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मित्रों, अभी हाल फिलहाल में जितने भी न्यूज़ चैनलों ने exclusive reports दिखाए हैं इस लव जिहाद नामक खतरनाक कैंसर पे, वे सब इसकी शुरुआत उत्तर प्रदेश या बिहार/झारखण्ड आदि से ही बता रहे हैं. कुछ सेक्युलर भड़वे तो इसको एक जिहादी साज़िश मानने तक को भी तैयार नहीं हैं. उनके हिसाब से ये सब छिटपुट, criminal cases हैं, और ये सब अलग अलग काम करते हैं, किसी बड़ी गिरोह के अंडर में नहीं. लव जिहाद का असली घिनौना रूप देखना हो तो केरल में देखो.

अबे साले सेक्युलर हरामखोरों, केरल और पश्चिम बंगाल को क्यों भूल जाते हो?? इस भयानक बीमारी की शुरुआत तो केरल से ही हुई थी. इस कड़वी सच्चाई को केरल की हाई कोर्ट, और केरल के निवर्तमान और वर्तमान मुख्यमंत्री भी मान चुके हैं. केरल की हाई कोर्ट ने तो आधिकारिक तौर पे इस बात की पुष्टि की है की अकेले केरल में ही अभी तक लव जिहाद के 3,000 से भी ज़्यादा confirmed cases आ चुके हैं. और जो cases रिपोर्ट ही नहीं हुए, उनकी भी एक अंदाज़न संख्या (approximate number) जोड़ी जाए, तो यह नंबर करीब 7000 के आसपास होगा. 2008 में उत्तर प्रदेश के उच्च न्यायलय ने भी इस सच्चाई को माना था और यह भी कहा था की इस विषय पे IB ने भी एक रिपोर्ट दिया था, लेकिन उस रिपोर्ट पे क्या कार्यवाही हुई, हुई भी कि नहीं – यह किसी को नहीं मालूम. बिकाऊ मीडिया ने पूरी खबर ही दबा दी. अब इतने हज़ारों cases क्या बिना किसी well organized network ,proper funding और सोची समझी गहरी साज़िश के बिना संभव है??

लव जिहाद का कोई भी case दिखाते वक़्त शुरुआत केरल राज्य से करो, और उसके बाद महाराष्ट्र, कर्नाटक, पश्चिम बंगाल आदि से, तभी detail में पता चलेगा कि कितनी बड़ी और खतरनाक साज़िश चल रही है भारत के इस्लामीकरण की. आज यह एक महामारी कि तरह फ़ैल रही है. मीडिया तो अभी अभी हाल फिलहाल ही जागरूक हुई है और सारा ध्यान सिर्फ उत्तर प्रदेश पे है. बांग्लादेशी सुअरों ने पश्चिम बंगाल में खुलेआम लव जिहाद का तांडव मचाया हुआ है – कितनी लडकियां अभी तक बर्बाद हो चुकी हैं, कभी जानने की भी कोशिश की किसी न्यूज़ चैनल ने?? अकेले केरल में जितने cases हुए हैं लव जिहाद के अभी तक, उतने तो बाकी सारे राज्यों के cases एक साथ जोड़ लेने पर भी नहीं बनेंगे. केरल में कुछ लड़कियों को छुड़ा लिया गया है इस चंगुल से, कुछ ने आत्महत्या कर ली, कुछ का अभी तक पता ही नहीं चल सका है – वो ज़्यादातर किसी न किसी अरबी शेख के हरेम की शोभा बढ़ा रही होंगी अपनी ज़िन्दगी को नरक बनाके. कभी भी किसी मीडिया ने यह पूछा कि इतनी सारी गैर मुस्लिम लडकियां अचानक कैसे गायब हो गयी केरल से पिछले कुछ सालों में?? ज़रा सोचो, जिन माँ बाप ने अपनी बेटियां खो दी हमेशा के लिए इस साज़िश की वजह से, उनपे क्या बीत रही होगी आज भी.

https://www.youtube.com/watch?v=TN5pCVNuuKw

https://www.youtube.com/watch?v=k2ewmvTsx1Q

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लालाबाबू नाम के कलकत्ता के एक सेठ 300 पेढ़ी के मालिक थे।


लालाबाबू नाम के कलकत्ता के एक सेठ 300 पेढ़ी के मालिक थे। हस्ताक्षर करते-करते ऊँगलियाँ दुःख जाती थीं तो मालिश करानी पड़ती थी। मुनिमों को पत्र लिखाते-लिखाते उनका दिमाग थक जाता था, इतनी प्रवृत्ति थी। पुराने जमाने की यह बात है। कभी कभी शाम को चार घोड़ेवाली गाड़ी में बैठकर लाला सेठ गंगासागर की ओर हवा खाने जाते। बीच में खाड़ी आती थी और दूसरी ओर बगीचा। नाव में बैठकर खाड़ी पार करते।
एक दिन सेठ शाम को बगीचे में जाकर बैठे। थके हुए थे अतः जरा झपकी लग गयी। बहुत समय बीत गया। नाव वाले ने देखा कि अँधेरा होने लगा है। सभी सैलानी आ चुके हैं पर वे सफेद-सफेद कपड़े वाले सेठ अभी तक नहीं आये। नाव का यह आखिरी चक्कर है। सेठ रोज के ग्राहक थे इसलिए उसने जोर से आवाज लगायीः
“ऐ मुसाफिर ! सूरज डूब गया है। ऐ मुसाफिर ! यह आखिरी चक्कर है। अँधेरा हो रहा है। वक्त हो गया है। समय बीता जा रहा है। चलो, नहीं तो पछताओगे।”
वे सेठ तो थके हुए थे। जरा सो गये थे। इस प्रकार दो-चार बार नाव वाले ने आवाज लगायी। अचेतन मन में आवाज पहुँची इसलिए मन सचेतन हुआ। नींद में भी सुनने की क्षमता अचेतन मन में है। अचेतन मन में ये वाक्य असर कर गये। सेठ एकाएक जागे और आकर नाव में बैठे। नाव से नदी तो पार कर गये पर इस प्रकार पार हुए कि सदा के लिए जन्म मरण से पार हो गये।
नाव में से रास्ते पर आये और जहाँ घोड़ागाड़ी खड़ी रखी थी वहाँ न जाकर दूसरी ओर से हावड़ा स्टेशन जाकर रेलगाड़ी में बैठे और वृन्दावन पहुँचे। किसी महापुरूष की खोज की। उन्होंने सोचा कि इस जीवन का आखिरी चक्कर खाली जाये उसके पहले, जीवन का सूरज डूबे उसके पहले परमात्मा के साथ अपने आपको मिला लूँ।
वृन्दावन में कई साधुओं के सान्निध्य में आये पर कहीं भी उनका हृदय लगा नहीं। एक सप्ताह के बाद जिनके हृदय में ही भगवान हैं ऐसे मस्तराम, आत्मस्वरूप में जगे हुए ब्रह्मवेत्ता संत महापुरूष की खबर उनको मिली। लालाबाबू उनकी शरण में गये।
मस्तराम संत ने उनकी सारी बात सुनने के बाद लाला बाबू से कहाः
तुम घर पर रहकर ही भजन करो।
लालाबाबू ने कहाः “घर पर तो बाबाजी ! रजोगुणी वातावरण है और 300 पेढ़ियाँ हैं इसलिए आज यह तो कल वह। ऐसा करते-करते तो बूढ़ा होने लगा और सिर के बाल सफेद होने लगे। बाबाजी !चाहे जो करो, मेरे पर कृपा करके मुझे उबार लो। मुझे फिर से माया में मत धकेलो।
उनकी तीव्रता देखकर बाबाजी ने कहाः
“दो शर्ते हैं। सुबह शाम ध्यान-भजन करो यह तो ठीक है किन्तु बाकी के समय में किसी के भी साथ गप्पें मत हाँकना। तुम्हारे इस बीते हुए स्वप्न की बातें न कहना। सारी स्मृतियों को छोड़ दो। सारा संसार स्वप्न जैसा ही है। जो भगवान के मार्ग पर चलते हैं उन्हें सहायता मिले ऐसा कार्य करो, सेवा करो, स्मरण करो, आत्मस्मरण करो, आत्मचिंतन करो।”
सारी विधि बाबाजी ने बता दी। लालाबाबू रोज यमुना में स्नान करते, भिक्षा माँगते। इससे अहँकार पिघलने लगा।
इधर कलकत्ता में तो धमाचौकड़ी मच गयी। तार, टेलिफोन खनकने लगे। गाड़ियों की भागदौड़ हो गयी। 300 पेढ़ी के मालिक लालाबाबू लापता हो गये, उन्हें ढूँढने के लिए ईनामों की घोषणा हुई। पर कहीं भी पता न लगा।
लालाबाबू की धर्मपत्नी कभी आँसू बहाती और कभी कल्पना में खो जाती। लड़के सोचते कि लालाबाबू कहाँ गये? कहाँ होंग? ऐसा करते-करते पेढ़ियों द्वारा बात फैली। कोई मुनीम वहाँ वृन्दावन में रहता था। उसने देखा कि ये जो साधुवेश में हैं वे ही हमारे भूतपूर्व लालाबाबू हैं। उसने तो तार करके लालाबाबू की धर्मपत्नी और लड़कों को बुला लिया।
लालाबाबू की धर्मपत्नी लालाबाबू को देखकर आँसू बहाने लगी और समझाने लगी। लालाबाबू ने पूरी बात सुनकर कहाः “यह सब तो ठीक है, परन्तु किस समय वह काल आकर मुझे ले जाएगा इसकी तुम गारन्टी देती हो ?”
लड़के कहने लगेः “पिता जी ! तुम्हारे बिना हमें नहीं चलेगा।”
लालाबाबू कहते हैं- “ठीक है। मैं तुम्हारे साथ रहूँ पर जब काल मुझे लेने आयेगा तब मैं उसे ऐसा कहूँ तो क्या वह सुनेगा भी? मौत सोचेगी कि मेरे बिना तुमको चलेगा या नहीं चलेगा।”
लड़के रोने लगे। पत्नी का आग्रह था, पुत्रों का आग्रह था। अंत में उन्होंने कहाः “हम तुम्हारे गुरू जी से मिलते हैं।”
लालाबाबू ने कहाः “मिलो।”
गुरूजी से बात की। गुरूजी ने उन सबको देखकर लालाबाबू से कहाः “इन सबको दुःख होता है तो तुम जाओ।”
लालाबाबू ने कहाः “पर बाबाजी ! इस प्रकार इस दुनिया में अनेकों लालाबाबू रहते हैं। उन सबके दुःख दूर हुए हों तो मैं जाऊँ। पत्नी के रहने से पति के दुःख दूर हुए हों और पति से रहने से पत्नी के दुःख दूर हुए हों तो मैं जाऊँ। अब तो आप मुझे भवसागर में फिर न धकेलो यही मेरी प्रार्थना है।”
यह बात सुनकर बाबाजी को तो सरौते के बीच सुपारी जैसा हुआ। एक ओर व्यवहार तो दूसरी ओर परमार्थ।
बाबाजी ने कहाः ”हम क्या करें ? तुम आपस में जानो।”
जिसका जोर होता है उसी का सोचा हुआ होता है। मोहमाया का जोर हो तो व्यक्ति संसार की ओर खिंच जाय और विवेक का जोर हो तो उसकी जिंदगी सुधर जाये, साथ ही साथ कुटुम्बियों की जिंदगी भी सुधर जाये। जिसका बल उसका फल।
पुनः एक बार लालाबाबू उनसे मिले और समझायाः
“तुम मुझे यहाँ से ले जाओ और मैं फिर से कागजात में हस्ताक्षर करता-करता मर जाऊँ और भवसागर में भटकूँ। इससे तो मैं यह वैभव तुमको देता हूँ। मैं कुछ नहीं ले जा रहा हूँ और सच्चा धन कमाने जाता हूँ। मैं जितनी तपस्या करूँगा उसका आधा फल तो तुम्हें घर बैठे मिलेगा।”
सुर नर मुनि जन की यह रीति।
स्वारथ लागि करहिं सब प्रीति।।
पत्नी को इस प्रकार समझाया तो उसे लगा कि बात तो सच्ची है। वैसे भी यह वैभव और हाईकमाण्ड(उच्चाधिकार) हमारे पास है ही और ये यहाँ तप करेंगे तो वह पुण्य भी मेरे साथ ही है। आखिर वह बोलीः
“अच्छा अब आप तपस्या करो। किसी समय हम आयें तब मिलना अवश्य…… जय श्रीकृष्ण। हम जाते हैं।”
तब लालाबाबू ने कहाः “देवी ! तुम इतनी पवित्र हो, समझदार हो तो मेरी एक बात मानो। इन 300 पेढ़ियों का वैभव तुम खा नहीं सकोगी, लड़के नहीं खा सकेंगे। तो अपनी 21 पीढ़ियाँ तर जायें ऐसा वैभव का सदुपयोग क्यों न करें ? तुम्हारा भी उद्धार हो। यहाँ एक ठाकुर जी का मंदिर बनवाकर उसकी सीढ़ियों पर इस दास का नाम लिखवा दूँ जिससे भक्तों की चरण रज सिर पर लगने से करोड़ों जन्मों के पाप कटें और एक धर्मशाला बनवा दूँ जिससे यहाँ थके हुए लोग विश्राम लें और उसका पुण्य हमें मिले।”
धर्मपत्नी का हृदय पिघला और उनके वैभव का थोड़ा भाग सत्कृत्य में खर्च हुआ। वह मंदिर आज भी वृंदावन में खड़ा है। उसमें सोने का एक खम्भा है अतः “सोने के खम्भे वाला मंदिर… लालाबाबू का मंदिर….’ ऐसा कहा जाता है। मंदिर तो भगवान का है परन्तु लालाबाबू ने बनवाया है इसलिए ऐसा कहा जाता है।
लग गई नाविक की बात। शरीर मरणधर्मी है, नश्वर है, ऐसी समझ आ जाये और किसी नाविक की बात लग जाये तो बेड़ा पार हो जाये।
यह तन विष की बेलरी, गुरू अमृत की खान।
सिर दीजे सत्गुरू मिले, तो भी सस्ता जान।।
यह शरीर विष की बेल है। पर इसमें यदि थोड़ी समझ आ जाये तो खबर मिल जाये कि अमर आत्मा भी उसी के साथ है। जीवनदाता भी उसी के साथ है, विश्वनियंता भी उसी के साथ ही है। अनित्यानि शरीराणि बैभवो नैव शाश्वतः।
नित्यं संन्निहितो मृत्युः कर्त्तव्यो धर्मसंग्रहः।।
शरीर अनित्य है, वैभव शाश्वत नहीं है। शरीर हर रोज मृत्यु के नजदीक जा रहा है। अतः धर्म का संग्रह कर लेना चाहिए।
हम जब जन्मे थे उस समय हमारी जो आयु थी वह आज नहीं है। हम जब यहाँ आये तब जो आयु थी वह अभी नहीं है और अभी जो है वह घर जाते तक उतनी ही नहीं रहेगी। ऐसा अनित्य शरीर, नाशवान वैभव, नित्य मृत्यु की ओर जानेवाला शरीर….. नाविक के दो शब्द कानों में पड़े तो लालाबाबू ने अपना कल्याण कर लिया। पहुँच गया पवित्र पुरूषों के चरणों में। मंदिर बनवाया, धर्मशाला बनवायी और हृदय मंदिर की यात्रा की। पुत्रों और पत्नी के मोहपाश में न पड़े। प्रभुप्रेम में पावन हुए।
लालाबाबू ने तो अपना काम कर लिया। अब हम इस माया से निपटकर किस दिन कल्याण के मार्ग पर चलेंगे?

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॥ कुछ त्रुटियाँ ॥


॥ कुछ त्रुटियाँ ॥
—– अखंड भारत के स्थान पर विभाजन करने मे कोंग्रेसियों ने कोई धैर्य न रखा , उतावले हो गये ।
जब हमारी सैन्य पाकिस्तान की सेना को बलपूर्वक हटा रही थी तब जवाहर ने मूर्खतापूर्ण आक्रमण स्थगित किया , शेख अब्दुला ( सहोदर ) को कश्मीर का सर्वाधिकार दिया । 370 धारा दाखल की ,भारत का घटक था किन्तु विघटन किया । हिमालय पर चीन अंकुश कर रहा था तथापि उदासीन रहे ,जब चीन तिबेट को हड़प कर रहा था तो कोई सहयता न की । बंगलादेशी का अविरत प्रवाह घुस रहा था पूर्व भारत मे स्थानिक लोगो का जीवन अस्तव्यस्त हो गया तथापि मुक प्रेक्षक बनकर सत्ता को अधिक महत्व देकर निष्क्रिय रहे ।
राष्ट्रभाषा के स्थान पर अङ्ग्रेज़ी को अति महत्व दिया । संस्कृत को नामशेष की , गौहत्या चालू राखी ,तत्पश्चात लघुमती तुष्टीकरण का नया प्रवाह चालू किया ।
प्रारम्भ से आज पर्यंत जो हानी कॉंग्रेस ने की है उनकी कोई सीमा नहीं है ! !
अमूल्य शब्द “ राष्ट्र “ को 1947 से भुला दिया —————pckawa

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मोहनदास करमचन्द ने तो यहाँ तककहा था की पूरा पंजाब पाकिस्तान मेंजाना चाहिए,बहुत कम लोगों को ज्ञात है की


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मोहनदास करमचन्द ने तो यहाँ तककहा था की पूरा पंजाब पाकिस्तान मेंजाना चाहिए,बहुत कम लोगों को ज्ञात है की 1947 के समयमें पंजाब की सीमा दिल्ली के नजफगढ़ क्षेत्रतक होती थी …यानी की पाकिस्तान का बोर्डरदिल्ली के साथ होना तय था … मोहनदासकरमचन्दके अनुसार lनवम्बर 1968 में पंजाब में से दो नयेराज्यों का उदय हुआ ..हिमाचल प्रदेश और हरियाणा पाकिस्तानजैसा मुस्लिम राष्ट्र पाने के बादभी जिन्ना और मुस्लिम लीग चैन से नहीं बैठेउन्होंने फिर से मांग की …की हमको पश्चिमी पाकिस्तान सेपूर्वी पाकिस्तान जाने में बहुत समस्याएंउत्पन्नहो रही हैं1. पानी के रास्ते बहुत लम्बा सफरहो जाता हैक्योंकि श्री लंका के रस्ते से घूम करजाना पड़ता हैl2. और हवाई जहाज से यात्राएं करने मेंअभी पाकिस्तान के मुसलमान सक्षमनही हैं l इसलिए …. कुछ मांगेंरखी गयीं 1. इसलिए हमको भारत केबीचो बीच एक Corridor बना करदिया जाए….2. जो लाहोर से ढाका तक जाता हो … (NH– 1)3. जो दिल्ली के पास से जाता हो …4. जिसकी चौड़ाई कम से कम 10 मीलकी हो … (10 Miles = 16 KM)5. इस पूरे Corridor में केवल मुस्लिम लोगही रहेंगे l30 जनवरी को गांधी वध यदि न होता,तो तत्कालीन परिस्थितियों मेंबच्चा बच्चा यहजानता था की यदि मोहनदास करमचन्द 3फरवरी, 1948 को पाकिस्तान पहुँचगया तो इस मांगको भी …मान लिया जायेगा lतात्कालिक परिस्थितियों के अनुसारतो मोहनदासकरमचन्दकिसी की बात सुननेकी स्थिति में था न ही समझने में …औरसमय भी नहीं था जिसके कारणहुतात्मा नाथूराम गोडसे जी को गांधी वधजैसा अत्यधिक साहसी और शौर्यतापूर्णनिर्णयलेना पडा l

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तारा शाहदेव


शुभ रात्री दोस्तों

एक बार जरुर पढ़े ……

पिक्चर अब पूरी तरह से साफ़ हो चुकी है … भारत में अब सिर्फ लव जेहाद ही नही बल्कि इस्लामिक जेहाद भी फ़ैल चूका है …

तारा शाहदेव मामले में अब तक की जाँच में ये पता चला है की रंजीत उर्फ़ रकीबुल हसन चार साल पहले तक बेहद गरीब था और ठेके पर वीडियोग्राफी करता था … रांची के बाहर एक स्लम में एक खोली में रहता था …

पिता सिख थे नाम था हरनाम सिंह कोहली .. उन्होंने एक मुस्लिम महिला से शादी की थी … यानी रंजीत उर्फ़ रकीबुल हसन की माँ पहले मुस्लिम थी बाद में सिख धर्म स्वीकार कर ली थी …

फिर रंजीत के पैदा होने के कुछ साल के बाद उसके पिता का निधन हो गया … उसकी माँ के मायके वाले मुस्लिम थे … फिर उसके मामा और नाना ने रंजीत की माँ को फिर से मुस्लिम बनने का दबाव डाला … फिर माँ ने अपने बेटे रंजीत के साथ फिर से मुस्लिम बन गयी …

रंजीत उर्फ़ रकीबुल के मुस्लिम बनने पर रांची में स्थित एक मुस्लिम कारोबारी ने उसे काफी पैसा दिया … फिर उस कारोबारी ने उसे झारखंड के अल्पसंख्यक कल्याण हज मंत्री से मिलवाया .. फिर जब मुस्लिम मंत्री को पता चला की ये मुस्लिम बना है तो उसके मदद के लिए उन्होंने सरकार की तिजोरी खोल दी … कई अन्य मुस्लिम मंत्री और कारोबारियों ने उसे खूब मदद किया और उसकी कम्पनी को झारखंड में करोड़ो के ठेके मिलने लगे और सिर्फ चार साल में रकीबुल हसन करोडपति बन गया ….

फिर मदरसे वालो ने उससे कहा की चूँकि स्कुल से लेकर राशनकार्ड तक हर दस्तावेज में तुम्हारा हिन्दू नाम है इसलिए तुम एक हिन्दू लड़की को अपना शिकार बनाओ और बाद में उसे भी मुस्लिम बनाओ …

फिर रंजीत उर्फ़ रकीबुल हसन ने एक साजिश के तहत तारा शाहदेव को अपने जाल में फंसाया और बाद में उसे अपनी असलियत बताई …

खुद झारखंड के हज और अल्पसंख्यक कल्याण मंत्री ने मीडिया के सामने ये स्वीकार किया है की वो उसे रकीबुल हसन के नाम से ही जानते थे …

असल में इस पूरी साजिश के पीछे कोई बहुत बड़ा आदमी है और वो लव जेहाद के लिए मुस्लिम युवाओ को पैसे का लालच देकर उकसा रहा है …

यदि ये दोनों माँ बेटा सही थे फिर वो अब तक पुलिस और कानून से भागे भागे क्यों फिरते थे ?
~~~~~ शुभ रात्री ~~~~~

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जब जटायु की अंतिम साँसे चल रही थी तब एक आदमी


 

जब जटायु की अंतिम साँसे चल रही थी तब एक आदमी ने उसे कहा कि जटायु तुम्हे मालुम था कि तुम रावण से युद्ध कदापि नही जीत सकते तो तुमने उसे ललकारा क्यों ?

तब जटायु ने बहुत अच्छा जवाब दिया था ।
जटायु ने कहा कि मुझे मालुम था कि मैं रावण से युद्ध मे नही जीत सकता पर अगर मैंने उस
वक्त रावण से युद्ध
नही किया होता तो भारतवर्ष की आनेवाली पीढ़िया मुझे कायर
कहती ।

अरे एक भारतीय आर्य नारी का अपहरण मेरी आँखों के सामने हो रहा है और
मैं कायरो की भांति बिल मे पडा रहूँ
इससे तो मौत ही अच्छा है मैं अपने सर पे कायरता का कलंक लेके जीना नहीं चाहता था इसलिए मैंने
रावण से युद्ध किया ।

ये एक पक्षी के विचार है अगर भारतवर्ष के हर लोग की ऐसी सोच होती तो आज
भारत विश्वगुरु होता ।

जय महाकाल..!!!

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मूर्ति पूजा के प्रमाण


मूर्ति पूजा के प्रमाण

वेद में मूर्ति पूजा के प्रमाण –
__________________

वेदों में ईश्वर उपासना दो रूपों में प्रचलित है
साकार तथा निराकार।

निराकारवादी प्रायः साकार
उपासना या मूर्ति पूजा का विरोध करते है
तथा केवल निराकारोपासनापरक ‘न तस्य
प्रतिमा अस्ति ‘ आदि वचनों को उद्धृत करके
ही एकतरफा निर्णय करके संतुष्ट हो जाते हैं पर वे
यह भूल जाते है कि ऋषि मनीषियों ने
दोनोँ उपासना पद्धतियों का निर्माण
मनुष्य के बौद्धिक स्तर की अनुकूलता के अनुरूप
किया है।

जिस व्यक्ति का बौद्धिक स्तर
जितना ऊंचा है उसे उसी ढंग
की उपासना पद्धति का निर्देश गुरुजन देते है।
जिस व्यक्ति का बौद्धिक विकास मध्य
श्रेणी का है शास्त्रों के स्वाध्याय से भी वह
वंचित है उसे यदि निराकार
उपासना की दीक्षा दी जाय तो उसे उस
उपासना से कोई लाभ न होगा,
क्योंकि उसकी अन्तः चेतना का इतना
विकास नहीं हुआ है कि ईश्वर के वास्तविक
निराकार तत्व को समझ सके।

यदि एक निर्बल
बौद्धिक स्तर वाले व्यक्ति से यह कहा जाय
कि ईश्वर सर्वव्यापक है परन्तु वह इन स्थूल
नेत्रों से दृष्टिगोचर नहीं होता उसका कोई
रंगरूप नहीं है तो निश्चित रूप से
उसकी बुद्धि ईश्वर के अस्तित्व को ही मानने से
इनकार कर देंगी।

चूँकि सामान्य बौद्धिक स्तर वाले
व्यक्तियों के लिये अध्यात्म के सूक्ष्म तथ्यों पर
ध्यानावस्थित होना कठिन होता है इसलिये
मानव मनोविज्ञान के ज्ञाता ऋषियों ने
प्रतीक
पूजा की मूर्ति पूजा की प्रथा चलाई
ताकि उस मूर्ति को माध्यम बनाकर वह उस
अनन्त को साकार रूप में अपने सामने देख सके।

निराकार ब्रह्म का मानसचित्र बनाना सबके
लिये संभव नहीं। यदि प्रतीकवाद
या मूर्ति पूजा का आरंभ न होता। तो आज
विश्व की अधिकांश जनसंख्या नास्तिक
होती क्यों कि अशिक्षित और पिछड़े स्तर के
जनमानस में ईश्वर के निराकार तत्व पर
विश्वास ही न होता। केवल उपासना थोड़े से
उच्चकोटि के विचारकों तत्ववेत्ताओं और
योगियों तक ही सीमित रह जाती ओर
मानव जाति का आत्मिक विकास रुक
जाता धार्मिक सम्प्रदायों का निर्माण न
होता और धर्म के व्यापक विस्तार के
बिना समाज में घोर अनास्था और
अव्यवस्था फैली होती।

देव प्रतिमा से प्रतीक से साधक को यह
विश्वास हो जाता है कि जिन गुणों से
सम्पन्न ईश्वर को वह पाना चाहता है,
अथवा जिन गुणों को अपने में विकसित
करना चाहता है वह मूर्ति उसके समक्ष उपस्थित
है। ध्यान धारणा के माध्यम से वह उसे
अपनी अन्तःचेतना में बिठाकर एकाकार
हो जाता है। ध्यान की परिपक्वता में पहुँचने पर
उसे सब ओर उसी की छाया दिखायी देती है
वह अणु अणु में समाया हुआ मिलता है उसे अपने
इष्ट के अतिरिक्त और कुछ
दिखायी नहीं देता। यह वह अवस्था है जब
प्रतीक पूजा के माध्यम से साधक का आत्मिक
स्तर विकसित होने लगता है और वह सब
प्राणियों में अपने प्रभु का ही दर्शन करता है
और अपने में सबका उद्देश्य होता है।

यहाँ आकर
उसकी प्रारंभिक मूर्ति उपासना छूट जाती है
और वह समस्त चलती फिरती प्रतिमाओं
को अपने ईश्वर का ही रूप मानने लगता हैं। जब
उपासना का स्तर स्थूल से सूक्ष्म हो जाता है
तब वह निराकार तत्व की उपासना के योग्य
होता है क्योंकि स्तर की अनुकूलता में
ही शक्ति के विकास का रहस्य निहित है। स्तर
की प्रतिकूलता में अच्छे
परिणामों की आशा करना असंभव है। यह
भी ठीक है कि प्रतिमा पूजा से अन्तिम लक्ष्य
तक पहुँचना संभव नहीं क्योंकि ईश्वर सूक्ष्म है और
सूक्ष्म को प्राप्त करने के लिये उससे एकाकार
होने के लिये
अपनी अन्तःचेतना का उतना ही सूक्ष्म
बनाना होगा जितना कि वह है अन्यथा अपने
लक्ष्य में निराशा ही होगी।

वस्तुतः मूर्ति पूजा ईश्वर
उपासना का आरंभिक शिक्षा सत्र है।

यह
चित्त शुद्धि का मानसिक परिष्कार का सरल
साधन है। इसमें अपने इष्टदेव का ध्यान
सुविधाजनक होता है निराकार
उपासना कष्टसाध्य है जैसा कि कृष्ण भगवान ने
गीता 12 /5-6 में निर्देश दिया है कि जो सबके
मूल अचल अव्यक्त सर्वव्यापी अचिन्त्य ओर
नित्य अक्षर ब्रह्म की उपासना सब
इन्द्रियों को रोककर सर्वत्र सम बुद्धि रखते हुये
करते है वे भी मुझे ही पाते है। परन्तु उनके चित्त
अव्यक्त में आसक्त रहने के कारण उनको क्लेश
अधिक होते है क्योंकि अव्यक्त
उपासना का मार्ग कष्ट से सिद्ध होता है।

इसका अभिप्राय यह है कि साधक सब
इन्द्रियों को जीतकर और सभी प्राणियों के
प्रति सम बुद्धि व्यावहारिक भावना बनाकर
ही उस निराकार
उपासना का अधिकारी बनता है।

यदि आरंभिक साधक के लिए सूक्ष्म और असीम
की उपासना निर्धारित कर दी जाय तो वह
अंधकार में ही टटोलता रहेगा और भटक
जायेगा।

क्योंकि केनोपनिषद 1/3 के अनुसार
वहाँ न तो चक्षु पहुँचता है, व वाणी पहुँचती है
और न मन ही पहुँच सकता है। वह ज्ञात
पदार्थों से भिन्न है और अज्ञात से भी परे है।

ऐसी स्थिति में तत्ववेत्ता ऋषियों ने निश्चय
किया कि सीमित बुद्धि वाले साधक सीधे
असीम की उपासना करने से ही असीम तक पहुँच
पायेंगे। ईश्वर या देवप्रतिमायें आस्था की,
श्रद्धाभावना की उन्नायक मानी गयी हैं और
वे साधक की पवित्र भावनाओं को तददेव तक
पहुँचाती भी है। श्रद्धासिक्त भावना के
उन्नयन से आत्मा का सम्बन्ध उस चैतन्य सत्ता से
हो जाता है तो अणु-अणु में व्याप्त है।

इस तथ्य की पुष्टि पाश्चात्य
मनोवैज्ञानिकों ने भी की है। अपने प्रसिद्ध
ग्रंथ “दि रिलीजंस एटीच्यूड” में मूर्धन्य
मनीशी वुडवर्न ने लिखा है,
कि मूर्ति का यथार्थ महत्व प्रतीकात्मक
होता है और इसका प्रभाव विषेशतः ऐसे
व्यक्तियों की चेतना पर पड़ता है जिन्होंने
मानसिक प्रतिमाओं का प्रयोग
करना नहीं सीखा है। अर्थात्
जिसका मानसिक स्तर पर्याप्त रूप से
विकसित नहीं हुआ है।

सुप्रसिद्ध
मनोवैज्ञानिक नाइट ने
भी अपनी कृति “सिम्बाँलिकल लैंग्वेज ऑफ
एनषियेण्ट आर्ट एण्ड माइथाँलाँजी” में कहा है
कि मूर्ति पूजकों का यह विश्वास
था कि दैवी-सत्य, प्रतीक में छिपा रहता है,
पहेली और कल्पित आख्यायिकाओं में प्रच्छन्न
रहता है। यह निर्बल
मानवीयता को समयानुकूल रखता है बशर्ते
कि यह ज्ञान और मूल दर्शन में प्रदर्शित हो।’

इससे स्पष्ट है कि आधुनिक मनोविज्ञान भी इस
मूलभूत सिद्धान्त को स्वीकार करता है
कि सामान्य मानसिक स्तर वाले
व्यक्तियों के लिए प्रार्थना व पूजा के लिए
कोई दृश्य चित्र
या प्रतिमा की आवश्यकता अनिवार्य है।

मनोवेत्ताओं का कहना है
कि जड़पूजा तो मनुष्य का प्रकृति प्रदत्त
स्वभाव है। जल, वायु, पृथ्वी, सूर्य,
चन्द्रमा को वेदों में देवता कहा है, क्योंकि वह
निरन्तर अपनी शक्तियों से हमें लाभान्वित
करते रहते हैं। उनके बिना हमारा जीवन असंभव है,
इसलिए जड़ होते हुए भी हम उनकी पूजा,
उपासना करते हैं। इन जड़ पदार्थों में स्वयमेव
कोई शक्ति नहीं है। उस आद्यशक्ति के कारण
ही इनमें प्राणप्रद गुणों का समावेश
हो पाया है। ईश्वर निराकार है। वह स्थूल
नेत्रों से दिखाई नहीं देता। उसके अनेकों दिव्य
गुण हैं। वह गुणों का समुच्चय है और तदनुरूप
ही उसकी अनन्त शक्तियां हैं। उन शक्तियों के
अनुसार आचार्यों ने उसे साकार रूप में ढाल
लिया है। मूर्ति पर फूल चढ़ाते हुए यह कोई
नहीं सोचता कि वह पत्थर की पूजा कर रहा है,
वरन् यह भाव रहता है कि इसमें व्याप्त जो चैतन्य
शक्ति है, वह ही हमारी श्रद्धा की पात्र है।

प्रतिमा की उपासना करने वाला जानता है
कि वह उस सर्वव्यापी ईश्वर
की ही उपासना कर रहा है।
श्रद्धाशक्ति इस पवित्र भावना से
उसकी आत्मा का संबंध सर्वव्यापी चैतन्य
सत्ता से हो जाता है। मूर्ति साधक के
विश्वास को बढ़ाती है कि यही ईश्वर है।

विश्वास की पूर्णता ही उसे आदि विद्युत
धारा से मिला देती है। इस मिलन से साधक
को जो अपार आनन्द की अनुभूति होती है,
वही ईश्वर प्राप्ति की ओर बढ़ने का चिन्ह
माना जाता है। सूक्ष्म तक स्थूल
की सीधी पहुँच नहीं है। स्थूल को स्थूल
का ही अवलम्बन लेना पड़ता है।

अतः मूर्तिपूजा स्वाभाविक व प्राकृतिक है।
वेद स्वयं स्थूल उपासना का प्रतिपादन करते हैं।
अग्नि उपासना से सम्बन्धित उनमें सैकड़ों मंत्र
उपलब्ध हैं।

ऋग्वेद के मन्त्रों में उल्लेख है
कि “अग्नि उपासना से कल्याण होता है।
अग्नि उपासना के
बिना मुक्ति की प्राप्ति असंभव है।”
अग्नि उपासक के हृदय में परमात्मा का तेज
प्रकाशित होता है। अन्य शास्त्रों में
अग्नि को ब्रह्मरूप कहा गया है, परन्तु
अग्नि तो जड़ है। उसके माध्यम से चैतन्य
की प्रसन्नता प्राप्त करने में साधक कैसे सफल
हो सकता है। अग्नि स्थूल पदार्थों को सूक्ष्म
बनाकर देवताओं को अर्पण करती है।

मूर्तिपूजा भी साधक की पवित्र भावनाओं
को उदात्त बनाकर इष्टदेव तक पहुँचाती है। इन
दोनों में कुछ भी अन्तर नहीं हैं।
यदि अग्नि उपासना वैदिक है
तो मूर्तिपूजा भी वैदिक माननी पड़ेगी।

वेद
स्वयं मूर्तिपूजा का प्रतीक दृष्टिगोचर होते हैं
क्योंकि उन्हें ईश्वर प्रदत्त ज्ञान
माना जाता है। अनेक वेद-मंत्र
इसकी साक्षी देते है।

अथर्ववेद 3/10/3 में उल्लेख
है-
“संवत्सरस्य प्रतिमा याँ त्वा रात्र्युपास्महे।
सा न आयुश्मतीं प्रजाँ रायस्पोशेण सं सृज॥”

अर्थात् “ हे रात्रे ! संवत्सर की प्रतिमा ! हम
तुम्हारी उपासना करते हैं। तुम हमारे पुत्र-
पौत्रादि को चिर आयुष्य बनाओ और पशुओं से
हमको सम्पन्न करो।”

अथर्ववेद 2/13/4 में प्रार्थना है-
एह्याश्मा तिष्ठाश्मा भवतु ते तनूः ० “हे
भगवान! आइये और इस पत्थर की बनी मूर्ति में
अधिष्ठित होइये। आपका यह शरीर पत्थर
की बनी मूर्ति हो जाये।”

मा असि प्रमा असि प्रतिमा असि |
[तैत्तीरिय प्रपा० अनु ० ५ ]
हे महावीर तुम इश्वर की प्रतिमा हो |

सह्स्त्रस्य प्रतिमा असि | [यजुर्वेद १५.६५]
हे परमेश्वर , आप सहस्त्रो की प्रतिमा [मूर्ति ]
हैं |

अर्चत प्रार्चत प्रिय्मेधासो अर्चत |
(अथर्ववेद-20.92.5)
हे बुद्धिमान मनुष्यों उस प्रतिमा का पूजन
करो,भली भांति पूजन करो |

ऋषि नाम प्रस्त्रोअसि नमो अस्तु देव्याय
प्रस्तराय| [अथर्व ० १६.२.६ ]
हे प्रतिमा,, तू ऋषियों का पाषण है तुझ दिव्य
पाषण के लिए नमस्कार है |

गणपति अथर्व शीर्षम् की फलश्रुती है-
“सूर्यग्रहे
महानद्यां प्रतिमासन्निधौ वा जप्त्वा
सिद्धमनत्रो भवति ।।”
– सूर्यग्रहणके समय महानदीमें
अथवा ***प्रतिमाके*** निकट इस
उपनिषद्का जप करके साधक सिद्धमन्त्र
हो जाता है ।

इसी प्रकार देवी अथर्वशीर्षम् की फलश्रुती है

निशीथे
तुरीयसन्ध्यायां जप्त्वा वाक्सिद्धिर्भवति ।
नूतनायां प्रतिमायां जप्त्वा देवतासान्निध्यं
भवति । प्र्ाणप्रतिष्ठायां जप्त्वा प्राणानां
प्रतिष्ठा भवति ।।

प्रतिमा में शक्ति का अधिष्ठान
किया जाता है,
प्राणप्रतिष्ठा की जाती है। सामवेद के 36 वें
ब्राह्मण में उल्लेख है-

“देवतायतनानि कम्पन्ते दैवतप्रतिमा हसन्ति।
रुदान्त नृत्यान्त स्फुटान्त
स्विद्यन्त्युन्मालान्त निमीलन्ति॥
अर्थात्- देवस्थान काँपते हैं, देवमूर्ति हँसती,
रोती और नृत्य करती हैं, किसी अंग में स्फुटित
हो जाती है, वह पसीजती है,
अपनी आँखों को खोलती और बन्द
भी करती है।

“कपिल तंत्र” में इस भाव की पुष्टि करते हुए
कहा गया है-”जिस तरह गाय के सारे शरीर में
उत्पन्न होने वाला दुग्ध केवल उसके स्तनों के
द्वारा ही बाहर निकलता है, इसी तरह
परमात्मा की सर्वव्यापक
शक्ति का अधिष्ठान मूर्ति में होता है।

इस
तरह से साधक यह विचार करता है कि वह उस
पत्थर निर्मित मूर्ति की उपासना नहीं कर
रहा है, वरन् वह उस अनन्त शक्ति की पूजा कर
रहा है जो उस मूर्ति में विद्यमान है। बाह्य
दृष्टि से दिखाई देता है कि वह
प्रतिमा की पूजा कर रहा है परन्तु वास्तव में
तो वह उस सर्वव्यापी शक्ति की उपासना कर
रहा होता है।

आधुनिक विज्ञान भी इसका समर्थन करता है।
साधक के भक्ति, विश्वास और
पूजा की शक्ति को यदि विषम-शक्ति मानें
और ईश्वर की शक्ति को सम तो निश्चय रूप से
साधक
की विषमशक्ति परमात्मा की समशक्ति को
मूर्ति के माध्यम से आकर्षित कर लेती है। विषय
और सम शक्तियों के मिलन से
ही विद्युतधारा का प्रवाह दृष्टिगोचर
होता है और प्रकाश की उत्पत्ति होती है।

इसी तरह से साधक
की अन्तःचेतना भी जगमगा उठती है।
मूर्तिपूजा-प्रतीक उपासना के पीछे एक सुदृढ़
मनोविज्ञान काम करता है। आधुनिक
मनोविज्ञानी भी मूर्ति की आवश्यकता को
अनुभव करते हैं और मानते हैं कि असीम
ही सीमित होकर प्रदर्शित होता है।

सुविख्यात मनोविज्ञानी कार्लाइल के
अनुसार वास्तविक प्रतीक में जिसे
ऐसा सम्बोधन किया जाता है, सदैव स्पष्ट और
प्रत्यक्ष रूप से असीम का रहस्योद्घाटन
होता है। इसमें निराकार का संयोजन साकार
में होता है जिससे वह दृष्टिगत हो सके और
प्राप्त हो सके। विद्वान अर्बन ने
भी अपनी कृति-”लैग्वेज ऐण्ड रियलिटी” में
प्रतिमा उपासना के लाभों का विवेचन करते
हुए लिखा है कि धार्मिक प्रतीक
या प्रतिमायें सीमित और अन्तरदृश्ट्यात्मक
सम्बन्धों से उद्भूत की गयी है।

इनसे ऐसे
तथ्यों की अभिव्यक्ति होती है जो अधिक
सार्वभौम और आदर्श सम्बन्धों के लिए है,
जिनकी अभिव्यक्ति विस्तार अधिक होने से
और आदर्शवादिता के कारण सीधे
नहीं की जा सकती। अन्यान्य
मनोवैज्ञानिकों ने इस तथ्य की पुष्टि करते हुए
लिखा है-भारतीय मन्दिरों में शिव, विष्णु,
बुद्ध, महावीर आदि की मूर्तियाँ आदर्श
को स्थूल रूप देने के उद्देश्य से स्थापित
की गयी है।

सूक्ष्म रूप में बिना दृश्य वस्तु के,
जो इनका प्रतिरूप है, कल्पना करने पर आदर्श
अस्पष्ट रह जाता है। उदाहरण के लिए जैन धर्म में
24 तीर्थंकरों का पूजन मूर्ति रूप में इस कारण
प्रचलित नहीं है कि यह मूर्तियाँ ईश्वर के रूप में
है, क्योंकि जैनधर्म में ईश्वर का अस्तित्व
ही स्वीकार नहीं किया है। वस्तुतः वे आदर्श
की प्रतीक हैं, जहाँ पहुँचना व्यक्ति का लक्ष्य
होता है। स्थूल प्रतीक
की यही महत्ता होती है।

आधुनिक मनोवैज्ञानिकों का दृढ़ मत है
कि मूर्ति पूजन की प्रथा इसलिए चली कि इनसे
प्रेरणा मिलती है और उस प्रेरणा के साथ
शक्ति और विश्वास मिलती है और उस
प्रेरणा के साथ शक्ति और विश्वास
छिपा रहता है। जिस किसी अवतार,
देवता या महापुरुष की साधक पूजा करता है,
उसके साथ उसके जीवन की महानताएँ
या तत्सम्बन्धी कथायें अवश्य जुड़ी रहती हैं।

प्रतिमा के सामने आते ही वह सभी दृश्य
नेत्रों के सामने तैरने लगते हैं और साधक उस महान
विभूति से अपने का संबंधित करके
उसकी महानताओं और विशेषताओं से अपने मन
मन्दिर को जगमगाता अनुभव करता है।

तादात्म्य हो जाने पर
अपनी अन्तरात्मा को वह परमात्म चेतना से
एकाकार कर देता है। साधक का तद्रूप
बनना उसकी भावना पर निर्भर करता है।

मूर्तिपूजा से जीवन निर्माण की सूक्ष्म
प्रक्रिया आरंभ होती है, जो साधक को उच्च
कक्षा में ले जाती है। इस तरह प्रतीक
पूजा लाभप्रद ही नहीं, बुद्धि सुलभ भी हैं।

||●|| वंदेमातृसंस्कृतम् ||●||

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मूर्ति पूजा के प्रमाण


मूर्ति पूजा के प्रमाण

वेद में मूर्ति पूजा के प्रमाण –
__________________

वेदों में ईश्वर उपासना दो रूपों में प्रचलित है
साकार तथा निराकार।

निराकारवादी प्रायः साकार
उपासना या मूर्ति पूजा का विरोध करते है
तथा केवल निराकारोपासनापरक ‘न तस्य
प्रतिमा अस्ति ‘ आदि वचनों को उद्धृत करके
ही एकतरफा निर्णय करके संतुष्ट हो जाते हैं पर वे
यह भूल जाते है कि ऋषि मनीषियों ने
दोनोँ उपासना पद्धतियों का निर्माण
मनुष्य के बौद्धिक स्तर की अनुकूलता के अनुरूप
किया है।

जिस व्यक्ति का बौद्धिक स्तर
जितना ऊंचा है उसे उसी ढंग
की उपासना पद्धति का निर्देश गुरुजन देते है।
जिस व्यक्ति का बौद्धिक विकास मध्य
श्रेणी का है शास्त्रों के स्वाध्याय से भी वह
वंचित है उसे यदि निराकार
उपासना की दीक्षा दी जाय तो उसे उस
उपासना से कोई लाभ न होगा,
क्योंकि उसकी अन्तः चेतना का इतना
विकास नहीं हुआ है कि ईश्वर के वास्तविक
निराकार तत्व को समझ सके।

यदि एक निर्बल
बौद्धिक स्तर वाले व्यक्ति से यह कहा जाय
कि ईश्वर सर्वव्यापक है परन्तु वह इन स्थूल
नेत्रों से दृष्टिगोचर नहीं होता उसका कोई
रंगरूप नहीं है तो निश्चित रूप से
उसकी बुद्धि ईश्वर के अस्तित्व को ही मानने से
इनकार कर देंगी।

चूँकि सामान्य बौद्धिक स्तर वाले
व्यक्तियों के लिये अध्यात्म के सूक्ष्म तथ्यों पर
ध्यानावस्थित होना कठिन होता है इसलिये
मानव मनोविज्ञान के ज्ञाता ऋषियों ने
प्रतीक
पूजा की मूर्ति पूजा की प्रथा चलाई
ताकि उस मूर्ति को माध्यम बनाकर वह उस
अनन्त को साकार रूप में अपने सामने देख सके।

निराकार ब्रह्म का मानसचित्र बनाना सबके
लिये संभव नहीं। यदि प्रतीकवाद
या मूर्ति पूजा का आरंभ न होता। तो आज
विश्व की अधिकांश जनसंख्या नास्तिक
होती क्यों कि अशिक्षित और पिछड़े स्तर के
जनमानस में ईश्वर के निराकार तत्व पर
विश्वास ही न होता। केवल उपासना थोड़े से
उच्चकोटि के विचारकों तत्ववेत्ताओं और
योगियों तक ही सीमित रह जाती ओर
मानव जाति का आत्मिक विकास रुक
जाता धार्मिक सम्प्रदायों का निर्माण न
होता और धर्म के व्यापक विस्तार के
बिना समाज में घोर अनास्था और
अव्यवस्था फैली होती।

देव प्रतिमा से प्रतीक से साधक को यह
विश्वास हो जाता है कि जिन गुणों से
सम्पन्न ईश्वर को वह पाना चाहता है,
अथवा जिन गुणों को अपने में विकसित
करना चाहता है वह मूर्ति उसके समक्ष उपस्थित
है। ध्यान धारणा के माध्यम से वह उसे
अपनी अन्तःचेतना में बिठाकर एकाकार
हो जाता है। ध्यान की परिपक्वता में पहुँचने पर
उसे सब ओर उसी की छाया दिखायी देती है
वह अणु अणु में समाया हुआ मिलता है उसे अपने
इष्ट के अतिरिक्त और कुछ
दिखायी नहीं देता। यह वह अवस्था है जब
प्रतीक पूजा के माध्यम से साधक का आत्मिक
स्तर विकसित होने लगता है और वह सब
प्राणियों में अपने प्रभु का ही दर्शन करता है
और अपने में सबका उद्देश्य होता है।

यहाँ आकर
उसकी प्रारंभिक मूर्ति उपासना छूट जाती है
और वह समस्त चलती फिरती प्रतिमाओं
को अपने ईश्वर का ही रूप मानने लगता हैं। जब
उपासना का स्तर स्थूल से सूक्ष्म हो जाता है
तब वह निराकार तत्व की उपासना के योग्य
होता है क्योंकि स्तर की अनुकूलता में
ही शक्ति के विकास का रहस्य निहित है। स्तर
की प्रतिकूलता में अच्छे
परिणामों की आशा करना असंभव है। यह
भी ठीक है कि प्रतिमा पूजा से अन्तिम लक्ष्य
तक पहुँचना संभव नहीं क्योंकि ईश्वर सूक्ष्म है और
सूक्ष्म को प्राप्त करने के लिये उससे एकाकार
होने के लिये
अपनी अन्तःचेतना का उतना ही सूक्ष्म
बनाना होगा जितना कि वह है अन्यथा अपने
लक्ष्य में निराशा ही होगी।

वस्तुतः मूर्ति पूजा ईश्वर
उपासना का आरंभिक शिक्षा सत्र है।

यह
चित्त शुद्धि का मानसिक परिष्कार का सरल
साधन है। इसमें अपने इष्टदेव का ध्यान
सुविधाजनक होता है निराकार
उपासना कष्टसाध्य है जैसा कि कृष्ण भगवान ने
गीता 12 /5-6 में निर्देश दिया है कि जो सबके
मूल अचल अव्यक्त सर्वव्यापी अचिन्त्य ओर
नित्य अक्षर ब्रह्म की उपासना सब
इन्द्रियों को रोककर सर्वत्र सम बुद्धि रखते हुये
करते है वे भी मुझे ही पाते है। परन्तु उनके चित्त
अव्यक्त में आसक्त रहने के कारण उनको क्लेश
अधिक होते है क्योंकि अव्यक्त
उपासना का मार्ग कष्ट से सिद्ध होता है।

इसका अभिप्राय यह है कि साधक सब
इन्द्रियों को जीतकर और सभी प्राणियों के
प्रति सम बुद्धि व्यावहारिक भावना बनाकर
ही उस निराकार
उपासना का अधिकारी बनता है।

यदि आरंभिक साधक के लिए सूक्ष्म और असीम
की उपासना निर्धारित कर दी जाय तो वह
अंधकार में ही टटोलता रहेगा और भटक
जायेगा।

क्योंकि केनोपनिषद 1/3 के अनुसार
वहाँ न तो चक्षु पहुँचता है, व वाणी पहुँचती है
और न मन ही पहुँच सकता है। वह ज्ञात
पदार्थों से भिन्न है और अज्ञात से भी परे है।

ऐसी स्थिति में तत्ववेत्ता ऋषियों ने निश्चय
किया कि सीमित बुद्धि वाले साधक सीधे
असीम की उपासना करने से ही असीम तक पहुँच
पायेंगे। ईश्वर या देवप्रतिमायें आस्था की,
श्रद्धाभावना की उन्नायक मानी गयी हैं और
वे साधक की पवित्र भावनाओं को तददेव तक
पहुँचाती भी है। श्रद्धासिक्त भावना के
उन्नयन से आत्मा का सम्बन्ध उस चैतन्य सत्ता से
हो जाता है तो अणु-अणु में व्याप्त है।

इस तथ्य की पुष्टि पाश्चात्य
मनोवैज्ञानिकों ने भी की है। अपने प्रसिद्ध
ग्रंथ “दि रिलीजंस एटीच्यूड” में मूर्धन्य
मनीशी वुडवर्न ने लिखा है,
कि मूर्ति का यथार्थ महत्व प्रतीकात्मक
होता है और इसका प्रभाव विषेशतः ऐसे
व्यक्तियों की चेतना पर पड़ता है जिन्होंने
मानसिक प्रतिमाओं का प्रयोग
करना नहीं सीखा है। अर्थात्
जिसका मानसिक स्तर पर्याप्त रूप से
विकसित नहीं हुआ है।

सुप्रसिद्ध
मनोवैज्ञानिक नाइट ने
भी अपनी कृति “सिम्बाँलिकल लैंग्वेज ऑफ
एनषियेण्ट आर्ट एण्ड माइथाँलाँजी” में कहा है
कि मूर्ति पूजकों का यह विश्वास
था कि दैवी-सत्य, प्रतीक में छिपा रहता है,
पहेली और कल्पित आख्यायिकाओं में प्रच्छन्न
रहता है। यह निर्बल
मानवीयता को समयानुकूल रखता है बशर्ते
कि यह ज्ञान और मूल दर्शन में प्रदर्शित हो।’

इससे स्पष्ट है कि आधुनिक मनोविज्ञान भी इस
मूलभूत सिद्धान्त को स्वीकार करता है
कि सामान्य मानसिक स्तर वाले
व्यक्तियों के लिए प्रार्थना व पूजा के लिए
कोई दृश्य चित्र
या प्रतिमा की आवश्यकता अनिवार्य है।

मनोवेत्ताओं का कहना है
कि जड़पूजा तो मनुष्य का प्रकृति प्रदत्त
स्वभाव है। जल, वायु, पृथ्वी, सूर्य,
चन्द्रमा को वेदों में देवता कहा है, क्योंकि वह
निरन्तर अपनी शक्तियों से हमें लाभान्वित
करते रहते हैं। उनके बिना हमारा जीवन असंभव है,
इसलिए जड़ होते हुए भी हम उनकी पूजा,
उपासना करते हैं। इन जड़ पदार्थों में स्वयमेव
कोई शक्ति नहीं है। उस आद्यशक्ति के कारण
ही इनमें प्राणप्रद गुणों का समावेश
हो पाया है। ईश्वर निराकार है। वह स्थूल
नेत्रों से दिखाई नहीं देता। उसके अनेकों दिव्य
गुण हैं। वह गुणों का समुच्चय है और तदनुरूप
ही उसकी अनन्त शक्तियां हैं। उन शक्तियों के
अनुसार आचार्यों ने उसे साकार रूप में ढाल
लिया है। मूर्ति पर फूल चढ़ाते हुए यह कोई
नहीं सोचता कि वह पत्थर की पूजा कर रहा है,
वरन् यह भाव रहता है कि इसमें व्याप्त जो चैतन्य
शक्ति है, वह ही हमारी श्रद्धा की पात्र है।

प्रतिमा की उपासना करने वाला जानता है
कि वह उस सर्वव्यापी ईश्वर
की ही उपासना कर रहा है।
श्रद्धाशक्ति इस पवित्र भावना से
उसकी आत्मा का संबंध सर्वव्यापी चैतन्य
सत्ता से हो जाता है। मूर्ति साधक के
विश्वास को बढ़ाती है कि यही ईश्वर है।

विश्वास की पूर्णता ही उसे आदि विद्युत
धारा से मिला देती है। इस मिलन से साधक
को जो अपार आनन्द की अनुभूति होती है,
वही ईश्वर प्राप्ति की ओर बढ़ने का चिन्ह
माना जाता है। सूक्ष्म तक स्थूल
की सीधी पहुँच नहीं है। स्थूल को स्थूल
का ही अवलम्बन लेना पड़ता है।

अतः मूर्तिपूजा स्वाभाविक व प्राकृतिक है।
वेद स्वयं स्थूल उपासना का प्रतिपादन करते हैं।
अग्नि उपासना से सम्बन्धित उनमें सैकड़ों मंत्र
उपलब्ध हैं।

ऋग्वेद के मन्त्रों में उल्लेख है
कि “अग्नि उपासना से कल्याण होता है।
अग्नि उपासना के
बिना मुक्ति की प्राप्ति असंभव है।”
अग्नि उपासक के हृदय में परमात्मा का तेज
प्रकाशित होता है। अन्य शास्त्रों में
अग्नि को ब्रह्मरूप कहा गया है, परन्तु
अग्नि तो जड़ है। उसके माध्यम से चैतन्य
की प्रसन्नता प्राप्त करने में साधक कैसे सफल
हो सकता है। अग्नि स्थूल पदार्थों को सूक्ष्म
बनाकर देवताओं को अर्पण करती है।

मूर्तिपूजा भी साधक की पवित्र भावनाओं
को उदात्त बनाकर इष्टदेव तक पहुँचाती है। इन
दोनों में कुछ भी अन्तर नहीं हैं।
यदि अग्नि उपासना वैदिक है
तो मूर्तिपूजा भी वैदिक माननी पड़ेगी।

वेद
स्वयं मूर्तिपूजा का प्रतीक दृष्टिगोचर होते हैं
क्योंकि उन्हें ईश्वर प्रदत्त ज्ञान
माना जाता है। अनेक वेद-मंत्र
इसकी साक्षी देते है।

अथर्ववेद 3/10/3 में उल्लेख
है-
“संवत्सरस्य प्रतिमा याँ त्वा रात्र्युपास्महे।
सा न आयुश्मतीं प्रजाँ रायस्पोशेण सं सृज॥”

अर्थात् “ हे रात्रे ! संवत्सर की प्रतिमा ! हम
तुम्हारी उपासना करते हैं। तुम हमारे पुत्र-
पौत्रादि को चिर आयुष्य बनाओ और पशुओं से
हमको सम्पन्न करो।”

अथर्ववेद 2/13/4 में प्रार्थना है-
एह्याश्मा तिष्ठाश्मा भवतु ते तनूः ० “हे
भगवान! आइये और इस पत्थर की बनी मूर्ति में
अधिष्ठित होइये। आपका यह शरीर पत्थर
की बनी मूर्ति हो जाये।”

मा असि प्रमा असि प्रतिमा असि |
[तैत्तीरिय प्रपा० अनु ० ५ ]
हे महावीर तुम इश्वर की प्रतिमा हो |

सह्स्त्रस्य प्रतिमा असि | [यजुर्वेद १५.६५]
हे परमेश्वर , आप सहस्त्रो की प्रतिमा [मूर्ति ]
हैं |

अर्चत प्रार्चत प्रिय्मेधासो अर्चत |
(अथर्ववेद-20.92.5)
हे बुद्धिमान मनुष्यों उस प्रतिमा का पूजन
करो,भली भांति पूजन करो |

ऋषि नाम प्रस्त्रोअसि नमो अस्तु देव्याय
प्रस्तराय| [अथर्व ० १६.२.६ ]
हे प्रतिमा,, तू ऋषियों का पाषण है तुझ दिव्य
पाषण के लिए नमस्कार है |

गणपति अथर्व शीर्षम् की फलश्रुती है-
“सूर्यग्रहे
महानद्यां प्रतिमासन्निधौ वा जप्त्वा
सिद्धमनत्रो भवति ।।”
– सूर्यग्रहणके समय महानदीमें
अथवा ***प्रतिमाके*** निकट इस
उपनिषद्का जप करके साधक सिद्धमन्त्र
हो जाता है ।

इसी प्रकार देवी अथर्वशीर्षम् की फलश्रुती है

निशीथे
तुरीयसन्ध्यायां जप्त्वा वाक्सिद्धिर्भवति ।
नूतनायां प्रतिमायां जप्त्वा देवतासान्निध्यं
भवति । प्र्ाणप्रतिष्ठायां जप्त्वा प्राणानां
प्रतिष्ठा भवति ।।

प्रतिमा में शक्ति का अधिष्ठान
किया जाता है,
प्राणप्रतिष्ठा की जाती है। सामवेद के 36 वें
ब्राह्मण में उल्लेख है-

“देवतायतनानि कम्पन्ते दैवतप्रतिमा हसन्ति।
रुदान्त नृत्यान्त स्फुटान्त
स्विद्यन्त्युन्मालान्त निमीलन्ति॥
अर्थात्- देवस्थान काँपते हैं, देवमूर्ति हँसती,
रोती और नृत्य करती हैं, किसी अंग में स्फुटित
हो जाती है, वह पसीजती है,
अपनी आँखों को खोलती और बन्द
भी करती है।

“कपिल तंत्र” में इस भाव की पुष्टि करते हुए
कहा गया है-”जिस तरह गाय के सारे शरीर में
उत्पन्न होने वाला दुग्ध केवल उसके स्तनों के
द्वारा ही बाहर निकलता है, इसी तरह
परमात्मा की सर्वव्यापक
शक्ति का अधिष्ठान मूर्ति में होता है।

इस
तरह से साधक यह विचार करता है कि वह उस
पत्थर निर्मित मूर्ति की उपासना नहीं कर
रहा है, वरन् वह उस अनन्त शक्ति की पूजा कर
रहा है जो उस मूर्ति में विद्यमान है। बाह्य
दृष्टि से दिखाई देता है कि वह
प्रतिमा की पूजा कर रहा है परन्तु वास्तव में
तो वह उस सर्वव्यापी शक्ति की उपासना कर
रहा होता है।

आधुनिक विज्ञान भी इसका समर्थन करता है।
साधक के भक्ति, विश्वास और
पूजा की शक्ति को यदि विषम-शक्ति मानें
और ईश्वर की शक्ति को सम तो निश्चय रूप से
साधक
की विषमशक्ति परमात्मा की समशक्ति को
मूर्ति के माध्यम से आकर्षित कर लेती है। विषय
और सम शक्तियों के मिलन से
ही विद्युतधारा का प्रवाह दृष्टिगोचर
होता है और प्रकाश की उत्पत्ति होती है।

इसी तरह से साधक
की अन्तःचेतना भी जगमगा उठती है।
मूर्तिपूजा-प्रतीक उपासना के पीछे एक सुदृढ़
मनोविज्ञान काम करता है। आधुनिक
मनोविज्ञानी भी मूर्ति की आवश्यकता को
अनुभव करते हैं और मानते हैं कि असीम
ही सीमित होकर प्रदर्शित होता है।

सुविख्यात मनोविज्ञानी कार्लाइल के
अनुसार वास्तविक प्रतीक में जिसे
ऐसा सम्बोधन किया जाता है, सदैव स्पष्ट और
प्रत्यक्ष रूप से असीम का रहस्योद्घाटन
होता है। इसमें निराकार का संयोजन साकार
में होता है जिससे वह दृष्टिगत हो सके और
प्राप्त हो सके। विद्वान अर्बन ने
भी अपनी कृति-”लैग्वेज ऐण्ड रियलिटी” में
प्रतिमा उपासना के लाभों का विवेचन करते
हुए लिखा है कि धार्मिक प्रतीक
या प्रतिमायें सीमित और अन्तरदृश्ट्यात्मक
सम्बन्धों से उद्भूत की गयी है।

इनसे ऐसे
तथ्यों की अभिव्यक्ति होती है जो अधिक
सार्वभौम और आदर्श सम्बन्धों के लिए है,
जिनकी अभिव्यक्ति विस्तार अधिक होने से
और आदर्शवादिता के कारण सीधे
नहीं की जा सकती। अन्यान्य
मनोवैज्ञानिकों ने इस तथ्य की पुष्टि करते हुए
लिखा है-भारतीय मन्दिरों में शिव, विष्णु,
बुद्ध, महावीर आदि की मूर्तियाँ आदर्श
को स्थूल रूप देने के उद्देश्य से स्थापित
की गयी है।

सूक्ष्म रूप में बिना दृश्य वस्तु के,
जो इनका प्रतिरूप है, कल्पना करने पर आदर्श
अस्पष्ट रह जाता है। उदाहरण के लिए जैन धर्म में
24 तीर्थंकरों का पूजन मूर्ति रूप में इस कारण
प्रचलित नहीं है कि यह मूर्तियाँ ईश्वर के रूप में
है, क्योंकि जैनधर्म में ईश्वर का अस्तित्व
ही स्वीकार नहीं किया है। वस्तुतः वे आदर्श
की प्रतीक हैं, जहाँ पहुँचना व्यक्ति का लक्ष्य
होता है। स्थूल प्रतीक
की यही महत्ता होती है।

आधुनिक मनोवैज्ञानिकों का दृढ़ मत है
कि मूर्ति पूजन की प्रथा इसलिए चली कि इनसे
प्रेरणा मिलती है और उस प्रेरणा के साथ
शक्ति और विश्वास मिलती है और उस
प्रेरणा के साथ शक्ति और विश्वास
छिपा रहता है। जिस किसी अवतार,
देवता या महापुरुष की साधक पूजा करता है,
उसके साथ उसके जीवन की महानताएँ
या तत्सम्बन्धी कथायें अवश्य जुड़ी रहती हैं।

प्रतिमा के सामने आते ही वह सभी दृश्य
नेत्रों के सामने तैरने लगते हैं और साधक उस महान
विभूति से अपने का संबंधित करके
उसकी महानताओं और विशेषताओं से अपने मन
मन्दिर को जगमगाता अनुभव करता है।

तादात्म्य हो जाने पर
अपनी अन्तरात्मा को वह परमात्म चेतना से
एकाकार कर देता है। साधक का तद्रूप
बनना उसकी भावना पर निर्भर करता है।

मूर्तिपूजा से जीवन निर्माण की सूक्ष्म
प्रक्रिया आरंभ होती है, जो साधक को उच्च
कक्षा में ले जाती है। इस तरह प्रतीक
पूजा लाभप्रद ही नहीं, बुद्धि सुलभ भी हैं।

||●|| वंदेमातृसंस्कृतम् ||●||

Posted in राजनीति भारत की - Rajniti Bharat ki

आजमखान की दोगली बात ..


आजमखान की दोगली बात ..
एक तरफ तो कहता है मुस्लिम अल्पसंख्यक है ?
दूसरी तरफ कहता है हिंदुस्तान की दूसरी सबसे बड़ी आबादी
है मुलावों की….????

अब दोनों बाते सही नहीं हो सकती ..!

Posted in PM Narendra Modi

नरेंद्र मोदी पर आजम खान का हमला, ‘देश का बादशाह नहीं चाहता मुसलमानों का भला’


 

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नरेंद्र मोदी पर आजम खान का हमला, ‘देश का बादशाह नहीं चाहता मुसलमानों का भला’
१)
आजम खान ने बताया कि देश की दूसरी बड़ी आबादी है हिंदुस्तान की.
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तो फिर अल्पसंख्यक का दावा क्यों करते हो ? और अल्पसंख्यक नाम पर कानून और सरकारी योजना के लाभ क्यों लेते हो ?
२)
आजम खान ने बताया कि मुसलमान बहुत जिल्लत की जिंदगी गुजार रहे हैं. बच्चों का कोई भविष्य नहीं है.’
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भारत वर्ष में मुग़ल [ मुसलमान ] आये गुवे १००० वर्ष गुजर चुके है। मुसलमानो ने भारत वर्ष के टुकड़े करदिये पाकिस्तान + बांगला देश + कुछ हिस्सा काश्मीर और वर्तमान हिन्दुस्थान में जी रहे है फिरभी अपने समाज का विकास नहीं कर सके ये खुद की इच्छा शक्ति के कारण है। मुसलिम समाज शुरू से जेहादी गतिविधियों में चलता रहा ! कभी अपने बच्चों के उज्वल भविष्य के लिए शिक्षा का माध्यम नहीं चुना ! ज्ञान + विज्ञान + आविष्कार अवगत रहे ! ये खुद्की इच्छा शक्ति के अभाव का परिणाम है। सच यह हे के कई मुसलिम आगेवान नेता या धर्म गुरु ने समाज के हित को प्रमुखता नहीं दी ! मुसलिम में गरीब परिवार को कभी कुटुंब नियोजन की बात से अभिज्ञ रखा ! जनसंख्या बढ़ाएं जाना लक्ष्य रहा !
कभी अपनी गलतिया के बारे में मंथन करना चाहिए। हमेशा दुसरो से न्याय की अपेक्षा रखते हो ओर कभी खुद इस बात का अमल नहीं करते ! आप जैसे नेता और कांग्रेस ने मुस्लिम समाज के युवाओ को आगे बढ़ने का अवसर नहीं दिया ! हमेशा सरकार हमारे लिए कुछ नहीं करती ऐसा प्रचार करते रहे हो और सरकारी योजना का लाभ भी लेते रहे हो।
यह सारी योजना ये पिछड़े लोगो के लिए है। और जो खुद सक्षम है वे लोग इस योजना का लाभ लेके उन पिछड़े लोगो के हिस्से में अपना हक़ समज ते है वो शर्म की बात है। जो सक्षम और न्यायसंगत है और भ्रष्ट नहीं है वे ऐसे लाभ को नहीं स्वीकारेगा। यह घडी सवयं को स्वयं की नजर में प्रामणित करने का है।
३)
आजम खान ने बताया कि मोदी देश के मुसलमानों का भला नहीं चाहते. वहीं नहीं चाहते हैं कि देश में अमन का माहौल रहे. मुसलमानों को जलील किया जा रहा है. अल्पसंख्यक समुदाय के लोग दहशत में जी रहे हैं.सांप्रदायिक तनाव के मुद्दे पर उन्होंने कहा, ‘अजीब सा माहौल बना है मुल्क में. कैसे मुसलमान मारे जाएं? कैसे कत्ल हों? कैसे घर जले? कैसे बर्बादी हो उनकी? बहुत खौफ में हैं. दहशत में हैं. बहुत जिल्लत की जिंदगी गुजार रहे हैं. ‘देश का बादशाह अमन नहीं चाहता. पाकिस्तान जाओ… के नारे पर जीत कर सरकार बनी. हम कैसे पाकिस्तान जाएं?
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गुजरात में जब मोदी जी थे तब [ २००२ को छोड़ के ] ११ वर्ष में कभी कही कर्फ्यू [ संचार बंधी ] नहीं लगी। गुजारत का मुसलमान देश सबसे ज्यादा विकासशील है। बिना भय के जीवन गुजारते है। और आजम तुम जहाके मंत्री हो उस प्रदेश में क्या स्थिति है ये अपने आपसे पूछो। आपकी सल्तनत ने वल्ड रेकॉर्ड बनाया है दंगे प्रभावित प्रदेश बनादियी है आप लोगो ने। आजम तुम्ही ने कहा था की उत्तर प्रदेश के 34 जिलों में पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी ISI सक्रिय है. 12 जिले अति संवेदनशील हैं, जिनमें कानपुर, आगरा, मेरठ, मथुरा, मुजफ्फरनगर, मुरादाबाद और हापुड़ प्रमुख हैं. अर्थात आपकी सल्तनत ने उन पाकिस्तानी ISI के खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं की ! यह प्रमाणित करता है की आप उन पाकिस्तान की गतिविधियो सही मानते हो। इस कारण आप जैसे लोग को संदेह की नजर से देखा जाता है। तुम जानते हो ISI हिन्दुस्थान में क्यों सक्रीय है और किसके सहयोग से और तुम हिन्दुस्थान के प्रधानमंत्री श्री मान नरेंद्रभाई मोदी जी पर आरोप लगाते हो ! ” उलटा चोर कोतवाल को डांटे “

४)
आजम खान ने बताया कि :बहुत दुख भरा जीवन है .से जेहाद जैसे शब्द का गलत इस्तेमाल कर धर्म का अपमान हो रहा है.’
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जब देश में विदेश मुसलमान ताकतों हमारे राष्ट्र में सक्रीय हो और उनको साथ देने के लिए कई स्थानीक मुसलामन उनको मदद करते है यहातक की पैकेज भी मिलता हो तो भवष्य उज्वल कैसे बनेगा ? और ये सब जेहाद के नाम पर हो रहा है। जन्नत में हूरी मिलेगी ! इस्लाम खतरेमें यही मंत्र से मुस्लिम युवा ओ का बैन वॉश करते है वो भी जेहाद के नाम पर। मेरठ + रांची के लव जेहाद सामने आया है। सत्य तो यह है की कसी इस्लाम के स्वयं बने ठेकेदार जेहाद के नाम पर इस्लाम को बदनाम करते है। निर्दोष लोगो की ह्त्या करते है। इस्लाम ने कभी नहीं कहा की किसी भी जीव की ह्त्या करो।

आजम एक स्वार्थी व्यक्ति है वो शिया लोगो को भी अपमानित करता है। मुलायम सिंह को हिजड़ा कहके अपमानित करता है। कारगिल में अपनी सेना को बाटने की बात करता है। इसकी बातो से अलगाओवाद की बू आ रही है। कई मुसलमान नेता राष्ट्र गान + गीत + नमस्ते शब्द और संसद का अपमान करते है और दलील यह होती है की यह हमारे धर्म के खिलाफ है। तो क्या आप लोगो के लिए मुसलमान धर्म है सबकुछ है और राष्ट्रवाद का और उसकी गरिमा का कोई वजूद नहीं है तो ऐसे लोगो को हिन्दुस्थान छोड़ देना चाहिए।

आरएसएस, बीजेपी, शिवसेना और विश्व हिंदू परिषद और मोदी जी पर आरोप लगाना बंध करो। अपने समाज और अपने प्रदेश का विकास करो। जनता को भड़काओ नहीं।

और इन सबके बीच एक बात सामने आती है की जब RSS + VHP का बयान हमेशा विवादित और भड़काऊ घोषति करने वाली मीडिया को इस आजम का बयान भड़काऊ + वोवादित क्यों नहीं लगता ?
क्यों इसपर कोई डिबेट नहीं होती ?
क्यों पक्षपात करता है मिडिया ?

वंदे मातरम् ……

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— with पवन अवस्थी and 48 others.