CONGRILLA DILEMA :
जो पढ़ सके न खुद किताब मांग रहे है,
खुद रख न पाए वे हिसाब मांग रहे है।
जो कर सके न साठ साल में कोई विकास
वे सौ दिनों में ही जवाब मांग रहे है।
CONGRILLA DILEMA :
जो पढ़ सके न खुद किताब मांग रहे है,
खुद रख न पाए वे हिसाब मांग रहे है।
जो कर सके न साठ साल में कोई विकास
वे सौ दिनों में ही जवाब मांग रहे है।
श्री राम शबरी (नवधा- भक्ति उपदेश)
शबरी का वास्तविक नाम श्रमणा था । श्रमणा भील समुदाय की “शबरी ” जाति से सम्बंधित थी । संभवतः इसी कारण श्रमणा को शबरी नाम दिया गया था । पौराणिक संदर्भों के अनुसार श्रमणा एक कुलीन ह्रदय की प्रभु राम की एक अनन्य भक्त थी लेकिन उसका विवाह एक दुराचारी और अत्याचारी व्यक्ति से हुआ था ।
प्रारम्भ में श्रमणा ने अपने पति के आचार-विचार बदलने की बहुत चेष्टा की , लेकिन उसके पति के पशु संस्कार इतने प्रबल थे की श्रमणा को उसमें सफलता नहीं मिली । कालांतर में अपने पति के कुसंस्कारों और अत्याचारों से तंग आकर श्रमणा ने ऋषि मातंग के आश्रम में शरण ली । आश्रम में श्रमणा श्रीराम का भजन और ऋषियों की सेवा-सुश्रुषा करती हुई अपना समय व्यतीत करने लगी ।
शबरी को भक्ति – साहित्य में एक विशिष्ट स्थान प्राप्त है । कुछ भक्तों ने यहां तक कह दिया की प्रभु राम ने शबरी के झूठे फल खाए थे । यह विषय मर्यादा, शालीनता और व्यवहार का विवाद का न हो कर एक आंतरिक प्रेम अभिव्यक्त करने का प्रसंग है ।
महर्षि वाल्मिकी कृत रामायण के अनुसार स्थूलशिरा नामक महर्षि के अभिशाप से राक्षस बने कबन्ध को श्रीराम ने उसका वध करके मुक्ति दी और उससे सीता की खोज में मार्गदर्शन करने का अनुरोध किया। तब कबन्ध ने श्रीराम को मतंग ऋषि के आश्रम का रास्ता बताया और राक्षस योनि से मुक्त होकर गन्धर्व रूप में परमधाम पधार गया।
श्रीराम व लक्ष्मण मतंग ऋषि के आश्रम पहुंचे। वहां आश्रम में वृद्धा शबरी भक्ति में लीन थी। मतंग ऋषि अपने तप व योग के बल पर अन्य ऋषियों सहित दिव्यलोक पहुंच चुके थे। ऋषि मतंग ने शबरी से एक अपेक्षित घड़ी में कह दिया कि राम तुम्हारी कुटिया में आएंगे। ऋषि ने शबरी की श्रद्धा और सबूरी की परख करके यह भविष्य वाक्य कहा। शबरी एक भरोसे लेकर जीती रही। वह बूढ़ी हो गई, परंतु उसने आतुरता को बूढ़ा नहीं होने दिया।
वन-फलों की अनगिनत टोकरियां भरी और औंधी की। पथ बुहारती रही। राह निहारती रही। प्रतीक्षा में शबरी स्वयं प्रतीक्षा का प्रतिमान हो जाती है।
जब शबरी को पता चला कि भगवान श्रीराम स्वयं उसके आश्रम आए हैं तो वह एकदम भाव विभोर हो उठी और ऋषि मतंग के दिए आशीर्वाद को स्मरण करके गद्गद हो गईं। वह दौड़कर अपने प्रभु श्रीराम के चरणों से लिपट गईं। इस भावनात्मक दृश्य को गोस्वामी तुलसीदास इस प्रकार रेखांकित करते हैं:
सरसिज लोचन बाहु बिसाला। जटा मुकुट सिर उर बनमाला।।
स्याम गौर सुंदर दोउ भाई। सबरी परी चरन लपटाई।।
प्रेम मगर मुख बचन न आवा। पुनि पुनि पद सरोज सिर नावा।।
सादर जल लै चरन पखारे। पुनि सुंदर आसन बैठारे।।
(अर्थात, कमल-सदृश नेत्र और विशाल भुजा वाले, सिर पर जटाओं का मुकुट और हृदय पर वनमाला धारण किये हुए सुन्दर साँवले और गोरे दोनों भाईयों के चरणों में शबरीजी लिपट पड़ीं। वह प्रेम में मग्न हो गईं। मुख से वचन तक नहीं निकलता। बार-बार चरण-कमलों में सिर नवा रही हैं। फिर उन्हें जल लेकर आदरपूर्वक दोनों भाईयों के चरण कमल धोये और फिर उन्हें सुन्दर आसनों पर बैठाया।)
इसके बाद शबरी जल्दी से जंगली कंद-मूल और बेर लेकर आईं और अपने परमेश्वर को सादर अर्पित किए। पौराणिक सन्दर्भों के अनुसार, बेर कहीं खट्टे न हों, इसलिए अपने इष्ट की भक्ति की मदहोशी से ग्रसित शबरी ने बेरों को चख-चखकर श्रीराम व लक्ष्मण को भेंट करने शुरू कर दिए। श्रीराम शबरी की अगाध श्रद्धा व अनन्य भक्ति के वशीभूत होकर सहज भाव एवं प्रेम के साथ झूठे बेर अनवरत रूप से खाते रहे, लेकिन लक्ष्मण ने झूठे बेर खाने में संकोच किया। उसने नजर बचाते हुए वे झूठे बेर एक तरफ फेंक दिए। माना जाता है कि लक्ष्मण द्वारा फेंके गए यही झूठे बेर, बाद में जड़ी-बूटी बनकर उग आए। समय बीतने पर यही जड़ी-बूटी लक्ष्मण के लिए संजीवनी साबित हुई। श्रीराम-रावण युद्ध के दौरान रावण के पुत्र इन्द्रजीत (मेघनाथ) के ब्रह्मास्त्र से लक्ष्मण मुर्छित हो गए और मरणासन्न हो गए। विभिषण के सुझाव पर लंका से वैद्यराज सुषेण को लाया गया। वैद्यराज सुषेण के कहने पर बजरंग बली हनुमान संजीवनी लेकर आए। श्रीराम की अनन्य भक्त शबरी के झूठे बेर ही लक्ष्मण के लिए जीवनदायक साबित हुए।
भगवान श्रीराम ने शबरी द्वारा श्रद्धा से भेंट किए गए बेरों को बड़े प्रेम से खाए और उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की। गोस्वामी तुलसीदास जी लिखते हैं:
कंद मूल फल सुरस अति दिए राम कहुँ आनि।
प्रेम सहित प्रभु खाए बारंबार बखानि।।
श्रीराम अपनी इस वनयात्रा में मुनियों के आश्रम में भी गए। महर्षि भरद्वाज, ब्रह्मर्षि वाल्मीकि आदि के आश्रम में भी आदर और स्नेहपूर्वक उन्हें कंद, मूल, फल अर्पित किए गए। उन महापुरुषों ने जो फल अर्पित किए वे भी दिव्य ही रहे होंगे। ऐसी स्थिति में स्वाभाविक रूप से यह पूछा जा सकता है कि ‘शबरी के फलों में ऐसी कौन सी विशेषता थी कि प्रभु ने उनमें जिस स्वाद का अनुभव किया, अन्यत्र नहीं कर पाए?’ गोस्वामीजी इस प्रश्न का उत्तर देने के लिए जिस शब्द का प्रयोग करते हैं, उसके अर्थ और संकेत पर गहराई से विचार करने की आवश्यकता है। गोस्वामी, इस शब्द का प्रयोग अन्यत्र अर्पित कंद, मूल, फल के लिए नहीं करते। वे कहते हैं- कंद, मूल, फल सुरस अति दिए राम कहुँ आनि। अर्थात शबरी के फलों में ‘रस’ नहीं ‘सुरस’ है। और केवल सुरस ही नहीं ‘अति सुरस’ है।
भक्ति-साहित्य में शबरी के फलों की मिठास का बार-बार वर्णन आता है। भगवान राम को इन फलों में जैसा स्वाद मिला, वैसा स्वाद न तो पहले कहीं मिला था और न बाद में ही कहीं मिला। भीलनी को सामाजिकता की मूलधारा में ले आते हैं। उसके झूठे बेर खाकर राम ने एक वनवासिन का मन ही नहीं रखा, बल्कि उसे पारिवारिकता दी। अपने प्रियजन और परिवारजन का झूठा खाने में संकोच नहीं होता। राम इस अर्थ में तमाम सामाजिक संकीर्णताओं को तोड़ते हुए मानव समाज की पुनर्रचना की नींव रखते हैं।
इसके बाद श्रीराम ने शबरी की भक्ति से खुश होकर कहा, ‘‘भद्रे! तुमने मेरा बड़ा सत्कार किया। अब तुम अपनी इच्छा के अनुसार आनंदपूर्वक अभीष्ट लोक की यात्रा करो।’’ इस पर शबरी ने स्वयं को अग्नि के अर्पण करके दिव्य शरीर धारण किया और अपने प्रभु की आज्ञा से स्वर्गलोक पधार गईं।
महर्षि वाल्मीकी ने शबरी को सिद्धा कहकर पुकारा, क्योंकि अटूट प्रभु भक्ति करके उसने अनूठी आध्यात्मिक उपलब्धि हासिल की थी। यदि शबरी को हमारी भक्ति परम्परा का प्राचीनतम प्रतीक कहें तो कदापि गलत नहीं होगा।
शबरी को उसकी योगाग्नि से हरिपद लीन होने से पहले प्रभु राम ने शबरी को नवधाभक्ति के अनमोल वचन दिए । शबरी प्रसंग से यह पता चलता है की प्रभु सदैव भाव के भूखे हैं और अन्तर की प्रीति पर रीझते हैं ।
नवधा भगति कहउँ तोहि पाहीं।
सावधान सुनु धरु मन माहीं॥
प्रथम भगति संतन्ह कर संगा।
दूसरि रति मम कथा प्रसंगा॥4॥
मैं तुझसे अब अपनी नवधा भक्ति कहता हूँ। तू सावधान होकर सुन और मन में धारण कर। पहली भक्ति है संतों का सत्संग। दूसरी भक्ति है मेरे कथा प्रसंग में प्रेम॥4॥
गुर पद पंकज सेवा
तीसरि भगति अमान।
चौथि भगति मम गुन गन
करइ कपट तजि गान॥35॥
तीसरी भक्ति है अभिमानरहित होकर गुरु के चरण कमलों की सेवा और चौथी भक्ति यह है कि कपट छोड़कर मेरे गुण समूहों का गान करें॥35॥
मंत्र जाप मम दृढ़ बिस्वासा।
पंचम भजन सो बेद प्रकासा॥
छठ दम सील बिरति बहु करमा।
निरत निरंतर सज्जन धरमा॥1॥
मेरे (राम) मंत्र का जाप और मुझमें दृढ़ विश्वास- यह पाँचवीं भक्ति है, जो वेदों में प्रसिद्ध है। छठी भक्ति है इंद्रियों का निग्रह, शील (अच्छा स्वभाव या चरित्र), बहुत कार्यों से वैराग्य और निरंतर संत पुरुषों के धर्म (आचरण) में लगे रहना॥1॥
सातवँ सम मोहि मय जग देखा।
मोतें संत अधिक करि लेखा॥
आठवँ जथालाभ संतोषा।
सपनेहुँ नहिं देखइ परदोषा॥2॥
सातवीं भक्ति है जगत् भर को समभाव से मुझमें ओतप्रोत (राममय) देखना और संतों को मुझसे भी अधिक करके मानना। आठवीं भक्ति है जो कुछ मिल जाए, उसी में संतोष करना और स्वप्न में भी पराए दोषों को न देखना॥2॥
नवम सरल सब सन छलहीना।
मम भरोस हियँ हरष न दीना॥
नव महुँ एकउ जिन्ह कें होई।
नारि पुरुष सचराचर कोई॥3॥
नवीं भक्ति है सरलता और सबके साथ कपटरहित बर्ताव करना, हृदय में मेरा भरोसा रखना और किसी भी अवस्था में हर्ष और दैन्य (विषाद) का न होना। इन नवों में से जिनके एक भी होती है, वह स्त्री-पुरुष, जड़-चेतन कोई भी हो-॥3॥
सोइ अतिसय प्रिय भामिनि मोरें।
सकल प्रकार भगति दृढ़ तोरें॥
जोगि बृंद दुरलभ गति जोई।
तो कहुँ आजु सुलभ भइ सोई॥4॥
हे भामिनि! मुझे वही अत्यंत प्रिय है। फिर तुझ में तो सभी प्रकार की भक्ति दृढ़ है। अतएव जो गति योगियों को भी दुर्लभ है, वही आज तेरे लिए सुलभ हो गई है॥4॥
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मंत्र जाप मम दृढ़ बिस्वासा।
पंचम भजन सो बेद प्रकासा॥
छठ दम सील बिरति बहु करमा।
निरत निरंतर सज्जन धरमा॥
मेरे (राम) मंत्र का जाप और मुझमें दृढ़ विश्वास- यह पाँचवीं भक्ति है, जो वेदों में प्रसिद्ध है। छठी भक्ति है इंद्रियों का निग्रह, शील (अच्छा स्वभाव या चरित्र), बहुत कार्यों से वैराग्य और निरंतर संत पुरुषों के धर्म (आचरण) में लगे रहना॥
पाँचवीं भक्ति है-मेरे (भगवान के) मंत्र का जाप और मुझमें (परमात्मा में) दृढ़ विश्वास।
(मंत्र जाप दृढ़ विश्वास-पंचम भजन सो वेद प्रकाश)। मंत्र का माहात्म्य समझकर भावपूर्वक परमात्मसत्ता में विश्वास रख जब जप किया जाता है, तो वह भक्ति का पाँचवाँ सोपान ही नहीं बन जाता-सिद्धि का मूल भी बनता है जप में लम्बी साधना की नहीं, गहरी साधना श्रद्धा-विश्वासपूर्वक किये जाने की सर्वाधिक आवश्यकता है।
मंत्र की व्याख्या हेतु महार्थमंजरी में वर्णन आया है-शक्ति के वैभव विकास में मननयुक्त अपूर्णता से त्राण करने वाली, विश्व-विकल्प (दुनियादारी) की झंझटों से मुक्ति दिलाने वाली अनुभूति ही मंत्र है।”
भगवान कहते हैं- जपात सिद्धि जपात सिद्धि जपातसिद्धिर्नसंशया।
(जप से निश्चित ही सिद्धि ही मिलती है, इसमें कोई संशय नहीं।)
ईश्वर को संबोधित-निवेदन ही मंत्र है। चाहे वह नमो भगवते वासुदेवाय हो, नमः शिवाय हो अथवा गायत्री मंत्र के रूप में सद्बुद्धि की अवधारणा की प्रार्थना-जप यदि विश्वासपूर्वक किया जाय तो निश्चित ही फल देता है।
योगदर्शन का सूत्र है-तद् जपस्य तदथ्रभावनम्’ अर्थात् मंत्र का जप उसकी भावना, उसके देवता पर प्रगाढ़ भक्ति रखकर करना चाहिए। यदि मंत्र की सामर्थ्य पर जिस गुरु ने मंत्र दिया है, उसकी सत्ता पर एवं मंत्र के देवता पर विश्वास रख निरन्तर जप किया जाय, तो मंत्र की सामर्थ्य असंख्य गुनी हो जाती है।
नवधा भक्ति में छठवीं भक्ति हैं-इंद्रियों का निग्रह, अच्छा चरित्र, बहुत कार्यों से वैराग्य और निरन्तर संतपुरुषों के आचरण में निरत रहना। (षट् दम शील-विरति बहुकर्मा-निरति निरन्तर सज्जन धर्मा)। दम का अर्थ है-संकल्पपूर्वक हठ के साथ अपने ऊपर नियंत्रण। मानसिक संयम सधते ही शारीरिक स्वयमेव सध जाता है। दम अर्थात् आत्मानुशासन प्रबलतम स्तर पर। इंद्रियों पर ताले लगा लेना ताकि अंतर्मुखी होकर इंद्रियों की संरचना में हम फेर-बदल कर सकें। इसी पक्ष की महत्ता बताते हुए, परमपूज्य गुरुदेव ने विचारसंयम, इन्द्रियसंयम, समयसंयम, अर्थसंयम चारों पर जोर दिया एवं अस्वाद व्रत के माध्यम से उसका शुभारंभ करने को कहा, ताकि सभी क्रमशः सध सकें। दम के बाद ही अंतर्जगत में शान्ति का पथ प्रशस्त हो पाता है। दम के बाद इस भक्ति में भगवान श्रीराम ने शील की चर्चा की है। अश्लील का उलटा है शील। शील अर्थात् शालीनता का निर्वाह। शीलव्रत की चर्चा शास्त्रों में आती है। जब पति-पत्नी सद्गृहस्थ के रूप में परस्पर सहमति से संयम-पूर्वक जीवनयापन करते हैं, तो इसे शीलव्रत कहते हैं। अमर्यादित काम को मर्यादित करते हुए जीवनयापन शीलव्रत का पहला चरण है। दूसरा चरण है- काम का ऊर्ध्वारोहण आध्यात्मिक प्रगति के लिए। यह भारतीय संस्कृति के बहुआयामी एवं सबके लिए सुलभ एक दार्शनिक प्रतिपादन का परिचायक है।
अगला पक्ष इस भक्ति में हैं बहुत कर्मों से, बहुत सारी आकांक्षाओं से विरक्ति-दूर रहना। भगवान ने कर्मों से साथ जुड़ी कामनाओं के त्याग को संन्यास कहा है-काम्यानाँ कर्मणा न्यासं सन्यासं कवयोः विदु। काम्य कर्मों से विरति अर्थात् न लोभ करें, न भय से। लोकहित के लिए कर्म करें-फल परमात्मा को अर्पित करें। स्वामी विवेकानन्द कहते थे कि एक साधक के, भक्त के कर्म आत्मकल्याण व जगहित के लिए अर्पित होने चाहिए। परमपूज्य गुरुदेव की जीवनशैली हम देखें तो पाते हैं कि उनके सभी कर्म लोकहित के लिए समर्पित हुए। लेखनी जीवन भर उनने चलायी। विचारक्रान्ति का कार्य अंतिम समय तक लेखनी से करते रहे। एक कोठरी में बंद होकर भी सारे विश्व को प्रचण्ड झंझावात से आंदोलन किया जा सकता है, यह उनने विरति बहुकर्मा की अपने भक्तिसाधना वाले स्वरूप से दर्शाया। इस भक्ति का चौथा चरण है- संतपुरुषों के आचरण में लगे रहना-संतपुरुषों के आचरण में लगे रहना-संतपुरुषों में क्रोध नहीं होता, वे सदैव क्षमाशील होते हैं। हम यदि ये दोनों गुण अपना लें-तो संतों का आचरण हमें भक्ति की पराकाष्ठा पर पहुँचा सकता है।
नक्शा सू मिट जायेला, पाकिस्तान रो नाम …….
नाम थारो पाकिस्तान
परन्तु है गप्पीस्तान,
पाक नही थू नापाक है
थू है आंतक रो स्थान
थू भारत री औलाद है,
भारत थारो बाप
टक्कर मत ले भारत सू
थू खावै बार बार मात
काशमिर रो नाम छोड दे,
खुद रो घर सम्भाल
और टुकडा हो जासी थारा
आयो थारो काल,
घर मे खावण रा दाणा नही
लगायो हथियार रो ढैर
इंसानियत ने भूल गयो
थारा खूुन मे है जैर,
चार आना नही जेब मे,
बतावे सवा रूपयो,
ले कटोरो फिरै भटकतो
कर्जा मे थू लूट गयो,
भीख मांगतो फिरै भिखारी
लाया उधारा बम्ब
विदेशी है सब तकनीक,
झूठो ठोके खन्भ,
विदेश सू मिसाईल मंगाई
समझे खूद री शान,
उपर कलर पोत दियो
मेड इन पाकिस्तान
बार बार मत ले थू,
परमाणू बम रो नाम
नक्शा सू मिट जायला
पाकिस्तान रो नाम
आंतक रो कैन्सर फैलावे
बात बणावै खूब
आत्महत्या करणी होवे
तो अरबसागर मे डूब
गिदड री जद मौत आवै
सिह सामो जावै
रण मे थू लड सके नही
करै पीठ पर वार
कपडा थारा गिरवी पडीया
इज्जत तार तार
भारत देश मे वीरो री
नही कमी है कोई बात री
कारगिल ने थू भुल गयो,
भूलयो लाल बहादूर शास्त्री ने
मत ललकार थू भारत ने
मोदी भारत रो लाल
भारत मोटो देश है
भारत देश महान
दुनिया मे शान्ति सिखावै
अहिसा है इसकी शान
एक like अमेरिकी संस्था NASA ke liye
Nasa वालों ने सार्वजनिक तौर पर यह
सिद्ध कर दिया है की आज का परमाणु बम
महाभारत काल के “ब्रह्माश्त्र”
का ही दूसरा रूप है !! और हमारे भारत
भूमि की संतानें ही सबके पूर्वज हैं और
हमारे पूर्वज सबसे अधिक बुद्धिमान थें
जी हाँ!
Nasa एवं Worlds Historical Evidence
की टीम ने अपने खोज में अह सिद्ध कर
दिया की “ब्रह्माश्त्र” ही आज का परमाणु
बम है और आज के जितने भी आधुनिक
हथियार हैं वो हज़ारो वर्ष पहले महाभारत
के युद्ध में प्रयोग किये जा चुके हैं !
मोहंजोदारो की दुबारा खुदाई में
नासा की टीम को वहाँ 5300 वर्ष पुराने
परमाणु हथियारों के अंश मिले हैं, उन्होंने
यह भी माना की भारतीय ही सबके पूर्वज
हैं सबसे बड़ी ख़ुशी की बात है की इसे
नासा और UNESCO की टीम ने
हज़ारों वैज्ञानिकों के सामने खुक्लर प्रेजेंट
किया ! नासा एवं WHE के संयुक्त मुख्य
अधिकारी ‘डॉ विल्लिंस’ मोर्गे ने कहा-“मुझे
पता है की हमे जो तथ्य मिले हैं
वो काफी चौकाने वाले हैं परन्तु यह
जानकार हमे बहुत ख़ुशी हुई की हमारे
पूर्वज जो भारत भूमि के थें वो हमसे
काफी बुद्धिमान थें !
मोहंजोदारो की खुदाई में मिले तथ्य अवाक
कर देने वालें हैं की जिन
चीजों का अविष्कार करके आज हम
इतना गर्व महसूस करते हैं और खुद
को इंटेलीजेंट कहते हैं उन सबका उपयोग
भारत के लोग खिलौनों की तरह करते थें
महाभारत एक ज्वलंत उदाहरण है
की भारतीय ही हमारे पूर्वज थें” और सबसे
ख़ुशी की बात की इसे एक अंतर्राष्ट्रीय
टीवी चैनल पर भी दिखाया गया है
see video >
http://bit.do/nasa33
मुझे याद है ६० के दशक में हमारे घर में कोइ चाय नही पिता था लेकिन समेटी (राशन) की दुकान से जो मोरस (शक्कर) मिलती थे हम ड्रम में भर लेत थे । सारा गांव यही करता था, शुभप्रसंग आते रहते थे तो उस समय सस्ती मोरस शुभप्रसंग के खाने बनाने में काम आती थी ।
सुधरे हुए घरों में या शहर में चाय जरूर पी जाती थी ।
शक्कर को मोरस इसलिए कहते थे क्यों कि मोरेशियस से आती थी ।
मोरस का मिठा स्वाद भारत की जनता लेती रही पर किसी को पता नही चला या किसी को बताया नही गया कि इस मोरस के पिछे क्या क्या शैतानी खेल खेले गए थे, भारत के ही कुछ भाई बेहनो को क्या क्या मुसिबतें, यातनाएं झेलनी पडी थी ।
युरोप के व्यापारी अपने शक्कर के खारखानों के लिए भारत की अंग्रेज सरकार से मिलकर भारत के नागरिकों को गुलाम बन्धुआ मजदूर बना कर छल से या बलपूर्वक गन्ने के खेतों में काम करने के लिए ले गए थे । अबोध मजदूरों को एक एग्रीमेन्ट में साईन करवा लेते थे और पांच साल के लिए बांध लेते थे । इसलिए उन्हें गीरमीटीए मजदूर कहे गए थे, कूली भी कहा जाता था । उन दानवों ने युपी और बिहार के नागरिकों को ज्यादा टार्गेट किया था जब की अन्य भाग से कम लोग गए थे ।
युपी-बिहार की जनता की आजीयों और दादीयों की ये आवाज है जो मार खा कर, अपमान सह्न कर गन्ने के खेत में गन्ना काटते हुए गाती थी । आज उनकी पोतियां, परपोतिया गा रही है इस डोक्युमेन्टरी में । मुझे पूरे शब्द समज में नही आए जो समज में आया यहां शब्दों में लिखा है । पूरा गीत इस डोक्युमेन्टरी में है ।
Girmit and Girmiteers
http://www.youtube.com/watch?v=bOrmCDZ6bYs
ये गन्ने की हरी हरी पत्तियां, जाने हमरी सब बतियां
ये गन्ने की हरी हरी पत्तियां, जाने हमरी सब बतियां
बगिया में लहराए आज पवन फिरे मतवारे हो रामा रे रामा !
बहक रही है लहक रही है हरियाली हरियाली हो रामा रे रामा हो……. !
फिर भी मनकी बगिया सुखी कब से उजडी कब से भूकी,
फिर भी मनकी बगिया सुखी ..हो…ओ…..ओ….ओ……….
फिर भी मनकी बगिया सुखी कब से उजडी कब से भूकी
?????????????????
ये गन्ने की हरी हरी पत्तियां, जाने हमरी सब बतियां
छोड छाड घरबार को अपने आए देश पराए हो रामा रे रामा
सारे फिरंगे देखो हम को क्या क्या रंग दिखाए हो रामा हो रामा हो….
जब घर की याद सताए हम से एक पल रहा न जाए
जब घर याद सताए ओ…ओ….ओ..
जब घर की याद सताए हम से एक पल रहा न जाए
???????? अखियां रोए सारी सारी रतियां
ये गन्ने की हरी हरी पत्तियां, जाने हमरी सब बतियां
क्या क्या जुलम हम पे ढाए रे कोलंबरा
हमरी कलाई पे मौज उडाए बैरी
हमरी कलाई पे मौज उडाए बैरी
हमे ही को अखिंया दिखाए रे कोलंबरा
इस लोगगीत में उनकी यातनाएं, उन के साथ हुए दगा का एहसास, उन की वतन के लिए तडप और गोरों के प्रति तिरस्कार साफ जलकता है ।
इस दुसरे लोकगीत में जीन को फिजी ले गए थे उन गुलाम गिरमीटीयों की पूरी कहानी बताई गई है ।
फरंगिया के राजुआ मां छूटा मोरा देसुआ हो,
गोरी सरकार चली चाल रे बिदेसिया।
भोली हमें देख आरकाटी भरमाया हो,
कलकत्ता पार जाओ पांच साल रे बिदेसिया।
डीपुआ मां लाए पकरायो कागदुआ हो,
अंगूठआ लगाए दीना हार रे बिदेसिया
पाल के जहाजुआ मां रोय धोय बैठी हो,
जीअरा डराय घाट क्यों नहिं आए हो,
बीते दिन कई भये मास रे बिदेसिया।
आई घाट देखा जब फीजी आके टापुआ हो,
भया मन हमरा उदास रे बिदेसिया।
कुदारी कुरवाल दीना हाथुआ मां हमरे हो,
घाम मां पसीनुआ बहाए रे बिदेसिया।
स्वेनुआ मां तास जब देवे कुलम्बरा हो,
मार मार हुकुम चलाये रे बिदेसिया।
काली कोठरिया मां बीते नाहि रतिया हो,
किस के बताई हम पीर रे बिदेसिया।
दिन रात बीती हमरी दुख में उमरिया हो,
सूखा सब नैनुआ के नीर रे बिदेसिया॥
इस दो फोटो में क्या कॉमन है क्या अलग है, बताना मुशिल है । व्यक्ति अलग है लेकिन दर्द एक है । उन्हों ने लिखी कहानियों के देश, लोग, समय अलग है लेकिन हकिकत एक ही है । कहानी को जमीन पर उतार ने वाले दानव एक ही है ।
एक, एलेक्ष हेली अमरिका में रहते है, दुसरे हैं राजेन्द्र प्रसाद, फिजी में रहते हैं । दोनो अपने अपने मूल खोज रहे हैं । एक के मूल भारत में है एक का जांबिया, आफ्रिका । दोनों के पूरखों को “सिटी ओफ लंडन” के दानवों की कंपनियां “रॉयल आफ्रिका कंपनी” और “इस्ट इंडिया कंपनी” गुलाम बनाकर अपने अपने वतन से पकड कर ले गयी थी । ये दोनो प्रतिनीधि है उन लोगों के जीन के पूरखों को बलपूर्वक गुलाम बनाया था और आज वो अपने अपने मूल वतन को याद करते हैं और अपना मूल ढुंढ रहे हैं ।
एलेक्ष हेली को तो अपना पूरखा मिल गया । “कुन्टा कुन्टे” उस का नाम, उनकी बूक “रूट्स” का हिरो । १७वीं सदी में उसे जांबिया से पकड कर अमरिका ले जाया गया था । बूक तो मिलती है पर उस बूक पर से उन्हों ने टीवी सिरिज बनाई है वो अब देखने नही मिलती है । पहले सारे एपिसोड युट्युब पर थे अब हटा लिए गए है । टोरंट में १९.९० जीबी का विडियो मिलता है । ( एलेक्ष अब नही रहे, २००७ में उनका निधन होगया है )
मैं ने शुरु से लिंकन के समय तक के सारे एपिसोड देखे थे । आदमी में जरा भी संवेदना बची हो तो रोते रोते ही देखेगा, ऐसा था सब । बाद में नही देखे लेकिन बाकी का मुझे डॉ.कार्वर के जीवन पर से मिल गया ।
राजेन्द्र जी से बात करी कि आप हम भारतवासियों के लिए अपनी किताब “टियर्स इन पॅरेडाईज” को हिंदी में अनुवाद करवाईए । उन्हों ने कहा कि वो कोशीश करेंगे ।
गूगल में मेरी नजर ‘गिरमीट’ शब्द पर पडी । खोज करते समय राजेन्द्र प्रसाद जी की किताब “टियर्स इन पॅरेडाईज” पर नजर पडी । उनका पिछा करते करते बहुत सी जानकारी मिली । राजेन्द्र जी तिसरी पिढी के फिजी-भारतिय या गिरमिटिए है । उन्हों ने फिजी निवासी भारतियों के संघर्ष के विषय में लिखा है । उन से बात तो नही हुई, मेरी एक कोमेन्ट के जवाब में उनका जवाब जरूर मिला । आज वो मेरे फ्रेन्डलिस्ट में हैं ।
राजेन्द्र प्रसाद-
जब विश्व से गुला्मी प्रथा खतम कर दी गई तब अंग्रेज जीन जीन देशों में गुलामों से काम लेते थे उन गुलामों ने काम करने की मना कर दी । उन संजोगों में उनको गुलाम की तरह काम करने वाले लेकिन उन को गुलाम नहीं कह सकें ऐसे मजदुरों की जरूरत पडी । सब से अच्छे, टिकाउ, मजबूत और बेबस मजदूर भारत के थे । उस समय एक योजना बनाई गई ‘ऍग्रीमेन्ट”, जीस का भारतियों ने “गिरमिट” कर दिया । भारत से मजदूरों को गिरमिट योजना द्वारा विदेश ले जाने के लिए दो प्रमुख बंदरगाह थे । कलकत्ता और मद्रास । कलकत्ता और मद्रास अपनी अपनी प्रॅसिडन्सी के प्रमुख शहर थे । बोंबे प्रॅसिडन्सी में शांत और सुखी प्रजा थी। बोम्बे प्रॅसिडन्सी के अंदर आते भारतिय राजाओं का आभार मानना चाहिए कि उन्हों ने पश्चिम भारत की प्रजा को गिरमिट प्रथा से दूर रख्खा। ग्वालियर के राजा ने उन के खास पोलिस दल को कलकत्ता केन्द्र पर रख्खा था जीस से उनके राज्य के लोगों को कोइ गिरमिट प्रथा में शामिल ना करे । ज्यादातर गिरमिटिए आज के उत्तर प्रदेश और बिहार के थे । इन दो राज्य के बारे में क्या कहें ? यहां से लोगों को बहला फुसला कर या लालच दे कर या जबरदस्ती फिजी, वेस्ट इन्डिज, मोरेशियस, ट्रीनीदाद, आफ्रिकी देश, गुयाना और अन्य देशों में भेजा गया था । पोंडिचेरी में फ्रेन्चों का शासन था इसलिए उन्हों ने आज के आंध्रप्रदेश और तामिलनाडु से लोगों को विश्व के अन्य फ्रेन्च शासित आफ्रिकन और कॅरेबियन देशों में भेजा ।
लेखक राजेन्द्र प्रसाद को जब पहलीबार भारत आने का मौका मिला था तो यहां का अनुभव, उन के दादाजी की कही हुई भारत की बातें, गांव का वर्णन और लोगों का प्रेम इत्यादी में से उन को पुस्तक लिखने का हेतु मिल गया था । उन के भारत प्रवास और फिजी के बचपन के दिनों का बहुत अनोखा वर्णन है । लेखक के दादाजी तथा नानाजी के पास से सुनी हुई बातें और भारत से फिजी तक का प्रवास वर्णन अद्भूत है । इस के अलावा फिजी आने के बाद कामकाज की रीत, मुसिबतें और संघर्ष की मनोव्यथा, गिर्मिट प्रथा का अंत और नयी शुरुआत, सांस्कृतिक और राजकिय संघर्ष, ओस्ट्रेलिया की सुगरमील और भारतिय कामकारों का विग्रह जैसे विषयों को बहुत गहराई से बताए हैं । भारत की आजादी की लडाई की तरह ही अंग्रेज और ओस्ट्रेलियन सुगरमील के धनपतियों के विरुध्ध भारतिय कामकारों ने संधर्ष किया था । फिजी में भारतियों की प्रगति में बाधा बनने के लिए अंग्रेजों ने स्थानिक फिजीयन और फिजी-भारतियों के बीच खाई बनाने के लिए गंदा राजकारण खेला था । और इसलिए ही फिजी में जब फिजी-भारतिय प्रधानमंत्री बने तो सशस्त्र आंतर विग्रह हुआ था । और फिजी में हिन्दुओं में भी भेदभाव आ गए हैं, जीस में मुख्य दो भाग है- आर्य समाजवाले और सनातन धर्मवाले ।
आगे की बातें खूद गिर्मिट के शिकार लोगों ने या उनकी संतानों ने ही लिखी या कही है ।
फिजीद्वीप में मेरे 21 वर्ष
तोतारामजी सनाढ्य–जो खूद फिजी में गिरमिटिए थे ।
www.facebook.com/notes/siddharth-bharodiya/फिजीद्वीप-में-मेरे-21-वर्ष/368803243272543
गायत्रा बहादुर—गुयाना में जन्मी मूल भारतिय लडकी आज अमरिका में पत्रकार है । अपनी नानी के घर को खोजती बिहार आ पहुंची थी ।
सुरिनाम देश का एक भारतिय बेटा, गंगास्नान और अपने वतन बिहार आने का सपना पालते उस के गिरमिटिए बाप को भारत ला नही सका पर उस के मरने के बाद वो खूद भारत आता है और स्वार्थी संबंधियों का सामना होते वापस चला जाता है ।
सुरिनाम की एक “आजी” खूद गिरमिट थी । ससुराल से पिहर आते रास्ते से उसे कैसे आर्कटी उठा ले गए थे वो बात इस विडियो में बताती है बताती है । बलपूर्वक उसे कलकत्ता और वहां से सुरिनाम ले गए थे । वो भी बताती है कि उस ने गोरे को थप्पड भी मारा था ।
The Last Kantraki Part 1
https://www.youtube.com/watch?v=esEn3psdzFM
The Last Kantraki Part 2
https://www.youtube.com/watch?v=bhrPsTfy8X8
Fiji Bidesia
फिजी के भारतिय गिरमिटियों का दर्द भरा भोजपूरी गीत ।
http://www.youtube.com/watch?v=0qqnGtNEYHA
Legacy of our Ancestors Part 1 से 6- डॉक्युमेन्टरी
https://www.youtube.com/watch?v=wv7myABr6Ak
https://www.youtube.com/watch?v=EtICIfA7NRU
https://www.youtube.com/watch?v=SBSHns8wrWc
https://www.youtube.com/watch?v=ARdhyDPjOnk
सदगुरू की प्राप्ति कराते हैं भगवान गजानन
हमारे शास्त्रों में कई देवताओं का वर्णन आता है। इनमें भी भगवान विष्णु, शिव, सूर्य, जगदम्बा माता और गणेशजी ये पाँच देव प्रमुख कहे गये हैं।
भगवान विष्णु विराट पुरूष हैं जिनसे ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति हुई। भगवान शिव उस विराट पुरूष की आत्मा हैं, आद्यशक्ति माँ जगदम्बा आत्मा की कार्यशक्ति अथवा प्रकृति है जिसकी अव्यक्त आत्मसत्ता विराट ब्रह्माण्ड के रूप में स्वयं को व्यक्त करती है। भगवान सूर्य नारायण उस विराट पुरूष के नेत्र हैं जिनसे समस्त संसार प्रकाशमान होता है तथा भगवान गणपति विराट पुरूष की बुद्धि है। इसीलिए गणेशजी को बुद्धि का अधिष्ठाता देव भी कहा गया है। यह भी कह सकते हैं कि अनंत ईश्वर की बौद्धिक सत्ता गणेश जी के रूप में प्रकट हुई है।
सनातन धर्म में भगवान गणपति का बड़ा ऊँचा स्थान है। प्रत्येक शुभ कार्य में उनका पूजन सर्वप्रथम किया जाता है। उनके पूजन से विघ्नों का भय नहीं रहता क्योंकि वे विघ्नविनाशक हैं। अतः शुभ कार्य की निर्विघ्न सफलता के लिए उनका पूजन होता है।
गणेशजी के प्रथम पूजन में भी बड़ा सूक्ष्म रहस्य है। पुराणों में आता है कि देवताओं में विवाद हुआ कि सर्वप्रथम किस की पूजा होनी चाहिए। अंत में यह निश्चित हुआ कि जो सभी लोकों की तीन बार परिक्रमा सबसे पहले कर लेगा वह प्रथम पूजा का अधिकारी होगा। सभी देवता अपने-अपने वाहनों पर परिक्रमा के लिए चल पड़े। गणेशजी अपने पिता भगवान शिव व माता पार्वती के समीप गये। भगवान शिव-पार्वती एक शिला पर बैठे थे। गणेशजी ने अपने माता-पिता की तीन बार परिक्रमा लगायी और निश्चिंत होकर अन्य देवताओं के आगमन की प्रतीक्षा करने लगे। समय पाकर सभी देवता वापस आये परंतु गणेशजी की विजय पर सभी ने प्रश्न उठाया क्योंकि उन्होंने तो एक भी लोक की परिक्रमा नहीं की। इस पर गणपति जीन अपना भावार्थ रखते हुए सभी को समझाया कि उनके पिता शिवजी विराट पुरूष की आत्मा रूप है तथा माता आद्य शक्तिरूपा हैं। अतः जब मूल की परिक्रमा हो गयी तब अन्यत्र भटकने का श्रम क्यों किया जाये ?
सभी गणेश जी की बुद्धिमत्ता पर नतमस्तक हुए और उन्हें प्रथम पूज्य घोषित किया गया। इस कहानी के पीछे बड़ा गूढ़ रहस्य है। सभी देवताओं ने भौतिक बल से विजय प्राप्त करनी चाही परंतु गणेशजी ने बुद्धि तथा विवेक का उपयोग किया। देवता सृष्टि की ओर भागे परंतु गणेशजी सृष्टि के अधिष्ठान की ओर गये। अर्थात् वह बुद्धि जो विवेक का उपयोग करके संसार की ओर से उपराम होकर जगत के अधिष्ठान ईश्वर और ईश्वर से मिलाने वाली उसकी आह्लादिनी शक्ति की शरण में आती है वह परम सात्त्विक बुद्धि समाज में पूजनीय बन जाती है।
स्कंदपुराण के ब्राह्मखंड में भगवान शिवजी पार्वती जी से कहते हैं-
जपन्ति शाक्ताः सौराश्च गाणपत्याश्च वैष्णवाः।
शैवाः पाशुपताः सर्वे सत्यं सत्यं न संशयः।।
शक्ति के, सूर्य के, गणपति के, विष्णु के, शिव (पशुपति) के और के भक्त (सदगुरू की शरण में आकर) इस गुरूगीता का पाठ करते हैं, यह सत्य है, इनमें कोई संदेह नहीं।
अर्थात् इन पाँच देवों में से किसी भी देव की उपासना देर-सवेर आत्मदेव का अनुभव कराने वाले सदगुरू की प्राप्ति कराती है। अन्य देवता भक्त को मनोवांछित फल दे देते हैं परंतु उपरोक्त पाँच देव भक्त को वही देते हैं जिसमें उसका कल्याण हो। मानव का परम कल्याण और अंतिम लक्ष्य है आत्मप्राप्ति और वह ब्रह्मवेत्ता सदगुरू के मंत्र, उपदेश तथा सान्निध्य से ही संभव है। अतः ये पाँच देवता अपने भक्त को किसी ब्रह्मज्ञानी की शरण में पहुँचाकर उसके परम कल्याण का द्वार खोल देते हैं।
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जिस तरह पत्नी के प्रेम में लोग जन्म देने वाली अपनी माँ को भूल जाते है ,
ठीक उसी तरह साईं की अंधभक्ति में भी लोग अपने भगवानों को भूलते जा रहे है और अपने आप को सही ठहरा रहे ।
1) भगवान विष्णु ने अपने राम अवतार में असुरो का वध किया क्योंकि उनकी वजह से मानव समाज त्रस्त था ।
साई के समय ब्रिटिशो से भारतीय त्रस्त थे उसने क्या किया ?
2) इसी तरह कृष्ण अवतार में गोवर्धन उठाकर समाज को इंद्र के प्रकोप से बचाया ।
साई के समय 12 बार महाराष्ट्र में बाढ़ आई साई ने क्या किया ?
3) भगवान विष्णु ने बुद्ध अवतार में जीवों के प्रति दया भाव रखने को कहा ।
वही साई चरित अध्याय 5 के तहत साई ने बकरे हलाल किये !
आखिर कोई तो बता दो की ये मुल्ला पाखंडी साई भगवान कैसे हुआ ?
Siddharth Bharodiya
आज तो ग्लोबलाईजेशन ने दुनिया छोटी कर दी है । अगर कोइ अपना घरबार छोड के कहीं दुसरी जगह जाता है तो बूरा नही लगता है । लेकिन एक समय था जब आदमी दुसरे शहर भी जाता था तो अपने घर, अपने गांव के लिए तडपता था, तो दुसरे देश की बात ही क्या करनी !
ये गीत ऐसी ही तडप दिखाता है ।
पिपरा के पतवा सरीखा डोले मनवा
कि जियरा में उठत हिलोर
अरे पुरवा के झोंकवा से आईल रे संदेसवा
की चल आज देसवा की ओर
झुकि झुकि बोले कारे कारे बदरा
कबसे पुकारे तोहे नयनों का कजरा
उमड़ घुमड़ जब गरजे बदरिया रे
ठुमक ठुमक नाचे मोर
सिमिट सिमिट बोले लम्बी रे डगरिया
जल्दी जल्दी चलू राही अपनी नगरिया
रहिया तकत बिरहनिया दुल्हनिया रे
बांध के लगनवा की डोर
यही गीत संगीत और ऍक्शन के साथ ।
http://www.youtube.com/watch?v=2QYaeHut-lU
मैं ने यहां एक कहानी पेस्ट की है । जो सुरिनाम के एक भारतिय गुलाम गिरमीटए के बेटे ने लिखी है । जीस में उसके बाप की भारत के लिए जो तडप थी उस का वर्णन है ।
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कितने बरस गुज़र गए अपने देश से गए हुए, बल्कि लगता है कितनी सदियाँ गुज़र गईं और मै तरस गया अपने देश, अपने गाँव नरीखेड़ा की मिटटी को छूने के लिए। नियति थी की मै यहाँ ‘ सूरीनाम’ में ‘गिरमिटिया मजदूर ‘ बन कर आ गया था।
उस वक्त ये नहीं पता था की यही हमारी उपाधि हो जाएगी। एक अच्छी सोच के साथ यहाँ आया था लालच बस यही था कि यहाँ नौकरी मिलेगी और मै अपने घर-परिवार, गाँव सबका नाम रोशन करूँगा जैसे और भी आस-पास के गाँव के लोग यहाँ सूरीनाम आकर करते हैं। कभी कोई वापस लौट कर ही नहीं आता इतना खुश हो जाते हैं सब यहाँ ।
कच्ची उम्र में तरक्की के सपने संजोये मै भी चला आया था ‘दक्षिण अमेरिका’ के पश्चिम में स्थित छोटे से देश ‘सूरीनाम’ में। यहाँ तक का सफ़र पानी के जहाज का था और सारा खर्चा हमारे अंग्रेज़ मालिकों ने ही उठाया था जिनसे हमने यहाँ की तारीफें सुनी थी और बस उसी ख़ुशी की तलाश में,गरीबी से निजात पाने मै और मेरे जैसे न जाने कितने ही लोग आये थे इंडिया से। उस दिन अपना गाँव- देश छोड़ते हुए ज़रा भी दुःख नहीं हुआ था उम्र ही ऐसी थी, बस सपनो को मुट्ठी में करना था और उन्ही सपनो को सच करने का वादा दिलाकर ही अंग्रेज़ हमे यहाँ लाये थे।
कई दिनों के लम्बे सफ़र और उसकी थकान के बाद जैसे ही जहाज़ बंदरगाह पर पहुँचता है जंजीरों से जकड़ा जाता है ठीक उसी तरह से जकड़ दिए गए थे हम सब भी सदा के लिए। जहाज़ तो एक समय बाद वापस मुक्त हो जाता है लेकिन हमारी मुक्ति हमे मौत ही दिलाएगी। अंग्रेजों द्वारा दिलाये गए सारे वादे खोखले थे और सामने था रात्रि के समंदर जैसा काला पानी सा सच !
सूरीनाम जहाँ की भाषा को ‘सरनामी’ भाषा कहते हैं,सीखने में हमे काफी वक्त लगा क्योंकि हमसे बात करने के लिए इस भाषा का नहीं बल्कि ‘कोड़ों की मार ‘ भाषा का ही अधिक प्रयोग किया जाता था। रोज़ अनगिनत बार कोड़ों की मार से शरीर नीला-काला हो जाता था पर धीरे-धीरे चीखें कम निकलती थीं,आदत हो गई थी शरीर को। यहाँ मै ही अकेला नहीं था बल्कि पूरे भारत वर्ष के अलग-अलग प्रान्तों की भीड़ थी और वो सब भी हमारी तरह अच्छे जीवन के प्रलोभन से ही यहाँ आये थे।
कलकत्ता के लोगों की संख्या अधिक थी। भारतीय इतने अधिक थे कि यूँ लगता था अपने ही देश का कोई छोटा सा शहर बसा है सूरीनाम में। सूरीनाम में गन्ना बहुत अधिक होता है और हम सबसे यहाँ गन्ने की खेती ही करवाई जाती थी। पूरे दिन बिना खाना-पानी के काम कराया जाता था और सिर्फ एक बार इतना ही खाना मिलता था की हम जिन्दा रह सकें। हमारे पास कोई दूसरा विकल्प नहीं था क्योंकि हम वहां से भाग भी नहीं सकते थे। पानी के रास्ते जहाज़ से ले तो आये गए किन्तु वापसी का कोई भी रास्ता हमारे लिए नहीं था। हमारा जीवन समुद्र के खारे पानी के साथ मिलकर नमकीन ही रह गया,बल्कि नमक कुछ अधिक ही। अपने घर और देश से दूर यहाँ आकर हमे ये अहसास हुआ कि क्या खो चुके हैं हम।
समय बीता और साथ ही हमारा जीवन भी, एक नए जीवन की शुरुआत भी यहीं से हुई और उसका पहला कदम था यहीं की एक लड़की से शादी। हम एक-दूसरे को अधिक नहीं जानते थे और न ही एक-दूसरे की भाषा की हमे समझ थी लेकिन फिर ये भी तो सच है प्यार कब भाषा का मोहताज़ हुआ है। आँखों ने मन की बातें पढ़ लीं और ज़ुबाँ ने जो कहना चाहा वो कानो से लेकर ह्रदय तक संप्रेषित हो गया। एक बार फिर से जीवन जीने की चाह जगी। हमने शादी कर ली और शादी के एक वर्ष बाद ही जब बेटे रिहान का जन्म हुआ तब यूँ लगा जैसे अपना ही नया जन्म हुआ हो। सारी तकलीफ़ें जैसे उड़न छू हो गई पल भर में ही । हम दोनों खूब काम करते और जो भी मुश्किल से पैसे बचते उन्हें रिहान की परवरिश के लिए रख लेते क्योंकि अपने अंश अपने बेटे को हम एक बेहतर जीवन देंगे ये हमने एक दूसरे से वादा किया था।
रिहान धीरे-धीरे बड़ा हो रहा था और हम दोनों उसके अच्छे भविष्य के लिए तत्पर। रिहान बहुत समझदार था सारी परिस्थितियों से वाकिफ़ भी था इस लिये हमेशा यही कहता कि नौकरी मिलते ही मै आप दोनों को इन सारे कष्टों से दूर रखूंगा, बहुत कर लिया आप दोनों ने अब मेरी बारी है कि मै अपने मम्मी-पापा को खुशियाँ दूं।
आज भी याद है वो दिन जब रिहान को पहली तन्खाह मिली थी उसने पूछा था बताओ पापा क्या दिलाऊँ आपको और मैंने कहा था, बस एक बार मुझे मेरे गाँव मेरे देश ले चलना बेटा और दूजी कोई चाह नहीं है मेरी। मेरा देश बहुत अच्छा है, वहाँ सब में आपस में बहुत प्यार है, वहाँ हर जाति-धर्म के लोग आपस में मिलकर रहते हैं और सभी एक दूसरे के त्यौहार मानते हैं, इतना भाईचारा दुनिया में और कहीं नहीं। मुझे पावन गंगा नदी में स्नान करना है फिर एक बार महसूस करना है जैसे माँ की गोद में बैठ गए हों उस स्पर्श का अहसास आज भी कितना ममतामई है। रिहान, मेरे गाँव से बस थोड़ी ही दूरी पर है जगह बक्सर। गंगा नदी वहीँ से होकर गुज़रती है और वहां पर माँ चंडी देवी का प्राचीन सिद्ध मंदिर भी है। मंदिर के ठीक नीचे अंतिम सीढ़ियों में सदा ही गंगा का जल बहता रहता है। मेरे पिता जी बताते थे की मेरा मुंडन भी वहीँ उसी मंदिर के आँगन में हुआ था और मेरे बालों को आंटे की लोई में भरकर वहीँ गंगा नदी में प्रवाहित किया गया था। बक्सर के करीब 13 किलोमीटर पहले जगह पड़ती है भगवंत नगर वहां के मान हलवाई की दुकान और उसके मीठे समोसे बहुत प्रसिद्ध थे। ताज़ी गरम जलेबियाँ बरगद के पत्ते में मिलती थीं आज भी याद है उन गरम जलेबियों की मिठास जब कि उस वक्त मै 10 बरस का थ। हमारे गाँव में सब घर अपने जैसे ही थे जहाँ भूख लगे वहीँ खाना खा लो। चाचा,काका-काकी जैसे रिश्ते सिर्फ स्नेह और ममता ही बरसाते थे। रिहान मेरी पहली और अंतिम इच्छा यही होगी कि तुम मुझे मेरे गाँव, मेरे देश ले चलना। अभी कोई जल्दी नहीं है पहले खूब कमाओ, जियो अपनी माँ को आराम दो अपना परिवार बसाओ फिर मुझे मेरी मिटटी तक ले चलना।
अपने दादा जी की डायरी पढ़ते-पढ़ते रॉबर्ट की ऑंखें नम हो आईं आज अचानक ही दादा जी के कमरे से उसे ये डायरी मिली थी जो उसने बड़ी उत्सुकता वश पढनी शुरू कर दी थी बिना अपने पापा रिहान की इज़ाज़त के। रॉबर्ट डायरी लेकर अपने पापा रिहान के पास जाता है । पापा आपसे बिना पूछे दादा जी की डायरी पढ़ी और मेरा मन बहुत दुखी हो गया है क्या आप दादा जी को उनके देश भारत लेकर गए थे ?
नहीं !! कहते हुए रिहान एक लम्बी सांस लेते हुए अपनी आँखें बंद कर लेता है। कुछ देर की चुप्पी के बाद रिहान कहता है मै तुम्हारे दादा जी को भारत ले जाना चाहता था किन्तु नहीं ले जा सका । कई समस्याएं थीं उस वक्त और जब तक मै उनकी ये इच्छा पूरी करता वो नहीं रहे इस बात का दुःख मुझे आज तक है क्योंकि सिर्फ यही एक चीज़ मांगी थी उन्होंने मुझसे और मै नहीं दे पाया। उस वक्त तुम बहुत छोटे थे ,तुम्हारे जन्म के समय ही तुम्हारी माँ गुज़र गईं और तुम्हारा लालन पालन तुम्हारी दादी ने ही किया। उस हालत में न तो मै तुम लोगों को भारत ले जा सकता था और न ही तुम्हे छोड़कर। इसी तरह वक्त कब बीत गया पता ही नहीं चला और एक रात तुम्हारे दादा जी सोए तो फिर उस गहरी नींद से कभी नहीं उठे। तुम्हारी दादी इसी देश की थीं इस लिए भी मै बाद में भारत नहीं गया क्योंकि पिता जी की अंतिम इच्छा पूरी नहीं कर सका था इस लिए कम से कम माँ के अंतिम समय में मै उन्हें उनके देश उनकी मात्र भूमि से दूर नहीं ले जाना चाहता था। आज अच्छा लग रहा है ये जानकार रॉबर्ट, कि तुम दादा जी की भावनाओं को समझ सके हो ” आय एम् प्राउड ऑफ़ यू माय सन “.
डैड क्या हम इण्डिया चल सकते हैं, क्या हम वहाँ चल कर दादा जी के परिवार से मिल सकते हैं ? आखिर वो हमारा भी तो है …है ना डैड।
रॉबर्ट यहाँ तुम्हारा परिवार है ,वाइफ है दो बच्चे हैं इस हालात में तुम इंडिया जाने की कैसे सोच सकते हो जब कि तुम कभी इंडिया गए भी नहीं। हाँ तुम मेरी टिकट करा दो और मै अपने पिता के देश उनके गाँव हो आता हूँ ,उन सभी तीर्थ स्थलों के दर्शन भी कर लूँगा जिनका जिक्र पापा हमेशा ही किया करते थे। वापस आकर तुम सब को ले चलूँगा जब बच्चों की भी छुट्टियां होंगीं तब ! तुम्हारा इस तरह पापा की डायरी पढना इस बात का संकेत है कि पापा आज भी अपने देश के लिए तड़प रहे हैं शायद उनकी आत्मशांति तभी होगी जब मै उनके देश-गाँव हो आऊंगा। वहाँ की मिटटी के स्पर्श मात्र से तुम्हारे दादा जी को मुक्ति मिल जाएगी और शायद मुझे भी, आखिर वही तो है हमारा भी देश हमारा अपना।
रॉबर्ट अपने डैड रिहान की टिकट करा देता है और रिहान असंख्य सपने संजोये हुए रखता है कदम अपने पापा की स्वप्न से भी सुन्दर दुनिया में। उसे याद है कि पापा सदा ही अपने गाँव पैसे भेजा करते थे,गाँव के अपने सभी भाई-बंधुओं के लिए और जब, वो बड़ा हुआ उसे अच्छी नौकरी मिली तब से तो उसके पापा ने हर महीने एक निश्चित रकम गाँव भेजनी शुरू कर दी थी सिर्फ यही सोचकर कि घर परिवार से दूर होना मजबूरी है लेकिन घर-परिवार की पैसों से मदद करना कर्तव्य।
रिहान लम्बी हवाई यात्रा के बाद इण्डिया पंहुचता है अभी सुबह के तीन बजे हैं । रखता है अपना पहला कदम देश की राजधानी दिल्ली के हवाई अड्डे पर। सोचता है मन ही मन कि क्या सच में ये उसका देश है ?
पूरा दिन है उसके पास क्यूँकि उसके गाँव जाने की ट्रेन रात साढ़े नौ बजे की है। टैक्सी वाले को रेलवे स्टेशन के पास के ही किसी होटल में चलने के लिए कहता है। सुबह-सुबह बिलकुल शांत है दिल्ली। इण्डिया गेट और राष्ट्रपति भवन देख कर खुश होता है वह कि हमारा देश तो सच में बहुत सुन्दर है। होटल में पंहुचकर सोने की कोशिश तो बहुत करता है लेकिन कौतूहल उसे सोने नहीं देता। नहा-धो कर तैयार हो चल पड़ता है दिल्ली की सैर करने। होटल से ही टैक्सी तय कर ली थी पूरे दिन दिल्ली के ऐतिहासिक स्थलों और शहर के घूमने की । रिहान खुश है आज बार-बार उसे पापा याद आ रहे हैं और पापा की कहीं हजारों बातें।
पूरा दिन कब गुजर गया पता ही न चला शाम हो गई। ट्रेन निश्चित समय से २ घंटे की देरी से चल रही है फिर भी रिहान जाकर पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन के प्लेट फॉर्म न.६ पर इंतज़ार करता है। करीब ढाई घंटे बाद अनाउन्समेंट होता है की अम्बाला से चलकर ऊंचाहार जाने वाली ‘ ऊंचाहार एक्सप्रेस ‘ प्लेट फॉर्म न . ६ पर आ रही है। सारा सामान ले वो झट से ट्रेन में चढ़ जाता है। ट्रेन चल पड़ती है और रिहान अपनी आँखों में असंख्य सपने संजोये याद करता है अपने पापा को। कहता है मन में ‘ पापा ‘ मै आ रहा हूँ। अगली सुबह वो कानपुर स्टेशन पर उतर जाता है और वहीँ से अपने गाँव के लिए टैक्सी कर लेता है उसे पता ही नहीं की ये ट्रेन उसके गाँव के बेहद करीब से गुज़रती है। टैक्सी वाला बताता है उसे कि साहब ये गाड़ी तो आपके गाँव के पास से ही जाती है, आप इतना पहले उतर गए हैं। रिहान फिर भी निश्चिन्त है कोई बात नहीं ,आपको मेरे गाँव का पता मालूम है ना बस आप ले चलिए फिर। मात्र एक घंटे में ही वो एक ‘बक्सर’ नामक जगह पर पंहुच जाता है। वहाँ एक विशाल नदी को देख कर ड्राइवर से पूछता है की ये कौन सी नदी है ? ” गंगा नदी ” ड्राइवर का जवाब सुनते ही रिहान बोल पड़ता है ओ वॉव ! रोको प्लीज़ मैं इस पावन नदी का स्पर्श करना चाहता हूँ। रिहान बचपन से ही पापा से गंगा नदी की पवित्रता के बारे में सुनता आया था। गंगा नदी के स्पर्श में रिहानअपने पापा का स्पर्श महसूस करता है। नदी में स्नान के बाद वो प्रसिद्ध सिद्ध पीठ चंडी माता के दर्शन करता है। रिहान भावुक हो उठता है ये सोचकर कि पापा कितने बेचैन रहे होंगे अपने देश अपनी मिटटी से अलग। आज वो पापा के दर्द को खुद में महसूस करता है।
बक्सर से करीब १२ किलोमीटर बाद वो भगवंत नगर नामक एक छोटे से कस्बे में पंहुचता है यहाँ पर ड्राइवर रुककर उसके गाँव ‘ नरी खेड़ा ‘ का रास्ता पूंछता है। रिहान गाड़ी से उतर आता है सामने एक चाय की दूकान पर बैठ जाता है। काफी लोगों की भीड़ इकठ्ठा थी उस दूकान पर तभी उसकी नज़र दूकान के ऊपर लिखे उसके नाम पर जा पड़ती है ,काफी धुंधला सा दिख रहा है शायद जब दूकान खुली होगी तभी नाम लिख कर टांगा गया होगा। ” मान हलवाई ” नाम पढ़कर वो अचंभित हो गया और एकदम जोर से बोला, मान हलवाई ! रिहान की आवाज़ सुन आस-पास के लोग उसे देखने लगे कि हुआ क्या है। किसी ने बोला भी ‘ इसमें आश्चर्य की क्या बात है ‘ लगता है कोई परदेसी है ?
रिहान अपना पूरा परिचय बताता है और साथ ही देश आने का उद्देश्य भी। वहाँ उपस्थित दो लोग उसे झट से गले लगा लेते हैं और कहते हैं ‘अरे ,तू सरजू का बेटा है, मेरे सरजू का । मै सरजू का बड़ा भाई हूँ और ये छोटा चचेरा भाई है । रिहान की ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहता वो झट से दोनों लोगों के पैर छूता है। अरे चाय लाओ भाई साथ ही समोसे, पकौड़ी और गरमागरम जलेबी भी। चाय आती है सब पीते हैं और खूब जमकर खाते हैं बाद में बिल रिहान की तरफ बढा दिया जता है। ये कैसा आतिथ्य ? रिहान बिल के पैसे देते हुए सोचता है ।
रिहान कहता है कि ‘घर चलें काका’ सुनते ही काका कहते हैं हाँ क्यों नहीं बेटा फिर तुरंत ही बोल पड़ते हैं कि कुछ पैसे चाहिए हमे। हमारे पास तो वैसे भी कुछ है ही नहीं । सरजू तो कमाने गया और फिर लौटा ही नही भूल गया हम सबको,कभी एक पैसा तक न भेजा उसने । ये सुनकर रिहान दंग रह गया क्योंकि जब से वो बड़ा हुआ था वो खुद ही पैसा भेजता था इन सबके नाम से ,फिर ये झूठ क्यों बोल रहे हैं ?
आधा दिन बीत गया उसी दूकान पर लेकिन किसी ने रिहान को घर या गाँव चलने के लिए नहीं कहा बल्कि तब तक कुछ और लोग उसके आने की खबर पाकर वहीँ आ गए और अपना- अपना रोना रोने लगे कि अब तुम आ गए हो बेटा तो तुम ही कुछ करो जब इतना कमाया है तो वो अपनों के लिए ही ना । हम सब बेहद गरीब हैं या तो हमारी पैसों से मदद कर दो या फिर अपने ही साथ ले चलो । सरजू तो कभी आया नहीं और हम बस जिम्मेदारियों के नीचे दबते चले गए। अब जो तुमने हमारी मदद न की तो क्या यहाँ हमारी गरीबी का मजाक बनाने आये हो । रिहान को कुछ समझ नहीं आ रहा था एक पल को उसे ऐसा लगा जैसे उसकी सोचने समझ पाने की कोई शक्ति कहीं चली ही गई है कि ये सब क्या कह रहे हैं जबकि उसके पापा ने तो ख़त के ज़रिये अपनी सारी ज़मीन तक इन्ही भाइयों के नाम कर दी थी और हमेशा ही इन्हें पैसे भेजते रहे फिर ये लोग उल्टा हमसे पैसे क्यों मांग रहे हैं, देखने में तो कोई भी निर्धन नहीं लग रहा है । दुकान पर बैठे -बैठे शाम होने को आई लेकिन न ही किसी ने उससे खाने को पूछा और न ही गाँव चलने को कहा बल्कि सब के सब किसी भूखे गिद्ध की तरह उससे पैसे ही मांगते रहे और अपनी लाचारियाँ जताते रहे बल्कि उससे ज्यादा उसके सूटकेस पर सभी की नज़रें जमीं रहीं ।
अँधेरा घिरने लगा और वो सब एक साथ उठ खड़े हुए कि अच्छा अब चलते हैं, रिहान भी उठा कि हाँ चलिए मैं भी बहुत थक गया हूँ तभी काका बोले बेटा तुम कहाँ चलोगे तुम यहीं कहीं अपना इंतजाम कर लो हमारे घर तो बहुत छोटे हैं और हम सब तो जमीन पर ही सोते हैं कोई खाट या बिस्तर नहीं है हमारे पास या तो कुछ पैसे दे दो तो हम तुम्हारे लिए बिस्तर खरीद लें। अब तक रिहान को समझ आ गया कि ये सब लालची हैं और उसने तुरंत कहा नहीं काका आप सब जाओ मैं आज यही रुक जाऊँगा कल मिलेंगे फिर आप सभी से । पैसे तो मैं भी लेकर नहीं आया कल सुबह बैंक से निकालूँगा, आज की रात यहीं कहीं गुजार लूँगा । कल आप के साथ गाँव चलूँगा । ठीक है बेटा अब तुम आराम करो हम कल सुबह ही आ जायेंगे । सभी चले जाते हैं और रिहान वहीँ बैठा रहता है जब तक दूकान बंद नहीं हो जाती है ।
रात हो गई साहब, चलना नहीं है ?
ड्राइवर की आवाज़ से रिहान की खामोशी टूटती है । चलना है लेकिन पहले कहीं खाना खा लेते हैं जोर की भूख लगी है । ड्राइवर एक ढाबे पर रोकता है तो रिहान कहता है कि भूख ही नहीं है ।
लेकिन साहब आपने ही तो कहा था की भूख लगी है ।
हाँ , क्योंकि तुम्हे भूख लगी होगी कुछ खा लो फिर चलना है ।
ड्राइवर खाना खाता है और रिहान अपने गले में पापा के रुन्धते-अटकते शब्दों को निगलने की कोशिश करता है ।
चलें साहब मैंने खा लिया, किधर रिहान के मुंह से निकलता है । मैंने आपके गाँव नरीखेड़ा का रास्ता समझ लिया था दिन में ही, कहते हुए ड्राइवर गाड़ी स्टार्ट करता है और सीधा नरी खेड़ा गाँव पंहुचता है । गाँव के ठीक बाहर ही रिहान गाड़ी रोकने को कहता है । तुम यहीं रुको मैं जरा गाँव के अन्दर हो कर आता हूँ ।
पूरे दिन का नजारा देख कर ड्राइवर भी इतना तो समझ ही चुका था कि साहब क्या देखने पैदल जा रहे हैं इस लिए उसने बस यही कहा हाँ ठीक है साहब वैसे भी खाने के बाद मुझे नींद आती है तब तक एक नींद मार लेता हूँ।
रिहान के लिए ये गाँव क्या देश ही नया था फिर भी अपने पापा की नज़रों से उसने गाँव को अपने बेहद करीब महसूस किया था । एक गाँव वाले से सरजू के घर का पता पूछता है और घर के बाहर पंहुच कर हतप्रभ रह जाता है । एक आलीशान घर के बाहर दो जीप खड़ीं थीं, नौकर – चाकर घूम रहे थे । बाहर ही दो खाट पड़ी थीं और चार-पांच कुर्सियां भी साथ ही एक लकड़ी की बेंच भी । तभी ठीक किनारे थोडा दूर उसकी नज़र पड़ी एक काफी मोटे से नीम के पेड़ पर जिसे वो हमेशा ही पापा से सुनता आया था कि पापा का बचपन उसी के साथ बीता था वो वहीँ बैठ जाता है सट कर नीम के पेड़ से अँधेरा होने की वजह से किसी की नज़र उस पर नहीं पड़ती ।
रिहान के कानों में आवाज़ पड़ती है कि आज तो बच गए अगर वो गाँव आ जाता तो तो हमारे ठाट – बाट देखकर अगले ही महीने से हमे रकम भेजना बंद कर देता । सरजू का बडा भाई अपने परिवार के साथ बैठा बात कर रहां था । सभी जोर-जोर से हँसे फिर कोई बोला काका ये सोने का अंडा देने वाली मुर्गी है कल जितना हो सके निकलवा लीजियेगा । अरे तू चिंता मत कर बेटे इसके बाप ने भी जीवन भर हमे पैसे भेजे हैं यही सोचकर कि हम यहाँ बहुत गरीबी में हैं और अब ये भी भेजता रहेगा । कल ही किसी बहाने से मोटी रकम निकलवा लूँगा बैंक से ।
ये सब सुन कर रिहान सन्न रह गया वहीँ हांथों से नीम के पेड़ के नीचे की थोड़ी नम सी मिटटी को निकाल कर मुठ्ठी में लिया और वहां से चला गया । टैक्सी में बैठते ही बोला सीधे कानपुर चलो अभी ।
रात कानपुर के एक होटल में गुजारी और अगले ही दिन दिल्ली और फिर वहां से पहली फ्लाईट ले सीधे सूरीनाम के लिए उड़ गया । सूरीनाम में उतर कर पहली बार उसे ये ज़मीन अपनी लगी, उसे लगा कि उसके पैरों तले ज़मीन है ।
अचानक रिहान को घर पर देख सभी अचम्भित रह जाते हैं साथ ही घबराए हुए से उसकी खैरियत पूछते हैं । बहुत थका हूँ अभी, कह कर वो अपने कमरे में चला जाता है और सो जाता है ।
अगले दिन सुबह रॉबर्ट पूछता है डैड क्या हुआ ? आप बहुत परेशान लग रहे हैं और इतनी जल्दी वापस कैसे आ गए सब ठीक तो है ? प्लीज बताइए, कैसा है दादा जी का गाँव बल्कि इण्डिया कैसा है ,कौन-कौन मिला आपको ,सब कैसे हैं वहाँ पर …
रिहान बिलकुल चुप था फिर थोड़ी देर बाद बोला पापा के गाँव में अब कोई नहीं रहा । आस -पास के गाँव वालों से पूछने पर पता चला कि कई वर्षों पहले वहाँ प्लेग फैला था और एक महामारी की तरह पूरा गाँव उसकी चपेट में आ गया । रॉबर्ट इण्डिया अपना देश है और जैसा पापा ने बताया था उससे भी अधिक नया लगा मुझे लेकिन पापा का गाँव और उसका नामों निशाँ नहीं है अब ।
ओह ! कहकर रॉबर्ट ऑफिस चला जाता है रिहान अपने पैंट की जेब में पड़ी नीम के पेड़ के नीचे की मिट्टी निकालता है और घर के बाहर के अपने छोटे से लॉन में उड़ा देता है ये कहते हुए कि “पापा आपके घर, आपके देश की मिट्टी अब यहीं है और सदा यहीं रहेगी आपके साथ”।
पत्रिका ‘ विश्व गाथा ‘ के सितम्बर – नवंबर : २०१३ अंक में प्रकाशित.
अगर ये कहानी सच है तो सरजू के परिवार वाले खूद अंग्रेज से भी बूरे निकले जो रुपए के लालच में उन पर उपकार करनेवाले खूद अपने भाई को ही भूल गए । उस भाई को जो पूरी जिंदगी गुलाम गीरमीट बन कर बडी मुसिबत भरी जिन्दगी जिया था । धिक्कार है !!
आज से सौ साल पहले वह कलकत्ता से पानी के जहाज़ में बैठ एक अनजान सफ़र पर निकली थी. उस सफ़र में उसके साथ कोई अपना न था. वह अकेली थी. वह गर्भवती थी. ‘द क्लाईड’ नामक उस जहाज़ पर जो उसके हमसफ़र थे उन्हें भी मंज़िल का पता न था. साथ में कुछ बहुत ज़रूरी चीज़ों के गट्ठर थे और एक उम्मीद थी कि जहाँ जा रहे हैं, वहाँ भला-सा कोई रोज़गार होगा और कुछ समय बाद कुछ कमाकर वापस लौट आयेंगे.
ऐसे जहाज़ों की रवानगी का सिलसिला 1834 से शुरू हुआ था और 1920 तक चलता रहा था. जो गए वे लौटे नहीं. जहाँ-जहाँ गए, वहीं के होकर रह गए. जिन गाँवों और रिश्तों को पीछे छोड़ गए थे, वे भी उनको भूलते गए. लेकिन उनकी और उनकी संतानों की यादों में, व्यवहार में, संस्कार में अपना ‘देस’, अपनी ‘माटी’, अपनी नदियाँ, अपने ‘तीरथ’ और अपने ‘देवता-पितर’ बने रहे, बचे रहे. सरकारों और कंपनियों की दस्तावेज़ों में इन्हें ‘कूली’ की संज्ञा दी गई, बोलचाल में वे ‘गिरमिट’ या ‘गिरमिटिया’ कहे गए. पुराने रिश्ते सात समन्दरों में धुलते-घुलते गए. एक जहाज़ में आये गिरमिटों ने नया रिश्ता गढ़ा और एक-दूसरे को जहाज़ी का सम्बोधन दिया. गोरी सभ्यता ग़ुलामी को नए-नए नाम देती रही, ज़िंदगी आज़ादी के सपने गढ़ती रही, जीती रही. ख़ैर… .
उस अकेली गर्भवती स्त्री को जहाज़ तीन महीने की यात्रा के बाद ब्रिटिश गुयाना लेकर पहुँचा. उसकी गोद में अब उसका बच्चा था जो यात्रा की तकलीफ़ों के कारण समय से पहले ही इस दुनिया में आ गया था. शक्कर बनाने के लिए उपजाए जा रहे गन्ने के खेत में उसने मज़दूरी शुरू कर दी.
समय बदला, सदी बदली. सुजरिया की संतानें एक दूसरी यात्रा करते हुए एक अन्य महादेश जा पहुँचीं. उन्हीं संतानों में से एक गायत्रा बहादुर अब अमरीका में जानी-मानी पत्रकार और लेखिका हैं. सौ साल बाद बहादुर एक यात्रा पर निकलती हैं अपनी परनानी सुजरिया का पता करने. उनके पास उसकी एक तस्वीर थी. यह यात्रा गायत्रा को कई देशों-द्वीपों से गुजारते हुए बिहार के छपरा जिले के एक क़स्बे एकमा के नज़दीक बसे गाँव भूरहुपुर लाती है जहाँ से 27 साल की सुजरिया और उसके गर्भ में पल रहे 4 माह के बच्चे की यात्रा 1903 में शुरू हुई थी. अपनी परनानी सुजरिया का पता खोजती गायत्रा इस यात्रा में हज़ारों सुजरियों से मिलती है जिनमें तेजतर्रार विधवा जानकी है जो जहाज़ पर कार्यरत ब्रिटिश चिकित्सक से शादी कर लेती है और आठ साल की वह बच्ची भी है जिसका पिता बिस्कुट के बदले उससे वेश्यावृति कराने पर मज़बूर होता है..
शास्त्रीय इतिहास ग़ुलामों को जगह नहीं देता. ग़ुलाम शास्त्र नहीं लिखते. उनकी स्मृतियाँ गीतों-रिवाज़ों में पनाह लेती हैं, कथाओं में तब्दील हो जाती हैं. ग़ुलाम औरतें इस ‘लोक’ में भी हाशिये पर रहती हैं. धीरे-धीरे उनका इतिहास जानना कठिन ही नहीं, असम्भव होता जाता है. ऐसे ही कुछ असंभावनाओं को गायत्रा अपनी किताब ‘कूली वूमन- द ओडिसी ऑफ़ इन्डेन्चर‘ में तलाशने की कोशिश करती हैं. इस किताब में परिवार है, पत्रकारिता है, अभिलेखों और स्मृतियों में दबा इतिहास है, गोरी सभ्यता के औपनिवेशिक दम्भ और दमन के विरुद्ध अभियोग-पत्र है. सबसे बढ़कर यह उन पुरखों के प्रति श्रद्धा है जिन्होंने भयानक परिस्थियों में जीवन की आस नहीं छोड़ी. यह किताब अशोक वाजपेयी की एक कविता का साकार है:
बच्चे एक दिन यमलोक पर धावा बोलेंगे
और छुड़ा ले आयेंगे सब पुरखों को वापस पृथ्वी पर,
और फिर आँखें फाड़े विस्मय से सुनते रहेंगे
एक अनन्त कहानी सदियों तक ।
गायत्रा बहादुर इस किताब में अपने सांस्कृतिक पहचान की तलाश भी करती हैं. वे किसी तटस्थ इतिहासकार या पत्रकार की तरह सवालों के जवाब-भर पाने की क़वायद नहीं करतीं बल्कि ऐसे सवाल भी पूछती हैं जिनके जवाब नहीं मिल सकते और जो नितांत निजी सवाल हैं. वे कहती हैं कि वे इस इतिहास को उलटते-पलटते हुए निरपेक्ष नहीं हैं और न हो सकती हैं. आख़िर वे इस इतिहास की पैदाईश हैं जिसकी नायिका सुजरिया है जो अपनी बेटियों को ‘फ़िल्म-स्टार’ की तरह लगती थी. इसी इतिहास के धुंधलके में बहादुर अपनी उत्तर-औपनिवेशिक सांस्कृतिक पहचान को रेखांकित करने की कोशिश करती है जो नव-उपनिवेशवाद और आज़ाद गिरमिटिया समुदायों की सुजरियों और गायत्राओं के वर्त्तमान से भी बनती है.
मेरा अनुरोध है कि यह किताब पढ़ी जाये और गायत्रा को सुना जाये. यह भी सोचा जाये हिन्दी और भोजपुरी के नाम पर गिरमिटियों के यहाँ साल-दर-साल जाकर भोज उड़ाने जाने वाले हमारे लिखने-पढ़ने वाले कभी उस सूनेपन को क्यों नहीं टटोलते जो अरकाटियों के फ़रेब से बिदेसिया हुए जहाज़ियों की अनुपस्थिति से बना है! यह भी सोचा जाये कि क्या हम ऐसे निष्ठुर समाज हैं कि अपनों को सदा के लिए खो देना भी हमें नहीं कचोटता!
—–प्रकाश केरे बरगद के संपादक
Vedic Vimanas
Vaimanika Shastra is described in Sanskrit in 100 sections, eight chapters, 500 principles and 3000 slokas including 32 techniques to fly an aircraft.
Shivkur Bapuji Talpade was the first person to fly a first unmanned flying
saucer 8 years prior to wright brothers based on advanced Vedic Mercury ion plasma Technology which could fly in all directions. This event was witnessed by 3000 people in 1895.
This feat was witnessed by more than three thousand people including Britishers at Chowpatty beach in 1895,
The airplane was aloft at nearly 200 metres height and was airborne for 18 minutes.
Vedic Vimanas or flying saucers used mercury vortex ion engines. The ion engine was first demonstrated by German-born NASA scientist Ernst Stuhlinger.
Source : http://ajitvadakayil.blogspot.in/2011/11/shivkur-bapuji-talpade-nobel-prize-and.html