यह हमारे देश की विडम्बना ही है कि भारत को लूटने-खसोटनेवाले और हजार वर्षों तक गुलाम रखनेवाले अरब, तुर्क, पठान, मुग़ल और अंग्रेज साम्राज्यवादी आक्रांताओं के नाम पर रखे गये भवनों और सड़कों आदि के नाम स्वाधीनता के बाद भी “सेक्युलरिज्म” के नाम पर बड़ी बेशर्मी से न केवल ढोए जा रहे हैँ अपितु दासता तथा पराधीनता के इन चिन्हों को भारत की राष्ट्रीयता, स्वतंत्रता तथा एकता का प्रतीक मानने का प्रयास किया जा रहा है।
सन ११९१ में विश्वप्रसिद्ध नालंदा विश्वविद्यालय को जलाकर नष्ट करनेवाले बख्तियार खिलजी के नाम पर पटना के पास “बख्तियारपुर” शहर और स्टेशन अभी भी विद्यमान है. यह हमारे देश पर एक कलंक है I इसी प्रकार आज भी हमारे उपनगरों व सड़कों के नाम (विशेषकर राजधानी दिल्ली में) विदेशी लुटेरों और भारतविरोधी तत्वों के नाम पर रखे जा रहे है, जैसे—
तुगलक रोड,
लोदी रोड,
अकबर रोड,
औरंगजेब रोड,
शाहजहाँ रोड,
जहांगीर रोड,
लार्ड मिंटो रोड,
लारेन्स रोड,
डलहोजी रोड,
आर्थर रोड आदि-आदि।
यह सर्वविदित है कि पहले मुस्लिम पठानों तथा मुगलों ने भारत की सैकड़ों कलाकृतियों, विशाल मंदिरों, राजमहलों, विश्वविद्यालयों का ध्वंस किया। बाद में इनके खण्डहरों पर अनेक मकबरों, मस्जिदों, किलों तथा भवनों का निर्माण किया। भारत के विभिन्न क्षेत्रों में ऐसे अनेक स्थान है जहां आज भी अनेक भग्नावशेषों को देखा जा सकता है। उदाहरण के लिए दिल्ली की कुतुबमीनार, अजमेर में ढाई दिन का झोपड़ा, अयोध्या में रामजन्मभूमि मन्दिर, ताजमहल, फतेहपुरी के भवन तथा दिल्ली का लालकिला है। सोमनाथ मंदिर पर न जाने कितनी बार आक्रमण हुए। काबुल से कन्याकुमारी तक आज भी सैकड़ों नगरों, कस्बों, ग्रामों के नाम, मुख्य सड़कों के नाम इन्हीं बदले नामों से जाने जाते हैं। अंग्रेजी शासकों ने भी धूर्ततापूर्ण तथा बेशरमी से जहां जानबूझकर मुस्लिम कुकृत्यों को संरक्षण दिया वहीं अनेक स्थानों, सड़कों, भवनों को अपने नाम से जोड़ा। गौरीशंकर चोटी, एक अंग्रेज सर्वेक्षक के नाम से “माउंट एवरेस्ट” बन गई। रामसेतु को “एडम्सब्रिज” कहा जाने लगा। 1857 के अनेक क्रूर सेनापतियों के नाम से अण्डमान द्वीप के सहायक टापूओं को जोड़ दिया हयू्रोज, ओटुरम, हेवलाक, निकलसन, नील, जान लारेंस, हेनरी लारेंस आदि के नामों से उन्हें आज भी पुकारा जाता है। अंग्रेजों ने 1912 में दिल्ली को राजधानी बनाया और लाल किले को ब्रिटिश सैनिकों की छावनी बना दिया गया। शासनतंत्र को चलाने के लिए सर एडविन ल्युटिंयस के द्वारा अनेक नये भवनों का निर्माण कराया गया। यह बड़े आश्चर्य की बात है कि लगभग एक हजार साल की गुलामी के बाद भी इसे आजादी का प्रतीक स्थल समझा गया।
इसका दूरगामी दुष्परिणाम यह हुआ कि भारतीय इतिहास में विदेशियों से सतत संघर्ष करने वाले अनेक योद्धाओं के क्रियाकलापों तथा उनके स्थलों को विस्मृत करने का योजनापूर्वक प्रयास हुआ। उदाहरण बप्पारावल, राणा सांगा, महाराणा प्रताप की संघर्ष स्थली चितौड़गढ़, हिन्दवी स्वराज्य के संस्थापक शिवाजी की जन्मभूमि शिवनेरी का दुर्ग तथा उनका राज्यभिषेक स्थल रायगढ़ का दुर्ग, खालसा पंथ के निर्माता गुरु गोविन्द सिंह के आनन्दपुर साहब को इतिहास के पन्नों से निकालकर, कुछ सेकुलरवादी तथा वामपंथी लेखकों ने इन महानायकों तथा उनके पवित्र तथा शौर्य स्थलों को राष्ट्रीय धरोहर के रूप में प्रस्तुत नहीं किया। बाबर, अकबर, औरंगजेब को उन्होंने संस्कृति का महान सन्देशवाहक, उदात्त भावनाओं का परिचायक तथा जिंदा पीर तक कह डाला।
भारत के शासकों की स्वाभिमानशून्यता और निर्लज्जता ऐसी है कि वे इन शर्मनाक-स्मारकों की सुरक्षा में जुटे हुए हैं। वर्तमान सत्ताधीशों की सत्ता लोलुपता तो देखिए कि काशी और मथुरा के कलंकों की सुरक्षा के लिए उन्होंने कानून तक बना दिये हैं। यही नहीं काशी-विश्वनाथ में जलाभिषेक होता है तो सारे सेकुलर-सियार हू-हू करना शुरु कर देते हैं। मथुरा में यज्ञ करने की बात आती है तो आसमान सर पर उठा लिया जाता है। पूरी केंद्र सरकार हरकत में आ जाती है, केंद्रीय मंत्री मथुरा पहुंच जाते हैं, जबकि इन मंत्रियों को कश्मीरी विस्थापितों की सुध लेने की याद तक भी नहीं आती है।
एक ओर भारत के हुक्मरानों की यह ‘आत्मगौरवहीनता’ है तो दूसरी ओर ऐसे राष्ट्रों के उदाहरण हैं जिन्होंने गुलामी के निशानों को जड़ सहित मिटा दिया। सन् 1914-15 में रूसियों ने पोलैंड की राजधानी वार्सा को जीत लिया तो उन्होंने शहर के मुख्य चौक में एक चर्च बनवाया। रूसियों ने यह पोलैंडवासियों को निरन्तर याद करवाने के लिए बनवाया कि पोलैंड में रूस का शासन है। जब पोलैंड 1918 में आजाद हुआ तो पोलैंडवासियों ने पहला काम उस चर्च को ध्वस्त करने का किया, हालांकि नष्ट करने वाले सभी लोग ईसाई मत को माननेवाले ही थे। मैं जब पोलैंड पहुंचा तो चर्च ध्वस्त करने का काम समाप्त हुआ ही था। मैं एक चर्च को ध्वस्त करने के लिए पोलैंड को दोषी नहीं मानता क्योंकि रूस ने वह चर्च राजनीतिक कारणों से बनवाया था। उनका मन्तव्य पोल लोगों का अपमान करना था।‘’
सन 1968 में भारत के सांसदों का एक प्रतिनिधिमंडल लोकसभा के तत्कालीन अध्यक्ष नीलम संजीव रेड्डी के नेतृत्व में रूस गया। रूसी दौरे के समय सांसदों को लेनिनग्राद शहर का एक महल दिखाने भी ले जाया गया। वह रूस के ‘जार’ (राजा) का सर्दियों में रहने के लिए बनवाया गया महल था। महल को देखते समय सांसदों के ध्यांन में आया कि पूरा महल तो पुराना लगता था किन्तुय कुछ मूर्तियां नई दिखाई देती थीं। पूछताछ करने पर पता लगा कि वे मूर्तियां ग्रीक देवी-देवताओं की हैं। सांसदों में प्रसिद्ध विचारक तथा भारतीय मजदूर संघ के संस्थापक श्री दत्तोपंत ठेंगड़ी भी थे। उन्होंने सवाल किया कि, ‘आप तो धर्म और भगवान के खिलाफ हैं, फिर आपकी सरकार ने देवी-देवताओं की मूर्तियों को फिर से बनाकर यहां क्यों रखा है?’ इस पर साथ चल रहे रूसी अधिकारी ने उत्तर दिया, ‘इसमें कोई शक नहीं कि हम घोर नास्तिक हैं किन्तुत महायुद्ध के दौरान जब हिटलर की सेनाएं लेनिनग्राद पर पहुंच गई तो वहां हम लोगों ने उनसे जमकर संघर्ष किया। इस कारण जर्मन लोग चिढ़ गये और हमारा अपमान करने के लिए उन्हों ने यहां की देवी-देवताओं की प्राचीन मूर्तियां तोड़ दी। इसके पीछे यही भाव था कि रूस का राष्ट्रीय अपमान किया जाये। हमारी दृष्टि में हमें ही नीचा दिखाया जाये। इस कारण हमने भी प्रण किया कि महायुद्ध में हमारी विजय होने के पश्चात् राष्ट्रीय सम्मान की पुनर्स्थापना करने के लिए हम इन देवताओं की मूर्तियां फिर से स्थापित करेंगे। रूसी अधिकारी ने आगे कहा कि, ‘हम तो नास्तिक हैं ही किन्तु मूर्तिभंजन का काम हमारा अपमान करने के लिए किया गया था और इसलिए इस राष्ट्रीय अपमान को धो डालने के लिए हमने इन मूर्तियों का पुनर्निर्माण किया।‘ ये मूर्तियां आज भी जार के ‘विन्टशर पैलेस’ में रखी हैं और सैलानियों के मन में कौतुहल जगाती हैं I
दक्षिण कोरिया अनेक वर्षों तक जापान के कब्जेय में रहा है। जापानी सत्ताधारियों ने अपनी शासन सुविधा के लिए राजधानी सिओल के बीचों-बीच एक भव्य इमारत बनाई और उसका नाम ‘कैपिटल बिल्डिंग’ रखा। इस समय इस भवन में कोरिया का राष्ट्रीय संग्रहालय है। इस संग्रहालय में अनेक प्राचीन वस्तुओं के साथ जापानियों के अत्यााचारों के भी चित्रा हैं।
वर्ष 1995 में दक्षिण कोरिया को आजाद हुए पचास वर्ष पूरे हो रहे हैं। अत: वहां की सरकार आजादी का स्व र्ण जयंती वर्ष’ धूमधाम से मनाने की तैयारी कर रही है। इस स्वतंत्राता प्राप्ति की स्व र्णा जयंती महोत्साव का एक प्रमुख कार्यक्रम होगा ‘कैपिटल बिल्डिंग’ को ध्ववस्त करना। दक्षिण कोरिया की सरकार ने इस विशाल भवन को गिराने का निर्णय ले लिया है। इसमें स्थित संग्रहालय को नये बन रहे दूसरे भवन में ले जाया जायेगा। इस पूरी कार्रवाई में 1200 करोड़ रुपये खर्च होंगे।
यह समाचार 2 मार्च 1995 को बी.बी.सी. पर प्रसारित हुआ था। कार्यक्रम में ‘कैपिटल बिल्डिंग’ को भी दिखाया गया। इस भवन में स्थित ‘राष्ट्रीय वस्तु संग्रहालय’ के संचालक से बीबीसी संवाददाता की बातचीत भी दिखाई गई। जब उनसे इस इमारत को नष्ट करने का कारण पूछा गया तो संचालक महोदय ने बताया कि, ‘इस इमारत को देखते ही हमें जापान द्वारा हम पर लादी गई गुलामी की याद आ जाती है। इसको गिराने से जापान और दक्षिण कोरिया के बीच सम्बंकधों का नया दौर शुरु हो सकेगा। इसके पीछे बना हमारे राजा का महल लोगों की नजरों से ओझल रहे यही इसको बनाने का उद्देश्यख था और इसी कारण हम इसको गिराने जा रहे हैं।‘ दक्षिण कोरिया की जनता ने भी सरकार के इस निर्णय का उत्सा हपूर्वक स्वाहगत किया। (यह भवन उसी वर्ष ध्व स्तह कर दिया गया।)
पांच सौ साल पुराने गुलामी के निशान मिटाये कुछ वर्ष पहले तक युगोस्लाीविया एक राज्ये था जिसके अन्त र्गत कई राष्ट्र थे। साम्य वाद के समाप्तप होते ही ये सभी राष्ट्र स्व्तंत्र हो गये तथा सर्बिया, क्रोशिया, मान्टेदनेग्रो, बोस्निया हर्जेगोविना आदि अलग-अलग नाम से देश बन गये। बोस्निया में अभी भी काफी संख्याय में सर्ब लोग हैं। ऐसे क्षेत्रों में जहां सर्ब काफी संख्याग में हैं, इस समय (सन् 1995) सर्बियाई तथा बोस्निया की सेना में युद्ध चल रहा है। इस साल के शुरु में सर्ब सैनिकों ने बोस्निया के कब्जेैवाला एक नगर ‘इर्वोनिक’ अपने अधिकार में ले लिया।
इर्वोनिक की एक लाख की आबादी में आधे सर्ब हैं और शेष मुसलमान। सर्ब फौजों के कब्जे के बाद मुसलमान इस शहर से भाग गये तथा बोस्निया के ईसाई यहां आ गये। ब्रंकों ग्रूजिक नाम के एक सर्ब नागरिक को शहर का महापौर भी बना दिया गया। महापौर ने सबसे पहले यह काम किया कि नगर के बाहर बहने वाली ड्रिना नदी के किनारे बनी एक टेकड़ी पर एक ‘क्रास’ लगा दिया। महापौर ने बताया कि, ‘इस स्थानन पर हमारा चर्च था जिसे तुर्की के लोगों ने सन् 1463 में ध्वेस्तन कर डाला था। अब हम उस चर्च को इसी स्थाौन पर पुन: नये सिरे से खड़ा करेंगे।‘ श्री ग्रूजिक ने यह भी कहा कि तुर्कों की चार सौ साल की सत्ता में उनके द्वारा खड़े किये गये सारे प्रतीक मिटाये जाएंगे। उसी टेकड़ी पर पुराने तुर्क साम्राज्यक के रूप में एक मीनार खड़ी थी उसे सर्बों ने ध्व़स्ता कर दिया। टेकड़ी के नीचे ‘रिजे कॅन्का् ’ नाम की एक मस्जिद को भी बुलडोजर चलाकर मटियामेट कर दिया गया। यह विस्तृेत समाचार अमरीकी समाचार पत्र हेरल्डे ट्रिब्युरन में 8 मार्च 1995 को छपा। समाचार लाने वाला संवाददाता लिखता है कि उस टेकड़ी पर पांच सौ साल पहले नष्टा किये गये चर्च की एक घंटी पड़ी हुई थी। महापौर ने अस्थाायी क्रॉस पर घंटी टांककर उसको बजाया। घंटी गुंजायमान होने के बाद महापौर ने कहा कि, ‘मैं परमेश्वेर से प्रार्थना करता हूं कि वह क्लिंटन (अमरीकी राष्ट्र पति) को थोड़ी अक्लौ दे ताकि वह मुसलमानों का साथ छोड़कर उसके सच्चेए मित्र ईसाइयों का साथ दे।
नेताजी सुभाषचन्द्र बोस जब कलकत्ता महानगर पालिका के मुख्य कार्यकारी अधिकारी बनाये गये तो उन्होंने कलकत्ता महानगरपालिका का पूरा तंत्र एवं उसकी कार्यपद्धति तथा कोलकाता के रास्तों के नाम बदलकर उन्हें भारतीय नाम दे दिये थे। कुछ इसी तरह का काम समाजवादी नेता राजनारायण (1917-1986) ने भी किया। उन्होंने बनारस के प्रसिद्ध बेनियाबाग में ब्रिटेन की महारानी विक्टोरिया की स्थापित प्रतिमा के टुकडे-टुकडे कर गुलामी के प्रतीक को मिट्टी में मिला दिया। हालांकि उनके इस कृत्य के लिये पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया था, परंतु आज उसी पार्क को “लोकबन्धु राजनारायण पार्क” के नाम से जाना जाता है। जबतक सत्ता की भूख नेताओं के सर पर सवार नहीं हुई थी, गुलामी के प्रतीकों को मिटाने का प्रयत्न किया गया। नागपुर के विधानसभा भवन के सामने लगी रानी विक्टोरिया की संगमरमर की मूर्ति आजादी के बाद हटा दी गई। मुम्बई के काला घोड़ा स्थान पर घोड़े पर सवार इंग्लैंड के राजा की प्रतिमा हटाई गई। विक्टोरिया, एडवर्ड और जार्ज v से जुड़े अस्पताल, भवन, सड़कों आदि तक के नाम बदले गये। लेकिन जब सत्ता का स्वार्थ और चाहे जैसे हो सत्ता में बने रहने की अंधी लालसा जगी तो दिल्ली की सड़कों के नाम अकबर, जहांगीर, शाहजहां तथा औरंगजेब रोड तक रख दिये गये। बिहार के भ्रष्टतम मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव ने पटना का नाम “अजीमाबाद” करवाने के लिए अथक प्रयास किया I खान्ग्रेस सरकार ने प्रारभ से ही अपने कार्यकाल में बनवाए भवनों, सडकों और स्मारकों के नाम जवाहर, इंदिरा और राजीव के नाम से रखने की नीति रखी जैसे इन नेताओं ने ही देश के लिए सबकुछ किया I
समस्त देशवासी तनिक विचार करें, राष्ट्रद्रोहियों और आतंकवादियों के नामों का इस प्रकार से भारत पर जबरदस्ती थोपा जाना एक षडयंत्र नहीं है क्या ..? ए.ओ. ह्यूम द्वारा स्थापित और सम्प्रति Edvige Antonia Albina Màino (सोनिया गांधी) द्वारा पोषित महानीच खान्ग्रेस-सरकार की भारतविरोधी नीति और मानसिक एवं वैचारिक गुलामी की यह एक झलकमात्र है I जिस देश का प्रधानमंत्री ही एक विदेशी औरत का पालतू कुत्ता है, वहां इनसे परिवर्तन की क्या अपेक्षा की जा सकती है ?
हम भारतीयों का पुनीत कर्तव्य है कि गुलामी के प्रतीक इन नामों के परिवर्तन के लिए देशव्यापी अभियान प्रारंभ करें। देश में सत्ता-परिवर्तन होने जा रहा है. खान्ग्रेस का जहाज डूब रह है. इस परिवर्तन में यह कार्य सम्भव है.
(विषय की परिपूर्णता के लिए इस पोस्ट के कुछ अंश साभार ग्रहण किये गए हैं)