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‘भंगी’ और ‘मेहतर’


हमारे-आपके पूर्वजों ने जिन ‘भंगी’ और ‘मेहतर’ जाति को अस्‍पृश्‍य करार दिया, जिनका हाथ का छुआ तक आज भी बहुत सारे हिंदू नहीं खाते, जानते हैं वो हमारे आपसे कहीं बहादुर पूर्वजों की संतान हैं। मुगल काल में ब्राहमणों व क्षत्रियों को दो रास्‍ते दिए गए, या तो इस्‍लाम कबूल करो या फिर हम मुगलों-मुसलमानों का मैला ढोओ। आप किसी भी मुगल किला में चले जाओ वहां आपको शौचालय नहीं मिलेगा।

हिंदुओं की उन्‍नत सिंधू घाटी सभ्‍यता में रहने वाले कमरे से सटा शौचालय मिलता है, जबकि मुगल बादशाह के किसी भी महल में चले जाओ, आपको शौचालय नहीं मिलेगा, जबकि अंग्रेज और वामपंथी इतिहासकारों ने शाहजहां जैसे मुगल बादशाह को वास्‍तुकला का मर्मज्ञ ज्ञाता बताया है। लेकिन सच यह है कि अरब के रेगिस्‍तान से आए दिल्‍ली के सुल्‍तान और मुगल को शौचालय निर्माण तक का ज्ञान नहीं था। दिल्‍ली सल्‍तनत से लेकर मुगल बादशाह तक के समय तक पात्र में शौच करते थे, जिन्‍हें उन ब्राहमणों और क्षत्रियों और उनके परिजनों से फिकवाया जाता था, जिन्‍होंने मरना तो स्‍वीकार कर लिया था, लेकिन इस्‍लाम को अपनाना नहीं।

‘भंगी’ का मतलब जानते हैं आप्…। जिन ब्राहमणों और क्षत्रियों ने मैला ढोने की प्रथा को स्‍वीकार करने के उपरांत अपने जनेऊ को तोड़ दिया, अर्थात उपनयन संस्‍कार को भंग कर दिया, वो भंगी कहलाए। और ‘मेहतर’- इनके उपकारों के कारण्‍ा तत्‍कालिन हिंदू समाज ने इनके मैला ढोने की नीच प्रथा को भी ‘महत्‍तर’ अर्थात महान और बड़ा करार दिया था, जो अपभ्रंश रूप में ‘मेहतर’ हो गया। भारत में 1000 ईस्‍वी में केवल 1 फीसदी अछूत जाति थी, लेकिन मुगल वंश की समाप्ति होते-होते इनकी संख्‍या-14 फीसदी हो गई। आपने सोचा कि ये 13 प्रतिशत की बढोत्‍तरी 150-200 वर्ष के मुगल शासन में कैसे हो गई।

वामपंथियों का इतिहास आपको बताएगा कि सूफियों के प्रभाव से हिंदुओं ने इस्‍लाम स्‍वीकार किया, लेकिन गुरुतेगबहादुर, उनके बेटों, उनके शिष्‍यों का बलिदान का सबूत हमारे समक्ष है, जिसे वामपंथी इतिहासकार केवल छूते हुए निकल जाते हैं। गुरु तेगबहादुरर के 650 शिष्‍यों को इस्‍लाम न स्‍वीकार करने के कारण आम जनता के समक्ष आड़े से चिड़वा दिया गया, फिर गुरु को खौलते तेल में डाला गया और आखिर में उनका सिर कलम करवा दिया गया। भारत में इस्‍लाम का विकास इस तरह से हुआ। इसलिए जो हिंदू डर के मारे इस्‍लाम धर्म स्‍वीकार करते चले गए, उन्‍हीं के वंशज आज भारत में मुस्लिम आबादी हैं, जो हिंदू मरना स्‍वीकार कर लिया, वह पूरा का पूरा परिवार काट डाला गया और जो हिंदू नीच मैला ढोने की प्रथा को स्‍वीकार कर लिया, वह भंगी और मेहतर कहलाए।

डॉ सुब्रहमनियन स्‍वामी लिखते हैं, ” अनुसूचित जाति उन्‍हीं बहादुर ब्राहण व क्षत्रियों के वंशज है, जिन्‍होंने जाति से बाहर होना स्‍वीकार किया, लेकिन मुगलों के जबरन धर्म परिवर्तन को स्‍वीकार नहीं किया। आज के हिंदू समाज को उनका शुक्रगुजार होना चाहिए, उन्‍हें कोटिश: प्रणाम करना चाहिए, क्‍योंकि उन लोगों ने हिंदू के भगवा ध्‍वज को कभी झुकने नहीं दिया, भले ही स्‍वयं अपमान व दमन झेला।”

क्‍या आप सभी खुद को हिंदू कहने वाले लोग उस अनुसूचित जाति के लोगों को आगे बढ़कर गले लगाएंगे, उनसे रोटी-बेटी का संबंध रखेंगे। यदि आपने यह नहीं किया तो समझिए, हिंदू समाज कभी एक नहीं हो पाएगा और एक अध्‍ययन के मुकाबले 2061 से आप इसी देश में अल्‍पसंख्‍यक होना शुरू हो जाएंगे। इस पर अगले पोस्‍ट में प्रकाश डालूंगा।

इसलिए भारतीय व हिंदू मानसिकता का विकास कीजिए और अपने सच्‍चे इतिहास से जुडि़ए, इसकी सदस्‍यता लेकर, इतिहास की सच्‍चाई सामने लाने के लिए एक दबाव समूह का निर्माण कीजिए, औरंगजेब के नाम पर स्थित सड़क के नाम को बदलवाने के लिए एक संगठित समूह का निर्माण कीजिए, इतिहास आधारित देश की पहली पत्रिका की सदस्‍यता लीजिए- आखिर आप ही लोगों के कहने पर यह अभियान शुरू किया गया है, इसलिए आप लोग अब पीछे मत हटिए..https://www.facebook.com/visionIndiaBooksClub

  • अत्रि त्रि मेहतर लाम अलीशिंग नदी और आलींगार नदी द्वारा बनाई गई वादी में जलालाबाद शहर से ४७ किमी पश्चिमोत्तर में स्थित है। यहाँ ‘लाम’ नामक इस्लामी हस्ती को समर्पित एक ज़ियारत (मस्जिद) है जो नूह के पिता माने जाते हैं। इस्लाम में नूह ( نوح, Noah) एक पैग़म्बर थे जिन्होनें अब्राहिमी धर्मों (इस्लाम, ईसाई धर्म और यहूदी धर्म) की धर्मकथाओं के अनुसार एक विश्वव्यापी जल-प्रलय में धरती की सभी भिन्न प्राणी-जातियों को बचाया था। माना जाता है कि पास के एक पहाड़ पर उनके द्वारा चलाई गई नौका आकर रुकी थी और यहीं की एक वादी का नाम ‘नूह की वादी’ (दर्रा-ए-नूह) है।[1] पश्तो, फ़ारसी, पंजाबी और पुरानी हिन्दी में ‘मेहतर’ शब्द का मतलब ‘राजकुंवर’ या ‘मुखिया’ हुआ करता था।
    http://hi.m.wikipedia.org/…/%E0%A4%AE%E0%A5%87%E0%A4%B9…
  • अत्रि त्रि प्रख्यात साहित्यकार अमृत लाल नागर ने अनेक वर्ष शोध के बाद पाया कि जिन्हें “भंगी”, “मेहतर” आदि कहा गया,वे क्षत्रिय थेस्टेनले राइस ने अपने पुस्तक “हिन्दू कस्टम्स एण्ड देयर ओरिजिन्स” में यह भी लिखा है कि अछूत मानी जाने वाली जातियों में प्राय: वे जातियां भी हैं, जो विजेताओं से हारीं और अपमानित हुईं तथा जिनसे विजेताओं ने अपने मनमाने काम करवाए थे। संयोगवश लखनऊ के उत्साही समाजसेवी श्री अच्छेलाल वाल्मीकि तथा हरिजन सेवक संघ, दिल्ली के पण्डित चिन्तामणि वाल्मीकि, एम.ए. की बातों से मुझे स्टेनले राइस के कथन का सत्याभास मिला। पण्डित चिन्तामणि वाल्मीकि (राउत मेहतर) ने मुझे एक पुस्तक “पतित प्रभाकर” अर्थात् “मेहतर जाति का इतिहास” पढ़ने को दी। यह पुस्तक गाजीपुर के श्री देवदत्त शर्मा चतुर्वेदी ने सन् 1925 में लिखी थी और इसे चिन्तामणि जी के पितामह श्रीमान वंशीराम राउत (मेहतर), मिलमिल तालाब, गाजीपुर, ने 1931 में अपने खर्च से प्रकाशित करवाया था। इस छोटी-सी पुस्तक में “भंगी”, “मेहतर”, “हलालखोर”, “चूहड़” आदि नामों से जाने गए लोगों की किस्में दी गई हैं, जो इस प्रकार हैं (पृ. 22-23)

    नाम जाति भंगी- वैस, वैसवार, बीर गूजर (बग्गूजर), भदौरिया, बिसेन, सोब, बुन्देलिया, चन्देल, चौहान, नादों, यदुबंशी, कछवाहा, किनवार-ठाकुर, बैस, भोजपुरी राउत, गाजीपुरी राउत, गेहलौता (ट्राइब एण्ड कास्ट आफ बनारस)।

    मेहतर, भंगी, हलाल, खरिया, चूहड़- गाजीपुरी राउत, दिनापुरी राउत, टांक (तक्षक), गेहलोत, चन्देल, टिपणी। इन जातियों के जो यह सब भेद हैं, वह सबके सब क्षत्री जाति के ही भेद या किस्म हैं। (देखिए ट्राइब एण्ड कास्ट आफ बनारस, छापा सन् 1872 ई.)

    राजपूत – (8) गेहलोत (7) कछवाहा (14) चौहान (16) भदौरिया (26) किनवार (27) चन्देल (29) सकरवार (31) वैस (39) विसेन (53) यदुवंशी (99) बुन्देला (48) बड़गूजर पन्ना (222) पन्ना (235) दजोहा या जदुवंशी गूजर पन्ना (248) राउत।

    जब भंगी या मेहतर जाति का भेद राजपूतों के जाति-भेद या किस्म से बिल्कुल मिलता है तो अब इनके क्षत्रिय होने में क्या संदेह है! (लेखक महादेव सिंह चंदेल, बनारस।)

    (अमृत लाल नागर कृत “नाच्यौ बहुत गोपाल” की भूमिका का अंश
    http://panchjanya.com/arch/2006/1/22/File13.htm

    प्रख्यात साहित्यकार अमृत लाल नागर ने अनेक वर्ष शोध के बाद पाया कि जिन्हें “भंगी”, “मेहतर” आदि कहा गया,


    वे क्षत्रिय थे

    स्टेनले राइस ने अपने पुस्तक “हिन्दू कस्टम्स एण्ड देयर ओरिजिन्स” में यह भी लिखा है कि अछूत मानी जाने वाली जातियों में प्राय: वे जातियां भी हैं, जो विजेताओं से हारीं और अपमानित हुईं तथा जिनसे विजेताओं ने अपने मनमाने काम करवाए थे। संयोगवश लखनऊ के उत्साही समाजसेवी श्री अच्छेलाल वाल्मीकि तथा हरिजन सेवक संघ, दिल्ली के पण्डित चिन्तामणि वाल्मीकि, एम.ए. की बातों से मुझे स्टेनले राइस के कथन का सत्याभास मिला। पण्डित चिन्तामणि वाल्मीकि (राउत मेहतर) ने मुझे एक पुस्तक “पतित प्रभाकर” अर्थात् “मेहतर जाति का इतिहास” पढ़ने को दी। यह पुस्तक गाजीपुर के श्री देवदत्त शर्मा चतुर्वेदी ने सन् 1925 में लिखी थी और इसे चिन्तामणि जी के पितामह श्रीमान वंशीराम राउत (मेहतर), मिलमिल तालाब, गाजीपुर, ने 1931 में अपने खर्च से प्रकाशित करवाया था। इस छोटी-सी पुस्तक में “भंगी”, “मेहतर”, “हलालखोर”, “चूहड़” आदि नामों से जाने गए लोगों की किस्में दी गई हैं, जो इस प्रकार हैं (पृ. 22-23)

    नाम जाति भंगी- वैस, वैसवार, बीर गूजर (बग्गूजर), भदौरिया, बिसेन, सोब, बुन्देलिया, चन्देल, चौहान, नादों, यदुबंशी, कछवाहा, किनवार-ठाकुर, बैस, भोजपुरी राउत, गाजीपुरी राउत, गेहलौता (ट्राइब एण्ड कास्ट आफ बनारस)।

    मेहतर, भंगी, हलाल, खरिया, चूहड़- गाजीपुरी राउत, दिनापुरी राउत, टांक (तक्षक), गेहलोत, चन्देल, टिपणी। इन जातियों के जो यह सब भेद हैं, वह सबके सब क्षत्री जाति के ही भेद या किस्म हैं। (देखिए ट्राइब एण्ड कास्ट आफ बनारस, छापा सन् 1872 ई.)

    राजपूत – (8) गेहलोत (7) कछवाहा (14) चौहान (16) भदौरिया (26) किनवार (27) चन्देल (29) सकरवार (31) वैस (39) विसेन (53) यदुवंशी (99) बुन्देला (48) बड़गूजर पन्ना (222) पन्ना (235) दजोहा या जदुवंशी गूजर पन्ना (248) राउत।

    जब भंगी या मेहतर जाति का भेद राजपूतों के जाति-भेद या किस्म से बिल्कुल मिलता है तो अब इनके क्षत्रिय होने में क्या संदेह है! (लेखक महादेव सिंह चंदेल, बनारस।)

    (अमृत लाल नागर कृत “नाच्यौ बहुत गोपाल” की भूमिका का अंश)

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जूस थेरेपी: करें इन बड़ी बीमारियों का इलाज स्वादिष्ट तरीके के साथ:


 

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आयुर्वेद के अनुसार जूस पीकर भी कई बीमारियों को दूर भगाया जा सकता है। इसीलिए आयुर्वेद में जूस को बहुत महत्व दिया गया है। प्राकृतिक चिकित्सा में भी रसाहार को विशेष स्थान प्राप्त है। इसमें अलग-अलग फलों और सब्जियों का रस दिया जाता है। करेला जामुन या लौकी के जूस में स्वाद नहीं होता है लेकिन इनका जूस पीने के बहुत फायदे हैं। आइए जानते हैं जूस थेरेपी के कुछ स्पेशल राज जिनसे कर सकते हैं आप इन बीमारियों का इलाज….
खून की कमी- पालक के पत्तों का रस, मौसम्मी, अंगूर, सेब, टमाटर और गाजर का रस लिया जा सकता है।
भूख की कमी- नींबू, टमाटर का रस लें।
फ्लू और बुखार- मौसम्मी, गाजर, संतरे का रस लेना चाहिए।
एसीडिटी- मौसम्मी, संतरा, नींबू, अनानास का रस लें।
कृमि रोगों में- लहसुन और मूली का रस पेट के कीड़ों को मार देता हैं।
मुहांसों में- गाजर, तरबूज, और प्याज का रस लें।
पीलिया- गन्ने का रस, मौसम्मी और अंगूर का रस दिन में कई बार लेना चाहिए।
पथरी- खीरे का रस लें।
मधुमेह- इस रोग में गाजर, करेला, जामुन, टमाटर, पत्तागोभी एवं पालक का रस लिया जा सकता है।
अल्सर में- गाजर, अंगूर का रस ले सकते हैं। कच्चे नारियल का पानी भी अल्सर ठीक करता है।
मासिकधर्म की पीड़ा में- अनानास का रस लें।
बदहजमी -अपच में नींबू का रस, अनानास का रस लें, आराम मिलेगा।
हाइब्लडप्रेशर- गाजर, संतरा, मौसम्मी का रस लें।
लो-ब्लडप्रेशर- अंगूर और सभी मीठे फलों का रस लिया जा सकता है।

 

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आधुनिक भारत में अंग्रेजों के समय से जो इतिहास पढाया जाता है वह चन्द्रगुप्त मौर्य के वंश से आरम्भ होता है।


 

8945_1503765926544075_8658690752460385822_nउस से पूर्व के इतिहास को ‘ प्रमाण-रहित’ कह कर नकार दिया जाता है। हमारे ‘देसी अंग्रेजोँ’ को यदि सर जान मार्शल प्रमाणित नहीं करते तो हमारे ’बुद्धिजीवियों’ को विश्वास ही नहीं होना था कि हडप्पा और मोहनजोदड़ो स्थल ईसा से लगभग 3000 वर्ष पूर्व के समय के हैं और वहाँ पर ही विश्व की प्रथम सभ्यता ने जन्म लिया था।

विदेशी इतिहासकारों के उल्लेख विश्व की प्राचीनतम् सिन्धु घाटी सभ्यता मोहनजोदड़ो के बारे में पाये गये उल्लेखों को सुलझाने के प्रयत्न अभी भी चल रहे हैं। जब पुरातत्व शास्त्रियों ने पिछली शताब्दी में मोहनजोदड़ो स्थल की खुदाई के अवशेषों का निरीक्षण किया था तो उन्होंने देखा कि वहाँ की गलियों में नर-कंकाल पडे थे। कई अस्थि पिंजर चित अवस्था में लेटे थे और कई अस्थि पिंजरों ने एक दूसरे के हाथ इस तरह पकड रखे थे मानों किसी विपत्ति नें उन्हें अचानक उस अवस्था में पहुँचा दिया था।उन नर कंकालों पर उसी प्रकार की रेडियो -एक्टीविटी के चिन्ह थे जैसे कि जापानी नगर हिरोशिमा और नागासाकी के कंकालों पर परमाणु बम विस्फोट के पश्चात देखे गये थे।

मोहन जोदड़ो स्थल के अवशेषों पर नाईट्रिफिकेशन के जो चिन्ह पाये गये थे उस का कोई स्पष्ट कारण नहीं था क्योंकि ऐसी अवस्था केवल अणु बम के विस्फोट के पश्चात ही हो सकती है।मोहनजोदड़ो की भौगोलिक स्थिति मोहनजोदड़ो सिन्धु नदी के दो टापुओं पर स्थित है। उस के चारों ओर दो किलोमीटर के क्षेत्र में तीन प्रकार की तबाही देखी जा सकती है जो मध्य केन्द्र से आरम्भ हो कर बाहर की तरफ गोलाकार फैल गयी थी। पुरातत्व विशेष ने पाया कि मिट्टी चूने के बर्तनों के अवशेष किसी उष्णता के कारण पिघल कर एक दूसरे के साथ जुड़ गये थे। हजारों की संख्या में वहां पर पाये गये ढेरों को पुरातत्व विशेषज्ञोँ ने काले पत्थरों ‘ब्लैक-स्टोन्स’ की संज्ञा दी।

वैसी दशा किसी ज्वालामुखी से निकलने वाले लावे की राख के सूख जाने के कारण होती है। किन्तु मोहनजोदड़ो स्थल के आस पास कहीं भी कोई ज्वालामुखी की राख जमी हुयी नहीं पाई गयी।निष्कर्ष यही हो सकता है कि किसी कारण अचानक ऊष्णता 2000 डिग्री तक पहुँची जिसमें चीनी मिट्टी के पके हुये बर्तन भी पिघल गये । अगर ज्वालामुखी नहीं था तो इस प्रकार की घटना परमाणु बम के विस्फोट पश्चात ही घटती है।

महाभारत के आलेखोँ मेँ ये बात कही जाती है, इतिहास मौन है परन्तु महाभारत युद्ध में महासंहारक क्षमता वाले अस्त्र शस्त्रों और विमान रथों के साथ एक एटामिक प्रकार के युद्ध का उल्लेख भी मिलता है। महाभारत में उल्लेख है कि मय दानव के विमान रथ का परिवृत 12 क्यूबिट था और उसमें चार पहिये लगे थे। देव दानवों के इस युद्ध का वर्णन स्वरूप इतना विशाल है जैसे कि हम आधुनिक अस्त्र शस्त्रों से लैस सेनाओं के मध्य परिकल्पना कर सकते हैं। इस युद्ध के वृतान्त से बहुत महत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होती है। केवल संहारक शस्त्रों का ही प्रयोग नहीं अपितु इन्द्र के वज्र अपने चक्रदार रिफलेक्टर के माध्यम से संहारक रूप में प्रगट होता है। उस अस्त्र को जब दाग़ा गया तो एक विशालकाय अग्नि पुंज की तरह उसने अपने लक्ष्य को निगल लिया था। वह विनाश कितना भयावह था इसका अनुमान महाभारत के निम्न स्पष्ट वर्णन से लगाया जा सकता हैः-“अत्यन्त शक्तिशाली विमान से एक शक्ति – युक्त अस्त्र प्रक्षेपित किया गया… धुएँ के साथ अत्यन्त चमकदार ज्वाला, जिस की चमक दस हजार सूर्यों की चमक के बराबर थी, का अत्यन्त भव्य स्तम्भ उठा…वह वज्र के समान अज्ञात अस्त्र साक्षात् मृत्यु का भीमकाय दूत था जिसने वृष्ण और अंधक के समस्त वंश को भस्म करके राख बना दिया…उनके शव इस प्रकार से जल गए थे कि पहचानने योग्य नहीं थे. उनके बाल और नाखून अलग होकर गिर गए थे… बिना किसी प्रत्यक्ष कारण के बर्तन टूट गए थे और पक्षी सफेद पड़ चुके थे… कुछ ही घण्टों में समस्त खाद्य पदार्थ संक्रमित होकर विषैले हो गए…उस अग्नि से बचने के लिए योद्धाओं ने स्वयं को अपने अस्त्र-शस्त्रों सहित जलधाराओं में डुबा लिया…”उपरोक्त वर्णन दृश्य रूप में हिरोशिमा और नागासाकी के परमाणु विस्फोट के दृश्य जैसा दृष्टिगत होता है।

एक अन्य वृतान्त में श्री कृष्ण अपने प्रतिद्वन्दी शल्व का आकाश में पीछा करते हैं। उसी समय आकाश में शल्व का विमान ‘शुभः’ अदृष्य हो जाता है। उस को नष्ट करने के विचार से श्री कृष्ण नें एक ऐसा अस्त्र छोडा जो आवाज के माध्यम से शत्रु को खोज कर उसे लक्ष्य कर सकता था। आजकल ऐसे मिसाइल्स को हीट-सीकिंग और साऊड-सीकर्स कहते हैं और आधुनिक सेनाओं द्वारा प्रयोग किये जाते हैं।

रामायण से भी… प्राचीन ग्रन्थों में चन्द्र यात्रा का उल्लेख किया गया है। रामायण में भी विमान से चन्द्र यात्रा का विस्तारित उल्लेख है। इसी प्रकार एक अन्य उल्लेख चन्द्र तल पर अश्विन के साथ युद्ध का वर्णन है जिससे भारत के तात्कालिक अन्तरिक्ष ज्ञान तथा एन्टी-ग्रेविटी तकनीक के बारे में आभास मिलता है जो आज के वैज्ञानिक तथ्यों के अनुरूप है जबकि अन्य मानव सभ्यताओं ने तो इस ओर कभी सोचा भी नहीं था।

रामायण में हनुमान जी की उड़ान का वर्णन किसी कोनकार्ड हवाई जहाज के सदृष्य है “समुत्पतित वेगात् तु वेगात् ते नगरोहिणः। संहृत्य विटपान् सर्वान् समुत्पेतुः समन्ततः।। (45)…उदूहन्नुरुवेगन जगाम विमलsम्बरे…सारवन्तोsथ ये वृक्षा न्यमज्जँल्लवणाम्भसि… तस्य वानरसिहंहस्य प्लवमानस्य सागरम्। कक्षान्तरगतो वायुजीर्मूत इव गर्जति।। (64)… यं यं देशं समुद्रस्य जगाम स महाकपि। स तु तस्यांड्गवेगेन सोन्माद इव लक्ष्यते।। (68)… तिमिनक्रझषाः कूर्मा दृश्यन्ते विवृतास्तदा…प्रविशन्नभ्रजालीनिनिष्पंतश्र्च पुनःपुनः…” (82)“जिस समय वह कूदे, उस समय उनके वेग से आकृष्ट हो कर पर्वत पर उगे हुये सब वृक्षउखड गये और अपनी सारी डालियों को समेट कर उन के साथ ही सब ओर से वेग पूर्वक उड चले…हनुमान जी वृक्षों को अपने महान वेग से उपर की ओर खींचते हुए निर्मल आकाश में अग्रसर होने लगे…उन वृक्षों में जो भारी थे, वह थोडी ही देर में गिर कर क्षार समुद्र में डूब गये…ऊपर ऊपर से समुद्र को पार करते हुए वानर सिहं हनुमान की काँख से होकर निकली हुयी वायु बादल के समान गरजती थी… वह समुद्र के जिस जिस भाग में जाते थे वहाँ वहाँ उन के अंग के वेग से उत्ताल तरंगें उठने लगतीं थीं उतः वह भाग उन्मतसे दिखाई देता था…जल के हट जाने के कारण समुद्र के भीतर रहने वाले मगर, नाकें, मछलियाँ और कछुए साफ साफ दिखाई देते थे… वे बारम्बार बादलों के समूह में घुस जाते और बाहर निकल आते थे…”

क्या कोई ऐरियोनाटिक विशेष्ज्ञ इनकार कर सकता हैकि उपरोक्त वृतान्त किसी वेग गति से उडान भरने वाले विमान पर वायु के भिन्न भिन्न दबावों का कलात्मिक और वैज्ञानिक चित्रण नहीं है? हम अंग्रेजी समाचार पत्रों में इस प्रकार के शीर्षक अकसर पढते हैं कि ‘ओबामा फलाईज टू इण्डिया’– अब यदि दो हजार वर्ष पश्चातइस का पाठक यह अर्थ निकालेंकि ओबामा वानर जाति के थे और हनुमान की तरह उड कर भारत गये थे तो वह उन के अज्ञान को आप क्या कहैं गे?

राजस्थान से भी…प्राचीन भारत में परमाणु विस्फोट के अन्य और भी अनेकसाक्ष्य मिलते हैं। राजस्थान में जोधपुर से पश्चिम दिशा में लगभग दस मील की दूरी पर तीन वर्गमीलका एक ऐसा क्षेत्र है जहाँ पर रेडियोएक्टिव राख की मोटी सतह पाई जाती है, वैज्ञानिकों ने उसके पास एकप्राचीन नगर को खोद निकाला है जिसके समस्त भवन और लगभगपाँच लाख निवासी आज से लगभग8,000 से 12,000 साल पूर्व किसी विस्फोट के कारण नष्ट हो गए थे।

हमें गर्वित कौन करे?
भारतीय स्त्रोत्र के ग्रन्थ प्रचुर संख्या में प्राप्त हो चुके है। उन मेंसे कितने ही संस्कृत से अन्य भाषाओं में अनुवाद नहीं किये गये और ना ही पढे गये हैं। आवश्यक्ता है कि उन का आंकलन करने के लिये उन पर शोध किया जाये। ‘यू एफओ (अन -आईडेन्टीफाईड औबजेक्ट ) तथा ‘उडन तशतरियों ‘के आधुनिक शोध कर्ताओं का विचार रहा है किसभी यू एफ ओ तथा उडन तशतरियाँ या तो बाह्य जगत से आती हैं या किसी देश के भेजे गये छद्म विमान हैं जोसैन्य समाचार एकत्रित करते हैं लेकिन वह आज तक उन के स्त्रोत्र को पहचान नहीं पाये। ‘लक्ष्मण-रेखा’ प्रकार की अदृष्य ‘इलेक्ट्रानिक फैंस’ तो कोठियों में आज कल पालतु जानवरों को सीमित रखने के लिये प्रयोग की जातीं हैं, अपने आप खुलने और बन्द होजाने वाले दरवाजे किसी भीमाल में जा कर देखे जा सकते हैं। यह सभी चीजे पहले आशचर्य जनक थीं परन्तु आज एक आम बात बन चुकी हैं। ‘मन की गति से चलने वाले’ रावण के पुष्पक-विमान का ‘प्रोटोटाईप’ भी उडान भरने के लिये चीन ने बना लिया है।

निस्संदेह रामायण तथा महाभारत के ग्रंथकार दो प्रथक-प्रथक ऋषि थे और आजकलकी सैनाओं के साथ उन का कोई सम्बन्ध नहीं था। वह दोनो महाऋषि थे और किसी साईंटिफिक – फिक्शन के थ्रिल्लर – राईटर नहीं थे। उन के उल्लेखों में समानता इस बात की साक्षी है कि तथ्य क्या है और साहित्यक कल्पना क्या होती है। कल्पना को भी विकसित होने के लिये किसी ठोस धरातल की आवश्यक्ता होती है।

भारत के असुरक्षित भण्डार

भारतीय मौसम-ज्ञान का इतिहास भी ऋगवेद काल का है।उडन खटोलों के प्रयोग के लिये मौसमी प्रभाव का ज्ञानहोना अनिवार्य है। प्राचीन ग्रन्थों में विमानों के बारे में विस्तरित जानकारीके साथ साथ मौसम की जानकारी भी संकलित है। विस्तरित अन्तरीक्ष और समय चक्रों की गणना इत्यादी के सहायक विषय भारतीय ग्रन्थों में स्पष्ट रूप सेउल्लेखित हैं। भारत के ऋषि-मुनी बादल तथा वेपर, मौसम और ऋतु का सूक्षम फर्क, वायु के प्रकार, आकाश का विस्तार तथा खगौलिक समय सारिणी बनाने के बारे में में विस्तरित जानकारी रखते थे। वैदिक ज्ञान कोई धार्मिक कवितायें नहीं अपितु पूर्णत्या वैज्ञानिकउल्लेख है और भारत की विकसित सभ्यता की पुष्टि करते है।
‘कंसेप्ट’ का जन्म पहले होता है और वह दीर्घ जीवी होती है। कंसेप्ट को तकनीक के माध्यम से साकार किया जाता है किन्तु तकनीक अल्प जीवी होती है और बदलती रहतीहै। अतः कम से कम यह तो प्रमाणित है कि आधुनिक विज्ञान की उन सभी महत्वपूर्ण कंसेप्ट्स का जन्म भारत में हुआ जिन्हें साकार करने का दावा आज पाश्चात्य वैज्ञानिक कर रहै हैं। प्राचीन भारतियों नें उडान के निर्देश ग्रन्थस्वयं लिखे थे। विमानों की देख रेख के विधान बनाये थे।यदि यथार्थ में ऐसा कुछ नहीं था तो इस प्रकार के ग्रन्थ आज क्यों उपलब्द्ध होते? इस प्रकार के ग्रन्थों का होना किसी लेखकका तिलसमी साहित्य नहीं है अपितु ठोस यथार्थ है।
पाणिनि से लेकर राजा भोज के काल तक हमें कई उल्लेख मिलते हैं कि तक्षशिला वल्लभी, धार, उज्जैन, तथा वैशाली में विश्व विद्यालय थे। इतिहास यह भी बताता है कि दूसरी शताब्दी से ही नर संहार और शैक्षिक संस्थानों का हनन भी आरम्भ हो गया था। इस के दो सौ वर्षपश्चात तो भारत में विदेशियों के आक्रमणों की बाढ प्रति वर्ष आनी शुरु होगयी थी। अरबों के आगमन के पश्चात तो सभी विद्यालय तथापुस्तकालय अग्नि की भेंट चढगये थे और मानव विज्ञान की बहुत कुछ सम्पदा नष्ट हो गयी या शेष लुप्त हो गयी। बचे खुचे उप्लब्द्ध अवशेष धर्म-निर्पेक्ष नीति के कारण ज्ञान केन्द्रों से बहिष्कृत कर दिये गये।जर्मनी के नाझ़ियों ने सर्वप्रथम बज़ बमों के लिये पल्स -जेट ईंजनों का अविष्कार किया था। यह एक रोचक तथ्य है कि सन 1930 से ही हिटलर तथा उस के नाझी सलाहकार भारत तथा तिब्बत केइलाके में इसी ज्ञान सम्बन्धी तथ्यों की जानकारी इकठ्ठी करने के लिये खोजी मिशन भेजते रहै हैं। समय के उलट फेरों के साथ साथ कदाचित वह मशीनें और उन से सम्बन्धित रहिस्यमयी जानकारी भी नष्ट हो गयी थी।पाश्चात्य वैज्ञानिक विश्वके सामने अपने सत्य का ढोल पीटते रहे कि “चन्द्र की धरती पर जल नहीं है”। फिर एक दिन भारतीय ‘चन्द्रयान मिशन’ नें चन्द्र पर जल होने के प्रमाण दिये। अमेरिका ने पहले तो इस तथ्यको नकारा और अपने पुराने सत्य की पुष्टि करने के लिये एक मिशन चन्द्र की धरती पर उतारा। उस मिशन ने भी भारतीय सत्यता को स्वीकारा जिस के परिणाम स्वरूप अमेरिका आदि विकसित देशों ने दबे शब्दों में भारतीय सत्यता को मान लिया। इस के कुछ समय पश्चात एक अन्य पौराणिक तथ्य की पुष्टि भी अमेरिका के नासा वैज्ञानिकों ने करी। भारत के ऋषियों ने हजारों वर्ष पूर्व कहा था कि “कोटि कोटिब्रह्माण्ड हैं”। अब पाश्चात्य वैज्ञानिक भी इसी बात को दोहरा रहे हैं कि उन्हों नें बिलियन से अधिक गेलेख्सियों का पता लगाया है। अतः अधुनिक विज्ञान और भारतीय प्राचीन ग्रन्थों के ज्ञान में कोई फर्क नहीं रहा जो स्वीकारा नहीं जा सकता।सत्य तो क्षितिज की तरह होता है। जितना उस के समीप जाते हैं उतना ही वह और परे दिखाई देने लगता है। इसी तथ्य को ऋषियों ने ‘माया’ कहा है। हिन्दू विचार धारा में ईश्वर के सिवा कोई अन्यसत्य नहीं है। जो भी दिखता है वह केवल माया के भिन्न भिन्न रूप हैं जो नश्वर हैं। कल आने वाले सत्य पहिले ज्ञात सत्यों को परिवर्तित कर सकते हैं और पू्र्णत्या नकार भी सकते हैं। यह क्रम निरन्तर चलता रहता है। विज्ञान का यह सब से महत्व पूर्ण तथ्य हिन्दूदार्शिनकों नें बहुत पहले ही खोज दिया था।
हमारी दूषित शिक्षा का परिणाम
आधुनिक विमानों के आविष्कार सम्बन्धी आलेख बताते हैं कि बीसवीं शताब्दी में दो पाश्चात्य जिज्ञासु उडने के विचार से पक्षियों की तरह के पंख बाँध कर छत से कूद पडे थे औरपरिणाम स्वरूप अपनी हड्डियाँ तुडवा बैठे थे, किन्तु भारतीय उल्लेखों में इस प्रकार के फूहड वृतान्त नहीं हैं अपितु विमानों की उडान को क्रियावन्त करने के साधन (इनफ्रास्टर्क्चर) भी दिखतेहैं जिसे आधुनिक विज्ञान कीखोजों के साथ मिला कर परखा जा सकता है। सभी कुछ सम्भव हो चुका है और शेष जो रह गयाहै वह भी हो सकता है।
हमारे प्राचीन ग्रंथों में वर्णित ब्रह्मास्त्र, आग्नेयास्त्र जैसे अस्त्र अवश्य ही परमाणु शक्ति से सम्पन्न थे, किन्तु हम स्वयं ही अपने प्राचीन ग्रंथों में वर्णित विवरणों को मिथक मानते हैं और उनके आख्यान तथा उपाख्यानों को कपोल कल्पना,हमारा ऐसा मानना केवल हमें मिली दूषित शिक्षा का परिणाम है जो कि, अपने धर्मग्रंथों के प्रति आस्था रखने वाले पूर्वाग्रह से युक्त, पाश्चात्य विद्वानों की देन है, पता नहीं हम कभी इस दूषित शिक्षा से मुक्त होकरअपनी शिक्षानीति के अनुरूप शिक्षा प्राप्त कर भी पाएँगे या नहीं।
जो विदेशी पर्यटक भारत आ करचरस गाँजा पीने वाले अध नंगे फकीरों के चित्र पश्चिमी पत्रिकाओं में छपवाने के आदि हो चुके हैं वह भारत को सपेरों लुटेरों का ही देश मान कर अपने विकास का बखान करते रहते हैं। वह भारत के प्राचीन इतिहास को कभी नहीं माने गे। उन्हीं के सिखाये पढायेतोतों की तरह के कुछ भारतीयबुद्धिजीवी भी पौराणिक तथ्यों को नकारते रहते हैं किन्तु सत्यता तो यह है कि उन्हों ने भारतीय ज्ञान कोषों को अभी तक देखा ही नहीं है। जो कुछ विदेशी यहाँ से ले गये और उसी को समझ कर जो कुछ विदेशी अपना सके वही आज के पाश्चात्य विज्ञान की उपलब्द्धियाँ हैं जिन्हें हम योरूप के विकासशील देशों की देन मान रहे हैं।य़ह आधुनिक भारतीय बुद्धिजीवियों पर निर्भर करता है कि वह अपने पूर्वजों के अर्जित ज्ञान को पहचाने, उस की टूटी हुई कडियों को जोडें और उस पर अपना अधिकार पुनः स्थापित करें या उस का उपहास उडा कर अपनी मूर्खता और अज्ञानता का प्रदर्शन करते रहैं।

— with Brahmins A Unique Cast, Amruta Gurjargaud Vashistha, Chandra Shekhar Pancholi and 108 others at हिन्दू भवन.

Posted in संस्कृत साहित्य

Bhavishya Purana – Over-view of Raja Vamshas of Satya, Treta and Dwapara Yugas


Bhavishya Purana – Over-view of Raja Vamshas of Satya, Treta and Dwapara Yugas

After covering the Brahma Parva and Madhyama Parva of the Bhavishyad Purana, Sage Suta addressed the Congregation of Munis headed by Shaunaka Muni at Naimisharanya as to the outlines of ‘Pratisarga Parva’and provided an Over-view of the Kings of Raja Vamshas through the preceding Yugas viz. the Satya, Treta Yuga and Dwapara Yugas. During the second half of Brahma’s age of his hundred years, that is the third day of his fifty first Year, Vaiwaswa Manu was born in the Sweta Viraha Kalpa and the latter performed serious Tapasya; from his sneeze was born King Ikshvaku who was a great devotee of Lord Vishnu. In the Royal lineage of Ikshvaku were born Vivikshu-Ripunjaya-Kakuthsu-Prithu-Adri-Bhadraaswva-Yavanaashva-Shraavasta-Kuvalashvya-Dhrudhashva-Nikumbhak-Sankatashvya-Prasenajit-Ravanaswya-Mandhaata-Purukutsa-Tridashvya-Anaranya-Prushadashvya-Vasuman-Tridhanva-Trayyaruni-Trishanku-Harischandra-Rohita-Haaritha-Chanchubhup-Vijaya and Ruk till the Third ‘Charana’.

There after the lineage continued till King Ruru and his son Sagara; the lineage stopped due to the curse of Kapila Muni and the Sagara sons were burnt. From the second queen was born Asamanjasa-Anshuman-Dilip and Bhagiratha who became universally popular as he brought Ganga / Bhagirathi from Heavens to secure salvation to the Sagara Putras. The lineage continued further from Bhagirath to Shrutasena-Naabhhaga-Ambarisha-Sindhudeepa and so on till King Sudarshan who married the daughter of Kashi Raja and became the unconquered Monarch of Bharata Khanda.Devi Kaali appeared in a dream and asked the King to leave for Himalayas along with his wife and family and Sages headed by Vasishtha, since very soon there would be a ‘Pralaya’ and the Akhanda Bharata would disintegrate into pieces and save a few islands of Earth of varying sizes, the rest of the ‘Bhubhaag’ would be submerged under water!

After the Pralay in Treta Yuga, King Sudarshan returned from Himalaya and revived Ayodhya Puri and thanks to the Divinely Cow Nandini and the Holy Sages.King Sudarshan ruled for thousands of years and in course of Time, his son King Dilip initiated a new generation and King Raghu heralded the Surya Vamsha or the Raghu Vamsha. King Raghu’s grandson Dasharatha had the unique privilege of securing Lord Shri Rama, the ‘Avatar’ of Bhagavan Vishnu. Surya Vamsa dominated from Shri Ram’s son Kusha downward for hundreds of generations thereafter and the Kings were by and large virtuous, engaged in Yagnas and Agni Karyas, charities and the preservation of Dharma. In the Third Segment of Treta Yuga, seeds were sown when Chandra Vamsa was initiated with the curse by Indra to send Chandra Deva to Bhuloka and the latter made Tirtha Raj Prayaga and performed relentless Tapasya and hundred Yagnas till Devi Bhagavati was pleased and sent Chandra back to Swargaloka.

Chandra’s son Budha married Devi Ila and King Pururava was born, signifying the beginning of the Chandra Vamsa. Pururava’s son Ayu begot Nahusha who attained Indratva no doubt as Indra went into exile due to his Brahma hatya sin for killing Vritrasura ; but Maharshi Durvasa cursed Nahusha to become an ‘Ajagara’ or a huge snake. Nahusha’s son was Yayati and of the five sons of Yayati, three became the Rules of Mlecchaas and the other two were Yadu and Kuru. In the long lineage of Yadu and his son Kroshthi, was Maya Vidya who founded Pratishthanapura (Jhansi). In the long chain of Kings of Chandra Vamsa was Samvaran who pleased Surya Deva with his Tapasya and the Deva gave the hand of his daughter Tapati to Samvaran.As Pralaya terminated Treta Yuga, Surya Deva ordered that Samvaran and Tapati as also Maharshi Vasishtha and samples of Brahmana, Kshatriya and Vaishya be saved. With the advent of Dwapara Yuga, Pratishthanapura (Jhansi) was revived with Samvaran as the King, Budha Vamsheeya King Prasena and later on Yadu Vamsheeya King Surasena ruled Mathura, and Mleccha Vamsheeya Smashrupala or Shishupala ruled Marudesha (Arab, Iran and Iraq).

King Samvaran’s long line of descendants climaxed with King Dushyanta and his Queen Shakuntala and their son Bharata whose lineage too lasted for thousands of years all over Bharat. Meanwhile, as per the order of Indra Apsara Ghritachi was sent to Earth and married Shakrahotra and their son was named Hasti. The latter rode Iravata with children and built a Nagar of large proportions which was named subsequently as Hastinapura. Again under instructions of Indra during the ‘Third Charana’ of Dwapara Yuga, another Apsara called Sukeshi was married to King Kuru who constructed Kurukshetra. In the lineage of King Kuru was born Shantanu whose son was Vichitraveerya. Pandu was the son of Vichitra veerya and Yudhishtar was the son of Pandu. As a repercussion of a mighty battle won by Daityas over Devas in the Universe, several Daityas who survived re-appeared in the Kingdom of Shantanu and the evil-minded Prince of Kuru Vamsha, Duryodhana became the rallying point of the Daityas, abetted by the weak and blind King Dhritarashtra.

As Bhu Devi became increasingly intolerant of the predominance of wickedness, she approached Bhagavan Vishnu who assumed an Avatar (Incarnation) as Shri Krishna and played an outstanding role in destroying the Evil forces at the climactic Great Battle of Maha Bharata at Kurukshetra. Pursuant the Battle, there was purge of the Evil and King Parikshith became the Emperor, followed by Janamejaya and Shataanika.The lineage though long was of weak Kings till Pradyot performed Mleccha Yagna. The Yagna was no doubt successful and earned the name of ‘Mleccha hanta’. In fact, Kali himself along with his wife prayed to Bhagavan Narayana and sobbed that Pradyot made this Yagna and suspended our very existence.

Bhagavan replied that through the earlier Yugas, Kali was ignored but surely the next Yuga would display the full blast and fury of Kali and as the time would roll on his upswing acts would assume ever greater intensity; Narayana assured Kali that a man named ‘Aadam’ and a woman called ‘Havyavati’ would promote the cause of Mlecchas at ever growing speed. As prophesied, gradually the strength of Mlecchas increased and that of ‘Aryavarta’ declined.At the fag end of Dwapara Yuga, the last King of Mlecchas named ‘Nyuh’who was a devotee of Bhagavan Vishnu was advised to build a huge ship (Nyoha’s Ark) to save a few. Meanwhile, there was continuous rain for forty days and all the Oceans overflowed together and Prithvi got sunk; but for a survivors who boarded the ship like Brahmavadi Muniganasa, representatives of the King Nyuh and specimens of fauna and flora.Only the ‘Seeshina’ named Mount of Himalayas lasted the Pralaya where the survivors stayed and slowly increased their poulation after the Great Destruction got spread out in fast stages.

— with Srilan Srisukumaran.

Photo: Bhavishya Purana - Over-view of Raja Vamshas of Satya, Treta and Dwapara Yugas 

After covering the Brahma Parva and Madhyama Parva of the Bhavishyad Purana, Sage Suta addressed the Congregation of Munis headed by Shaunaka Muni at Naimisharanya as to the outlines of ‘Pratisarga Parva’and provided an Over-view of the Kings of Raja Vamshas through the preceding Yugas viz. the Satya, Treta Yuga and Dwapara Yugas. During the second half of Brahma’s age of his hundred years, that is the third day of his fifty first Year, Vaiwaswa Manu was born in the Sweta Viraha Kalpa and the latter performed serious Tapasya; from his sneeze was born King Ikshvaku who was a great devotee of Lord Vishnu. In the Royal lineage of Ikshvaku were born Vivikshu-Ripunjaya-Kakuthsu-Prithu-Adri-Bhadraaswva-Yavanaashva-Shraavasta-Kuvalashvya-Dhrudhashva-Nikumbhak-Sankatashvya-Prasenajit-Ravanaswya-Mandhaata-Purukutsa-Tridashvya-Anaranya-Prushadashvya-Vasuman-Tridhanva-Trayyaruni-Trishanku-Harischandra-Rohita-Haaritha-Chanchubhup-Vijaya and Ruk till the Third ‘Charana’. 

There after the lineage continued till King Ruru and his son Sagara; the lineage stopped due to the curse of Kapila Muni and the Sagara sons were burnt. From the second queen was born Asamanjasa-Anshuman-Dilip and Bhagiratha who became universally popular as he brought Ganga / Bhagirathi from Heavens to secure salvation to the Sagara Putras. The lineage continued further from Bhagirath to Shrutasena-Naabhhaga-Ambarisha-Sindhudeepa and so on till King Sudarshan who married the daughter of Kashi Raja and became the unconquered Monarch of Bharata Khanda.Devi Kaali appeared in a dream and asked the King to leave for Himalayas along with his wife and family and Sages headed by Vasishtha, since very soon there would be a ‘Pralaya’ and the Akhanda Bharata would disintegrate into pieces and save a few islands of Earth of varying sizes, the rest of the ‘Bhubhaag’ would be submerged under water!

After the Pralay in Treta Yuga, King Sudarshan returned from Himalaya and revived Ayodhya Puri and thanks to the Divinely Cow Nandini and the Holy Sages.King Sudarshan ruled for thousands of years and in course of Time, his son King Dilip initiated a new generation and King Raghu heralded the Surya Vamsha or the Raghu Vamsha. King Raghu’s grandson Dasharatha had the unique privilege of securing Lord Shri Rama, the ‘Avatar’ of Bhagavan Vishnu. Surya Vamsa dominated from Shri Ram’s son Kusha downward for hundreds of generations thereafter and the Kings were by and large virtuous, engaged in Yagnas and Agni Karyas, charities and the preservation of Dharma. In the Third Segment of Treta Yuga, seeds were sown when Chandra Vamsa was initiated with the curse by Indra to send Chandra Deva to Bhuloka and the latter made Tirtha Raj Prayaga and performed relentless Tapasya and hundred Yagnas till Devi Bhagavati was pleased and sent Chandra back to Swargaloka.

 Chandra’s son Budha married Devi Ila and King Pururava was born, signifying the beginning of the Chandra Vamsa. Pururava’s son Ayu begot Nahusha who attained Indratva no doubt as Indra went into exile due to his Brahma hatya sin for killing Vritrasura ; but Maharshi Durvasa cursed Nahusha to become an ‘Ajagara’ or a huge snake. Nahusha’s son was Yayati and of the five sons of Yayati, three became the Rules of Mlecchaas and the other two were Yadu and Kuru. In the long lineage of Yadu and his son Kroshthi, was Maya Vidya who founded Pratishthanapura (Jhansi). In the long chain of Kings of Chandra Vamsa was Samvaran who pleased Surya Deva with his Tapasya and the Deva gave the hand of his daughter Tapati to Samvaran.As Pralaya terminated Treta Yuga, Surya Deva ordered that Samvaran and Tapati as also Maharshi Vasishtha and samples of Brahmana, Kshatriya and Vaishya be saved. With the advent of Dwapara Yuga, Pratishthanapura (Jhansi) was revived with Samvaran as the King, Budha Vamsheeya King Prasena and later on Yadu Vamsheeya King Surasena ruled Mathura, and Mleccha Vamsheeya Smashrupala or Shishupala ruled Marudesha (Arab, Iran and Iraq).

King Samvaran’s long line of descendants climaxed with King Dushyanta and his Queen Shakuntala and their son Bharata whose lineage too lasted for thousands of years all over Bharat. Meanwhile, as per the order of Indra Apsara Ghritachi was sent to Earth and married Shakrahotra and their son was named Hasti. The latter rode Iravata with children and built a Nagar of large proportions which was named subsequently as Hastinapura. Again under instructions of Indra during the ‘Third Charana’ of Dwapara Yuga, another Apsara called Sukeshi was married to King Kuru who constructed Kurukshetra. In the lineage of King Kuru was born Shantanu whose son was Vichitraveerya. Pandu was the son of Vichitra veerya and Yudhishtar was the son of Pandu. As a repercussion of a mighty battle won by Daityas over Devas in the Universe, several Daityas who survived re-appeared in the Kingdom of Shantanu and the evil-minded Prince of Kuru Vamsha, Duryodhana became the rallying point of the Daityas, abetted by the weak and blind King Dhritarashtra.

As Bhu Devi became increasingly intolerant of the predominance of wickedness, she approached Bhagavan Vishnu who assumed an Avatar (Incarnation) as Shri Krishna and played an outstanding role in destroying the Evil forces at the climactic Great Battle of Maha Bharata at Kurukshetra. Pursuant the Battle, there was purge of the Evil and King Parikshith became the Emperor, followed by Janamejaya and Shataanika.The lineage though long was of weak Kings till Pradyot performed Mleccha Yagna. The Yagna was no doubt successful and earned the name of ‘Mleccha hanta’. In fact, Kali himself along with his wife prayed to Bhagavan Narayana and sobbed that Pradyot made this Yagna and suspended our very existence.

Bhagavan replied that through the earlier Yugas, Kali was ignored but surely the next Yuga would display the full blast and fury of Kali and as the time would roll on his upswing acts would assume ever greater intensity; Narayana assured Kali that a man named ‘Aadam’ and a woman called ‘Havyavati’ would promote the cause of Mlecchas at ever growing speed. As prophesied, gradually the strength of Mlecchas increased and that of ‘Aryavarta’ declined.At the fag end of Dwapara Yuga, the last King of Mlecchas named ‘Nyuh’who was a devotee of Bhagavan Vishnu was advised to build a huge ship (Nyoha’s Ark) to save a few. Meanwhile, there was continuous rain for forty days and all the Oceans overflowed together and Prithvi got sunk; but for a survivors who boarded the ship like Brahmavadi Muniganasa, representatives of the King Nyuh and specimens of fauna and flora.Only the ‘Seeshina’ named Mount of Himalayas lasted the Pralaya where the survivors stayed and slowly increased their poulation after the Great Destruction got spread out in fast stages.
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64 Yogini Temple Ranipur Jharial -Brick temple of Ranipur Jharial – Balangir Odisha


64 Yogini Temple Ranipur Jharial -Brick temple of Ranipur Jharial – Balangir Odisha

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64 Yogini Temple Ranipur Jharial-Brick temple of Ranipur Jharial, Odisha Temples Located in the verdant environs of the Titilagarh sub-division in Balangir district, the twin villages of Ranipur-Jharial bear strong traces of their ancient heritage. Also known as ‘Soma Tirtha’ in scriptures, the archaeological site dates back to the 9th/10th century AD, pertaining to the reign of Somavanshi keshari kings. Saivism, Vaisnavism, Buddhism and Tantrism obviously enjoyed a great deal of influence in the region. The Hypethral temple which is one of the four remaining rare monuments of 64 Yogini shrines provides a glimpse into the religious sand occult practices from the medieval times that are still alive in Odisha’s tribal traditions and folklore. Chausathi (64) Yogini Temple Ranipur Jharial (Bolangir) – the second yogini temple in Odisha after Hirapur (BBSR)
Ranipur jharial
The temple houses sandstone images of the three-faced Shiva embracing Parvati, standing at the canter of the temple encircled by 64 images of the Yogini goddesses in various positions.It is one of the four famous Yogini temples in India. The other three are located at Hirapur (near Bhubaneswar), Khajuraho and Bheraghat (near Jabalpur).
The finest specimen of a brick temple is the 20 metres high Indralath temple. It is one of the tallest brick temples of ancient India and one of the most remarkable Odisha temples.

The ancient archaeological complex is found to be situated on the ancient trade route that connected Titilagarh, ancient Taitalya Janapada referred to by Panini in fifth century B.C. with Madhya Bharat and Dakshinapatha.

The river Tong or Tong Jor, a tributary of Tel flows nearby. The Tel valley is archaeologically very rich and Ranipur-Jharial occupies a central position,being surrounded by a chain of historical sites like Narisinghnath, Maraguda, Podagarh, Asurgarh, Belkhandi, Saintala and Patnagarh all around. At present the archaeological complex is found spread on a vast flat rocky surface. The one near Ranipur may be called Ranipur complex and the other one near village Jharial may be called the Jharial temple complex.

The rock surface seems to have been exposed fully by erosion in remote antiquity. Taking advantage of the sedimentary rock deposit, the builders of the monuments, palpably have removed the stone pieces layer wise to use in the monuments. In the south-west, there is the famous Someswar Sagar locally called Jogibandh and in the north-east, we see a deep nala. Temples of varied dimension, deserted and forlorn, stand in isolated splendour on the rocky outcrop, giving an impression of divine solemnity.

The twin villages of Ranipur – Jharial are a must visit on your tour to Bolangir for the temples that are of historical and archeological significance. The most prominent of all the temples set on a rock outcrop is the Hypaethral Temple. One of the four remaining Hypaethral Temples in Odisha is dedicated to 64 goddesses that in turn served Goddess Kali. The circular temple has 64 cells that once housed the sculptures of the 64 yoginis or goddesses. The Hypothetical temple, also known as the 64 Yogini Shrine, and the adjoining Vishnu Temples are a must visit on your tour to Bolangir.

The History of 64 Yogini Temple – Ranipur Jharial :-

From the epigraph inscribed on the lintel of the Someswar temple, we know that one Saiva Archarya“Gagana Siva” was the donor and in the inscription the site has been described as Soma tirtha, which finds mention in the Puranas of 3rd/4th century A.D. Thus it is evident that since 3rd/4th century Ranipur-Jharial has assumed the reputation of a Saiva Tirtha. More over, Saivism was popular in ancient Kosala and Kantara region since the days of the Nalas who ruled over this region from the middle of the fourth century A.D.

This is corroborated by the recent excavation at Maraguda in Nawapara district where a Saiva Vihar of circa 4th/5th century A.D. has been excavated. Archaeological probe of Maraguda valley excavations have indicated that many Saiva Vihars had been destroyed ruthlessly by the invaders, probably the Vakatakas or the Sarabhapuriyas, who were staunch Vaisnavites.

After the destruction of the Maraguda Saiva Vihar, the Saivacharyas seemed to have proceeded to the north westernly direction and established the Saiva establishment at the ancient Somatirtha referred to in the Puranas. The kernel of Tantricism that originated at Maraguda had fuller efflorescence at Ranipur-Jharial. The Tantric Vajrayana and Sahajayana which Indrabhuti and Laxmikara of ancient Sambala (modern Sambalpur) propounded, were very much popular in this region. However, Ranipur-Jharial witnessed great religious development during the time of the Somavansis who ruled over this tract in 8th/ 9th century A.D. Most of the existing monuments can be assigned to this period. When exactly, this place was deserted is difficult to say due to want of evidence.

The Muslim invasion in the 15th century might be a factor for its downfall. We believe systematic exploration and excavations in this locality will throw new light on the history and culture of this place. From surface observation, it appears that the site might have still greater remote antiquity. We noticed here foot print emblem, the reminiscent of early Buddhist worship of anionic diction. Thus prior to 3rd century A.D. probably Ranipur-Jharial had Buddhist association. (Courtesy Mr.Patel )

HOW TO REACH 64 Yogini Temple – Ranipur Jharial

  • Balangir is 327 km from Bhubaneswar and has direct road connections to major towns of the State.
  • It is also a railhead on the S.E. Railway Ranipur- Jharial, 104 km from Balangir, the nearest railway station is TITLAGARH .
  • you can get taxi/bus to visit ranipur jharial its only 30km far away from titlagarh .
  • It will take around 1 hour from Titilagarhto discover the rare archaeological site of western Odisha.
  • This site is approached through a kacha road of 8 km. from Mundpadar.
  • NOTE :- If anyone wants to share anything of Odisha details then mail us with some image of village with details to “Admin@eodisha.org /eodisha.org@gmail.com “

    – See more at: http://eodisha.org/64-yogini-temple-ranipur-jharial/#sthash.ouUhEDAx.dpuf

    Posted in भारत का गुप्त इतिहास- Bharat Ka rahasyamay Itihaas

    Forgotten Heroes


    https://www.facebook.com/pages/Forgotten-Heroes-Bravest-of-the-Brave-Rajputs/727552377281081

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    डाकू या क्रांतिवीर :


    डाकू या क्रांतिवीर :
    बलजी-भूरजी को यधपि लोग “धाड़ायति” (डाकू) ही कहते आये है कारण अंग्रेजी राज में जिसने भी बगावत की उसे कानूनद्रोही या डाकू कह दिया गया | जबकि बलजी-भूरजी डाके में लुटी रकम गरीबों में बाँट दिया करते थे उन्हें तो सिर्फ अपने ऊँटो को घी पिलाने जितने ही रुपयों की जरुरत पड़ती थी |
    बलजी बठोठ-पटोदा के जागीरदार थे, बठोठ में उनका अपना गढ़ था ,उनके आय की कोई कमी नहीं थी वे अपनी जागीर से होने वाली आय से अपना गुजर बसर आसानी से कर सकते थे और कर भी रहे थे ,जबकि बागी जीवन में उन्हें अनेक कठिनाईयों का सामना करना पड़ता था उनका जीवन दुरूह हो गया था ,उन्हें अक्सर रेगिस्तान के गर्म रेत के टीलों के बीच पेड़ों की छाँव में जिन्दगी बितानी पड़ती थी ,खाना भी जब जैसा मिल गया खाना होता था | महलों में सोने वाले बलजी को बिना बिछोने के रेत के टीलों पर रातें गुजारने पड़ती थी | इसलिए आसानी से समझा जा सकता था कि बागी बनकर डाके डालकर धन कमाने का उनका कोई उदेश्य नहीं था |
    भूरजी भी भारतीय सेना में सीधे सूबेदार के पद पर पहुँच गया था यदि उसके मन में भी अंग्रेजों के प्रति नफरत नहीं होती तो वो भी आसानी से सेना में तरक्की पाकर बागी जीवन जीने की अपेक्षा आसानी से अपना जीवन यापन कर सकता था पर दोनों भाइयों के मन में अंग्रेज सरकार के विरोध के अंकुर बचपन में ही प्रस्फुटित हो गए थे और उनकी परिणित हुई कि वे अपना विलासितापूर्ण जीवन छोड़कर बागी बन गए |

    बेशक जोधपुर स्टेट में उन्हें कानूनद्रोही माना पर शेखावाटी व उन स्थानों की जनता ने जिनके बीच वे गए क्रांतिवीर व जन-हितेषी ही माना |

    — with Balbir Singh Rajput and39 others.

    Photo: डाकू या क्रांतिवीर :
बलजी-भूरजी को यधपि लोग "धाड़ायति" (डाकू) ही कहते आये है कारण अंग्रेजी राज में जिसने भी बगावत की उसे कानूनद्रोही या डाकू कह दिया गया | जबकि बलजी-भूरजी डाके में लुटी रकम गरीबों में बाँट दिया करते थे उन्हें तो सिर्फ अपने ऊँटो को घी पिलाने जितने ही रुपयों की जरुरत पड़ती थी |
बलजी बठोठ-पटोदा के जागीरदार थे, बठोठ में उनका अपना गढ़ था ,उनके आय की कोई कमी नहीं थी वे अपनी जागीर से होने वाली आय से अपना गुजर बसर आसानी से कर सकते थे और कर भी रहे थे ,जबकि बागी जीवन में उन्हें अनेक कठिनाईयों का सामना करना पड़ता था उनका जीवन दुरूह हो गया था ,उन्हें अक्सर रेगिस्तान के गर्म रेत के टीलों के बीच पेड़ों की छाँव में जिन्दगी बितानी पड़ती थी ,खाना भी जब जैसा मिल गया खाना होता था | महलों में सोने वाले बलजी को बिना बिछोने के रेत के टीलों पर रातें गुजारने पड़ती थी | इसलिए आसानी से समझा जा सकता था कि बागी बनकर डाके डालकर धन कमाने का उनका कोई उदेश्य नहीं था |
भूरजी भी भारतीय सेना में सीधे सूबेदार के पद पर पहुँच गया था यदि उसके मन में भी अंग्रेजों के प्रति नफरत नहीं होती तो वो भी आसानी से सेना में तरक्की पाकर बागी जीवन जीने की अपेक्षा आसानी से अपना जीवन यापन कर सकता था पर दोनों भाइयों के मन में अंग्रेज सरकार के विरोध के अंकुर बचपन में ही प्रस्फुटित हो गए थे और उनकी परिणित हुई कि वे अपना विलासितापूर्ण जीवन छोड़कर बागी बन गए |

बेशक जोधपुर स्टेट में उन्हें कानूनद्रोही माना पर शेखावाटी व उन स्थानों की जनता ने जिनके बीच वे गए क्रांतिवीर व जन-हितेषी ही माना |
    Posted in कविता - Kavita - કવિતા

    धरती माता किसने रखी लाज तेरे सम्मान की |


    धरती माता किसने रखी लाज तेरे सम्मान की |

    अलबेलों ने लिखी खड्ग से गाथाएँ बलिदान की ||

    हाँ ! गाथाएँ बलिदान की ||

    काबुल के तुफानो से जब जन मानस था थर्राया |

    गजनी की आंधी से जाकर भीमदेव था टकराया ||

    देख खानवा यहाँ चढी थी राजपूतों की त्योंरियां |

    मतवालों की शमसिरों से निकली थी चिंगारियां ||

    यहाँ कहानी गूंज रही सांगा के समर प्रयाण की |

    अलबेलों ने लिखी खड्ग से गाथाएँ बलिदान की ||

    देखो इस चितौड़ दुर्ग का हर पत्थर गौरव वाला |

    यहाँ चढाई कुल देवी पर शत-शत मुंडो की माला ||

    महलों में जौहर धधका हर राजपूत परवाना था |

    हर-हर महादेव के नारों से अवनी अम्बर गूंजा था ||

    यहाँ गाथाएँ गूंज रही कण-कण में गौरव गान की |

    अलबेलों ने लिखी खड्ग से गाथाएँ बलिदान की ||

    यही सीकरी यह पानीपत यही वही हल्दीघाटी |

    वीर बांकुरों के शोणित से तृप्त हुई जिसकी माटी ||

    हाल बता बुन्देल धरा तेरे उन वीर सपूतों का |

    केशारियां कर निकल पड़े थे मान बचने माता का ||

    भूल गए तो याद करो उस पृथ्वीराज महान की |

    अलबेलों ने लिखी खड्ग से गाथाएँ बलिदान की ||

    आन बान हित कई बाँकुरे आजीवन थे यहाँ लड़े |

    यवन सैन्य के झंझावत से पर्वत बनकर यहीं अडे ||

    क्षिप्रा झेलम बोल जरा क्यों लाल हुआ तेरा पानी |

    महाकाल से यहाँ जूझने दुर्गा की थी भृकुटी तनी ||

    तेरी ही बेदी पर माता चिता जली अरमानों की |

    अलबेलों ने लिखी खड्ग से गाथाएँ बलिदान की ||

    महाराणा सा सपूत पाकर धन्य हुई यह वसुंधरा |

    जयमल पत्ता जैता कुम्पा झाला की यह परम्परा ||

    जिन्दा है तो देख जरा जालौर और गढ़ उंटाला |

    तारागढ़ और रणतभंवर में लगा शहीदों का मेला ||

    आओ फिर से करें प्रतिष्ठा उस पावन प्रस्थान की |

    अलबेलों ने लिखी खड्ग से गाथाएँ बलिदान की ||

    तडफ रहे है अब परवाने उसी शमां पर चढ़ने को |

    आग उठी है रग-रग में फिर से बदला लेने को ||

    भभक रहे है अब अंगारे प्रतिहिंसा के झोंको से |

    भीख मांगता महाकाल निर्वासित राजकुमारों से ||

    जगो यहाँ जगदेवों की लगी है बाजी जान की |

    अलबेलों ने लिखी खड्ग से गाथाएँ बलिदान की ||

    — with सत्यपाल सिंह वाघेला.

    Photo: धरती माता किसने रखी लाज तेरे सम्मान की |

अलबेलों ने लिखी खड्ग से गाथाएँ बलिदान की ||

हाँ ! गाथाएँ बलिदान की ||

काबुल के तुफानो से जब जन मानस था थर्राया |

गजनी की आंधी से जाकर भीमदेव था टकराया ||

देख खानवा यहाँ चढी थी राजपूतों की त्योंरियां |

मतवालों की शमसिरों से निकली थी चिंगारियां ||

यहाँ कहानी गूंज रही सांगा के समर प्रयाण की |

अलबेलों ने लिखी खड्ग से गाथाएँ बलिदान की ||

देखो इस चितौड़ दुर्ग का हर पत्थर गौरव वाला |

यहाँ चढाई कुल देवी पर शत-शत मुंडो की माला ||

महलों में जौहर धधका हर राजपूत परवाना था |

हर-हर महादेव के नारों से अवनी अम्बर गूंजा था ||

यहाँ गाथाएँ गूंज रही कण-कण में गौरव गान की |

अलबेलों ने लिखी खड्ग से गाथाएँ बलिदान की ||

यही सीकरी यह पानीपत यही वही हल्दीघाटी |

वीर बांकुरों के शोणित से तृप्त हुई जिसकी माटी ||

हाल बता बुन्देल धरा तेरे उन वीर सपूतों का |

केशारियां कर निकल पड़े थे मान बचने माता का ||

भूल गए तो याद करो उस पृथ्वीराज महान की |

अलबेलों ने लिखी खड्ग से गाथाएँ बलिदान की ||

आन बान हित कई बाँकुरे आजीवन थे यहाँ लड़े |

यवन सैन्य के झंझावत से पर्वत बनकर यहीं अडे ||

क्षिप्रा झेलम बोल जरा क्यों लाल हुआ तेरा पानी |

महाकाल से यहाँ जूझने दुर्गा की थी भृकुटी तनी ||

तेरी ही बेदी पर माता चिता जली अरमानों की |

अलबेलों ने लिखी खड्ग से गाथाएँ बलिदान की ||

महाराणा सा सपूत पाकर धन्य हुई यह वसुंधरा |

जयमल पत्ता जैता कुम्पा झाला की यह परम्परा ||

जिन्दा है तो देख जरा जालौर और गढ़ उंटाला |

तारागढ़ और रणतभंवर में लगा शहीदों का मेला ||

आओ फिर से करें प्रतिष्ठा उस पावन प्रस्थान की |

अलबेलों ने लिखी खड्ग से गाथाएँ बलिदान की ||

तडफ रहे है अब परवाने उसी शमां पर चढ़ने को |

आग उठी है रग-रग में फिर से बदला लेने को ||

भभक रहे है अब अंगारे प्रतिहिंसा के झोंको से |

भीख मांगता महाकाल निर्वासित राजकुमारों से ||

जगो यहाँ जगदेवों की लगी है बाजी जान की |

अलबेलों ने लिखी खड्ग से गाथाएँ बलिदान की ||
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    “सिख धर्म के उत्थान में राजपूतो का योगदान”


    “सिख धर्म के उत्थान में राजपूतो का योगदान”

    सिख राजपूतो में “बछितर सिंह मन्हास,बाजसिंह पवार,बन्दा सिंह बहादुर, जैसे यौद्धा और मिल्खा सिंह(राठौर),जीव मिल्खा सिंह जैसे महान खिलाडी राजपूत समाज से थे।
    आज हम बज्जर सिंह राठौर से शुरुवात कर रहे हैं।

    सरदार बज्जर सिंह राठौड जिन्होने गुरू गोविंद सिंह जी को अस्त्र शस्त्र की दीक्षा थी —
    सरदार बज्जर सिंह राठौड सिक्खो के दसवे गुरू श्री गोविंद सिंह जी के गुरू थे ,जिन्होने उनको शस्त्र चलाने मे निपुण बनाया था। बज्जर सिंह जी ने गुरू गोविंद सिंह जी को ना केवल युद्ध की कला सिखाई बल्कि उनको बिना शस्त्र के द्वंध युद्ध, घुड़सवारी, तीरंदाजी मे भी निपुण किया। उन्हे राजपूत -मुगल युद्धो का भी अनुभव था और प्राचीन भारतीय युद्ध मे भी पारंगत थे और वो बहुत से खूंखार जानवरो के साथ अपने शिष्यों को लडवाकर उनकी परिक्षा लेते थे। गुरू गोविंद सिंह जी ने अपने ग्रन्थ बछ्छित्तर नाटक मे भी उनका वर्णन किया है। उनके द्वारा आम सिक्खो का सैन्यिकरण किया गया जो पहले ज्यादातर किसान और व्यापारी ही थे, ये केवल सिक्ख ही नही बल्की पूरे देश मे क्रांतिकारी परिवर्तन साबित हुआ।बज्जर सिंह राठौड जी की इस विशेषता की तारिफ ये कहकर की जाती है के उन्होंने ना केवल राजपूतों को बल्की खत्री सिक्ख गुरूओ को भी शिक्षा दीक्षा दी।
    पारिवारिक प्रष्टभूमि बज्जर सिंह सूर्यवंशी राठौड राजपूत वंश के शासक वर्ग से संबंध रखते थे। वो मारवाड के राठौड राजवंश के वंशंज थे —
    वंशावली–
    राव सीहा जी
    राव अस्थान
    राव दुहड
    राव रायपाल
    राव कान्हापाल
    राव जलांसी
    राव चंदा
    राव टीडा
    राव सल्खो
    राव वीरम देव
    राव चंदा
    राव रीढमल
    राव जोधा
    राव लाखा
    राव जोना
    राव रामसिंह प्रथम
    राव साल्हा
    राव नत्थू
    राव उडा ( उडाने राठौड इनसे निकले 1583 मे मारवाड के पतंन के बाद पंजाब आए)
    राव मंदन
    राव सुखराज
    राव रामसिंह द्वितीय
    सरदार बज्जर सिंह ( अपने वंश मे सरदार की उपाधि लिखने वाले प्रथम व्यक्ति) इनकी पुत्री भीका देवी का विवाह आलम सिंह चौहान (नचणा) से हुआ जिन्होंने गुरू गोविंद सिंह जी के पुत्रो को शास्त्र विधा सिखाई–।

    Sardar Bajjar Singh Rathore
    Sardar Bajjar Singh Rathore was a teacher of tenth Sikh Guru, Guru Gobind Singh, in 17th century India.
    Rathore trained Guru Gobind Singh in the intricacies of warfare, as well as in unarmed combat, equestrianism, armed combat, musketry, archery and foot tactics. A veteran of the Rajput-Mughal wars, he was well steeped in ancient Indian battle lore and often tested his disciple by pitting him against wild-beasts. The Guru reflects on these sessions, in the Bachittra Natak.
    His militarisation of common Sikhs who were mostly farmers, and a few traders was a big turning point in history of sikhism and India as well.
    He was great enough in not keeping his warrior skills or Shastravidya exclusive to his Rajput princelyhood but imparted on to khatri Sikh Gurus.
    Family Background
    He was scion of the great Suryavanshi Rathore Rajput ruling elite.
    Family Tree
    He was a descendant of the royal house of Marwar:
    *.Rao Siha
    *.Rao Asthan
    *.Rao Duhad
    *.Rao Raipal
    *.Rao Kanha Pal
    *.Rao Jalnsi
    *.Rao Chada
    *.Rao Tida
    *.Rao Salkho
    *.Rao Viram Deo
    *.Rao Chanda
    *.Rao Ridmal ——–Rao Jodha ( First son of Rao Ridmal )
    *.Rao Lakha ( seventh son of Rao Ridmal )
    *.Rao Jauna
    *.Rao Ram Singh I
    *.Rao Salha
    *.Rao Nathu
    *.Rao Uda ( Udaane Rathore ) ( came to Punjab during fall of marwar in 1583 )
    *.Rao Mandan
    *.Rao Sukhraj
    *.Rao Ram Singh II
    *.Sardar Bajjar Singh ( first to use sardar title in his line )
    *.His daughter Bhikha Devi was married to Alam Singh Chauhan ( Nachna) who gave Shastarvidya to Sahibzadas of tenth Sikh Guru.

    Source- Wikipedia.
    One can also refer to-
    1. http://punjabrevenue.nic.in/ /gazropr4.htm
    2. http://www.thesikhencyclopedia.c/ om/biographies/sikh-martyrs /alam-singh-nachna

    Photo: "सिख धर्म के उत्थान में राजपूतो का योगदान"

सिख राजपूतो में "बछितर सिंह मन्हास,बाजसिंह पवार,बन्दा सिंह बहादुर, जैसे यौद्धा और मिल्खा सिंह(राठौर),जीव मिल्खा सिंह जैसे महान खिलाडी राजपूत समाज से थे।
आज हम बज्जर सिंह राठौर से शुरुवात कर रहे हैं।

सरदार बज्जर सिंह राठौड जिन्होने गुरू गोविंद सिंह जी को अस्त्र शस्त्र की दीक्षा थी ---
सरदार बज्जर सिंह राठौड  सिक्खो के दसवे गुरू श्री गोविंद सिंह जी के गुरू थे ,जिन्होने उनको शस्त्र चलाने मे निपुण बनाया था। बज्जर सिंह जी ने गुरू गोविंद सिंह जी को ना केवल युद्ध की कला सिखाई बल्कि उनको बिना शस्त्र के द्वंध युद्ध, घुड़सवारी, तीरंदाजी मे भी निपुण किया। उन्हे राजपूत -मुगल युद्धो का भी अनुभव था और प्राचीन भारतीय युद्ध मे भी पारंगत थे और वो बहुत से खूंखार जानवरो के साथ अपने शिष्यों को लडवाकर उनकी परिक्षा लेते थे। गुरू गोविंद सिंह जी ने अपने ग्रन्थ बछ्छित्तर नाटक मे भी उनका वर्णन किया है। उनके द्वारा आम सिक्खो का सैन्यिकरण किया गया जो पहले ज्यादातर किसान और व्यापारी ही थे,  ये केवल सिक्ख ही नही बल्की पूरे देश मे क्रांतिकारी परिवर्तन साबित हुआ।बज्जर सिंह राठौड जी की इस विशेषता की तारिफ ये कहकर की जाती है के उन्होंने ना केवल राजपूतों को बल्की खत्री सिक्ख गुरूओ को भी शिक्षा दीक्षा दी। 
पारिवारिक प्रष्टभूमि बज्जर सिंह सूर्यवंशी राठौड राजपूत वंश के शासक वर्ग से संबंध रखते थे।  वो मारवाड के राठौड राजवंश के वंशंज थे --
वंशावली--
राव सीहा जी 
राव अस्थान
राव दुहड 
राव रायपाल
राव कान्हापाल
राव जलांसी 
राव चंदा 
राव टीडा
राव सल्खो
राव वीरम देव
राव चंदा
राव रीढमल
राव जोधा 
राव लाखा
राव जोना 
राव रामसिंह प्रथम
राव साल्हा
राव नत्थू
राव उडा ( उडाने राठौड इनसे निकले 1583 मे मारवाड के पतंन के बाद पंजाब आए)
राव मंदन
राव सुखराज
राव रामसिंह द्वितीय
सरदार बज्जर सिंह ( अपने वंश मे सरदार की उपाधि लिखने वाले प्रथम व्यक्ति) इनकी पुत्री भीका देवी का विवाह आलम सिंह चौहान (नचणा) से हुआ जिन्होंने गुरू गोविंद सिंह जी के पुत्रो को शास्त्र विधा सिखाई--।

Sardar Bajjar Singh Rathore
Sardar Bajjar Singh Rathore was a teacher of tenth Sikh Guru, Guru  Gobind Singh, in 17th century India.
Rathore trained Guru Gobind Singh in the intricacies of warfare, as well as in unarmed combat, equestrianism, armed combat, musketry, archery and foot tactics. A veteran of the Rajput-Mughal wars, he was well steeped in ancient Indian battle lore and often tested his disciple by pitting him against wild-beasts. The Guru reflects on these sessions, in the Bachittra Natak.
His militarisation of common Sikhs who were mostly farmers, and a few traders was a big turning point in history of sikhism and India as well.
He was great enough in not keeping his warrior skills or Shastravidya exclusive to his Rajput princelyhood but imparted on to khatri Sikh Gurus.
Family Background
He was scion of the great Suryavanshi Rathore Rajput ruling elite. 
Family Tree
He was a descendant of the royal house of Marwar:
*.Rao Siha
*.Rao Asthan
*.Rao Duhad
*.Rao Raipal
*.Rao Kanha Pal
*.Rao Jalnsi
*.Rao Chada
*.Rao Tida
*.Rao Salkho
*.Rao Viram Deo
*.Rao Chanda
*.Rao Ridmal --------Rao Jodha ( First son of Rao Ridmal )
*.Rao Lakha ( seventh son of Rao Ridmal )
*.Rao Jauna
*.Rao Ram Singh I
*.Rao Salha
*.Rao Nathu
*.Rao Uda ( Udaane Rathore ) ( came to Punjab during fall of marwar in 1583 )
*.Rao Mandan
*.Rao Sukhraj
*.Rao Ram Singh II
*.Sardar Bajjar Singh ( first to use sardar title in his line )
*.His daughter Bhikha Devi was married to Alam Singh Chauhan ( Nachna) who gave Shastarvidya to Sahibzadas of tenth Sikh Guru.  

Source- Wikipedia. 
One can also refer to- 
1.  http://punjabrevenue.nic.in /gazropr4.htm
2.  http://www.thesikhencyclopedia.c om/biographies/sikh-martyrs /alam-singh-nachna
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    दिल्ली के बादशाह अलाउद्दीन खिलजी ने जब चित्तोड़ की महारानी पद्यमिनी


    क्षत्रिय रण बाँकुरे लिख गए एक अमर गाथा … स्वर्णिम इतिहास
    विश्व इतिहास की सबसे साहसिक घटनाओं में से एक

    दिल्ली के बादशाह अलाउद्दीन खिलजी ने जब चित्तोड़ की महारानी पद्यमिनी के रूप की चर्चा सुनी ,तो वह रानी को पाने के लिए आतुर हो बैठा । उसने राणा रत्न सिंह को संदेश भेजा की वह रानी पद्यमिनी को उसको सोंप दे वरना वह चित्तोड़ की ईंट से ईंट बजा देगा। अलाउद्दीन की धमकी सुनकर राणा रत्न सिंह ने भी उस नरपिशाच को जवाब दिया की वह उस दुष्ट से रणभूमि में बात करेंगे।
    कामपिपासु अलाउद्दीन ने महारानी को अपने हरम में डालने के लिए सन 1303 में चित्तोड़ पर आक्रमण कर दिया। भारतीय वीरो ने उसका स्वागत अपने हथियारों से किया। राजपूतों ने इस्लामिक नरपिशाचों की उतम सेना वाहिनी को मूली गाजर की तरह काट डाला। एक महीने चले युद्ध के पश्चात् अलाउद्दीन को दिल्ली वापस भागना पड़ा। चित्तोड़ की तरफ़ से उसके होसले पस्त हो गए थे। परन्तु वह महारानी को भूला नही था।कुछ समय बाद वह पहले से भी बड़ी सेना लेकर चित्तोड़ पहुँच गया। चित्तोड़ के 10000 सैनिको के लिए इस बार वह लगभग100,000 की सेना लेकर पहुँचा। परंतु उसकी हिम्मत चित्तोड़ पर सीधे सीधे आक्रमण की नही हुई। उस अलाउद्दीन ने आस पास के गाँवो में आगलगवा दी,हिन्दुओं का कत्लेआम शुरू कर दिया। हिंदू ललनाओं के बलात्कार होने लगे।
    उसके इस आक्रमण का प्रतिकार करने के लिए जैसे ही राजपूत सैनिक दुर्ग से बहार आए ,अलाउदीन ने एक सोची समझी रणनीति के अनुसार कुटिल चाल चली। उसने राणा को संधि के लिए संदेश भेजा। राणा रत्न सिंह भी अपनी प्रजा के कत्लेआम से दुखी हो उठे थे। अतः उन्होने अलाउद्दीन को दुर्ग में बुला लिया। अथिति देवो भवः का मान रखते हुए राणा ने अलाउद्दीन का सत्कार किया तथा उस वहशी को दुर्ग के द्वार तक छोड़ने आए। अलाउद्दीन ने राणा से निवेदन किया की वह उसके तम्बू तक चले ।
    राणा रत्न सिंह उसके झांसे में आ गए। जैसे ही वो उसकी सेना के दायरे में आए मुस्लमान सैनिकों ने झपटकर राणा व उनके साथिओं को ग्रिफ्तार कर लिया। अब उस दरिन्दे ने दुर्ग में कहला भेजा कि महारानी पद्यमिनी को उसके हरम में भेज दिया जाय ,अन्यथा वह राणा व उसके साथियों को तड़पा तड़पा कर मार डालेगा। चित्तोड़ की आन बान का प्रश्न था।कुछ चुनिन्दा राजपूतों की बैठक हुई। बैठक
    में एक आत्मघाती योजना बनी। जिसके अनुसार अलाउद्दीन को कहला भेजा की रानी पद्यमिनी अपनी 700 दासिओं के साथ अलाउद्दीन के पास आ रही हैं। योजना के अनुसार महारानी के वेश में एक 14 वर्षीय राजपूत बालक बादल को शस्त्रों से सुसज्जित करके पालकी में बैठा दिया गया। बाकि पाल्किओं में भी चुनिन्दा ७०० राजपूतों को दासिओं के रूप में हथियारों से सुसज्जित करके बैठाया गया। कहारों के भेष में भी राजपूत सैनिकों को तैयार किया गया।लगभग 2100 राजपूत वीर गोरा ,जो की बादल का चाचा था, के नेत्र्तव्य में 100,000 इस्लामिक पिशाचों से अपने राणा को आजाद कराने के लिए चल दिए।
    अलाउद्दीन ने जैसे ही दूर से छदम महारानी को आते देखा ,तो वह खुशी से चहक उठा। रानी का कारंवा उसके तम्बू से कुछ दूर आकर रूक गया। अलाउद्दीन के पास संदेश भेजा गया कि महारानी राणा से मिलकर विदा लेना चाहती हैं। खुशी में पागल हो गए अलाउद्दीन ने बिना सोचे समझे राणा रत्न सिंह को रानी की पालकी के पास भेज दिया।
    जैसे ही राणा छदम रानी की पालकी के पास पहुंचे ,लगभग 500 राजपूतों ने राणा को अपने घेरे में ले लिया,और दुर्ग की तरफ़ बढ गए। अचानक चारो और हर हर महादेव के नारों से आकाश गूंजा, बचे हुए 2100 राजपूत 100,00 तुर्क सेना पर यमदूत बनकर टूट पड़े।
    इस अचानक हुए हमले से तुर्की सेना के होश उड़ गए और charo और भागने लगे

    2100 हिंदू राजपूत वीरों ने अलाउद्दीन की लगभग 9000 की सेना को देखते ही देखते काट डाला। और सदा के लिए भारत माता की गोद में सो गए। इस आत्मघाती रणनीति में दो वीर पुरूष गोरा व बादल भारत की पोराणिक कथाओं के नायक बन गए। इस युद्ध में अलाउद्दीन खिलजी भी बुरी तरह घायल हुआ।
    यह इतिहास की घटना विश्व इतिहास की महानतम साहसिक घटनाओं में से एक है।
    सौजन्य से:- किरण बेदी जी / मीडिया माफिया

    Photo: क्षत्रिय रण बाँकुरे लिख गए एक अमर गाथा … स्वर्णिम इतिहास 
विश्व इतिहास की सबसे साहसिक घटनाओं में से एक

दिल्ली के बादशाह अलाउद्दीन खिलजी ने जब चित्तोड़ की महारानी पद्यमिनी के रूप की चर्चा सुनी ,तो वह रानी को पाने के लिए आतुर हो बैठा । उसने राणा रत्न सिंह को संदेश भेजा की वह रानी पद्यमिनी को उसको सोंप दे वरना वह चित्तोड़ की ईंट से ईंट बजा देगा। अलाउद्दीन की धमकी सुनकर राणा रत्न सिंह ने भी उस नरपिशाच को जवाब दिया की वह उस दुष्ट से रणभूमि में बात करेंगे।
कामपिपासु अलाउद्दीन ने महारानी को अपने हरम में डालने के लिए सन 1303 में चित्तोड़ पर आक्रमण कर दिया। भारतीय वीरो ने उसका स्वागत अपने हथियारों से किया। राजपूतों ने इस्लामिक नरपिशाचों की उतम सेना वाहिनी को मूली गाजर की तरह काट डाला। एक महीने चले युद्ध के पश्चात् अलाउद्दीन को दिल्ली वापस भागना पड़ा। चित्तोड़ की तरफ़ से उसके होसले पस्त हो गए थे। परन्तु वह महारानी को भूला नही था।कुछ समय बाद वह पहले से भी बड़ी सेना लेकर चित्तोड़ पहुँच गया। चित्तोड़ के 10000 सैनिको के लिए इस बार वह लगभग100,000 की सेना लेकर पहुँचा। परंतु उसकी हिम्मत चित्तोड़ पर सीधे सीधे आक्रमण की नही हुई। उस अलाउद्दीन ने आस पास के गाँवो में आगलगवा दी,हिन्दुओं का कत्लेआम शुरू कर दिया। हिंदू ललनाओं के बलात्कार होने लगे।
उसके इस आक्रमण का प्रतिकार करने के लिए जैसे ही राजपूत सैनिक दुर्ग से बहार आए ,अलाउदीन ने एक सोची समझी रणनीति के अनुसार कुटिल चाल चली। उसने राणा को संधि के लिए संदेश भेजा। राणा रत्न सिंह भी अपनी प्रजा के कत्लेआम से दुखी हो उठे थे। अतः उन्होने अलाउद्दीन को दुर्ग में बुला लिया। अथिति देवो भवः का मान रखते हुए राणा ने अलाउद्दीन का सत्कार किया तथा उस वहशी को दुर्ग के द्वार तक छोड़ने आए। अलाउद्दीन ने राणा से निवेदन किया की वह उसके तम्बू तक चले ।
राणा रत्न सिंह उसके झांसे में आ गए। जैसे ही वो उसकी सेना के दायरे में आए मुस्लमान सैनिकों ने झपटकर राणा व उनके साथिओं को ग्रिफ्तार कर लिया। अब उस दरिन्दे ने दुर्ग में कहला भेजा कि महारानी पद्यमिनी को उसके हरम में भेज दिया जाय ,अन्यथा वह राणा व उसके साथियों को तड़पा तड़पा कर मार डालेगा। चित्तोड़ की आन बान का प्रश्न था।कुछ चुनिन्दा राजपूतों की बैठक हुई। बैठक
में एक आत्मघाती योजना बनी। जिसके अनुसार अलाउद्दीन को कहला भेजा की रानी पद्यमिनी अपनी 700  दासिओं के साथ अलाउद्दीन के पास आ रही हैं। योजना के अनुसार महारानी के वेश में एक 14 वर्षीय राजपूत बालक बादल को शस्त्रों से सुसज्जित करके पालकी में बैठा दिया गया। बाकि पाल्किओं में भी चुनिन्दा ७०० राजपूतों को दासिओं के रूप में हथियारों से सुसज्जित करके बैठाया गया। कहारों के भेष में भी राजपूत सैनिकों को तैयार किया गया।लगभग 2100 राजपूत वीर गोरा ,जो की बादल का चाचा था, के नेत्र्तव्य में 100,000 इस्लामिक पिशाचों से अपने राणा को आजाद कराने के लिए चल दिए।
अलाउद्दीन ने जैसे ही दूर से छदम महारानी को आते देखा ,तो वह खुशी से चहक उठा। रानी का कारंवा उसके तम्बू से कुछ दूर आकर रूक गया। अलाउद्दीन के पास संदेश भेजा गया कि महारानी राणा से मिलकर विदा लेना चाहती हैं। खुशी में पागल हो गए अलाउद्दीन ने बिना सोचे समझे राणा रत्न सिंह को रानी की पालकी के पास भेज दिया।
जैसे ही राणा छदम रानी की पालकी के पास पहुंचे ,लगभग 500 राजपूतों ने राणा को अपने घेरे में ले लिया,और दुर्ग की तरफ़ बढ गए। अचानक चारो और हर हर महादेव के नारों से आकाश गूंजा, बचे हुए 2100 राजपूत 100,00 तुर्क सेना पर यमदूत बनकर टूट पड़े।
इस अचानक हुए हमले से तुर्की सेना के होश उड़ गए और charo और भागने लगे

2100  हिंदू राजपूत वीरों ने अलाउद्दीन की लगभग 9000 की सेना को देखते ही देखते काट डाला। और सदा के लिए भारत माता की गोद में सो गए। इस आत्मघाती रणनीति में दो वीर पुरूष गोरा व बादल भारत की पोराणिक कथाओं के नायक बन गए। इस युद्ध में अलाउद्दीन खिलजी भी बुरी तरह घायल हुआ।
यह इतिहास की घटना विश्व इतिहास की महानतम साहसिक घटनाओं में से एक है।
सौजन्य से:- किरण बेदी जी / मीडिया माफिया
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