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“शैशवेsभ्यस्तविद्यानां यौवने विषयैषिणाम्। वार्धके मुनिवृत्तिनां योगेनान्ते तनुत्यजाम्।।” (रघुवंशम्–1.6)


जीवन कैसा हो…..?
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“शैशवेsभ्यस्तविद्यानां यौवने विषयैषिणाम्।
वार्धके मुनिवृत्तिनां योगेनान्ते तनुत्यजाम्।।”
(रघुवंशम्–1.6)

अर्थः—-शैशवकाल में हमें विद्या का अभ्यास करना चाहिए। यौवनकाल में विधिपूर्वक धर्मानुसार सन्तानोत्पत्ति करनी चाहिए। वृद्धावस्था में मुनि की वृत्ति धारण कर लेनी चाहिए और जीवन के अन्तिम काल में योग के द्वारा शरीर का त्याग कर देना चाहिए।

हमारा जीवन व्यवस्थित होना चाहिए। वैदिक संस्कृति, सभ्यता में पूरे मानव-जीवन को व्यवस्थित किया गया है। मानव-जीवन की औसत आयु 100 वर्ष मानकर इसे चार भागों में बाँटा गया हैः—ब्रह्मचर्य-आश्रम, गृहस्थ-आश्रम, वानप्रस्थ-आश्रम और संन्यास-आश्रम। ऐसा व्यवस्थित जीवन किसी अन्य सभ्यता में कहीं नहीं मिलता। इन चारों आश्रमों के कर्त्तव्य-कर्म निर्धारित किए गए। इनकी पृथक्-पृथक् व्याख्या भी की गई।

(1.) जीवन के प्रारम्भिक काल में 1 वर्ष से लेकर 25 वर्ष तक (सामान्य रूप से, आगे-पीछे भी हो सकता है, अपनी व्यवस्था के अनुसार) हमें विद्या का अभ्यास अवश्य करना चाहिए। जो व्यक्ति इस समय विद्या का अभ्यास नहीं करता, उसका सम्पूर्ण जीवन अस्त-व्यस्त रहता है। वह दीन-हीन बना रहता है, क्योंकि विद्या के बिना इस भूमण्डल में कुछ होता ही नहीं। आचार्य शंकर ने “प्रश्नोत्तररत्नमालिका” में कहा भी है कि मरण क्या है ? इसका उत्तर दिया है कि “मरण मूर्खता है।” विद्या न पढना मूर्खता है और मूर्खता ही मृत्यु है। मूर्ख व्यक्ति को कोई भी नहीं पसन्द करता, इसलिए विद्या का अभ्यास अवश्य करें। विद्याहीन व्यक्ति ही शूद्र हो जाता है।

(2.) जीवन के द्वतीय पडाव पर धर्मानुसार सन्तानोत्पत्ति और धनार्जन करना चाहिए। यह गृहस्थ का काल होता है। आजकल लोग गृहस्थ को मुख्य रूप से स्त्री को भोग की वस्तु समझने लग गए हैं। जबकि गृहस्थ में रहते हुए भी ब्रह्मचर्य का पालन किया जा सकता है। यदि आप धर्मानुसार सन्तानोत्पत्ति करते हैं तो यह ब्रह्मचर्य का ही रूप है। वैसे भी हमारे शरीर का सबसे अमूल्य वस्तु तो वीर्य ही है। इसकी रक्षा अवश्य करनी चाहिए। दुर्भाग्य से आजकल के डॉक्टर कहने लगे हैं कि वीर्य को निकालने से हानि नहीं होती। यह बहुत बडी मूर्खता है। यदि समाज चरित्रवान् होगा तभी समाज, राष्ट्र आगे बढ पाएगा। नहीं तो बलात्कार जैसी घटनाएँ होती रहेंगी। आज इसके लिए नैतिक-शिक्षा की आवश्यकता है।

(3.) जीवन के तीसरे चरण में अपने जीवन को मुनि की वृत्ति जैसी बना लेना चाहिए। आप जहाँ भी रहे, निर्लेप, निर्द्वन्द्व भाव से रहें। वन में तो जाने से रहे। घर में भी रहते हैं तो घर के कामों में अधिक टोका-टाकी न करें, सलाह अवश्य दें, किन्तु ये विचार अपने मन में रखें कि मेरी बात मान ली ही जानी चाहिए। ऐसी वृत्ति रखेंगे तो पछताने के सिवा और कुछ नहीं मिलेगा। आपके पुत्र-पुत्रवधू, पौत्र अब सभी योग्य हो गए हैं, उन्हें अपना काम स्वतन्त्रतापूर्वक करने दीजिए। हमारा जीवन ऐसा हो कि जैसे तालाब में कमल होता है, निर्लेप। उसके ऊपर कीचड और पानी का कोई प्रभाव नहीं पडता। ऐसा हमारा जीवन होना चाहिए। घर-संसार में रहते हुए भी घर-संसार से पृथक् रहें, वैरागी की तरह। अभिप्राय यह है कि घर में, घर की वस्तुओं में, पुत्र-पौत्रों में रिश्ते-सम्बन्धों में मोह न करें, अनुराग न रखें, प्यार सबसे करें, व्यवहार सबसे करें, बातें करें, किन्तु चिपक न जाएँ । अपना जीवन ऐसा बना लें कि उनके बिना भी आप जी सकें। उनके ऊपर सर्वथा निर्भर न हो जाएँ, ऐसा न कर लें कि उनके बिना जिया न जा सके। कोशिश करें कि अपना काम स्वयं कर लें। इस समय शरीर कमजोर होता है, इसलिए जिह्वा पर नियन्त्रण रखें और सक्रिय (Active) रहें।

(4.) जीवन के अन्तिम पडाव पर 75 वर्ष से ऊपर होने पर आप संन्यासियों की तरह रहें। वैसे नियम तो यह है कि प्रत्येक व्यक्ति को संन्यास लेना चाहिए, क्योंकि आपने संन्यास जैसा जीवन बनाया नहीं, तो कम-से-कम घर में भी त्यागपूर्वक रहें। जहाँ जाएँ दूसरों को सही सलाह दें, विद्यालयों में जाकर बच्चों को निश्शुल्क पढाएँ। हो सके तो धार्मिक संस्थाओं में जाकर सेवा करें, योग करें, ध्यान करें, प्राणायाम करें। यदि दान कर सकते हैं तो निर्धन बालकों को पढने की व्यवस्था करें, गुरुकुलों में जाएँ और विद्यादान करें, वहाँ से स्वयं भी कुछ सीखें। यह अन्तिम आश्रम बहुत कठिन है।

“आद्ये वयसि नाधीतं, द्वितीये नार्जितं धनम्।
तृतीये न तपस्तप्तं, चतुर्थे किं करिष्यति ।।”

अर्थः—यह श्लोक भी वही बात कह रहा है, जिसका वर्णन ऊपर किया गया है। जीवन के प्रथम वय में जिसने विद्या का अध्ययन नहीं किया, द्वितीय अर्थात् गृहस्थ में जिसने धन नहीं कमाया, तृतीय अर्थात् वानप्रस्थ में जिसने अपने शरीर को नहीं तपाया, मुनियों जैसा नहीं बनाया, तो वह चतुर्थ वय में 75 वर्ष के बाद क्या करेगा। दुःखी होगा और क्या करेगा। घर परिवार से कोई सहयोग नहीं मिलेगा। ऐसे लोगों को ही उसके अपने बच्चे सताते हैं।

आइए, हम सब अपना-अपना जीवन वैदिक बनाए, वेदानुकूल जिएँ और जीवन को सार्थक करें। प्रभु करे आप सबके जीवन में खुशियाँ आएँ, धन-सम्पदा से आपका परिवार पूर्ण हों। सुखा सन्तान मिलें, ऐसी हमारी कामना है। धन्यवाद।

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"शैशवेsभ्यस्तविद्यानां यौवने विषयैषिणाम्।
वार्धके मुनिवृत्तिनां योगेनान्ते तनुत्यजाम्।।"
(रघुवंशम्--1.6)

अर्थः----शैशवकाल में हमें विद्या का अभ्यास करना चाहिए। यौवनकाल में विधिपूर्वक धर्मानुसार सन्तानोत्पत्ति करनी चाहिए। वृद्धावस्था में मुनि की वृत्ति धारण कर लेनी चाहिए और जीवन के अन्तिम काल में योग के द्वारा शरीर का त्याग कर देना चाहिए।

हमारा जीवन व्यवस्थित होना चाहिए। वैदिक संस्कृति, सभ्यता में पूरे मानव-जीवन को व्यवस्थित किया गया है। मानव-जीवन की औसत आयु 100 वर्ष मानकर इसे चार भागों में बाँटा गया हैः---ब्रह्मचर्य-आश्रम, गृहस्थ-आश्रम, वानप्रस्थ-आश्रम और संन्यास-आश्रम। ऐसा व्यवस्थित जीवन किसी अन्य सभ्यता में कहीं नहीं मिलता। इन चारों आश्रमों के कर्त्तव्य-कर्म निर्धारित किए गए। इनकी पृथक्-पृथक् व्याख्या भी की गई।

(1.) जीवन के प्रारम्भिक काल में 1 वर्ष से लेकर 25 वर्ष तक (सामान्य रूप से, आगे-पीछे भी हो सकता है, अपनी व्यवस्था के अनुसार) हमें विद्या का अभ्यास अवश्य करना चाहिए। जो व्यक्ति इस समय विद्या का अभ्यास नहीं करता, उसका सम्पूर्ण जीवन अस्त-व्यस्त रहता है। वह दीन-हीन बना रहता है, क्योंकि विद्या के बिना इस भूमण्डल में कुछ होता ही नहीं। आचार्य शंकर ने "प्रश्नोत्तररत्नमालिका" में कहा भी है कि मरण क्या है ? इसका उत्तर दिया है कि "मरण मूर्खता है।" विद्या न पढना मूर्खता है और मूर्खता ही मृत्यु है। मूर्ख व्यक्ति को कोई भी नहीं पसन्द करता, इसलिए विद्या का अभ्यास अवश्य करें।  विद्याहीन व्यक्ति ही शूद्र हो जाता है।

(2.) जीवन के द्वतीय पडाव पर धर्मानुसार सन्तानोत्पत्ति और धनार्जन करना चाहिए। यह गृहस्थ का काल होता है। आजकल लोग गृहस्थ को मुख्य रूप से स्त्री को भोग की वस्तु समझने लग गए हैं। जबकि गृहस्थ में रहते हुए भी ब्रह्मचर्य का पालन किया जा सकता है। यदि आप धर्मानुसार सन्तानोत्पत्ति करते हैं तो यह ब्रह्मचर्य का ही रूप है। वैसे भी हमारे शरीर का सबसे अमूल्य वस्तु तो वीर्य ही है। इसकी रक्षा अवश्य करनी चाहिए। दुर्भाग्य से आजकल के डॉक्टर कहने लगे हैं कि वीर्य को निकालने से हानि नहीं होती। यह बहुत बडी मूर्खता है। यदि समाज चरित्रवान् होगा तभी समाज, राष्ट्र आगे बढ पाएगा। नहीं तो बलात्कार जैसी घटनाएँ होती रहेंगी। आज इसके लिए नैतिक-शिक्षा की आवश्यकता है।

(3.) जीवन के तीसरे चरण में अपने जीवन को मुनि की वृत्ति जैसी बना लेना चाहिए। आप जहाँ भी रहे, निर्लेप, निर्द्वन्द्व भाव से रहें। वन में तो जाने से रहे। घर में भी रहते हैं तो घर के कामों में अधिक टोका-टाकी न करें, सलाह अवश्य दें, किन्तु ये विचार अपने मन में रखें कि मेरी बात मान ली ही जानी चाहिए। ऐसी वृत्ति रखेंगे तो पछताने के सिवा और कुछ नहीं मिलेगा। आपके पुत्र-पुत्रवधू, पौत्र अब सभी योग्य हो गए हैं, उन्हें अपना काम स्वतन्त्रतापूर्वक करने दीजिए।  हमारा जीवन ऐसा हो कि जैसे तालाब में कमल होता है, निर्लेप। उसके ऊपर कीचड और पानी का कोई प्रभाव नहीं पडता। ऐसा हमारा जीवन होना चाहिए। घर-संसार में रहते हुए भी घर-संसार से पृथक् रहें, वैरागी की तरह। अभिप्राय यह है कि घर में, घर की वस्तुओं में, पुत्र-पौत्रों में रिश्ते-सम्बन्धों में मोह न करें, अनुराग न रखें, प्यार सबसे करें, व्यवहार सबसे करें, बातें करें, किन्तु चिपक न जाएँ । अपना जीवन ऐसा बना लें कि उनके बिना भी आप जी सकें। उनके ऊपर सर्वथा निर्भर न हो जाएँ, ऐसा न कर लें कि उनके बिना जिया न जा सके। कोशिश करें कि अपना काम स्वयं कर लें। इस समय शरीर कमजोर होता है, इसलिए जिह्वा पर नियन्त्रण रखें और सक्रिय (Active) रहें।

(4.) जीवन के अन्तिम पडाव पर 75 वर्ष से ऊपर होने पर आप संन्यासियों की तरह रहें। वैसे नियम तो यह है कि प्रत्येक व्यक्ति को संन्यास लेना चाहिए, क्योंकि आपने संन्यास जैसा जीवन बनाया नहीं, तो कम-से-कम घर में भी त्यागपूर्वक रहें। जहाँ जाएँ दूसरों को सही सलाह दें, विद्यालयों में जाकर बच्चों को निश्शुल्क पढाएँ। हो सके तो धार्मिक संस्थाओं में जाकर सेवा करें, योग करें, ध्यान करें, प्राणायाम करें। यदि दान कर सकते हैं तो निर्धन बालकों को पढने की व्यवस्था करें, गुरुकुलों में जाएँ और विद्यादान करें, वहाँ से स्वयं भी कुछ सीखें। यह अन्तिम आश्रम बहुत कठिन है।

"आद्ये वयसि नाधीतं, द्वितीये नार्जितं धनम्।
तृतीये न तपस्तप्तं, चतुर्थे किं करिष्यति ।।"

अर्थः---यह श्लोक भी वही बात कह रहा है, जिसका वर्णन ऊपर किया गया है। जीवन के प्रथम वय में जिसने विद्या का अध्ययन नहीं किया, द्वितीय अर्थात् गृहस्थ में जिसने धन नहीं कमाया, तृतीय अर्थात् वानप्रस्थ में जिसने अपने शरीर को नहीं तपाया, मुनियों जैसा नहीं बनाया, तो वह चतुर्थ वय में  75 वर्ष के बाद क्या करेगा। दुःखी होगा और क्या करेगा। घर परिवार से कोई सहयोग नहीं मिलेगा। ऐसे लोगों को ही उसके अपने बच्चे सताते हैं।

आइए, हम सब अपना-अपना जीवन वैदिक बनाए, वेदानुकूल जिएँ और जीवन को सार्थक करें। प्रभु करे आप सबके जीवन में खुशियाँ आएँ, धन-सम्पदा से आपका परिवार पूर्ण हों। सुखा सन्तान मिलें, ऐसी हमारी कामना है। धन्यवाद।

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इस महान देश में आपको बेवकूफी के कुछ ऐसे उदहारण


मित्रों,
भारत को महान देश कहा जाता है लेकिन इस महान देश में आपको बेवकूफी के कुछ ऐसे उदहारण देखने को मिलेंगे जो दुनिया के किसी देश में नहीं हैं...क्या कभी सुना है की किसी देश के लोग उन लोगों को सम्मान के साथ पुकारते हों जिन्होंने उनपर आक्रमण किया,उनकी बहु बेटियों का निर्ममता से बलात्कार किया और जबरन उनके पूर्वजों का धर्म परिवर्तन कराया..नहीं न लेकिन भारत में तो ये आम बात है
जी हाँ हम मुग़ल शासकों की ही बात कर रहे हैं
कौन थे मुग़ल??क्या किया था उन्होंने भारतवासियों के साथ??क्या वे सम्मान के लायक हैं??
दोस्तों इस से बड़ी बेशर्मी की बात नहीं हो सकती हमारे लिए की हम उन लोगों को सम्मान का दर्जा दें जिन्होंने न सिर्फ भारत की संस्कृति को नष्ट किया बल्कि असहनीय यातनाएं देकर हमारे पूर्वजों का जबरन धर्म परिवर्तन करवाया...
आखिर क्या कारण है की हमारे हिन्दू भाई इन मुग़लों को इतनी इज्ज़त देते हैं??इसमें सबसे मुख्य कारण है हमारे इतहास को तोड़ मरोड़ कर हमारे सामने पेश किया जाना.९९% हिन्दू ये समझते हैं की मुग़ल भी हमारे महान क्रांतिकारियों में से ही एक हैं लेकिन ये उन महान क्रांतिकारियों का अपमान है जो हम उनकी तुलना इन नीच अधर्मियों के साथ करें...जहां एक तरफ हमारे शूरवीरों ने अपने बलिदान से हमें इन क्रूर शासकों से आज़ादी दिलाई वहीँ इन मुगलों ने बाहर से आकर हमारे धर्म,हमारे मंदिर हमारी संस्कृति को इतना नुक्सान पहुंचाया की उसका परिणाम हम आज भी झेल रहे हैं.
दूसरा मुख्य कारण है हमारे देश की फिल्म इंडस्ट्री जिन्होंने "मुग़ल ऐ आज़म" और "टीपू सुलतान" नाम की फिल्मे बना कर बची खुची संस्कृति को भी नष्ट कर दिया...इन फिल्मों में उन्हें शूरवीर बताया गया जबकि सत्य इसके बिलकुल विपरीत है.
आज हालात ऐसे हैं की अगर किसीको सही इतहास पढ़ाने जाओ तो कहता है नहीं नहीं ये सब गलत है जो फिल्म में है वही सत्य है...इस कदर हमारे भोले भाले भारतवासियों के दिमाग इस जहर को भर दिया गया है...
मेरी आपसे केवल यही विनंती है की अगर आपके दिलों थोडा सा भी सम्मान महाराज शिवाजी और रानी लक्ष्मीबाई जैसे हमारे महान पूर्वजों के लिए बचा है तो आज से प्रतिज्ञा लें की इस जूठे इतहास को अब नहीं मानेगे..और न ही औरों को मानने देंगे..
बाबर,अकबर और टीपू सुल्तान की असलियत को जानने के लिए इस लिंक पर जाएँ,एक बार इसे पढ़ लेने के बाद आपके सभी सवालों के जवाब मिल जायेंगे..
http://agniveer.com/babri-masjid-hi/

http://agniveer.com/akbar-great-hi/

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मित्रों,
भारत को महान देश कहा जाता है लेकिन इस महान देश में आपको बेवकूफी के कुछ ऐसे उदहारण देखने को मिलेंगे जो दुनिया के किसी देश में नहीं हैं…क्या कभी सुना है की किसी देश के लोग उन लोगों को सम्मान के साथ पुकारते हों जिन्होंने उनपर आक्रमण किया,उनकी बहु बेटियों का निर्ममता से बलात्कार किया और जबरन उनके पूर्वजों का धर्म परिवर्तन कराया..नहीं न लेकिन भारत में तो ये आम बात है
जी हाँ हम मुग़ल शासकों की ही बात कर रहे हैं
कौन थे मुग़ल??क्या किया था उन्होंने भारतवासियों के साथ??क्या वे सम्मान के लायक हैं??
दोस्तों इस से बड़ी बेशर्मी की बात नहीं हो सकती हमारे लिए की हम उन लोगों को सम्मान का दर्जा दें जिन्होंने न सिर्फ भारत की संस्कृति को नष्ट किया बल्कि असहनीय यातनाएं देकर हमारे पूर्वजों का जबरन धर्म परिवर्तन करवाया…
आखिर क्या कारण है की हमारे हिन्दू भाई इन मुग़लों को इतनी इज्ज़त देते हैं??इसमें सबसे मुख्य कारण है हमारे इतहास को तोड़ मरोड़ कर हमारे सामने पेश किया जाना.९९% हिन्दू ये समझते हैं की मुग़ल भी हमारे महान क्रांतिकारियों में से ही एक हैं लेकिन ये उन महान क्रांतिकारियों का अपमान है जो हम उनकी तुलना इन नीच अधर्मियों के साथ करें…जहां एक तरफ हमारे शूरवीरों ने अपने बलिदान से हमें इन क्रूर शासकों से आज़ादी दिलाई वहीँ इन मुगलों ने बाहर से आकर हमारे धर्म,हमारे मंदिर हमारी संस्कृति को इतना नुक्सान पहुंचाया की उसका परिणाम हम आज भी झेल रहे हैं.
दूसरा मुख्य कारण है हमारे देश की फिल्म इंडस्ट्री जिन्होंने “मुग़ल ऐ आज़म” और “टीपू सुलतान” नाम की फिल्मे बना कर बची खुची संस्कृति को भी नष्ट कर दिया…इन फिल्मों में उन्हें शूरवीर बताया गया जबकि सत्य इसके बिलकुल विपरीत है.
आज हालात ऐसे हैं की अगर किसीको सही इतहास पढ़ाने जाओ तो कहता है नहीं नहीं ये सब गलत है जो फिल्म में है वही सत्य है…इस कदर हमारे भोले भाले भारतवासियों के दिमाग इस जहर को भर दिया गया है…
मेरी आपसे केवल यही विनंती है की अगर आपके दिलों थोडा सा भी सम्मान महाराज शिवाजी और रानी लक्ष्मीबाई जैसे हमारे महान पूर्वजों के लिए बचा है तो आज से प्रतिज्ञा लें की इस जूठे इतहास को अब नहीं मानेगे..और न ही औरों को मानने देंगे..
बाबर,अकबर और टीपू सुल्तान की असलियत को जानने के लिए इस लिंक पर जाएँ,एक बार इसे पढ़ लेने के बाद आपके सभी सवालों के जवाब मिल जायेंगे..
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बाबरी मस्जिद का सच


बाबरी मस्जिद का सच

हमने इतिहास में लिखे हिन्दू मुस्लिम एकता के
प्रतीकों पर एक दृष्टि डाली. सदैव
कहा जाता रहा कि सदियों से हिन्दू मुसलमान इस देश भारत में
साथ साथ रहते आये हैं,
हमारी संस्कृति गंगा जमुनी है,
हमारा प्यार मुहब्बत का रिश्ता है, इंसानियत का रिश्ता है….
मिसाल के तौर पर इस्लाम के
सूफी ख्वाजा मोईनुद्दीन
चिश्ती हर हिन्दू मुसलमान के दिल में बसे हैं.
उनकी कब्र पर जहां मुसलमान सर झुकाते हैं
तो भाईचारे की भावना से विवश हिन्दू
भी सर झुकाते हैं.
फिर, अजीमोशान शहंशाह अकबर जो हर दिल
अजीज हैं, जिन्होंने भारत के राजाओं और प्रजाओं
को काट काटकर एक छत्र में खड़ा कर दिया . जिन्होंने धर्म के
बन्धनों को तोड़कर छत्तीसों हिन्दू राजपूत कन्याओं
को अपने हरम में डालकर अपने सबसे करीब आने
का सुनहरा अवसर दिया . क्या इससे बढ़कर हिन्दू मुस्लिम
एकता का प्रतीक कुछ हो सकता है? ये और बात
है कि कभी इन शौक़ीन सुल्तानों ने
अपने हरम से उत्पन्न हुई
किसी स्त्री को किसी हिन्दू
को नहीं ब्याहने दिया.
फिर, टीपू सुलतान ने
अपनी मातृभूमि भारत के लिए अंग्रेजों से लड़ाई
की और शहीद हो गए.
अतः मोईनुद्दीन चिश्ती, अकबर, और
टीपू सुलतान जैसे व्यक्ति ही वास्तव
में हिन्दू मुस्लिम एकता के प्रतीक हैं, ऐसा हमारे
इतिहास को पढने से प्रतीत होता है.
यह बात अलग है कि कुछ सिरफिरे ऐसे एकता के
प्रतीकों पर यह कह कर प्रश्न खडा कर देते
हैं कि मोईनुद्दीन चिश्ती तो एक गद्दार
घुसपैठिया था जिसने मुहम्मद गौरी को भारत के
हिन्दू राजा पृथ्वीराज चौहान पर हमला करने के
लिए उकसाया था और सहायता दी थी. वे
कहते हैं कि अकबर ने जब चित्तौड़ विजय के समय
तीस हज़ार निर्दोष लोगों के कत्ले आम के आदेश
दिए (और उतनी स्त्रियों को या जल मरने के लिए
या अपने सैनिको कि हवस पूर्ती के लिए छोड़ दिया),
और उनके सिरों को काटकर उनसे मीनार
बनवायीं तो फिर वह एकता का प्रतीक
कैसे हुआ? जब टीपू सुलतान ने हजारों हिन्दुओं
को जबरन मुसलमान बनाया और हजारों को क़त्ल किया क्योंकि वे
मुसलमान न बने तो फिर वह एकता का प्रतीक
कैसे? वे कहते हैं कि टीपू भारत के लिए
नहीं बल्कि अपनी हुकूमत के लिए
अंग्रेजों से लड़ रहा था.
सदियों से साथ साथ रहने की बात पर जब ये सिरफिरे
सवाल उठाते हैं कि एक समय इस देश
की सीमाएं पश्चिम में ईरान को तो पूर्व में
बर्मा को छूती थीं, और उत्तर में
कश्मीर भी इसी भारत
भूमि का अंश था तो फिर ऐसा कैसे हुआ कि सदियों से साथ साथ
रहने वाले भाइयों ने हमारी भारत माता को पांच
टुकड़ों (अफगानिस्तान, पाकिस्तान, भारत, कश्मीर,
बंगलादेश) में तोड़ डाला जिनमें से चार में आज साथ रहने वाले
हिन्दू दीखते ही नहीं,
तो इस पर सब इतिहासकार और सेकुलरवादी बिफर
पड़ते हैं. हम भी इन सिरफिरों से बिलकुल संतुष्ट
नहीं!
अरे! क्या हिन्दू मुस्लिम एकता के लिए कुछ हिन्दू सिर्फ अपने
सिर, अपनी स्त्रियाँ, अपना धर्म और
अपनी जमीन
भी नहीं दे सकते? क्या हिन्दुओं
का यह कर्त्तव्य नहीं था कि दुनिया भर में
इस्लामी परोपकार और
कल्याणकारी भावना से ओतप्रोत घूम रहे मुगलों,
अरबों, तुर्कों आदि को कुछ सिर, बहनें, बेटियां और धर्म अर्पण
कर उनके परोपकार का मोल चुकाते? जो मुग़ल आदि सदा अपने
मुल्क छोड़कर पराये मुल्क भारत को एक करने के महान
उद्देश्य से यहाँ संघर्ष करते रहे, वे इतना तो अधिकार रखते
ही थे कि उन्हें पारितोषिक के रूप में धन, स्त्रियाँ,
राज्य, धर्म और इन सबसे बढ़कर
“एकता का प्रतीक” सम्मान मिले. अरे लानत है ऐसे
स्वाभिमानी हिन्दुओं पर जो सांप्रदायिक सद्भाव के
लिए इतना भी नहीं कर सकते! इस
देश के अधिकाँश इतिहासकारों के लिए यह हर्ष का विषय
होना चाहिए कि ऐसा ही हुआ | भले
ही कुछ सिरफिरे आज इसका विरोध करते रहें
जैसा कि महान मुगलों के समय क्षुद्र महाराणा प्रताप और
शिवाजी ने किया था और यहाँ अग्निवीर
कर रहा है. पर कौन पूछता है इनको? दिल्ली में
ही अकबर, बाबर, हुमायूं, औरंगजेब,
लोदी, आदि के नाम पर सड़कों और स्थानों के नाम रखे
गए हैं ताकि एकता के धरोहर इन नामों का सम्मान हो सके!
खैर छोड़ें इन व्यर्थ बातों को.
आज हम जिस विषय पर लिखने जा रहे हैं, वह
सेकुलरवादियों और एकपक्षीय एकता चाहने
वालों को शायद अच्छा न लगे. आज से अट्ठारह वर्ष पहले ६
दिसंबर सन १९९२ को इस देश के एक और “एकता के
प्रतीक” मुगलों में से एक बाबर के नाम पर
बनाया गया एक ढांचा तोड़ डाला गया. इसका इतिहास कुछ ऐसा है
कि अयोध्या में बहुत पुराना राम मंदिर हुआ करता था जिस के बारे
में करोड़ों हिन्दुओं का यह विश्वास है कि श्रीराम
उसी स्थान पर जन्मे थे. इसे कुफ्र
की निशानी मानकर बाबर के जिहादियों ने
बलपूर्वक तोड़ डाला क्योंकि मूर्तिपूजा इस्लाम में वर्जित है और
इसलिए वहां बाबर के नाम की मस्जिद
बना दी. राम मंदिर को बलपूर्वक तोड़े जाने
की घटना पर एक शब्द भी न निकालने
वाले सेकुलरिस्टों और जिहादियों को जैसे
ही बाबरी ढांचा टूटने
की खबर मिली, उनके हृदयों पर जैसे
आकाश टूट पडा, जैसे
बिजली सी गिरी या वज्रपात
हो गया.
ठीक ही था, राम ठहरा इस देश के
निवासियों का पूर्वज और बाबर ठहरा पराये मुल्क से यहाँ आकर
परोपकार के निमित्त धन, स्त्रियाँ, राज्य
आदि की व्यवस्था करने वाला जिसका एकमात्र
उद्देश्य इस भारत को एकछत्र के नीचे लाकर विश्व
का कल्याण करना था! एक राम था जिसने पराया देश लंका विजय
करने पर भी राज्य वहीँ के
स्थानीय लोगों को दे दिया,
उनकी स्त्रियों को माता कहकर
उनकी ओर
देखा भी नहीं और एक ओर बाबर
था जिसने राज्य जीतकर यहाँ के
स्थानीय लोगों की सेवा करना ज्यादा उचित
समझा और स्त्रियाँ जीतकर इन्हें
अपना ही कर्त्तव्य समझ कर अपने हरम
की ओर रवाना कर दिया! इस तरह के “एकता के
प्रतीक” बाबर के जीवन के कुछ और
प्रेरक (?) प्रसंगों को पढने की इच्छा से हमने
स्वयं बाबर का लिखा हुआ “ बाबरनामा ” पढ़ा जिसमें उसने अपने
जीवन की घटनाएं
अपनी लेखनी से
ही लिखी हैं ताकि आने
वाली पीढी भी उनसे
कुछ सीख ले सके. आप
भी बाबरनामा को यहाँ पढ़ सकते हैं http://
http://www.archive.org/details/baburnama017152mbp
हमारा यह दृढ विश्वास था कि बाबर एक पक्का मुसलमान
था और इस्लामी रिवाज के अनुसार अपने देश से
अधिक दूसरे देशों के लोगों, धर्म, राज्य और स्त्रियों का अधिक
ध्यान उसे सताता था. पर अचानक हमने कुछ ऐसा पढ़ा कि जिससे
इस महात्मा मोमिन बाबर के चरित्र के कुछ और रंग सामने आये!
और तब हमें लगा कि हिन्दू मुस्लिम एकता के
प्रतीकों में से सबसे अधिक यदि कोई मूल्यवान है
तो वह है बाबरी ढाँचे का विध्ध्वंस. चौंकिए
नहीं! खुद बाबर के लिखे बाबरनामा से यह
पता चलता है कि राम मंदिर तोड़कर उसके नाम पर
बनाया गया ढांचा असल में मस्जिद
ही नहीं था! ऐसा इसलिए क्योंकि बाबर
खुद मुसलमान ही नहीं था! क्योंकि-
बाबर एक समलैंगिक
(homosexual),
नशेड़ी,
शराबी, और बाल
उत्पीड़क (child
molester) था
बाबरनामा के विभिन्न पृष्ठों से लिए गए निम्नलिखित अंश पढ़िए
१. पृष्ठ १२०-१२१ पर बाबर लिखता है कि वह
अपनी पत्नी में अधिक
रूचि नहीं लेता था बल्कि वह
तो बाबरी नाम के एक लड़के
का दीवाना था. वह लिखता है कि उसने
कभी किसी को इतना प्यार
नहीं किया कि जितना दीवानापन उसे उस
लड़के के लिए था. यहाँ तक कि वह उस लड़के पर
शायरी भी करता था. उदाहरण के लिए-
“मुझ सा दर्दीला, जुनूनी और बेइज्जत
आशिक और कोई नहीं है. और मेरे आशिक
जैसा बेदर्द और तड़पाने वाला भी कोई और
नहीं है.”
२. बाबर लिखता है कि जब बाबरी उसके
‘करीब’ आता था तो बाबर इतना रोमांचित
हो जाता था कि उसके मुंह से शब्द
भी नहीं निकलते थे. इश्क के नशे
और उत्तेजना में वह बाबरी को उसके प्यार के लिए
धन्यवाद देने को भी मुंह नहीं खोल
पता था.
३. एक बार बाबर अपने दोस्तों के साथ एक गली से
गुजर रहा था तो अचानक उसका सामना बाबरी से
हो गया! बाबर इससे इतना उत्तेजित हो गया कि बोलना बंद
हो गया, यहाँ तक कि बाबरी के चेहरे पर नजर
डालना भी नामुमकिन हो गया. वह लिखता है- “मैं
अपने आशिक को देखकर शर्म से डूब जाता हूँ. मेरे
दोस्तों की नजर मुझ पर
टिकी होती है और
मेरी किसी और पर.” स्पष्ट है
की ये सब साथी मिलकर क्या गुल खिलाते
थे!
४. बाबर लिखता है कि बाबरी के जूनून और चाह में
वह बिना कुछ देखे पागलों की तरह नंगे सिर और
नागे पाँव इधर उधर घूमता रहता था.
५. वह लिखता है- “मैं उत्तेजना और रोमांच से पागल
हो जाता था. मुझे नहीं पता था कि आशिकों को यह
सब सहना होता है. ना मैं तुमसे दूर जा सकता हूँ और न
उत्तेजना की वजह से तुम्हारे पास ठहर
सकता हूँ. ओ मेरे आशिक (पुरुष)! तुमने मुझे बिलकुल पागल
बना दिया है”.
इन तथ्यों से पता चलता है कि बाबर और उसके
साथी समलैंगिक और बाल उत्पीड़क थे.
अब यदि इस्लामी शरियत की बात करें
तो समलैंगिकों के लिए मौत की सजा
ही मुक़र्रर की जाती है.
बहुत से इस्लामी देशों में यह सजा आज
भी दी जाती है. बाबर
को भी यही सजा मिलनी चाहिए
थी. दूसरी बात यह है कि उसके नाम
पर बनाए ढाँचे का नाम “बाबरी मस्जिद”
था जो कि उसके पुरुष आशिक “बाबरी” के नाम पर था!
हम पूछते हैं कि क्या अल्लाह के इबादत के लिए कोई
ऐसी जगह क़ुबूल
की जा सकती है कि जिसका नाम
ही समलैंगिकता के प्रतीक बाबर के
पुरुष आशिक “बाबरी” के नाम पर रखा गया हो?
इससे भी बढ़कर एक
आदमी द्वारा जो कि मुसलमान
ही नहीं हो, समलैंगिक और बच्चों से
कुकर्म करने वाला हो , उसके नाम पर मस्जिद
किसी भी मुसलमान को कैसे क़ुबूल
हो सकती है?
यह सिद्ध हो गया है कि बाबरी मस्जिद कोई
इबादतघर नहीं लेकिन समलैंगिकता और बाल
उत्पीडन का प्रतीक जरूर
थी. और इस तरह यह अल्लाह, मुहम्मद,
इस्लाम आदि के नाम पर कलंक थी कि जिसको खुद
मुसलमानों द्वारा ही नेस्तोनाबूत कर दिया जाना चाहिए
था. खैर वे यह नहीं कर सके पर जिसने यह
काम किया है उनको बधाई और धन्यवाद तो जरूर देना चाहिए था.
यह बहुत शर्म की बात है कि पशुतुल्य और
समलैंगिकता के महादोष से ग्रसित आदमी के बनाए
ढाँचे को, जो कि भारत की हार का प्रतीक
था, यहाँ के इतिहासकारों, मुसलमानों, और सेकुलरवादियों ने
किसी अमूल्य धरोहर की तरह
संजो कर रखना चाहा.
यह ऐसी ही बात है कि जैसे मुंबई में
छत्रपति शिवाजी टर्मिनल्स स्टेशन पर नपुंसक और
कायर आतंकवादी अजमल कसब द्वारा निर्दोष
लोगों को मौत के घाट उतारने के उपलक्ष्य में उस स्थान का नाम
“कसब भूमि” रखकर उसे भी धरोहर बना दिया जाये!
बाबर नरसंहारक, लुटेरा,
बलात्कारी,
शराबी और
नशेड़ी था
यहाँ पर इस विषय में कुछ ही प्रमाण इस दरिन्दे
की लिखी जीवनी बाबरनामा से
दिए जा रहे हैं. इसके और अधिक कारनामे जानने के लिए
पूरी पुस्तक पढ़ लें.
पृष्ठ २३२- वह लिखता है कि उसकी सेना ने
निरपराध अफगानों के सिर काट लिए जो उसके साथ
शान्ति की बात करने आ रहे थे. इन कटे हुए
सिरों से इसने मीनार बनवाई.
ऐसा ही कुछ इसने हंगू में किया जहाँ २००
अफगानियों के सिर काट कर खम्बे बनाए गए.
पृष्ठ ३७०- क्योंकि बाजौड़ में रहने वाले लोग दीन
(इस्लाम) को नहीं मानते थे इसलिए वहां ३०००
लोगों का क़त्ल कर दिया गया और उनके
बीवी बच्चों को गुलाम बना लिया गया.
पृष्ठ ३७१- गुलामों में से कुछों के सिर काटकर काबुल और बल्ख
भेजे गए ताकि फतह
की सूचना दी जा सके.
पृष्ठ ३७१- कटे हुए सिरों के खम्बे बनाए गए
ताकि जीत का जश्न मनाया जा सके.
पृष्ठ ३७१- मुहर्रम की एक रात को जश्न मनाने
के लिए शराब की एक महफ़िल जमाई
गयी जिसमें हमने पूरी रात
पी. (पूरे बाबरनामा में जगह जगह
ऐसी शराब की महफ़िलों का वर्णन है.
ध्यान रहे कि शराब इस्लाम में हराम है.)
पृष्ठ ३७३- बाबर ने एक बार ऐसा नशा किया कि नमाज पढने
भी न जा सका. आगे लिखता है
कि यदि ऐसा नशा वह आज करता तो उसे पहले से
आधा नशा भी नहीं होता.
पृष्ठ ३७४- बाबर ने अपने हरम की बहुत
सी महिलाओं से बहुत से बच्चे उत्पन्न किये.
उसकी पहली बेगम ने उससे
वादा किया कि वह उसके हर बच्चे
को अपनाएगी चाहे वे
किसी भी बेगम से हुए हों,
ऐसा इसलिए क्योंकि उसके पैदा किये कुछ बच्चे चल बसे थे. यह
तो जाहिर ही है कि इसके हरम बनाम
मुर्गीखाने में इसकी हवस मिटाने के लिए
कुछ हजार औरतें तो होंगी ही जैसे
कि इसके पोते स्वनामधन्य अकबर के हरम में पांच हजार
औरतें थीं जो इसकी ३६
(छत्तीस) पत्नियों से अलग थीं. यह
बात अलग है कि इसका हरम अधिकतर समय
सूना ही रहता होगा क्योंकि इसको स्त्रियों से अधिक
पुरुष और बच्चे पसंद थे ! और बाबरी नाम के बच्चे
में तो इसके प्राण ही बसे थे.
पृष्ठ ३८५-३८८- अपने बेटे हुमायूं के पैदा होने पर बाबर
बहुत खुश हुआ था, इतना कि इसका जश्न मनाने के लिए
अपने दोस्तों के साथ नाव में गया जहां पूरी रात इसने
शराब पी और
नशीली चीजें खाकर अलग
से नशा किया. फिर जब नशा इनके सिरों में चढ़ गया तो आपस में
लड़ाई हुई और महफ़िल बिखर गयी.
इसी तरह एक और शराब
की महफ़िल में इसने बहुत
उल्टी की और सुबह तक सब कुछ
भूल गया.
पृष्ठ ५२७- एक और महफ़िल एक मीनारों और
गुम्बद वाली इमारत में हुई
थी जो आगरा में है. (ध्यान रहे यह इमारत
ताजमहल ही है जिसे अधिकाँश सेकुलर
इतिहासकार शाहजहाँ की बनायी बताते
हैं, क्योंकि आगरा में इस प्रकार की कोई और इमारत
न पहले थी और न आज है! शाहजहाँ से चार
पीढी पहले जिस महल में उसके
दादा ने गुलछर्रे उड़ाए थे उसे वह खुद कैसे बनवा सकता है?)
बाबरनामा का लगभग हर एक पन्ना इस दरिन्दे के कातिल होने,
लुटेरा होने, और दुराचारी होने का सबूत है.
यहाँ यह याद रखना चाहिए कि जिस तरह बाबर यह सब
लिखता है, उससे यह पता चलता है कि उसे इन सब
बातों का गर्व है, इस बात का पता उन्हें चल जाएगा जो इसके
बाबरनामा को पढेंगे. आश्चर्य इस बात का है कि जिन बातों पर इसे
गर्व था यदि वे ही इतनी भयानक हैं
तो जो आदतें
इसकी कमजोरी रही होंगी,
जिन्हें इसने लिखा ही नहीं, वे
कैसी क़यामत ढहाने
वाली होंगी?
सारांश
१. यदि एक आदमी समलैंगिक होकर
भी मुसलमान हो सकता है, बच्चों के साथ दुराचार
करके भी मुसलमान हो सकता है, चार से
ज्यादा शादियाँ करके भी मुसलमान हो सकता है,
शराब पीकर नमाज न पढ़कर
भी मुसलमान हो सकता है, चरस, गांजा,
अफीम खाकर भी मुसलमान
हो सकता है, हजारों लोगों के सिर काटकर उनसे
मीनार बनाकर भी मुसलमान
हो सकता है, लूट और बलात्कार करके
भी मुसलमान हो सकता है तो फिर वह कौन है
जो मुसलमान नहीं हो सकता? क्या इस्लाम इस सब
की इजाजत देता है?
यदि नहीं तो आज तक
किसी मौलवी मुल्ला ने इस विषय पर
एक शब्द भी क्यों नहीं कहा?
२. केवल यही नहीं, जो यह सब
करके अपने या अपने पुरुष आशिक के नाम
की मस्जिद बनवा दे, ऐसी जगह
को मस्जिद कहना हराम नहीं है क्या?
क्या किसी बलात्कारी समलैंगिक
शराबी व्यभिचारी के पुरुष आशिक के नाम
की मस्जिद में
अता की गयी नमाज अल्लाह को क़ुबूल
होगी? यदि हाँ तो अल्लाह ने इन सबको हराम
क्यों बताया? यदि नहीं तो अधिकतर मुसलमान और
मौलवी इस जगह को मस्जिद कहकर दंगा फसाद
क्यों कर रहे हैं? क्या इसका टूटना इस्लाम पर लगे कलंक
को मिटाने जैसा नहीं था? क्या यह काम खुद
मुसलमानों को नहीं करना चाहिए था?
३. जब इस दरिन्दे बाबर ने खुद क़ुबूल किया है कि इसने
हजारों के सिर कटवाए और कुफ्र को मिटाया तो फिर आजकल के
जाकिर नाइक जैसे आतंकी मुल्ला यह क्यों कहते
हैं कि इस्लाम तलवार के बल पर भारत में
नहीं फैला? जब खुद अकबर
(जिसको इतिहासकारों द्वारा हिन्दुओं का रक्षक कहा गया है
और जान ए हिन्दुस्तान नाम से पुकारा गया है) जैसा नेकदिल (?)
भी हजारों हिन्दुओं के सिरों को काटकर उनके खम्बे
बनाने में प्रसिद्ध था तो फिर यह कैसे माना जाए कि इस्लाम
तलवार से नहीं फैला? क्या ये लक्षण शान्ति से
धर्म फैलाने के हैं? फिर इस्लाम का मतलब ‘शान्ति’ कैसे
हुआ?
४. भारत, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, बंगलादेश में रहने वाले सब
मुसलमानों के पूर्वज हिन्दू ही थे
जो हजारों सालों से यहाँ रहते आ रहे थे. जब बाबर जैसे और
इससे भी अधिक दरिंदों ने आकर यहाँ मारकाट
बलात्कार और तबाही मचाई, सिरों को काटकर
मीनारें लहरायीं तो दहशत के इस
वातावरण में बहुत से हिन्दुओं ने अपना धर्म बदल लिया और
उन्हीं लाचार पूर्वजों की संतानें आज
मुसलमान होकर अपने असली धर्म के खिलाफ
आग उगल रही हैं. जिन मुसलमानों के
बाबरी मस्जिद (?) विध्ध्वंस पर आंसू
नहीं थम रहे, जो बार बार यही कसम
खा रहे हैं कि बाबरी मस्जिद
ही बनेगी, जो बाबर को अपना पूर्वज
मान बैठे हैं, ज़रा एक बार खुद से सवाल तो करें- क्या मेरे
पूर्वज अरब, तुर्क या मंगोल से आये थे? क्या मेरे पूर्वज इस
भारत भूमि की पैदावार नहीं थे? कटे
हुए सिरों की मीनारें देखकर भय से
धर्म परिवर्तन करने वाले पूर्वजों के वंशज आज कौन हैं,
कहाँ हैं, क्या कभी सोचा है? क्या यह विचार
कभी मन में नहीं आता कि इतने कत्ले
आम और बलात्कार होने पर विवश माता पिताओं के वे लाल आज
कहाँ हैं कि जिन्हें अपना धर्म, माता, पिता सब खोने पड़े?
क्या भारत, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, बंगलादेश में रहने वाले
७०-८० करोड़ मुसलमान सीधे अरबों, तुर्कों के वंशज
हैं? कभी यह नहीं सोचा कि इतने
मुसलमान तो अरब, तुर्क, ईरान, ईराक में मिला कर
भी नहीं हैं जो इस्लाम के फैलाने में
कारण बने? क्या तुम्हारे पूर्वज राम को नहीं मानते
थे? क्या बलपूर्वक अत्याचार के कारण तुम्हारे पूर्वजों का धर्म
बदलने से तुम्हारा पूर्वज राम की बजाय बाबर
हो जाएगा? अगर नहीं तो आज अपने
असली पूर्वज राम को गाली और अपने
पूर्वजों के कातिल और बलात्कारी बाबर का गुणगान
क्यों?
५. अयोध्या की तरह काशी, मथुरा और
हजारों ऐसी ही जगहें जिन्हें
मस्जिद कह कर इस्लाम का मजाक उड़ाया जाता है, जो बाबर
की तरह ही इसके पूर्वजों और
वंशजों की हवस की निशानियाँ हैं,
इनको मुसलमान खुद क्यों मस्जिद मानने से इनकार
नहीं करते?
६. यदि बाबरी ढांचा टूटना गलत था तो राम मंदिर
टूटना गलत क्यों नहीं था? यदि राम मंदिर
की बात पुरानी हो गयी है
तो ढांचा टूटने की बात भी तो कोई
नयी नहीं! तो फिर उस पर
हायतौबा क्यों?
अंत में हम कहेंगे कि जिस तरह भारत में रहने वाले हिन्दू
मुसलमानों के पूर्वजों पर अत्याचार और बलात्कार करने वाले
वहशी दरिन्दे बाबर के नाम का ढांचा आज
नहीं है उसी तरह बाकी
सब ढांचे जो तथाकथित इस्लामी राज्य के दौरान
मंदिरों को तोड़कर बनवाये गए थे, जो सब हिन्दू मुसलमानों के
पूर्वजों के अपमान के प्रतीक हैं, उनको अविलम्ब
मिट्टी में मिला दिया जाए और
इसकी पहल हमारे खून के भाई मुसलमान
ही करें जिनके साथ
हमारा हजारों लाखों सालों का रक्त सम्बन्ध है. इस देश में
रहने वाले
किसी आदमी की, चाहे
वह हिन्दू हो या मुसलमान, धमनियों में दरिन्दे जानवर बाबर
या अकबर का खून नहीं किन्तु राम, कृष्ण,
महाराणा प्रताप और शिवाजी का खून है. और इस
एक खून की शपथ लेकर सबको यह प्रण
करना है कि अब हमारे पूर्वजों पर लगा कोई कलंक
भी देश में नहीं रह पायेगा.
क्या दृश्य होगा कि हिन्दू और मुसलमान एक साथ अपने एक
पूर्वजों पर लगे कलंकों को गिराएंगे और उस जगह अपने
पूर्वजों की यादगार के साथ साथ उनके
असली धर्म वेद की पाठशाला बनायेंगे
जहां राम और कृष्ण जैसे धर्मयोद्धा तैयार होंगे कि फिर कोई
बाबर आकर इस भूमि के पुत्रों को उनके माता पिता, दोस्तों और
धर्म से अलग न कर सके!
और तब तक के लिए, आओ हम सब हिन्दू और मुस्लिम भाई
मिलकर हर साल पूरे उत्साह के साथ ६ दिसंबर के पावन पर्व
को ‘शौर्य दिवस’ और ‘गौरव दिवस’ के रूप में मनाएं. हाँ,
मथुरा और वाराणसी में ऐसे
ही वहशी दरिन्दे ‘औरंगजेब’ के
बनाये ढांचें – जो इस्लाम के पावन नाम पर बदतर कलंक है –
उनको मिटाने का सौभाग्य हमारे मुस्लिम
भाइयों को ही मिले.
६ दिसंबर १९९२ के दिन हिन्दू-मुस्लिम एकता के सबसे बड़े
प्रतीक की स्थापना करने वाले
सभी भाई-बहनों को हम सब हिन्दू और
मुसलमानों का कोटि-कोटि नमन.
साभार: अग्नीवीर साईट

Posted in श्रीमद्‍भगवद्‍गीता

(Bhagavad Gita 2.32)


yadṛcchayā copapannaṁ
svarga-dvāram apāvṛtam
sukhinaḥ kṣatriyāḥ pārtha
labhante yuddham īdṛśam (Bhagavad Gita 2.32)

O Pārtha, happy are the kṣatriyas to whom such fighting opportunities come unsought, opening for them the doors of the heavenly planets.

atha cet tvam imaṁ dharmyaṁ
saṅgrāmaṁ na kariṣyasi
tataḥ sva-dharmaṁ kīrtiṁ ca
hitvā pāpam avāpsyasi (Bhagavad Gita 2.33)

If, however, you do not perform your religious duty of fighting, then you will certainly incur sins for neglecting your duties and thus lose your reputation as a fighter.

Kesava Kasmiri’s Commentary

Now Lord Krishna responds to Arjunas previous distress of not wanting to slay his enemies such as Bhishma and Drona but instead to allow his enemies to slay him. The use of the word atha is to emphasise another point of view that if Arjuna declines to fight this righteous war and chooses to disregard the acquisition of happiness in either this world or the heavenly worlds as enjoined in the Vedic scriptures which state that the royal orders should conquer over his enemies and rule over the earth. Then by refusing to accept his responsibility and avoiding the battle Arjuna would be abandoning his duty which brings rewards and boundless glory and thus losing his reputation both worldly and divine which results from the victory of a great warrior Arjuna would in fact incur great sin.

yadṛcchayā copapannaṁ
svarga-dvāram apāvṛtam
sukhinaḥ kṣatriyāḥ pārtha
labhante yuddham īdṛśam (Bhagavad Gita 2.32)

O Pārtha, happy are the kṣatriyas to whom such fighting opportunities come unsought, opening for them the doors of the heavenly planets.

atha cet tvam imaṁ dharmyaṁ
saṅgrāmaṁ na kariṣyasi
tataḥ sva-dharmaṁ kīrtiṁ ca
hitvā pāpam avāpsyasi (Bhagavad Gita 2.33)

If, however, you do not perform your religious duty of fighting, then you will certainly incur sins for neglecting your duties and thus lose your reputation as a fighter.

Kesava Kasmiri's Commentary

Now Lord Krishna responds to Arjunas previous distress of not wanting to slay his enemies such as Bhishma and Drona but instead to allow his enemies to slay him. The use of the word atha is to emphasise another point of view that if Arjuna declines to fight this righteous war and chooses to disregard the acquisition of happiness in either this world or the heavenly worlds as enjoined in the Vedic scriptures which state that the royal orders should conquer over his enemies and rule over the earth. Then by refusing to accept his responsibility and avoiding the battle Arjuna would be abandoning his duty which brings rewards and boundless glory and thus losing his reputation both worldly and divine which results from the victory of a great warrior Arjuna would in fact incur great sin.
Posted in छोटी कहानिया - १०,००० से ज्यादा रोचक और प्रेरणात्मक

Husband comes home drunk and breaks some crockery


 

Husband comes home drunk and breaks some crockery,
vomits and falls down on the floor…
Wife pulls him up and cleans everything.

Next day wen he gets up he expects her to be really angry wid him….
He prays that they shouldd not have a
fight..
He finds a note near the table…

“Honey..your favourite breakfast is ready on the table,
i had to leave early to buy grocery…
i’ll come running back to you, my love.
I love you. …

He gets surprised and asks his son..,
‘what happened last night..?

Son told…,”

when mom pulled you to bed and tried
removing your boots and shirt..
you were dead drunk and you said……

” Hey Lady ! Leave Me Alone…
I M Married !!!

Thats True Love…
its all crazy:))

Posted in P N Oak

राधे ,राधे ,राधे राधे ,


टीवी पर अकसर देखता हूँ अधिकतर साधू संत कृष्ण कथाओ मे बताते है !

कृष्ण बंसी बाजा रहे है ,गोपिया आनद ले रही है ,

राधे ,राधे ,राधे राधे ,

कृष्ण मटकिया फोड़ रहे है मांखन चुरा रहे है
यशोधा मैया डांट रही है !

फिर राधे राधे,राधे राधे ,माताएँ,बहने नाच रही हैं !
लगभग यही चलता है !

चलो ठीक है ! लेकिन यहाँ उद्देश्य किसी की धार्मिक भावनाओ को आहात करना
नहीं है मित्रो !!
_____________
बस इतना ही कहना चाहता हूँ आज भारतीय समाज को हिन्दू समाज को
रास रचाने वाले कृष्ण की नहीं बल्कि सुदर्शन चक्रधारी श्री कृष्ण की कथाएँ
सुनाने की अधिक आवश्यकता है !

आज आवश्यकता है उस प्रभु राम की कथा सुनाने की जिन्होने वन मे अनेकों
राक्षसो का वध किया !

Posted in छोटी कहानिया - १०,००० से ज्यादा रोचक और प्रेरणात्मक

Story – Shree ‪#‎Ram‬ and Squirrel


Story – Shree ‪#‎Ram‬ and Squirrel- Importance of ‪#‎Satseva‬

ShriRam decided to wage war with Ravan to release Sita who was captured by Ravan. ShriRam started his travel to Lanka. He was accompanied by his brother Lakshman, and a large army of Vanars. On the way they came across a vast ocean which had to be crossed in order to reach Lanka. Rama attempted to calm the raging ocean by shooting his arrows into the waves. But the King of the Sea rose up and said, “The sea can not be overcome by force, but only by building a strong bridge.” So, Rama told his monkey soldiers to construct a stone bridge that could hold the weight of his entire army.

First few attempts failed as the rocks started slipping from ocean floor. Deity Hanuman then inscribed the words ShriRam on each stone. The stones started to float .

All the monkey-soldiers were carrying huge stones and enormous boulders with ShriRam written on them to the seaside. Thousands of monkeys worked ceaselessly and ShriRam was pleased. Then the ShriRam noticed that a small brown squirrel rushed up and down the hills to the shore carrying little pebbles in her mouth. The monkeys also saw the squirrel and they got angry. “Get out of our way,” they said “You are too small. Your efforts are not needed.”

The little squirrel looked up and said, “I am helping to build the bridge that will carry all of you and save Sita.” All the monkeys began to laugh and mock the little squirrel.

The squirrel answered, “I can not carry rocks or stones. But I can lift only small pebbles. This is what I can do to help. My heart weeps for Sita and I want to be of assistance.”

ShriRam picked up little squirrel in his fingers and stroked it’s back thus marking its skin with his fingers. “What truly matters is not the strength one has, but how large is one’s love and devotion.” In that moment, the monkeys realized that little pebbles were needed to be placed between the larger stones to keep the bridge from collapsing.

To read more about satseva, please clickhttp://www.spiritualresearchfoundation.org/spiritualresearch/happiness/gaininghappiness/happiness_servicetogod_f

‪#‎Hindu‬ ‪#‎Hindus‬ ‪#‎ShreeRam‬ ‪#‎Ravan‬ ‪#‎Squirrel‬ ‪#‎Ramsetu‬

Story - Shree #Ram and Squirrel- Importance of #Satseva 

ShriRam decided to wage war with Ravan to release Sita who was captured by Ravan. ShriRam started his travel to Lanka. He was accompanied by his brother Lakshman, and a large army of Vanars. On the way they came across a vast ocean which had to be crossed in order to reach Lanka. Rama attempted to calm the raging ocean by shooting his arrows into the waves. But the King of the Sea rose up and said, "The sea can not be overcome by force, but only by building a strong bridge." So, Rama told his monkey soldiers to construct a stone bridge that could hold the weight of his entire army.

First few attempts failed as the rocks started slipping from ocean floor. Deity Hanuman then inscribed the words ShriRam on each stone. The stones started to float .

All the monkey-soldiers were carrying huge stones and enormous boulders with ShriRam written on them to the seaside. Thousands of monkeys worked ceaselessly and ShriRam was pleased. Then the ShriRam noticed that a small brown squirrel rushed up and down the hills to the shore carrying little pebbles in her mouth. The monkeys also saw the squirrel and they got angry. "Get out of our way," they said "You are too small. Your efforts are not needed."

The little squirrel looked up and said, "I am helping to build the bridge that will carry all of you and save Sita." All the monkeys began to laugh and mock the little squirrel.

The squirrel answered, "I can not carry rocks or stones. But I can lift only small pebbles. This is what I can do to help. My heart weeps for Sita and I want to be of assistance."

ShriRam picked up little squirrel in his fingers and stroked it's back thus marking its skin with his fingers. "What truly matters is not the strength one has, but how large is one's love and devotion." In that moment, the monkeys realized that little pebbles were needed to be placed between the larger stones to keep the bridge from collapsing.

To read more about satseva, please click http://www.spiritualresearchfoundation.org/spiritualresearch/happiness/gaininghappiness/happiness_servicetogod_f

#Hindu #Hindus #ShreeRam #Ravan #Squirrel #Ramsetu
Posted in श्री कृष्णा

कृष्ण और बौद्ध काल के बीच के खोए हुए पन्ने


कृष्ण और बौद्ध काल के बीच के खोए हुए पन्ने

मध्‍यकाल में भारतीय इतिहास को तोड़ा-मरोड़ा गया। तक्षशिला और पाटलीपुत्र के ध्वंस के बाद महाभारत युद्ध और बौद्ध काल के बीच के हिंदू इतिहास के अब बस खंडहर ही बचे हैं। विदेशी इतिहासकारों ने जानबूझकर इस काल के इतिहास को विरोधाभासी बनाया। क्योंकि उन्हें भारत में नए धर्म को स्थापित करना था। दरअसल बुद्ध के पूर्व के संपूर्ण इतिहास को नष्ट किए जाने का संपूर्ण प्रयास किया गया। इस धूमिल से इतिहास को इतिहासकारों ने खुदाईयों और ग्रंथों की खाक छानते हुए क्रमबद्ध करने का प्रयास किया है।

हड़प्पा, सिंधु और मोहनजोदड़ों सभ्यता का प्रथम चरण 3300 से 2800 ईसा पूर्व, दूसरा चरण 2600 से 1900 ईसा पूर्व और तीसरा चरण 1900 से 1300 ईसा पूर्व तक रहा। इतिहासकार मानते हैं कि यह सभ्यता काल 800 ईस्वी पूर्व तक चलता रहा।

प्रथम चरण के काल में महाभारत हुई, दूसरे चरण के काल में मिस्र के फराओं और भारत के कुरु और पौरवो के राजवंश थे। तीसरे चरण में यहूदी धर्म के संस्थापक इब्राहिम, मूसा, सुलेमान ने यहूदी वंशों का निर्माण किया तो भारत में सभी वंशों के 16 महाजनपदों का उदय हुआ। हड़प्पा से पहले सिंधु नदी के आसपास मेहरगढ़ की सभ्यता का अस्तित्व था। उससे पूर्व मध्यप्रदेश में भीमबेटका में भारत की सबसे प्राचीन सभ्यता को खोजा गया जिसका काल 9000-7000 ईसा पूर्व था। यहां गुफाओं में कुछ शैलचित्र ऐसे भी मिले हैं जिनकी उम्र कार्बनडेटिंग अनुसार 35 हजार ईसा पूर्व की मानी गई है।

सिंधु या मोहनजोदड़ो के काल में इराक में सुमेरी और मिस्र में सबाइन सभ्यता सबसे विकसित सभ्यता थी। मोहदजोदड़ों हड़प्पा से मिलने वली मुहरें, बर्तन, भित्तिचित्र आदि ईरान, मिस्र और इराकी सभ्यताओं में पाई गई मुहरों आदि से मिलती जुलती है। सिंधु घाटी की कई मोहरें सुमेरिया से मिली है जिससे यह भी सिद्ध होता है कि इस देश के उस काल में भारत से संबंध थे।
2800 से 1900 ईसापूर्व के बीच भारत में किन राजवंशों का राज था इसका उल्लेख पुराणों में मिलता है। इस काल में धर्म का केंद्र हस्तीनापुर, मधुरा आदि से हटकर तक्षशिला हो गया था। अर्थात पेशावर से लेकर हिंदुकुश के इलाके में बहुत तेजी से परिवर्तन हो रहे थे।

1300 ईसा पूर्व भारत 16 महाजनपदों में बंटा गया- 1. कुरु, 2. पंचाल, 3. शूरसेन, 4. वत्स, 5. कोशल, 6. मल्ल, 7. काशी, 8. अंग, 9. मगध, 10. वृज्जि, 11. चे‍दि, 12. मत्स्य, 13. अश्मक, 14. अवंति, 15. गांधार और 16. कंबोज। अधिकांशतः महाजनपदों पर राजा का ही शासन रहता था, परंतु गण और संघ नाम से प्रसिद्ध राज्यों में लोगों का समूह शासन करता था। इस समूह का हर व्यक्ति राजा कहलाता था।

महाभारत के बाद धीरे-धीरे धर्म का केंद्र तक्षशिला (पेशावर) से हटकर मगध के पाटलीपुत्र में आ गया। गर्ग संहिता में महाभारत के बाद के इतिहास का उल्लेख मिलता है। मुस्लिम आक्रांताओं द्वारा तक्षशिला और पाटलीपुत्र के संहार किए जाने के कारण महाभारत से बुद्धकाल तक के इतिहास का अस्पष्ट उल्लेख मिलता है।

यह काल बुद्ध के पूर्व का काल है, जब भारत 16 जनपदों में बंटा हुआ था। हर काल में उक्त जनपदों की राजधानी भी अलग-अलग रही, जैसे कोशल राज्य की राजधानी अयोध्या थी तो बाद में साकेत और उसके बाद बौद्ध काल में श्रावस्ती बन गई।

महाभारत युद्ध के पश्चात पंचाल पर पाण्डवों के वंशज तथा बाद में नाग राजाओं का अधिकार रहा। पुराणों में महाभारत युद्ध से लेकर नंदवंश के राजाओं तक 27 राजाओं का उल्लेख मिलता है।

महाभारत काल के बाद अर्थात कृष्ण के बाद हजरत इब्राहीम का काल ईस्वी पूर्व 1800 है अर्थात आज से 3813 वर्ष पूर्व का अर्थात कृष्ण के 1400 वर्ष बाद ह. इब्राहीम का जन्म हुआ था। यह उपनिषदों का काल था। ईसा से 1000 वर्ष पूर्व लिपिबद्ध किए गए छांदोग्य उपनिषद में महाभारत युद्ध के होने का जिक्र है।

हजरत इब्राहीम के काल में वेद व्यास के कुल के महान संत ‘सुतजी’ थे। इस काल में वेद, उपनिषद, महाभारत और पुराणों को फिर से लिखा जा रहा था। सुतजी और इब्राहीम का काल थोड़ा-बहुत ही आगे-पीछे रहा।

इस काल में उत्तर वैदिक काल की सभ्यता का पतन होना शुरू हो गया था। इस काल में एक और जहां जैन धर्म के अनुयायियों और शासकों की संख्‍या बढ़ गई थी वहीं धरती पर यहूदियों के वंश विस्तार की कहानी लिखी जा रही थी। हजरत इब्राहीम इस इराक का क्षेत्र छोड़कर सीरिया के रास्ते इसराइल चले गए थे और फिर वहीं पर उन्होंने अपने वंश और यहूदी धर्म का विस्तार किया।

इस काल में भरत, कुरु, द्रुहु, त्रित्सु और तुर्वस जैसे राजवंश राजनीति के पटल से गायब हो रहे थे और काशी, कोशल, वज्जि, विदेह, मगध और अंग जैसे राज्यों का उदय हो रहा था। इस काल में आर्यों का मुख्य केंद्र ‘मध्यप्रदेश’ था जिसका प्रसार सरस्वती से लेकर गंगा दोआब तक था। यही पर कुरु एवं पांचाल जैसे विशाल राज्य भी थे। पुरु और भरत कबीला मिलकर ‘कुरु’ तथा ‘तुर्वश’ और ‘क्रिवि’ कबीला मिलकर ‘पंचाल’ (पांचाल) कहलाए।

अंतिम राजा निचक्षु : महाभारत के बाद कुरु वंश का अंतिम राजा निचक्षु था। पुराणों के अनुसार हस्तिनापुर नरेश निचक्षु ने, जो परीक्षित का वंशज (युधिष्ठिर से 7वीं पीढ़ी में) था, हस्तिनापुर के गंगा द्वारा बहा दिए जाने पर अपनी राजधानी वत्स देश की कौशांबी नगरी को बनाया। इसी वंश की 26वीं पीढ़ी में बुद्ध के समय में कौशांबी का राजा उदयन था। निचक्षु और कुरुओं के कुरुक्षेत्र से निकलने का उल्लेख शांख्यान श्रौतसूत्र में भी है।

जन्मेजय के बाद क्रमश: शतानीक, अश्वमेधदत्त, धिसीमकृष्ण, निचक्षु, उष्ण, चित्ररथ, शुचिद्रथ, वृष्णिमत सुषेण, नुनीथ, रुच, नृचक्षुस्, सुखीबल, परिप्लव, सुनय, मेधाविन, नृपंजय, ध्रुव, मधु, तिग्म्ज्योती, बृहद्रथ और वसुदान राजा हुए जिनकी राजधानी पहले हस्तिनापुर थी तथा बाद में समय अनुसार बदलती रही। बुद्धकाल में शत्निक और उदयन हुए। उदयन के बाद अहेनर, निरमित्र (खान्दपनी) और क्षेमक हुए।

मगध वंश में क्रमश: क्षेमधर्म (639-603 ईपू), क्षेमजित (603-579 ईपू), बि‍म्बिसार (579-551), अजातशत्रु (551-524), दर्शक (524-500), उदायि (500-467), शिशुनाग (467-444) और काकवर्ण (444-424 ईपू) ये राजा हुए।

नंद वंश में नंद वंश उग्रसेन (424-404), पण्डुक (404-294), पण्डुगति (394-384), भूतपाल (384-372), राष्ट्रपाल (372-360), देवानंद (360-348), यज्ञभंग (348-342), मौर्यानंद (342-336), महानंद (336-324)। इससे पूर्व ब्रहाद्रथ का वंश मगध पर स्थापित था।

अयोध्या कुल के मनु की 94 पीढ़ी में बृहद्रथ राजा हुए। उनके वंश के राजा क्रमश: सोमाधि, श्रुतश्रव, अयुतायु, निरमित्र, सुकृत्त, बृहत्कर्मन्, सेनाजित, विभु, शुचि, क्षेम, सुव्रत, निवृति, त्रिनेत्र, महासेन, सुमति, अचल, सुनेत्र, सत्यजित, वीरजित और अरिञ्जय हुए। इन्होंने मगध पर क्षेमधर्म (639-603 ईपू) से पूर्व राज किया था।

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शहजादा सलीम(जहागीर) ओर मेहरू की


इतिहास की अनकही कहानिया(The untold story of history)

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मित्रो इतिहास मे कई वीरो की गाथाए है जो खो गई है ओर कई वीरो की वीरता के कार्यो का श्रेय किसी दूसरे को दिया गया लेकिन यहा यह लेख कोई वीर या वीरता की गाथा को नही है बल्कि एक महान प्रेम कहानी को सम्प्रित है|
भारत देश मे हीर रांझा,सलीम अनारकली,शाहजहा मुमताज कई प्रेमियो की कहानिया प्रसिध्द है तो कई इतिहास मे दबी पडी है|
इनमे से एक महान प्रेम कहानी है शहजादा सलीम(जहागीर) ओर मेहरू की
मेहरू का पूरा नाम मेहरून्निया था ओर वो एक विवाहित महिला थी जिसकी एक कन्या भी थी लेकिन शहजादा सलीम इस शादी शुदा औरत से दिलो जान से मुहब्बत करता था| इतना प्रेम करता था कि उसके अपने पिता अकबर से भी मतभेद हो गया था क्युकि अकबर ने सलीम से मेहरू का निकाह नही किया था बल्कि उसका निकाह शेर अफगान से कर दिया था इसलिए सलीम चाहता था कि किसी तरह अकबर को गद्दी से उतार कर खुद बादशाह बन मेहरू से निकाह कर लू|
लेकिन अकबर प्यार मे विश्वास नही करता था उसका मानना था कि सुन्दर स्त्रिया भोगने के लिए होती है गले बाधने के लिए नही|
सन १६०४ ईस्वी मे अकबर आगरा मे इतना बीमार पड गया था कि उसे दस्त ओर पेट मे ऐंठन होने लगी थी उसका समय निकट आ गया था| उसे किसी को अपनी गद्दी ओर राजपाठ का उत्तराधिकारी घोषित करना था,अकबर के सलीम से मतभेद तो थे लेकिन फिर भी उसकी इच्छा थी कि सलीम ही मुगल सल्तन्त का बादशाह बने|लेकिन मानसिह का सलीम से इतना मतभेद हो गया था कि मानसिह सलीम को जान से मार देता लेकिन उसकी बहन को उसने सलीम के प्राणदान का वचन दिया था ,मानसिंह चाहता था कि सलीम का भाई खुसरो बादशाह बने इस तरह सलीम के बादशाह बनने मे सबसे बडा काटा मानसिह ही था | अकबर की चाह थी कि सलीम ही बादशाह बने लेकिन मानसिह रूकावट है इसलिए अकबर ने मानसिह को जान से मारने की योजना सोचने लगा| उसने उस वेद्य को बुलाया जो उसका उपचार कर रहा था उसने हकीम से कहा कि ऐसी जहर की गोली बनायी जाए जो धीरे धीरे असर करे ओर उसकी कोई काट न हो ओर आदमी धीरे धीरे मर जाए | हकीम ने ऐसा ही एक गोली बनाई फिर अकबर ने दो रसगुल्ले बनवाए ओर उनमे एक रसगुल्ले मे वो जहर की गोली रखवा दी ओर दोनो रसगुल्लो पर अलग अलग वक्र चढा दिए ताकि पहचान हो कौनसे मे जहर की गोली है | फिर अकबर ने मानसिह को बुलाया ओर उससे रसगुल्ला खाने को कहा लेकिन पता नही कैसे अकबर ने गलती से जहर वाला रसगुल्ला खुद खा लिया| धीरे धीरे अकबर की तबीयत बिगडने लगी ओर रात्रि मे उसे अपना दम घुटती महसूस होने लगा हकीम ने उसे कई दवाईया दी लेकिन किसी का कोई असर नही हुआ अकबर का समय निकट था|
अकबर ने किसी तरह सलीम को अपने पास बुलाया ओर उसे बादशाह घोषित किया ओर अपनी कटार सलीम के पीठ पर बंधवा दी|
लेकिन सलीम को अपने बादशाह बनने से खुशी नही थी क्युकि उसकी मूल इच्छा तो ईरानी विवाहित औरत एक कन्या की मा मेहरू मे अटकी थी|
बादशाह बनने के बाद सलीम ने शेर अफगान को दूर किसी मिशन पर भेज दिया ओर सलीम गुप्त रूप से मेहरू से भेट करने गया ओर मेहरू को निकाह का प्रस्ताव भी दिया यहा तक की उसे शहजादी बनने का लालच भी दिया लेकिन मेहरू ने इंकार कर दिया उस दिन जहागीर बहुत क्रोधित हुआ ओर उसने इतनी मदिरा पी ओर नशे मे बडबडाने लगा | इस तरह सलीम ने कई बार मेहरू को मनाने की कोशिश की लेकिन हर बार वो असफल रहा लेकिन वो मेहरू से इतना प्रेम करता था कि उसने कभी जबरदस्ती नही कि नही तो मुगल खानदान मे तो जो सुन्दर युवती दिखती उसे लौंडी भी बना लिया जाता था लेकिन सलीम ने मेहरू को लौंडी नही बनाया|
लेकिन सलीम था तो पागल आशिक उसने शेर अफगान का धोखे से आगरा मे कत्ल कर दिया ओर मेहरू को निकाह का सन्देश भेजा लेकिन फिर मेहरू ने अस्वीकार कर दिया| इसी तरह बार बार असफल होने के बाद अन्त मे सन१६११ मे मेहरु ने उसे निकाह करने की स्वीकृति दी ओर इस प्रकार ४२ वर्ष की आयु मे जब जहागीर खुद दादा बन चुका था तब उसने अपनी प्रेमिका मेहरू से निकाह किया|
इस प्रकार उस प्रेम कहानी का अन्त हुआ| जिसमे पुत्र को पिता के प्रति विद्रोह करना पडा,किसी सुहागीन को विधवा बनना पडा,ओर एक प्रेमी को अपनी प्रेमिका के लिए वर्षो प्रतिज्ञा करनी पडी|
यही मेहरू आगे चल कर इतिहास मे नूरजहा ,नूरमहल के नाम से प्रसिध्द हुई|
ऐसे महान आशिक को हमारा सलाम है|