड़ी हुर्इ, असंतुलित, विकृत) । वास्तव में वात, पित्त, कफ, (समावस्था) में दोष नहीं है बल्कि धातुएं है जो शरीर को धारण करती है तभी ये दोष कहलाती है । इस प्रकार रोगों का कारण वात, पित्त, कफ का असंतुलन या दोष नहीं है बल्कि धातुएं है जो शरीर को धारण करती है और उसे स्वस्थ रखती है । जब यही धातुएं दूषित या विषम होकर रोग पैदा करती है, तभी ये दोष कहलाती है । इस प्रकार रोगों का कारण वात, पित्त, कफ का असंतुलन या दोषों की विषमता या प्रकुपित होना‘रोगस्तु दोष वैषम्यम्’ । अत: रोग हो जाने पर अस्वस्थ शरीर को पुन: स्वस्थ बनाने के लिए त्रिदोष का संतुलन अथवा समावस्था में लाना पड़ता है ।

जब शरीर में सदा विद्यमान ये वात, पित्त, कफ तीनों, उचित आहार-विहार के परिणाम स्वरूप शरीर में आवश्यक अंश में रहकर, समावस्था में रहते हैं और शरीर का परिचालन, संरक्षण तथा संवर्धन करते हैं तथा इनके द्वारा शारीरिक क्रियाएं स्वाभाविक और नियमित रूप से होती है जिससे व्यक्ति स्वस्थ्य एवं दीघायु बनता है तब आरोग्यता की स्थिति रहती है । इसके विपरीत स्वास्थ्य के नियमों का पालन न करने,अनुचित और विरूद्ध आहार-विहार करने, ऋतुचर्या-दिनचर्या, व्यायाम आदि पर ध्यान न देने तथा विभिन्न प्रकार के भोग-विलास और आधुनिक सुख-सुविधाओं में अपने मन और इन्द्रियों को आसक्त कर देने के परिणाम स्वरूप ये ही वात, पित्त, कफ, प्रकुपित होकर जब विषम अवस्था में आ जाते हैं जब अस्वस्थता की स्थिति रहती है। वात,पित्त, प्रकुपति होकर जब विषय अवस्था में आ जाते हैं तब अस्वस्थता की स्थिति रहती है। प्रकुपित वात, पित्त, रस रक्त आदि धातुओं को दूषित करते है; यकृत फेफड़े गुर्दे आदि आशयों/अवयवों को विकृत करते है; उनकी क्रियाओं को अनियमित करते हैं और बुखार, दस्त आदि रोगों को जन्म देते हैं जो गम्भीर हो जाने पर जानलेवा भी हो सकते हैं । अत: अच्छा तो यही है कि रोग हो ही नही । इलाज से बचाव सदा ही उत्तम है ।

सारांश यह है कि ‘त्रिदोष-सिद्धांत’ के अनुसार शरीर में वात, पित्त, कफ जब संतुलित या सम अवस्था में होते हैं तब शरीर स्वस्थ रहता है । इसके विपरीत जब ये प्रकुपित होकर असन्तुलित या विषम हो जाते हैं तो अस्वस्थ हो जाता है।

रोगों पर आरम्भ से ध्यान न देने से ये प्राय: कष्टसाध्य या असाध्य हो जाते हैं । अत: साधारण व्यक्ति के लिए समझदारी इसी में है कि यह यथासंभव रोग से बचने का प्रयत्न करे, न कि रोग होने के बाद डॉक्टर के पास इलाज के लिए भागें ।

अत: रोग से बचने और स्वस्थ रहने के लिए प्रत्येक व्यक्ति को आयुर्वेद-सम्मत ऐसा आहार-विहार अपनाना चाहिए जिससे त्रिदोष की विषमावस्था अर्थात् वात-प्रकोप,पित-प्रकोप और कफ-प्रकोप से बचा जा सकें और यदि गलत आहार-विहार के कारण किसी एक या अधिक दोष के प्रकुपित हो जाने से किसी रोग की उत्पति हो ही जाए तो पहले यह जानने का प्रयास करना चाहिए कि रोगी में किसी दोष का प्रकोप हुआ है । रोगी की प्रकृति कौन सी है? अर्थात वात (बादी) प्रकृति है या पित्त (गर्म) प्रकृति य कफ (ठंडी) प्रकृति? इसके अतिरिक्त निदान करने समय रोगी की आयु, मानसिक दशा,शारीरिक बल, रोग की अवस्था, देश, ऋतु काल, मानसिक आदि पर भी विचार कर लेना चाहिए । रोग की जड़ से समाप्त करने के लिए या स्थायी रूप से दूर करने के लिए यह आवश्यक है । फिर जिस दोष का प्रकोप हुआ है उस प्रकृति वात, पित्त, कफ दोष के शमन के लिए रोगी की प्रकृति को शान्त करने वाले आहार-विहार को अपनाना चाहिए । जैसे यदि कफ-प्रकोप जान पड़े जो कफवर्धक आहार से बचना चाहिए, साथ ही कफशामक आहार-विहार को अपनाना चाहिए ।

प्रकुपित दोष की पहचान एवं शान्ति के लिए आगे एक तालिका दी जा रही है । इसकी सहायता से एक साधारण व्यक्ति भी आसान से यह जान सकेगा कि 1. वात,पित्त, कफ के अलग-अलग गुण या स्वरूप क्या हैं? 2. इनके प्रकोप के लक्ष्ण क्या है? 3. प्रकुपित या बढ़े हुए दोष को शान्त करने वाले आहार-विहार कौन-कौन से हैं और उन्हें बढ़ाने या प्रकुपित करने वाले आहार-विहार कौन-कौन से हैं?

दोष और रस:

दोषों के प्रकोप और शमन में रसों का भी बड़ा योगदान है । आयुर्वेद में छह रस माने गये हैं:-

  1. अम्ल (खट्टा), 2. मधुर (मीठा), 3. लवण (नमकीन), 4. कटु (कड़वा), 5. तिक्त (चरपरा), 6. कषाय (कसैला)।

प्रत्येक व्यक्ति को संतुलित रूप में इन छ: ही रसों के स्वाद का आनन्द लेना चाहिए । यदि अपनी प्रकृति को समझकर (प्रकृति की पहचान के लिए अध्याय 4 देखें) इन छ: रसों का मनुष्य उचित उपयोग करे तो उसका आहार सुखदायी भी होगा और वात, पित्त, कफ, को समावस्था में रखने में भी सहायक होगा । इसके विपरीत यदि रसों का अनुचित और मनमाना उपयोग करेगा तो उसका आहार दोषों को कुपित करने वाला होकर अनेकानेक रोगों की उत्पत्ति में सहायक होगा।

आयुर्वेद के अनुसार प्रभाव की दृष्टि से तीन-तीन रस वात, पित्त और कफ को बढ़ाने वाले होते है और तीन-तीन ही तीनों को शान्त करने वाले होते हैं –

कफवर्धक-मीठे, खट्टे, नमकीन। कफशामक-कडवे, चरपरे, कसैले।

पित्तवर्धक-कडवे, नमकीन, खट्टे। पित्तशामक-मीठे, चरपरे, कसैले।

वातवर्धक-कड़वे, चरपरे, कसैले। वातशामक-मीठे, खट्टे, नमकीन।

मीठे, खट्टे, और नमकीन जितने पदार्थ हैं वे कफ को बढ़ाते हैं । नमकीन और मीठे, खट्टे, पदार्थ पित्त को बढ़ाने वाले हैं । कड़वे चरपरे, कसैले पदार्थ वायु को बढ़ाने वाले हैं । जो रस कफ को बढ़ाते हैं । वे (मीठे, खट्टे, नमकीन) ही वायु को शान्त करते हैं । मीठी, चरपरी, कसैली चीजें पित्त को शान्त करती है । कड़वी चरपरी, कसैली चीजें पित्त को शान्त करती है । उदाहरणार्थ – कफ-प्रकृति के व्यक्ति को मीठे, खट्टे, नमकीन चीजों को कम मात्रा में लेना चाहिए और कड़वी चरपरी और कसैली चीजों को अधिक मात्रा में खाना चाहिए ताकि कफ बढ़ने न पाए ।

दोष और धातुएं:

वात, पित्त, कफ का प्रकोप आहार-विहार के अतिरिक्त धातुओं के प्रभाव से भी होता है । जैसे, वात-ग्रीष्म ऋतु में संचित होता है, वर्षा ऋतु में कुपित रहता है और शरद ऋतु में शान्त रहता है । पित्त-वर्षा ऋतु में संचित, शरद ऋतु में कुपित और हेमन्त ऋतु में शान्त रहता है । कफ- शिशिर ऋतु में संचित, बसन्त में कुपित और ग्रीष्म-ऋतु में शान्त होता है।

 

दोष संचय प्रकोप शमन
वात ग्रीष्म वर्षा शरद
(ज्येष्ठआषाढ़)
पित्त वर्षा शरद हेमन्त
(सावनभादों (आश्विनकार्तिक) (मार्गशीषपौष)
कफ शिशिर बसन्त ग्रीष्म
(माघफाल्गुन) (चैत्रबैसाख)

 

अत: ऋतुओं के लक्षण जानकर उसके अनुसार आचरण करने से व्यक्ति स्वस्थ,सुखी और दीर्घायु रह सकता है । वर्षा ऋतु में प्रकुपित वात का, शरद ऋतु में पित्त का और बसन्त ऋतु में कफ का शमन हो, ऐसा आहार-विहार होना चाहिए ।

ऋतुओं के अलावा जीवन-काल के अनुसार भी दोष प्रकुपित होते है जैसे बाल्यावस्था में कफ का प्रकोप, युवावस्था में पित्त का प्रकोप और वृद्धावस्था में वात का प्रकोप होता है । इसी प्रकार दिन किस-किस समय किस दोष का जोर रहता है, यह बताते हुए कहा गया है कि दिन के प्रथम प्रहर में वात का, दोपहर में पित्त का और रात्रि में कफ का जोर रहता है । किन-किन दशाओं में त्रिदोष प्रकुपित होते है इस बात की सूक्ष्मता से छानबीन करते हुए, आयुर्वेद में यह भी कहा गया है कि भोजन करने के तुरन्त बाद ही कफ की उत्पत्ति होती है, भोजन पचते समय पित्त का प्रकोप होता है और भोजन के पाचन के बाद वायु का प्रकोप आरम्भ होता है । इसीलिए भोजन के तुरन्त बाद कफ की शन्ति के लिए पान खाने की प्रथा का प्रचलन है । यही नहीं,आयुर्वेद ने प्रत्येक जड़ी-बूटी और खाद्य-पदार्थ को, त्रिदोष सिद्धान्त की कसौटी पर कसते हुए उनके गुण-दोषों का सूक्ष्म विश्लेषण किया है और प्रकुपित दोष की पहचान और उसकी शान्ति के उपाय बताये हैं ।

प्रकुपित दोष की पहचान

वात प्रकोप

वात का स्वरूप

वात रूखा, शीतल, सूक्ष्म, चंचल, हल्का, घाव भरने वाला, योगवाही और रजोगुण वाला है । यह समस्त धातु-मलादि का विभाग करता है और समस्त शारीरिक क्रियाओं को गति देता है । तीनों दोषों में सर्वाधिक बलवान वात है जिसके बिना पित्त और कफ अपने आप में लूले-लंगड़े हैं । वास्तव में वायु हद्य और वात नाड़ी की चालक है और इनके कारण ही आयु और जीवन हैं । आयुर्वेदानुसार वात के पांच प्रकार है – उदानवायु,प्राणवायु, समानवायु, अपानवायु, व्यानवायु ।

वात प्रकोप के लक्षण:

  • शरीर का रूखा-सूखा होना ।
  • धातुओं का क्षय होना या तन्तुओं के अपर्याप्त पोषण के कारण

शरीर का सूखा या दुर्बला होते जाना।

  • अंगों की शिथिलता, सुत्रता और शीलता।
  • अंगों में कठोरता और उनका जकड़ जाना।

उसकी शान्ति के उपाय

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वातवर्धक

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वातानाशक/वातशामक

वात-प्रकोप के कारण

– कड़वे, कैसेले, चरपरे रसवाले पदार्थो का अधिक सेवन ।
रुक्ष, हल्का और अल्प भोजन करना ।

– उपवास या भूखा रहना ।

– ठंडे बासी, गैस करने वाले,  फास्टफूड, डिब्बेबंद व सत्वहीन
और प्रदूषित खाद्य पदार्थो का सेवन ।

– वातवर्धक आहार का सेवन, जैसे : शाली चावल, जौ, चने का
शाक, सूखे भुने हुए चने, मोठ, मसूर, अरहर, चीनी, फूलगोभी,
मटर, सेम, कच्चा

वातनाशक उपाय

– मीठे, खट्टे, नमकीन रसवाले  तथा तन्तुपोषक पदार्थों का
सेवन ।

वातनाशक खाद्य वस्तुएं:-

– गेहूं की रोटी, पुराने बासमती  चावल, कुलथी, उड़द, सरसों,
तिलकूट, तिल का तेल, गाय का दूध, छाछ, घी, मिश्री, देसी खांड, अदरक,
पोदीना, प्याज,

वात प्रकोप

– त्वचा का, खासकर पैरों की बिवाइयां, हथेलियां, होंठ, आदि का फटना ।

– नाखून, केश आदि का कड़ा और रूखा होना ।

– हाथ, पैरों, गर्दन, आदि का कांपना और फड़कना ।

– अंगों और नाड़ियों में खिंचाव होना, सुइंया चुभने, तोड़ने या झटका लगने, मसलने,काटने जैसी पीड़ाएं होना ।

– जोड़ों में दर्द होना, जोड़ों का चट-चट करना ।

– अंगों में वायु का भरा रहना ।

– पेट का गैस से फूलना और अपानवायु का अधिक निकलना । डकार या हिचकी आना ।

– भूख- प्यास अनियमित अर्थात् कभी ज्यादा, कभी कम लगना ।

– मुख का सूखना, स्वर का कर्कश होना ।

– स्वाद का कसैला होना ।

– मल-मूत्र व पसीना कम आना और अनियमित आना ।

– कब्जियत रहना ।



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वातवर्धक

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वातानाशक/वातशामक

मूली, पालक अधिकतर सूखे मेवें । मादक और उत्तेजक जैसेज्यादा चाय, काफी, धूम्रपान, शराब, ड्रग्स आदि का सेवन ।

– स्वाभाविक वेगों-मल, मूत्र
अधोवायु, आंसू, वमन, छींक
आदि का रोकना ।

–  शीतल जल से स्नान या वर्षा से भीगना। फ्रिज का ठंडा पानीपीना।

–  अधिक समय तक शारीरिक व मानसिक परिश्रम करना।अधिक जोर लगाने वाले अति गुरू व्यायाम करनाया अधिक शक्तिशाली के साथ पहलवानी करना।भारी वजन उठाना।

–  अनावश्यक रूप से रातों में देर तक जागना या स्वाभाविकनिद्रा में बाधा डालना ।

–  अधिक भ्रमण, अधिक बोलना, अधिक चिन्तन, अधिकसहवास, अधिक उतेजित करने वाले टेलीविजन,चल-चित्र आदि का लगातार देखना तथा रॉक संगीतया रेप संगीत का लगातार सुनना।

–  दुर्घटनावश किसी उंचे स्थान से गिरने से चोट लगना याअस्थिभंग होना, घोड़े, हाथी, तथा अन्य वाहनों सेगिरना और मर्मस्थानों में चोट लगना।

 परवल, बथुआ, लौकी, तेल में पकाए हुए प्याज और मूली,चौलार्इ, गाजर, सहजना की फली, पके करौंदे। अंगूर, नारंगी,फालसा, शहतूत, पपीता, पके आम व मीठे आम का रस,मीठा अनार आदि। अखरोट, बादाम, अंजीर, मुनक्का, खजूर।

औषधियां: सौंठ, हींग, अजवायन, मैथीदाना, पीपर,दालचीनी, इलायची, जायफल, सैंधा नमक।

हरड़, एरण्ड, गुग्गल, बेल, गिलोथ, अश्वगंधा, शतावरी,भृंगराज, आदि।

वातजनक कारणों (कालम ‘अ’ में दिए हुए) से बचे ।

विशेष वातनाशक उपाय

–  तेल मालिश – गर्म व भारी तेल की मालिश जैसे तिल कातेल या बादाम का तेल द्वारा शरीर की मालिश(खासकर पांव, सिर, पीठ)

 

वात प्रकोप

– नींद का न आना । जम्हाइंया, सुस्ती व थकान का अधिक आना।

– नाड़ी का तेज चलना । सांप की चाल के समान टेढ़ी-मेढ़ी गतियुक्त नाड़ी।

वातप्रधान रोग और व्याधियां होना, जेसे -अद्वार्ग, पक्षाघात, संधिवात,गठिया, गृघ्रसी, वायुगोला उठना, वातज्वर होना, कम सुनार्इ देना या बहरापन होना, स्नायु संस्थान का कमजोर हो जाना और उससे संबंधित रोग का होना।

वात के प्रकुपित होने के विपरीत वात के जरूरत से कम होने पर – अंगों में शिथिलता, बोलने की शक्ति में कमी, बलगम और आंव की उत्पति होती है और प्राय: कफप्रकोप के लक्षणों से मिलते जुलते लक्षण उत्पन्न होते हैं।

वातवर्धक – आधुनिक चिकित्सा उपकरणों द्वारा बिजली, वायलेट किरणें,एक्स-रें, रेडियम, वाइब्रेटर, आदि का अवांछित प्रयोग।

  • मानसिक अशान्ति या लगातार तनावयुक्त या चिन्तामग्न रहना। हृदयभेदक अत्याधिक शोक का अनुभव करना। भयभीत रहना। चित्त की चंचलता,धैर्यहीनता, अत्याधिक क्रोध, उत्तेजना, अत्याधिक रति व वीर्यनाश अथवा अन्य मानसिक विकृतियां।
  • आधुनिक प्रकृतिविरुद्ध रहन-सहन व जीवन शैली का अपनाना – जैसे लगातार कामोत्तेजनापूर्ण मनोरंजन, भ्रमण, तेज सवारी जैसे वायुयान, कार आदि का अधिक प्रयोग। प्रदूषित, शोरभरा व उत्तेजनापूर्ण वातावरण। अत्याधिक भोग विलास और कामवासना में डूबे रहना। आधुनिक दर्दनाशक व शुष्क औषधियों का अवांछित और लगातार लम्बे समय तक प्रयोग। झूठे मनोरंजन और गम गलत के नाम पर एल.एस.डी., हीरोइन जैसी खतरनाक ड्रग्स का सेवन। टेलीविजन, कम्पयूटर के आगे अधिक देर तक लगातार टकटकी लगाकर देखते रहना, उंची आवाज के संगीत जैसे रॉक संगीत, अपाचा, रेप, संगीत आदि का लगातार सुनना।
  • वातनाशक/वातशामक – तथा पेट के नीचे पेडू पर तिल के तेल से पांव के तलवों की मालिश।

–  स्नेहपान-शुद्ध वात व्याधि में स्नेहपान अर्थात् घी, तेल आदि को अकेले अथवा संस्कारित करके सेवन करना चाहिए। एरण्ड तेल आदि से विरेचन (जुलाब) देना।

–  एनीमा लेना या वस्ति क्रिया कब्ज न होने दें।

–   उष्ण पानी से स्नान, उष्ण जल पीना।

–   दिन में आठ-दस गिलास पानी पीना।

– मन को स्थिर रखने के लिए इश्वार्भ्क्ति , स्वाध्याय, योग-प्राणायाम, ब्रह्मचर्य-पालन आदि अपनाना।

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त्रिदोष: वात, पित्त, कफ


त्रिदोष: वात, पित्त, कफ

त्रिदोष का संतुलित और साम्यावस्था में रहना स्वास्थ्य के लिए आवश्यक होता है। जिस तरह बाहरी जगत में अग्नि वायु द्वारा वृद्धि प्राप्त करती है तो अग्नि को नियन्त्रित करने का कार्य जल तत्व करता है अन्यथा अग्नि सब कुछ जलाकर भस्म कर देती है उसी तरह आन्तरिक जगत में यानी हमारे शरीर के अन्दर वायु द्वारा वृद्धि प्राप्त पित्त यानी अग्नि यदि कफ द्वारा नियन्त्रित न हो पाये तो शरीर की धातुएं भस्म होने लगती है। इसे इस तरह समझे कि वात, पित्त, और कफ तीनों मिलकर शरीर की चयापचयी प्रक्रियाओं का नियमन करते है। कफ (Anabolism) उपचय का,वात  अपचय (Catabolism) का और पित्त चयापचयी (Metabolism) का संचालन करता है। यानी यदि वात की वृद्धि हो जाए तो शरीर में अपचय अधिक होने लगता है और शरीर में क्षयकारी प्रक्रियाएं बढ़ती है। इसे इस स्वाभाविक और प्रकृतिक उदाहरण से समझना और आसान होगा कि जीवन के आरम्भिक वर्षो मे यानी किशोरवस्था तक कफ-दोष स्वाभाविक रूप से प्रबल रहता है क्योंकि यह शारीरिक वृद्धि और विकास का काल होता है और इस दौरान उपचयकारी प्रक्रियाओं की आवश्यकता रहती है। जीवन के  मध्य के वर्षो में यानी युवावस्था मे पित्त दोष प्रबल रहता है क्योंकि इस काल में शरीर व्यस्क हो जाता है और स्थिरता की जरूरत रहती है। वृद्धावस्था में वात दोष स्वाभाविक रूप से प्रबल रहता है क्योंकि यह वयोवृद्धि यानी शारीरिक क्षय यानी अपचयकारी (Catabolic)  प्रक्रियाओं के प्रभावी होने का काल होता है।

वात दोष:- वात को मनुष्य के शरीर में गति का मूल तत्व या सिद्धान्त कहा जा सकता है। यह शरीर में सभी प्रकार की जैविक गति एवं क्रियाओं का संचालन करता है। यह चयापचय सम्बंधी सूक्ष्म से सूक्ष्म परिवर्तनों को उत्पन्न करने वाला तत्व हैं। श्वसन क्रिया, पेशियों, ऊत्तकों व कोशिकाओं में होने वाली गतिज प्रक्रियाएं, शरीर में रक्त और तन्त्रिकीय संवेगों का संचरण, उत्सर्जन आदि को संचालित करने वाला वात दोष हमारी भावनाओं और अनुभूतियों को भी संचालित करता है जैसे भय, चिन्ता, निराशा, दर्द,ऐंठन, कम्पन ताजगी आदि। वात संबधी रोग अधिक आयु होने पर तीव्र हो जाते है क्योंकि इस काल में वात प्राकृतिक रूप से शरीर में प्रबल रहता है।

पित्त दोष:- इस दोष में अग्नि तत्व की प्रधानता होती है। पित्त को अग्नि कहा जाता है हालाकि यह किसी अग्नि-कुण्ड की अग्नि की तरह दिखाई नहीं देता है। बल्कि चयापचय प्रक्रियाओं के रूप में अभिव्यक्त होता है। इसलिए इसके अन्तर्गत आहार का पाचन और पूरे शरीर की चयापचय प्रक्रियाओं में उपयोगी रसायन जैसे हारमोन्स,एन्जाइमस आदि आते है। पित्त दोष मुख्यत:, ग्रहण किये गये बाहरी तत्वों को शरीर के लिए उपयोंगी आन्तरिक तत्वों में परिवर्तित करता है यानी केवल आहार का पाचन ही नहीं बल्कि कोशिकीय स्तर पर होने वाली प्रक्रियाओं का भी संचालन यह दोष करता है। शारीरिक स्तर पर जहां पित्त आहार का पाचन, अवशोषण, पोषण, चयापचय, शारीरिक तापमान, त्वचा का रंग आदि का संचालन करता है वहीं मानसिक स्तर पर मेधा, बुद्धि की तीव्रता,, क्रोध, घृणा, ईर्ष्या  आदि का भी संचालन करता है। पित्त संबधी रोग मध्यम आयु के लोगों में अधिक तीव्र होते है क्योंकि आयु के इस काल में पित्त प्राकृत रूप से प्रबल रहता है।

कफ दोष:- कफ दोष को जैविक जल कहा जा सकता है। यह दोष पृथ्वी और जल इन दो महाभूतों द्वारा उत्पन्न होता है। पृथ्वी तत्व किसी भी पदार्थ की संरचना के लिए आवश्यक है यानी शरीर का आकार और संरचना कफ दोष पर आधारित है। यह रोग प्रतिरोधक शक्ति देने वाला तथा उतकीय व कोशिकीय प्रक्रियाओं को स्वस्थ्य रखने वाला तत्व है। यह शरीर की स्निग्धता, जोड़ों की मजबूती, शारीरिक  ताकत और स्थिरता का बनाये रखता हैं। कफ संबधी रोग जीवन के शुरूवाती वर्षो में यानी किशोरावस्था में अधिक तीव्र होते है। क्योंकि जीवन के इस काल में कफ दोष प्राकृत रूप से प्रबल होता है।

(NirogDham  Varsha  Ritu 2012 Se Saabhar)

कफ-वात-पित्त आदि की चिकित्सा के बारे में संक्षेप में ही कितनी सुंदर बात कह दी गयी है।

वमनं कफनाशाय वातनाशाय मर्दनम्।

शयनं पित्तनाशाय  ज्वरनाशाय लघ्डनम्।।

अर्थात् कफनाश करने के लिए वमन (उलटी), वातरोग में मर्दन (मालिश), पित्त  नाश  के  शयन तथा ज्वर में लंघन (उपवास) करना चाहिए। आयुर्वेद शास्त्र केवल रोगी की चिकित्सा करने में ही विश्वास नहीं करता, अपितु उसका तो सिद्धांत है-’’रोगी होकर चिकित्सा करने से अच्छा है कि बीमार ही न पड़ा जाय।’’ इसके लिए आयुर्वेद शास्त्रों में स्थान-स्थान पर ऐसी बातें भरी पड़ी है, जिसके अनुपालन से वैद्य की आवश्यकता भी नहीं पड़ती। जैसे-

भोजनान्ते पिबेत् तक्रं वैद्यस्य किं प्रयोजनम्।।

तात्पर्य यह कि यदि रात्रि को शयन से पूर्व दुध, प्रात:काल उठकर जल और भोजन के बाद तक्र (मठ्ठा) पिये तो जीवन में वैद्य की आवश्यकता ही क्यों पड़ें? इस प्रकार के सूत्रों के आधार पर ग्राम्य जीवन में बारहों मास के उपयोगी खाद्यों का सुंदर संकेत इस प्रकार कर दिया गया है, ,

सावन हर्रे भादौं चीत, क्वार मास गुड़ खाये मीत।

कातिक मूली अगहन तेल, पूषे करै दुध से मेल।

माघे घी व खीचड़ खाय, फागुन उठि कै प्रात नहाय।

चैत मास में नीम व्यसवनि, भर बैसाखे खाये अगहनि।।

जेठ मास दुपहरिया सोवै, ताकर दुख अषाढ़ में रोवै।।

बारहों मास के इन विधि-खाद्यों के अविरिक्त निषेध-खाद्य भी है

जिन्हें भूलकर भी ग्रहण न करें जैसे-

चैते गुड़ बैसाखे तेल, जेठे पथ आषाढ़े बेल।

सावन साग न भादों दही, क्वार करैला कातिक मही।।

अगहन जीरा न पूषे घना, माघे मिश्री फागुन चना।।

इन बारह से बचे जा भाई ,ता घर कबहूँ वैद न जाई ।।

आयुर्वेद का सिद्धांत है कि-’’भुक्त्वा शतपदं गच्छेच्छायायां हि शनै: शनै:’’। भोजन करने के बाद छाया में सौ पग धीरे-धीरे चलना चाहिए शयन से कम से कम 2-3 घंटे पहले ही भोजन कर लेना चाहिए, अन्यथा कब्ज रहेगी। इसके अतिरिक्त दीर्घायु के लिये भी एक जगह बड़ा सुंदर संकेत कर दिया है कि-

वामशायी द्विभुजानो भण्मूत्री द्विपुरीषक:।

स्वल्पमैथुनकारी च शतं वर्षणि जीवति।।

अर्थात बायीं करवट सोने वाला, दिन में दो बार भोजन करने वाला, कम से कम छ: बार लघुशंका, दो बार शौच जानेवाला, ¿ गृहस्थ में आवश्यक होने परÀ स्वलप-मैथुनकारी व्यक्ति सौ वर्ष तक जीता है।
किसी ने सही कहा है –
एक बार जाए योगी ।
दो बार जाए भोगी ।
बार बार जाए रोगी ।

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अलसी एक चमत्कारिक औषधि


अलसी एक चमत्कारिक औषधि
भारत देश के कुछ प्रांतों में अलसी का तेल खाद्य तेलों के रूप में आज भी प्रचलन में है। धीरे-धीरे अलसी को हम भूलते जा रहे हैं, परंतु अलसी पर हुए नए शोध-अध्ययनों ने बड़े चमत्कारी प्रभाव एवं चैंकाने वाले तथ्य दुनिया के सामने लाए हैं। आज सारे संसार में इसके गुणगान हो रहे हैं। विशिष्ट चिकित्सकों की सलाह में भी अलसी के चमत्कारों की महिमा गाई जा रही है।
गुणधर्म-अलसी एक प्रकार का तिलहन है। इसका बीज सुनहरे रंग का तथा अत्यंत चिकना होता है। फर्नीचर के वार्निश में इसके तेल का आज भी प्रयोग होता है। आयुर्वेदिक मत के अनुसार अलसी वातनाशक, पित्तनाशक तथा कफ निस्सारक भी होती है। मूत्रल प्रभाव एवं व्रणरोपण, रक्तशोधक, दुग्धवर्द्धक, ऋतुस्राव नियामक, चर्मविकारनाशक, सूजन एवं दरद निवारक, जलन मिटाने वाला होता है। यकृत, आमाशय एवं आँतों की सूजन दूर करता है। बवासीर एवं पेट विकार दूर करता है। सुजाकनाशक तथा गुरदे की पथरी दूर करता है। अलसी में विटामिन बी एवं कैल्शियम, मैग्नीशियम, काॅपर, लोहा, जिंक, पोटेशियम आदि खनिज लवण होते हैं। इसके तेल में 36 से 40 प्रतिशत ओमेगा-3 होता है।
विभिन्न रोगों में उपयोग
गाँठ एवं फोड़ा होने पर-अलसी में व्रणरोपण गुण है। गाँठ या फोड़ा होने पर अलसी को पीसकर शुद्ध हलदी पीसकर मिला दें। सबको एक साथ मिलाकर आग पर पकाएँ फिर पान के हरे पत्ते पर पकाया हुआ मिश्रण का गाढ़ा लेप लगाकर सहने योग्य गरम रहे, तब गाँठ या फोड़ा पर बाँध दें। दरद, जलन, चुभन से राहत मिलेगी और पाँच-छह बार यह पुलटिश बाँधने पर फोड़ा पक जाएगा या बैठ जाएगा। फूटने पर विकार पीव (बाहर) निकल जाने पर कुछ दिनों तक यही ठंढी पुलटिश बाँधने पर घाव जल्दी भरकर ठीक हो जाता है।
त्वचा के जलने पर-आग या गरम पदार्थों के संपर्क में आकर त्वचा के जलने या झुलसने पर अलसी के शुद्ध तेल में चूने का साफ निथरा हुआ पानी मिलाकर खूब घोंट लेने पर सफेद रंग का मलहम सा बन जाता है। इसे लगाने पर पीड़ा से राहत मिलती है, ठंडक की अनुभूति होती है तथा घाव ठीक होने लगता है।
हिस्टीरिया की बहोशी में-अलसी का तेल 2-3 बूँद नासिका में डालने से बेहोशी दूर होती है।
हैजा में-40 ग्राम उबलते पानी में 3 ग्राम अलसी पीसकर मिला दें, यह पानी ठंढा होेने पर छानकर आधा-आधा घंटे में तीन खुराक पिलाएँ। यह प्रक्रिया दिन में कई बार दोहराएँ। इससे लाभ होता है।
पुराने जुकाम में-40 ग्राम अलसी के बीजों को तवे पर सेंककर पीस लें, इसमें बराबर मात्रा में मिसरी पीसकर मिला लें, दोनों को एक साथ मिलाकर शीशी में भरकर रखें; इसकी 4 ग्राम की मात्रा को गरम पानी के साथ कुछ दिनों तक लेने से कफ बाहर निकल जाता है। अलसी का कफ निस्सारक गुण होने से सारा कफ-विकार बाहर निकल जाता है। फेफड़े स्वस्थ हो जाते हैं और जुकाम से मुक्ति मिलती है।
क्षय रोग में-24 ग्राम अलसी के बीजों को पीसकर 240 ग्राम पानी में (शाम के समय) भिगोकर रखें। प्रातः गरम कर छान लें तथा आधा नीबू निचोड़कर नीबू रस मिला लें और सेंवन करें। यह नियमित प्रयोग क्षय रोग में लाभकारी होता है।
दमा (अस्थमा में)-6 ग्राम अलसी को कूट-पीसकर 240 ग्राम पानी में उबालें, जब आधा पानी शेष रहे, तब उतारकर 2 चम्मच शहद मिलाकर चाय की तरह गरमागरम सेवन कराने से श्वास की तकलीफ दूर होती है। खाँसी मिटती है।
सुजाक एवं पेशाब की जलन में-अलसी के बीजों को पीसकर बराबर मात्रा में मिसरी मिलाकर 3 ग्राम की मात्रा में दिन में दो बार सेवन कराने से लाभ होता है। अलसी के तेल की 3-4 बूँद मूत्रेंद्रिय में डालने से लाभ होता है। पर्याप्त मात्रा में पानी पीना चाहिए। गरम प्रकृति के खाद्य एवं गरम मसालों से बचना चाहिए।
रीढ़ की हड्डी में दरद-अलसी तेल में सोंठ का चूर्ण डालकर पकाएँ और छानकर ठंढा कर तेल को शीशी में रखें। इस तेल से रीढ़ की नियमित मालिश करने से लाभ होता है।
गुदा के घाव पर-अलसी को जलाकर भस्म बनाकर गुदा के घाव पर बुरकने दें घाव शीघ्रता से भरता है।
माँ के दूध में कमी-शिशु को स्तनपान कराने वाली माताओं को दूध में कमी होने पर 30 ग्राम अलसी को भूनकर, पीसकर, आटा में मिलाकर रोटी बनाकर खिलाने से माँ का दूध बढ़ने लगता है।
कानों की सूजन में-अलसी के तेल में प्याज का रस डालकर पकाएँ। जब तेल शेष रहे, तब उतारकर ठंढा करके शीशी में तेल सुरक्षित रखें। जब आवश्यकता पड़े थोडा सा तेल हलका गरम करके रूई के सहारे कान में 2-2 बूँद टपका दें। (स्मरण रहे तेल सहने योग्य हलका गरम रहे) इससे कान के दरद एवं सूजन में लाभ होता है।
रोग अनेक-नुसखा एक-(गठिया, मधुमेह, हृदय रोग, उच्च रक्तचाप, कब्ज, दमा, भगंदर, लीवर की सूजन, हार्ट ब्लाकेज, आँतों की सूजन, कैंसर, प्रोस्टेट ग्रंथि का बढ़ना, त्वचा के रोग, दाद, खाज, खुजली, एग्जिमा, मुँहासे, झाई आदि रोगों में उपयोगी।)
उपरोक्त रोगों में 60 प्रतिशत से अधिक लाभ होने के जर्मनी में हुए इन दिनों शोध-अध्ययनों के आधार पर यह साधारण सा सरल प्रयोग जन-जन के लिए प्रस्तुत किया जा रहा है।
विधि-30 ग्राम अलसी को बिना तेल डाले कढ़ाई में हलका सेक लें और पीसकर आटे में मिलाकर रोटी बनाकर सेवन करें। नियमित रूप में यह क्रम बनाना होगा। (अलसी को प्रतिदिन भूनकर प्रतिदिन पीसना चाहिए।) अलसी को पीसकर सब्जी या दही में मिलाकर भी सेवन कर सकते है।

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परिक्षित घरेलु नुस्खे-स्वास्थ्य-सूत्र -1 & 2


परिक्षित घरेलु नुस्खे-स्वास्थ्य-सूत्र -1

http://vishwamitra-spiritualrevolution.blogspot.com/2013/10/blog-post_1833.html

It has been observed that if a person decides to donate the amount for the welfare of the humanity which is required for the treatment, the disease cures soon. Rule also suggests that the inspirational source/organization should also be served in any way to pay the debt. Any type of consultation can be provided by the author.

Remember that author is not from medical background, still a lot of persons are getting relief in crucial problems by mercy of God. The persons who try to follow the righteous path, gets benefits easily.

If persons are having bad habits or non vegetarian type, this therapy is not successful for them.

भोजन अगर पचे नहीं, अदरक टुकड़ा चार।

संग नमक नींबू रस, खाय होय उद्धार।।

सौंफ आंव अतिसार में, पेचिश में दे लाभ।

उदर शुल, कफ को, करे दूर यदि ले आप।।

भूख खूब खूल कर लगे, खाय करेला जोय।

नष्ट जीवाणु आंत के, रक्त दोष ना होय।।

आज सारी मानव जाति पाष्चात्य चिकित्सा प्रणाली (ऐलोपैथ) की विशाक्ता से पीड़ित है। “ाीघ्र परिणाम दिखाने की गुणवत्त्ाा के कारण एलोपैथी लोकप्रिय होती चली गयी पर किसी ने भी उसके दुश्परिणामों पर ध्यान नहीं दिया। आज समय की अनिवार्य आवष्यकता है कि आयुर्वेद का पुनर्जीवन कर इसे सर्वाज्ञनीन व सर्वसुलभ बनाया जाय। अनेक संस्थाओं (जैसे बाबा रामदेव, “ाान्तिकुन्ज, हरिद्वार व अन्य ने  इस दिषा में बड़े सराहनीय प्रयास किए हैं। प्रयास केवल अपना मिषन या संस्था का नाम चमकाने के लिए न किए जाएं। अपितु बड़ी संख्या में इस तकनीक का प्रषिक्षण लोगों को दिया जाए। आयुर्वेदिक जड़ी बूटियां व रसायन बनाने की लुप्त होती जा रही पद्धतियों पर एक ओर बड़ी “ाोध की जाए दूसरी ओर निस्वार्थ भाव से लोगों को इस ओर प्रषिक्षित किया जाए।

“ारीर को स्वस्थ बनाए रखना सबसे बड़ा धर्म है। यह मानकर हम सभी स्वास्थ्य संरक्षण की एक क्रान्ति समाज में खड़ी करें व इसमें अपनी भागीदारी निभाएं।

घाव को पकाने व सुखाने में

ळमारी माता जी गुग्गुल की सहायता से किसी भी प्रकार के व्रण (फोड़ा, फुँसी,घाव, गाँठ) को ठीक कर दिया करती है। “ाुद्ध गुग्गुल को देसी घी में कूटकर एक पल्टिस बना कर व्रण के ऊपर बांध देते हैं। प्रत्येक 12 घंटे से 18 घंटे बाद पुल्टिस बदल दी जाती है। चार पांच दिन मेंं ही व्रण पककर फूट जाता है व पका व्रण सूख जाता है। अनेक प्रकार की दवार्इयाँ या सरजरी के उपरान्त भी जो व्रण समाप्त नहीं होते, इस विधि से कन्ट्रोल हो जाते हैं।

नेत्र ज्योतिवर्द्धक नुस्खा

मैंने अपने चिकित्सा काल में नेत्र ज्योति वर्द्धक नुस्खे का प्रयोग कई  रोगीयों पर कराया जो की शतप्रतिशत सफल सिद्ध हुआ है। नुस्खा इस प्रकार है।

नुस्खा- बादाम 200 ग्राम , अखरोट 100 ग्राम , काली मिर्च 100 ग्राम , बारीक सौंफ 100 ग्राम ,मिश्री 600 ग्राम । बादाम को रात को जल में भिगोकर रख दें और प्रात: छिलके निकालकर धूप में अच्छी तरह सुखा लें। इसको व अन्य द्रव्यों को अलग-अलग कुट पीस कर महीन चुर्ण कर लें व अच्छे से मिलाकर एक जान करके कांच की बर्नी में रख लें। इस मिश्रण की बीस ग्राम  मात्रा गाय के दूध के साथ प्रतिदिन रात को भोजन से दो घंटे बाद सेवन करें। इसके साथ उजाला वटी की दो गोली का भी सेवन करें। बच्चों को इससे आधी मात्रा दें तथा इस नुस्खे को कम से कम छ: माह तक प्रयोग करें और नेत्र ज्योति में चमत्कारी लाभ अनुभव कर लें

दर्दहर लाल तैल         

-विनोद कुमार बंसल, 129, सिविल लाईन उतरी रेलवे स्टेशन वाली गली मुज्जफरनगर (उतर प्रदेश) मेबइल-0889954987

नुस्खा- सरसों का तेल  250 ग्राम , तारपीन का तैल 100 ग्राम , लहसुन की कलियां 50 ग्राम , रतनजोत 20 ग्राम , पुदीना सत्व 10 ग्राम , अजवाइन सत्व 10 ग्राम, देशी कपूर 10 ग्राम।

विधि- सर्वप्रथम पुदीना सत्व, अजवाइन सत्व व कपुर इन तीनों को एक साफ कांच की शशी में डालकर हिलाकर रख दें। 2-3 घटें में तीनों वस्तुए अपने आप द्रव्य रूप हो जाएगी। इसे ‘‘ अमृत धारा ‘‘ कहते है। इसे व तारपीन के तैल को अलग रख दें अब कढाही में सरसों का तैल गर्म करें तथा इसमें लहसुन की कलियां बारिक काटकर डाल दें। इसे इतना भूनें की कलियां काली पड़ जाए। आंच से नीचे उतार कर इसमें रतनजोत डाल दें तथा कलछी से मसल दें। ठण्डा होने पर इसे मसल कर कपड़े से छान लें। फिर इसमें अमृत धारा और तारपीन का तैल मिला दें। मालिश के लिए तैल तैयार है।

सावधानी- तैल बनाते समय ध्यान रखें कि अमृत धारा व तारपीन तैल अन्त में तैल छानने के बाद व ठण्डा होने पर मिलाना है।

बवासीर नाशक नुस्खा

प्रेषक- श्री अशोक कुमार शर्मा, नौशहरा जिला राजोरी ( जे एडं के ) मोबइल-09596619936

यह नुस्खा बवासीर को जड़ से मिटाने वाला है। बवासीर के रोगी को तले हुए,मिर्च मसालेदार पदार्थो का सेवन हमेशा के लिए त्याग देना चाहिए।

नुस्खा- कचुर, काली मिर्च, काली जीरी, नीम के पते व दारू हल्दी- इन सभी द्रव्यों को बराबर मात्रा में लेकर कुट पीस कर बारिक चर्ण कर लें और तीन बार छान कर बारिक शीशी में भर कर रख लें। इस चुर्ण की आधा चम्मच मात्रा खाली पेट सुबह-शाम ठंड़ पानी के साथ लें। 15 से 20 दिन में पूर्ण लाभ हो जाता है। लाभ होने पर इसे बंद कर दें। जरूरत पड़ने पर इसे दोबारा भी लिया जा सकता है।

दिमाग का रामबाण टॉनिक

प्रेषिका- डा सुमन अग्रवाल, 604, ध्वनि, प्लाट न 11 कांदतली (वेस्ट) मुम्बई -400067मोबइल-09322148838

आज की भाग दौड़ और तनाव भरी जीवन शैली से उत्पन्न चितां, शोक, भय तथा क्रोध आदि का मस्तिष्क पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है। परिणाम स्वरूप स्मरणशक्ति की हानि, छोटी-छोटी बातों पर अत्याधिक भावुक होना व रोना, क्रोध, बेचैनी,सिरदर्द, आत्मविश्वास में कमी आदि लक्षण उत्पन्न होते है। इन सब लक्षणों से बचाव एवं मुक्ति के लिए एक अनुभुत नुस्खा प्रस्तुत है।

नुस्खा- आंवला, शखपुष्पी, ब्राह्मी, गिलोय व जटामांसी- इन सबको समान मात्रा में लेकर महीन चुर्ण करके अच्छी तरह मिलाकर रख लें। इसकी एक-एक चम्मच मात्रा शहद, जल या आंवले के शर्बत के साथ दिन में तीन बार सेवन करें। बच्चों को इसकी आधी मात्रा सेवन कराएं। यह नुस्खा बच्चों से लेकर वृद्ध तक सभी के लिए पूर्ण रूप से सुरक्षित है। गर्भवती महिला यदि पुरे गर्भ काल में नियमित इसका सेवन करती रहती है तो उनके होने वाले शिशु हर प्रकार के मानसिक रोगों से सुरिक्षित रहता है।

पित्त् विकार नाशक नुस्खा

प्रेषक – डॉ वी के पाठक, अखण्ड परमधाम, स्टेशन रोड, भरूआ, सुमेरपूर, हमीरपूर ( उतर  प्रदेश )

मोबइल-09935989362

मेरी चिकित्सा काल के दौरान पित्त् विकार को नष्ट करने वाला एक नुस्खा सफल सिद्ध हुआ है। जनहित में इसे प्रकाशित कर रहा हुँ नुस्खा इस प्रकार है।

नुस्खा-अकीक पिष्टी 10 ग्राम , जहर मोहरा पिष्टी 10 ग्राम , गिलोय सत्व 10ग्राम , हरी इलायची के बीजों का चर्ण 10 ग्राम , प्रवाल पिष्टी 10 ग्राम , ग्लूकोज पाउडर 50 ग्राम – सबको मिलाकर एक जान कर ले। इस मिश्रण की बराबर 40 पुडिया बना लें। एक-एक पुडिया सुबह-शाम शहद, पानी या दूध से सेवन करें। इस नुस्खे के प्रयोग से अम्लपित, जलन, चक्कर, भ्रम, वमन, मितली आदि समस्याएं शर्तिया दूर हो जाती है।

मधुमेह नाशक नुस्खा

गुरमकी 100 ग्राम, मुसब्बिर 100 ग्राम, लोबान 100 ग्राम, कंलौजी 100 ग्राम,हीग अच्छी किस्म का इन सभी को 5 किलो पानी में उबलना है। 5-6 उबाल आने पर ठंड़ा करके छान ले। 100 ग्राम प्रतिदिन लें चालीस दिन तक सेवन करें

वायु विकार नाशक नुस्खा

250 ग्राम मेथीदाना, 100 ग्राम अजवाइन, काली जीरी 50 ग्राम इन सब को अलग-अलग भूनकर कूटकर चुर्ण बना लें। रात को सोते समय एक गिलास पानी अथवा दूध के साथ लें 15-20 दिन तक लें लाभ होगा।

खांसी का नुस्खा

शुद्ध घी(गाय या भैंस का)15-20 ग्राम  और 15-20 ग्राम  काली मिर्च-एक कटोरी में डाल कर आग पर गर्म करें। जब काली मिर्च कड़कड़ाने लगे और उपर आ जाए तब उतार कर थोड़ा ठंड़ा करके 20 ग्राम  पीसी मिश्री या चीनी मिला लें। जब थोड़ा गर्म रहे तब इस मिश्रण को चबा-चबाकर खा ले और इसके बाद एक घण्टे तक कुछ खाएं पिएं नहीं। इसी तरह सुबह-शाम 2-3 दिन तक खाएं। खांसी ठीक हो जाएगी।  (From Nirogdham Patrika 2012 with thanks)

यह सन्देश निर्मल महतो का नवाडी, बोकारो, झारखण्ड से है. इस सन्देश में निर्मलजी का कहना है की खांसी कोई रोग नहीं है यह तो रोग का लक्षण मात्र है. खांसी मुख्यतः तीन प्रकार की होती है सूखी खांसी, कफयुक्त खांसी और काली खांसी. सूखी खांसी में खांसने पर कठिनाई से थोडा-थोडा लसेदार कफयुक्त थूक निकलता है. कफयुक्त खांसी में खांसने से कफ निकलता है. काली खांसी ज्यादातर छोटे बच्चों को होती है. इस खांसी में खांसते-खांसते बच्चों का मुहँ लाल हो जाता है जिससे बच्चा बेहाल हो जाता है. इसके उपचार के लिए भूनी हुई 10 ग्राम फिटकरी और 100 ग्राम देसी खांड (मिश्री) को साथ में महीन पीसकर इसकी चार पुडिया बना कर रख लें. इसे सूखी खांसी होने की दशा में1 पुडिया आधा गिलास दूध में रात में सोते समय लें. कफयुक्त खांसी होने पर यही पुडिया आधा गिलास गुनगुने पानी के साथ ले. खांसी ठीक हो जानेपर यह दवाई खाना बंद कर दें. इस उपचार से पुरानी से पुरानी खांसी भी 2 हफ़्तों में ठीक होती है. कालीमिर्च और मिश्री सामान मात्रा में बारीक पीस ले और इस मिश्रण में इतना देसी घी मिलाये की इसकी आसानी से झरबेरियों (छोटे जंगली बेर) के बराबर गोलियाँ बन जाये. इसे दिन में चार बार चूसने से सभी प्रकार की सूखी और बलगमी खांसी ठीक हो जाती है. पहली गोली चूसने से ही आशातीत परिणाम मिलने लगता है. मुनक्का के बीज निकालकर इसमें तीन कालीमिर्च रखकर चबाये और रात को मुहँ में रखकर सोएँ इससे एक सप्ताह में खांसी ठीक हो जाएगी. 50 ग्राम कालीमिर्च के चूर्ण में 100 ग्राम गुड मिलाकर आधा-आधा ग्राम की गोलियाँ बना लें. इन गोलियों को दिन में 3-4 बार चूसने से खांसी ठीक हो जाएगी. निर्मल महतो का संपर्क है9204332389

बुखार की राम बाण दवा

गिलोय, नेपाली चिरायता, खूबकला, अजवाइन थोंड़ा-2 लेकर ड़ेढ गिलास पानी में डालकर पकाएं, पानी चौथाइ रह जाए तो पकाना बंद करें। 50 से 100 गा्रम गुनगुना मरीज को दो या तीन बार पिलाए। यह घोल छह: घण्टे बाद खराब होने लगता है अत: ताजा पकाएँ। उन्हीं जड़ी-बुटियों को एक बार पकाने के बाद दोबारा भी पका सकते है पंरतु दो बार से अधिक नहीं। गिलोय ताजा सर्वोच्य हो व चिरायता असली हों।

मानसिक शक्ति वर्धक

कई बार रोगी मानसिक थकान, परेशानी या बेचेनी सी अनुभव करता है इसके लिए जटामांसी के बाल या चूर्ण लें। उन्हें हवन करने के पश्चात् कुण्ड में डालें जब अग्नि न जल रही हो। अर्थात धुए को गहरी श्वास द्वारा ग्रहण करें। मस्तिष्क को तुरन्त ताकत महसूस देगी।

पथरी और वृक्कशुल

गुर्दे के दर्द व पथरी को नष्ट करने के लिए आपामार्ग पौधे की ताजी जड़ 5ग्राम लेकर पानी के साथ कुट पीस कर छान कर प्रतिदिन पीने से पथरी कट-कट कर मूत्र मार्ग से निकल जाती है और वृक्कशूल दूर होता है।

‘‘प्रात: काले र्मंधुयुक्तं वारि सेवित स्थौल्यनाशनम्।

उष्णमन्नस्य मण्डं वा पिबन् कृशतनुभवेत।।’’

अर्थात्-प्रात: काल मधु युक्त जल पीने से स्थूलता नष्ट होती है अथवा चावल की गरम माण्ड पीने से शरीर कृश होता है।

हृदय में होने वाले रक्त अवरोध का घरेलु नुस्खा

लौकी(घिया)काजूस(रस),तुलसी,पौदीनावकालीमिर्च-5-5नगमिलाकरदिनमेंतीनबारलेइसकेअलावाप्रात:नाशतेमेंएकचम्मच‘‘अर्जुनचूर्ण’’दुधकेसाथलेआशातीतलाभहोगा

परिक्षित घरेलु नुस्खे-स्वास्थ्य-सूत्र -2

चेतावनी : कृप्या दवाओं से इलाज रोगी की प्रकृति के अनुसार करें | उदाहरण के लिए उष्ण (गर्म ) अथवा पित्त प्रकृति के व्यक्ति लहसुन, कालीमिर्च, हल्दी आदि का प्रयोग सोच समझकर ही करें । इससे लाभ के स्थान पर हानि भी हो सकती है ।
(from Rajiv Dixit media)

ब्रेन मलेरिया, टाइफाईड, चिकुनगुनिया, डेंगू, स्वाइन फ्लू, इन्सेफेलाइटिस, माता व अन्य प्रकार के बुखार का इलाज

  1. 20 पत्ते तुलसी, नीम की गिलोई का सत् 5gm, सोंठ (सुखी अदरक) 10gm, 10छोटी पीपर के टुकड़े, सब आपके घर मे आसानी से उपलब्ध हो जाती है। सब एक जगह पर कूटने के बाद एक गिलास पानी में उबालकर काढ़ा बनाना है ठन्डा होने के बाद दिन में सुबह, दोपहर और श्याम तीन बार पीना चाहिए।
  2. नीम गिलोई – इसका जूस डेंगू रोग में श्वेत रक्त कणिकाए, प्लेटलेट्स कम होने पर तुरंत बढ़ाने में बहुत ज्यादा काम आता है।
  3. एक और अच्छी दवा है, एक पेड़ होता है उसे हिंदी में हारसिंगार कहते है, संस्कृत पे पारिजात कहते है, बंगला में शिउली कहते है, उस पेड़ पर छोटे छोटे सफ़ेद फूल आते है, और फुल की डंडी नारंगी रंग की होती है, और उसमे खुश्बू बहुत आती है, रात को फूल खिलते है और सुबह जमीन में गिर जाते है । इस पेड़ के पांच पत्ते तोड़ के पत्थर में पिस के चटनी बनाइये और एक ग्लास पानी में इतना गरम करो के पानी आधा हो जाये फिर इसको ठंडा करके रोज सुबह खाली पेट पियो तो बीस बीस साल पुराना गठिया का दर्द इससे ठीक हो जाता है । और यही पत्ते को पिस के गरम पानी में डाल के पियो तो बुखार ठीक कर देता है और जो बुखार किसी दवा से ठीक नही होता वो इससे ठीक होता है जैसे चिकनगुनिया का बुखार, डेंगू फीवर, Encephalitis , ब्रेन मलेरिया, ये सभी ठीक होते है ।

इनके प्रयोग से आप रोगी की जान बचा सकते हैं। मात्र इसकी 3 खुराक से लाखों लोगो को बुखार से मरने से बचाया जा सकता है ।

गला और छाती की बीमारी का इलाज :

गले में किनती भी ख़राब से ख़राब बीमारी हो, कोई भी इन्फेक्शन हो, इसकी सबसे अछि दावा है हल्दी । जैसे गले में दर्द है, खरास है , गले में खासी है, गले में कफ जमा है, गले में टोनसीलाईटिस हो गया ; ये सब बिमारिओं में आधा चम्मच कच्ची हल्दी का रस लेना और मुह खोल कर गले में डाल देना , और फिर थोड़ी देर चुप होके बैठ जाना तो ये हल्दी गले में निचे उतर जाएगी लार के साथ ; और एक खुराक में ही सब बीमारी ठीक होगी दुबारा डालने की जरुरत नही । ये छोटे बच्चों को तो जरुर करना; बच्चों के टोन्सिल जब बहुत तकलीफ देते है न तो हम ऑपरेशन करवाके उनको कटवाते है; वो करने की जरुरत नही है हल्दी से सब ठीक होता है ।

गले और छाती से जुडी हुई कुछ बीमारिया है जैसे खासी; इसका एक इलाज तो कच्ची हल्दी का रस है जो गले में डालने से तुतंत ठीक हो जाती है चाहे कितनी भी जोर की खासी हो । दूसरी दावा है अदरक, ये जो अदरक है इसका छोटा सा टुकड़ा मुह में रखलो और टफी की तरह चुसो खासी तुतंत बंध हो जाएगी । अगर किसीको खासते खासते चेहरा लाल पड़ गया हो तो अदरक का रस ले लो और उसमे थोड़ा पान का रस मिला लो दोनों एक एक चम्मच और उसमे मिलाना थोड़ा सा गुड या सेहद । अब इसको थोडा गरम करके पी लेना तो जिसको खासते खासते चेहरा लाल पड़ा है उसकी खासी एक मिनट में बंध हो जाएगी । और एक अछि दावा है , अनार का रस गरम करके पियो तो खासी तुरन्त ठीक होती है । काली मिर्च है गोल मिर्च इसको मुह में रख के चबालो , पीछे से गरम पानी पी लो तो खासी बंध हो जाएगी, काली मिर्च को चुसो तो भी खासी बंध हो जाती है ।

छाती की कुछ बिमारिया जैसे दमा, अस्थमा, ब्रोंकिओल अस्थमा, इन तीनो बीमारी का सबसे अच्छा दवा है गाय मूत्र; आधा कप गोमूत्र पियो सबेरे का ताजा ताजा तो दमा ठीक होता है, अस्थमा ठीक होता है, ब्रोंकिओल अस्थमा ठीक होता है । और गोमूत्र पिने से टीबी भी ठीक हो जाता है , लगातार पांच छे महीने पीना पड़ता है । दमा अस्थमा का और एक अछि दावा है दालचीनी, इसका पाउडर रोज सुबह आधे चम्मच खाली पेट गुड या सेहद मिलाके गरम पानी के साथ लेने से दमा अस्थमा ठीक कर देती है ।

पेट की वीमारी का इलाज :

अगर आपकी पेट ख़राब है दस्त हो गया है , बार बार आपको टॉयलेट जाना पड़ रहा है तो इसकी सबसे अछि दावा है जीरा | अध चम्मच जीरा चबाके खा लो पीछे से गुनगुना पानी पी लो तो दस्त एकदम बंध हो जाते है एक ही खुराख में |

अगर बहुत जादा दस्त हो … हर दो मिनिट में आपको टॉयलेट जाना पड़ रहा है तो आधा कप कच्चा दूध ले लो बिना गरम किया हुआ और उसमे निम्बू डालके जल्दी से पी लो | दूध फटने से पहले पीना है और बस एक ही खुराक लेना है बस इतने में ही खतरनाक दस्त ठीक हो जाते है |

और एक अछि दावा है ये जो बेल पत्र के पेड़ पर जो फल होते है उसका गुदा चबाके खा लो पीछे से थोडा पानी पी लो ये भी दस्त ठीक कर देता है | बेल का पाउडर मिलता है बाज़ार में उसका एक चम्मच गुनगुना पानी के साथ पी लो ये भी दस्त ठीक कर देता है |

पेट अगर आपका साफ़ नही रहता कब्जियत रहती है तो इसकी सबसे अछि दावा है अजवाईन | इसको गुड में मिलाके चबाके खाओ और पीछे से गरम पानी पी लो तो पेट तुरंत साफ़ होता है , रात को खा के सो जाओ सुबह उठते ही पेट साफ होगा |

और एक अछि दावा है पेट साफ करने की वो है त्रिफला चूर्ण , रात को सोते समय एक चम्मच त्रिफला चूर्ण ले लो पानी के साथ पेट साफ हो जायेगा |

पेट जुडी दो तिन ख़राब बिमारिय है जैसे बवासीर, पाईल्स, हेमोरोइड्स, फिसचुला,फिसर .. ये सब बिमारिओ में अछि दावा है मुली का रस | एक कप मुली का रस पियो खाना खाने के बाद दोपहर को या सबेरे पर शाम को मत पीना तो हर तरेह का बवासीर ठीक हो जाता है , भगंदर ठीक होता है फिसचुला, फिसर ठीक होता है .. अनार का रस पियो तो भी ठीक हो जाता है |

बिच्छू काटने पर चिकित्सा :

बिच्छू काटने पर बहुत दर्द होता है जिसको बिच्छू काटता है उसके सिवा और कोई जान नही सकता कितना भयंकर कष्ट होता है। तो बिच्छू काटने पर एक दावा है उसका नाम है Silicea 200 इसका लिकुइड 5 ml घर में रखे । बिच्छू काटने पर इस दावा को जीभ पर एक एक ड्रोप 10-10 मिनट अंतर पर तिन बार देना है । बिच्छू जब काटता है तो उसका जो डंक है न उसको अन्दर छोड़ देता है वोही दर्द करता है । इस डंक को बाहर निकलना आसान काम नही है, डॉक्टर के पास जायेंगे वो काट करेगा चीरा लगायेगा फिर खिंच के निकालेगा उसमे उसमे ब्लीडिंग भी होगी तकलीफ भी होगी । ये मेडिसिन इतनी बेहतरीन मेडिसिन है के आप इसके तिन डोस देंगे 10-10 मिनट पर एक एक बूंद और आप देखेंगे वो डंक अपने आप निकल कर बाहर आ जायेगा। सिर्फ तिन डोस में आधे घन्टे में आप रोगी को ठीक कर सकते है। बहुत जबरदस्त मेडिसिन है ये Silicea 200. और ये मेडिसिन मिट्टी से बनती है,वो नदी कि मिट्टी होती है न जिसमे थोड़ी बालू रहती है उसी से ये मेडिसिन बनती है ।

इस मेडिसिन को और भी बहुत सारी काम में आती है । अगर आप सिलाई मशीन में काम करती है तो कभी कभी सुई चुव जाती है और अन्दर टूट जाती है उस समय भी आप ये मेडिसिन ले लीजिये ये सुई को भी बाहर निकाल देगा। आप इस मेडिसिन को और भी कई केसेस में व्यवहार कर सकते है जैसे कांटा लग गया हो , कांच घुस गया हो, ततैया ने काट लिया हो, मधुमखी ने काट लिया हो ये सब जो काटने वाले अन्दर जो छोड़ देते है वो सब के लिए आप इसको ले सकते है । बहुत तेज दर्द निवारक है और जो कुछ अन्दर छुटा हुआ है उसको बाहर निकलने की मेडिसिन है ।

बहुत सस्ता मेडिसिन है 5 ml सिर्फ 10 रूपए की आती है इससे आप कम से कम 50से 100 लोगों का भला कर सकते है ।

सुगर की चिकित्सा और सावधानिया

आजकल मधुमेह की बीमारी आम बीमारी है। डाईबेटिस भारत मे 5 करोड़ 70 लाख लोगोंकों है और 3 करोड़ लोगों को हो जाएगी अगले कुछ सालों मे सरकार ये कह रही है । हर दो मिनट मे एक मौत हो रही है डाईबेटिस से और complication Complications तो बहुत हो रहे है… किसी की किडनी ख़राब हो रही है, किसीका लीवर ख़राब हो रहा है किसीको ब्रेन हेमारेज हो रहा है, किसीको पैरालाईसीस हो रहा है,किसीको ब्रेन स्ट्रोक आ रहा है, किसीको कार्डियक अरेस्ट हो रहा है, किसी को हार्ट अटैक आ रहा है Complications बहुत है खतरनाक है ।

जब किसी व्यक्ति को मधुमेह की बीमारी होती है। इसका मतलब है वह व्यक्ति दिन भर में जितनी भी मीठी चीजें खाता है (चीनी, मिठाई, शक्कर, गुड़ आदि) वह ठीक प्रकार से नहीं पचती अर्थात उस व्यक्ति का अग्नाशय उचित मात्रा में उन चीजों से इन्सुलिन नहीं बना पाता इसलिये वह चीनी तत्व मूत्र के साथ सीधा निकलता है। इसे पेशाब में शुगर आना भी कहते हैं। जिन लोगों को अधिक चिंता, मोह, लालच, तनाव रहते हैं, उन लोगों को मधुमेह की बीमारी अधिक होती है। मधुमेह रोग में शुरू में तो भूख बहुत लगती है। लेकिन धीरे-धीरे भूख कम हो जाती है। शरीर सुखने लगता है,कब्ज की शिकायत रहने लगती है। अधिक पेशाब आना और पेशाब में चीनी आना शुरू हो जाती है और रेागी का वजन कम होता जाता है। शरीर में कहीं भी जख्म/घाव होने पर वह जल्दी नहीं भरता।

तो ऐसी स्थिति मे हम क्या करें ? राजीव भाई की एक छोटी सी सलाह है के आप इन्सुलिन पर जादा निर्भर न करे क्योंकि यह इन्सुलिन डाईबेटिस से भी जादा खतरनाक है, साइड इफेक्ट्स बहुत है ।

इस बीमारी के घरेलू उपचार निम्न लिखित हैं।

आयुर्वेद की एक दावा है जो आप घर मे भी बना सकते है –

  1. 100 ग्राम मेथी का दाना
  2. 100 ग्राम तेजपत्ता
  3. 150 ग्राम जामुन की बीज
  4. 250 ग्राम बेल के पत्ते

इन सबको धुप मे सुखा कर पत्थर मे पिस कर पाउडर बना कर आपस मे मिला ले,यही औषधि है ।

औषधि लेने की पद्धति : सुबह नास्ता करने से एक घंटे पहले एक चम्मच गरम पानी के साथ ले फिर शाम को खाना खाने से एक घंटे पहले ले । तो सुबह शाम एक एक चम्मच पाउडर खाना खाने से पहले गरम पानी के साथ आपको लेना है । 45-60 दिन अगर आप ये दावा ले लिया तो आपकी डाईबेटिस बिलकुल ठीक हो जाएगी ।

ये औषधि बनाने मे 20 से 25 रूपया खर्च आएगा और ये औषधि तीन महिना तक चलेगी और उतने दिनों मे आपकी सुगर ठीक हो जाएगी ।

सावधानी :

  1. सुगर के रोगी ऐसी चीजे जादा खाए जिसमे फाइबर हो रेशे जादा हो, High Fiber Low Fat Diet घी तेल वाली डायेट कम हो और फाइबर वाली जादा हो रेशेदार चीजे जादा खाए। सब्जिया मे बहुत रेशे है वो खाए, डाल जो छिलके वाली हो वो खाए, मोटा अनाज जादा खाए, फल ऐसी खाए जिनमे रेशा बहुत है ।
  2. चीनी कभी ना खाए, डाईबेटिस की बीमारी को ठीक होने मे चीनी सबसे बड़ी रुकावट है । लेकिन आप गुड़ खा सकते है ।
  3. दूध और दूध से बनी कोई भी चीज नही खाना ।
  4. प्रेशर कुकर और अलुमिनम के बर्तन मे खाना न बनाए ।
  5. रात का खाना सूर्यास्त के पूर्व करना होगा ।

जो डाईबेटिस आनुवंशिक होतें है वो कभी पूरी ठीक नही होता सिर्फ कण्ट्रोल होता है उनको ये दावा पूरी जिन्दगी खानी पड़ेगी पर जिनको आनुवंशिक नही है उनका पूरा ठीक होता है ।

In case of narrow veins (sikudan) AMAR BAIL is supposed to be very effective to avoid ballon therapy