Posted in भारतीय मंदिर - Bharatiya Mandir

आइए, आज विश्वप्रसिद्ध मीनाक्षी मंदिर के बारे में जानते हैं.


आइए, आज विश्वप्रसिद्ध मीनाक्षी मंदिर के बारे में जानते हैं.
मदुरै (तमिलनाडु) में भारत का यह ७वा सबसे बड़ा मंदिर ४५ एकड़ भूमि में फैला है (देश के बहुत से लोगों का विश्वास है कि यह भारत का सबसे बड़ा मंदिर है). मंदिर का पूरा नाम “मीनाक्षी सुन्दरेश्वर मन्दिर” या “मीनाक्षी अम्मां मन्दिर” है. यह मन्दिर भगवान शिव और देवी पार्वती, जो मीनाक्षी के नाम से जानी जाती थी, को समर्पित है। मीनाक्षी मन्दिर के केन्द्र में मीनाक्षी की मूर्ति है और उससे थोड़ी ही दूर भगवान गणेश जी की एक विशाल प्रतिमा स्थापित है जिसे एक ही पत्थर को काटकर बनाया गया है।
इस मन्दिर का स्थापत्य एवं वास्तु आश्चर्यचकित कर देने वाला है, जिस कारण यह मन्दिर आधुनिक विश्व के एक आश्चर्य में परिगणित है. यह मन्दिर १२ विशाल गोपुरमों से घिरा है, जो उसकी दो परिसीमा भीत (चार दीवारी) में बने हैं। इनमें दक्षिण द्वार का गोपुरम सर्वोच्च है। इन गोपुरमों पर बडी़ महीनता एवं कुशलतापूर्वक रंग एवं चित्रकारी की गई है, जो देखते ही बनती है। इस मन्दिर का गर्भगृह ३,५०० वर्ष पुराना है, इसकी बाहरी दीवारें और अन्य बाहरी निर्माण लगभग १५००-१२०० वर्ष प्राचीन हैं। मंदिर में “आयिराम काल मण्डप” या “सहस्र स्तंभ मण्डप” (हजार खम्भोंवाला मण्डप) अत्युच्च शिल्प महत्व का है। इसमें ९८५ (न कि १,०००) भव्य तराशे हुए स्तम्भ हैं। यह भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के अनुरक्षण में है। प्रत्येक स्तंभ थाप देने पर भिन्न स्वर निकालता है. मंदिर-परिसर में ही स्वर्णकमल पुष्कर (वास्तविक नाम: पोर्थमराईकुलम) एक पवित्र सरोवर है जो कि १६५ फीट लम्बा एवं १२० फीट चौड़ा है।
मीनाक्षी मन्दिर में दर्शन का समय सुबह ५ बजे से दोपहर १२.३० बजे, शाम ४ बजे से रात ९.३० बजे तक है. एकबार दर्शन करने अवश्य जाएं.

आइए, आज विश्वप्रसिद्ध मीनाक्षी मंदिर के बारे में जानते हैं.
मदुरै (तमिलनाडु) में भारत का यह ७वा सबसे बड़ा मंदिर ४५ एकड़ भूमि में फैला है (देश के बहुत से लोगों का विश्वास है कि यह भारत का सबसे बड़ा मंदिर है). मंदिर का पूरा नाम "मीनाक्षी सुन्दरेश्वर मन्दिर" या "मीनाक्षी अम्मां मन्दिर" है. यह मन्दिर भगवान शिव और देवी पार्वती, जो मीनाक्षी के नाम से जानी जाती थी, को समर्पित है। मीनाक्षी मन्दिर के केन्द्र में मीनाक्षी की मूर्ति है और उससे थोड़ी ही दूर भगवान गणेश जी की एक विशाल प्रतिमा स्थापित है जिसे एक ही पत्थर को काटकर बनाया गया है। 
इस मन्दिर का स्थापत्य एवं वास्तु आश्चर्यचकित कर देने वाला है, जिस कारण यह मन्दिर आधुनिक विश्व के एक आश्चर्य में परिगणित है. यह मन्दिर १२ विशाल गोपुरमों से घिरा है, जो उसकी दो परिसीमा भीत (चार दीवारी) में बने हैं। इनमें दक्षिण द्वार का गोपुरम सर्वोच्च है। इन गोपुरमों पर बडी़ महीनता एवं कुशलतापूर्वक रंग एवं चित्रकारी की गई है, जो देखते ही बनती है। इस मन्दिर का गर्भगृह ३,५०० वर्ष पुराना है, इसकी बाहरी दीवारें और अन्य बाहरी निर्माण लगभग १५००-१२०० वर्ष प्राचीन हैं। मंदिर में "आयिराम काल मण्डप" या "सहस्र स्तंभ मण्डप" (हजार खम्भोंवाला मण्डप) अत्युच्च शिल्प महत्व का है। इसमें ९८५ (न कि १,०००) भव्य तराशे हुए स्तम्भ हैं। यह भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के अनुरक्षण में है। प्रत्येक स्तंभ थाप देने पर भिन्न स्वर निकालता है. मंदिर-परिसर में ही स्वर्णकमल पुष्कर (वास्तविक नाम: पोर्थमराईकुलम) एक पवित्र सरोवर है जो कि १६५ फीट लम्बा एवं १२० फीट चौड़ा है।
मीनाक्षी मन्दिर में दर्शन का समय सुबह ५ बजे से दोपहर १२.३० बजे, शाम ४ बजे से रात ९.३० बजे तक है. एकबार दर्शन करने अवश्य जाएं.
Posted in भारत का गुप्त इतिहास- Bharat Ka rahasyamay Itihaas

देश की विडम्बना


यह हमारे देश की विडम्बना ही है कि भारत को लूटने-खसोटनेवाले और हजार वर्षों तक गुलाम रखनेवाले अरब, तुर्क, पठान, मुग़ल और अंग्रेज साम्राज्यवादी आक्रांताओं के नाम पर रखे गये भवनों और सड़कों आदि के नाम स्वाधीनता के बाद भी “सेक्युलरिज्म” के नाम पर बड़ी बेशर्मी से न केवल ढोए जा रहे हैँ अपितु दासता तथा पराधीनता के इन चिन्हों को भारत की राष्ट्रीयता, स्वतंत्रता तथा एकता का प्रतीक मानने का प्रयास किया जा रहा है।
सन ११९१ में विश्वप्रसिद्ध नालंदा विश्वविद्यालय को जलाकर नष्ट करनेवाले बख्तियार खिलजी के नाम पर पटना के पास “बख्तियारपुर” शहर और स्टेशन अभी भी विद्यमान है. यह हमारे देश पर एक कलंक है I इसी प्रकार आज भी हमारे उपनगरों व सड़कों के नाम (विशेषकर राजधानी दिल्ली में) विदेशी लुटेरों और भारतविरोधी तत्वों के नाम पर रखे जा रहे है, जैसे—
तुगलक रोड,
लोदी रोड,
अकबर रोड,
औरंगजेब रोड,
शाहजहाँ रोड,
जहांगीर रोड,
लार्ड मिंटो रोड,
लारेन्स रोड,
डलहोजी रोड,
आर्थर रोड आदि-आदि।
यह सर्वविदित है कि पहले मुस्लिम पठानों तथा मुगलों ने भारत की सैकड़ों कलाकृतियों, विशाल मंदिरों, राजमहलों, विश्वविद्यालयों का ध्वंस किया। बाद में इनके खण्डहरों पर अनेक मकबरों, मस्जिदों, किलों तथा भवनों का निर्माण किया। भारत के विभिन्न क्षेत्रों में ऐसे अनेक स्थान है जहां आज भी अनेक भग्नावशेषों को देखा जा सकता है। उदाहरण के लिए दिल्ली की कुतुबमीनार, अजमेर में ढाई दिन का झोपड़ा, अयोध्या में रामजन्मभूमि मन्दिर, ताजमहल, फतेहपुरी के भवन तथा दिल्ली का लालकिला है। सोमनाथ मंदिर पर न जाने कितनी बार आक्रमण हुए। काबुल से कन्याकुमारी तक आज भी सैकड़ों नगरों, कस्बों, ग्रामों के नाम, मुख्य सड़कों के नाम इन्हीं बदले नामों से जाने जाते हैं। अंग्रेजी शासकों ने भी धूर्ततापूर्ण तथा बेशरमी से जहां जानबूझकर मुस्लिम कुकृत्यों को संरक्षण दिया वहीं अनेक स्थानों, सड़कों, भवनों को अपने नाम से जोड़ा। गौरीशंकर चोटी, एक अंग्रेज सर्वेक्षक के नाम से “माउंट एवरेस्ट” बन गई। रामसेतु को “एडम्सब्रिज” कहा जाने लगा। 1857 के अनेक क्रूर सेनापतियों के नाम से अण्डमान द्वीप के सहायक टापूओं को जोड़ दिया हयू्रोज, ओटुरम, हेवलाक, निकलसन, नील, जान लारेंस, हेनरी लारेंस आदि के नामों से उन्हें आज भी पुकारा जाता है। अंग्रेजों ने 1912 में दिल्ली को राजधानी बनाया और लाल किले को ब्रिटिश सैनिकों की छावनी बना दिया गया। शासनतंत्र को चलाने के लिए सर एडविन ल्युटिंयस के द्वारा अनेक नये भवनों का निर्माण कराया गया। यह बड़े आश्चर्य की बात है कि लगभग एक हजार साल की गुलामी के बाद भी इसे आजादी का प्रतीक स्थल समझा गया।
इसका दूरगामी दुष्परिणाम यह हुआ कि भारतीय इतिहास में विदेशियों से सतत संघर्ष करने वाले अनेक योद्धाओं के क्रियाकलापों तथा उनके स्थलों को विस्मृत करने का योजनापूर्वक प्रयास हुआ। उदाहरण बप्पारावल, राणा सांगा, महाराणा प्रताप की संघर्ष स्थली चितौड़गढ़, हिन्दवी स्वराज्य के संस्थापक शिवाजी की जन्मभूमि शिवनेरी का दुर्ग तथा उनका राज्यभिषेक स्थल रायगढ़ का दुर्ग, खालसा पंथ के निर्माता गुरु गोविन्द सिंह के आनन्दपुर साहब को इतिहास के पन्नों से निकालकर, कुछ सेकुलरवादी तथा वामपंथी लेखकों ने इन महानायकों तथा उनके पवित्र तथा शौर्य स्थलों को राष्ट्रीय धरोहर के रूप में प्रस्तुत नहीं किया। बाबर, अकबर, औरंगजेब को उन्होंने संस्कृति का महान सन्देशवाहक, उदात्त भावनाओं का परिचायक तथा जिंदा पीर तक कह डाला।
भारत के शासकों की स्वाभिमानशून्यता और निर्लज्जता ऐसी है कि वे इन शर्मनाक-स्मारकों की सुरक्षा में जुटे हुए हैं। वर्तमान सत्ताधीशों की सत्ता लोलुपता तो देखिए कि काशी और मथुरा के कलंकों की सुरक्षा के लिए उन्होंने कानून तक बना दिये हैं। यही नहीं काशी-विश्वनाथ में जलाभिषेक होता है तो सारे सेकुलर-सियार हू-हू करना शुरु कर देते हैं। मथुरा में यज्ञ करने की बात आती है तो आसमान सर पर उठा लिया जाता है। पूरी केंद्र सरकार हरकत में आ जाती है, केंद्रीय मंत्री मथुरा पहुंच जाते हैं, जबकि इन मंत्रियों को कश्मीरी विस्थापितों की सुध लेने की याद तक भी नहीं आती है।
एक ओर भारत के हुक्मरानों की यह ‘आत्मगौरवहीनता’ है तो दूसरी ओर ऐसे राष्ट्रों के उदाहरण हैं जिन्होंने गुलामी के निशानों को जड़ सहित मिटा दिया। सन् 1914-15 में रूसियों ने पोलैंड की राजधानी वार्सा को जीत लिया तो उन्होंने शहर के मुख्य चौक में एक चर्च बनवाया। रूसियों ने यह पोलैंडवासियों को निरन्तर याद करवाने के लिए बनवाया कि पोलैंड में रूस का शासन है। जब पोलैंड 1918 में आजाद हुआ तो पोलैंडवासियों ने पहला काम उस चर्च को ध्वस्त करने का किया, हालांकि नष्ट करने वाले सभी लोग ईसाई मत को माननेवाले ही थे। मैं जब पोलैंड पहुंचा तो चर्च ध्वस्त करने का काम समाप्त हुआ ही था। मैं एक चर्च को ध्वस्त करने के लिए पोलैंड को दोषी नहीं मानता क्योंकि रूस ने वह चर्च राजनीतिक कारणों से बनवाया था। उनका मन्तव्य पोल लोगों का अपमान करना था।‘’
सन 1968 में भारत के सांसदों का एक प्रतिनिधिमंडल लोकसभा के तत्कालीन अध्यक्ष नीलम संजीव रेड्डी के नेतृत्व में रूस गया। रूसी दौरे के समय सांसदों को लेनिनग्राद शहर का एक महल दिखाने भी ले जाया गया। वह रूस के ‘जार’ (राजा) का सर्दियों में रहने के लिए बनवाया गया महल था। महल को देखते समय सांसदों के ध्यांन में आया कि पूरा महल तो पुराना लगता था किन्तुय कुछ मूर्तियां नई दिखाई देती थीं। पूछताछ करने पर पता लगा कि वे मूर्तियां ग्रीक देवी-देवताओं की हैं। सांसदों में प्रसिद्ध विचारक तथा भारतीय मजदूर संघ के संस्थापक श्री दत्तोपंत ठेंगड़ी भी थे। उन्होंने सवाल किया कि, ‘आप तो धर्म और भगवान के खिलाफ हैं, फिर आपकी सरकार ने देवी-देवताओं की मूर्तियों को फिर से बनाकर यहां क्यों रखा है?’ इस पर साथ चल रहे रूसी अधिकारी ने उत्तर दिया, ‘इसमें कोई शक नहीं कि हम घोर नास्तिक हैं किन्तुत महायुद्ध के दौरान जब हिटलर की सेनाएं लेनिनग्राद पर पहुंच गई तो वहां हम लोगों ने उनसे जमकर संघर्ष किया। इस कारण जर्मन लोग चिढ़ गये और हमारा अपमान करने के लिए उन्हों ने यहां की देवी-देवताओं की प्राचीन मूर्तियां तोड़ दी। इसके पीछे यही भाव था कि रूस का राष्ट्रीय अपमान किया जाये। हमारी दृष्टि में हमें ही नीचा दिखाया जाये। इस कारण हमने भी प्रण किया कि महायुद्ध में हमारी विजय होने के पश्चात् राष्ट्रीय सम्मान की पुनर्स्थापना करने के लिए हम इन देवताओं की मूर्तियां फिर से स्थापित करेंगे। रूसी अधिकारी ने आगे कहा कि, ‘हम तो नास्तिक हैं ही किन्तु मूर्तिभंजन का काम हमारा अपमान करने के लिए किया गया था और इसलिए इस राष्ट्रीय अपमान को धो डालने के लिए हमने इन मूर्तियों का पुनर्निर्माण किया।‘ ये मूर्तियां आज भी जार के ‘विन्टशर पैलेस’ में रखी हैं और सैलानियों के मन में कौतुहल जगाती हैं I
दक्षिण कोरिया अनेक वर्षों तक जापान के कब्जेय में रहा है। जापानी सत्ताधारियों ने अपनी शासन सुविधा के लिए राजधानी सिओल के बीचों-बीच एक भव्य इमारत बनाई और उसका नाम ‘कैपिटल बिल्डिंग’ रखा। इस समय इस भवन में कोरिया का राष्ट्रीय संग्रहालय है। इस संग्रहालय में अनेक प्राचीन वस्तुओं के साथ जापानियों के अत्यााचारों के भी चित्रा हैं।
वर्ष 1995 में दक्षिण कोरिया को आजाद हुए पचास वर्ष पूरे हो रहे हैं। अत: वहां की सरकार आजादी का स्व र्ण जयंती वर्ष’ धूमधाम से मनाने की तैयारी कर रही है। इस स्वतंत्राता प्राप्ति की स्व र्णा जयंती महोत्साव का एक प्रमुख कार्यक्रम होगा ‘कैपिटल बिल्डिंग’ को ध्ववस्त करना। दक्षिण कोरिया की सरकार ने इस विशाल भवन को गिराने का निर्णय ले लिया है। इसमें स्थित संग्रहालय को नये बन रहे दूसरे भवन में ले जाया जायेगा। इस पूरी कार्रवाई में 1200 करोड़ रुपये खर्च होंगे।
यह समाचार 2 मार्च 1995 को बी.बी.सी. पर प्रसारित हुआ था। कार्यक्रम में ‘कैपिटल बिल्डिंग’ को भी दिखाया गया। इस भवन में स्थित ‘राष्ट्रीय वस्तु संग्रहालय’ के संचालक से बीबीसी संवाददाता की बातचीत भी दिखाई गई। जब उनसे इस इमारत को नष्ट करने का कारण पूछा गया तो संचालक महोदय ने बताया कि, ‘इस इमारत को देखते ही हमें जापान द्वारा हम पर लादी गई गुलामी की याद आ जाती है। इसको गिराने से जापान और दक्षिण कोरिया के बीच सम्बंकधों का नया दौर शुरु हो सकेगा। इसके पीछे बना हमारे राजा का महल लोगों की नजरों से ओझल रहे यही इसको बनाने का उद्देश्यख था और इसी कारण हम इसको गिराने जा रहे हैं।‘ दक्षिण कोरिया की जनता ने भी सरकार के इस निर्णय का उत्सा हपूर्वक स्वाहगत किया। (यह भवन उसी वर्ष ध्व स्तह कर दिया गया।)
पांच सौ साल पुराने गुलामी के निशान मिटाये कुछ वर्ष पहले तक युगोस्लाीविया एक राज्ये था जिसके अन्त र्गत कई राष्ट्र थे। साम्य वाद के समाप्तप होते ही ये सभी राष्ट्र स्व्तंत्र हो गये तथा सर्बिया, क्रोशिया, मान्टेदनेग्रो, बोस्निया हर्जेगोविना आदि अलग-अलग नाम से देश बन गये। बोस्निया में अभी भी काफी संख्याय में सर्ब लोग हैं। ऐसे क्षेत्रों में जहां सर्ब काफी संख्याग में हैं, इस समय (सन् 1995) सर्बियाई तथा बोस्निया की सेना में युद्ध चल रहा है। इस साल के शुरु में सर्ब सैनिकों ने बोस्निया के कब्जेैवाला एक नगर ‘इर्वोनिक’ अपने अधिकार में ले लिया।
इर्वोनिक की एक लाख की आबादी में आधे सर्ब हैं और शेष मुसलमान। सर्ब फौजों के कब्जे के बाद मुसलमान इस शहर से भाग गये तथा बोस्निया के ईसाई यहां आ गये। ब्रंकों ग्रूजिक नाम के एक सर्ब नागरिक को शहर का महापौर भी बना दिया गया। महापौर ने सबसे पहले यह काम किया कि नगर के बाहर बहने वाली ड्रिना नदी के किनारे बनी एक टेकड़ी पर एक ‘क्रास’ लगा दिया। महापौर ने बताया कि, ‘इस स्थानन पर हमारा चर्च था जिसे तुर्की के लोगों ने सन् 1463 में ध्वेस्तन कर डाला था। अब हम उस चर्च को इसी स्थाौन पर पुन: नये सिरे से खड़ा करेंगे।‘ श्री ग्रूजिक ने यह भी कहा कि तुर्कों की चार सौ साल की सत्ता में उनके द्वारा खड़े किये गये सारे प्रतीक मिटाये जाएंगे। उसी टेकड़ी पर पुराने तुर्क साम्राज्यक के रूप में एक मीनार खड़ी थी उसे सर्बों ने ध्व़स्ता कर दिया। टेकड़ी के नीचे ‘रिजे कॅन्का् ’ नाम की एक मस्जिद को भी बुलडोजर चलाकर मटियामेट कर दिया गया। यह विस्तृेत समाचार अमरीकी समाचार पत्र हेरल्डे ट्रिब्युरन में 8 मार्च 1995 को छपा। समाचार लाने वाला संवाददाता लिखता है कि उस टेकड़ी पर पांच सौ साल पहले नष्टा किये गये चर्च की एक घंटी पड़ी हुई थी। महापौर ने अस्थाायी क्रॉस पर घंटी टांककर उसको बजाया। घंटी गुंजायमान होने के बाद महापौर ने कहा कि, ‘मैं परमेश्वेर से प्रार्थना करता हूं कि वह क्लिंटन (अमरीकी राष्ट्र पति) को थोड़ी अक्लौ दे ताकि वह मुसलमानों का साथ छोड़कर उसके सच्चेए मित्र ईसाइयों का साथ दे।
नेताजी सुभाषचन्द्र बोस जब कलकत्ता महानगर पालिका के मुख्य कार्यकारी अधिकारी बनाये गये तो उन्होंने कलकत्ता महानगरपालिका का पूरा तंत्र एवं उसकी कार्यपद्धति तथा कोलकाता के रास्तों के नाम बदलकर उन्हें भारतीय नाम दे दिये थे। कुछ इसी तरह का काम समाजवादी नेता राजनारायण (1917-1986) ने भी किया। उन्होंने बनारस के प्रसिद्ध बेनियाबाग में ब्रिटेन की महारानी विक्टोरिया की स्थापित प्रतिमा के टुकडे-टुकडे कर गुलामी के प्रतीक को मिट्टी में मिला दिया। हालांकि उनके इस कृत्य के लिये पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया था, परंतु आज उसी पार्क को “लोकबन्धु राजनारायण पार्क” के नाम से जाना जाता है। जबतक सत्ता की भूख नेताओं के सर पर सवार नहीं हुई थी, गुलामी के प्रतीकों को मिटाने का प्रयत्न किया गया। नागपुर के विधानसभा भवन के सामने लगी रानी विक्टोरिया की संगमरमर की मूर्ति आजादी के बाद हटा दी गई। मुम्बई के काला घोड़ा स्थान पर घोड़े पर सवार इंग्लैंड के राजा की प्रतिमा हटाई गई। विक्टोरिया, एडवर्ड और जार्ज v से जुड़े अस्पताल, भवन, सड़कों आदि तक के नाम बदले गये। लेकिन जब सत्ता का स्वार्थ और चाहे जैसे हो सत्ता में बने रहने की अंधी लालसा जगी तो दिल्ली की सड़कों के नाम अकबर, जहांगीर, शाहजहां तथा औरंगजेब रोड तक रख दिये गये। बिहार के भ्रष्टतम मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव ने पटना का नाम “अजीमाबाद” करवाने के लिए अथक प्रयास किया I खान्ग्रेस सरकार ने प्रारभ से ही अपने कार्यकाल में बनवाए भवनों, सडकों और स्मारकों के नाम जवाहर, इंदिरा और राजीव के नाम से रखने की नीति रखी जैसे इन नेताओं ने ही देश के लिए सबकुछ किया I
समस्त देशवासी तनिक विचार करें, राष्ट्रद्रोहियों और आतंकवादियों के नामों का इस प्रकार से भारत पर जबरदस्ती थोपा जाना एक षडयंत्र नहीं है क्या ..? ए.ओ. ह्यूम द्वारा स्थापित और सम्प्रति Edvige Antonia Albina Màino (सोनिया गांधी) द्वारा पोषित महानीच खान्ग्रेस-सरकार की भारतविरोधी नीति और मानसिक एवं वैचारिक गुलामी की यह एक झलकमात्र है I जिस देश का प्रधानमंत्री ही एक विदेशी औरत का पालतू कुत्ता है, वहां इनसे परिवर्तन की क्या अपेक्षा की जा सकती है ?
हम भारतीयों का पुनीत कर्तव्य है कि गुलामी के प्रतीक इन नामों के परिवर्तन के लिए देशव्यापी अभियान प्रारंभ करें। देश में सत्ता-परिवर्तन होने जा रहा है. खान्ग्रेस का जहाज डूब रह है. इस परिवर्तन में यह कार्य सम्भव है.
(विषय की परिपूर्णता के लिए इस पोस्ट के कुछ अंश साभार ग्रहण किये गए हैं)

Posted in हिन्दू पतन

क्या मुसलमान असुर हैं ?


क्या मुसलमान असुर हैं ?
विद्वानों के एक वर्ग (विश्वप्रसिद्ध प्राच्यविद् प्रो. हरवंशलाल ओबराय (1925-1983), पद्मश्री वचनेश त्रिपाठी ‘साहित्येन्दु’(1914-2006) इत्यादि) का मत है कि ‘काबा’ शब्द की व्युत्पत्ति ‘काव्य’ शब्द से हुई है, जो दैत्य-गुरु शुक्राचार्य का नाम व उपाधि है। शिवोपासना की दो परम्पराएँ हैं । पहला, वे जो सात्त्विक भाव से दिव्य गुणों को पाने के लिए सोमवार को (सोम = चन्द्र शिव को इतना प्रिय है कि वे इसे सिर पर धारण करते हैं) शिवाराधना करते हैं। दूसरे वे लोग हैं जो सम्पत्ति, शक्ति, इन्द्रिय-सुख और अहं, जो दूसरों को सताने के लिए आवश्यक है (जैसे रावण, त्रिपुरासुर, भस्मासुर आदि ने किया), आदि असुर-सम्पदा के लिए दैत्य-गुरु शुक्राचार्य के दिन शुक्रवार को शिवोपासना करते हैं । (‘Scholars are of the opinion that the word KAABA is derived from the word KAVYA, which is the name and the title of KAVI SHUKRACHARYA in all Sanskrit lexicons there are two tradi­tions of Shiva worship. Those who want to worship Shiva for divine virtues of noble life; they worship SHIV on the Monday the day of the Moon (which is so dear to Him that he has made it as His Crest-Jewel). Those who want to worship Shiva for Wealth, Power, Lust and Ego; essential for plundering others (as done by Ravana, Tripasuara, Bhasmasura etc.) they worship Shiva for Asur, Sampada on Friday (Shukra Var)’—Influence of Hindu Culture on Various Religion, pp. 8-9)
अति प्राचीनकाल में अर्वस्थान में तमोगुणी असुर अपने गुरु शुक्राचार्य की उपासना करते थे। शुक्राचार्य कवि के पुत्र थे, इसलिए उन्हें जैमिनीयब्राह्मण (1.125) में ‘उशना काव्य’ भी कहा गया है— ‘बृहस्पतिर्देवानां पुरोहित आसीदुशना काव्योऽसुराणाम् I’. अर्थात्, ‘बृहस्पति देवों के पुरोहित थे और उशना काव्य (शुक्राचार्य) असुरों के’। इनका मन्दिर मक्का में स्थापित था। यही ‘काव्य’ कालांतर में ‘काबा’ अभिहित हुआ। इसी कारण अरबी-भाषा में शुक्र का अर्थ ‘बड़ा’ अर्थात् जुम्मा किया गया और यह कोई संयोग नहीं है कि इसी से अरबवासियों ने सामूहिक प्रार्थना के लिए शुक्रवार का चयन किया। (‘…the day in the memory of Shukracharya, the priest of the Asuras. It is interesting coinci­dence that Arabs have selected Friday for their Congregational prayers.’ —Influence of Hindu Culture on Various Religion, pp.8-9)
विद्वानों के एक दूसरे वर्ग का मत है कि काबा तमिल भाषा का शब्द है। यह तमिलनाडु-स्थित ‘कबालेश्वर मन्दिर’, जिसमें शिव को ‘कबाली’ कहा गया है, से उद्भूत है। इस निष्कर्ष से भी काबा, प्रागैस्लामी ‘कबालीश्वरम् मन्दिर’ ही सिद्ध होता है।

क्या मुसलमान असुर हैं ?
विद्वानों के एक वर्ग (विश्वप्रसिद्ध प्राच्यविद् प्रो. हरवंशलाल ओबराय (1925-1983), पद्मश्री वचनेश त्रिपाठी ‘साहित्येन्दु’(1914-2006) इत्यादि) का मत है कि ‘काबा’ शब्द की व्युत्पत्ति ‘काव्य’ शब्द से हुई है, जो दैत्य-गुरु शुक्राचार्य का नाम व उपाधि है। शिवोपासना की दो परम्पराएँ हैं । पहला, वे जो सात्त्विक भाव से दिव्य गुणों को पाने के लिए सोमवार को (सोम = चन्द्र शिव को इतना प्रिय है कि वे इसे सिर पर धारण करते हैं) शिवाराधना करते हैं। दूसरे वे लोग हैं जो सम्पत्ति, शक्ति, इन्द्रिय-सुख और अहं, जो दूसरों को सताने के लिए आवश्यक है (जैसे रावण, त्रिपुरासुर, भस्मासुर आदि ने किया), आदि असुर-सम्पदा के लिए दैत्य-गुरु शुक्राचार्य के दिन शुक्रवार को शिवोपासना करते हैं । ('Scholars are of the opinion that the word KAABA is derived from the word KAVYA, which is the name and the title of KAVI SHUKRACHARYA in all Sanskrit lexicons there are two tradi­tions of Shiva worship. Those who want to worship Shiva for divine virtues of noble life; they worship SHIV on the Monday the day of the Moon (which is so dear to Him that he has made it as His Crest-Jewel). Those who want to worship Shiva for Wealth, Power, Lust and Ego; essential for plundering others (as done by Ravana, Tripasuara, Bhasmasura etc.) they worship Shiva for Asur, Sampada on Friday (Shukra Var)'—Influence of Hindu Culture on Various Religion, pp. 8-9)
अति प्राचीनकाल में अर्वस्थान में तमोगुणी असुर अपने गुरु शुक्राचार्य की उपासना करते थे। शुक्राचार्य कवि के पुत्र थे, इसलिए उन्हें जैमिनीयब्राह्मण (1.125) में ‘उशना काव्य’ भी कहा गया है— ‘बृहस्पतिर्देवानां पुरोहित आसीदुशना काव्योऽसुराणाम् I’. अर्थात्, ‘बृहस्पति देवों के पुरोहित थे और उशना काव्य (शुक्राचार्य) असुरों के’। इनका मन्दिर मक्का में स्थापित था। यही ‘काव्य’ कालांतर में ‘काबा’ अभिहित हुआ। इसी कारण अरबी-भाषा में शुक्र का अर्थ ‘बड़ा’ अर्थात् जुम्मा किया गया और यह कोई संयोग नहीं है कि इसी से अरबवासियों ने सामूहिक प्रार्थना के लिए शुक्रवार का चयन किया। ('...the day in the memory of Shukracharya, the priest of the Asuras. It is interesting coinci­dence that Arabs have selected Friday for their Congregational prayers.' —Influence of Hindu Culture on Various Religion, pp.8-9)
विद्वानों के एक दूसरे वर्ग का मत है कि काबा तमिल भाषा का शब्द है। यह तमिलनाडु-स्थित ‘कबालेश्वर मन्दिर’, जिसमें शिव को ‘कबाली’ कहा गया है, से उद्भूत है। इस निष्कर्ष से भी काबा, प्रागैस्लामी ‘कबालीश्वरम् मन्दिर’ ही सिद्ध होता है।
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‘जन गण मन अधिनायक जय हे’ में ‘अधिनायक’ कौन है ?


‘जन गण मन अधिनायक जय हे’ में ‘अधिनायक’ कौन है ?
‘जन गण मन’ भारत का राष्ट्रगान है, जो मूलतः बांग्ला-भाषा में गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर (1861-1941) द्वारा 1911 में लिखा गया था।
सन 1911 तक भारत की राजधानी कलकत्ता हुआ करती थी। सन 1905 में जब बंगाल-विभाजन को लेकर अंग्रेजों के खिलाफ बंग-भंग आन्दोलन के विरोध में बंगाल के लोग उठ खड़े हुए तो अंग्रेजों ने अपने को बचाने के लिए भारत की राजधानी कलकत्ता से हटाकर दिल्ली ले गए और 1912 में दिल्ली को राजधानी घोषित कर दिया। इस समय जब पूरे भारत में लोग विद्रोह से भरे हुए थे, अंग्रेजों ने इंग्लैंड के राजा किंग जार्ज V (1910-1936) को भारत आमंत्रित किया ताकि लोग शांत हो जाएं.
किंग जार्ज V 12 दिसंबर, 1911 में भारत में आया तो अंग्रेजों ने रवींद्रनाथ ठाकुर पर दबाव बनाया कि तुम्हें एक गीत राजा के स्वागत में लिखना होगा. उस समय रवींद्रनाथ का परिवार अंग्रेजों के काफी नजदीक हुआ करता था, उनके परिवार के बहुत से लोग ईस्ट इंडिया कंपनी के लिए काम किया करते थे. रवींद्रनाथ के दादा द्वारकानाथ ठाकुर (1794-1846) ने बहुत दिनों तक ईस्ट इंडिया कंपनी की नौकरी की. जब किंग जार्ज V भारत आए थे, तब रवींद्रनाथ के परिवार के एक सदस्य को उनके सिर पर छतरी तानने का जिम्मा दिया गया था।
किंग जार्ज V की स्तुति में रवींद्रनाथ ठाकुर ने जो गीत लिखा, उसके बोल हैं : “जन गण मन अधिनायक जय हे भारत भाग्य विधाता”. इस गीत के सारे-के-सारे शब्दों में जार्ज V का गुणगान है, जिसका अर्थ “भारत के नागरिक, भारत की जनता अपने मन से आपको भारत का भाग्य विधाता समझती है और मानती है हे अधिनायक (सुपर हीरो), तुम्हीं भारत के भाग्य विधाता हो, तुम्हारी जय हो ! जय हो ! जय हो ! तुम्हारे भारत आने से सभी प्रान्त पंजाब, सिंध, गुजरात, मराठा मतलब महाराष्ट्र, द्रविड़ मतलब दक्षिण भारत, उत्कल मतलब उड़ीसा, बंगाल आदि और जितनी भी नदियां, जैसे— यमुना और गंगा— ये सभी हर्षित हैं खुश हैं प्रसन्न हैं तुम्हारा नाम लेकर ही हम जागते हैं और तुम्हारे नाम का आशीर्वाद चाहते तुम्हारी ही हम गाथा गाते हैं. हे भारत के भाग्यविधाता (सुपर हीरो) तुम्हारी जय हो”
परन्तु यह गीत जार्ज V के स्वागत में 12 दिसंबर, 1911 को दिल्ली-दरबार में नहीं गाया गया। जार्ज जब इंग्लैंड चला गया तो उसने उस जन गण मन का अंग्रेजी में अनुवाद करवाया। जार्ज ने जब इस गीत का अंग्रेजी अनुवाद सुना तो वह बोला कि इतना सम्मान और इतनी खुशामद तो मेरी आज तक इंग्लॅण्ड में भी किसी ने नहीं की। खुश होकर उसने आदेश दिया कि रवीन्द्रनाथ ठाकुर को इंग्लैंड बुलाया जाये। रवीन्द्रनाथ ठाकुर इंग्लैंड गए। जार्ज V उस समय नोबल पुरस्कार समिति का अध्यक्ष भी था। उसने रवीन्द्रनाथ ठाकुर को नोबल पुरस्कार से सम्मानित करने का फैसला किया। तो रवीन्द्रनाथ ने नोबल पुरस्कार को लेने से मना कर दिया, क्योंकि गाँधीजी ने रवीन्द्रनाथ को उनके इस गीत के लिए खूब डांटा था। रवीन्द्रनाथ ने कहा की आप मुझे नोबल पुरस्कार देना ही चाहते हैं तो मैंने एक ‘गीतांजलि’ नामक रचना लिखी है उस पर मुझे दे दो लेकिन इस गीत के नाम पर मत दो और यही प्रचारित किया जाये क़ि मुझे जो नोबेल पुरस्कार दिया गया है वो ‘गीतांजलि’ नामक रचना पर दिया गया है। जार्ज V मान गया और रवीन्द्रनाथ को सन 1913 में गीतांजलि नामक रचना पर नोबल पुरस्कार दिया गया।
रवींद्रनाथ ठाकुर के बहनोई, सुरेन्द्रनाथ बनर्जी लन्दन में रहते थे और IPS ऑफिसर थे. रवींद्रनाथ ने अपने बहनोई को एक पत्र लिखा | इसमें उन्होंने लिखा कि ये गीत “जन गण मन अंग्रेजों द्वारा मुझ पर दबाव डलवाकर लिखवाया गया है. इसके शब्दों का अर्थ अच्छा नहीं है. इसको न गाया जाये तो अच्छा है.” लेकिन अंत में उन्होंने लिख दिया कि इस चिठ्ठी को किसी को नहीं बताया जाये. लेकिन कभी मेरी म्रत्यु हो जाये तो सबको बता दे |
दिल्ली-दरबार के बाद हुए कांग्रेस के कलकत्ता-अधिवेशन (27 दिसम्बर, 1911) में ‘जन गण मन’ गीत को दोनों भाषाओं में (बांग्ला और हिन्दी) गाया गया। अगले दिन अख़बारों में प्रकाशित हुआ :
* अधिवेशन की कार्रवाई रवींद्रनाथ ठाकुर के लिखे एक गीत से शुरू हुई। ठाकुर का यह गीत राजा पंचम जॉर्ज के स्वागत के लिए खास तौर से लिखा गया था। (द इंग्लिश मैन, कलकत्ता)
* कांग्रेस का अधिवेशन रवींद्रनाथ ठाकुर के लिखे एक गीत से शुरू हुआ। जॉर्ज पंचम के लिए लिखा यह गीत अंग्रेज प्रशासन ने बेहद पसंद किया है। (अमृत बाजार पत्रिका, कलकत्ता)
कांग्रेस तब अंग्रेज वफादारों का संगठन था। 1947 में भारत के स्वाधीन होने के बाद संविधान सभा में इस बात पर लंबी बहस चली कि राष्ट्रगान ‘वंदे मातरम’ हो या ‘जन-गण-मन’। अंत में ज्यादा वोट ‘वंदे मातरम’ के पक्ष में पड़े, लेकिन जवाहरलाल नेहरू ‘जन गण मन’ को ही राष्ट्रगान बनाना चाहते थे। अंततोगत्वा संविधान सभा ने 24 जनवरी, 1950 को जन-गण-मन को ‘भारत के राष्ट्रगान’ के रुप में स्वीकार कर लिया. स्वाधीनता-आंदोलन के समय से ही ‘वंदे मातरम्’ को राष्ट्रीय गीत की हैसियत मिली हुई थी, लेकिन उसे मुसलमान मानने को तैयार नहीं थे। सो, ‘जन−गण−मन’ अपना राष्ट्रगान हो गया।

‘जन गण मन अधिनायक जय हे’ में 'अधिनायक' कौन है ?
‘जन गण मन’ भारत का राष्ट्रगान है, जो मूलतः बांग्ला-भाषा में गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर (1861-1941) द्वारा 1911 में लिखा गया था।
सन 1911 तक भारत की राजधानी कलकत्ता हुआ करती थी। सन 1905 में जब बंगाल-विभाजन को लेकर अंग्रेजों के खिलाफ बंग-भंग आन्दोलन के विरोध में बंगाल के लोग उठ खड़े हुए तो अंग्रेजों ने अपने को बचाने के लिए भारत की राजधानी कलकत्ता से हटाकर दिल्ली ले गए और 1912 में दिल्ली को राजधानी घोषित कर दिया। इस समय जब पूरे भारत में लोग विद्रोह से भरे हुए थे, अंग्रेजों ने इंग्लैंड के राजा किंग जार्ज V (1910-1936) को भारत आमंत्रित किया ताकि लोग शांत हो जाएं.
किंग जार्ज V 12 दिसंबर, 1911 में भारत में आया तो अंग्रेजों ने रवींद्रनाथ ठाकुर पर दबाव बनाया कि तुम्हें एक गीत राजा के स्वागत में लिखना होगा. उस समय रवींद्रनाथ का परिवार अंग्रेजों के काफी नजदीक हुआ करता था, उनके परिवार के बहुत से लोग ईस्ट इंडिया कंपनी के लिए काम किया करते थे. रवींद्रनाथ के दादा द्वारकानाथ ठाकुर (1794-1846) ने बहुत दिनों तक ईस्ट इंडिया कंपनी की नौकरी की. जब किंग जार्ज V भारत आए थे, तब रवींद्रनाथ के परिवार के एक सदस्य को उनके सिर पर छतरी तानने का जिम्मा दिया गया था।
किंग जार्ज V की स्तुति में रवींद्रनाथ ठाकुर ने जो गीत लिखा, उसके बोल हैं : "जन गण मन अधिनायक जय हे भारत भाग्य विधाता". इस गीत के सारे-के-सारे शब्दों में जार्ज V का गुणगान है, जिसका अर्थ "भारत के नागरिक, भारत की जनता अपने मन से आपको भारत का भाग्य विधाता समझती है और मानती है हे अधिनायक (सुपर हीरो), तुम्हीं भारत के भाग्य विधाता हो, तुम्हारी जय हो ! जय हो ! जय हो ! तुम्हारे भारत आने से सभी प्रान्त पंजाब, सिंध, गुजरात, मराठा मतलब महाराष्ट्र, द्रविड़ मतलब दक्षिण भारत, उत्कल मतलब उड़ीसा, बंगाल आदि और जितनी भी नदियां, जैसे— यमुना और गंगा— ये सभी हर्षित हैं खुश हैं प्रसन्न हैं तुम्हारा नाम लेकर ही हम जागते हैं और तुम्हारे नाम का आशीर्वाद चाहते तुम्हारी ही हम गाथा गाते हैं. हे भारत के भाग्यविधाता (सुपर हीरो) तुम्हारी जय हो"
परन्तु यह गीत जार्ज V के स्वागत में 12 दिसंबर, 1911 को दिल्ली-दरबार में नहीं गाया गया। जार्ज जब इंग्लैंड चला गया तो उसने उस जन गण मन का अंग्रेजी में अनुवाद करवाया। जार्ज ने जब इस गीत का अंग्रेजी अनुवाद सुना तो वह बोला कि इतना सम्मान और इतनी खुशामद तो मेरी आज तक इंग्लॅण्ड में भी किसी ने नहीं की। खुश होकर उसने आदेश दिया कि रवीन्द्रनाथ ठाकुर को इंग्लैंड बुलाया जाये। रवीन्द्रनाथ ठाकुर इंग्लैंड गए। जार्ज V उस समय नोबल पुरस्कार समिति का अध्यक्ष भी था। उसने रवीन्द्रनाथ ठाकुर को नोबल पुरस्कार से सम्मानित करने का फैसला किया। तो रवीन्द्रनाथ ने नोबल पुरस्कार को लेने से मना कर दिया, क्योंकि गाँधीजी ने रवीन्द्रनाथ को उनके इस गीत के लिए खूब डांटा था। रवीन्द्रनाथ ने कहा की आप मुझे नोबल पुरस्कार देना ही चाहते हैं तो मैंने एक ‘गीतांजलि’ नामक रचना लिखी है उस पर मुझे दे दो लेकिन इस गीत के नाम पर मत दो और यही प्रचारित किया जाये क़ि मुझे जो नोबेल पुरस्कार दिया गया है वो ‘गीतांजलि’ नामक रचना पर दिया गया है। जार्ज V मान गया और रवीन्द्रनाथ को सन 1913 में गीतांजलि नामक रचना पर नोबल पुरस्कार दिया गया।
रवींद्रनाथ ठाकुर के बहनोई, सुरेन्द्रनाथ बनर्जी लन्दन में रहते थे और IPS ऑफिसर थे. रवींद्रनाथ ने अपने बहनोई को एक पत्र लिखा | इसमें उन्होंने लिखा कि ये गीत “जन गण मन अंग्रेजों द्वारा मुझ पर दबाव डलवाकर लिखवाया गया है. इसके शब्दों का अर्थ अच्छा नहीं है. इसको न गाया जाये तो अच्छा है.” लेकिन अंत में उन्होंने लिख दिया कि इस चिठ्ठी को किसी को नहीं बताया जाये. लेकिन कभी मेरी म्रत्यु हो जाये तो सबको बता दे |
दिल्ली-दरबार के बाद हुए कांग्रेस के कलकत्ता-अधिवेशन (27 दिसम्बर, 1911) में ‘जन गण मन’ गीत को दोनों भाषाओं में (बांग्ला और हिन्दी) गाया गया। अगले दिन अख़बारों में प्रकाशित हुआ :
* अधिवेशन की कार्रवाई रवींद्रनाथ ठाकुर के लिखे एक गीत से शुरू हुई। ठाकुर का यह गीत राजा पंचम जॉर्ज के स्वागत के लिए खास तौर से लिखा गया था। (द इंग्लिश मैन, कलकत्ता)
* कांग्रेस का अधिवेशन रवींद्रनाथ ठाकुर के लिखे एक गीत से शुरू हुआ। जॉर्ज पंचम के लिए लिखा यह गीत अंग्रेज प्रशासन ने बेहद पसंद किया है। (अमृत बाजार पत्रिका, कलकत्ता)
कांग्रेस तब अंग्रेज वफादारों का संगठन था। 1947 में भारत के स्वाधीन होने के बाद संविधान सभा में इस बात पर लंबी बहस चली कि राष्ट्रगान ‘वंदे मातरम’ हो या ‘जन-गण-मन’। अंत में ज्यादा वोट ‘वंदे मातरम’ के पक्ष में पड़े, लेकिन जवाहरलाल नेहरू ‘जन गण मन’ को ही राष्ट्रगान बनाना चाहते थे। अंततोगत्वा संविधान सभा ने 24 जनवरी, 1950 को जन-गण-मन को ‘भारत के राष्ट्रगान’ के रुप में स्वीकार कर लिया. स्वाधीनता-आंदोलन के समय से ही ‘वंदे मातरम्’ को राष्ट्रीय गीत की हैसियत मिली हुई थी, लेकिन उसे मुसलमान मानने को तैयार नहीं थे। सो, 'जन−गण−मन' अपना राष्ट्रगान हो गया।
Posted in Secular

सेक्युलर


 
 
राजीव दीक्षित जी ने सेक्युलर(धर्म निरपेक्ष) पर बहुत अच्छी बात कही थी..!
______________________________________________________
हां मैं सेक्युलर नहीं हूँ मैं हिन्दू हूँ !

मेरा तो धर्म ही मुझे सिखाता है की निर्दोष चींटी को ना मारो,पेड़ ना काटो , सभी धर्मो का आदर एंव सम्मान करो, दृष्टो के साथ कभी न रहो बल्कि देश,धर्म और अपनी सभ्यता-संस्कृति के लिए अन्याय एंव दृष्टो के सामने जंग करो,लोगो का कल्याण करो नदी,पर्वत,वृक्ष सब इस प्रकृति हिस्सा है इसका सम्मान करो !

अगर मैं धर्म के निरपेक्ष हो गया(धर्मनिरपेक्ष) तो ये सब भूल जाऊंगा जो मुझे मेरे धर्म ने सिखाया है मैं धर्म निरपेक्ष बन गया तो असत्य का साथ लूँगा,निर्दोष लोगो को मारने लगूंगा और मैं हैवान बन जाऊंगा,पेड़ पोधे प्राणी आदिओ का संहार करके प्रकृति ख़त्म कर दूंगा !

तो मैं धर्म निरपेक्ष नहीं हूँ ., मैं हिन्दू हूँ ! दुनिया कहती हैं इंसान बनो लेकिन हमारा धर्म तो हमे इंसान से भी कुछ आगे बनने की शिक्षा देता है 

Must Click

http://www.youtube.com/watch?v=BR-lLpzi7JE
#शैलेन्द्र

राजीव दीक्षित जी ने सेक्युलर(धर्म निरपेक्ष) पर बहुत अच्छी बात कही थी..!
______________________________________________________
हां मैं सेक्युलर नहीं हूँ मैं हिन्दू हूँ !

मेरा तो धर्म ही मुझे सिखाता है की निर्दोष चींटी को ना मारो,पेड़ ना काटो , सभी धर्मो का आदर एंव सम्मान करो, दृष्टो के साथ कभी न रहो बल्कि देश,धर्म और अपनी सभ्यता-संस्कृति के लिए अन्याय एंव दृष्टो के सामने जंग करो,लोगो का कल्याण करो नदी,पर्वत,वृक्ष सब इस प्रकृति हिस्सा है इसका सम्मान करो !

अगर मैं धर्म के निरपेक्ष हो गया(धर्मनिरपेक्ष) तो ये सब भूल जाऊंगा जो मुझे मेरे धर्म ने सिखाया है मैं धर्म निरपेक्ष बन गया तो असत्य का साथ लूँगा,निर्दोष लोगो को मारने लगूंगा और मैं हैवान बन जाऊंगा,पेड़ पोधे प्राणी आदिओ का संहार करके प्रकृति ख़त्म कर दूंगा !

तो मैं धर्म निरपेक्ष नहीं हूँ ., मैं हिन्दू हूँ ! दुनिया कहती हैं इंसान बनो लेकिन हमारा धर्म तो हमे इंसान से भी कुछ आगे बनने की शिक्षा देता है

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‪#‎शैलेन्द्र‬

Posted in रामायण - Ramayan

क्या हैं राम


*******क्या हैं राम *********
रावण सीता को समझा समझा कर हार
गया था पर सीता ने रावण की तरफ
एक बार देखा तक नहीं,
तब मंदोदरी ने उपाय
बताया कि तुम राम बन के सीता के
पास जाओ वो तुम्हे जरूर देखेगी।

रावण ने कहा – मैं ऐसा कई बार कर चुका हू
मंदोदरी – तब क्या सीता ने
आपकी ओर देखा
रावण – मैं खुद सीता को नहीं देख सका
“क्योंकि मैं जब-जब राम
बनता हूँ मुझे परायी
नारी अपनी माता और
अपनी पुत्री सी दिखती है।”

अपने अंदर राम को ढूंढे, ये सबसे बड़ा तोहफा होगा बहनो के
लिए रक्षाबंधन का !

Posted in हिन्दू पतन

कौन है यजीदी ? क्या उनका धर्म है ?


कौन है यजीदी ? क्या उनका धर्म है ?
इराक के सुन्नी मुसलमान हत्यारों के संगठन ISIS ने यजीदियो की हत्याये शुरू कर दी.जान बचाने के लिए 50,000 यजीदियो ने उत्तर-पश्चिमी इराक़ के पहाड़ों पर शरण ले रखी है.
पारंपरिक रूप से यज़ीदी उत्तर-पश्चिमी इराक़, उत्तर-पश्चिमी सीरिया और दक्षिण-पूर्वी तुर्की में छोटे-छोटे समुदायों में रहते रहे हैं.
उनकी मौजूदा संख्या का सटीक अनुमान लगाना मुश्किल है. आकलनों के मुताबिक़ उनकी तादाद 70 हज़ार से लेकर पांच लाख तक है.

मुस्लिमो द्वारा अपमान, उत्पीड़न,हत्याये,जबरदस्ती धर्मान्तरण किये जाने से पिछली एक सदी में उनकी तादाद में भारी गिरवाट आई है.

द्रूज़ जैसे अन्य अल्पसंख्यक धर्मों की तरह कोई भी धर्मांतरण करके यज़ीदी नहीं बन सकता. सिर्फ़ इस धर्म में पैदा होकर ही यज़ीदी बना जा सकता है.

इस्लामिक स्टेट जैसे चरमपंथी समूहों को लगता है कि यह धर्म उमैयद राजवंश के दूसरे ख़लीफ़ा और मुसलमानों में बेहद अलोकप्रिय शासक यज़ीद इब्न मुआविया (647-683) से निकला है.

यद्यपि शोध से पता चलता है कि यज़ीदियों का यज़ीद या ईरानी शहर यज़्द से कोई लेना-देना नहीं. उनका संबंध फ़ारसी भाषा के ‘इज़ीद’ से है, जिसके मायने फ़रिश्ता या देवता हैं.

उनकी बहुत सी मान्यताएं हिन्दू धर्म, मुसलमानों और ईसाइयों से मिलती-जुलती हैं.माना यह जाता है कि पहले पूर्णतः हिन्दू थे..बाद में ईसाई धर्म आया कुछ परम्पराए उसमे मिल गयी..इसके बाद इस्लाम आया कुछ परम्पराए इस्लाम की भी मिल गयी ..किन्तु यजीदी अपने आप को न तो मुसलमान कहते है.न ईसाई कहते है वे सिर्फ ”यजीदी ”’कहते है..

पवित्र जल से बच्चों का धर्म संस्कार करते हैं. शादियों में रोटी को दो हिस्सों में तोड़कर पति-पत्नी को देते हैं. दिसंबर में यज़ीदी तीन दिन का उपवास करते हैं और पीर के साथ शराब पीकर उपवास तोड़ते हैं.

15-20 सितंबर के बीच मोसुल के उत्तर में स्थित लालेश में वो शेख आदी की दरगाह पर सालाना इकट्ठा होते हैं और नदी में नहाते हैं.

वे जानवरों की क़ुर्बानी भी देते हैं और बच्चों का ख़तना करते हैं.

वे अपने ईश्वर को याज़्दान कहते हैं. उन्हें इतना ऊपर माना जाता है कि उनकी सीधे उपासना नहीं की जाती. उन्हें सृष्टि का रचियता माना जाता है, लेकिन रखवाला नहीं.

याज़्दान से सात महान आत्माएं निकलती हैं जिनमें मयूर एंजेल (मोर पक्षी) जिसे ”’मलक ताउस” कहा जाता है,
मलक ताउस को सबसे महान तथा दैवीय इच्छाएं पूरा करने वाला मानकर पूजा करते है.इसी मयूर पक्षी अर्थात मलक ताउस को भगवान मानते है.

ईसाई भी अपने धर्म के शुरुआती दिनों में मयूर पक्षी को अमरत्व का प्रतीक मानते थे.बाद में अपने को अलग दिखाने के चक्कर में यह छोड़ दिया.

यजीदियो के मंदिर भी है
यज़ीदी दिन में पांच बार ”मलक ताउस”’ (मोर पक्षी )की उपासना करते
हिन्दू धर्म की तरह मोक्ष और पुनर्जन्म में विश्वास करते है.
यज़ीदी मानते हैं कि आत्मा एक शरीर से दूसरे शरीर में प्रवेश करती है और अंत में मोक्ष पाती है. इसलिए वे पुनर्जन्म में विश्वास रखते हैं.

यज़ीदी के लिए धर्म निकाला सबसे दुर्भाग्यपूर्ण माना जाता है क्योंकि ऐसा होने पर उसकी आत्मा को मोक्ष नहीं मिलता. इसलिए उनमें धर्म परिवर्तन का सवाल ही नहीं उठता.

सीरिया और इराक़ से लगे दक्षिण पूर्वी तुर्की के दूरस्थ इलाक़ों में यज़ीदियों के खाली गांव फिर आबाद होने लगे हैं क्योंकि तुर्की सरकार यज़ीदियों को परेशान नहीं करती.

सदियों के उत्पीड़न के बावजूद यज़ीदियों ने अपना धर्म नहीं छोड़ा, जो दर्शाता है कि वे अपनी पहचान और धार्मिक चरित्र को लेकर कितने दृढ़ हैं.
TP Shukla

कौन है यजीदी ? क्या उनका धर्म है ?
इराक के सुन्नी मुसलमान हत्यारों के संगठन ISIS ने यजीदियो की हत्याये शुरू कर दी.जान बचाने के लिए  50,000 यजीदियो ने उत्तर-पश्चिमी इराक़ के पहाड़ों पर शरण ले रखी है.
पारंपरिक रूप से यज़ीदी उत्तर-पश्चिमी इराक़, उत्तर-पश्चिमी सीरिया और दक्षिण-पूर्वी तुर्की में छोटे-छोटे समुदायों में रहते रहे हैं.
उनकी मौजूदा संख्या का सटीक अनुमान लगाना मुश्किल है. आकलनों के मुताबिक़ उनकी तादाद 70 हज़ार से लेकर पांच लाख तक है.

मुस्लिमो द्वारा अपमान, उत्पीड़न,हत्याये,जबरदस्ती धर्मान्तरण किये जाने से पिछली एक सदी में उनकी तादाद में भारी गिरवाट आई है.

द्रूज़ जैसे अन्य अल्पसंख्यक धर्मों की तरह कोई भी धर्मांतरण करके यज़ीदी नहीं बन सकता. सिर्फ़ इस धर्म में पैदा होकर ही यज़ीदी बना जा सकता है.

इस्लामिक स्टेट जैसे चरमपंथी समूहों को लगता है कि यह धर्म उमैयद राजवंश के दूसरे ख़लीफ़ा और मुसलमानों में बेहद अलोकप्रिय शासक यज़ीद इब्न मुआविया (647-683) से निकला है.

यद्यपि शोध से पता चलता है कि यज़ीदियों का यज़ीद या ईरानी शहर यज़्द से कोई लेना-देना नहीं. उनका संबंध फ़ारसी भाषा के 'इज़ीद' से है, जिसके मायने फ़रिश्ता या देवता हैं.

उनकी बहुत सी मान्यताएं हिन्दू धर्म, मुसलमानों और ईसाइयों से मिलती-जुलती हैं.माना यह जाता है कि पहले पूर्णतः हिन्दू थे..बाद में ईसाई धर्म आया कुछ परम्पराए उसमे मिल गयी..इसके बाद इस्लाम आया कुछ परम्पराए इस्लाम की भी मिल गयी ..किन्तु यजीदी अपने आप को न तो मुसलमान कहते है.न ईसाई कहते है वे सिर्फ ''यजीदी '''कहते है..

 पवित्र जल से बच्चों का धर्म संस्कार करते हैं. शादियों में रोटी को दो हिस्सों में तोड़कर पति-पत्नी को देते हैं. दिसंबर में यज़ीदी तीन दिन का उपवास करते हैं और पीर के साथ शराब पीकर उपवास तोड़ते हैं.

15-20 सितंबर के बीच मोसुल के उत्तर में स्थित लालेश में वो शेख आदी की दरगाह पर सालाना इकट्ठा होते हैं और नदी में नहाते हैं.

वे जानवरों की क़ुर्बानी भी देते हैं और बच्चों का ख़तना करते हैं.

वे अपने ईश्वर को याज़्दान कहते हैं. उन्हें इतना ऊपर माना जाता है कि उनकी सीधे उपासना नहीं की जाती. उन्हें सृष्टि का रचियता माना जाता है, लेकिन रखवाला नहीं.

याज़्दान से सात महान आत्माएं निकलती हैं जिनमें मयूर एंजेल (मोर पक्षी) जिसे '''मलक ताउस'' कहा जाता है, 
मलक ताउस को सबसे महान तथा दैवीय इच्छाएं पूरा करने वाला मानकर पूजा करते है.इसी मयूर पक्षी अर्थात मलक ताउस को भगवान मानते है.

ईसाई भी अपने धर्म के शुरुआती दिनों में मयूर पक्षी को अमरत्व का प्रतीक मानते थे.बाद में अपने को अलग दिखाने के चक्कर में यह छोड़ दिया.

यजीदियो के मंदिर भी है
यज़ीदी दिन में पांच बार ''मलक ताउस''' (मोर पक्षी )की उपासना करते  
हिन्दू धर्म की तरह मोक्ष और पुनर्जन्म में विश्वास करते है.
यज़ीदी मानते हैं कि आत्मा एक शरीर से दूसरे शरीर में प्रवेश करती है और अंत में मोक्ष पाती है. इसलिए वे पुनर्जन्म में विश्वास रखते हैं.

यज़ीदी के लिए धर्म निकाला सबसे दुर्भाग्यपूर्ण माना जाता है क्योंकि ऐसा होने पर उसकी आत्मा को मोक्ष नहीं मिलता. इसलिए उनमें धर्म परिवर्तन का सवाल ही नहीं उठता.

सीरिया और इराक़ से लगे दक्षिण पूर्वी तुर्की के दूरस्थ इलाक़ों में यज़ीदियों के खाली गांव फिर आबाद होने लगे हैं क्योंकि तुर्की सरकार यज़ीदियों को परेशान नहीं करती.

सदियों के उत्पीड़न के बावजूद यज़ीदियों ने अपना धर्म नहीं छोड़ा, जो दर्शाता है कि वे अपनी पहचान और धार्मिक चरित्र को लेकर कितने दृढ़ हैं.
TP Shukla
Posted in भारत का गुप्त इतिहास- Bharat Ka rahasyamay Itihaas

बेटी


१–अशोक सिंघल जी ने शादी नहीं की है वे ब्रह्मचारी है
मुख्तार अब्बास नकवी की बीबी का नाम सीमा नकवी है जो एक साधारण मुस्लिम परिवार से है
२–जोशी जी की बेटी कि शादी अलाहाबाद के हिन्दू घराने में हुवी है
शहनवाज हुसैन की पत्नी एक हिन्दू रेनू शर्मा है जो एक प्रसिद्द टीचर है
३–नरेंद्र मोदी जी की कोई बेटी है ही नहीं
४–लाल कृष्णा अडवानी की बेटी ने नहीं भतीजी ने अपनी दूसरी शादी प्रेम विवाह के रूप में मुल्ले से की थी
५–सुब्रमन्यम स्वामी जी की लड़की ने अवश्य प्रेम विवाह किया मुस्लिम से मगर इस्लाम कबूल नहीं किया है
शादी Civil Marriage Boston,US में हुवी फिर भारत में Re-Register हुवा उनको एक बेटा है प्रतीक नामक
जिसे अब तक न हिन्दू में न इस्लाम में रखा गया है
१८ के बाद वो खुद तय करेगा
६–बाला साहेब ठाकरे जी की पोती ने किसी मुस्लिम से शादी नहीं की बल्कि एक गुजराती परिवार में की है

Posted in छोटी कहानिया - १०,००० से ज्यादा रोचक और प्रेरणात्मक

बंटी : पप्पा सर्कस चलिये ना ??


बंटी : पप्पा सर्कस चलिये ना ??
पप्पा : नही रे.. टाईम नही है.
बंटी : वहा एक लडकी ने बिना कपडों के शेर
पर
सवारी की है ।
पप्पा : बहोत झिद्दी हो गये हो.. हर बात
मनवा लेते हो..।।
चलो.. बहोत दिन हुए शेर को नही देखा..!!!!!
आगे की कहानी..
बाप बेटा सर्कस देखने गये..
पप्पा ने सबसे आगे की सीट्स वाली टिकट
ले
ली..
एनिमल शो आया और चला गया.. पर
बिना कपडों की लडकी नही आयी..!!
सर्कस भी खत्म हुई…
पप्पा : तुमने तो कहा था कि एक
लडकी बिना कपडों की आयेगी..?
बंटी : बिना कपडो के तो ‘शेर’कहा था..
लडकी नही..!!
मुझे यकीन है कि आप दोबारा जरुर पढेंगे..!!

Posted in भारतीय उत्सव - Bhartiya Utsav

रक्षाबंधन की सबसे प्राचीन कथा –


रक्षाबंधन की सबसे प्राचीन कथा –
“येन बद्धो, बलि राजा दान विन्द्रो महाबलम।
तेन-त्वाम अनुबन्धामी, रक्षे मां चला मां चलम।।“
अर्थात मैं यह रक्षा सूत्र बांध रही हूं, ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार लक्ष्मी जी ने असुरराज बलि को बांधा था और अपनी रक्षा करने का वचन लिया था। इसी समय से रक्षा सूत्र बांधने का नियम बना जिसे आज भी बहन अपने भाई को कलाई पर बांधकर परंपरा को निर्वाह कर रही है। कथा इस प्रकार है कि प्रहलाद का पुत्र और हिरण्यकश्यप का पौत्र बलि महान पराक्रमी था। उसने सभी लोकों पर विजय प्राप्त कर ली। इससे देवता घबरा गए और विष्णु जी की शरण में गए| विष्णु जी ने बटुक ब्राह्मण का रूप धारण किया और बलि के द्वार की ओर चले।
असुरराज बलि विष्णु जी के अनन्य भक्त थे तथा शुक्राचार्य के शिष्य थे। जब बटुक स्वरूप विष्णु वहाँ पहुँचे तो बलि एक अनुष्ठान कर रहे थे। जैसे कि हे ब्राह्मण मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूँ। बटुक ने कहा मुझे तीन पग भूमि चाहिए।
महाराज बलि ने जल लेकर संकल्प किया और ‘तीन पग‘ भूमि देने को तैयार हो गए। तभी बटुक स्वरूप विष्णु अपने असली रूप में प्रकट हुए। उन्होंने दो पग में सारा ब्रह्माण्ड नाप लिया तथा तीसरा पग रखने के लिए कुछ स्थान न बचा। तभी बलि ने अपने सिर आगे कर दिया। इस प्रकार असुर को विष्णु जी ने जीत लिया और उस पर प्रसन्न हो गये। उसे पाताल में नागलोक भेज दिया। विष्णु जी बोले मैं तुम से प्रसन्न हूँ मांगों क्या मांगते हो? तब बलि ने कहा कि जब तक मैं नागलोक में रहूंगा आप मेरे द्वारपाल रहें। विष्णु जी मान गए और उसके द्वारपाल बन गए। कुछ दिन बीते लक्ष्मी जी ने विष्णु जी को ढूंढना आरंभ किया तो ज्ञात हुआ कि प्रभु तो बलि के द्वारपाल बने हैं। उन्हें एक युक्ति सूझी।
श्रावण मास की पूर्णिमा के दिन उन्होंने बलि की कलाई पर एक पवित्र धागा बांधकर उसे भाई बना लिया। बलि ने भी उन्हें बहन मानते हुए कहा कि बहन मैं इस पवित्र बंधन से बहुत प्रभावित हुआ और बोला मैं तुम्हें एक वरदान देना चाहता हूं बहन! मांगो? लक्ष्मी जी को अपना उद्देश्यपूर्ण करना था, उन्होंने बताया जो तुम्हारे द्वारपाल है, वे मेरे पति हैं, उन्हें अपने घर जाने की आज्ञा दो। लक्ष्मी जी ने यह कहा कि ये ही भगवान विष्णु हैं। बलि को जब यह पता चला तो उसने तुरन्त भगवान विष्णु को उनके निवास की और रवाना किया।

रक्षाबंधन की सबसे प्राचीन कथा -
“येन बद्धो, बलि राजा दान विन्द्रो महाबलम।
तेन-त्वाम अनुबन्धामी, रक्षे मां चला मां चलम।।“
अर्थात मैं यह रक्षा सूत्र बांध रही हूं, ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार लक्ष्मी जी ने असुरराज बलि को बांधा था और अपनी रक्षा करने का वचन लिया था। इसी समय से रक्षा सूत्र बांधने का नियम बना जिसे आज भी बहन अपने भाई को कलाई पर बांधकर परंपरा को निर्वाह कर रही है। कथा इस प्रकार है कि प्रहलाद का पुत्र और हिरण्यकश्यप का पौत्र बलि महान पराक्रमी था। उसने सभी लोकों पर विजय प्राप्त कर ली। इससे देवता घबरा गए और विष्णु जी की शरण में गए| विष्णु जी ने बटुक ब्राह्मण का रूप धारण किया और बलि के द्वार की ओर चले।
असुरराज बलि विष्णु जी के अनन्य भक्त थे तथा शुक्राचार्य के शिष्य थे। जब बटुक स्वरूप विष्णु वहाँ पहुँचे तो बलि एक अनुष्ठान कर रहे थे। जैसे कि हे ब्राह्मण मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूँ। बटुक ने कहा मुझे तीन पग भूमि चाहिए।
महाराज बलि ने जल लेकर संकल्प किया और ‘तीन पग‘ भूमि देने को तैयार हो गए। तभी बटुक स्वरूप विष्णु अपने असली रूप में प्रकट हुए। उन्होंने दो पग में सारा ब्रह्माण्ड नाप लिया तथा तीसरा पग रखने के लिए कुछ स्थान न बचा। तभी बलि ने अपने सिर आगे कर दिया। इस प्रकार असुर को विष्णु जी ने जीत लिया और उस पर प्रसन्न हो गये। उसे पाताल में नागलोक भेज दिया। विष्णु जी बोले मैं तुम से प्रसन्न हूँ मांगों क्या मांगते हो? तब बलि ने कहा कि जब तक मैं नागलोक में रहूंगा आप मेरे द्वारपाल रहें। विष्णु जी मान गए और उसके द्वारपाल बन गए। कुछ दिन बीते लक्ष्मी जी ने विष्णु जी को ढूंढना आरंभ किया तो ज्ञात हुआ कि प्रभु तो बलि के द्वारपाल बने हैं। उन्हें एक युक्ति सूझी।
श्रावण मास की पूर्णिमा के दिन उन्होंने बलि की कलाई पर एक पवित्र धागा बांधकर उसे भाई बना लिया। बलि ने भी उन्हें बहन मानते हुए कहा कि बहन मैं इस पवित्र बंधन से बहुत प्रभावित हुआ और बोला मैं तुम्हें एक वरदान देना चाहता हूं बहन! मांगो? लक्ष्मी जी को अपना उद्देश्यपूर्ण करना था, उन्होंने बताया जो तुम्हारे द्वारपाल है, वे मेरे पति हैं, उन्हें अपने घर जाने की आज्ञा दो। लक्ष्मी जी ने यह कहा कि ये ही भगवान विष्णु हैं। बलि को जब यह पता चला तो उसने तुरन्त भगवान विष्णु को उनके निवास की और रवाना किया।